शनिवार, 20 अगस्त 2016

डॉ. आंबेडकर का आगरा का ऐतिहासिक भाषण




डॉ. आंबेडकर का आगरा का ऐतिहासिक भाषण (18 मार्च, 1956)


(नोट:- डॉ. आंबेडकर का यह भाषण ऐतिहासिक और अति महत्वपूर्ण है क्योंकि इस भाषण में उन्होंने अपने तब तक के अनुभव और भविष्य की रणनीति के संकेत दिए हैं. इस में उन्होंने दलित समाज के विभिन्न वर्गों को संबोधित किया है और उनके लिए दिशा निर्देश दिए हैं. वास्तव में यह भावी दलित आन्दोलन के लिए दिशा सूचक थे परन्तु बहुत अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि दलितों ने इन को नज़रंदाज़ किया है जिस का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव 2011 की जनगणना में बौद्धों की जन्संसख्या वृद्धि दर में भारी गिरावट के रूप में सामने आया है. आज दलित समाज बाबासाहेब के जाति उन्मूलन और बौद्ध धम्म आन्दोलन से दूर चला गया है. सिद्धान्तहीन और अवसरवादी दलित राजनीति ने बाबासाहेब के सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन को बहुत पीछे धकेल दिया है. आज दलित समाज संगठित होने की बजाये जाति बिखराव का शिकार है. लगता है बाबासाहेब का कारवां आगे बढ़ने की बजाये पीछे की ओर चला गया है. यह सभी आम्बेडकरवादियों के लिए गहन चिंतन का विषय होना चाहिए.)  
जनसमूह से
पिछले तीस वर्षों से तुम लोगों को राजनैतिक अधिकार दिलाने के लिए मैं संघर्ष कर रहा हूँ. मैंने तुम्हें संसद और राज्य विधान सभायों में सीटों का आरक्षण दिलाया है. मैंने तुम्हारे बच्चों की शिक्षा के लिए  उचित प्रावधान करवाए हैं . आज हम प्रगति कर सकते हैं. अब यह तुम्हारा कर्तव्य है कि शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक गैर बराबरी  को दूर करने के लिए एकजुट होकर इस संघर्ष को जारी रखें. इसी उदेश्य हेतु तुम्हें हर प्रकार की कुर्बानियों के लिए तैयार रहना चाहिए जहाँ तक कि खून बहाने के लिए भी.
नेताओं से
यदि कोई तुम्हें अपने महल में बुलाता है तो स्वेच्छा से जाओ.लेकिन अपनी झोंपड़ी में आग लगा कर नहीं. यदि वह राजा किसी दिन आपसे झगड़ता है और आप को अपने महल से बाहर धकेल देता है , उस समय तुम कहाँ जायोगे? यदि तुम अपने आपको बेचना चाहते हो तो बेचो लेकिन किसी भी तरह अपने संगठन को बर्बाद करने की कीमत पर नहीं. मुझे दूसरों से कोई खतरा नहीं है , लेकिन मैं अपने लोगों से ही खतरा महसूस कर रहा हूँ.
भूमिहीन मजदूरों से
मैं गाँव में रहने वाले भूमिहीन मजदूरों के लिए काफी चिंतित हूँ. मैं उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाया हूँ. मैं उनके दुःख और तकलीफें सहन नहीं कर पा रहा हूँ.उनकी तबाहियों का मुख्य कारण यह है कि उनके पास ज़मीन नहीं है. इसी लिए वे अत्याचार और अपमान का शिकार होते हैं. वे अपना उत्थान नहीं कर पाएंगे. मैं इनके लिए संघर्ष करूँगा.यदि सरकार इस कार्य में कोई बाधा उत्पन्न करती है तो मैं इन लोगों का नेतृत्व करूँगा और इन की वैधानिक लड़ाई लडूंगा. लेकिन किसी भी हालत में भूमिहीन लोगों को  ज़मीन दिलवाने की प्रयास करूँगा.
अपने समर्थकों से
बहुत जल्दी ही मैं तथागत बुद्ध की शरण को अंगीकार कर लूँगा. यह प्रगतिवादी धर्म है. यह समानता,  स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित है. मैं इस धर्म को बहुत सालों के प्रयास के बाद खोज पाया हूँ. अब मैं जल्दी ही बुद्धिस्ट बन जायूँगा. तब एक अछूत के रूप में मैं आप के बीच नहीं रह पायूँगा. लेकिन एक सच्चे बुद्धिस्ट के रूप में तुम लोगों के कल्याण के लिए संघर्ष जारी रखूँगा. मैं तुम्हें अपने साथ बुद्धिस्ट बनने के लिए नहीं कहूँगा क्योंकि मैं अंधभक्त नहीं चाहता. केवल वे लोग ही जिन्हें इस महान धर्म की शरण में आने की तमन्ना है, बौद्ध धर्म ग्रहण कर सकते हैं जिससे वे इस धर्म में दृढ विशवास के साथ रहें और इसके आचरण का अनुसरण करें.
बौद्ध भिक्षुओं से
बौद्ध धर्म एक महान धर्म है. इस धर्म के संस्थापक तथागत ने इस धर्म का प्रसार किया और अपनी अच्छाईयों के कारण यह धर्म भारत में  दूर-दूर तक एवं गलीकूचों तक पहुँच सका. लेकिन महान उत्कर्ष के बाद यह वर्ष 1293 ई. में विलुप्त हो गया. इसके कई कारण हैं. एक कारण यह भी है कि बौद्ध भिक्षु विलासितापूर्ण जीवन जीने के आदी हो गए. धर्म प्रचार हेतु स्थान-स्थान पर जाने की बजाये उन्होंने विहारों में आराम करना तथा रजवाड़ों की प्रशंसा में पुस्तकें लिखना शुरू कर दिया. अब इस धर्म की पुनर्स्थापना हेतु उन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी. उन्हें दरवाजे- दरवाजे जाना पड़ेगा. मुझे समाज में बहुत कम भिक्षु दिखाई देते हैं. इसी लिए जन साधारण में से अच्छे लोगों को भी इस धर्म के प्रचार हेतु आगे आना चाहिए.
शासकीय कर्मचारियों  से
हमारे समाज में शिक्षा  से कुछ प्रगति हुयी है. शिक्षा प्राप्त करके कुछ लोग उच्च पदों पर पहुँच गए हैं. परन्तु इन पढ़े-लिखे लोगों ने मुझे धोखा दिया है. मैं आशा कर रहा था कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे समाज की सेवा करेंगे. किन्तु मैं क्या देख रहा हूँ कि छोटे और बड़े क्लर्कों की एक भीड़ एकत्रित हो गयी है जो अपने पेट भरने में व्यवस्त हैं. ये जो शासकीय सेवाओं में नियोजित हैं उनका कर्तव्य है कि उन्हें अपने वेतन का बीसवां भाग (5 प्रतिशत) स्वेच्छा से समाज सेवा के कार्य हेतु देना चाहिए. तब ही समाज प्रगति करेगा अन्यथा केवल एक ही परिवार का सुधार होगा. एक वह बालक जो गाँव में शिक्षा प्राप्त करने जाता है सम्पूर्ण समाज की आशाएं उस पर टिक जाती हैं. एक शिक्षित सामाजिक कार्यकर्त्ता उनके लिए वरदान साबित हो सकता है.
छात्र-छत्राओं से
मेरी छात्र-छात्राओं से अपील है कि शिक्षा प्राप्त करने के बाद किसी प्रकार की कलर्की करने की बजाये उन्हें  अपने गाँव की अथवा उसके आस-पास के लोगों की सेवा करनी चाहिए जिससे अज्ञानता से उत्पन्न शोषण एवं अन्याय को रोका जा सके. आपका उत्थान समाज के उत्थान में ही निहित है.
भविष्य की चिंता
आज मेरी स्थिति एक बड़े खम्भे की तरह है, जो विशाल टेंटों को संभाल रही है. मैं उस समय के लिए चिंतित हूँ कि जब यह खम्भा अपनी जगह पर नहीं रहेगा. मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है. मैं नहीं जानता मैं कब आप लोगों के बीच से चला जायूँ. मैं किसी ऐसे नवयुवक को  नहीं ढूंढ पा रहा हूँ जो इन करोड़ों असहाय और निराश लोगों के हितों की रक्षा करे. यदि कोई नौजवान इस ज़िम्मेदारी को लेने के लिए आगे आता है तो मैं चैन से मर सकूँगा.



गुरुवार, 18 अगस्त 2016

क्या भूमंडलीकरण से दलित सशक्त हुए?



क्या भूमंडलीकरण से दलित सशक्त हुए?
-एस.आर.दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट 
हाल में एक समाचार पत्र में छपे लेख में चंद्रभान प्रसाद जी ने एक गाँव का उदहारण देकर दिखाया है कि भूमंडलीकरण के बाद दलित बहुत खुशहाल हो गए हैं क्योंकि रोज़गार के करोड़ों अवसर पैदा हो गए हैं. हमें इस कहावत को ध्यान में रखना चाहिए कि "हवा के एक झोंके से बहार नहीं आ जाती." मुट्ठी भर दलितों के खुशहाल हो जाने से सारे दलितों की बदहाली दूर नहीं हो जाती.
दलितों की वर्तमान दुर्दशा का अंदाजा सामाजिक-आर्थिक जनगणना- 2011 के आंकड़ों से लगाया जा सकता है. इसके अनुसार ग्रामीण भारत में दलितों के 3.86 करोड़ अर्थात 21.53% परिवार रहते हैं. भारत के कुल ग्रामीण परिवारों में से 60% परिवार गरीब हैं जिन में दलितों का प्रतिश्त इससे काफी अधिक है. इसी प्रकार ग्रामीण भारत में 56% परिवार भूमिहीन हैं जिन में दलित परिवारों का प्रतिश्त इससे अधिक होना स्वाभाविक है. इसी जनगणना में यह बात भी उभर कर आई है कि ग्रामीण भारत में 30% परिवार केवल हाथ का श्रम ही कर सकते हैं जिस में दलितों का प्रतिश्त इस से काफी अधिक है. इससे स्पष्ट है कि ग्रामीण क्षेत्र में अधिकतर दलित गरीब,  भूमिहीन और अनियमित हाथ का श्रम करने वाले मजदूर हैं. जनगणना ने भूमिहीनता और केवल हाथ के श्रम को ग्रामीण परिवारों की सब से बड़ी कमजोरी बताया है. इस कारण गाँव में अधिकतर दलित परिवार ज़मींदारों पर आश्रित हैं और कृषि मजदूरों के रूप में मेहनत करने के लिए बाध्य हैं. इसी कमजोरी के कारण वे अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों का प्रभावी ढंग से प्रतिरोध भी नहीं कर पाते हैं.
अतः दलितों के सशक्तिकरण के लिए उन्हें भूमि आवंटित किया जाना बहुत ज़रूरी है परन्तु यह किसी भी सरकार अथवा राजनीतिक पार्टी के एजंडे पर नहीं है. यह भी एक बड़ी त्रासदी है कि गैर दलित पार्टियों को तो  छोड़िये भूमि आवंटन अथवा भूमि सुधार किसी भी तथाकथित दलित पार्टियों के एजंडे पर भी नहीं है. उत्तर प्रदेश में मायावती चार बार मुख्य मंत्री रही है परन्तु उसने भी न तो भूमि आवंटन किया और न ही पूर्व आवंटित भूमि पट्टों पर कब्ज़ा ही दिलवाया. सभी दलित राजनेता और दलित राजनीतिक पार्टियाँ जाति की राजनीति करती रही हैं. किसी ने भी भूमि आवंटन की न तो मांग उठाई और न ही उसके लिए कोई आन्दोलन ही किया. कुछ राज्यों में कुछ दलित संगठनों द्वारा दलितों को भूमि आवंटन की मांग तो उठाई गयी परन्तु उसका अभी तक कोई असर दिखाई नहीं दिया है. इससे यह सिद्ध होता है कि जब तक भूमि सुधार और भूमि आवंटन राजनीतिक एजंडे पर नहीं आते हैं तब तक इस दिशा में कुछ भी होने की सम्भावना नहीं है. हाल में ऊना में हुए दलित महासम्मेलन में प्रत्येक दलित परिवार को 5 एकड़ ज़मीन देने की मांग उठाई गयी है. परन्तु इस पर तब तक कोई कार्रवाही संभव नहीं होगी जब तक इस मांग को पूरा करने के लिए ज़बरदस्त जनांदोलन नहीं किया जाता. यह आन्दोलन गुजरात ही नहीं पूरे देश में किये जाने की ज़रुरत है.
चंद्रभान जी ने भूमंडलीकरण के बाद करोड़ों रोज़गार पैदा होने की जो बात कही है वह भी हकीकत से परे है. इसके विपरीत रोज़गार बढ़ने की बजाये घटे हैं. जो रोज़गार पैदा भी हुए हैं वे भी दलितों की पहुँच के बाहर हैं क्योंकि वे अधिकतर तकनीकी तथा व्यावसायिक प्रकृति के हैं जिन में दलित तकनीकि योग्यता के अभाव में प्रवेश नहीं पा पाते. सरकार द्वारा भारी मात्र में कृषि भूमि के अधिग्रहण के कारण कृषि मजदूरी के रोज़गार में भी भारी कमी आई है. सरकार ने श्रम कानूनों को ख़त्म करके दलित मजदूरों के शोषण के दरवाजे खोल दिए हैं.
सरकार नियमित मजदूर रखने की बजाये ठेका मजदूर प्रथा को बढ़ावा दे रही है. इस प्रकार बेरोज़गारी दलित परिवारों की बहुत बड़ी समस्या है.
अतः बेरोज़गारी दूर करने के लिए ज़रूरी है कि सरकार की वर्तमान कार्पोरेटपरस्त नीतियों में मूलभूत परिवर्तन किये जाएँ. कार्पोरेट सेक्टर पर रोज़गार के अवसर बढ़ने की शर्तें कड़ाई से लग्गो की जाएँ. श्रम कानूनों को बहाल किया जाये. तेज़ी से लागू की जा रही ठेकेदारी प्रथा पर रोक लगाई जाये. सरकारी उपक्रमों के निजीकरण को बंद किया जाये. बेरोज़गारी से निजात पाने किये रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाये जाने तथा बेरोज़गारी भत्ता दिए जाने की मांग उठाई जाये.     
इसी लिए चंद्रभान जी ने अपने लेख में भूमंडलीकरण के बाद दलितों की जिस खुशहाली का चित्रण किया है वह ज़मीनी सच्चाई के बिलकुल विपरीत है. भूमंडलीकरण की नीति लागू होने के बाद केवल मुठी भर दलितों को आगे बढ़ने के अवसर मिले हैं. अधिकतर दलित आज भी भूमिहीनता, गरीबी और बेरोज़गारी का शिकार हैं जैसा कि सामाजिक - आर्थिक जनगणना– 2011 के आंकड़ों से भी स्पष्ट है. दलितों तथा समाज के अन्य कमज़ोर वर्गों के सशक्तिकरण के लिए ज़रूरी है कि वर्तमान कार्पोरेटप्रस्त नीतियों की बजाये जनपरस्त नीतियाँ अपनाई जाएँ जिस के लिए सरकार पर भारी जन दबाव बनाये जाने की ज़रुरत है.  

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

बहुजन राजनीति का वैचारिक संकट



बहुजन राजनीति का वैचारिक संकट
कॅंवल भारती
“बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का
जब चीरा तो इक क़तरा खूँ न निकला”
बहुजन राजनीति में उठने वाला बवण्डर भाजपा में जाकर शान्त हो गया। कह सकते हैं कि परिवर्तन का गरजने वाला काला बादल बिना बरसे ही हिन्दुत्व के समुद्र में विलीन हो गया। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) से बगावत करके निकले स्वामी प्रसाद मौर्य और आर. के. चौधरी बाहर आकर लगभग वही बातें कह रहे थे, जो अक्सर बागी नेता बोलते हैं- बसपा में हमारा दम घुट रहा था, मायावती अब धन की देवी हो गई हैं, वह लाखों-करोड़ों रुपए लेकर टिकट बेचती हैं, आदि, आदि। उन्होंने यह भी कहा कि वे अपनी अलग पार्टी बनायेंगे और मायावती को सबक सिखायेंगे। पर, अपनी अलग राजनीति की घोषणा करने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य इतनी जल्दी भाजपा अध्यक्ष के घुटनों में झुक जायेंगे, यह हैरान इसलिए नहीं करता, क्योंकि इसकी पटकथा भाजपा ने ही लिखी थी। चरणों में झुकने की आदत उन्होंने बसपा में डाली थी, वह अब भाजपा में काम आयेगी। गले में भगवा पट्टा अब उनकी नई पहिचान बनेगी। यह अच्छी बात है कि पट्टे की परम्परा बसपा में नहीं है। दूसरे बागी नेता आर. के. चौधरी का ऊॅंट किस करवट बैठेगा? यह स्पष्ट नहीं हो रहा है। हालांकि बैठना उसे भी इसी करवट है, पर, अभी इन्तजार करना होगा।
मुझे लगभग 25 साल पुरानी बात याद आ रही है। इलाहाबाद के राजापुर में एक कार्यक्रम में स्वामी प्रसाद मौर्य मेरे साथ मंच पर थे। बहुजन राजनीति और बहुजन शब्द की अवधारणा को लेकर मेरे और उनके बीच में तीखा विवाद हो गया था। मैंने बाबासाहेब डा. आंबेडकर के शब्दों को उद्धरित करते हुए कहा था कि जाति के आधार पर आप जो निर्माण करने जा रहे हैं, उसका कोई भविष्य नहीं है। मैने यह भी कहा था कि जाति की राजनीति परिवर्तन की राजनीति नहीं है, वरन लूटखसोट की राजनीति है। जाहिर है कि उन्होंने इसका पुरजोर विरोध किया था। उसके बाद से बसपा कई बार टूटी और जुड़ी। और आज जाति के आधार पर ही स्वामी प्रसाद मौर्य बसपा से बाहर आए और जाति के आधार पर ही भाजपा में शामिल हुए हैं। इसी जाति के आधार से वह बसपा में अपनी महत्वाकांक्षायें पूरी कर रहे थे और इसी जाति से अब भाजपा में अपने निजी हितों को साधेंगे। पर पता नहीं, यह उन्हें याद है कि नहीं, जातीय राजनीति का कोई टिकाऊ भविष्य नहीं होता।
यह असल में बहुजन राजनीति में विचारधारा का संकट है। यह संकट इसीलिए है कि उनका बहुजन समाज वर्गीय नहीं है, जातीय है। यह दलित जातियों, पिछड़ी जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के आधार पर बना बहुजन समाज है। इस प्रकार बहुजन राजनीति की बुनियाद में मुख्य रूप से सवर्ण बनाम बहुजन का जातिवाद है। इसके उद्भावक और नियामक कांशीराम माने जाते हैं। वह जेब से पेन निकालकर उसे खड़ा करके बताते थे कि ढक्कन वाला छोटा हिस्सा सवर्ण है और उसके नीचे का बड़ा हिस्सा बहुजन है। फिर कहते थे कि छोटा हिस्सा बड़े हिस्से पर चढ़कर बैठा हुआ है। फिर वह पेन को लिटा कर दिखाते थे कि हमें इन सबको बराबर करना है। इसी पेन सिद्धान्त से उन्होंने पूरा बहुजन आन्दोलन उत्तर प्रदेश में खड़ा किया। इस सिद्धान्त में न आंबेडकर को कोई जगह थी और न बुद्ध को। हाँ, उनका प्रतीकात्मक उपयोग खूब किया गया। प्रतीकात्मक उपयोग उन्होंने महात्मा ज्योतिबा फुले और शाहू महाराज का भी किया। लेकिन उनका विचारधारा के स्तर पर कोई उपयोग नहीं हुआ। इसलिए कांशीराम की बहुजन राजनीति में, जिसकी उत्तराधिकारी अब मायावती हैं, दलित जातियों, पिछड़ी जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए, सिवाए आरक्षण के, कुछ भी एजेण्डे में नहीं है। स्वामी प्रसाद मौर्य और आर. के. चौधरी दोनों नेता कांशीराम के इसी बहुजन आन्दोलन की उपज हैं, जिसका एक राजनीतिक नारा यह भी था-जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।यह पूरा आन्दोलन जजबाती है, जिसमें चीजें जैसी है, उसका वर्णन है, उसे बदलने का स्वप्न है, पर वे कैसे बदलेंगी, उसका चित्रण नहीं है।डा. आंबेडकर ने चीजों को बदलने के लिए राज्य समाजवाद का माॅडल दिया था, जिस पर बहुजन राजनीति में कभी चर्चा नहीं होती। बुद्ध के वर्गीय बहुजन शब्द से तो खैर उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं है, फुले की गुलामगिरी की वैचारिकी भी उसके केन्द्र में नहीं है। लेकिन जैसे-जैसे कांशीराम और मायावती राजनीति के कठोर यथार्थ से गुजरे, उनके कई जातीय नारे हवा में उड़ गए, और पेन के ऊपरी हिस्से के सवर्णों को भी उन्हें जोड़ना पड़ा। अतः यह साबित हो गया कि सब को साथ लिए बिना वे सरकार नहीं बना सकते। अगर जातियों के आधार पर थोड़े-बहुत समय के लिए सरकार बना भी ली, तो वह टिकने वाली नहीं है।
इस बात में कोई दम नहीं है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की भागीदारी वाली सरकारें ही उनके कल्याण की योजनाएँ बना सकती हैं। अगर यह सच होता, तो क्या कोई मुलायम सिंह यादव, अखिलेश सिंह यादव और मायावती से सीना ठोककर यह कहलवा सकता है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का कल्याण कर दिया है? वे नहीं कह सकते, क्योंकि हकीकत यह है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का कल्याण योजनाएँ चलाकर नहीं किया जा सकता। ऐसी योजनाएँ पिछले 70 सालों से सभी सरकारें चला रही हैं। कौन दावा कर सकता है उनसे इन वर्गों का कल्याण हुआ?
सच यह है कि किसी जाति विशेष के लिए अर्थात् दलित जातियों, पिछड़ी जातियों, धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों और आदिवासियों के कल्याण के लिए योजनाएँ बनाने का अर्थ उनका कल्याण करना नहीं, बल्कि उन्हें वोट बैंक बनाना होता है। ऐसी कुछ योजनाओं की घोषणायें ऐन उस वक्त होती हैं, जब चुनाव होने वाले होते हैं। उन घोषणाओं से खुश होकर ये लोग उन पार्टियों को अपना हितैषी समझ लेते हैं। किन्तु एक बार जब वे पार्टियां सत्ता में आ जाती हैं, तो पांच साल तक उन्हें कोई खतरा नहीं रहता और वे उनकी तरफ अपनी पीठ किए रहती हैं। पाँच साल के बाद जब पुनः चुनावी मौसम आता है, तो पार्टियां फिर अंगड़ाई लेती हैं और दलितों, पिछड़ों, धार्मिक अल्पसंख्यकों और आदिवासियों पर वे फिर मेहरवान होने लगती हैं, जबकि वे अपने पांच साल के शासन काल में अपनी तमाम आर्थिक नीतियां कारपोरेट को फायदा पहुँचाने के लिए बनाती हैं, जो गरीब वर्गों की कमर तोड़ देती हैं। गरीब वर्गों का ध्यान उन नीतियों की तरफ न जाए, इसलिए समय-समय पर वे कुछ ऐसी घटनायें भी कराते रहते हैं, जो उनका ध्यान हटाती हैं। ये घटनायें दलित उत्पीड़न की भी हो सकती हैं और साम्प्रदायिक दंगों वाली भी हो सकती हैं। जातियों और धर्मों में बॅंटे हुए गरीब लोग उनके मूल कारण और उनमें निहित अर्थ को नहीं समझ पाते हैं। परिणामतः महीने-दो-महीने शोर मचता है और फिर सब कुछ शान्त हो जाता है। इसलिए वे अपने आर्थिक-सामाजिक शोषण को न समझ पाने के कारण ही चुपचाप शोषण सहन करने के सिवा कुछ नहीं कर सकते। दुर्भाग्य से उनके जातीय और धार्मिक नेता भी उनके शोषण में ही अपना हित देखते हैं। लेकिन गुजरात में ऊना की घटना के बाद, जिसमें हिन्दू गोभक्तों ने पांच दलितों की बेरहमी से पिटाई की थी, एक रेडिकल बहुजन आन्दोलन उभरा है, जो शोषण की व्यवस्था के विरुद्ध सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की बड़ी लड़ाई है और राजनीतिक नहीं है। लेकिन अफसोस कि मायावती जैसे कुछ नेता वहाँ भी राजनीति करने पहुँच गए।
मैं यहाँ इस बात को भी स्पष्ट करना चाहूँगा कि कल्याण की योजनाओं का मतलब और मकसद क्या है? इसे डा. आंबेडकर ने भी अपने बजट भाषणों में अच्छी तरह स्पष्ट किया था। मैं उन्हीं के शब्दों को आधार बनाकर कहता हूँ कि यह विकास का यूरोपीय माडल है, जिसमें यह समझा जाता है कि देश में कुछ थोड़े से कमजोर और गरीब लोग हैं, जिन्हें कुछ विशेष अनुदान और सहायता आदि की जरूरत है। वे उन्हें लाभार्थी के रूप में देखते हैं, और कुछ कल्याणकारी योजनाओं तक सीमित रखते हैं। इसमें एक बात पहले से मान ली गई है कि अधिकांश लोगों को इस तरह की सुविधाओं की आवश्यकता नहीं है। वे गरीबी की रेखा से ऊपर हैं। इसलिए सरकारें जनता के सामान्य उत्थान की चिन्ता नहीं करती हैं। उसे वे धर्म और जाति के सम्वेदनशील मुद्दों से गर्म रखती हैं।
जाति और धर्म की राजनीति का खेल बहुत सोच-समझकर कांग्रेस ने शुरु किया था, और अब वह राजनीति सभी पूंजीवादी पार्टियों की जरूरत भी बन चुकी है और विचारधारा भी। अगर स्वामी प्रसाद मौर्य ने इस विचारधारा के विरुद्ध बगावत की होती, तो इतिहास रच सकते थे। पर उनके वैचारिक संकट ने उन्हें एक खाई से निकालकर दूसरी खाई में गिरा दिया है, जो ऐसी बड़ी और गहरी है, जिसमें गिरकर अपंग होना निश्चित है।
11 जुलाई, 2016

क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है?

  क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है ? हाल ही में हुई बहसों में सवाल उठाया गया है कि क्या अनुसूचित जाति के उपसमूहों में सकारात्म...