शनिवार, 31 मई 2014

बलात्कार और पुलिस



 बलात्कार और पुलिस
एस.आर.दारापुरी, आई.पी.एस (से.नि.)   
हाल में बदायूं में दो दलित लड़कियों के साथ बलात्कार और हत्या के मामले में पुलिस की कार्रवाही न केवल अपने कर्तव्य के प्रति लापरवाही बल्कि अपराध में उनकी संलिप्तता को भी दर्शाती है. उपलब्ध जानकारी के अनुसार दोनों लड़कियों के ग़ायब होने की सूचना पुलिस को रात में ही प्राप्त हो गयी थी. यदि पुलिस ने उस पर तुरंत कार्रवाही शुरू कर दी होती तो शायद दोनों लकड़ियों की जान बच जाती. परन्तु पुलिस की लापरवाही और मिली भगत की परिणति दो मासूम लड़कियों का बलात्कार और हत्या में हुयी.
यह भी सर्वविदित है कि पुलिस अपराधों की प्रथम सूचना दर्ज करने में हद दर्जे की हीलाहवाली करती है जिस के गंभीर परिणाम होते हैं जैसा कि बदायूं वाली घटना में हुआ. पुलिस ऐसा कई कारणों से करती है. पुलिस के इस आचरण के लिए केवल थाना स्तर के कर्मचारी ही नहीं बल्कि  उच्च अधिकारी जहाँ तक कि मुख्य मंत्री तक भी जिम्मेवार होते हैं. ऐसा इसी लिए होता है कि राजनीतिक कारणों से हरेक मुख्य मंत्री अपने शासनकाल में पूर्व सरकार की अपेक्षा अपराध के आंकड़े कम करके दिखाने की कोशिश करता है. अधिकतर पुलिस से  सरकार की यह अपेक्षा गुप्त होती है परन्तु होती ज़रूर है.  
वर्तमान में पुलिस की कार्यकुशलता का मूल्यांकन अपराध के आंकड़ों के आधार पर होता है न कि क्षेत्र में वास्तविक अपराध नियंतरण एवं शांति व्यवस्था के आधार पर. इसी लिए पुलिस का सारा ध्यान आंकड़ों को फिट रखने में ही लगा रहता है. इस का सब से आसान तरीका अपराधों का दर्ज न करना होता है. यह भी सर्वविदित है कि विभिन्न कारणों से अपराध का ग्राफ हमेशा ऊपर की ओर बढ़ता है न कि नीचे की ओर. हाँ इतना ज़रूर है कि सक्रिय एवं दक्ष पुलिस अपराध को कुछ हद तक नियंतरण में रख सकती है परन्तु इस में बहुत बड़ी कमी लाना बहुत मुश्किल है. इसी लिए अपराध के सरकारी आंकड़े कुल घटित अपराध का बहुत छोटा हिस्सा ही होते हैं. अपराध के आंकड़े कम रखने में पुलिस का भी निहित स्वार्थ है. इस से एक तो उनका काम हल्का हो जाता है. दूसरे इस में भ्रष्टाचार का स्कोप भी बढ़ जाता है.
आम जनता की पुलिस से यह अपेक्षा रहती है कि उन की रिपोर्ट तत्परता से लिखी जानी चाहिए और उस पर त्वरित कार्रवाही हो. ऐसा तभी संभव है जब सरकार द्वारा थाने पर स्वतंत्रता से अपराध दर्ज करने की छूट दी जाये. आज कल तो सत्ताधारी लोग थाने पर रिपोर्ट लिखने अथवा न लिखने में भी भारी दखल रखते हैं. जिस मामले में सरकार चाहती है रिपोर्ट दर्ज होती है जिस में नहीं चाहती वह दर्ज नहीं होती है. इसी कारण से जिन मामलों में पुलिस वाले रिपोर्ट दर्ज न करने के दोषी भी पाए जाते हैं जैसा कि बदायूं वाले मामले में भी है उन में भी पुलिस वालों के खिलाफ कोई कार्रवाही नहीं होती. दलित और कमज़ोर वर्ग के मामलों में तो यह पक्षपात और लापरवाही खुले तौर पर होती है.
महिलायों के मामलों में थाने पर पुलिस का व्यवहार शिकायत करता को हतोउत्साहित करने एवं टालने वाला होता है. यदि कोई व्यक्ति थाने पर अपनी बेटी की गुमशुदगी की रिपोर्ट करने जाता है तो पुलिस रिपोर्ट न लिख कर उस के घर वालों को उसकी तलाश करने की हिदायत दे कर चलता कर देती है.  इसी प्रकार बलात्कार के मामलों में तुरंत मुकदमा दर्ज न करके पुलिस दोषी पक्ष को बुला कर वादी से समझौता करने के लिए दबाव डालती है. इस प्रक्रिया में कई बार मुकदमा दर्ज होने और डाक्टरी होने में काफी विलम्ब  हो जाता है जिस से डाक्टरी जांच का परिणाम भी कुप्रभावित हो जाता है. पुलिस के कार्यकलाप में जातिभेद भी काफी हद तक हावी रहता है. आम लोगों का कहना है कि थाने पर वादी और दोषी की जात देख कर कार्रवाही होती है. वर्तमान में पुलिस बल का जातिकरण और राजनीतिकरण इस आरोप को काफी बल देता है.
अतः महिलायों पर बलात्कार एवं अन्य अपराधों के त्वरित पंजीकरण एवं प्रभावी कार्रवाही हेतु सब से पहले ज़रूरी है कि थाने पर अपराधों का स्वतंत्र रूप से पंजीकरण हो जिस के लिए सरकार द्वारा पुलिस को पूरी छूट दी जानी चाहिए. इस के लिए अपराध पंजीकरण हेतु एक अलग शाखा बनाने पर भी विचार किया जा सकता है. दूसरे अपराध छुपाने और दर्ज न करने वाले पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाही होनी चाहिए. तीसरे पुलिस कर्चारियों को महिलायों, बच्चों, दलितों और समाज के कमज़ोर वर्गों के प्रति संवेदनशील बनाने हेतु निरंतर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. इन सब से बढ़ कर ज़रूरत है सुप्रीम कोर्ट द्वारा आदेशित किये गए पुलिस सुधार को लागू करने की ताकि पुलिस को कार्य स्वतंत्रता मिल सके और वह सत्ताधारियों की बजाये जनता के प्रति जवाबदेह बन सके. तभी वर्तमान की शासक वर्ग की पुलिस को जनता की पुलिस में रूपांतरित करना संभव हो सकेगा.   
      

बुधवार, 28 मई 2014

आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आर) के प्रमुख मुद्दे



आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आर) के  प्रमुख मुद्दे
आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) के राष्ट्रीय संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह द्वारा 7 फरवरी, से 16 फरवरी, 2014 तक संसद के सामने जन्तर मंतर, नयी दिल्ली पर दस दिवसीय अनशन और धरने के मुख्य मुद्दे जो आज भी प्रासंगिक हैं:
साथियो!
देश में एक बार फिर बदलाव के पक्ष में जनता का विश्वास बढ़ा है। जिन लोगों ने अवाम की जिदंगी को तबाह कर रखा है उनकी शिनाख्त अब जनता करने लगी है। आने वाले दिनों में ऐसी ताकतों के बारे में जनता की समझ और भी साफ हो जायेगी। लोकपाल कानून देश में पारित हो गया। कौन नहीं जानता कि कारपोरेट घरानों यानी बड़े पूंजीपतियों ने पूरे राजनीतिक तंत्र को भ्रष्ट कर दिया है, सरकारी परियोजनाओं में ठेके, टेण्डर या पीपीपी प्रोजेक्ट हासिल कर प्राकृतिक संसाधनों व जनता की सम्पत्ति को औने-पौने दाम पर सरकारों से खरीद लिया है, अपने मुनाफे के लिए देश को तबाह कर दिया है। लेकिन कारपोरेट को लोकपाल के दायरे में नहीं रखा गया है। इस सवाल पर देश में अभी और लड़ाई होनी बाकी है।
आए दिन पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस के दाम तेल कम्पनियों को फायदा पहुंचाने और सरकारी तामझाम पर खर्च करने के लिए बढ़ाए जा रहे हैं। यहां तक कि खाने की चीजों व सब्जियों में भी सट्टेबाजी हो रही है और जिसके कारण दाम बढ रहे हैं लेकिन इस पर रोक नहीं लग रही है। प्रधानमंत्री महोदय ने यह स्वीकार किया है कि वह महंगाई नहीं रोक पाए पर वह यह नहीं बता रहे है कि महंगाई की प्रमुख वजह सट्टेबाजी पर रोक क्यो नहीं लगा पाए ? प्रधानमंत्री कहते हैं कि हम रोजगार नहीं दे पाए, महोदय जब आप खेती-बाड़ी, कल-कारखानों को विदेशी कम्पनियों और कारपोरेट घरानों के हवाले करने की रोजगारविहीन आर्थिक नीतियों को लागू करने में लगे रहे तब रोजगार पैदा ही कहां से होगा। देश आजाद हो रहा था, गांधी जी देश के विभाजन से हताश और निराश थे, बन रहे संविधान में रोजगार को मौलिक अधिकार नहीं बनाया गया, उनके दबाब में इसे संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में डाला गया। वीपी सिंह की सरकार बनी, सरकार और राष्ट्रपति ने घोषणा भी की कि रोजगार के अधिकार को संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल किया जायेगा लेकिन आज तक यह नहीं हुआ। नौजवान ही नहीं प्रधानमंत्री जी आपकी नीतियों, जिसके पैरोकार मोदी से लेकर मुलायम तक है, ने किसानों और हमारे कुटीर उद्योगों में लगे लोगों की जिदंगी को तबाह कर दिया। लाखों किसान और गरीब आत्महत्या कर चुके है और रोज ब रोज हो रही आत्महत्याओं का कोई आकंडा नहीं है। हालत यह हो गयी है कि किसानों के लाभकारी मूल्य की बात तो छोड़ दीजिए जो उन्होंने पैदा किया है वह भी खरीदा नहीं जा रहा है और जो कुछ खरीदा गया है उसका न्यायालयों के आदेश के बाद भी भुगतान नहीं किया गया। कानून व्यवस्था की हालत यह है कि आए दिन तमाम विराधों के बाबजूद महिलाओं को अपमान और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ रहा है। समाज के उत्पीडि़त तबके चैतरफा हमले के शिकार है। हमारे देश में जो लोग दंगाईयों द्वारा घरों से बेदखल किए जा रहे है और कब्रगाहों तक में शरण लिए है उनके रैनबसेरों पर बुलडोजर चलाया जा रहा है।
 साथियो, जब तक लोकतंत्र के नाम पर कारपोरेट राज चलेगा तब तक देश में तबाही, बर्बादी, दंगा-फसाद जारी रहेगा। इसलिए कारपोरेट राज के खिलाफ जनता के राज के लिए निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी, बीच का कोई रास्ता नहीं है। आल इण्डिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) अपने जन्मकाल से ही जनपक्षीय नीतियों और जनराजनीति के लिए लड़ाई जारी रखे हुए है। रोजगार को मौलिक अधिकार बनाने, कारपोरेट घरानों को लोकपाल कानून के दायरे में ले आने व उन पर टैक्स बढ़ाने, राष्ट्रीय वेतन नीति बनाने, शिक्षा-स्वास्थ्य-कृषि समेत जनहित के मदों पर खर्च बढ़ाने, अल्पसंख्यकों व महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी और पूरे देश में कानून का राज स्थापित करने जैसे महत्वपूर्ण सवालों पर 07 फरवरी से जंतर-मंतर पर दस दिवसीय घरना व उपवास किया जायेगा। 
आंदोलन के मुद्दे
रोजगार के सम्बन्ध में-
1. रोजगार के अधिकार को संविधान में मौलिक अधिकार घोषित किया जाए।
2. देश के बड़े पूंजीपतियों यानी कारपोरेट घरानों पर सम्पत्ति कर में भारी बढ़ोतरी की जाए तथा तमाम छूटों एवं इसके कानूनों व नियमों में मौजूद कमियों का अंत कर इसके दायरे को व्यापक बनाया जाए। उत्तराधिकार कर को लागू किया जाए। 
3. एक राष्ट्रीय वेतन और आय नीति बनायी जाए जो विभिन्न क्षेत्रों व वर्गों के बीच असमानता में भारी कमी करे।
4. विभिन्न विभागों/उद्योगों में स्थायी काम में कार्यरत दिहाड़ी व ठेका मजदूरों को विनियमित किया जाए। 
5. आंगनबाड़ी, आशा, शिक्षा मित्रों व रसोइयों समेत सभी स्कीम वर्कर्स को सरकारी कर्मचारी का दर्जा दिया जाए।
 6. न्यूनतम मजदूरी 10,000 रुपये निर्धारित की जाए। 
7. सार्वजनिक क्षेत्रों, सरकारी सेवाओं व सभी स्तर के शिक्षा संस्थाओं में रिक्त पदों को तुरन्त भरा जाए।8. मनरेगा में हर हाल में 100 दिन का रोजगार सुनिश्चित किया जाए, रोजगार न देने की स्थिति में बेकारी भत्ता दिया जाय और बकाया मजदूरी का तुरन्त भुगतान किया जाए। मनरेगा जैसी योजना को शहरों में भी लागू किया जाए।
किसानों के हित में –
1. तत्काल प्रभाव से कृषि लागत मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाए।
2. कृषि के कारपोरेटीकरण की प्रत्यक्ष व परोक्ष पहल पर रोक लगे और इसके स्थान पर सहकारी कृषि को आर्थिक एवं प्रशासनिक मदद दी जाए।
 3. बंद पड़ी अथवा बंदी के कगार पर खड़ी निजी चीनी मिलों को किसान सहकारी समितियों को सौपा जाए तथा इनके संचालन के लिए राज्य सरकार द्वारा पूरी मदद दी जाए।
 4. कृषि योग्य उपजाऊ भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगें और किसानों व भूमिहीनों के हितों की रक्षा करने वाली भूमि अधिग्रहण व भूमि उपयोग नीति बनायी जाए।
5. वनाधिकार कानून को लागू किया जाए। 
6. किसानों को सस्ते दर पर खाद, बीज, डीजल, बिजली आदि की व्यवस्था की जाए। 
7. ठेका खेती और जेनेटिक सीड के इस्तेमाल पर रोक लगायी जाए।
भ्रष्टाचार व महंगाई के खिलाफ
1. कारपोरेट घराने जो सरकारी परियोजनाओं में ठेके, टेण्डर या पीपीपी प्रोजेक्ट हासिल करते है, उन्हें लोकपाल के दायरे में लाया जाए। 
2. बढ़ती महंगाई रोकने के लिए सट्टेबाजी, कालाबाजारी व जमाखोरी के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जाए और वायदा कारोबार पर रोक लगायी जाए। 
3. मूलभूत जरूरतों की आपूर्ति में बिचैलियों के संगठनों की भूमिका को नियंत्रित किया जाए और महंगाई पर लगाम लगाने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत किया जाए तथा उसका विस्तार किया जाए।  
4. प्राकृतिक संसाधनों की लूट अवैध खनन पर तत्काल प्रभाव से रोक लगायी जाये और उत्तर प्रदेश में जारी अवैध खनन की सीबीआई जांच करायी जाए। 
उद्योग व मजदूरों के लिए – 
1. बिजली दरों को बढ़ाना बंद किया जाए। बिजली क्षेत्र के निजीकरण पर रोक लगायी जाए और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को पूरी क्षमता से चलाया जाए। बिजली क्षेत्र के भ्रष्टाचार की सीबीआई से जांच करायी जाए। 
2. बुनकरों के कर्ज माफ किये जाए और उन्हें गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की तरह अन्य सभी सुविधायें मुहैया करायी जाए। बुनकरी समेत लधु व कुटीर उद्योगों को मुफ्त में बिजली दी जाए। 3. बुनकरों, धरेलू कामगार महिलाओं समेत असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के बने केन्द्रीय कानून 2008 को लागू किया जाए।
साम्प्रदायिकता के खिलाफ-
1. साम्प्रदायिकता पर रोक लगाने के लिए कड़ा कानून बनाकर कड़ी कार्रवाई की जाए।
2. साम्प्रदायिकता के मामलों की सुनवाई फास्ट टैªक कोर्ट द्वारा की जाए।
3. मुजफ्फरनगर के साथ ही सपा सरकार के शासनकाल में हुए दंगों की न्यायिक जांच करायी जाए और इसके लिए जवाबदेह नेताओं, पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को दंडित किया जाए।
4. आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार बेकसूर अल्पसंख्यक युवकों के मुकदमों के निस्तारण के लिए विशेष अदालतों का गठन हो और जितनी जल्दी हो सके जो निर्दोष हो, उनकी रिहाई हो और जो लोग अदालत द्वारा निर्दोष करार देकर छूट गये हैं, उन सबके पुनर्वास की गारंटी की जाए और उन्हें क्षतिपूर्ति दी जाए।
5. उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक आयोग का तत्काल गठन किया जाए।
सामाजिक न्याय के सम्बन्ध में-
1. पिछड़े मुसलमानों का कोटा अन्य पिछड़े वर्ग से अलग किया जाए। धारा 341 में संशोधन कर दलित मुसलमानों व ईसाइयों को अनुसूचित जाति में शामिल किया जाए। सच्चर कमेटी व रंगनाथ मिश्रा कमेटी की सिफारिशों को लागू किया जाय।
2. अति पिछड़ी जातियों को अन्य पिछड़े वर्ग में से अलग आरक्षण कोटा दिया जाए।
3. पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को जल्दी से जल्दी बहाल किया जाये.  
4. एससी/एसटी के कोटे के रिक्त सरकारी पदों को भरा जाए। 
5. निजी क्षेत्र में भी दलितों, आदिवासियों, अन्य पिछड़ा वर्ग व अति पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिया जाए। 
6. 0 प्र0 की कोल जैसी आदिवासी जातियों को जनजाति का दर्जा दिया जाए।
 जनहित के सम्बन्ध में-
1. कृषि, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य समेत जनहित के मदों में खर्च को बढ़ाया जाए। 
2. शिक्षा व स्वास्थ्य सेवा का बाजारीकरण बंद किया जाए और अनिवार्य तौर पर समान पड़ोस विद्यालय व्यवस्था (Neighbourhood Common School System) लागू की जाए।
3.सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा का विस्तार किया जाए। 
महिलाओं के सम्बन्ध में-
1. महिला आरक्षण बिल संसद द्वारा पारित किया जाए।
2. महिलाओं की हर हाल में सुरक्षा की गारंटी की जाये और उन पर जारी हिंसा के प्रति पुलिस को जवाबदेह बनाया जाये। उनके खिलाफ हुई हिंसा की तत्काल एफ0आई0आर0 दर्ज हो और महिला हिंसा व बलात्कार जैसे संवेदनशील सवालों की फास्ट टैªक कोर्ट द्वारा सुनवाई की जाए। 
3. महिलाओं को पुरूषों के बराबर वेतन का कड़ाई से अनुपालन कराया जाए। 
4. माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेश के अनुसार सभी विभागों में वूमेन सेलका तत्काल गठन किया जाए।
निवेदक: अखिलेन्द्र प्रताप सिंह, राष्ट्रीय संयोजक, आल इण्डिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ), प्रो0 निहालुद्दीन अहमद, उत्तरा विश्वविद्यालय, मलेशिया, एस. आर. दारापुरी, पूर्व आई.जी. व राष्ट्रीय प्रवक्ता, आइपीएफ।सम्पर्क पताः 4 माल एवेन्यू, निकट सत्संग भवन, लखनऊ, मो0 09450153307 


क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है?

  क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है ? हाल ही में हुई बहसों में सवाल उठाया गया है कि क्या अनुसूचित जाति के उपसमूहों में सकारात्म...