मंगलवार, 26 मई 2020

फासीवाद के विरुध्द संघर्ष में लेनिन से सीखने की जरूरत है खारिज करने की नहीं


फासीवाद के विरुध्द संघर्ष में लेनिन से सीखने की जरूरत है खारिज करने की नहीं
-    एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इण्डिया पीपुल्स फ्रंट



इंडियन एक्सप्रेस में इधर किसी लेख के जवाब में लेखकअध्यापक और सामाजिक कार्यकर्ता अपूर्वानंद की टिप्पणी पर नजर पड़ी.  पहले तो मुझे लगा कि शायद लेखक कह रहे हैं कि लेनिन के क्रांति के मॉडल को भारत में दोहराने की जरूरत नहीं है। लेकिन जब पूरा लेख पढ़ा तो मुझे आश्चर्य और बेहद निराशा हुई। लेखक महोदय ने न केवल लेनिन और रूस की अक्टूबर क्रांति को खारिज किया है बल्कि यहां तक कह दिया है कि लेनिन ने जो व्यवहार रूस में अपनी जनता के साथ किया था. वैसा ही व्यवहार पिछले वर्षों से भारत में देश की जनता के साथ किया जा रहा है। यानी मोदी सरकार से भी बदतर सोवियत सरकार रही है। हममें से कुछ उदारवादियों की यह समस्या है कि वह राज्य और सरकार के वर्ग चरित्र से पूरी तौर पर आंख बंद कर लेते हैं। 
भला कोई आदमी सोवियत यूनियन के राज्य का और यहां (भारत) के सामंती पूंजीवादी राज्य की तुलना कैसे कर सकता है।
कहां सोवियत सरकार मजदूरकिसानशोषित-उत्पीड़ित जनता के राज्य का प्रतिनिधित्व करती है और कहां यहां की सरकार जो कि घोर सामंतीकारपोरेटपूंजीपतियों की ब्राह्मणवादी सरकार है। 
हमने भारतवर्ष में अधिकांश उदारवादी राजनेताओं का यहां तक कि गांधीजीलोहिया व जयप्रकाश की रचनाओं का भी अध्ययन किया है। कहीं भी हमने अक्टूबर क्रांति को और लेनिन को इस तरह से खारिज करते हुए नहीं देखा है। कोई ऐसा कर भी कैसे सकता है। मानव इतिहास में जो भूमिका अक्टूबर क्रांति की हैउसने दुनिया की सभ्यता को मानवता को एक नया युग दियाएक नई सभ्यता और संस्कृति दी। लेखकों को और बुद्धिजीवियों को दर्शन और अवधारणा के क्षेत्र में तर्क और खंडन करने का पूरा अधिकार है। लेकिन राजनीति वास्तविकताओं और संभावनाओं के ही दायरे में काम करती है। 1789 की स्वतंत्रतासमता और बंधुत्व की फ्रांस की महान क्रांति की जमींन पर तानाशाह सम्राट नेपोलियन ने कब्ज़ा कर क्रांति के मूल्यों को खत्म कर दिया था. यूरोप में 1848 की क्रांति विफल हो गई थी,  पेरिस कम्यून की क्रांति को रौंद दिया गया था। समाजवादी क्रांतिकारियों और मेंसेविकों के लोकतंत्र का रूसी प्रयोग न केवल बेहद निम्न कोटि का था बल्कि विफल होने के लिए अभिशप्त था।  इसी पृष्ठभूमि में लेनिन ने यूरोप की विफल क्रांतियों से सीख लेते हुए परिवर्तन की राजनीति का जो यथार्थ बनायाजो अक्टूबर क्रांति की, उसने दुनिया के इतिहास के चित्र को ही बदल दिया।
यह अक्टूबर क्रांति ही थी जिसने हमारे जैसे ढेर सारे गुलाम मुल्क के लोगों में आजादी की लड़ाई को नई रोशनी दीहमारे संघर्ष को स्वतंत्रता तक पहुंचाया। यह लेनिन की राजनीति की विरासत ही थीजिसने हिटलर और मुसोलिनी के नाज़ीवाद और फासीवाद को शिकस्त देकर उदारता और मानवता की रक्षा की। अगर उस समय फासीवाद को परास्त करने की यह ऐतिहासिक जिम्मेदारी सोवियत यूनियन ने न ली होती तो आज हम उदारवादियों की क्या स्थिति होतीयह कहना मेरे लिए मुश्किल है। 
    माना कि लेनिन से भी गलतियां हुई होगी। लेकिन उन परिस्थितियों पर भी गौर करने की जरूरत है जहां वह चारों तरफ मानवता विरोधी ताकतों से घिरे हुए थे। यह जरुर है कि लेनिन ने 1918 से 1921 तक वार कम्यूनिज्म का दौर चलायाजिसमें कुछ ज्यादतियां भी हुई,  लेकिन उन्हीं लेनिन ने सोवियत यूनियन के लिए एक नई अर्थव्यवस्था का भी प्रयोग किया। मार्क्स की वह महान अवधारणा जिसमें कोई राज्य नहीं होगाजिसमें मनुष्य खुद ही अपनी नियति का कर्ता होगाजीवन संपूर्णता में जियेगाउसका पहला सफल राजनीतिक प्रयोग लेनिन ने ही किया. लेनिन का यह प्रयोग मानवता में यह विश्वास पैदा करता है कि एक राज्यविहीन समाज का भी निर्माण आने वाली पीढ़ियां जरूर करेंगीजिसमें मनुष्य की मर्यादा और सत्ता सर्वोपरि होगी। 
लेनिन जानते थे कि बगैर वर्ग के विनाश के मनुष्यता की,  मानवता की रक्षा नहीं की जा सकती। जिस विविधता, बहुलता के नागरिक समाज को आज हम दुनिया में देखते हैंउसकी भी नीव लेनिन ने ही रखी थी। यही नहीं नर-नारी समानता का उद्घोष लेनिन से ही हुआ था। इसलिए दुनिया भर के नारी आंदोलन आज भी लेनिन को अपना पथ प्रदर्शक मानते हैं। भारतवर्ष में डॉक्टर अंबेडकर ने भी यह महसूस किया कि यहां जातियां ही हैं जो वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं और बिना जाति विनाश के नागरिक समाज का निर्माण नहीं हो सकता.  स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के विचार को फलीभूत नहीं किया जा सकता। वर्ग विहीन समाज में ही जाति विनाश और जाति विहीन समाज से ही वर्ग विहीन समाज का निर्माण होता है। वर्ग और जाति के विरुद्ध संघर्ष एक संपूर्ण  इकाई है उसे एक दूसरे के विरुद्ध नहीं खड़ा किया जा सकता है। बुद्ध ने भी ब्राह्मणवाद सेजातिवाद से मुक्ति के लिए ही इस लोक  और व्यक्ति के ज्ञान पर जोर दिया और कहा कि अप्प दीपो भव:।  यह महान दर्शन भी भारत में ब्राह्मणवाद से पराजित हुआलेकिन मानव जाफ़्तिरांस क्रांति, की सेवा में इसकी भूमिका समाप्त नहीं हुई है। 
        इसलिए इस दौर में जहां फासीवाद अपने वीभत्स रूप में भारतीय राज्यसमाज और जीवन को निगलने में लगा हुआ हैलेनिन से सीखने की जरूरत है, खारिज करने की नहीं। नवउदारवाद निकृष्ट और निर्मम उत्पादन प्रणाली हैजो हमारे देश में फासीवाद का कारण बनी हुई है। उससे निपटने में उदार विचार और पूंजीवादी व्यवस्था सक्षम नहीं दिख रहे हैं। इसलिए नई समतामूलक आर्थिकराजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के लिए मार्क्स और लेनिन से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। जैसे हम डाक्टर अंबेडकरगांधीलोहियाजय प्रकाश  के प्रयोग से सीख सकते हैं। स्वयं गांधी जी ने भी बहुत सारी गलतियां की थींलेकिन आज हम उन्हें फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में खारिज तो नहीं कर सकते हैं।

मंगलवार, 12 मई 2020

मेहनतकशों को चाहिए नया गणतंत्र!


मेहनतकशों को चाहिए नया गणतंत्र!
-लाल बहादुर सिह,  नेता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
देश के बहुसंख्य आमजन-मेहनतकशों के लिए ऐसी सरकार, ऐसे राज्य के बने रहने का तर्क खत्म हो गया है!  कोरोना की आपदा तो वैश्विक है, लेकिन इससे जिस तरह हमारे देश में निपटा जा रहा है, उसने मजदूरों की जिस दिल दहला देने वाली अकल्पनीय यातना को जन्म दिया है, उसका पूरी दुनिया में कोई सानी नहीं है ! आने वाले कल कोई संवेदनशील इतिहासकार/पत्रकार/साहित्यकार जब इन दुःख की इन महागाथाओं, शासकों की अनन्त क्रूरता और मजदूरों की अदम्य जिजीविषा को लिपिबद्ध करेगा तो वह विश्व इतिहास का मानव पीड़ा का सबसे महाकाव्य बन जायेगा। आधुनिक इतिहास की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी के हम साक्षी है!
आज बस सभी सम्भव तरीकों से मरने के लिए उन्हें छोड़ दिया गया है- भूख से, बीमारी से, घर की अनंत यात्रा के बीच रास्ते में बेदम होकर दम तोड़ते, भूखे पेट जेल जाते पुलिस की मार खाते, ट्रेन से कटकर, हाइवे पर कुचलकर, पुलिस की मार से नदी में कूदकर, आत्महत्या कर.....और अंत में कोरोना से भी सबसे ज्यादा वही मरेंगे क्योंकि उनके पास अच्छी रोग प्रतिरोधक क्षमता देने  वाला भोजन व 'सोशल डिस्टेंसिंग' मेंटेन कर सकने लायक घर में रहने की न सुविधा है, न प्राइवेट इलाज के खर्च लायक औकात, न प्राथमिकता में अच्छा सरकारी इलाज-आईसीयू, वेंटिलेटर पाने की हैसियत !
आज जब 50 दिनों से अधभूखे-प्यासे, जीवन की भयानक असुरक्षा, अपनों की चिंता में डूबे मजदूर, अपने गाँव लौटना चाह रहे हैं, तो उन्हें सभी सम्भव तरीकों से रोकने की, हतोत्साहित करने की साजिश की जा रही है, ताकि मुनाफाखोरी का पहिया चलता रहे। आज वे चीख चीख कर कह रहे हैं कि अगर उन्हें अपने काम की जगह पर भर पेट भोजन मिलता रहता तो वे इतनी अपार तकलीफें झेलते हुए 'रोटी की जगह पुलिस के लट्ठ खाते हुए' , दुधमुंहे बच्चों, गर्भवती पत्नियों के साथ हजारों किमी की जानलेवा असुरक्षित यात्रा पर कत्तई न निकलते, जब वे गुहार लगा रहे कि, 'हमें सरकार से कुछ नहीं चाहिए, न रोटी, न पैसा, बस हमें घर/गाँव जाने दिया जाय' , जब वे चरम हताशा में चीत्कार कर रहे हैं कि या तो ' हमें गाँव जाने दो या गोली मार दो '। अपनी सारी दौलत के सृजनहार जिन मजदूरों को उनके मालिक और सरकार भरपेट भोजन न दे सकी और उन्हें गांवों की ओर भागने के लिए मजबूर कर दी, उन्हें महान दार्शनिक प्रधानमंत्री जी दर्शन समझा रहे हैं कि यह मानव स्वभाव है कि वह अपने गाँव जाना चाहता है!
उनके इस मौलिक रहस्योद्घाटन की तुलना उनके ही दूसरे ऐसे ही सुभाषित से की जा सकती है जब उन्होंने बताया था की सीवर साफ करने वाले मजदूर को उसमें आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती है ! आज ऐसा लग रहा है, जैसा मजदूरों के लिए राज्य अस्तित्वहीन हो चुका है और अपने ही राष्ट्र में वे बेगाने हो गए हैं, 'उदार' भारतीय राज्य में श्रमिकों की रक्षा के लिए बने सारे संवैधानिक प्रावधान, नियम-कानून, सारी संवैधानिक संस्थाएं मजदूरों के लिए अर्थहीन हो गयी हैं ! आज जब अप्रत्याशित, अकल्पनीय विपत्ति का पहाड़ उनके ऊपर टूट पड़ा है, तब, कोई उनको नहीं बचा पाया, न राष्ट्रवाद, न लोकतंत्र, न संविधान!
बेहयाई और क्रूरता की हद तो यह है कि एक ऐसे समय में जब उन्हें सबसे ज्यादा मदद की जरूरत है, उनसे उनकी सेवा- सुरक्षा के न्यूनतम संवैधानिक, कानूनी सुरक्षा कवच को भी छीना जा रहा है !
यह संविधान की धारा 21 के तहत उन्हें प्राप्त गरिमामय जीवन के अधिकार का भी निषेध है, जिसे देश के संविधान के अनुसार आपातकाल में भी नहीं छीना जा सकता। डॉo आंबेडकर ने कभी कहा था कि लागू करने वाले बुरे हों तो अच्छा संविधान भी बुरे नतीजे देगा।
पर हमारा गणतंत्र इतना अशक्त क्यों निकला, इसकी संस्थाएं इतनी लिजलिजी क्यों हैं, जो अपने सबसे कमजोर नागरिकों को उनके सबसे बुरे वक्त में जीवन की न्यूनतम सुरक्षा भी न दे पायीं, यह system इतना अमानवीय क्यों है ? खूबसूरत जुमलों की आड़ में छिपाई गयी भारतीय राज्य की क्रूर वर्गीय सच्चाई सात पर्दों को फाड़कर सामने आ चुकी है, हमारे शासक आभिजात्य की श्रमिको के प्रति सदियों की संचित घृणा और पूंजी की मुनाफाखोरी की कभी न मिटने वाली हवस का क्रूर कॉकटेल है यह ! कल तक जिन्हें गलतफहमी थी कि यह महज मुसलमानों के खिलाफ है, आज वे आंख खोल कर देख लें कि आज इसके निशाने पर कौन है। कल सबका नम्बर आएगा ।!
आज इस देश के मेहनतकशों को चाहिए एक नया गणतंत्र ! इस औपचारिक गणतंत्र को वास्तविक गणतंत्र बनाने की लड़ाई ही आज का एजेंडा है- इस एजेंडा में सबसे ऊपर होगी मेहनतकशों की गरिमा, उनकी आजीविका और स्वास्थ्य की सुरक्षा !!


गुरुवार, 7 मई 2020

एक अच्छा बौद्ध कैसे बनें?- भगवान दास


                              एक अच्छा बौद्ध कैसे बनें?
                                 - भगवान दास
 

                                
                   (23 अप्रैल,1927 - 18 नवंबर, 2010)


मैंने लियो शाओ ची से प्रसिद्ध चीनी नेता और पुस्तक हाउ टू बी अ गुड कम्युनिस्ट?” के शीर्षक के अलावा कुछ भी उधार नहीं लिया है, जिसने हजारों को कम्युनिज्म में बदल दिया। कम्युनिस्ट मेनिफेस्टोऔर  दास कैपिटल के अलावा शायद एमिल बर्न्स “ व्हाट इज मार्क्सिज्म” एक और विश्व प्रसिद्ध पुस्तक है जिसने शिक्षित लोगों को अपील की और कम्युनिज्म और स्पष्ट शंकाओं को समझाया। सिडनी वेब्स 'वर्ल्ड कम्युनिज्म' का विश्व के कम्युनिस्ट साहित्य में अपना अलग स्थान है। लेकिन आम लोगों के लिए मुझे लगता है कि कोई अन्य पुस्तक लियू शाओ ची के “एक अच्छे कम्युनिस्ट कैसे बनें?’  को पछाड़  सकती है?
मैंने भारत के लगभग सभी हिस्सों से यात्रा की है और जहां भी मैं जाता हूं वहां के युवा बौद्ध धर्म के बारे में सवाल करते हैं? बाबा साहेब अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म क्यों चुना?  क्या धर्म बुराईयों  का रामबाण हो सकता है? बौद्ध देशों के युवा बौद्ध कम्युनिस्ट क्यों हो रहे हैं? बौद्ध धर्म का हमारे लिए क्या मतलब है?  हमें बौद्धों के रूप में क्या अनुसरण करना चाहिए?’ कई और कठिन प्रश्न अलग-अलग स्थानों पर रखे और दोहराए जाते हैं। मैं इस लेख में इन सभी या इन सवालों में से किसी एक का जवाब देने वाला नहीं हूं। मैं बस यह समझाने की कोशिश कर रहा हूं कि मैं कितना अच्छा कर सकता हूं, कितना अच्छा बौद्ध कैसे बन  सकता हूं? मैं लियू शाओ ची द्वारा अपनाई गई परिपाटी का पालन नहीं कर रहा हूं, लेकिन इसे भारत में जिन परिस्थितियों में  हैं, उसे ध्यान में रखते हुए अपने तरीके से रख रहा हूं।
शुरू करने के लिए हमें स्पष्ट रूप से समझना चाहिए कि बुद्ध शब्द के वास्तविक अर्थ में वह सबसे बड़ा धार्मिक शिक्षक था। वह एक शिक्षक थे और न कि पैगंबर, मसीहा,  ईश्वर के पुत्र या जो गलत लोगों को बचाने के लिए  अवतार लेने वाले या धर्म को बचाने के लिए पैदा हुए। वह एक 'योगी' नहीं थे, जो काम करने वाले चमत्कार और बीमारों का इलाज करके अनुयायी बना सकते थे। वह नैतिकता के शिक्षक थे और पीड़ित जनता को सुखी करने के लिए शिक्षा को अपना हथियार मानते थे। उसने न तो मोक्ष या स्वर्ग में एक आरामदायक जगह का वादा किया और न ही पुनर्जन्म से मुक्ति। उनका शिक्षण अधिक सांसारिक और समझने में आसान था। एकमात्र कठिनाई थी अपने धर्म का अभ्यास करना। 'पंच शील', 'चार आर्य  सत्य ' और 'अष्टांग मार्ग' में उनकी शिक्षाओं का सार है। आप धम्मपद पढ़ सकते हैं और नहीं भी; आप 'त्रिपिटक' के साथ बातचीत नहीं कर सकते हैं; आप पाली में सुत्त को सुनाने में सक्षम नहीं हो सकते हैं, अगर आप पंच शील का अर्थ जानते हैं, चार आर्य सत्य के महत्व को समझते हैं और 'अष्टांग मार्ग' का पालन करते हैं, तो यह धार्मिक और आदमी बनाने के लिए पर्याप्त है. बुद्ध शब्द का वास्तविक अर्थ यह था कि मनुष्य एक 'मनुष्य' बनना चाहता था, न कि केवल खाने, पीने या खरीदने में दिलचस्पी रखने वाला 'दोपाया '
"बुद्ध," सभ्यता के  सात अध्यायों”  के प्रसिद्ध लेखक तनाका देवी के शब्दों में बौद्ध नहीं थे; न ही इस मामले के लिए मसीह एक ईसाई था और मोहम्मद एक मोहम्मद था। यह अनुयायी थे जिन्होंने उन्हें बौद्ध, ईसाई और मोहम्मडन बनाया। ज्यादातर मामलों में यह राजनेता और योद्धा थे जिन्होंने धर्म की भावना को मार दिया और अपने उद्देश्य के लिए खोल  की पूजा करने लगे। उसने अपने फायदे के लिए धर्म का शोषण किया। धर्म धीरे-धीरे राजनेता और योद्धा की हाथ की नौकरानी बन गया। यह अज्ञानी है जो धर्म और राजनीतिक पंथ की रक्षा में सबसे कट्टर सेनानी बन जाता है। यह एक ही समय ताकत और किसी भी विचारधारा की सबसे बड़ी कमजोरी है। लोगों का एक छोटा सा हिस्सा धार्मिक सिद्धांत में गंभीरता से रुचि रखता है। अधिकांश लोगों को धर्म या किसी भी राजनीतिक सिद्धांत में गंभीरता से दिलचस्पी नहीं है। उनमें इच्छाशक्ति और समझ की कमी है। खुद को ऊंचा करने के बजाय वे धर्म के स्तर को अपने पैरों के नीचे लाने का प्रयास करते हैं। जो वे समझ नहीं पाते हैं या जिनका अभ्यास करना मुश्किल होता है उसे छोड़ देते हैं।  जो उन्हें समझने और अनुसरण करने और उन्हें आनंद देने के लिए आसान है वे स्वीकार करते हैं और अभ्यास करते हैं। जिन धर्मों ने जनता के लिए एक आसान रास्ता तैयार किया है वे उन लोगों की तुलना में अधिक लोकप्रिय हो जाते हैं जो अध्ययन, अभ्यास, बलिदान और ज्ञान की मांग करते हैं।
सबसे आसान पालन हिंदू धर्म है। एलियट के शब्दों का उपयोग करने के लिए, "यह एक जंगल है।" आप किसी भी बात पर विश्वास करने या अविश्वास करने के लिए स्वतंत्र हैं। जो आवश्यक है वह अनुष्ठानों और रीति-रिवाजों, जाति और समारोहों के अनुरूप है और उसे हिंदू कहने की इच्छा है। संगठित धर्मों, ईसाई धर्म, यहूदी धर्म और इस्लाम के बीच अनुशासन का कुछ हिस्सा कायम है। लेकिन बहुसंख्यक ईसाई और मुस्लिम अपने धर्मों की परवाह नहीं करते। अन्य धर्मों के अनुयायियों की तरह वे भी मानते हैं कि केवल पुराने रीति-रिवाजों का पालन करना ही धर्म है। सबसे ज्यादा परेशानी खुद धर्मों और धर्मगुरुओं ने पैदा की है। हमें नहीं पता कि क्राइस्ट ने ऐसा कहा या नहीं लेकिन ईसाई पुस्तकों में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति मेरे माध्यम के बिना प्रभु के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता है। भागवत गीता के कृष्ण ने कहा,” मैं भगवान हूं। मेरे पास आओ और मेरे नाम पर कुछ भी करो और मैं तुम्हें बचाऊंगा।उन्होंने दावा किया कि वे भगवान, उद्धारकर्ता हैं।
एक अच्छा ईसाई वह है जो बाइबल में परमेश्वर के वचन को मानता है, वह प्रभु यीशु मसीह में विश्वास रखता है और उसे अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करता है। एक व्यक्ति बहुत नैतिक हो सकता है लेकिन अगर वह बाइबल में विश्वास नहीं करता है और प्रभु यीशु मसीह को अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं करता है, तो वह एक अच्छा ईसाई नहीं माना जाता है। इसी तरह, एक अच्छा मुसलमान वह है जो ईश्वर के साथ-साथ कुरान में भी विश्वास करता है, पैगंबर मोहम्मद को ईश्वर द्वारा भेजे गए अंतिम पैगंबर के रूप में स्वीकार करता है, जो अपने संदेश के साथ, दिन में पांच बार प्रार्थना करता है, मक्का का हज करता है। एक हिंदू के लिए एक अच्छा हिंदू होने के लिए कोई आज्ञा नहीं है और न ही कठिन और कड़े नियमों का पालन करने के लिए। वह नास्तिक या अज्ञेयवादी हो सकता है, वह मूर्तिपूजक हो सकता है, आस्तिक या मूर्तिभंजक; वह किसी भी पुस्तक, शास्त्र, धार्मिक शिक्षण या दर्शन में विश्वास नहीं करता है, वह भी एक हिंदू हो सकता है, भले ही वह एक जाति का हो और अपनी जाति के हुक्म का पालन करता हो। उसे जाति व्यवस्था में विश्वास करना होगा।
दूसरी ओर, एक अच्छा बौद्ध वह नहीं है जो सही ढंग से सुत्त का पाठ करता है, बुद्ध की मूर्ती के समक्ष मोमबत्तियाँ और अगरबत्ती  की छड़ी जलाता है, सारनाथ, श्रावस्ती, गया और कुसिनारा जैसे पवित्र स्थानों पर जाता है; भिक्षुओं के सामने श्रद्धापूर्वक झुकता है, कभी-कभी 'दान' देता है, और इस संतुष्टि के साथ सोता है कि उसने धम्म के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है। अन्य धर्मों के विपरीत बौद्ध धर्म ईश्वर, उसके नबियों, अवतारों, मोक्ष, नर्क और स्वर्ग, मोक्ष  और क्षमा, प्रार्थनाओं, उपवासों, बलिदानों को व्यर्थ संस्कार मानता है।
बौद्ध धर्म आस्था नहीं है। यह नैतिकता और व्यवहार का धर्म है। बुद्ध ने कभी भी सर्वज्ञ होने का दावा नहीं किया और न ही अपनी शिक्षाओं को महत्व दिया। "सब कुछ बदल जाता है," उन्होंने कहा, "बदलाव के लिए प्रकृति का नियम है।" उन्होंने अपनी शिक्षाओं को आंकने की एक कसौटी रखी। उन्होंने कुछ सिद्धांतों को भी रखा। उन्होंने लोगों से आस्था पर कुछ भी स्वीकार न करने का आह्वान किया। उनका धर्म कई लोगों की भलाई के लिए था और सभी के भले के लिए था। उनका धर्म अपने आप में अंत नहीं था, बल्कि स्वयं को ऊंचा उठाने के लिए एक सहायता के रूप में था। 'धम्म' की एक नाव की तुलना करते हुए, उन्होंने कहा कि नाव का स्थान पानी में था और इसका उद्देश्य यात्रियों को नदी से पार ले जाना था। उन्होंने उन लोगों को तिरस्कृत किया जिन्होंने नाव को अपने सिर पर ढोया था।
'त्रिशरण', 'पंच शील' और 'अष्टांग मार्ग' उनकी धार्मिक कथाओं के महत्वपूर्ण आधार थे। वे पुनरावृत्ति के लिए सरल लेकिन कार्रवाई में समझने और अनुवाद करने में मुश्किल हैं। फिर भी वे 'आज्ञा' नहीं थे, लेकिन केवल स्वेच्छा से पढ़ाया जाना स्वीकार किया गया था। उनका अनुपालन न करने से  शाप और अपमान  नहीं होता था। बुरे विचारों से पैदा हुए बुरे कर्मों के कारण दुख होता है। अच्छे कर्मों ने अच्छे परिणाम दिए। हम बुरे कामों के कारण होने वाले दर्द को दूर नहीं कर सकते हैं और न ही हम पापों के बुरे प्रभाव को कम कर सकते हैं। सबसे अच्छा हम अधिकतर अच्छे कर्म करके बुरे कर्मों के प्रभाव को कम कर सकते हैं। यदि हम में से हर कोई अपने पड़ोसियों के बारे में अच्छा सोचता है और अच्छा करता है, तो इसका परिणाम अच्छा होगा और चारों ओर खुशी होगी। मन शरीर को आदेशित करता है। मन को नियंत्रित और संस्कारित करना होगा। मन शरीर को नियंत्रित करता है। शरीर मन को नियंत्रित नहीं करता है। अकेले ज्ञान को पर्याप्त नहीं माना जाता है। यह सही इरादे के साथ सही कार्रवाई है जो सबसे ज्यादा मायने रखती है।
लाखों नामचीन ईसाई, मुसलमान, सिख, शिंतोवादी, ताओवादी, पारसी और कन्फ्यूशियस हैं। इसी तरह, लाखों नामचीन बौद्ध हैं, जिन्हें अपने पूर्वजों या माता-पिता की संपत्ति की तरह अपना धर्म विरासत में मिला है। वे हमेशा अपने धर्मों के अच्छे प्रतिनिधि नहीं हो सकते हैं।
एक अच्छा बौद्ध वह है जो संस्कृति के उच्च स्तर को प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है, वह सच्चा, ईमानदार, ईमानदार साहसी, दयालु और सहनशील है। उसके पास नैतिकता का बहुत उच्च स्तर होना चाहिए। उसे अपने साथ-साथ अपने आसपास के लोगों को भी ऊँचा उठाने की कोशिश करनी चाहिए। कोई भी व्यक्ति वास्तव में अकेले में महान नहीं हो सकता है। बौद्ध धर्म व्यक्तिवाद का विरोध करता है। एक अच्छा बौद्ध स्वार्थी नहीं हो सकता। वह हठधर्मी नहीं हो सकता। वह सभी के लिए दया और प्रेममय दयालुता के साथ एक तर्कसंगत व्यक्ति है।
यदि कोई धम्म की पुस्तकों को पढ़ता है और बुद्ध द्वारा प्रदान किए गए सत्य पर चिंतन करता है, तो वह एक अच्छा बौद्ध हो सकता है। उसे बुद्ध की महान शिक्षाओं का ध्यान और आत्मसात करना सीखना चाहिए। उसे ईमानदारी से उन महान और उदात्त सिद्धांतों को रोजमर्रा की जिंदगी में अमल करने की कोशिश करनी चाहिए। उसे सतर्क रहना चाहिए और धर्म पर किताबों में लिखी हर बात को स्वीकार नहीं करना चाहिए। उसे इस बात का न्याय करना चाहिए कि क्या यह स्वयं के लिए भी अच्छा है और बहुतों  के लिए भी।
"यह प्रारंभ में अच्छा है, मध्य में अच्छा है और अंत में अच्छा है।"
कर्म शब्दों से अधिक जोर से बोलते हैं। व्यक्ति को हमेशा अपने विचारों, कर्मों और शब्दों पर पहरा देना चाहिए। जब संदेह में हो तो हमेशा धम्म की मशाल को प्रकाशित करना चाहिए और देखना चाहिए कि क्या विशेष अधिनियम धम्म की शिक्षाओं के अनुरूप होगा।
एक अच्छे बौद्ध को हमेशा सतर्क रहना चाहिए और ऐसे कार्यों से बचना चाहिए जो धम्म, उनके शिक्षक भगवान बुद्ध और संघ के लिए बुरा नाम ला सकते हैं।
धार्मिक समाजों को उनके व्यवहारों के आधार पर आंका जाता है न कि उनके प्रवचनों  के माध्यम से।
यदि हम केवल सभी अपने हित को ही ध्यान में नहीं रखते हैं, लेकिन कई लोगों की भलाई और खुशी के लिए काम करते हैं, तो सेवा और प्रेमपूर्ण दया के माध्यम से सभी जीवित प्राणियों के दुखों को दूर करने का आदर्श रखते हुए हम इस जगह को एक सच्चा स्वर्ग बना सकते हैं कवियों और दार्शनिकों की कल्पना ने उनकी कविताओं और पुस्तकों में जो कुछ बनाया या प्रस्तुत किया है, उससे बेहतर और वास्तविक है। यह एक अच्छे बौद्ध का आदर्श होना चाहिए। जो कोई भी बुद्ध के उपदेश के अनुरूप इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए काम करता है वह वास्तव में एक अच्छा बौद्ध है।
श्रोत:  भीम पत्रिका: दिसम्बर, 1973, खंड। 2
 (श्री भगवान दास एक सच्चे अम्बेडकरवादी थे। उन्होंने "दुनियां के दलितों एक हो जाओ!" का नारा दिया। वह अस्पृश्यता के मुद्दे के अंतर्राष्ट्रीयकरण के लिए एक योद्धा थे। उन्होंने इस मुद्दे को 1983 में संयुक्त राष्ट्र संघ में जापान के बुराकुमिन्स सहित प्रस्तुत किया। उन्होंने काफी  समय तक डॉ. बी आर अंबेडकर के सहायक के रूप में काम किया। उन्होंने सत्तर के दशक में चार खंडों में " दस स्पोक अंबेडकर" का संकलन और संपादन किया।)

शुक्रवार, 1 मई 2020

डॉ. अम्बेडकर का श्रमिक वर्ग को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी का सन्देश


डॉ. अम्बेडकर का श्रमिक वर्ग को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी का सन्देश
- एस. आर. दारापुरी आई. पी. एस. (से. नि.), अध्यक्ष मजदूर किसान मंच

बाबा साहब डॉ. भीम राव अम्बेडकर न केवल महान कानूनविद, प्रख्यात समाज शास्त्री एवं अर्थशास्त्री ही थे वरन वे दलित वर्ग के साथ-साथ श्रमिक वर्ग के भी उद्धारक थे। बाबा साहब स्वयं एक मजदूर नेता भी थे। अनेक सालों तक वे मजदूरों की बस्ती में रहे थे। इसलिये उन्हें श्रमिकों की समस्याओं की पूर्ण जानकारी थी। साथ ही वे स्वयं एक माने हुए अर्थशास्त्री होने के कारण उन स्थितियों के सुलझाने के तरीके भी जानते थे। इसी लिये उनके द्वारा सन 1942 से 1946 तक वायसराय की कार्यकारिणी में श्रम मंत्री के समय में श्रमिकों के लिये जो कानून बने और जो सुधार किये गये वे बहुत ही महत्वपूर्ण एवं मूलभूत स्वरुप के है। सन 1942 में जब बाबा साहेब वायसराय की कार्यकारिणी समिति के सदस्य बने थे तो उन के पास श्रम विभाग था जिस में श्रम, श्रम कानून, कोयले की खदानें, प्रकाशन एवं लोक निर्माण विभाग थे.
डॉ. भीम राव अम्बेडकर की श्रमिक वर्ग के अधिकारों एवं कल्याण के प्रति चिन्ता उन शब्दों से परिलक्षित होती है जो उन्होंने 9 सितम्बर, 1943 को प्लेनरी, लेबर परिषद के सामने उद्योगीकरण पर भाषण देते हुए कहे थे, "पूंजीवादी संसदीय प्रजातंत्र व्यवस्था में दो बातें अवश्य होती हैं। जो काम करते हैं उन्हें गरीबी से रहना पड़ता है और जो काम नही करते उनके पास अथाह दौलत जमा हो जाती है। एक ओर राजनीतिक समता और दूसरी ओर आर्थिक विषमता । जब तक मजदूरों को रोटी कपड़ा और मकान, निरोगी जीवन नहीं मिलता एवं विशेष रुप से जब तक वे सम्मान के साथ अपना जीवन यापन नहीं कर सकते, तब तक स्वाधीनता कोई मायने नहीं रखती। हर मजदूर को सुरक्षा और राष्ट्रीय सम्पत्ति में सहभागी होने का आश्वासन मिलना आवश्यक है।"
 
उनका ध्यान इस बात पर था कि श्रम का मूल्य बढ़े। इसके अतिरिक्त बाबा साहब ने दिसम्बर 1945 के प्रथम सप्ताह में श्रम अधिकारियों की एक विभागीय बैठक जो बम्बई सचिवालय में सम्पन्न हुई थी, का उदघाटन करते हुए कहा, "कि औद्योगिक झगड़े टालने के लिये तीन बातें आवश्यक है:- (1) समुचित संगठन, (2) कानून में आवश्यक सुधार और (3) श्रमिकों के न्यूनतम वेतन का निर्धारण। औद्योगिक शांति सत्ता के बल पर नहीं वरन न्याय नीति के तत्वों पर आधारित होनी चाहिये। श्रमिकों को अपने कर्तव्यों की पहचान होनी चाहिए. मालिकों को भी मजदूरों को उचित वेतन देना चाहिये। साथ ही, सरकार और श्रमिक समाज को भी अपने आपसी संबंध सौहार्दपूर्ण बनाए रखने की लगन से कोशिश करनी चाहिए.“
बाबा साहेब मजदूरों की समस्यायों से पूरी तरह परिचित थे. अतः श्रम मंत्री के रूप में उन्होंने मजदूरों के कल्याण के लिए बहुत से कानून बनाये तथा उनमें संशोधन किये जिन में प्रमुख इंडियन ट्रेड यूनियन एक्ट, ई एस आई एक्ट, औद्योगिक विवाद अधिनियम, मुयावज़ा, काम के 8 घंटे तथा प्रसूतिलाभ आदि प्रमुख हैं. अंग्रेजों के विरोध के बावजूद भी उन्होंने महिलायों के गहरी खदानों में काम करने पर प्रतिबंध लगाया. वे अन्तराष्ट्रीय श्रम संगठन की सिफारशों पर दृढ़ता से अमल करने की कोशिश कर रहे थे. जो अधिकार एवं सुविधावाएं अन्य देशों में बहुत मुशिकल से मजदूरों ने प्राप्त कीं डा. आंबेडकर ने अपने श्रम मंत्री काल में कानून बना कर मजदूरों को प्रदान कर दीं.  वास्तव में वर्तमान में जितने भी श्रम कानून हैं उनमें से अधिकतर बाबा साहेब के ही बनाये हुए हैं जिस के लिए भारत का मजदूर वर्ग उनका सदैव ऋणी रहेगा.
बाबा साहेब सफाई मजदूरों का कल्याण और उन्हें संगठित करने के लिए भी बहुत प्रयासरत थे जबकि गाँधी जी उन्हें भंगी बने रहने की शिक्षा देते थे तथा उन की हड़ताल को अनैतिक कार्य मानते थे. मोदीजी तो कहते हैं इसमें उन्हें अध्यात्मक सुख की प्राप्ति होती है. बाबा साहेब ने सर्वप्रथम बम्बई नगर महापालिका के सफाई मजदूरों को संगठित करके उनकी ट्रेड यूनियन बनवाई. वे इसी प्रकार के संगठन की स्थापना देश के अन्य भागों में भी करना चाहते थे और उसे अखिल भारतीय स्वरूप देना चाहते थे. उन्होंने इसी उद्देश्य से दो सदस्यी समिति भी बनायी तथा उसे विभिन्न प्रान्तों में जाकर सफाई मजदूरों की स्थिति एवं लागू कानूनों का अध्ययन कर रिपोर्ट देने को कहा. इस से स्पष्ट है कि बाबा साहेब सफाई मजदूरों को न्याय दिलाने तथा उन्हें अन्य ट्रेड यूनियनों की तर्ज़ पर संगठित करने में कितना  प्रयासरत थे.
बाबासाहेब स्वयं एक लेबर लीडर रह चुके थे. अधिकतर अछूत ही खेत, कारखानों मिलों आदि में छोटे दर्जे के मजदूर थे. बाबासाहेब ने अपने संघर्ष के दौरान इन्हीं मजदूर बस्तियों में जीवन गुज़ारा था. वह उनकी समस्यायों तथा पीड़ा को भी भलीभांति समझते थे. वे  श्रमिकों/ मजदूरों आदि से कहते थे, “ इतना ही काफी नहीं कि तुम अच्छे वेतन और नौकरी के लिए, अच्छी सुविधाओं तथा बोनस प्राप्त करने तक ही अपने संघर्ष को सीमित रखो. तुम्हें सत्ता छीन लेने के लिए भी संघर्ष करना चाहिए.” इसी ध्येय से उन्होंने 1936 में इन्डीपेंडेंट लेबर (स्वतंत्र मजदूर पार्टी) बनाई थी और 1937 के पहले चुनाव में 17 सीटें भी जीती थीं. उन्होंने इसके माध्यम से श्रमिक वर्ग को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त करने हेतु प्रेरित किया था.
वर्तमान में नई आर्थिक नीति के अंतर्गत भूमंडलीकरण और कारपोरेटीकरण के दौर में पूरी दुनियां में श्रम कानूनों को शिथिल किया जा रहा है. हमारे देश में भी मोदी सरकार ने  विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए बहुत सारे श्रम कानूनों को शिथिल/रद्द  कर दिया है. श्रम के घंटे बढाये जा रहे हैं. वेतन को उत्पादन से जोड़ा जा रहा है. मजदूरों की नियमित नियुक्तियों के स्थान पर ठेका व्यवस्था लागू की जा रही है जो काफी हद तक पहले ही लागू हो चुकी है. मोदी सरकार ने 44 अलग अलग कानूनों को ख़त्म करके इसे केवल 4 में ही संहिताबद्ध कर दिया गया है. इससे मजदूरों को श्रम कानूनों से मिलने वाले अधिकार एवं संरक्षण बहुत हद तक सीमित हो जायेंगे.
वर्तमान कोरोना संकट के दौरान मनमाने ढंग से तथा बिना किसी विचार विमर्श एवं योजना के आकस्मिक लागू किये गए लाक डाउन ने मजदूरों की गरीबी एवं नाज़ुक स्थिति को पूरी तरह से नंगा कर दिया है. इसके दौरान कितने मजदूर भुखमरी का शिकार हुए हैं और कितने जो पैदल ही अपने घरों के लिए निकल पड़े थे रास्ते में मर गए, भूखे पेट रहना पड़ा और उस पर पुलिस की बर्बरता सहनी पड़ी. इस दौरान सरकार ने न तो खाने पीने का उचित प्रबंध किया और न ही उन्हें उचित आर्थिक सहायता ही दी. तथाकथित क्वारनटीन कैम्प वास्तव में यात्नागृह साबित हुए हैं. अभी इन बदतर हालत वाले मजदूरों को घर भेजने की बात चली है तो केन्द्रीय सरकार उन्हें लाने के लिए स्पेशल ट्रेन चलाने की व्यवस्था करने को तैयार नहीं है और सारी व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों के गले में डाल दी है. इससे और भी बड़ा संकट और अवय्स्था कड़ी हो जाने की सम्भावना है.
यह भी विचारणीय है कि जो प्रवासी मजदूर अपने गांव वापस लौटेगें और जो मजदूर पहले से वहां पर हैं उनके रोजगार का क्या होगा? उनकी आजीविका कैसे चलेगी, इसकी कोई योजना सरकार के पास नहीं है। आप जानते ही हैं कि मजदूरों के ऊपर तो पहले से ही हमले हो रहे थे जिन्हें कोरोना महामारी के इस संकटकाल ने और भी बढ़ा दिया है। कुल मिलाकर कहा जाए तो मौजूदा आर्थिक संकट बेहद गहरा है जो लगातार जारी आर्थिक-औद्योगिक नीतियों की देन है। गौरतलब हो कि इन मजदूर विरोधी, जनविरोधी नीतियों को समूचे राजनीतिक तंत्र ने आगे बढ़ाया है। इसका मुकाबला पूंजीवादी दल करेंगे नहीं क्योंकि इन नीतियों पर उनकी आम सहमति है और वामपंथी दल जो इसका विरोध करते भी हैं उनकी ताकत बेहद सीमित है। ऐसे में एक नयी लोकतान्त्रिक समाजवादी राजनीति खड़ा करने की ज़रुरत है.
अभी भी आप देख लें कि प्रवासी मजदूर बदतर हालातों में है.  इसलिए इस मई दिवस का यहीं संदेश हो सकता है कि मजदूर वर्ग को ही जनपक्षधर राजनीतिक तंत्र के निर्माण के लिए जन राजनीति को आगे बढ़ाना होगा। यह महज ट्रेड यूनियन के दायरे में सम्भव नहीं है. मजदूर वर्ग को अपने अधिकारों पर लड़ते हुए सरकार को बाध्य करना होगा कि वह जन कल्याण पर खर्च बढ़ाये. अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन करके सार्वजनिक चिकित्सा, शिक्षा को मजबूत करे और लोगों की आजीविका को सुनिश्चित करे. तभी वास्तव में कोरोना महामारी जैसी संकटकालीन परिस्थितियों का मुकाबला किया जा सकता है. उसे किसानों समेत समाज के उन सभी उत्पीड़ित तबकों को अपनी इस जन राजनीति के पक्ष में गोलबंद करना होगा.  अतः डा. आंबेडकर का श्रमिक वर्ग को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त करने का सन्देश आज और भी प्रासंगिक हो जाता है.



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