मंगलवार, 27 मार्च 2012

क्या मायावती का दलित वोट बैंक खिसका है? एस. आर. दारापुरी आई. पी.एस. (से. नि.)

क्या मायावती का दलित वोट बैंक खिसका है?
एस. आर. दारापुरी आई. पी.एस. (से. नि.)

हाल में उत्तर प्रदेश में असेम्बली के चुनाव परिणाम घोषित होने पर मायावती ने अपनी हार के कारण गिनाते हुए यह दावा किया था कि बेशक वह यह चुनाव हार गयी हैं परन्तु उसका दलित वोट बैंक बिलकुल बरकरार है. अब अगर चुनाव परिणामों का विश्लेषण किया जाये तो मायावती का यह दावा बिलकुल खोखला साबित होता है.

आईये सब से पहले उत्तर प्रदेश में दलितों कि आबादी देखी जाये और फिर उसमें मायावती को मिले वोटों का आंकलन किया जाये. उत्तर प्रदेश में दलितों कि आबादी कुल आबादी का २१% है और उनमे लगभग ६६ उपजातियां हैं जो सामाजिक तौर पर बटी हुयी हैं. इन उप जातियों में जाटव /चमार - ५६.३%, पासी - १५.९%, धोबी, कोरी और बाल्मीकि - १५.३%, गोंड, धानुक और खटीक - ५% हैं. नौ अति- दलित उप जातियां - रावत, बहेलिया खरवार और कोल ४.५% हैं. शेष ४९ उप जातियां लगभग ३% हैं.
चमार/ जाटव आजमगढ़, आगरा, बिजनौर , सहारनपुर, मुरादाबाद, गोरखपुर, गाजीपुर, सोनभद्र में हैं. पासी सीतापुर, राय बरेली, हरदोई, और इलाहाबाद जिलों में हैं. शेष समूह जैसे धोबी, कोरी, और बाल्मीकि लोगों की अधिकतर आबादी बरेली, सुल्तानपुर, और गाज़ियाबाद जनपदों में है.
आबादी के उपरोक्त आंकड़ों के आधार पर अगर मायावती की बसपा पार्टी को अब तक बिभिन्न चुनावों में मिले दलित वोटों और सीटों का विश्लेषण करना उचित होगा. अब अगर वर्ष २००७ में हुए विधान सभा चुनाव का विश्लेष्ण किया जाये तो यह पाया जाता है कि इस चुनाव में
बसपा को ८९ अरक्षित सीटों में से ६२ तथा समाजवादी (सपा) पार्टी को १३, कांग्रेस को ५ तथा बीजेपी को ७ सीटें मिली थीं. इस चुनाव में बसपा को लगभग ३०% वोट मिला था. इस से पहले २००२ में बसपा को २४ और सपा को ३५ अरक्षित सीटों में विजय प्राप्त हुई थी. वर्ष २००४ में हुए लोक सभा चुनाव में बसपा को कुल आरक्षित १७ सीटों में से ५ और सपा को ८ सीटें मिली थी और बसपा का वोट बैंक ३०% के करीब था.

वर्ष २००९ में हुए लोक सभा चुनाव में बसपा को आरक्षित १७ सीटों में से २ , सपा को १० और कांग्रेस को २ सीटें मिली थीं. इस चुनाव में बसपा का वोट बैंक २००७ में मिले ३०% से गिर कर २७ % पर आ गया था. इसका मुख्य कारण दलित वोट बैंक में आई गिरावट थी क्योंकि तब तक मायावती के बहुजन के फार्मूले को छोड़ कर सर्वजन फार्मूले को अपनाने से दलित वर्ग का काफी हिस्सा नाराज़ हो कर अलग हो गया था. यह मायावती के लिए खतरे की पहली घंटी थी परन्तु मायावती ने इस पर ध्यान देने की कोई ज़रुरत नहीं समझी.

अब अगर २०१२ के विधान सभा चुनाव को देखा जाये तो इस में मायावती की हार का मुख्य कारण अन्य के साथ साथ दलित वोट बैंक में आई भारी गिरावट भी है. इस बार मायावती ८५ आरक्षित सीटों में से केवल १५  ही जीत पायी है जबकि सपा ५५  सीटें जीतने में सफल रही है. इन ८५ आरक्षित सीटों में ३५ जाटव/चमार और २५ पासी जीते हैं. इस में सपा के २१ पासी और मायावती के २ पासी ही जीते हैं मायावती की १६ आरक्षित सीटों में से २ पासी और १३ जाटव/चमार जीते हैं. इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि इस बार मायावती की आरक्षित सीटों  पर हार का मुख्य कारण दलित वोटों में आई गिरावट भी है. इस बार मायावती का कुल वोट प्रतिशत २६% रहा है जो कि २००७ के मुकाबले में लगभग ४% घटा है.
मायावती दुआरा २०१२ में जीती गयी १५  आरक्षित सीटों का विश्लेषण करने से पाता चलता है कि उन्हें यह सीटें अधिकतर पशिचमी उत्तर प्रदेश में ही मिली हैं यहाँ पर उसकी जाटव उपजाति अधिक है. मायावती को पासी बाहुल्य क्षेत्र में सब से कम और कोरी बाहुल्य क्षेत्र में भी बहुत कम सीटें मिली हैं. पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश में यहाँ प़र चमार उपजाति का बाहुल्य है वहां पर भी मायावती को बहुत कम सीटें मिली हैं.  मायावती को पशिचमी उत्तर प्रदेश से ७ और बाकि उत्तार प्र्स्देस से कुल ८ सीटें मिली हैं. इस चुनाव में यह भी उभर कर आया है कि जहाँ एक ओर मायावती का पासी, कोरी, खटीक, धोबी और बाल्मीकि वोट खिसका है वहीँ दूसरी ओर चमार/जाटव वोट बैंक जिस में लगभग ७०% चमार (रैदास) और ३०% जाटव हैं में से अधिकतर चमार वोट भी  खिसक गया है. इसी कारण से मायावती को केवल पशिचमी उत्तर परदेश जो कि जाटव बाहुल्य क्षेत्र है में ही अधिकतर सीटें मिली हैं. एक सर्वेक्षण के अनुसार मायावती का लगभग ८% दलित वोट बैंक टूट गया है.

मायावती के दलित वोट बैंक खिसकने का मुख्य कारण मायावती का भ्रष्टाचार, कुशासन, विकासहीनता, दलित उत्पीडन की उपेक्षा और तानाशाही रवैया  रहा है . मायावती दुआरा दलित समस्याओं को नज़र अंदाज़ कर अँधा धुंद मूर्तिकर्ण को भी अधिकतर दलितों ने पसंद नहीं किया है. सर्वजन को खुश रखने के चक्कर में मायावती दुआरा दलित उत्पीडन को नज़र अंदाज़ करना भी दलितों के लिए बहुत दुखदायी सिद्ध हुआ है. दलितों में एक यह भी धारणा पनपी है कि मायावती सरकार का सारा लाभ केवल मायावती की उपजाति खास करके चमारों/जाटवों को ही मिला है जो कि वास्तव में पूरी तरह सही नहीं है. इस से दलितों की गैर चमार/जाटव उपजातियां प्रतिक्रिया में मायावती से दूर हो गयी हैं. अगर गौर से देखा जाये तो यह उभर कर आता है की मायावती सरकार का लाभ केवल उन दलितों को ही मिला है जिन्होंने मायावती के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार में सहयोग दिया है. इस दौरान यह भी देखने को मिला है की जो दलित मायावायी के साथ नहीं थे बसपा वालों ने उन को भी प्रताड़ित किया है. उनके उत्पीडन सम्बन्धी मामले थाने पर दर्ज नहीं होने दिए गए. कुछ लोगों का यह भी आरोप है कि मायावती ने अपने काडर के एक बड़े हिस्से को शोषक, भ्रष्ट और लम्पट बना दिया है जिसने दलितों का भी शोषण किया है. यही वर्ग मायावती के भ्रष्टाचार, अवसरवादिता और दलित विरोधी कार्यों को हर तरीके से उचित ठहराने में लगा रहता है. दलित काडर का भ्रष्टिकरण दलित आन्दोलन की सब से बड़ी हानि है.
 इस के अतिरिक्त बसपा कि हार का एक कारण यह भी है कि मायावती हमेशा यह शेखी बघारती रही है कि मेरा वोट  बैंक हस्तान्तार्नीय है. इसी कारण से मायावती अस्सेम्ब्ली और पार्लियामेंट के  टिकटों को धड़ल्ले से ऊँचे दामों में बेचती रही और दलित उत्पीड़क, माफिया और अपराधियों एवं धनबलियों को टिकेट देकर दलितों को उन्हें वोट  देने के लिए आदेशित करती रही. इस बार दलितों ने मायावती के इस आदेश को नकार दिया और बसपा को वोट  नहीं दिया. दूसरे दलितों में बसपा के पुराने मंत्रियों और विधायकों के विरुद्ध  अपने लिए  ही कमाने के सिवाय आम लोगों के लिए कुछ भी न करने के कारण प्रबल आक्रोश था और इस बार  वे उन्हें हर हालत में  हराने के लिए कटिबद्ध थे. तीसरे मायावती ने सारी सत्ता अपने हाथों में केन्द्रित  करके तानाशाही रवैय्या अपना रखा था जिस कारण उस के मंत्री और विधायक बिलकुल असहाय हो गए थे  और वे जनता के लिए कुछ भी न कर सके  जो उनकी  हार का कारण बना.

मायावती की अवसरवादी और भ्रष्ट राजनीति का दुष्प्रभाव यह है कि आज दलितों को यह नहीं पता है कि उन का दोस्त कौन है और दुश्मन कौन है. उनकी मनुवाद और जातिवाद के विरुद्ध लड़ाई भी कमज़ोर पड़ गयी है क्योंकि बसपा के इस तजुर्बे ने दलितों में भी एक भ्रष्ट और लम्पट वर्ग पैदा कर दिया है जो कि जाति लेबल का प्रयोग केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए ही करता है. उसे दलितों के व्यापक मुद्दों से कुछ लेना देना नहीं है. एक विश्लेषण के अनुसार उत्तर प्रदेश के दलित आज भी विकास की दृष्टि से बिहार, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के दलितों को छोड़ कर भारत के शेष अन्य सभी राज्यों के दलितों की अपेक्षा पिछड़े हुए हैं. उतर प्रदेश के लगभग ६०% दलित गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे हैं. लगभग ६०% दलित महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं. एक ताजा सर्वेक्षण के अनुसार ७०% दलित बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. अधिकतर दलित बेरोजगारी और उत्पादन के साधनों से वंचित हैं. मायावती ने सर्वजन के चक्कर में भूमि सुधारों को जान बूझ कर नज़र अंदाज़ किया जो कि दलितों के सशक्तिकरण का सबसे बड़ा हथियार हो सकता था. मायावती के सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के कारण आम लोगों के लिए उपलब्ध कल्याणकारी योजनायें जैसे मनरेगा, राशन वितरण व्यवस्था , इंदिरा आवास, आंगनवाडी केंद्र और वृद्धा, विकलांग और विधवा पेंशन आदि भ्रष्टाचार का शिकार हो गयीं और दलित एवं अन्य गरीब लोग इन के लाभ से वंचित रह गए. मायावती ने अपने आप को सब लोगों से अलग कर लिया और लोगों के पास अपना दुःख/कष्ट रोने का कोई भी अवसर न बचा. इन कारणों से दलितों ने इस चुनाव में मायावती को बड़ी हद तक नकार दिया जो कि चुनाव नतीजों से परिलक्षित है.
कुछ लोग मायावती को ही दलित आन्दोलन और दलित राजनीति का प्रतिनिधि मान कर यह प्रशन उठाते हैं कि मायावती के हारने से दलित आन्दोलन और दलित राजनीति पर क्या असर पड़ेगा. इस संबंध में यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि मायावती पूरे  दलित आन्दोलन का प्रतिनधित्व नहीं करती है. मायावती केवल एक राजनेता है जो कि दलित राजनीति कर रही है वह भी एक सीमित क्षेत्र : उत्तर प्रदेश और उतराखंड में ही. इस के बाहर दलित अपने ढंग से राजनीति कर रहे हैं. वहां पर बसपा का कोई अस्तित्व नहीं है. दूसरे दलित आन्दोलन के अन्य पहलू सामाजिक और धार्मिक  हैं जिन पर दलित अपने आप आगे बढ़  रहे हैं. धार्मिक आन्दोलन के अंतर्गत दलित प्रत्येक वर्ष बौद्ध धम्म  अपना रहे हैं और सामाजिक स्तर में भे उनमें काफी नजदीकी आई है. यह कार्य अपने आप हो रहा है और होता रहेगा. इस में मायावती का न कोई योगदान  रहा है और न ही उसकी कोई ज़रुरत भी है. यह डॉ. आंबेडकर दुआरा प्रारम्भ किया गया आन्दोलन है जो की स्वत सफूर्त है.हाँ इतना ज़रूर है कि इधर मायावती ने एक आध बौद्ध विहार बना कर बौद्ध धम्म के प्रतीकों  का राजनीतक इस्तेमाल ज़रूर किया है. यह उल्लेखनीय है मायावती ने न तो स्वयं बौद्ध धम्म अपनाया है और न ही कांशी राम ने अपनाया था. उन्हें दर असल बाबा साहेब के धर्म परिवर्तन के जाति उन्मूलन में महत्व में कोई विश्वास ही नहीं है. वे  तो राजनीति में जाति के प्रयोग के पक्षधर हैं न कि उसे तोड़ने के.  उन्हें बाबा साहेब के जाति विहीन और वर्ग विहीन समाज कि स्थापना के लक्ष्य में कोई विश्वास नहीं है. वे दलितों का राजनीति में जाति वोट बैंक के रूप में ही प्रयोग करके जाति राजनीति को कायम रख कर अपने लिए लाभ  उठाना चाहते हैं.
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मायावती का यह दावा कि उसका दलित वोट बैंक बिलकुल नहीं खिसका है सत्यता से बिलकुल परे है. शायद मायावती अभी भी दलितों को अपना गुलाम समझ कर उस से ही जुड़े रहने की खुश फहमी पाल रही है. मायावती की यह नीति कोंग्रेस की दलितों और मुसलामानों के प्रति लम्बे समय तक अपनाई गयी नीति का ही अनुकरण  है. मायावती दलितों को यह जिताती रही है कि केवल मैं ही आप को बचा सकती हूँ कोई दूसरा नहीं. इस लिए मुझ से अलग होने की बात कभी मत सोचिये. दूसरे दलितों के उस से किसी भी  हालत में अलग न होने के दावे से वह दूसरी पार्टियों को दलितों से दूरी बनाये रखने की चाल भी चल रही है ताकि दलित अलगाव में पद उस के गुलाम बानर रहें. पर  अब दलित मायावती के छलावे से काफी हद तक  मुक्त हो गए हैं. अब यह पूरी सम्भावना है की उत्तर प्रदेश के दलित मायावती के बसपा प्रयोग से सबक लेकर एक मूल परिवर्तनकारी  अम्बेडकरवादी राजनीतिक विकल्प की तलाश करेंगे और जातिवादी राजनीति से बाहर निकल कर मुद्दा आधारित जनवादी राजनीति में प्रवेश करेंगे.  केवल इसी  से उनका राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक सशक्तिकर्ण एवं मुक्ति हो सकती है.

1 टिप्पणी:

  1. एक परिपक्व, उत्कृष्ट, वस्तुनिष्ठ, पूर्वग्ररहित,निष्पक्ष और वैज्ञानिक विश्लेषण। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। हर वक्त हर चीज बदलती रहती है चाहे उसमे सकारात्मक बदलाव आ रहा है या नकारात्मक। सकारात्मक परिवर्तन मे सुधार और क्रांति दोनों का भाव होता है। जहा सुधार धीमे धीमे आता है वही पर क्रांति एक त्वरित गति से लाये गए या आए परिवर्तन को कहते है। मात्र जाती और धर्म समाज मे क्रांति नहीं ला सकते है भले राजसत्ता मे कभी कभार बदलाव ला सकते है। डॉ। अंबेडकर का आंदोलन सामाजित परिवर्तन और क्रांति का था न कि सत्ता प्राप्ति का। उदरवादी प्रजातन्त्र मे जातिवादी और धर्मवादी राजनीति ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकती। दलित और दमित लोगों का प्रथम वरीयता जीवन मे गुणात्मक बदलाव लाने का होना चाहिए चाहे वह जो भी ले आए। राजनीतिक सत्ता उसका तात्कालिक लक्ष्य नहीं होना चाहिए क्योकि इससे उनका वोट बैंक मे बादल जाने का दर है जिसका इस्तेमाल पेशेवर नेता करेगें जैसा कि दारापुरी साहब ने लिखा है। अंबेडकर ने जाति देख कर बुद्ध को नहीं स्वीकार किया था बल्कि कर्म और विचार देखकर। सोश्ल मीडिया पर एक ऐसा वर्ग सकृत है जो जाति और धर्म देखकर विश्लेषण करता है जो बहुत ही घातक है।

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