धर्मान्तरण
से हिंदुओं को मिर्ची क्यों लगती है?
(कँवल भारती)
1993 में
तत्कालीन केन्द्र सरकार ने, जो
कांग्रेस की थी, राजनीति में धर्म का उपयोग रोकने के लिए संसद में
धर्म-विधेयक प्रस्तुत किया था. जाहिरा तौर पर कांग्रेस का मकसद भाजपा के मंदिर
आन्दोलन को रोकना था. पर हुआ उल्टा. भाजपा और संघ परिवार ने उस विधेयक को हिंदू
धर्म पर प्रहार के रूप में प्रचारित कर पूरे देश के माहौल को हिंदुत्व से गरमा
दिया था. उसने ग्यारह हजार किलोमीटर लम्बी हिंदुत्व-यात्रा निकाली. हिंदू अख़बारों
ने इस मुद्दे को और ज्यादा उछाला, बड़े-बड़े
अग्रलेख लिखे गए, और
लेखकों ने हिंदू धर्म की अजब-गजब परिभाषाएं दीं. उसी दौर में सुप्रीमकोर्ट
ने भी हिंदुत्व को आरएसएस की मनमाफिक परिभाषित करते हुए ऐतिहासिक फैसला
सुनाया. वह विधेयक टायं- टायं फिस हो गया. 1999 में आरएसएस और भाजपा ने सोनिया
गाँधी के बहाने पूरे देश में धर्मान्तरण के विरोध में ईसाईयों और उनके चर्चों पर
हमले कराए. उनके द्वारा ईसाईयों के
खिलाफ बड़े-बड़े झूठ के पहाड़ खड़े किए गए. उसी तरह मुस्लिम मदरसों के खिलाफ लगातार
झूठा प्रचार किया गया, उन्हें आतंकवाद के अड्डे बताया
गया. इस सारे झूठ के पीछे आरएसएस और भाजपा का एक ही मकसद था दलित जातियों को दलित
बनाकर रखना.
वाजिब सवाल
है कि आरएसएस और भाजपा को धर्मान्तरण से मिर्ची क्यों लगती है, जो उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने धर्म-परिवर्तन के
खिलाफ ‘प्रतिषेध अध्यादेश 2020’ पास कर दिया? राज्यपाल
के हस्ताक्षर के बाद यह कानून बन जायेगा, और उत्तर
प्रदेश में धर्मान्तरण गैर-कानूनी हो जायेगा. जब भारत का संविधान अनुच्छेद 25 यह
आजादी देता है कि व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कोई भी धर्म चुन सकता है, तो उत्तर प्रदेश के भगवाधारी मुख्यमंत्री के दिमाग
में धर्म-परिवर्तन के खिलाफ उल्लू कैसे बैठ गया? संविधान
की शपथ खाकर पदासीन कैबिनेट ने संविधान-विरोधी इस अध्यादेश को पास कैसे कर दिया? अनुच्छेद 25 में यह भी कहा गया है कि राज्य अपना कोई
धर्म स्थापित नहीं करेगा, और न किसी
विशिष्ट धर्म को प्रोत्साहित करेगा. फिर योगी आदित्य नाथ, जो मनुस्मृति की नहीं, भारतीय
संविधान की शपथ खाकर कुर्सी पर बैठे हैं, हिंदू धर्म
को राज्य-धर्म बनाकर उसे प्रोत्साहित करने में सरकारी खजाना क्यों लुटा रहे हैं? वास्तव में तो इस घोर संविधान-विरोधी कार्य के लिए
योगी और उनकी पूरी सरकार बर्खास्त होनी चाहिए, पर कौन
बर्खास्त करेगा, जब सईंया भये कोतवाल? आरएसएस और
केन्द्र में मोदी सरकार का पूरा समर्थन योगी को मिला हुआ है. राज्यपाल भी भाजपाई
हैं, उनसे अपेक्षा ही नहीं की जा सकती कि वह अध्यादेश को
खारिज करेंगी. इसे अब कोर्ट के द्वारा ही रोका जा सकता है. अगर कोर्ट द्वारा भी
नहीं रोका गया, तो यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा, क्योंकि संविधान द्वारा निर्मित राज्य का
धर्मनिरपेक्ष ढांचा ध्वस्त हो जायेगा. और उसकी जगह हिंदुत्व राज्य का धर्म बन
जायेगा, जो अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों और उन लोगों के
लिए, जो हिंदुत्व से पीड़ित समुदाय हैं, विनाशकारी होगा.
उत्तर
प्रदेश के भाजपाइयों में योगी के धर्म-परिवर्तन-विरोधी अध्यादेश को लेकर खुशी की
लहर दौड़ रही है. योगी को ऐसी बधाइयाँ
दी जा रही
हैं, जैसे योगी ने पाकिस्तान की लड़ाई जीत ली है. और
योगी के चेहरे पर संविधान को परास्त करने का दर्प झलक रहा है. पर सच यह है कि गुरु
गोरखनाथ की आत्मा उनको लाख-लाख धिक्कार भेज रही है, जिसने
चिल्ला-चिल्लाकर कहा था :
उत्पति हिंदू जरणा जोगी अकलि परि
मुसलमांदी .
हिन्दू ध्यावै देहुरा मुसलमान
मसीत.
जोगी
ध्यावै परमपद जहाँ देहुरा न मसीत.
इसका मतलब है जन्म से जोगी हिंदू
है, पर अकल से मुसलमान है. हिंदू मंदिर में ध्यान लगाता
है, और मुसलमान मस्जिद में इबादत करता है. पर जोगी वह है, जो मस्जिद-मंदिर से परे परम पद का ध्यान करता है.
जोगी अपने
विधि-विरोधी अध्यादेश की तारीफ़ में कहते हैं कि धर्म-परिवर्तन करने वालों को अब दस
साल तक की सजा भुगतनी पड़ सकती है. यह कहते हुए उन्होंने जरा भी नहीं सोचा कि धर्म
मनुष्य का व्यक्तिगत मामला है. और व्यक्तिगतरूप से इतिहास में सबसे ज्यादा
धर्म-परिवर्तन ब्राह्मणों और ठाकुरों ने किया है. अब ब्राह्मण-ठाकुर धर्म-परिवर्तन
क्यों नहीं कर रहे हैं, क्योंकि अब
वे भारत में स्वयं शासक वर्ग हैं. जब वे शासक वर्ग नहीं थे, तो उन्होंने हर धर्म में प्रवेश किया. और जिन धर्मों
में भी वे गए, अपनी जातिव्यवस्था साथ लेकर गए, और उनको भी दूषित कर दिया. अगर ब्राह्मण-ठाकुर
धर्मान्तरण नहीं करते, तो मानवता
पर बहुत बड़ा उपकार करते.
जिस तरह
मनुस्मृति में द्विजों के मामले में सबसे कम और शूद्रों को अधिक दंड दिए जाने का प्रावधान
है, उसी प्रकार योगी सरकार के अध्यादेश में सामान्य वर्ग
के धर्मान्तरण के मामले में पांच वर्ष तक की सजा और 15 हजार रुपए के जुर्माने का प्रावधान
है, किन्तु दलित वर्ग से सम्बन्धित धर्मान्तरण के मामले
में 10 वर्ष की सजा और 25 हजार रुपये के
जुरमाने का
प्रावधान किया गया है. लगता है, योगी सरकार
ने यह दंड-विधान भी मनुस्मृति से ग्रहण किया है. यह विशेषता हिंदू वर्णव्यवस्था की
ही है कि वह किसी क्षेत्र में समानता पसंद नहीं करती. असमानता का यह सिद्धांत मनु
ने असल में शूद्रों का दमन करने के लिए बनाया था. योगी ने भी उसी आधार पर दलितों
का दमन करने के लिए असमान दंड-विधान को मंजूरी दी है. आखिर योगी को दलितों के
धर्मान्तरण से क्या परेशानी है? परेशानी
वही है, जो मनु को थी. जिस कारण से मनु शूद्रों का दमन करना
चाहता था, उसी कारण से योगी की हिंदू सरकार भी दलितों का दमन
करना चाहती है. दूसरे शब्दों में जिस कारण से मनु शूद्रों को स्वतंत्रता देना नहीं
चाहता था, उसी कारण से योगी का हिंदुत्व भी दलितों को
स्वतंत्रता नहीं देना चाहता. मनु की तरह योगी भी दलितों की स्वतंत्रता छीनकर
उन्हें दलित ही बनाकर रखना चाहते हैं.
मुख्यमंत्री
योगी आदित्यनाथ ने धर्मान्तरण के विरुद्ध अध्यादेश लाने के पीछे ‘लव-जिहाद’ को
कारण बताया है, जबकि सच्चाई यह है कि लव-जिहाद एक मिथक है; इसका कोई वजूद अभी तक नहीं पाया गया है. हिंदू युवक
और मुस्लिम युवती के बीच अथवा मुस्लिम युवक और हिंदू युवती के बीच प्रेम-विवाह की
जितनी भी घटनाएँ घटित हुई हैं, वे सभी
सामान्य मानवीय प्रेम की घटनाएँ हैं. किसी जाँच एजेंसी को उनमें मुस्लिम जिहाद का
हाथ होने का प्रमाण नहीं मिला. हालाँकि हिंदू-मुस्लिम युवतियों से प्रेम और विवाह
करने की अधिकांश घटनाएँ भाजपा और आरएसएस के खेमे में ही हुई हैं. मुरलीमनोहर जोशी, लालकृष्ण अडवानी, प्रवीण
तोगडिया, अशोक सिंघल, रामलाल
जैसे दिग्गज भाजपाई नेताओं के परिवारों ने मुस्लिम परिवारों में शादियाँ की हैं.
वहाँ भाजपा और आरएसएस ने लव-जिहाद का प्रश्न क्यों नहीं उठाया? दलित जातियों के मामले में ही आरएसएस और भाजपा को
लव-जिहाद क्यों नजर आता है?
असल में
लव-जिहाद तो बहाना है, असल मकसद
दलितों के धर्मान्तरण को रोकना है. अगर ऐसा न होता, तो योगी
द्वारा अध्यादेश में सामूहिक धर्म-परिवर्तन पर रोक क्यों लगाई गयी, जिसके तहत 10 वर्ष की जेल और 50 हजार रूपए के
अर्थ-दंड का प्रावधान है. मुझे इसका कारण, गत दिनों
हाथरस कांड के बाद, गाजियाबाद
में कुछ दलितों द्वारा हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाने का मामला लगता है.
बौद्ध धर्मान्तरण की यह घटना जब अख़बारों में छपी थी, तो जिला प्रशासन के अधिकारियों द्वारा धर्मान्तरित दलितों को, जो वाल्मीकि समुदाय से थे, काफी परेशान किया गया था. विगत में भी जिन
वाल्मीकियों ने ईसाई-धर्म अपनाया था, आरएसएस के
संगठन उनकी जबरन घर-वापसी करा चुके हैं. अब जब वे बौद्ध-धर्म अपनाना चाहते हैं, तो आरएसएस और भाजपा की योगी सरकार ने उसको रोकने का प्रावधान
अध्यादेश में कर दिया. इसका साफ़ अर्थ है, कि
हिन्दुत्ववादी ताकतों को दलितों का बौद्ध-धर्म अपनाना भी स्वीकार नहीं है. वे
दलितों का आध्यात्मिक विकास नहीं चाहतीं. वे चाहती हैं कि दलित जातियां के गरीब
लोग जीवन-भर दलित ही बने रहें, और जिस
नर्क में रह रहे हैं, उसी में
पड़े सड़ते रहें. यह न केवल संविधान के विरुद्ध है, बल्कि एक
वर्ग विशेष के आध्यात्मिक विकास को अवरुद्ध करने वाली फासीवादी तानाशाही भी
है. यह अध्यादेश अगर कानून बन गया, तो यह
दलितों की स्वतंत्रता का दमन करने वाला सबसे खतरनाक, बदसूरत और
घृणित कानून होगा.
भाजपा और
आरएसएस ने वाल्मीकि समुदाय को महादलित के नाम पर पहले ही आंबेडकरवादी दलितों से
अलग कर दिया है. हालाँकि इसके बावजूद उनमें डा. आंबेडकर की शिक्षा का प्रचार चल
रहा है, और शिक्षित वाल्मीकि उससे प्रभावित होकर हिंदुत्व के
ब्राह्मणवादी ढांचे से बाहर निकल रहे हैं. गाज़ियाबाद में बौद्ध-धर्मान्तरण उसी का
परिणाम था, जिससे हिन्दुत्ववादी शासक वर्ग यह सोचकर भयभीत हो गया
कि अगर वाल्मीकि समुदाय डा. आंबेडकर की चेतना से लैस हो गया, और बौद्ध हो गया, तो
गटर-नालियां कौन साफ़ करेगा, और
मल-मूत्र कौन उठाएगा? सिर्फ इसी
कारण से भाजपा की सरकारें न उनकी उच्च शिक्षा चाहती हैं और न उनका पुनर्वास. क्या
योगी सरकार सिर्फ यही चाहती है कि दलित जातियों का भौतिक और सामाजिक विकास न हो, और सवर्ण जातियों का ही सर्वत्र विकास होता रहे, और वे ही सारी स्वतंत्रता के अधिकारी हों?
अध्यादेश
में कहा गया है कि धर्म-परिवर्तन के इच्छुक व्यक्ति या व्यक्तियों को दो माह पहले
जिला मजिस्ट्रेट को सूचना देनी होगी और धर्म बदलने के लिए उसकी अनुमति प्राप्त
करनी होगी. क्या यह कल्पना की जा सकती है कि कोई मजिस्ट्रेट अनुमति देकर सरकार को
नाराज करने का जोखिम लेगा? वह अनुमति देना तो दूर, अनुमति के आवेदक को ही जेल भिजवा देगा.
(27/11/2020)