मंगलवार, 25 दिसंबर 2012
शनिवार, 1 दिसंबर 2012
रविवार, 18 नवंबर 2012
भगवान दास एक परिचय : एक सन्देश
भगवान
दास एक परिचय : एक सन्देश
- एस आर दारापुरी
- एस आर दारापुरी
मैं भगवान दास जी को 1965 से जानता था। उस समय उन्हें दिल्ली में बाबा साहेब के सबसे बड़े विद्वान् और समर्पित पैरोकारों में से एक के तौर पर जाना जाता था।
मैनें उन्हें पहली बार नई दिल्ली के लक्ष्मीबाई नगर में बौद्ध उपासक संघ की मीटिंगों में सुना था। कुछ वर्षों तक आंबेडकर भवन बौद्ध गतिविधियों का केंद्र रहा था। बुद्धिस्ट सोसाइटी आफ इंडिया द्वारा साप्ताहिक धार्मिक मीटिंगें आयोजित की जाती थीं। श्री वाई सी शंकरानंद शास्त्री तथा सोहन लाल शास्त्री जो दोनों पंजाब की एक आर्यसमाज संस्था ब्रह्म विद्यालय की उपज थे और बौद्ध आन्दोलन के अगुआ थे। आर्य समाज की मीटिंगों की तरह ये लोग साप्तहिक मीटिंगें किया करते थे। कुछ कारणों से दोनों के बीच मतभेद हो गए और वे एक दूसरे से अलग हो गए। श्री शंकरानंद शास्त्री ने अपने कुछ साथियों को लेकर बौद्ध उपासक संघ बना लिया और रिज़र्व बैंक आफ इंडिया के एक कर्मचारी श्री रामाराव बागडे के फ्लैट के सामने आंगन में साप्ताहिक मीटिंगें शुरू कर दीं। श्री भगवान दास जी इन मीटिंगों में मुख्य वक्ता के रूप में रहते थे।
उन्हें दलितों की एकता में रूचि थी और उन्होंने बहुत सी जातियों मसलन धानुक, खटीक, बाल्मीकि, हेला, कोली आदि को अम्बेडकरवादी आन्दोलन में लेने के प्रयास किये। ज़मीनी स्तर पर काम करते हुए भी उन्होंने दलितों एवं अल्पसंख्यकों के विभिन्न मुद्दों पर लेख लिखे जो पत्र पत्रिकायों में प्रकाशित होते रहे। उन्हें अंग्रेजी और उर्दू में महारत हासिल थी और सरल हिंदी तथा कुछ गुरमुखी लिपि में पंजाबी पढ़ सकते हे। बंगाल और अराकान में एयरफोर्स की नौकरी करते हुए उन्होंने बंगाली भाषा भी सीखी थी पर अब भूल गए थे ।
मुझे नौकरी में रहते हुए लगभग पूरे भारत वर्ष में घूमने और अनुसूचित जातियों से सम्बधित अधिकारियों, प्रोफेसरों, अध्यापकों और नेताओं को जानने का मौका मिला। मेरा विश्वास है कि श्री दास जी के पास पुस्तकों का सबसे बड़ा भंडार था। वह कभी न थकने वाले पाठक थे और काम के अधिकाँश घंटे पढने में बिताते थे। पुस्तकों और पत्र पत्रिकायों पर उनका काफी पैसा खर्च होता था। उनके पुस्तक संग्रह में विदेशी और भारतीय लेखकों की दुर्लभ पुस्तकें शामिल थीं। उनकी फाईलों में अलग अलग विषयों पर अच्छे लेख और पर्चे थे जिन्हें या तो वे प्रकाशित नहीं करा सके थे या फिर उनके बारे में भूल गए थे.
उनसे बातचीत के दौरान मुझे पता चला कि उनका जन्म 23 अप्रैल, 1927 को भारत की गर्मियों की राजधानी शिमला के निकट छावनी जतोग में हुआ था और उनका परिवार काफी खुशहाल था लेकिन एक अछूत परिवार में जन्म के कारण वह अपमान और भेदभाव का शिकार होते रहे। उन्हें उनके पिता पर गर्व था जिन्होंने उनके चरित्र पर गहरा प्रभाव डाला। उनके पिता डॉ आंबेडकर के वह बहुत प्रशंसक थे और समाचार पत्र पढ़ने के शौक़ीन थे। उन्हें हिन्दू, ईसाई, इस्लाम और सिख धर्म के ग्रंथों के अलावा आयुर्वेद की पुस्तकें पढ़ने का शौक था। श्री दास जी को ज्ञान से प्रेम अपने पिता जी से विरासत में मिला था।
ऐसा लगता है कि दास साहेब अपने समय के अधिकतर अछूतों की तरह इसाईयत से प्रभावित हुए। बाद में उन्होंने आर्य समाज साहित्य, कुरान और इस्लाम विचारधारा की अन्य पुस्तकें पढ़ीं। काफी समय तक उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य का अध्ययन किया और मार्क्सवाद पर लिखते भी रहे लेकिन कमियुनिस्ट नेताओं के जातिवादी चरित्र ने उनका मन खट्टा कर दिया। उन्होंने इन्गर्सेल, टामस पेन, वाल्टेयर, बर्नार्ड शा और बर्टरैंड रस्सल का अध्ययन किया। बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर से सीधे संपर्क में आने से पहले उन्होंने धर्म के बारे में अपने विचार विकसित कर लिए थे। बाबा साहेब से उनकी जान पहचान पिछड़ी जातियों के प्रसिद्ध नेता शिव दयाल सिंह चौरसिया ने करवाई थी जो कि काका कालेलकर आयोग के सदस्य थे और राज्य सभा के सदस्य भी थे।
श्री भगवान दास जी ने बाबा साहेब की रचनाओं और भाषणों का सम्पादन किया और उन पर पुस्तकें लिखीं। उनका " दस स्पोक आंबेडकर" शीर्षक से चार खण्डों में प्रकाशित ग्रन्थ देश और विदेश में अकेला दस्तावेज़ था जिनके जरिये डॉ आंबेडकर के विचार सामान्य लोगों और विद्वानों तक पहुंचे।
यह काम उन्होंने 1960 के दशक में शुरू किया था जब अभी इस की तरफ महारष्ट्र सरकार का ध्यान भी नहीं गया था। उन्होंने सफाई कर्मचारियों और भंगी जाति पर चार पुस्तकें और धोबियों पर एक छोटी पुस्तक लिखी। उनकी बहुचर्चित पुस्तक "मैं भंगी हूँ" अनेक भारतीय भाषायों में अनूदित हो चुकी है और वह दलित जातियों के इतिहास का दस्तावेज़ है।
उनकी पुस्तकें और देश विदेश के सेमीनार आदि प्रस्तुत उनके पर्चों से पता चलता है कि उनका अध्ययन कितना विस्तृत था और वह दबे कुचले लोगों के हित के प्रति कितने समर्पित थे। अगर मार्क्स ने दुनियां के मजदूरों को एक होने का आह्वान किया था तो भगवान दास जी ने भारत और एशिया के दलितों को एक होने का सन्देश दिया। मुझे नहीं लगता कि उनके अलावा कोई ऐसा व्यक्ति है जिसने एशिया के सभी दलितों को एक मंच पर लाने , उनकी मुक्ति और स्वाभिमान से उनके जीने के अधिकार के लिए इतना प्रयास किया हो। उन्होंने कुल 23 पुस्तकें लिखीं।
श्री भगवान दास जी ने भारत में दलितों के प्रति छुआछूत और भेदभाव के मामले को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाने का ऐतहासिक काम किया। भारत, नेपाल, पाकिस्तान और बांग्लादेश के जातिभेद के मामले को उन्होंने 1983 में यू एन ओ ( संयुक्त राष्ट्र संघ) में पेश किया और जापान के अछूतों बुराकुमिन के मामले को भी उठाया।
डॉ आंबेडकर भी इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाना चाहते थे परन्तु कुछ कारणों से यह संभव नहीं हो पाया था। श्री दास के प्रयासों का ही यह फल है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने छुआछुत को मानवाधिकारों का हनन मान कर भारत सरकार की जवाबदेही तय की है और अपनी ओर से भारत के लिए दो रिपोर्टियर नियुक्त किये हैं। इस के बाद वह 2001 में डरबन में नसल भेद पर संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन में भी गए थे। वास्तव में छुआछुत के मामले को अंतर्राष्टीय मंच पर पहुँचाने का सारा श्रेय श्री भगवान दास जी को ही जाता है। इस के लिए एशिया के दलित और जापान के बुराकुमिन सदैव उनके ऋणी रहेंगे।
श्री भगवान दास जी ने बहुत साधारण जीवन जिया। वह बहुत विनम्र थे और भदंत आनंद कौशल्यायन कहा करते थे, "आप में बहुत नम्रता है।" वकील के रूप में वह बहुत मेहनत करते थे। उनके ज्यादा दोस्त नहीं थे और न ही सामाजिक समारोहों में जाने में उन्हें कोई खास ख़ुशी होती थी। लायब्रेरी में या दलित शोषित लोगों की बेहतरी के लिए काम कर रहे बुद्धिजीवियों की संगत में उन्हें अधिक ख़ुशी मिलती थी।
इस महान व्यक्ति को हम लोगों ने 18 नवम्बर, 2010 को खो दिया जिससे अम्बेडकरवादी आन्दोलन की अपूर्णीय क्षति हुई है। उनके दिखाए गए मार्ग पर चलकर बाबा साहेब के मिशन को अगर हम पूरा कर सकें तो यही उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजली होगी।
बुधवार, 14 नवंबर 2012
धर्मापुरी में दलितों पर आक्रमण के निहितार्थ
एस आर दारापुरी
आई पी एस (सेवा निवृत)
दलितों के विरुद्ध 7 नवंबर को तमिलनाडु के धर्मापुरी जिले के नैकान्कोटी गाँव के तीन मजरे नाथम , अन्ना नगर और कोंदम्पति में दलितों पर हुए आक्रमण ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि हमारे समाज में जाति पूर्वाग्रह आज भी कितने मजबूत हैं और जाति सम्मान जाति पहचान से कितनी मजबूती से जुड़ा हुआ है। धर्मापुरी मे पिछड़ी जाति
एस आर दारापुरी
आई पी एस (सेवा निवृत)
दलितों के विरुद्ध 7 नवंबर को तमिलनाडु के धर्मापुरी जिले के नैकान्कोटी गाँव के तीन मजरे नाथम , अन्ना नगर और कोंदम्पति में दलितों पर हुए आक्रमण ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि हमारे समाज में जाति पूर्वाग्रह आज भी कितने मजबूत हैं और जाति सम्मान जाति पहचान से कितनी मजबूती से जुड़ा हुआ है। धर्मापुरी मे पिछड़ी जाति
के वानियार समाज के 500 लोगों ने आदिद्रवड़ जाति के दलितों के 300 घरों पर हमला करके उन्हें लूटा और बुरी तरह से तबाह किया।
समाचार पत्रों में छपी ख़बरों के अनुसार दलितों पर हमले का मुख्य कारण पिछड़ी जाति (वानियर ) की दिव्या नाम की 20 वर्ष की लड़की का दलित जाति (आदिद्रवड़ ) के 23 वर्षीय लड़के इलावर्सन के साथ एक माह पहले प्रेम विवाह था। लड़की के परिवार वाले पुलिस के पास गए और पुलिस ने दोनों पार्टियों को समझाया था कि विवाह वैध है। इस बीच 30 गाँव के वानियारों ने मीटिंग करके इस मुद्दे पर विचार किया. उन्होंने बुद्धवार को एक "कंगारू अदालत" लगायी और लड़के के घर वालों को लड़की को उसके माँ बाप को वापस करने को कहा परन्तु लड़की ने घर वापस जाने से मना कर दिया। धर्मापुरी के पुलिस कप्तान को इस की पूरी जानकारी थी। इस लिए उन्होंने उक्त अदालत में आदेश देने वालों की तलाश शुरू कर दी थी। इसे सामाजिक अपमान मानते हुए 6 नवम्बर को लड़की के पिता जी नागराजन ने आत्महत्या कर ली। इस पर 7 नवम्बर को वानियर जाति के लोगों ने बड़ी संख्या में एकत्र हो कर गाँव की तीन बस्तियों पर धावा बोल दिया। उन्होंने पेड़ काट कर सड़क पर डाल दिए ताकि पुलिस और आग बुझाने वाली गाड़ियाँ आसानी से न पहुँच सकें। दलित बस्तियों में लगभग 5-30 घंटे लूट पाट और आगजनी चलती रही और लगभग 300 दलित घर जल कर स्वाह हो गए। शुक्र है कि दलित बस्तियों पर इस हमले में कोई जान नहीं गयी क्योंकि दलित हमले से पहले ही अपने घर छोड़ कार जंगल की तरफ भाग गये थे। जले, लुटे और तबाह हुए दलित घरों की 300 की संख्या इस हमले की व्यापकता और तीव्रता को दर्शाती है। पुलिस ने अब तक 90 लोगों को गिरफ्तार किया है और 500 अन्य अज्ञात लोगों के विरुद्ध मुकदमा कायम किया है। यह उल्लेखनीय है कि घटना के समय गाँव में लगभग 300 पुलिस कर्मचारी मौजूद थे परन्तु उन्होंने हमलावरों को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। उन्होंने इस का कारण हमलावरों के मुकाबले अपनी संख्या कम होने का बहाना बनाया है।
तमिलनाडु जो कि एक उन्नत प्रदेश कहा जाता है दलितों पर इस प्रकार के हमलों और उत्पीडन के लिए कुख्यात है। यद्यपि संख्या में ये हमले कम हैं परन्तु गंभीरता और व्यापकता में ये काफी बड़े हैं।
इस से पहले भी 1968 में किलवेनमेनी गाँव में इसी प्रकार एक दलित बस्ती पर हमला हुआ था जिस में 44 दलित, जिन में अधिकतर औरतें और बच्चे, थे मौत का शिकार हो गए थे।
उपरोक्त घटना के विश्लेषण से निम्नलिखित बातें उभर कर आती हैं:-
1. हमारे समाज में आज भी जाति भेद बहुत उग्र रूप में व्याप्त है। आज भी जाति- सम्मान जाति- पहचान से बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है। जैसे ही इस को कोई ठेस पहुंचती है तो उस पर हिंसक प्रतिक्रिया देखने को मिलती है।
2. वर्तमान में दलितों का अधिकतर टकराव ऊँची जातियों के स्थान पर पिछड़ी जातियों के साथ हो रहा हैं क्योंकि यह जातियां नव ब्राह्मणवादी एवं नव धनाड्य बनी हैं। वास्तव में इन जातियों का जाति- हित और वर्ग- हित भी दलितों से टकराता है। ऐसी परिस्थिति में कुछ दलित बुद्धिजीवियों द्वारा बहु प्रचारित दलित- बहुजन (दलित और पिछड़े) एकता की अवधारणा पर भी प्रशन चिन्ह लग जाता है।
3. तमिलनाडु में रामा स्वामी नायकर पेरियार द्वारा ब्राह्मण विरोधी "आत्म सम्मान" आदोलन से आर्थिक एवं राजनितिक- सत्ता ब्राह्मणों के हाथ से निकल कर पिछड़ी जातियों के हाथ में आ गयी है जो कि एक प्रभुत्वशाली नव ब्राह्मणवादी वर्ग बन गया है और उन का दलितों के प्रति नजरिया और व्यवहार पूरी तरह से जातिवादी है।
4. खाप पंचायतें और इस मामले में कंगारू अदालतें सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के खिलाफ फतवे देकर संविधान और कानून का मजाक उड़ाती हैं परन्तु कोई भी सरकार या राजनीतिक पार्टी उन के विरुद्ध न तो कोई कार्रवाही करती है और न ही उनके फरमानों के खिलाफ कोई आवाज़ उठाती है। वर्तमान में जाति वोट बैंक की राजनीति ऐसी गैर संविधानिक संस्थायों को बढावा देती है जो कि लोकतंत्र के लिए सब से बड़ा खतरा है।
5 तमिलनाडु के ब्राह्मण विरोध आन्दोलन से यह भी स्पष्ट है कि केवल ब्राह्मण विरोध से जाति सत्ता में दलितों के पक्ष में कोई लाभकारी परिवर्तन होने की आशा नहीं की जा सकती क्योंकि इस से नव ब्राह्मणवादियों का उद्गम हो जाता है। अतः सम्पूर्ण जाति विनाश से ही जाति- भेद और जाति- उत्पीडन से निजात संभव हो सकती है। इस के लिए दलितों को ही आगे आना होगा जैसा कि डॉ आंबेडकर ने अपेक्षा की थी। वर्तमान में दलित ही जाति - भेद और जाति-उत्पीडन का सब से बड़ा शिकार हैं।
6. दलित राजनीति को भी जाति और जाति -पहचान की राजनीती से बाहर निकल कर दलितों के मूल मुद्दों पर राजनीति करनी होगी क्योंकि इस से दलित नेताओं को जाति के नाम पर दलितों के मुद्दों के समाधान के लिए कुछ भी न करके दलितों का केवल भावनात्मक शोषण करके व्यक्तिगत लाभ कमाने का मौका मिल जाता है।
7. दलित अपनी सुरक्षा के लिए सरकार अथवा पुलिस पर आश्रित रह कर उत्पीडन से नहीं बच सकते। इस मामले में भी घटना के दिन उक्त क्षेत्र में लगभग पुलिस के 300 कर्मचारी मौजूद थे परन्तु उन्होंने उपद्रवियों को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। यह सर्व विदित है पुलिस का नजरिया भी अधिकतर जातिवादी और दलित विरोधी होता है। अतः दलितों को अपनी रक्षा खुद करने के लिए आत्मरक्षा- दल बनाने पर विचार करना होगा। डॉ आंबेडकर ने इसी ध्येय से "समता सैनिक दल" की स्थापना की थी जो आज भी कमज़ोर स्थिति में मौजूद है। उसे पुनर्जीवित कर मज़बूत करने की ज़रूरत है। बाबा साहेब का "शिक्षित करो, संघर्ष करो और संघटित करो" का नारा आज और भी प्रासंगिक है। बाबा साहेब ने यह भी कहा था," सिद्धांत अहिंसा का होना चाहिए परन्तु अगर ज़रूरत हो तो हिंसा ज़रूर होनी चाहिए।" यह भी सर्वविदित है कि आत्मरक्षा में की गयी हिंसा हिंसा नहीं होती।
8. दलितों को जाति संघटनों से बाहर निकल कर वर्ग आधारित उत्पीडित वर्गों के साथ मिल कर संघटन बनाने पर विचार करना होगा क्योंकि जाति जोड़ने की नहीं तोड़ने की प्रक्रिया है। इस से जाती टूटने के स्थान पर मजबूत होती है। यह डॉ आंबेडकर के जाति एवं वर्ग विहीन समाज की स्थापना के लक्ष्य के भी प्रतिकूल है। इसी कारण से दलितों के मज़बूत संघटन नहीं बन पा रहे हैं।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों के विरुद्ध हो रहे आक्रमण और उत्पीडन की घटनाओं का विस्तार और तीव्रता लगातार बढ़ रही है जिस के परिपेक्ष्य में दलितों को आत्म रक्षा और संघटन निर्माण पर नए सिरे से सोचना होगा। दलित राजनीति को भी जाति के मकडजाल से निकाल कर वर्ग राजनीति में परिवर्तित होना होगा ताकि वे अन्य समान हित वाले वर्गों को साथ लेकर शक्तिशाली संघटन बना सकें और मुद्दा आधारित राजनीति के माध्यम से सत्ता में हिस्सेदारी पा सकें।
समाचार पत्रों में छपी ख़बरों के अनुसार दलितों पर हमले का मुख्य कारण पिछड़ी जाति (वानियर ) की दिव्या नाम की 20 वर्ष की लड़की का दलित जाति (आदिद्रवड़ ) के 23 वर्षीय लड़के इलावर्सन के साथ एक माह पहले प्रेम विवाह था। लड़की के परिवार वाले पुलिस के पास गए और पुलिस ने दोनों पार्टियों को समझाया था कि विवाह वैध है। इस बीच 30 गाँव के वानियारों ने मीटिंग करके इस मुद्दे पर विचार किया. उन्होंने बुद्धवार को एक "कंगारू अदालत" लगायी और लड़के के घर वालों को लड़की को उसके माँ बाप को वापस करने को कहा परन्तु लड़की ने घर वापस जाने से मना कर दिया। धर्मापुरी के पुलिस कप्तान को इस की पूरी जानकारी थी। इस लिए उन्होंने उक्त अदालत में आदेश देने वालों की तलाश शुरू कर दी थी। इसे सामाजिक अपमान मानते हुए 6 नवम्बर को लड़की के पिता जी नागराजन ने आत्महत्या कर ली। इस पर 7 नवम्बर को वानियर जाति के लोगों ने बड़ी संख्या में एकत्र हो कर गाँव की तीन बस्तियों पर धावा बोल दिया। उन्होंने पेड़ काट कर सड़क पर डाल दिए ताकि पुलिस और आग बुझाने वाली गाड़ियाँ आसानी से न पहुँच सकें। दलित बस्तियों में लगभग 5-30 घंटे लूट पाट और आगजनी चलती रही और लगभग 300 दलित घर जल कर स्वाह हो गए। शुक्र है कि दलित बस्तियों पर इस हमले में कोई जान नहीं गयी क्योंकि दलित हमले से पहले ही अपने घर छोड़ कार जंगल की तरफ भाग गये थे। जले, लुटे और तबाह हुए दलित घरों की 300 की संख्या इस हमले की व्यापकता और तीव्रता को दर्शाती है। पुलिस ने अब तक 90 लोगों को गिरफ्तार किया है और 500 अन्य अज्ञात लोगों के विरुद्ध मुकदमा कायम किया है। यह उल्लेखनीय है कि घटना के समय गाँव में लगभग 300 पुलिस कर्मचारी मौजूद थे परन्तु उन्होंने हमलावरों को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। उन्होंने इस का कारण हमलावरों के मुकाबले अपनी संख्या कम होने का बहाना बनाया है।
तमिलनाडु जो कि एक उन्नत प्रदेश कहा जाता है दलितों पर इस प्रकार के हमलों और उत्पीडन के लिए कुख्यात है। यद्यपि संख्या में ये हमले कम हैं परन्तु गंभीरता और व्यापकता में ये काफी बड़े हैं।
इस से पहले भी 1968 में किलवेनमेनी गाँव में इसी प्रकार एक दलित बस्ती पर हमला हुआ था जिस में 44 दलित, जिन में अधिकतर औरतें और बच्चे, थे मौत का शिकार हो गए थे।
उपरोक्त घटना के विश्लेषण से निम्नलिखित बातें उभर कर आती हैं:-
1. हमारे समाज में आज भी जाति भेद बहुत उग्र रूप में व्याप्त है। आज भी जाति- सम्मान जाति- पहचान से बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है। जैसे ही इस को कोई ठेस पहुंचती है तो उस पर हिंसक प्रतिक्रिया देखने को मिलती है।
2. वर्तमान में दलितों का अधिकतर टकराव ऊँची जातियों के स्थान पर पिछड़ी जातियों के साथ हो रहा हैं क्योंकि यह जातियां नव ब्राह्मणवादी एवं नव धनाड्य बनी हैं। वास्तव में इन जातियों का जाति- हित और वर्ग- हित भी दलितों से टकराता है। ऐसी परिस्थिति में कुछ दलित बुद्धिजीवियों द्वारा बहु प्रचारित दलित- बहुजन (दलित और पिछड़े) एकता की अवधारणा पर भी प्रशन चिन्ह लग जाता है।
3. तमिलनाडु में रामा स्वामी नायकर पेरियार द्वारा ब्राह्मण विरोधी "आत्म सम्मान" आदोलन से आर्थिक एवं राजनितिक- सत्ता ब्राह्मणों के हाथ से निकल कर पिछड़ी जातियों के हाथ में आ गयी है जो कि एक प्रभुत्वशाली नव ब्राह्मणवादी वर्ग बन गया है और उन का दलितों के प्रति नजरिया और व्यवहार पूरी तरह से जातिवादी है।
4. खाप पंचायतें और इस मामले में कंगारू अदालतें सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के खिलाफ फतवे देकर संविधान और कानून का मजाक उड़ाती हैं परन्तु कोई भी सरकार या राजनीतिक पार्टी उन के विरुद्ध न तो कोई कार्रवाही करती है और न ही उनके फरमानों के खिलाफ कोई आवाज़ उठाती है। वर्तमान में जाति वोट बैंक की राजनीति ऐसी गैर संविधानिक संस्थायों को बढावा देती है जो कि लोकतंत्र के लिए सब से बड़ा खतरा है।
5 तमिलनाडु के ब्राह्मण विरोध आन्दोलन से यह भी स्पष्ट है कि केवल ब्राह्मण विरोध से जाति सत्ता में दलितों के पक्ष में कोई लाभकारी परिवर्तन होने की आशा नहीं की जा सकती क्योंकि इस से नव ब्राह्मणवादियों का उद्गम हो जाता है। अतः सम्पूर्ण जाति विनाश से ही जाति- भेद और जाति- उत्पीडन से निजात संभव हो सकती है। इस के लिए दलितों को ही आगे आना होगा जैसा कि डॉ आंबेडकर ने अपेक्षा की थी। वर्तमान में दलित ही जाति - भेद और जाति-उत्पीडन का सब से बड़ा शिकार हैं।
6. दलित राजनीति को भी जाति और जाति -पहचान की राजनीती से बाहर निकल कर दलितों के मूल मुद्दों पर राजनीति करनी होगी क्योंकि इस से दलित नेताओं को जाति के नाम पर दलितों के मुद्दों के समाधान के लिए कुछ भी न करके दलितों का केवल भावनात्मक शोषण करके व्यक्तिगत लाभ कमाने का मौका मिल जाता है।
7. दलित अपनी सुरक्षा के लिए सरकार अथवा पुलिस पर आश्रित रह कर उत्पीडन से नहीं बच सकते। इस मामले में भी घटना के दिन उक्त क्षेत्र में लगभग पुलिस के 300 कर्मचारी मौजूद थे परन्तु उन्होंने उपद्रवियों को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। यह सर्व विदित है पुलिस का नजरिया भी अधिकतर जातिवादी और दलित विरोधी होता है। अतः दलितों को अपनी रक्षा खुद करने के लिए आत्मरक्षा- दल बनाने पर विचार करना होगा। डॉ आंबेडकर ने इसी ध्येय से "समता सैनिक दल" की स्थापना की थी जो आज भी कमज़ोर स्थिति में मौजूद है। उसे पुनर्जीवित कर मज़बूत करने की ज़रूरत है। बाबा साहेब का "शिक्षित करो, संघर्ष करो और संघटित करो" का नारा आज और भी प्रासंगिक है। बाबा साहेब ने यह भी कहा था," सिद्धांत अहिंसा का होना चाहिए परन्तु अगर ज़रूरत हो तो हिंसा ज़रूर होनी चाहिए।" यह भी सर्वविदित है कि आत्मरक्षा में की गयी हिंसा हिंसा नहीं होती।
8. दलितों को जाति संघटनों से बाहर निकल कर वर्ग आधारित उत्पीडित वर्गों के साथ मिल कर संघटन बनाने पर विचार करना होगा क्योंकि जाति जोड़ने की नहीं तोड़ने की प्रक्रिया है। इस से जाती टूटने के स्थान पर मजबूत होती है। यह डॉ आंबेडकर के जाति एवं वर्ग विहीन समाज की स्थापना के लक्ष्य के भी प्रतिकूल है। इसी कारण से दलितों के मज़बूत संघटन नहीं बन पा रहे हैं।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों के विरुद्ध हो रहे आक्रमण और उत्पीडन की घटनाओं का विस्तार और तीव्रता लगातार बढ़ रही है जिस के परिपेक्ष्य में दलितों को आत्म रक्षा और संघटन निर्माण पर नए सिरे से सोचना होगा। दलित राजनीति को भी जाति के मकडजाल से निकाल कर वर्ग राजनीति में परिवर्तित होना होगा ताकि वे अन्य समान हित वाले वर्गों को साथ लेकर शक्तिशाली संघटन बना सकें और मुद्दा आधारित राजनीति के माध्यम से सत्ता में हिस्सेदारी पा सकें।
शुक्रवार, 2 नवंबर 2012
सोमवार, 29 अक्तूबर 2012
रविवार, 23 सितंबर 2012
पूना पैकट दलित गुलामी का दस्तावेज़
पूना पैकट दलित
गुलामी का दस्तावेज़
एस.आर.दारापुरी. राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल
इंडिया पीपुल्ज़ फ्रंट
(24 सितंबर को पूना पैक्ट दिवस पर विशेष)
भारतीय हिन्दू समाज में जाति
को आधारशिला माना गया है. इस में श्रेणीबद्ध असमानता के ढांचे में अछूत सबसे निचले
स्तर पर हैं जिन्हें 1935 तक
सरकारी तौर
पर ' डिप्रेस्ड क्लासेज'
कहा जाता था. गांधी जी ने उन्हें 'हरिजन' के नाम से पुरस्कृत किया था जिसे अधिकतर
अछूतों ने स्वीकार नहीं किया था. अब उन्होंने अपने लिए 'दलित' नाम स्वयम चुना है जो उनकी पददलित स्थिति का परिचायक है. वर्तमान
में वे भारत की कुल आबादी का लगभग छठा
भाग (16.20 %) तथा
कुल हिन्दू आबादी का पांचवा भाग (20.13
%) हैं. अछूत सदियों से
हिन्दू समाज
में सभी प्रकार के सामाजिक, धार्मिक,
आर्थिक व शैक्षिक अधिकारों से वंचित रहे हैं और
काफी हद तक आज भी हैं.
दलित
कई प्रकार की वंचनाओं एवं निर्योग्यताओं को झेलते रहे हैं.
उनका हिन्दू समाज एवं राजनीति में
बराबरी का
दर्जा पाने के संघर्ष का एक लम्बा इतिहास रहा है. जब श्री. ई.एस. मान्तेग्यु, सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया,
ने पार्लियामेंट में 1917 में यह महत्वपूर्ण घोषणा की कि "अंग्रेजी सरकार का अंतिम लक्ष्य भारत को डोमिनियन स्टेट्स
देना है तो दलितों ने बम्बई में दो मीटिंगें करके अपना मांग पत्र वाइसराय तथा भारत भ्रमण पर
भारत आये सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया को दिया. परिणामस्वरूप निम्न जातियों
को विभिन्न प्रान्तों में अपनी समस्यायों को 1919 के भारतीय संवैधानिक सुधारों के पूर्व
भ्रमण कर रहे कमिशन
को पेश करने का मौका मिला.
तदोपरांत
विभिन्न कमिशनों , कांफ्रेंसों
एवं कौंसिलों का
एक लम्बा एवं जटिल सिलसिला
चला. सन 1918 में मान्तेग्यु चैमस्फोर्ड
रिपोर्ट के बाद 1924 में
मद्दीमान कमेटी रिपोर्ट आई जिसमें कौंसलों में डिप्रेस्ड क्लासेज
के अति अल्प प्रतिनिधित्व और उसे बढ़ाने के उपायों के बारे में बात कही
गयी. साईमन कमीशन (1928) ने
स्वीकार किया
कि डिप्रेस्ड क्लासेज को पर्याप्त प्रातिनिधित्व दिया जाना चाहिए. सन 1930 से 1932 एक लन्दन में तीन गोलमेज़ कान्फ्रेंसें
हुयीं जिन में अन्य अल्प संख्यकों के साथ साथ दलितों के भी भारत के भावी संविधान के निर्माण में अपना मत देने के
अधिकार को मान्यता
मिली. यह एक ऐतहासिक एवं निर्णयकारी परिघटना
थी . इन गोलमेज़ कांफ्रेंसों
में डॉ. बी. आर. आंबेडकर तथा राव बहादुर आर. श्रीनिवासन द्वारा
दलितों के प्रभावकारी प्रतिनिधित्व एवं ज़ोरदार प्रस्तुति
के कारण 17 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश सरकार द्वारा घोषित 'कमिनुअल अवार्ड' में दलितों को पृथक निर्वाचन का स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकार मिला.
इस अवार्ड से दलितों को आरक्षित सीटों पर पृथक निर्वाचन द्वारा अपने प्रतिनिधि स्वयं
चुनने तथा साथ ही सामान्य जाति के निर्वाचन क्षेत्रों में
सवर्णों को चुनने हेतु दो वोट का अधिकार भी प्राप्त हुआ. इस प्रकार भारत
के इतिहास में अछूतों को पहली
वार राजनैतिक स्वतंत्रता
का अधिकार प्राप्त
हुआ जो उनकी
मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता था.
उक्त
अवार्ड द्वारा दलितों को
गवर्नमेंट आफ इंडिया
एक्ट,1919 में अल्प संख्यकों के
रूप में मिली मान्यता के आधार पर अन्य अल्प संख्यकों - मुसलमानों,
सिक्खों, ऐंग्लो इंडियनज तथा कुछ अन्य के साथ साथ पृथक
निर्वाचन के रूप में प्रांतीय विधायकाओं एवं केन्द्रीय एसेम्बली हेतु अपने प्रतिनिधि स्वयं
चुनने का अधिकार मिला तथा उन सभी के लिए सीटों की
संख्या निश्चित की गयी. इसमें अछूतों के लिए 78 सीटें विशेष निर्वाचन क्षेत्रों के रूप में आरक्षित
की गयीं.
गाँधी
जी ने उक्त अवार्ड
की घोषणा होने पर यरवदा
(पूना) जेल में 18 अगस्त,
1932 को दलितों को मिले पृथक
निर्वाचन के अधिकार के विरोध में 20 सितम्बर, 1932 से
आमरण अनशन
करने की घोषणा कर दी. गाँधी जी का मत था कि इससे अछूत हिन्दू
समाज से
अलग हो जायेंगे जिससे
हिन्दू समाज व हिन्दू धर्म विघटित हो जायेगा. यह ज्ञातव्य है कि उन्होंने मुसलमानों,
सिक्खों व ऐंग्लो- इंडियनज को मिले उसी अधिकार का कोई विरोध
नहीं किया था. गाँधी जी ने इस अंदेशे को
लेकर 18 अगस्त, 1932 को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री,
श्री रेम्ज़े मैकडोनाल्ड को एक पत्र भेज कर
दलितों को दिए गए पृथक निर्वाचन के अधिकार को समाप्त करके संयुक्त मताधिकार की व्यवस्था करने तथा हिन्दू समाज को विघटन से बचाने की अपील की.
इसके उत्तर में ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने अपने पत्र दिनांकित 8 सितम्बर, 1932 में अंकित किया, " ब्रिटिश सरकार की योजना के अंतर्गत दलित वर्ग हिन्दू समाज के अंग
बने रहेंगे और वे हिन्दू निर्वाचन के लिए समान रूप से मतदान करेंगे, परन्तु ऐसी व्यवस्था प्रथम 20 वर्षों तक रहेगी तथा हिन्दू समाज का अंग रहते हुए
उनके लिए सीमित संख्या में विशेष निर्वाचन क्षेत्र
होंगे ताकि उनके
अधिकारों और हितों की रक्षा हो सके. वर्तमान स्थिति में ऐसा करना नितांत
आवश्यक हो गया है. जहाँ जहाँ विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे वहां वहां
सामान्य हिन्दुओं के निर्वाचन क्षेत्रों में दलित वर्गों को मत देने से वंचित नहीं
किया जायेगा. इस प्रकार दलितों के लिए दो मतों का अधिकार होगा - एक
विशेष निर्वाचन क्षेत्र के अपने सदस्य के लिए और दूसरा हिन्दू समाज के सामान्य
सदस्य के लिए. हम ने जानबूझ कर
- जिसे
आप ने अछूतों के लिए सम्प्रदायिक निर्वाचन कहा है, उसके विपरीत फैसला दिया है. दलित वर्ग
के मतदाता सामान्य अथवा
हिन्दू निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्ण उमीदवार को मत दे सकेंगे तथा सवर्ण
हिन्दू मतदाता
दलित वर्ग के उमीदवार
को उसके निर्वाचन क्षेत्र में मतदान क़र सकेंगे. इस प्रकार हिन्दू समाज की
एकता को सुरक्षित रखा गया है." कुछ
अन्य तर्क देने के बाद उन्होंने गाँधी जी से आमरण अनशन छोड़ने का आग्रह किया था.
परन्तु
गाँधी जी
ने प्रत्युत्तर में आमरण अनशन को अपना पुनीत धर्म मानते हुए कहा कि दलित वर्गों को केवल दोहरे
मतदान का अधिकार देने से उन्हें तथा हिन्दू समाज को छिन्न - भिन्न
होने से नहीं रोका जा सकता. उन्होंने
आगे कहा, " मेरी समझ में दलित वर्ग के
लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था
करना हिन्दू धर्म को बर्बाद करने का इंजेक्शन लगाना है.
इस से दलित वर्गों का कोई लाभ नहीं होगा." गंधी जी ने इसी प्रकार के
तर्क दूसरी और तीसरी गोल मेज़ कांफ्रेंस में भी दिए थे जिसके प्रत्युत्तर में
डॉ. आंबेडकर ने गाँधी जी के दलितों के भी अकेले प्रतिनिधि और उनके शुभचिन्तक
होने के दावे को नकारते हुए उनसे दलितों के राजनीतिक अधिकारों का विरोध न
करने का अनुरोध किया था. उन्होंने यह भी कहा था कि फिलहाल दलित केवल
स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकारों की ही मांग कर रहे हैं न कि हिन्दुओं से अलग हो कर अलग देश बनाने की. परन्तु
गाँधी जी का
सवर्ण हिन्दुओं के हित को सुरक्षित रखने और अछूतों को हिन्दू समाज का गुलाम बनाये रखने का स्वार्थ था. यही
कारण था कि उन्होंने सभी तथ्यों व तर्कों को नकारते हुए 20 सितम्बर, 1932 को अछूतों के पृथक निर्वाचन के अधिकार के विरुद्ध
आमरण अनशन शुरू कर दिया. यह एक विकट स्थिति थी. एक तरफ गाँधी जी के पक्ष में एक विशाल
शक्तिशाली हिन्दू समुदाय था, दूसरी
तरफ डॉ. आंबेडकर और अछूत समाज. अंतत भारी दबाव एवं अछूतों के संभव जनसंहार के भय तथा गाँधी जी की जान बचाने के उद्देश्य से
डॉ. आंबेडकर तथा उनके साथियों
को दलितों के पृथक निर्वाचन के अधिकार की बलि देनी पड़ी और सवर्ण हिन्दुओं से 24
सितम्बर, 1932 को तथाकथित पूना पैक्ट करना पड़ा. इस प्रकार अछूतों को
गाँधी जी की जिद्द के कारण अपनी राजनैतिक आज़ादी के अधिकार को खोना पड़ा.
यद्यपि
पूना पैक्ट के
अनुसार दलितों के लिए ' कम्युनल अवार्ड' में सुरक्षित सीटों की संख्या
बढ़ा कर 78 से 151 हो गयी परन्तु संयुक्त निर्वाचन के कारण उनसे अपने
प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार छिन्न गया जिसके दुष्परिणाम आज तक दलित समाज
झेल रहा है. पूना पैकट के प्रावधानों को गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट,
1935 में शामिल करने के
बाद सन 1937 में
प्रथम चुनाव संपन्न हुआ जिसमें गाँधी जी के दलित प्रतिनिधियों को कांग्रेस द्वारा कोई भी दखल न देने के
दिए गए आश्वासन के बावजूद कांग्रेस ने 151 में से 78 सीटें हथिया लीं क्योंकि संयुक्त
निर्वाचन प्रणाली में दलित पुनः सवर्ण वोटों पर निर्भर हो गए थे.
गाँधी जी और कांग्रेस के इस छल से खिन्न होकर डॉ. आंबेडकर ने कहा था,
" पूना पैकट
में दलितों के साथ
बहुत बड़ा धोखा हुआ
है."
कम्युनल
अवार्ड के माध्यम से अछूतों के पृथक निर्वाचन के रूप में अपने प्रतिनिधि
स्वयं चुनने और
दोहरे वोट के अधिकार से सवर्ण हिन्दुओं की भी दलितों पर निर्भरता से दलितों का
स्वंतत्र राजनीतिक
अस्तित्व सुरक्षित
रह सकता था परन्तु
पूना पैक्ट करने की विवशता ने दलितों को फिर से सवर्ण
हिन्दुओं का गुलाम बना दिया. इस व्यवस्था से आरक्षित सीटों पर जो सांसद या विधायक चुने जाते हैं वे वास्तव में दलितों
द्वारा न चुने जा कर विभिन्न राजनैतिक पार्टियों एवं सवर्णों द्वारा चुने जाते हैं जिन्हें
उन का गुलाम/ बंधुआ बन कर रहना पड़ता है. सभी राजनैतिक पार्टियाँ गुलाम
मानसिकता वाले ऐसे प्रतिनिधियों पर कड़ा नियंत्रण रखती हैं और पार्टी लाइन से हट कर किसी भी दलित
मुद्दे को उठाने
या उस पर बोलने
की इजाजत नहीं देतीं. यही कारण है कि लोकसभा तथा विधान सभायों में दलित प्रतिनिधियों कि
स्थिति महाभारत के
भीष्म पितामह जैसी
रहती है जिस ने यह
पूछने पर कि " जब कौरवों के दरबार में द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था तो आप क्यों नहीं बोले?"
इस पर उन का उत्तर था, " मैंने कौरवों का नमक खाया था."
वास्तव
में कम्युनल अवार्ड से दलितों को स्वंतत्र राजनैतिक अधिकार प्राप्त हुए
थे जिससे वे अपने
प्रतिनिधि स्वयं चुनने के लिए सक्षम हो गए थे और वे उनकी आवाज़ बन सकते थे. इस
के साथ ही दोहरे
वोट के अधिकार के कारण सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में सवर्ण हिन्दू भी उन पर निर्भर रहते और दलितों को नाराज़ करने की हिम्मत
नहीं करते. इस से हिन्दू समाज में एक नया समीकरण बन सकता था जो दलित मुक्ति
का रास्ता प्रशस्त
करता. परन्तु गाँधी जी ने हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म के विघटित होने की झूठी दुहाई दे कर तथा आमरण अनशन का
अनैतिक हथकंडा अपना कर दलितों की राजनीतिक स्वतंत्रता का हनन कर लिया
जिस कारण दलित फिर से सवर्णों के राजनीतिक गुलाम बन गए. वास्तव
में गाँधी जी की चाल काफी हद तक
राजनीतिक भी थी
जो कि बाद में उनके एक अवसर पर सरदार पटेल को कही गयी इस बात से भी स्पष्ट है:
" अछूतों
के अलग मताधिकार के परिणामों से मैं भयभीत हो उठता हूँ. दूसरे वर्गों के लिए अलग निर्वाचन
अधिकार के बावजूद भी मेरे पास उनसे सौदा करने की गुंजाइश रहेगी परन्तु मेरे
पास अछूतों से सौदा करने का कोई साधन नहीं रहेगा. वे नहीं जानते कि पृथक
निर्वाचन हिन्दुओं को इतना बाँट देगा कि उसका अंजाम खून खराबा होगा.
अछूत गुंडे मुसलमान गुंडों से मिल जायेंगे और हिन्दुओं को मारेंगे. क्या
अंग्रेजी सरकार
को इस का कोई अंदाज़ा नहीं है? मैं
ऐसा नहीं सोचता." (महादेव देसाई, डायरी,
पृष्ट 301, प्रथम खंड).
गाँधी
जी के इस सत्य कथन से आप गाँधी जी द्वारा अछूतों को पूना पैक्ट करने के लिए बाध्य करने के असली
उद्देश्य का अंदाज़ा लगा सकते हैं.
दलितों की संयुक्त
मताधिकार व्यवस्था के कारण सवर्ण
हिन्दुओं पर निर्भरता के फलस्वरूप दलितों की कोई भी राजनैतिक पार्टी पनप
नहीं पा रही
है चाहे वह डॉ.
आंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन
पार्टी ही क्यों न हो. इसी कारण डॉ. आंबेडकर को भी दो बार चुनाव में हार का
मुंह देखना पड़ा क्योंकि आरक्षित सीटों पर सवर्ण वोट ही निर्णायक होता है. इसी
कारण सवर्ण पार्टियाँ ही अधिकतर आरक्षित सीटें जीतती हैं. पूना
पैक्ट के इन्हीं दुष्परिणामों के कारण ही डॉ. आंबेडकर ने संविधान में
राजनैतिक आरक्षण को केवल 10 वर्ष
तक ही जारी
रखने की बात कही थी. परन्तु विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इसे दलितों के हित में नहीं
बल्कि अपने स्वार्थ के लिए अब तक लगातार 10-10 वर्ष तक बढाती चली आ रही हैं क्योकि इस से उन्हें अपने
मनपसंद और गुलाम दलित
सांसद और विधायक चुनने की सुविधा रहती है.
सवर्ण हिन्दू राजनीतिक
पार्टियाँ दलित नेताओं को खरीद लेती हैं और दलित पार्टियाँ कमज़ोर हो कर टूट जाती
हैं. यही कारण है की उत्तर भारत में तथाकथित दलितों की कही जाने वाली बहुजन
समाज पार्टी भी ब्राह्मणों और बनियों के पीछे घूम रही है और "
हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा,
विष्णु, महेश है" जैसे नारों को स्वीकार करने के
लिए वाध्य है. अब तो उसका रूपान्तार्ण बहुजन से सर्वजन में हो गया है. इन
परिस्थितयों के कारण दलितों का बहुत अहित हुआ है वे राजनीतिक तौर प़र सवर्णों के गुलाम बन कर रह गए हैं. अतः इस सन्दर्भ
में पूना पैक्ट के औचित्य की समीक्षा
करना समीचीन होगा. क्या दलितों को पृथक निर्वाचन की मांग पुनः
उठाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए?
यद्यपि पूना पैक्ट की शर्तों
में छुआ-छूत को समाप्त करने, सरकारी
सेवाओं में आरक्षण
देने तथा दलितों की शिक्षा के लिए बजट का प्रावधान करने की बात थी परन्तु आजादी के 65
वर्ष बाद भी उनके किर्यान्वयन की स्थिति
दयनीय ही है. डॉ. आंबेडकर ने अपने इन अंदेशों को पूना पैक्ट के अनुमोदन हेतु
बुलाई गयी 25 सितम्बर,
1932 को बम्बई में सवर्ण
हिन्दुओं की बहुत बड़ी मीटिंग में व्यक्त करते हुए कहा था, " हमारी एक ही चिंता है. क्या हिन्दुओं की
भावी पीढियां
इस समझौते का अनुपालन करेंगी ? " इस पर सभी सवर्ण हिन्दुओं ने एक स्वर में कहा था, " हाँ, हम करेंगे." डॉ. आंबेडकर ने यह भी
कहा था, " हम देखते हैं कि
दुर्भाग्यवश हिन्दू सम्प्रदाय एक संघटित समूह नहीं है बल्कि विभिन्न सम्प्रदायों की फेडरेशन
है. मैं आशा और विश्वास करता हूँ कि आप अपनी तरफ से इस
अभिलेख को पवित्र मानेंगे तथा एक सम्मानजनक भावना से काम करेंगे." क्या आज सवर्ण हिन्दुओं
को अपने पूर्वजों द्वारा दलितों के साथ किये गए इस समझौते को ईमानदारी से लागू
करने के बारे में थोडा बहुत
आत्म चिंतन
नहीं करना चाहिए. यदि वे इस समझौते को ईमानदारी से लागू करने में अपना अहित देखते हैं
तो क्या उन्हें दलितों के पृथक निर्वाचन का राजनैतिक अधिकार लौटा नहीं देना चाहिए? मेरे विचार में अब समय आ गया है जब
दलितों को संगठित हो कर आरक्षित सीटों पर वर्तमान संयुक्त चुनाव प्रणाली की जगह
पृथक चुनाव प्रणाली की मांग उठानी चाहिए ताकि वे अपने प्रतिनिधियों को सवर्णों की
जगह स्वयम चुनने में सक्षम हो सकें.
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