पदोन्नति में आरक्षण क्यों ?
एस. आर. दारापुरी आई. पी. एस. ( से. नि.)
अब अगर सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष २००६ में एम् नागराज के मामले में दिए गए निर्णय को देखा जाये तो एक दृष्टि से यह भी मंडल केस निर्णय जैसा ही लगता है. कुछ संविधान विशेषज्ञों का मत है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जातियों के आरक्षण पर पिछड़ेपन की लगाई गयी शर्त अनुचित है. उनका मत है कि यह शर्त केवल पिछड़ी जातियों के आरक्षण पर ही लागू होती है क्योंकि अनुसूचित जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्राविधान संविधान की धारा ३३५ में है जिस में केवल प्रशासन की कार्य क्षमता की ही शर्त है. इस निर्णय में यह भी तर्क दिया गया है कि पदोन्नति में परिणामी ज्येष्ठता से दलित दूसरों की अपेक्षा शीघ्र एवं अधिक पदोन्नति पा कर उच्च पदों प़र पहुँच जाते हैं जिस से अन्य वर्गों के कर्मचारियों में असंतोष व्याप्त होता है. यह बात तो कुछ हद तक सही है कि जब भी कोई कनिष्ट व्यक्ति पदोन्नति पा कर उच्च पद पर जाता है तो उस से जयेष्ट व्यक्तियों में कुछ न कुछ असंतोष होना स्वाभाविक ही है. परन्तु इस एतिहासिक अन्याय को भी ध्यान में रखना उचित होगा कि सदियों से सवर्ण लोग दलितों की हिस्सेदारी हड़प कर सत्ता भोगते रहे है. क्या इस से दलितों में कभी कोई क्षोभ अथवा असंतोष पैदा नहीं हुआ होगा? इस का अहसास कभी किसी को क्यों नहीं हुआ? आज अगर दलित आरक्षण का लाभ उठाकर कुछ उच्च पदों पर पहुँच रहे हैं तो इस से सवर्णों के आक्रोश के बारे में इतना हल्ला क्यों मचाया जा रहा है. इन लोगों को दलितों के सदियों से आक्रोश और असंतोष की कभी चिंता क्यों नहीं हुयी. दलित सदियों से इस आक्रोश और अन्याय को चुपचाप झेलते आये हैं. इस सम्बन्ध में माओ- से - तुंग का यह कथन बहुत ही न्याय संगत है :
" जब बांस एक दिशा में टेढ़ा हो जाता है तो उसे सीधा करने के लिए उतना ही विपरीत दिशा में मोड़ना पड़ता है."
अतः दलितों के सदियों से हड़पे गए हिस्से उन्हें तभी वापस मिल सकेंगे जब वे हड़पने वालों से वापस लिए जायेंगे. आरक्षण दलितों के कुछ हिस्से की वापसी मात्र है. प्रशासनिक सत्ता में दलितों की सभी स्तरों पर हिस्सेदारी पदोन्नति में आरक्षण द्वारा ही सुनिशचित हो सकती है तभी हम लोग अपने देश में लक्षित समता मूलक समाज की स्थापना कर पाएंगे.
एस. आर. दारापुरी आई. पी. एस. ( से. नि.)
इधर
कुछ दिनों से पूरे देश में सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण के
बारे में काफी गंभीर चर्चा चल रही है. एक ओर जहाँ इस के पक्षधर इस के पक्ष
में धरने प्रदर्शन क़र रहे हैं वहीँ दूसरी ओर इस के विरोधी भी उतने ही
उग्र रूप से इस का विरोध कर रहे है. कुछ लोग इस बहाने पूरी आरक्षण व्यस्था
पर ही प्रशन चिन्ह लगा रहे हैं. अधिकतर राजनीतिक पार्टियाँ न चाहते हुए
भी इस के समर्थन में खड़ी हैं क्योंकि कोई भी विशाल दलित वर्ग को नाराज़ करने
की हिम्मत नहीं दिखा पा रहा है. केवल मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी
ही ऐसी पार्टी है जो कि इस का खुला विरोध कर रही है. दूसरी ओर उस ने
पैंतरा बदल कर अब डी.एम.के. पार्टी के साथ मिल कर पिछड़ों के लिए भी
पदोन्नति में आरक्षण की मांग की है जिस का समर्थन लालू प्रसाद यादव और शरद
यादव ने भी किया है. एक ओर जहाँ कोंग्रेस इस सम्बन्ध में आधा अधूरा
संविधान संशोधन ला कर दलित हितैषी होने का दिखावा कर रही है वहीँ मायावती
बड़ा शोर शराबा करके दलितों की एकल उद्धारक होने की दावेदारी जिता रही
है. हाल में समाप्त हुए संसद के सत्र में कोंग्रेस् ने कोयले के घोटाले के
मामले में अपना पीछा छुड़ाने के लिए जल्दी जल्दी एक अधकचरा संविधान संशोधन
पेश करके यह जिताने की कोशिश की है की वह तो पदोन्नति में आरक्षण को बहाल
करना चाहती है परंतु भाजपा ऐसा नहीं होने दे रही है. मायावती जिसने अपने
पांच साल के मुख्यमंत्री काल में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के सम्बन्ध में
कोई भी कार्रवाही न करके अब दलितों को फिर से रिझाने के लिए हल्ला गुल्ला
शुरू किया है. यदि मायावती ने यह तत्परता पिछले पॉँच साल में दिखाई होती तो
शायद अब तक इस का कोई न कोई समधान् हो गया होता. बहरहाल सभी राजनीतिक
पार्टियाँ आरक्षण की राजनीति करके अपने अपने वोट बैंक को लुभाने की कोशिश
कर रही हैं. इस पूरे हंगामे के दौरान पदोन्नति में आरक्षण के औचित्य का
प्रशन बार बार उभर कर आ रहा है. अतः इस प्रशन के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं
पर समुचित विचार करना उपयुक्त होगा.
सबसे पहले पदोन्नति में आरक्षण के औचित्य प़र चर्चा की जाये . दलितों के लिए आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था वैसे तो पूना पैकट के अनुपालन में गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट १९३५ में की गयी और इन जातियों की अनुसूची तैयार की गयी थी जो कुछ संशोधनों के साथ आज भी लागू है. यद्यपि उस समय इस का कोई प्रतिशत निर्धारित नहीं किया गया था फिर भी इन वर्गों को यथासंभव प्रतिनिधित्व देने की बात कही गयी थी. इस के बाद १९४२ में जब बाबा साहेब वाईसराय के एक्जीक्युटिव कोंसिल के श्रम सदस्य बनाए गए तो उन्होंने दलितों की शिकायतों के बारे में वाईसराय को एक प्रत्यावेदन दिया जिस में अन्य मांगों के इलावा दलितों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रतिशत निश्चित करने की मांग भी की गयी. परिणामस्वरूप १९४२ में पहली बार दलितों के लिए सरकारी नौकरियों में ८-१/२ प्रतिशत का प्राविधान किया गया. आज़ादी बाद के भारत के संविधान में दलितों ( अनुसूचित जातियों/ जन जातियों ) के लिए सरकारी नौकरियों में तमाम विरोधों के बावजूद पूना पैक्ट के अनुपालन में आरक्षण की व्यवस्था की गयी.
शुरू से ही आरक्षण का विरोध होता रहा है. इस में कांग्रेस सब से बड़ी दोहरी चाल चलती रही है. जहाँ एक ओर वह संविधान में आरक्षण के किर्यान्वयन के अनुपाल में समय समय पर शासनादेश तो जारी करती रही वहीं दूसरी ओर सवर्ण कार्मचारियों से अदालतों में मुकदमे दायर करवा क़र स्थगन आदेश प्राप्त कर उस को निष्फल करती रही है. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि संविधान के लागू होने के अगले साल १९५१ में जब आरक्षण को चुनौती दी गयी तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे समानता के अधिकार के विरुद्ध होने के कारण रद कर दिया. इस लिए आरक्षण को बचाने के लिए सबसे प्रथम संविधान संशोधन करके धारा १५(४) को शामिल किया गया. इस प्रकार सरकार की छदम विरोध की नीति और सवर्णों के इसके व्यापक विरोध तथा अदालतों के आरक्षण विरोधी फैसलों के कारण दलितों को वांछित सीमा तक प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका. वर्ष १९५७ में यह पाया गया कि एक ओर जहाँ पर विभिन्न कारणों से दलितों का आरक्षण कोटा पूरा नहीं हो रहा है वहीँ पर उन की उच्च पदों पर उपस्थिति लगभग शून्य है. अतः इस हेतु १९५७ में दलितों के लिए सीधी भर्ती के साथ साथ पदोन्नति में आरक्षण का प्राविधान किया गया. पदोन्नति में आरक्षण के पीछे मुख्य कारण यह था कि दलित वर्गों के अधिकतर कर्मचारी शैक्षिक पिछड़ेपन के कारण तथा उनके के लिए आयु सीमा में छूट के कारण अधिक आयु में नौकरी में प्रवेश करते हैं . इस लिए वे सवर्ण जातियों के कर्मचारियों के मुकाबले में जल्दी रिटायर हो जाते हैं और सामान्य पदोन्नति प्रक्रिया में उच्च पदों पर नहीं पहुँच पाते हैं. यह सर्वविदित है कि प्रशासन में सभी प्रकार का नीति निर्धारण और निर्णय उच्च पदों पर ही होता हैं. अतः दलितों की उच्च पदों प़र अनुपस्थिति आरक्षण के मंतव्य को पूरा करने में सफल नहीं हो रही है. यही कारण था कि डॉ. आंबेडकर बार बार दलितों को "मार वाले ' ( प्रभावशाली) पदों पर पहुँचने पर बल देते थे परन्तु तत्कालीन व्यवस्था में ऐसा होना संभव नहीं था. अतः दलितों को पदोन्नति में आरक्षण देने का मुख्य कारण उन्हें उच्च पदों पर पहुँचाना था ताकि वे भी नीति निर्धारण एवं निर्णय लेने में भागीदारी कर सकें जिस से दलितों के हितों का संरक्षण एवं संवर्धन हो सके जो कि आरक्षण का मुख्य ध्येय है. यह भी अश्चार्य्जनक है कि आरक्षण के लगभग ६२ वर्ष तक लागू रहने के फलस्वरूप भारत सरकार की नौकरियों में अब तक प्रथम श्रेणी के पदों में केवल १२% तक ही आरक्षण की पूर्ती हुई है.
उच्च पदों पर दलितों के वर्तमान प्रतिनिधितव के सम्बन्ध में लोक सभा में दिए गए आंकड़ों से यह ज्ञात हुआ है कि इस समय इन में सचिव स्तर के १४९ पदों में एक भी अनुसूचित जाति का अधिकारी नहीं है जबकि अनुसूचित जनजाति के केवल ४ अधिकारी है. इसी प्रकार अतिरिक्त सचिव के १०८ पदों में केवल ४, संयुक्त सचिव के ४७७ पदों में केवल ३१ (६.५%) अनुसूचित जाति तथा १५ (३.१%) अनुसूचित जनजाति तथा निदेशक स्तर के ५९० पदों में केवल १७ (२.९%) अनुसूचित जाति और ७ (१.२%) अनुसूचित जनजाति के हैं जबकि इन सेवाओं में इनके लिए अनुसूचित जाति के लिए १५% तथा अनुसूचित जनजाति के लिए ७.५ % का आरक्षण है. यह सभी जानते हैं के सरकारी तंत्र में केवल यह पद ही अति महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन स्तरों पर ही नीति निर्धारण, नियोजन और निर्णय लेने का काम होता है. अतः इन स्तरों पर दलितों कि उपस्थिति को सुनश्चित करने के लिए पदोन्नति में आरक्षण बहुत ज़रूरी है.
अब प्रशन यह उठता है कि दलित इन उच्च पदों पर क्यों नहीं पहुँच पा रहे हैं. इस का एक तो मुख्य कारण दलितों में ऐतिहासिक भेदभाव के कारण शिक्षा का अभाव रहा है जिस कारण शुरू शुरू में इस वर्ग के बहुत कम योग्य अभ्यर्थी उपलब्ध होते थे और काफी आरक्षित पद खाली रह जाते थे. दूसरे भर्ती के माप दंड जानबूझ कर ऐसे रखे जाते थे जो दलितों के लिए अहितकर होते थे. इस का सब से बड़ा एक उदाहरण अखिल भारतीय सेवाओं में प्रारंभ में लिखित परीक्षा के साथ साथ साक्षात्कार में भी न्यूनतम अंक प्राप्त करने की अनिवार्यता था. इस के साथ ही सारी परीक्षा अंरेज़ी के माध्यम से ही होती थी. इस का नतीजा यह होता था कि दलित वर्ग के व्यक्ति अधिकतर ग्रामीण परिवेश के होने के कारण लिखित परीक्षा में तो अच्छे अंक प्राप्त कर लेते थे परन्तु साक्षात्कार में मार खा जाते थे. दूसरे उचित जानकारी और सुविधायों के अभाव के कारण परीक्षा में देर से भाग लेने के लिए उन्हें आयु सीमा में छूट का लाभ लेना अनिवार्य हो जाता था. ऐसी परिस्थिति के कारण वे देर से अधिक आयु में नौकरी में आ पाते थे और जल्दी सेवामुक्त हो जाते थे. सामान्य वर्ग के व्यक्तियों के मुकाबले में पदोन्नति की सामान्य व्यवस्था के अंतर्गत वे उच्च पदों प़र पहुँचने से पहले ही सेवामुक्त हो जाते थे. इस प्रकार दलितों के उच्च पदों पर न पहुँचने के कारण दलित वर्ग के हितों का उचित संरक्षण एवं संवर्धन नहीं हो पा रहा था. इसी अनुपस्थिति को दूर करने के लिए दलितों के लिए सरकारी सेवाओं में पदोन्नति का प्राविधान किया गया था जिसकी आज भी आवश्कता है.
सबसे पहले पदोन्नति में आरक्षण के औचित्य प़र चर्चा की जाये . दलितों के लिए आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था वैसे तो पूना पैकट के अनुपालन में गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट १९३५ में की गयी और इन जातियों की अनुसूची तैयार की गयी थी जो कुछ संशोधनों के साथ आज भी लागू है. यद्यपि उस समय इस का कोई प्रतिशत निर्धारित नहीं किया गया था फिर भी इन वर्गों को यथासंभव प्रतिनिधित्व देने की बात कही गयी थी. इस के बाद १९४२ में जब बाबा साहेब वाईसराय के एक्जीक्युटिव कोंसिल के श्रम सदस्य बनाए गए तो उन्होंने दलितों की शिकायतों के बारे में वाईसराय को एक प्रत्यावेदन दिया जिस में अन्य मांगों के इलावा दलितों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रतिशत निश्चित करने की मांग भी की गयी. परिणामस्वरूप १९४२ में पहली बार दलितों के लिए सरकारी नौकरियों में ८-१/२ प्रतिशत का प्राविधान किया गया. आज़ादी बाद के भारत के संविधान में दलितों ( अनुसूचित जातियों/ जन जातियों ) के लिए सरकारी नौकरियों में तमाम विरोधों के बावजूद पूना पैक्ट के अनुपालन में आरक्षण की व्यवस्था की गयी.
शुरू से ही आरक्षण का विरोध होता रहा है. इस में कांग्रेस सब से बड़ी दोहरी चाल चलती रही है. जहाँ एक ओर वह संविधान में आरक्षण के किर्यान्वयन के अनुपाल में समय समय पर शासनादेश तो जारी करती रही वहीं दूसरी ओर सवर्ण कार्मचारियों से अदालतों में मुकदमे दायर करवा क़र स्थगन आदेश प्राप्त कर उस को निष्फल करती रही है. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि संविधान के लागू होने के अगले साल १९५१ में जब आरक्षण को चुनौती दी गयी तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे समानता के अधिकार के विरुद्ध होने के कारण रद कर दिया. इस लिए आरक्षण को बचाने के लिए सबसे प्रथम संविधान संशोधन करके धारा १५(४) को शामिल किया गया. इस प्रकार सरकार की छदम विरोध की नीति और सवर्णों के इसके व्यापक विरोध तथा अदालतों के आरक्षण विरोधी फैसलों के कारण दलितों को वांछित सीमा तक प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका. वर्ष १९५७ में यह पाया गया कि एक ओर जहाँ पर विभिन्न कारणों से दलितों का आरक्षण कोटा पूरा नहीं हो रहा है वहीँ पर उन की उच्च पदों पर उपस्थिति लगभग शून्य है. अतः इस हेतु १९५७ में दलितों के लिए सीधी भर्ती के साथ साथ पदोन्नति में आरक्षण का प्राविधान किया गया. पदोन्नति में आरक्षण के पीछे मुख्य कारण यह था कि दलित वर्गों के अधिकतर कर्मचारी शैक्षिक पिछड़ेपन के कारण तथा उनके के लिए आयु सीमा में छूट के कारण अधिक आयु में नौकरी में प्रवेश करते हैं . इस लिए वे सवर्ण जातियों के कर्मचारियों के मुकाबले में जल्दी रिटायर हो जाते हैं और सामान्य पदोन्नति प्रक्रिया में उच्च पदों पर नहीं पहुँच पाते हैं. यह सर्वविदित है कि प्रशासन में सभी प्रकार का नीति निर्धारण और निर्णय उच्च पदों पर ही होता हैं. अतः दलितों की उच्च पदों प़र अनुपस्थिति आरक्षण के मंतव्य को पूरा करने में सफल नहीं हो रही है. यही कारण था कि डॉ. आंबेडकर बार बार दलितों को "मार वाले ' ( प्रभावशाली) पदों पर पहुँचने पर बल देते थे परन्तु तत्कालीन व्यवस्था में ऐसा होना संभव नहीं था. अतः दलितों को पदोन्नति में आरक्षण देने का मुख्य कारण उन्हें उच्च पदों पर पहुँचाना था ताकि वे भी नीति निर्धारण एवं निर्णय लेने में भागीदारी कर सकें जिस से दलितों के हितों का संरक्षण एवं संवर्धन हो सके जो कि आरक्षण का मुख्य ध्येय है. यह भी अश्चार्य्जनक है कि आरक्षण के लगभग ६२ वर्ष तक लागू रहने के फलस्वरूप भारत सरकार की नौकरियों में अब तक प्रथम श्रेणी के पदों में केवल १२% तक ही आरक्षण की पूर्ती हुई है.
उच्च पदों पर दलितों के वर्तमान प्रतिनिधितव के सम्बन्ध में लोक सभा में दिए गए आंकड़ों से यह ज्ञात हुआ है कि इस समय इन में सचिव स्तर के १४९ पदों में एक भी अनुसूचित जाति का अधिकारी नहीं है जबकि अनुसूचित जनजाति के केवल ४ अधिकारी है. इसी प्रकार अतिरिक्त सचिव के १०८ पदों में केवल ४, संयुक्त सचिव के ४७७ पदों में केवल ३१ (६.५%) अनुसूचित जाति तथा १५ (३.१%) अनुसूचित जनजाति तथा निदेशक स्तर के ५९० पदों में केवल १७ (२.९%) अनुसूचित जाति और ७ (१.२%) अनुसूचित जनजाति के हैं जबकि इन सेवाओं में इनके लिए अनुसूचित जाति के लिए १५% तथा अनुसूचित जनजाति के लिए ७.५ % का आरक्षण है. यह सभी जानते हैं के सरकारी तंत्र में केवल यह पद ही अति महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन स्तरों पर ही नीति निर्धारण, नियोजन और निर्णय लेने का काम होता है. अतः इन स्तरों पर दलितों कि उपस्थिति को सुनश्चित करने के लिए पदोन्नति में आरक्षण बहुत ज़रूरी है.
अब प्रशन यह उठता है कि दलित इन उच्च पदों पर क्यों नहीं पहुँच पा रहे हैं. इस का एक तो मुख्य कारण दलितों में ऐतिहासिक भेदभाव के कारण शिक्षा का अभाव रहा है जिस कारण शुरू शुरू में इस वर्ग के बहुत कम योग्य अभ्यर्थी उपलब्ध होते थे और काफी आरक्षित पद खाली रह जाते थे. दूसरे भर्ती के माप दंड जानबूझ कर ऐसे रखे जाते थे जो दलितों के लिए अहितकर होते थे. इस का सब से बड़ा एक उदाहरण अखिल भारतीय सेवाओं में प्रारंभ में लिखित परीक्षा के साथ साथ साक्षात्कार में भी न्यूनतम अंक प्राप्त करने की अनिवार्यता था. इस के साथ ही सारी परीक्षा अंरेज़ी के माध्यम से ही होती थी. इस का नतीजा यह होता था कि दलित वर्ग के व्यक्ति अधिकतर ग्रामीण परिवेश के होने के कारण लिखित परीक्षा में तो अच्छे अंक प्राप्त कर लेते थे परन्तु साक्षात्कार में मार खा जाते थे. दूसरे उचित जानकारी और सुविधायों के अभाव के कारण परीक्षा में देर से भाग लेने के लिए उन्हें आयु सीमा में छूट का लाभ लेना अनिवार्य हो जाता था. ऐसी परिस्थिति के कारण वे देर से अधिक आयु में नौकरी में आ पाते थे और जल्दी सेवामुक्त हो जाते थे. सामान्य वर्ग के व्यक्तियों के मुकाबले में पदोन्नति की सामान्य व्यवस्था के अंतर्गत वे उच्च पदों प़र पहुँचने से पहले ही सेवामुक्त हो जाते थे. इस प्रकार दलितों के उच्च पदों पर न पहुँचने के कारण दलित वर्ग के हितों का उचित संरक्षण एवं संवर्धन नहीं हो पा रहा था. इसी अनुपस्थिति को दूर करने के लिए दलितों के लिए सरकारी सेवाओं में पदोन्नति का प्राविधान किया गया था जिसकी आज भी आवश्कता है.
इस के अतिरिक्त सामान्य व्यवस्था में ज्येष्ठता अथवा
श्रेष्ठता के आधार पर पदोन्नति में कर्मचारी की वार्षिक रिपोर्ट का बहुत
महत्व होता है. ऐसा देखा गया है की काफी मामलों में जाति पूर्वाग्रह के
कारण सवर्ण जाति के अधिकारी दलित जाति के अधीनस्थों को औसत दर्जे की
वार्षिक रिपोर्ट देते हैं जो कि उनकी पदोन्नति में बाधक होती है. इस के
अतिरिक्त इसी भावना के अंतर्गत दलित वर्ग के अधिकारियों के विरुद्ध कई बार
गलत शिकायतें करके उनकी पदोन्नति में बाधा खड़ी कर दी जाती है. इस कारण भी
काफी दलित अधिकारी पदोन्नति से वंचित हो कर निम्न स्तर पर ही सेवा
पूरी करते हैं.
पदोन्नति में आरक्षण के विरुद्ध एक तर्क यह भी दिया जाता है कि इस से सरकारी सेवाओं में जाति भावना उभरेगी जो कि इन सेवाओं के जाति तथा सम्प्रदाय निरपेक्ष चरित्र के लिए हानिकारक होगी. सुनने में तो यह बात बहुत अच्छी लगती है. परन्तु क्या व्यवहार में सरकारी सेवाएँ वास्तव में जाति अथवा सम्प्रदाय निरपेक्ष हैं. यह सचाई किसी से भी नहीं छिपी है कि सरकारी सेवाओं का पूरी तरह से जातिकरण और संप्रदायीकरण हो चुका है. यदि ऐसा नहीं है तो फिर सरकार परिवर्तन के साथ सभी अधिकारी क्यों बदल दिए जाते हैं. कभी कभी तो जाति विशेष के अधिकारी ही सभी महत्वपूर्ण पदों पर दिखाई देते हैं. हमारे पिछले अनुभव तो इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं. इस के विपरीत अब तक का अनुभव यह दर्शाता है कि आरक्षण के कारण दलितों और पिछड़ों के सरकारी सेवाओं में प्रवेश ने इन्हें अधिक जाति एवं सम्प्रदाय निरपेक्ष बनाया है और उच्च जातियों के वर्चस्व को घटाया है. अत उच्च पदों पर इन की उपस्थिति इस प्रक्रिया को बनाये रखने के लिए बहुत ज़रूरी है क्योंकि इस में उच्च अधिकारियों का व्यक्तिगत झुकाव और आचरण बहुत महतवपूर्ण भूमिका निभाता है.
दलितों के लिए आरक्षण के सम्बन्ध में अदालतों के निर्णय
भी काफी हद तक आरक्षण विरोधी रहे हैं. सबसे पहले तो १९५१ में सुप्रीम कोर्ट
द्वारा पूरे आरक्षण को ही रद कर दिया गया था जिस कारण सबसे पहला संविधान
संशोधन करके धारा १५(४) को लाना पड़ा. दूसरे सरकार द्वारा जानबूझ कर
शासनादेशो में कुछ कमियां छोड़ देने के कारण अदालते बड़ी आसानी से स्थगन
आदेश दे कर आरक्षण को रोकने का काम करती रही हैं. यह भी एक हकीकत है की
मुकदमा करने वाले लोग भी सवर्ण जाति के होते हैं और सरकार की तरफ से
पैरवी करने वाले वकील भी सवर्ण ही होते हैं . ऐसी परिस्थिति में अदालतों से
आने वाले निर्णयों के बारे में आसानी से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है. आज भी
वही स्थिति है. आरक्षण के मामले में अदालतों के आरक्षण विरोधी नजरिये की सबसे
बड़ी मिसाल मंडल केस का १९९० का निर्णय है. यह सभी भलीभांति जानते हैं
कि यह मामला केवल पिछड़ी जातियों को दिए गए आरक्षण के बारे में ही था
परन्तु इस में भी सुप्रीम कोर्ट ने मुद्दे से बाहर जा कर दलितों के
पदोन्नति के आरक्षण को पॉँच साल में समाप्त क़र देने का आदेश पारित कर
दिया. इस से पहले वही सुप्रीम कोर्ट कई निर्णयों में यह स्पष्ट कर चुकी थी
कि भर्ती में पदोन्नति भी शामिल है जिस कारण पदोन्नति में आरक्षण वैध
माना जाता रहा है. सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय कितना न्यायोचित था एक
विचारणीय विषय है. इस निर्णय को निष्प्रभावी बनाने के लिए १९९५ में संविधान
संशोधन करना पड़ा और इस के बाद २००१ में पुनः संविधान संशोधन करके परिणामी
ज्येष्ठता का प्राविधान करना पड़ा. पदोन्नति में आरक्षण के विरुद्ध एक तर्क यह भी दिया जाता है कि इस से सरकारी सेवाओं में जाति भावना उभरेगी जो कि इन सेवाओं के जाति तथा सम्प्रदाय निरपेक्ष चरित्र के लिए हानिकारक होगी. सुनने में तो यह बात बहुत अच्छी लगती है. परन्तु क्या व्यवहार में सरकारी सेवाएँ वास्तव में जाति अथवा सम्प्रदाय निरपेक्ष हैं. यह सचाई किसी से भी नहीं छिपी है कि सरकारी सेवाओं का पूरी तरह से जातिकरण और संप्रदायीकरण हो चुका है. यदि ऐसा नहीं है तो फिर सरकार परिवर्तन के साथ सभी अधिकारी क्यों बदल दिए जाते हैं. कभी कभी तो जाति विशेष के अधिकारी ही सभी महत्वपूर्ण पदों पर दिखाई देते हैं. हमारे पिछले अनुभव तो इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं. इस के विपरीत अब तक का अनुभव यह दर्शाता है कि आरक्षण के कारण दलितों और पिछड़ों के सरकारी सेवाओं में प्रवेश ने इन्हें अधिक जाति एवं सम्प्रदाय निरपेक्ष बनाया है और उच्च जातियों के वर्चस्व को घटाया है. अत उच्च पदों पर इन की उपस्थिति इस प्रक्रिया को बनाये रखने के लिए बहुत ज़रूरी है क्योंकि इस में उच्च अधिकारियों का व्यक्तिगत झुकाव और आचरण बहुत महतवपूर्ण भूमिका निभाता है.
अब अगर सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष २००६ में एम् नागराज के मामले में दिए गए निर्णय को देखा जाये तो एक दृष्टि से यह भी मंडल केस निर्णय जैसा ही लगता है. कुछ संविधान विशेषज्ञों का मत है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जातियों के आरक्षण पर पिछड़ेपन की लगाई गयी शर्त अनुचित है. उनका मत है कि यह शर्त केवल पिछड़ी जातियों के आरक्षण पर ही लागू होती है क्योंकि अनुसूचित जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्राविधान संविधान की धारा ३३५ में है जिस में केवल प्रशासन की कार्य क्षमता की ही शर्त है. इस निर्णय में यह भी तर्क दिया गया है कि पदोन्नति में परिणामी ज्येष्ठता से दलित दूसरों की अपेक्षा शीघ्र एवं अधिक पदोन्नति पा कर उच्च पदों प़र पहुँच जाते हैं जिस से अन्य वर्गों के कर्मचारियों में असंतोष व्याप्त होता है. यह बात तो कुछ हद तक सही है कि जब भी कोई कनिष्ट व्यक्ति पदोन्नति पा कर उच्च पद पर जाता है तो उस से जयेष्ट व्यक्तियों में कुछ न कुछ असंतोष होना स्वाभाविक ही है. परन्तु इस एतिहासिक अन्याय को भी ध्यान में रखना उचित होगा कि सदियों से सवर्ण लोग दलितों की हिस्सेदारी हड़प कर सत्ता भोगते रहे है. क्या इस से दलितों में कभी कोई क्षोभ अथवा असंतोष पैदा नहीं हुआ होगा? इस का अहसास कभी किसी को क्यों नहीं हुआ? आज अगर दलित आरक्षण का लाभ उठाकर कुछ उच्च पदों पर पहुँच रहे हैं तो इस से सवर्णों के आक्रोश के बारे में इतना हल्ला क्यों मचाया जा रहा है. इन लोगों को दलितों के सदियों से आक्रोश और असंतोष की कभी चिंता क्यों नहीं हुयी. दलित सदियों से इस आक्रोश और अन्याय को चुपचाप झेलते आये हैं. इस सम्बन्ध में माओ- से - तुंग का यह कथन बहुत ही न्याय संगत है :
" जब बांस एक दिशा में टेढ़ा हो जाता है तो उसे सीधा करने के लिए उतना ही विपरीत दिशा में मोड़ना पड़ता है."
अतः दलितों के सदियों से हड़पे गए हिस्से उन्हें तभी वापस मिल सकेंगे जब वे हड़पने वालों से वापस लिए जायेंगे. आरक्षण दलितों के कुछ हिस्से की वापसी मात्र है. प्रशासनिक सत्ता में दलितों की सभी स्तरों पर हिस्सेदारी पदोन्नति में आरक्षण द्वारा ही सुनिशचित हो सकती है तभी हम लोग अपने देश में लक्षित समता मूलक समाज की स्थापना कर पाएंगे.
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