शनिवार, 24 अगस्त 2019

मोदी और दलित : प्रो. तुलसी राम


मोदी और दलित : प्रो. तुलसी राम
 सैमुअल हंटिगटन अपनी पुस्तक क्लैश ऑफ सिविलाइजेशंस के शुरू में ही एक फासीवादी उपन्यास से लिए गए उदाहरण के माध्यम से कहते हैं- दुश्मन से अवश्य लड़ो। अगर तुम्हारे पास दुश्मन नहीं है तो दुश्मन निर्मित करोमोदी का परिवारइसी दर्शन पर सन 1925 की विजयदशमी से लेकर आज तक अमल करता आ रहा है। इस दर्शन की विशेषता है, अपने ही देशवासियों के एक बड़े हिस्से को दुश्मन घोषित करके उससे लड़ना। ऐसे दुश्मनों में सारे अल्पसंख्यक और दलित-आदिवासी शामिल हैं।
मोदी परिवार का दलित विरोध भारतीय संविधान के विरोध से शुरू होता है। सन 1950 से ही वे इसे विदेशी संविधान कहते आ रहे हैं, क्योंकि इसमें आरक्षण की व्यवस्था है। इसीलिए राजग के शासनकाल में इसे बदलने की कोशिश की गई थी। इतना ही नहीं, मोदी परिवार के ही अरुण शौरी ने झूठ का पुलिंदा लिख कर डॉ आंबेडकर को देशद्रोही सिद्ध करने का अभियान चलाया था। उसी दौर में मोदी के विश्व हिंदू परिषद ने हरियाणा के जींद जिले के ग्रामीण इलाकों में वर्ण-व्यवस्था लागू करने का हिंसक अभियान भी चलाया, जिसके चलते सार्वजनिक मार्गों पर दलितों के चलने पर रोक लगा दी गई थी। समाजशास्त्री एआर देसाई ने बहुत पहले कहा था कि गुजरात के अनेक गांवों में अपार्थायड सिस्टम’ (भेदभावमूलक पार्थक्य व्यवस्था) लागू है, जहां दलितों को मुख्य रास्तों पर चलने नहीं दिया जाता।
गुजरात के मुख्यमंत्री बनने से पहले मोदी विश्व हिंदू परिषद की राजनीति में लगे हुए थे। यह संगठन त्रिशूल दीक्षा के माध्यम से अल्पसंख्यकों और दलितों के बीच सामाजिक आतंक स्थापित कर चुका था। अनेक जगहों पर दलितों द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण को जबरन रोका जा रहा था। मोदी ने सत्ता में आते ही एक धर्मांतरण विरोधी कानून बनवा दिया। बौद्ध धर्म खांटी भारतीय है, लेकिन वे इसे इस्लाम और ईसाई धर्म की श्रेणी में रखते हैं। बड़ौदा के पास एक गांव में दलित युवती ने एक मुसलमान से प्रेम विवाह कर लिया था। मोदी समर्थकों ने उस बस्ती पर हमला करके सारे दलितों को वहां से भगा दिया। सैकड़ों दलित वडोदरा की सड़कों पर कई महीने सोते रहे। यह मोदी शासन के शुरुआती दिनों की बात है।
इस संदर्भ में एक रोचक तथ्य यह है कि विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता हमेशा जिला न्यायालयों पर निगरानी रखते हैं और कहीं भी हिंदू-मुसलिम के बीच विवाह की सूचना नोटिस बोर्ड पर देखते ही वे तुरंत उसका पता नोट कर अपने दस्ते के साथ ऐसे गैर-मुसलिम परिवारों पर हमला बोल देते हैं। गुजरात में ऐसी घटनाएं तेजी से फैल गई थीं। ऐसी घटनाओं में दलितों पर सबसे ज्यादा अत्याचार किया जाता रहा है।
मोदी के सत्ता में आने के बाद गुजरात में छुआछूत और दलितों पर किए जा रहे अत्याचार की शिकायतें कभी भी वहां के थानों में दर्ज नहीं हो पातीं। इस संदर्भ में यह तथ्य विचारणीय है। जब आडवाणी भारत के गृहमंत्री थे, उन्होंने सामाजिक सद्भाव का रोचक फार्मूला गढ़ा। दलित अत्याचार विरोधी कानून के तहत देश के अनेक हिस्सों में हजारों मुकदमे दर्ज थे। आडवाणी के फार्मूले के अनुसार ऐसे अत्याचार के मुकदमों से सामाजिक सद्भावखतरे में पड़ गया था। इसलिए आडवाणी के निर्देश पर भाजपा शासित राज्यों ने सारे मुकदमे वापस ले लिए। ऐसे मुकदमों में सैकड़ों हत्या और बलात्कार से जुड़े हुए थे। इस फार्मूले पर मोदी हमेशा खरा उतरते हैं।
सन 2000 में नई शताब्दी के आगमन के स्वागत में गुजरात के डांग क्षेत्र में मोदी की विश्व हिंदू परिषद ईसाई धर्म में कथित धर्मांतरण के बहाने दलित-आदिवासियों पर लगातार हमला करती रही। बाद में यही फार्मूला ओडिशा के कंधमाल में भी अपनाया गया था। सन 2002 में गोधरा दंगों के दौरान अमदाबाद जैसे शहरों में दलितों की झुग्गी बस्तियों को जला दिया गया, क्योंकि ये बस्तियां शहर के प्रधान क्षेत्रों में थीं। तत्कालीन अखबारों ने खबर छापी कि ऐसे स्थलों को मोदी सरकार ने विश्व हिंदू परिषद से जुड़े भू-माफिया ठेकेदारों को हाउसिंग कॉलोनियां विकसित करने के लिए दे दिया।
नरसिंह राव ने स्कूलों के मध्याह्न भोजन की एक क्रांतिकारी योजना चलाई थी, जिसके तहत यह प्रावधान किया गया था कि ऐसा भोजन दलित महिलाएं पकाएंगी। इसके दो प्रमुख उद्देश्य थे। एक तो यह कि भोजन के बहाने गरीब बच्चे, विशेष रूप से दलित बच्चे स्कूल जाने लगेंगे। दूसरा था सामाजिक सुधार का कि जब दलित महिलाओं द्वारा पकाया खाना सभी बच्चे खाएंगे तो इससे छुआछूत जैसी समस्याओं से मुक्ति मिल सकेगी। लेकिन गोधरा दंगों के बाद विश्व हिंदू परिषद से जुड़े लोगों ने गुजरात भर में अभियान चलाया कि सवर्ण बच्चे दलित बच्चों के साथ दलितों द्वारा पकाए भोजन को नहीं खा सकते, क्योंकि इससे हिंदू धर्म भ्रष्ट हो जाएगा।
इस अभियान का परिणाम यह हुआ कि मोदी सरकार ने मध्याह्न भोजन की योजना को तहस-नहस कर दिया। मगर किसी-किसी स्कूल में यह योजना लागू है भी तो वहां सवर्ण बच्चों के लिए गैर-दलितों द्वारा अलग भोजन पकाया जाता है। दलितों को अलग जगह पर खिलाया जाता है। स्मरण रहे कि मोदी दलित बच्चों को मानसिक रूप से विकलांग घोषित करके उनके लिए नीली पैंट पहनने का फार्मूला घोषित कर चुके हैं। नीली पैंट इसलिए कि उन्हें देखते ही सवर्ण बच्चे तुरंत पहचान लेंगे और उनके साथ घुल-मिल नहीं पाएंगे। ऐसा अपार्थायड सिस्टमपूरे गुजरात के स्कूलों में लागू है। मोदी एक किताब में लिख चुके हैं कि ईश्वर ने दलितों को सबकी सेवा के लिए भेजा है। इसलिए दलितों को दूसरों की सेवा में ही संतुष्टि मिलती है।
इतना ही नहीं, जब 2003 में गुजरात में विनाशकारी भूकम्प आया तो लाखों लोग बेघर हो गए। बड़ी संख्या में दलित जाड़े के दिनों में सड़क पर रात बिताने को मजबूर हो गए, क्योंकि राहत शिविरों में मोदी के समर्थकों ने दलितों के प्रवेश पर रोक लगा दी थी। उन्हें राहत सामग्री भी नहीं दी जाती थी। उस समयइंडियन एक्सप्रेसने अनेक खाली तंबुओं के चित्र छापे थे, जिनमें दलितों का प्रवेश वर्जित कर दिया गया था। यह सब कुछ मोदी के नेतृत्व में हो रहा था।
इस समय मोदी के चलते ही गुजरात में छुआछूत का बोलबाला है। मोदी सरकार ने दलित आरक्षण की नीति को तहस-नहस कर दिया। सारी नौकरियां संघ से जुड़े लोगों को दी जा रही हैं। इंडियन एक्सप्रेसके ही अनुसार गोधरा कांड के बाद गुजरात के अनेक गांवों में सरकारी खर्चे पर विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं को इसलिए नियुक्त किया गया है, ताकि वे मोदी सरकार को सूचना दे सकें कि वहां कौन देशद्रोही है! इस तरह बड़े व्यवस्थित ढंग से मोदी ने अपने कार्यकर्ताओं के माध्यम से गांव-गांव, शहर-दर-शहर दलित विरोधी आतंक का वातावरण कायम कर दिया है। ऐसा ही अल्पसंख्यकों के साथ किया गया है।
गुजरात में सत्ता संभालने के बाद मोदी ने सर्वाधिक नुकसान स्कूली पाठ्यक्रमों का२ किया। वहां वर्ण-व्यवथा के समर्थन में शिक्षा दी जाती है, जिसके कारण मासूम बच्चों में जातिवाद के साथ ही सांप्रदायिकता का विष बोया जा रहा है। पाठ्यक्रमों में फासीवादियों का ही गुणगान किया जाता है। गोधरा कांड के बाद जब डरबन में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्त्वाधान में रंगभेद, जातिभेद आदि के विरुद्ध एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न हुआ तो विश्व हिंदू परिषद के उपाध्यक्ष आचार्य गिरिराज किशोर ने गुजरात की धरती से ही अपने बयान में कहा- भारत की वर्ण-व्यवस्था के बारे में किसी भी तरह की बहस
हमारे धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन है।यह वही समय था जब राजस्थान हाईकोर्ट के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश गुम्मनमल लोढ़ा ने विश्व हिंदू परिषद के मंच का इस्तेमाल करते हुए आरक्षण विरोधी मोर्चाखोल कर दलित आरक्षण के विरोध में अभियान चलाया था। इसके पहले 1987 में सिर्फ एक दलित छात्र का दाखिला अमदाबाद मेडिकल कॉलेज में हुआ था। उसके विरुद्ध पूरे एक साल तक दलित बस्तियों पर हिंदुत्ववादी हमला बोलते रहे। ऐसे मोदी के गुजरात को हिंदुत्व की प्रयोगशाला कहा जा रहा है।उपर्युक्त विशेषताओं के चलते मोदी को आरएसएस ने प्रधानमंत्री पद के लिए चुना है। यही उनका गुजरात मॉडल है, जिसे वे पूरे भारत में लागू करना चाहते हैं। दुनिया भर के फासीवादियों का तंत्र हमेशा मिथ्या प्रचार पर केंद्रित रहता है। मोदी उसके जीते-जागते प्रतीक बन चुके हैं। वे हर जगह नब्बे डिग्री के कोण पर झुक कर सबको सलाम ठोंक रहे हैं। बनारस में वे पर्चा भरने गए तो डॉ आंबेडकर की मूर्ति को ढूंढ़ कर उस पर माला चढ़ाई, ताकि दलितों को गुमराह किया जा सके। संघ परिवार मोदी प्रचार के दौरान आंबेडकर को मुसलिम विरोधी के रूप में पेश कर रहा है, ताकि दलितों का भी ध्रुवीकरण सांप्रदायिक आधार पर हो सके। इस संदर्भ में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में, जहां मोदी का हेलीकॉप्टर उतरा, उसके पास ही गांधी की मूर्ति थी, लेकिन माला चढ़ाना तो दूर, उसकी तरफ उन्होंने देखा तक नहीं। मोदी के इस व्यवहार से भी पता चलता है कि आखिर गांधी की हत्या किसने की होगी।
इन चुनावों के शुरू होने के बाद मोदी का चुनाव घोषणा-पत्र आया, जिसमें सारे विश्वासघाती एजेंडे आवरण की भाषा में लिखे हुए हैं। सारा मीडिया कह रहा था कि इस घोषणा-पत्र पर पूरी छाप मोदी की है। इसमें दो बड़ी घातक शब्दावली का इस्तेमाल किया गया है। एक है टोकनिज्म’, दूसरा है, ‘इक्वल अपॉर्चुनिटी’, यानी सबको समान अवसर। सुनने में यह बहुत अच्छा लगता है।समान अवसरका इस्तेमाल सारी दुनया में शोषित-पीड़ित जनता के पक्ष में किया जाता है, लेकिन मोदी का संघ परिवार तर्क देता है कि दलितों के आरक्षण से सवर्णों के साथ अन्याय होता है। इसलिए आरक्षण समाप्त करके सबको एक समझा जाए। यही है मोदी के घोषणा-पत्र का असली दलित विरोधी चेहरा और समान अवसर की अवधारणा।
इसका व्यावहारिक रूप यह है कि दलितों को वापस मध्ययुग की बर्बरता में फिर से झोंक दिया जाए। अनेक मोदी समर्थक इस चुनाव में सार्वजनिक रूप से आरक्षण समाप्त करने की मांग उठा चुके हैं, लेकिन मोदी उस पर बिल्कुल चुप हैं। इसलिए मोदी और संघ परिवार का दलित विरोध किसी से छिपा नहीं है।
लेकिन सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि दलित पार्टियां मोदी के खतरे से एकदम अनभिज्ञ हैं। उलटे वे लगातार मोदी का हाथ मजबूत करने में व्यस्त हैं। आज मायावती जगह-जगह बोल रही हैं कि मोदी की सत्ता का आना खतरनाक है, क्योंकि वे आरक्षण खत्म कर देंगे और समाज सांप्रदायिकता के आधार पर बंट जाएगा। ऐसा सुन कर बहुत अच्छा लगता है। लेकिन यह सर्वविदित है कि 1995 तक कोई भी पार्टी भाजपा को छूने के लिए तैयार नहीं थी। यहां तक कि उस समय तक लोहियावादी समाजवादियों के अनेक धड़े भी भाजपा को नहीं छूना चाहते थे। लेकिन ज्यों ही 1996 में मायावती भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं तो भाजपा के समर्थन में दर्जनों पार्टियों की लाइन लग गई। एक तरह से मायावती ने भाजपा के समर्थन का बंद दरवाजा एक धक्के में खोल दिया और तीन-तीन बार उसके साथ सरकार चलाई। मायावती की भूमिका संघ परिवार की सामाजिक और राजनीतिक शक्ति में बेतहाशा वृद्धि का कारण बनी।
मायावती संघ और ब्राह्मणों के नजदीक तो अवश्य गर्इं, लेकिन 1995 में मुलायम-बसपा की सरकार को गिरा कर दलित-पिछड़ों की एकता को उन्होंने एकदम भंग कर दिया। इतना ही नहीं, 2004 के चुनावों में मायावती मोदी के समर्थन में प्रचार करने गुजरात चली गर्इं। दलित राजनीति की मूर्खता की यह चरम सीमा थी। अगर मायावती संघ के साथ कभी नहीं जातीं और सेक्युलर दायरे में रही होतीं तो देवगौड़ा के बदले 1996 में कांशीराम या मायावती में से कोई भी एक भारत का प्रधानमंत्री बन सकता था। लेकिन सत्ता के तात्कालिक लालच ने पूरी दलित राजनीति को जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति में बदल दिया। इससे जातिवादी सत्ता की भी होड़ मच गई। दलित नेताओं को यह बात एकदम समझ में नहीं आती है कि दलित हमेशा जातिवाद के कारण ही हाशिये पर रहे। इसलिए जातिवाद से छेड़छाड़ करना कभी भी दलितों के हित में नहीं है।
अब जरा अन्य दलित मसीहाओं पर गौर किया जाए। दलित राजनीति के तीन रामहैं। एक हैं रामराज (उदित राज), दूसरे रामदास अठावले और तीसरे रामविलास पासवान। ये तीनों गले में भगवा साफा लपेट कर मोदी को प्रधानमंत्री बनाने पर उतारू हैं। हकीकत यही है कि ये तीनों राम’, ‘रामराजलाने के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं। रामराज ने भारत को बौद्ध बनाने के अभियान से अपनी राजनीति शुरू की थी। मगर कुशीनगर और श्रावस्ती होते हुए उन्होंने अयोध्या आकर अपना बसेरा बना लिया। जिस प्रकार मुसलमानों के खिलाफ जब बोलना होता है तो भाजपा नकवी-हुसैन की जोड़ी को आगे कर देती है। अब जब दलितों के खिलाफ बोलना होता है तो रामराज हाजिर हो जाते हैं। इसका उदाहरण उस समय मिला, जब रामदेव ने दलितों के घर राहुल द्वारा हनीमून मनाने वाला बयान दिया, जिसके बाद देशभर के दलितों ने विरोध करना शुरू कर दिया। इसलिए बड़ी बेशर्मी से रामराज रामदेव के समर्थन में आ गए।
उधर रामदास अठावले, जो अपने को डॉ आंबेडकर का उत्तराधिकारी से जरा कम नहीं समझते, वे शिवसेना के झंडे तले मोदी के प्रचार में जुटे हुए हैं। उनकी असली समस्या यह थी कि वे मनमोहन सरकार में मंत्री बनना चाहते थे, लेकिन विफल रहे। इसलिए उन्होंने भगवा परिधान ओढ़ने में ही अपनी भलाई समझी। तीसरे नेता रामविलास पासवान पहले भी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में रह चुके हैं। हकीकत यह है कि 1989 से अब तक वीपी सिंह, देवगौड़ा, गुजराल, वाजपेयी और मनमोहन सिंह, सबके मंत्रिमंडल में रामविलास पासवान केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। गोधरा दंगे के बाद उन्होंने राजग छोड़ा था। लेकिन मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में मंत्री न बन पाने के कारण वे फिर मोदी की हवा में उड़ने लगे। अब हर मंच से मोदी का प्रचार कर रहे हैं।
इस समय सारे दलित नेता दलित वोटों की भगवा मार्केंटिंग कर रहे हैं। ये नेता जान-बूझ कर दलितों को सांप्रदायिकता की आग में झोंक रहे हैं। इतना ही नहीं, वे वर्ण-व्यवस्थावादियों के हाथ भी मजबूत कर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में यह जिम्मेदारी दलित समाज की है कि वे सारी दलित पार्टियों को भंग करने का अभियान चलाएं और उसके बदले जाति व्यवस्था विरोधी आंदोलनों की शुरुआत करें। अन्यथा इन नेताओं के चलते दलित हमेशा के लिए जातिवाद के शिकार बन जाएंगे।
प्रसिद्द  दलित चिंतक प्रो. तुलसी राम, अपनी आत्मकथा मुर्दहियाके कारण भी सर्वत्र जाने जाते हैं|
साभार : जनसत्ता (4 मई, 2014)

शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

जम्मू कश्मीर राज्य के पुनर्गठन और उसके विशेष राज्य के दर्जे को समाप्त किए जाने के संदर्भ में दो बातें:


जम्मू कश्मीर राज्य के पुनर्गठन और उसके विशेष राज्य के दर्जे को समाप्त किए जाने के संदर्भ में दो बातें:



-अखिलेंद्र प्रताप सिंह, स्वराज अभियान



राष्ट्रपति ने संसद द्वारा पारित जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन बिल और उसे मिले
विशेष राज्य के दर्जे को समाप्त करने पर अपनी मुहर लगा दी है। लेकिन देश
का लोकतांत्रिक मत इसके विरूद्ध है और कश्मीर की जनभावना के साथ है।
कश्मीरी पंडितों का भी एक हिस्सा इससे खुश नहीं दिख रहा है।
यह बताने की जरूरत नहीं है कि राष्ट्रीय आजादी के आंदोलन और उसकी राष्ट्र
निर्माण की सोच का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ धुर विरोधी रहा है। संघ ने
कभी भी भारत की विविधता और उसके संघीय सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया।
उसकी सोच ख्याली और अधिनायकवादी रही है। संघ ने पूरे भारत को हिंदू
राष्ट्र घोषित किया और उसकी भौगोलिक जन केंद्रित व्याख्या की जगह
भू-सांस्कृतिक धार्मिक व्याख्या की। विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी
‘हिंदुत्व’ की किताब में हिंदू की परिभाषा इस प्रकार की है -
आसिन्धु-सिंधु-पर्यन्ता यस्य भारतभूमिका
पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः।
हिंदू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र तक संपूर्ण भारत वर्ष को अपनी पितृ
भूमि और पुण्य भूमि मानता हो। स्वतः स्पष्ट है कि पहले भारत को हिंदू
राष्ट्र मानिये, यहां के नागरिकों को हिंदू कहिये और हिंदू भी उन्हें
कहिये जो भारत को पितृ भूमि और पुण्य भूमि दोनों मानता हो। इस सिद्धांत
के अनुसार मुस्लिम, ईसाई सहित अन्य धर्मावलम्बी धार्मिक-सांस्कृतिक
गुलामी में रहने के लिए अभिशप्त हैं। दीनदयाल उपाध्याय जो राष्ट्रीय
स्वयं सेवक संघ के बड़े राजनीतिक नेता रहे हैं, उनकी समझ देखिये। एकात्म
मानववाद में वह कहते हैं कि भारत का संविधान संघीय न होकर एकात्मवादी
होना चाहिए। भारत माता के अंग के बतौर वे प्रदेश को तो स्वीकार करते हैं
लेकिन उन्हें स्वायत्त संघीय राज्य व्यवस्था स्वीकार नहीं है। यदि कोई
कहे कि भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र शासित प्रदेश की अपनी परिकल्पना को
ही जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के केंद्र शासित राज्यों के निर्माण में
व्यक्त किया है तो कतई गलत नहीं होगा। इसी तरह का प्रयोग भारतीय जनता
पार्टी पूरे देश में करे तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए। क्योंकि यह उसके
अधिनायकवादी राज्य व्यवस्था के विचार के अनुरूप है। संसदीय जनतंत्र भी
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर्वसत्तावादी राजनीतिक सोच से मेल नहीं
खाता है। संसदीय जनतंत्र को संघ बालू के अलग-अलग कण के रूप में देखता है।
मौका मिलते ही मौजूदा राजनीतिक ढांचे को पलट देने में उसे देर नहीं
लगेगी।
संविधान की अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को हटाने और जम्मू-कश्मीर राज्य
के पुनर्गठन पर संसद में बोलते हुए गृह मंत्री ने कहा कि 26 अक्टूबर 1947
को जम्मू-कश्मीर का जब भारत में संम्मिलन (इंस्ट्रूमेंट आफ एक्सेसन) हुआ,
उस समय उसे विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिया गया। हालांकि तत्कालीन
जम्मू-कश्मीर रियासत के महाराजा हरि सिंह के बेटे कर्ण सिंह का कहना है
कि उस समय हुए समझौते में जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने की
बात मानी गयी थी। जिसे बाद में अनुच्छेद 370 के माध्यम से संविधान में
जोड़ा गया। यह सभी जानते हैं कि भारत वर्ष में 562 राजा-रजवाड़ों व नवाबों
की रियासतें थीं। उन्हें या तो भारत या पाकिस्तान के साथ जाना था या
स्वतंत्र रहना था। राजा हरि सिंह जिनका आरएसएस के साथ अच्छा रिश्ता था,
वे अपनी रियासत को स्वतंत्र बनाये रखना चाहते थे और भारत के साथ तभी जुड़े
जब पाकिस्तानी सेना के साथ पख्तून जनजातीय समूह जम्मू-कश्मीर पर कब्जा
करने के लिए श्रीनगर तक पहुंच गया। यहां शेख अब्दुल्ला की नेशनल
कांफ्रेंस और उसकी कतारें जो सामंतवाद विरोधी संघर्ष की अगुवाई कर रही थी
उन्होंने भारतीय सेना की पूरी मदद की और पाकिस्तानी सेना और कबीलों को
पीछे ढकेला। शेख अब्दुल्ला ने धर्म आधारित जिन्ना के द्विराष्ट्र के
सिद्धांत को कभी नहीं स्वीकार किया और भारत के साथ रहने का फैसला किया।
इतिहास में दर्ज इस सच को संघ का संकीर्ण मन स्वीकार नहीं कर पाता है।
देशी राजा-रजवाड़ों और नवाबों को भारत में विलय कराने के लिए जनसंघर्षों व
जनता की जो भूमिका थी उसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बराबर नकारता है और
इतिहास को राजा-रानियों और नवाबों की कहानियों में तब्दील करता रहता है।
यह निर्विवाद है कि आंध्र महासभा और कम्युनिस्टों की अगुवाई में तेलंगाना
के जुझारू किसान आंदोलन ने निजाम हैदराबाद के निरंकुश राज्य की कमर तोड़
दी और भारत में उसे विलय कराने में बड़ी भूमिका निभाई। जूनागढ़ की कहानी भी
जनता के संघर्ष की कहानी है। भारत की जनता की एकता ने भारतीय
राष्ट्र-राज्य के उदय में बड़ी भूमिका निभाई है जिसे नजर अंदाज राष्ट्रीय
स्वयं सेवक संघ के इतिहासकार ही कर सकते हैं।
दरअसल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसकी भारतीय जनता पार्टी हीन भावना से
ग्रस्त रहते हैं। गलतबयानी उनके राजनीतिक चरित्र का स्वभाव है। गृहमंत्री
महोदय ने संसद में बताया कि संविधान की अनुच्छेद 370 का विरोध लोहिया जी
ने किया था। संसद में किसी एक प्राईवेट बिल पर हुई बहस के हवाले से संघ
के लोग कहते हैं कि लोहिया ने संसद में अनुच्छेद 370 को हटाने की बात कही
थी, जबकि उनके प्रकाशित दस्तावजों में ऐसा कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता
है। लोहिया जी शेख अब्दुल्ला और नेशनल कांफ्रेंस के बड़े प्रशंसक थे। जहां
तक डाक्टर अम्बेडकर की बात है उनकी किसी रचना में यह बात नहीं मिलती है
कि वे अनुच्छेद 370 को भारतीय संविधान में डालने के वह खिलाफ ंथे। यह सब
बातें संघ की मनगढ़ंत कहानियों में है जो भारतीय जनसंघ के नेता बलराज मधोक
के कथित कथन पर आधारित है।
संविधान की अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को हटाने और जम्मू-कश्मीर राज्य
को केंद्र शासित दो प्रदेश में बदल देने के फायदे का जो तर्क दिया रहा है
उसमें भी कोई दम नहीं है। जहां तक अनुच्छेद 370 को हटाने की बात है, वह
तो महज एक पर्दा मात्र ही रह गया था। नेहरू के जमाने में भी उसमें ढेर
सारे बदलाव हुए और अनुच्छेद 370 के रहते हुए भी भारतीय संविधान के ढेर
सारे प्रावधान वहां लागू हो रहे थे। जन कल्याण और राजनीतिक आरक्षण संबंधी
प्रावधान भी संविधान संशोधन कर वहां लागू किया जा सकता था। अनुच्छेद 370
के रहते वहां बाहर के लोग जमीन नहीं खरीद सकते थे तो इस तरह की व्यवस्था
देश के कई अन्य राज्यों में भी है। आदिवासियों की जमीन भी गैर आदिवासी
नहीं खरीद सकते हैं। यदि सरकार विकास के मामले में दिलचस्पी लेती तो
उद्योग-धंधों व विकास कार्यों के लिए बहुत सारी जमीनें वहां लीज पर ली जा
सकती थी। वैसे भी कई अन्य राज्यों की तुलना में जम्मू-कश्मीर विकास के
पायदान पर आगे है। जहां तक आतंकवाद से लड़ने की बात है उसमें संविधान की
अनुच्छेद 370 और जम्मू-कश्मीर राज्य बाधक था, यह समझ के परे है। लगभग 7
लाख अर्द्धसैनिक व सैनिक बलों की तैनाती उस राज्य में है और सशस्त्र बल
विशेष अधिकार कानून (आफ्स्सा) जैसा काला कानून वहां मौजूद है। इतनी कम
जनसंख्या पर इतनी भारी फोर्स लगाने के बाद भी अलगाववाद और आतंकवाद से अगर
नहीं निपट सके तो जम्मू-कश्मीर की पूरी समस्या को हल करने के लिए नई
राजनीतिक दृष्टि और पहल की जरूरत थी न कि राज्य का ही विलोपन कर देना।
यह भी कहना गलत है कि अनुच्छेद 370 की वजह से वहां अलगाववाद की भावना
पनपी। सन् 1947 से लेकर 1987 तक वहां आतंकवाद की घटनायें नहीं थीं और न
ही कट्टर इस्लाम का प्रभाव। अलगाववादी आंदोलन बढ़ने के अन्य कारणों में एक
बड़ा कारण वहां चुनाव में बड़े स्तर पर हुई धांधली थी जिसे अपना तर्क मजबूत
करने के लिहाज से गृह मंत्री ने संसद में स्वीकार किया। राष्ट्रीय स्वयं
सेवक संघ के लोगों का यह कहना कि कुछ ऐसे ज्वलंत सवाल हैं जिसे हल करके
राज्य की पुनर्बहाली कर दी जायेगी। कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास किया
जायेगा, शरणार्थियों को नागरिकता दी जायेगी और राजनीतिक आरक्षण का मसला
हल किया जायेगा। सामरिक कारण भी दिये गये हैं कि लद्दाख को केन्द्र शासित
राज्य बनाने से सियाचीन पर अच्छी नजर रखी जा सकती है। आखिर जम्मू-कश्मीर
में भारतीय जनता पार्टी की मिली जुली सरकार थी और अभी वहां उन्हीं का
राज्यपाल है। इन प्रश्नों का हल राज्य सरकार या राज्यपाल के माध्यम से
किया जा सकता था। इसके लिए राज्य के विलोपन की कोई जरूरत नहीं थी।
उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि संघ और भारतीय जनता पार्टी अनुच्छेद
370 के प्रावधानों को हटाने और राज्य के विलोपन का जो तर्क दे रहे हैं वह
वास्तविक नहीं है। कारण वैचारिक, राजनीतिक और आर्थिक हैं, इसे इसी संदर्भ
में समझा जाना चाहिए।
यह तो सबको मालूम है कि भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करना राष्ट्रीय
स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी का रणनीतिक लक्ष्य है और इस तरह के
हिंदुत्व प्रोग्राम वे बराबर लेते रहेंगे। आने वाले दिनों में वे कामन
सिविल कोड, राम मंदिर जैसे मुद्दों को उठायेंगे और पूरे भारतीय समाज का
हिंदुकरण और हिंदुओं का सैन्यीकरण करते रहेंगे। लेकिन उनकी राजनीति के
राजनीतिक अर्थशास्त्र को भी समझना होगा। नव उदारवादी अर्थव्यवस्था चरमरा
रही है। दुनिया में बेरोजगारी और मंदी का दौर है और यहां भी उससे उबरने
की क्षमता केंद्र सरकार के पास नहीं दिख रही है। नव उदारवादी
अर्थव्यवस्था अपनी जरूरत के हिसाब से एक अधिनायकवादी राजनीतिक माडल
विकसित कर रही है और इसके लिए उसका सबसे विश्वसनीय दल इस समय भाजपा बनी
हुई है। इसके पहले भी गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम संशोधन विधेयक (यूएपीए)
और सूचना का अधिकार संशोधन विधेयक संसद में भाजपा पास करा चुकी है।
कुछ सामरिक कारण भी हैं उस पर भी गौर करना चाहिए। अमरीका चीन के साथ
व्यापारिक युद्ध में लगा हुआ है और चीन को घेरने में वह एशिया में भारत
की बड़ी भूमिका देखता है। हालांकि चीन के साथ भारत का व्यापारिक संबंध बढ़
रहा है लेकिन भारत विश्व राजनीति में अमरीका से रणनीतिक तौर पर बंध गया
है और यही वजह है कि अन्य कारणों के अलावा चीन के ‘वन बेल्ट-वन रोड‘
कार्यक्रम का भारत विरोध भी करता है। वैसे भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ
शुरू से ही भारत को अटलांटिक ग्रुप के साथ ले जाने का पैरोकार रहा है।
कहने का मतलब यह है कि सामरिक दृष्टि से इस क्षेत्र का महत्व और बढ़ गया
है। यह भी हो सकता है कि किसी बड़ी योजना के तहत जम्मू-कश्मीर के संदर्भ
में मध्यस्थता करने का बयान अमरीकीे राष्ट्रपति का हो। क्यांेकि पाक
अधिकृत कश्मीर, गिलगित-बाल्टिस्तान और आक्साई चीन जैसी जगहें बड़ी सामरिक
महत्व की हैं और अमेरीका की दिलचस्पी इनमें बराबर रही है।
बहरहाल जो भी हो जम्मू कश्मीर के जानकार यह मानतें है कि केंद्र सरकार का
यह कदम आतंकवाद को घटाने की जगह बढ़ायेगा ही। यह सच भी है क्योंकि देश की
आजादी के आंदोलन के दौर में कश्मीर को भारत से जोड़ने के लिए जो राजनीतिक
व्यवस्था तय की गयी थी, वह आम समझ और सहमति के आधार पर बनी थी। उस पूरी
राजनीतिक प्रक्रिया को पलट कर केन्द्र शासित प्रदेश की जो राजनीतिक
व्यवस्था केन्द्र सरकार जम्मू कश्मीर के लिए दे रही है, वह राजनीतिक
यथार्थ के विरूद्ध है। क्योंकि कल बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था अगर हो भी
जाए तो भी वह राजनीतिक सवालों का विकल्प नहीं बन सकती और कश्मीरी अवाम के
अलगाव की भावना को दूर नहीं कर सकती है।
राजनीतिक प्रश्न राजनीतिक तरीके से ही हल होते है, उसे नजर अंदाज नहीं
किया जा सकता। राजनीतिक प्रक्रिया से लोगों को दरकिनार करके अभी तक
कश्मीर के सवाल को हल किया जाता रहा है। मोदी सरकार भले आज जम्मू कश्मीर
को केन्द्र शासित प्रदेश की संवैधानिक व्यवस्था दें लेकिन यह भी सच है कि
उनके साथ सन् 1953 से ही केन्द्र शासित प्रदेश जैसा व्यवहार होता रहा है।
यहां तक कि वहां के लोग न वोट दे पाते थे और न अपना प्रतिनिधि चुन पाते
थे और उनके बाजार पर भी दिल्ली के महाजनों का ही कब्जा रहा है। इन
विसंगतियों को दूर करने की जगह मोदी सरकार के मौजूदा कदम ने वहां की जनता
को राजनीतिक प्रक्रिया से एकदम अलग-थलग कर दिया है। जम्मू कश्मीर के
पुनर्गठन का और विशेष राज्य के दर्जे की समाप्ति के लिए केन्द्र सरकार का
उठाया गया कदम दुस्साहसिक है।
जम्मू कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया की पुनर्बहाली और उसमें वहां के
लोगों की भागेदारी को बढ़ाने की जरूरत है। देश के लोकतांत्रिक आंदोलन को
इस दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए और वहां की जनता को विश्वास में लेना चाहिए
कि देश के अन्य हिस्सों की जनता उनके साथ है।
दिनांक - 9 अगस्त 2019

बुधवार, 7 अगस्त 2019

क्या डा. आंबेडकर धारा 370 के विरुद्ध थे?


क्या डा. आंबेडकर धारा 370  के विरुद्ध थे?
-       एस आर दारापुरी आईपीएस (से. नि.) एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

इस समय मीडिया में यह बात जोर शोर से चल रही है कि डा आंबेडकर भी जम्मू- कश्मीर राज्य से सम्बंधित धारा 370 के संविधान में डालने के खिलाफ थे. इसके समर्थन में डा आंबेडकर का एक कथन जो उ शेख अब्दुल्लाह को भेजे गये तथाकथित पत्र में है, को उद्धृत  किया जा रहा है :-
आप चाहते हो कि भारत आपकी सीमाओं की रक्षा करे, वह आपके क्षेत्र में सड़कें बनाए, वह आपको खाद्य सामग्री दे, और कश्मीर का वही दर्ज़ा हो जो भारत का है! लेकिन भारत सरकार के पास केवल सीमित अधिकार हों और भारत के लोगों को कश्मीर में कोई अधिकार नहीं हों। ऐसे प्रस्ताव को मंज़ूरी देना भारत के हितों से दग़ाबाज़ी करने जैसा होगा और मैं भारत का कानून मंत्री होते हुए ऐसा कभी नहीं करूंगा।
इसी क्रम में आगे कहा गया है कि तब शेख़ अब्दुल्ला जवाहर लाल नेहरू से मिले जिन्होंने उन्हें गोपाल स्वामी आयंगर के पास भेज दिया। आयंगर सरदार पटेल से मिले और उनसे कहा कि वह इस मामले में कुछ करें क्योंकि नेहरू ने शेख़ अब्दुल्ला से इस बात का वादा किया था और अब यह उनकी प्रतिष्ठा से जुड़ गया है। पटेल ने नेहरू के विदेश यात्रा के दौरान इसे पारित करवा दिया। जिस दिन यह अनुच्छेद चर्चा के लिए पेश किया गया, डॉ. आंबेडकर ने इससे संबंधित एक भी सवाल का जवाब नहीं दिया जबकि दूसरे अनुच्छेद पर हुई चर्चा में उन्होंने भाग लिया। (कश्मीर को विशेष दर्जा देने संबंधी) सारी दलीलें आयंगर की तरफ से आईं।
हमने डा. आंबेडकर के इस कथन की सत्यता और विश्वसनीयता ढूंढने की कोशिश की तो आंबेडकर का ऐसा कोई भी बयान नहीं दिखा जो इसकी पुष्टि करता हो। हां, भारतीय जनसंघ के नेता बलराज मधोक के हवाले से एक रिपोर्ट उपलब्ध है जिसमें यह लिखा हुआ है किडॉ. आंबेडकर ने शेख़ अब्दुल्ला से उपरोक्त बातें कहीं थीं. यह सर्विदित है कि वर्तमान में डा. आंबेडकर का सम्पूर्ण प्रकाशित/अप्रकाशित साहित्य महाराष्ट्र सरकार द्वारा 23 खण्डों में छपवाया गया है परन्तु किसी भी खंड में उक्त पत्र/बातचीत का ज़िकर नहीं है. अतः यह स्पष्ट है कि उक्त बात आरएसएस /भाजपा द्वारा धारा 370 के बारे में अपनी अवधारणा/ कृत्य को सही ठहराने के लिए डा. आंबेडकर का नाम उक्त कथन से जोड़ा गया है. यह वैसा ही है जैसाकि पिछले दिनों यह कहा गया था कि डा. आंबेडकर नागपुर में आरएसएस मुख्यालय आये थे और वे वहां की व्यवस्था देख कर बहुत प्रभावित हुए थे तथा उन्होंने वहां की समरसता की व्यवस्था की बहुत प्रशंसा की थी. बाद में यह कथन  भी मनघडंत और आधारहीन पाया गया था.
हाँ,  इतना ज़रूर है कि डा. आंबेडकर ने 10 अक्तूबर, 1951 को कानून मंत्री के पद से अपने इस्तीफे में कहा था:-
 “पाकिस्तान के  साथ हमारा झगड़ा हमारी विदेश नीति का हिस्सा है जिसको लेकर मैं गहरा असंतोष महसूस करता हूं। पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्तों में खटास दो कारणों से है एक है कश्मीर और दूसरा है पूर्वी बंगाल में हमारे लोगों के हालात। मुझे लगता है कि हमें कश्मीर के बजाय पूर्वी बंगाल पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए जहां जैसा कि हमें अखबारों से पता चल रहा है, हमारे लोग असहनीय स्थिति में जी रहे हैं। उस पर ध्यान देने के बजाय हम अपना पूरा ज़ोर कश्मीर मुद्दे पर लगा रहे हैं। उस भी मुझे लगता है कि हम एक अवास्तविक पहलू पर लड़ रहे हैं । हम अपना अधिकतम समय इस बात की चर्चा पर लगा रहे हैं कि कौन सही है और कौन ग़लत। मेरे विचार से असली मुद्दा यह नहीं है कि सही कौन है बल्कि यह कि सही क्या है। और इसे यदि मूल सवाल के तौर पर लें तो मेरा विचार हमेशा से यही रहा है कि कश्मीर का विभाजन ही सही समाधान है। हिंदू और बौद्ध हिस्से भारत को दे दिए जाएं और मुस्लिम हिस्सा पाकिस्तान को जैसा कि हमने भारत के मामले में किया। कश्मीर के मुस्लिम भाग से हमारा कोई लेनादेना नहीं है। यह कश्मीर के मुसलमानों और पाकिस्तान का मामला है। वे जैसा चाहें, वैसा तय करें। या यदि आप चाहें तो इसे तीन भागों में बांट दें; युद्धविराम क्षेत्र, घाटी और जम्मू-लद्दाख का इलाका और जनमतसंग्रह केवल घाटी में कराएं। अभी जिस जनमतसंग्रह का प्रस्ताव है, उसको लेकर मेरी यही आशंका है कि यह चूंकि पूरे इलाके में होने की बात है, तो इससे कश्मीर के हिंदू और बौद्ध अपनी इच्छा के विरुद्ध पाकिस्तान में रहने  को बाध्य हो जाएंगे और हमें वैसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ेगा जैसा कि हम आज पूर्वी बंगाल में देख पा रहे हैं।“

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि धारा 370 के सम्बन्ध में जो बात डा. आंबेडकर के सन्दर्भ से कही जा रही है वह पूर्णतया अपुष्ट एवं मनघडंत है जिससे सभी ख़ास करके दलितों को सावधान रहना चाहिए. यह आरएसएस की दलितों को डा. आंबेडकर का नाम ले कर गुमराह करने का प्रयास है.



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