बुधवार, 30 अप्रैल 2014

मायावती का मोदी राग अलाप -एस. आर. दारापुरी



मायावती का मोदी राग अलाप
-एस. आर. दारापुरी
हाल में मायावती ने दलितों और मुसलमानों के वोट बटोरने के लिए मोदी का हव्वा दिखाते हुए यह कहा है कि अगर उन्होंने एक जुट होकर बसपा को वोट नहीं दिया तो मोदी जीत जायेगा और वह दलितों का आरक्षण ख़त्म कर देगा और देश भर में गोधरा काण्ड कराएगा. मायावती यह भी कह रही है कि केवल बसपा ही मोदी को रोक सकती है.
आइए मायावती के इस मोदी विरोध/ मोदी प्रेम की ऐतहासिकता पर एक नज़र डालें. यह सर्व विदित है कि मायावती आज जिस मोदी का हव्वा दिखा कर दलितों और मुसलमानों का भय  दोहन करना चाहती हैं , वह वही मोदी है जिस के पक्ष में मायावती ने 2003 में गुजरात जा कर विधान सभा चुनाव में प्रचार किया था और मोदी को गोधरा काण्ड में 2000 मुसलामानों के जन संहार के लिए कलीन चिट दी थी. इसके इलावा यह भी उल्लेखनीय है कि यह वही मायावती है जो उत्तर प्रदेश में तीन बार भाजपा से सहयोग लेकर मुख्य मंत्री की कुर्सी का सत्ता सुख भोग चुकी हैं.
यह भी विचारणीय है कि जब 1995 में कांशी राम ने सपा-बसपा की सरकार गिरा कर भाजपा की सहायता लेकर मायावती को मुख्य मंत्री बनवाया था उस समय भाजपा पूरे देश में अपने अस्तित्व को बचाने की लडाई लड़ रही थी और कांशी राम ने उत्तर प्रदेश में ही उसे सत्ता का संरक्षण देकर संजीवनी दी थी जिसका भाजपा ने पूरा फायदा उठाया और वह उत्तर प्रदेश में पुनर्जीवित हो गयी. मुझे याद है कि जिस दिन 1993 में मुलायम सिंह ने सपा-बसपा की संयुक्त सरकार के मुख्य मंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की थी उस रात को “ मिले मुलायम कांशी राम, हवा में उड़ गया जय श्री राम” का नारा इतना बुलंद हुआ था कि अगले सवेरे राजधानी में भाजपायियों के गेरुये गमशे गायब हो गए थे और दलितों और पिछड़ों के सामने में नए युग का सपना तैरने लगा था. पूरे देश में सारे दलितों और पिछड़ों में एक नए भविष्य का सपना उगने लगा था. परन्तु कांशी राम और मुलायम सिंह की सत्ता में लूट के बंटवारे की बंदरबांट की लडाई ने दलितों और पिछड़ों के इस सपने को चकना चूर कर दिया.
इस में 2 जून का गेस्ट हाउस काण्ड तो एक बहाना मात्र था. इस का पूरा खेल तो दिल्ली में पहले ही तय हो चुका का था. इस का असली सच्च तो यह था कि कांशी राम हरेक महीने मुलायम सिंह से मुख्य मंत्री को होने वाली आमदनी में हिस्सेदारी मांग रहे थे जिस के लिए वे जनता में मुलायम सिंह की आलोचना करते थे जो कि अनुचित था. किसी भी मतभेद की बात अन्दर बैठ कर तय की जानी चाहिए थी न कि पब्लिक प्लेटफार्म पर. जब जब मुलायम सिंह उन्हें हिस्सा (अटैची) दे देते थे तो वे यह कह कर चले जाते थे कि “अब मुलायम सिंह समझ गए हैं और अब वे ठीक काम करेंगे.” उस दौर में मैंने उन्हें कई बार मिल कर एक दलित एजंडा बना कर मुलायम सिंह को थमाने और कुछ खास पदों पर दलितों को बैठाने की सलाह दी थी जिसे उन्होंने यह कह कर टाल दिया था कि हम ने सारी जुम्मेदारी मुलायम सिंह को सौंप दी है. कांशी राम की इस बलैक मेलिंग से तंग आ कर मुलायम सिंह ने बसपा के काफी विधायकों को खरीद लिया. इस की भनक कांशी राम को तब लगी जब 29 मई को उस ने लखनऊ के मीरा बाई गेस्ट हाउस में अपने विधायकों की मीटिंग बुलाई तो उसमे बड़ी संख्या में विधायक नहीं आये. इस से कांशी राम का माथा ठनका कि मुलायम सिंह ने उनकी पार्टी के विधायकों को बड़ी संख्या में तोड़ लिया है. वे अगले दिन दिल्ली गए और भाजपा के नेताओं से सपा-बसपा की सरकार गिराकर मायावती को मुख्य मंत्री बनाने के लिए सहायता मांगी. “अँधा क्या मांगे दो आँखें” वाली कहावत चरितार्थ हुयी और भाजपा जो उस समय मुलायम सिंह से बहुत त्रस्त थी तुरंत सहायता देने के लिए तैयार हो गयी. इस पर एक जून को मायावती लखनऊ आई और उसने दो जून को अपने विधायकों की मीटिंग बुलाई और सभी को त्याग पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा. इस बीच यह खबर फ़ैल गयी कि बसपा समर्थन वापस लेकर सरकार गिराने जा रही है और अहमदाबाद से एक हवाई ज़हाज़ लखनऊ आ गया है जो बसपा के सभी विधायकों को अहमदाबाद ले जायेगा. इस की भनक जब मुलायम सिंह को लगी तो बसपा के उन विधायकों को जिन से सौदा पट चुका था गेस्ट हाउस से उठा लेने के लिए आदेशित किया. इस पर मुलायम सिंह के सिपहसलार गाड़ियां लेकर मीरा बाई मार्ग स्थित गेस्ट हाउस गए और उन्हें उठा लाये. उस समय मायावती गेस्ट हाउस के कमरा नंबर एक में कुछ  विधायकों के साथ थी और उस ने बाहर हल्ला गुल्ला सुनकर अपना दरवाज़ा बंद कर लिया. मैंने इस घटना के बारे में मौके पर तैनात अधिकारियों  से पूछताछ की तो यह तथ्य उभर कर आया कि मायावती पर किसी भी प्रकार का हमला नहीं हुआ था क्योंकि वहां पर आईटीबीपी की गार्ड लगी थी जिस ने किसी को भी मायावती के कमरे तक जाने नहीं दिया था. हाँ इतना ज़रूर है उस भीड़ ने मायावती को कुछ अपशब्द ज़रूर कहे थे परन्तु उस पर किसी भी प्रकार का हमला नहीं हुआ था जैसा कि लोगों को गुमराह करने के लिए प्रचारित किया गया था. इसी बीच में भाजपा ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार राज्यपाल के यहाँ धरना देकर मुलायम सिंह की सरकार को बर्खास्त करने की मांग उठाई जिस के फलसवरूप गठ बंधन की सरकार गिर गयी और दलितों पिछड़ों की एकता का सपना हमेशा हमेशा के लिए टूट गया.   
बसपा का सहारा पा कर उस समय जो भाजपा अंतिम सांसें गिन रही थी वह फिर से पुनर्जीवित हो गयी. दलितों और पिछड़ों का पूरे देश पर राज करने का सपना इन दोनों स्वार्थी और मौकाप्रस्त नेताओं की मह्तावाकंक्षा का शिकार हो गया और कुदरती दोस्त दुश्मन में बदल गए. मुझे विशवास है कि देश में जब भी दलितों और पिछड़ों का राजनीतिक इतिहास लिखा जायेगा तो भाजपा को जीवनदान देने के लिए कांशी राम और दलितों और पिछड़ों की राजनितिक नैय्या डुबोने का इलज़ाम इन दोनों नेताओं के सर पर ही आएगा जिस के लिए उन्हें कभी मुआफ नहीं किया जायेगा.
इस के बाद 1996 के चुनाव के सन्दर्भ में कांशी राम-मुलायम सिंह की स्वार्थ की लडाई से दलितों और पिछड़ों की एकता को पहुंचे नुक्सान की भरपाई के लिए हम लोगों ने कुछ दलित नेताओं के  माध्यम से बात चीत करके उन्हें फिर हाथ मिलाने के राजी कर लिया था. कांशी राम ने इस गठजोड़ की सम्भावना के बारे में दिल्ली से ब्यान भी जारी कर दिया था परन्तु अगले ही दिन मायावती जो उस दिन लखनऊ में थी और पूरी तरह से भाजपा के चंगुल में फंस चुकी थी ने कांशी राम के इस ब्यान को पलट दिया और मुलायम सिंह से किसी भी प्रकार के गठजोड़ की सम्भावना को पूरी तरह से नकार दिया. इस प्रकार दलितों और पिछड़ों की एकता के दरवाजे हमेशा हमेशा के लिए बंद हो गए.   
इस बात का कोई भरोसा नहीं कि जो मायावती आज मोदी विरोध दिखा रही है वही कल अपनी जान बचाने के लिए मोदी की राखी बंद भाई नहीं बन जायेगी जैसा कि वह लालजी टंडन, मुरली मनोहर जोशी और अन्य भाजपाईयों के साथ अटल बिहारी वाजपेयी की बेटी बनकर कर चुकी है. मायावती शायद भूल रही हैं कि जनता अब इतनी भोली नहीं है जितना वह समझ रही है. अब तक संपन्न हुए चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मायावती का दलित वोट बुरी तरह से छिटका है और मायावती अब नए पैंतरे बदल कर दलितों और मुसलामानों  का मोदी के नाम पर भय दोहन करने की असफल कोशिश कर रही. मुलायम सिंह भी मुसलामानों का इसी तरह से भय दोहन करने में लगे हैं. मुज़फ्फर नगर के दंगे हिदुओं और मुसलामानों के वोटों का ध्रुवीकरण करके स्वयं और भाजपा को लाभ पहुँचाने का प्रयास ही था.
मायावती को 2012 के उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव  में दलितों के व्यवहार से यह स्पष्ट हो चुका है कि अब दलित अपना भला बुरा खुद सोचने लगे हैं और वे मायावती के बंधुया नहीं रहे. वे डॉ. आंबेडकर की शिक्षाओं का भी गंभीरता से चिंतन  मनन करने लगे हैं और जाति की राजनीति से बाहर निकल कर अपना भला बुरा समझाने लगे हैं. मेरा अब तक का राबर्ट्स गंज लोक सभा क्षेत्र में जन संपर्क का अनुभव बताता है कि दलित इस बार जाति की राजनीति से बाहर निकल कर व्यक्तिओं के स्थान पर नीतिओं के परिवर्तन की राजनीति की ओर बढ़ रहे हैं जो कि कार्पोरेट राजनीति को रोकने और जनता की राजनीति को स्थापित करने के लिए अति आवश्यक है.  
 

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

बसपा में दलित कहाँ ?एस. आर. दारापुरी आई. पी.एस.(से.नि.) एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट तथा प्रत्याशी राबर्ट्सगंज लोक सभा क्षेत्र


बसपा में दलित कहाँ ?
एस. आर. दारापुरी आई. पी.एस.(से.नि.) एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट तथा प्रत्याशी राबर्ट्सगंज लोक सभा क्षेत्र
यह सभी जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी 21.2 % है और उन के लिए लोकसभा की 17 सीटें आरक्षित हैं. अतः सभी राजनितिक पार्टियों उन्हें केवल 17 अरक्षित सीटें ही देती हैं जबकि उनके मुकाबले में वे अन्य जातियों को उन की आबादी के अनुपात से कहीं अधिक सीटें देती हैं. बसपा जो कि अपने आप को दलितों(बहुजन) की पार्टी होने और मायावती तो उनकी एकल मसीहा होने का दावा करती है,  भी इस का किसी भी तरह से अपवाद नहीं है. उसने भी किसी भी चुनाव में दलितों को आरक्षित सीटों से अधिक सीटों पर टिकेट नहीं दिया है. ऊँचें दामों पर टिकेट बेचने की बसपा की अपनी परम्परा है जिस में किसी भी दलित को कोई छूट नहीं दी जाती. मेरे अपने सगे समधी ने जो कि सेवा निवृत पुलिस उपाधीक्षक थे ने भी 5 लाख में बसपा का मलीहाबाद विधान सभा का टिकेट ख़रीदा था और वह हार गए तथा  बर्बाद हो गए. इस से स्पष्ट है कि दलितों को टिकेट देने  के मामले में भी बसपा वही कुछ करती है जो अन्य पार्टियाँ करती हैं. वे उन्हें केवल अरक्षित सीटों तक ही सीमित रखती हैं. अब प्रशन पैदा होता कि बसपा दलितों के लिए दूसरों से अलग क्या करती है और किस आधार पर दलितों की पार्टी होने का दावा करती  है?
1995 में मायावती के मुख्य मंत्री बनने के पहले तक मेरी कांशी राम से अच्छी दुआ सलाम थी. मैं उन्हें तब से जानता हूँ जब वे DRDO पूना में सहायक वैज्ञानिक के पद पर और डी.संजीवैया  की “सेवास्तम्भ” संस्था में काम करते थे. बाद में कांशी राम ने भी इसी संस्था की तर्ज़ पर बामसेफ बनायीं थी. 199५5में कांशी राम से एक वार्ता के दौरान मैंने यह बात उठाई थी कि बसपा भी दलितों को केवल सुरक्षित सीटों पर ही चुनाव लड़ाती है जो कि सभी पार्टिया करती हैं तो फिर बसपा दलितों की पार्टी कैसे हुयी. मैंने उन्हें यह भी बताया था कि आरक्षित सीट के मुकाबले  में सामान्य सीट पर जितना अधिक आसान होता है क्योंकि इस में सामान्य वर्ग के वोट बंट जाते हैं और दलित वोट निर्णायक हो जाता है. आरक्षित सीट में स्थिति इस के विपरीत होती है. मैंने उन्हें यह भी बताया कि अब तो आप के पास पैसा भी है आप दलितों को सामान्य सीट से लड़ाइए जैसा कि डॉ. आंबेडकर ने स्वतंत्र मजदूर पार्टी, शैडयुल्ड कास्ट्स फेडरेशन और रिपब्लिकन पार्टी में किया था और अच्छी सफलता पाई थी.  इस पर  कांशी राम ने मुझे जो कहा वह काफी स्तब्धकारी था. उसने कहा, ”दारापुरी जी आप नहीं जानते ये बहुत कमज़ोर लोग हैं. यह सामान्य सीट पर चुनाव नहीं लड़ सकते.” . शायद यह उनकी दलितों को कमज़ोर और अपने पर निर्भर रखने की एक रणनीति थी.
अब कांशी राम के बाद मायावती भी उसी परम्परा का अक्षरश पालन कर रही है. इस बार उसने उत्तर प्रदेश में 21.2% दलित आबादी को मात्र 17 वह भी केवल अरक्षित सीटें, ब्राह्मणों की 12% आबादी को 21 और 14% मुस्लिम आबादी को 19 सीटें दी रणनीति थी.  अब बताईये बसपा में कितने दलित हैं और बसपा अपने  आप को किस आधार पर दलितों की पार्टी कहती है? इस के इलावा उसका दलित एजंडा क्या है? यह बात भी विचारणीय है कि अब वह "बहुजन" से "सर्वजन" में रूपांतरित भी चुकी है.इसके विपरीत आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट जिस के प्रत्याशी के रूप में मैं राबर्ट्सगंज  से चुनाव लड़ रहा हूँ ने दलितों को 50% टिकेट दिए हैं. इस पार्टी के संविधान में दलितों, महिलायों और अल्पसंख्यकों के लिए 75% पद आरक्षित किये गए हैं. हमारी पार्टी का एक निश्चित सामाजिक न्याय एजंडा है. हमारी पार्टी भूमिहीनों के लिए भूमि, अति पिछड़ों के लिए अलग से आरक्षण, पदोन्नति में आरक्षण, निजी क्षेत्र में आरक्षण, न्याय पालिका में आरक्षण, दलित मुसलमानों और दलित ईसाईयों के लिए रंगनाथ मिश्र रिपोर्ट को लागू करने और धारा 141को समाप्त कने की लडाई लड़ रही है. यह भी विचारणीय है कि जिन राजनितिक पार्टियों का कोई जन एजंडा नहीं होता वे जाति और धर्म के मुद्दे उठा कर लोगों का भावनात्मक शोषण कर के वोट तो ले लेती हैं परन्तु इस से जनता का कोई उत्थान नहीं होता  और वे निरंतर ठगा हुआ महसूस करती हैं. परन्तु मैं जन संपर्क के  दौरान यह महसूस कर रहा हूँ कि इस बार जनता की सोच में एक बुनियादी अंतर आया है और अब वह अपने  मुद्दों की बात करते हैं और दलित तो जाति के नाम पर लगातार ठगे जाने के कारण और भी विचलित हैं. उन की सोच में यह परिवर्तन एक नयी मुद्दा आधारित जन राजनीती को जन्म देती दिखाई दे रही है . मैं इसी उम्मीद पर यह चुनाव लड़ रहा हूँ और जनता को सही राजनीती की शिक्षा दे रहा हूँ जैसा कि डॉ. आंबेडकर की अपेक्षा भी थी.    

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  क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है ? हाल ही में हुई बहसों में सवाल उठाया गया है कि क्या अनुसूचित जाति के उपसमूहों में सकारात्म...