रविवार, 18 नवंबर 2012

भगवान दास एक परिचय : एक सन्देश

                    भगवान दास एक परिचय : एक सन्देश
                                         - एस आर दारापुरी 
                                              
मैं भगवान दास जी को 1965 से जानता था। उस समय उन्हें दिल्ली में बाबा साहेब के सबसे बड़े विद्वान् और समर्पित पैरोकारों में से एक के तौर पर जाना जाता था।
मैनें उन्हें पहली बार नई दिल्ली के लक्ष्मीबाई नगर में बौद्ध उपासक संघ की मीटिंगों में सुना था। कुछ वर्षों तक आंबेडकर भवन बौद्ध गतिविधियों का केंद्र रहा था। बुद्धिस्ट सोसाइटी आफ इंडिया द्वारा साप्ताहिक धार्मिक मीटिंगें आयोजित की जाती थीं। श्री वाई सी शंकरानंद शास्त्री तथा सोहन लाल शास्त्री जो दोनों पंजाब की एक आर्यसमाज संस्था ब्रह्म विद्यालय की उपज थे और बौद्ध आन्दोलन के अगुआ थे। आर्य समाज की मीटिंगों की तरह ये लोग साप्तहिक मीटिंगें किया करते थे। कुछ कारणों से दोनों के बीच मतभेद हो गए और वे एक दूसरे से अलग हो गए। श्री शंकरानंद शास्त्री ने अपने कुछ साथियों को लेकर बौद्ध उपासक संघ बना लिया और रिज़र्व बैंक आफ इंडिया के एक कर्मचारी श्री रामाराव बागडे के फ्लैट के सामने आंगन में साप्ताहिक मीटिंगें शुरू कर दीं। श्री भगवान दास जी इन मीटिंगों में मुख्य वक्ता के रूप में रहते थे।
उन्हें दलितों की एकता में रूचि थी और उन्होंने बहुत सी जातियों मसलन धानुक, खटीक, बाल्मीकि, हेला, कोली आदि को अम्बेडकरवादी आन्दोलन में लेने के प्रयास किये। ज़मीनी स्तर पर काम करते हुए भी उन्होंने दलितों एवं अल्पसंख्यकों के विभिन्न मुद्दों पर लेख लिखे जो पत्र पत्रिकायों में प्रकाशित होते रहे। उन्हें अंग्रेजी और उर्दू में महारत हासिल थी और सरल हिंदी तथा कुछ गुरमुखी लिपि में पंजाबी पढ़ सकते हे। बंगाल और अराकान में एयरफोर्स की नौकरी करते हुए उन्होंने बंगाली भाषा भी सीखी थी पर अब भूल गए थे ।
मुझे नौकरी में रहते हुए लगभग पूरे भारत वर्ष में घूमने और अनुसूचित जातियों से सम्बधित अधिकारियों, प्रोफेसरों, अध्यापकों और नेताओं को जानने का मौका मिला। मेरा विश्वास है कि श्री दास जी के पास पुस्तकों का सबसे बड़ा भंडार था। वह कभी न थकने वाले पाठक थे और काम के अधिकाँश घंटे पढने में बिताते थे। पुस्तकों और पत्र पत्रिकायों पर उनका काफी पैसा खर्च होता था। उनके पुस्तक संग्रह में विदेशी और भारतीय लेखकों की दुर्लभ पुस्तकें शामिल थीं। उनकी फाईलों में अलग अलग विषयों पर अच्छे लेख और पर्चे थे जिन्हें या तो वे प्रकाशित नहीं करा सके थे या फिर उनके बारे में भूल गए थे.
उनसे बातचीत के दौरान मुझे पता चला कि उनका जन्म 23 अप्रैल, 1927 को भारत की गर्मियों की राजधानी शिमला के निकट छावनी जतोग में हुआ था और उनका परिवार काफी खुशहाल था लेकिन एक अछूत परिवार में जन्म के कारण वह अपमान और भेदभाव का शिकार होते रहे। उन्हें उनके पिता पर गर्व था जिन्होंने उनके चरित्र पर गहरा प्रभाव डाला। उनके पिता डॉ आंबेडकर के वह बहुत प्रशंसक थे और समाचार पत्र पढ़ने के शौक़ीन थे। उन्हें हिन्दू, ईसाई, इस्लाम और सिख धर्म के ग्रंथों के अलावा आयुर्वेद की पुस्तकें पढ़ने का शौक था। श्री दास जी को ज्ञान से प्रेम अपने पिता जी से विरासत में मिला था।
ऐसा लगता है कि दास साहेब अपने समय के अधिकतर अछूतों की तरह इसाईयत से प्रभावित हुए। बाद में उन्होंने आर्य समाज साहित्य, कुरान और इस्लाम विचारधारा की अन्य पुस्तकें पढ़ीं। काफी समय तक उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य का अध्ययन किया और मार्क्सवाद पर लिखते भी रहे लेकिन कमियुनिस्ट नेताओं के जातिवादी चरित्र ने उनका मन खट्टा कर दिया। उन्होंने इन्गर्सेल, टामस पेन, वाल्टेयर, बर्नार्ड शा और बर्टरैंड रस्सल का अध्ययन किया। बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर से सीधे संपर्क में आने से पहले उन्होंने धर्म के बारे में अपने विचार विकसित कर लिए थे। बाबा साहेब से उनकी जान पहचान पिछड़ी जातियों के प्रसिद्ध नेता शिव दयाल सिंह चौरसिया ने करवाई थी जो कि काका कालेलकर आयोग के सदस्य थे और राज्य सभा के सदस्य भी थे।
श्री भगवान दास जी ने बाबा साहेब की रचनाओं और भाषणों का सम्पादन किया और उन पर पुस्तकें लिखीं। उनका " दस स्पोक आंबेडकर" शीर्षक से चार खण्डों में प्रकाशित ग्रन्थ देश और विदेश में अकेला दस्तावेज़ था जिनके जरिये डॉ आंबेडकर के विचार सामान्य लोगों और विद्वानों तक पहुंचे।
यह काम उन्होंने 1960 के दशक में शुरू किया था जब अभी इस की तरफ महारष्ट्र सरकार का ध्यान भी नहीं गया था। उन्होंने सफाई कर्मचारियों और भंगी जाति पर चार पुस्तकें और धोबियों पर एक छोटी पुस्तक लिखी। उनकी बहुचर्चित पुस्तक "मैं भंगी हूँ" अनेक भारतीय भाषायों में अनूदित हो चुकी है और वह दलित जातियों के इतिहास का दस्तावेज़ है।
उनकी पुस्तकें और देश विदेश के सेमीनार आदि प्रस्तुत उनके पर्चों से पता चलता है कि उनका अध्ययन कितना विस्तृत था और वह दबे कुचले लोगों के हित के प्रति कितने समर्पित थे। अगर मार्क्स ने दुनियां के मजदूरों को एक होने का आह्वान किया था तो भगवान दास जी ने भारत और एशिया के दलितों को एक होने का सन्देश दिया। मुझे नहीं लगता कि उनके अलावा कोई ऐसा व्यक्ति है जिसने एशिया के सभी दलितों को एक मंच पर लाने , उनकी मुक्ति और स्वाभिमान से उनके जीने के अधिकार के लिए इतना प्रयास किया हो। उन्होंने कुल 23 पुस्तकें लिखीं।
श्री भगवान दास जी  ने भारत में दलितों के प्रति छुआछूत और भेदभाव के मामले को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाने का ऐतहासिक काम किया। भारत, नेपाल, पाकिस्तान  और बांग्लादेश के जातिभेद के  मामले को उन्होंने 1983 में यू एन ओ ( संयुक्त राष्ट्र संघ) में पेश किया और जापान के अछूतों बुराकुमिन के मामले को भी उठाया।
डॉ आंबेडकर भी इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाना चाहते थे परन्तु कुछ कारणों से यह संभव नहीं हो पाया था। श्री दास के प्रयासों का ही यह फल है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने छुआछुत को मानवाधिकारों का हनन मान कर भारत सरकार की जवाबदेही तय की है और अपनी ओर से भारत के लिए दो रिपोर्टियर  नियुक्त किये हैं। इस के बाद वह 2001 में डरबन में नसल भेद पर संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन में भी गए थे। वास्तव में छुआछुत के मामले को अंतर्राष्टीय मंच पर पहुँचाने का सारा श्रेय श्री भगवान दास जी को ही जाता है। इस के लिए एशिया के दलित और जापान के बुराकुमिन सदैव उनके ऋणी रहेंगे।
श्री भगवान दास जी ने बहुत साधारण जीवन जिया। वह बहुत विनम्र थे और भदंत आनंद कौशल्यायन कहा करते थे, "आप में बहुत नम्रता है।" वकील के रूप में वह बहुत मेहनत करते थे। उनके ज्यादा दोस्त नहीं थे और न ही सामाजिक समारोहों में जाने में उन्हें कोई खास ख़ुशी होती थी। लायब्रेरी में या दलित शोषित लोगों की बेहतरी के लिए काम कर रहे बुद्धिजीवियों की संगत में उन्हें अधिक ख़ुशी मिलती थी।
इस महान व्यक्ति को हम लोगों ने 18 नवम्बर, 2010 को खो दिया जिससे अम्बेडकरवादी आन्दोलन की अपूर्णीय क्षति हुई है। उनके दिखाए गए मार्ग पर चलकर बाबा साहेब के मिशन को अगर हम पूरा कर सकें तो यही उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजली होगी।

बुधवार, 14 नवंबर 2012

धर्मापुरी में दलितों पर आक्रमण के निहितार्थ
एस आर दारापुरी
आई पी एस (सेवा निवृत)

दलितों के विरुद्ध 7 नवंबर को तमिलनाडु के धर्मापुरी जिले के नैकान्कोटी गाँव के तीन मजरे नाथम , अन्ना नगर और कोंदम्पति में दलितों पर हुए आक्रमण ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि हमारे समाज में जाति पूर्वाग्रह आज भी कितने मजबूत हैं और जाति सम्मान जाति पहचान से कितनी मजबूती से जुड़ा हुआ है। धर्मापुरी मे पिछड़ी जाति

के वानियार समाज के 500 लोगों ने आदिद्रवड़ जाति के दलितों के 300 घरों पर हमला करके उन्हें लूटा और बुरी तरह से तबाह किया।
समाचार पत्रों में छपी ख़बरों के अनुसार दलितों पर हमले का मुख्य कारण पिछड़ी जाति (वानियर ) की दिव्या नाम की 20 वर्ष की लड़की का दलित जाति (आदिद्रवड़ ) के 23 वर्षीय लड़के इलावर्सन के साथ एक माह पहले प्रेम विवाह था। लड़की के परिवार वाले पुलिस के पास गए और पुलिस ने दोनों पार्टियों को समझाया था कि विवाह वैध है। इस बीच 30 गाँव के वानियारों ने मीटिंग करके इस मुद्दे पर विचार किया. उन्होंने बुद्धवार को एक "कंगारू अदालत" लगायी और लड़के के घर वालों को लड़की को उसके माँ बाप को वापस करने को कहा परन्तु लड़की ने घर वापस जाने से मना कर दिया। धर्मापुरी के पुलिस कप्तान को इस की पूरी जानकारी थी। इस लिए उन्होंने उक्त अदालत में आदेश देने वालों की तलाश शुरू कर दी थी। इसे सामाजिक अपमान मानते हुए 6 नवम्बर को लड़की के पिता जी नागराजन ने आत्महत्या कर ली। इस पर 7 नवम्बर को वानियर जाति के लोगों ने बड़ी संख्या में एकत्र हो कर गाँव की तीन बस्तियों पर धावा बोल दिया। उन्होंने पेड़ काट कर सड़क पर डाल दिए ताकि पुलिस और आग बुझाने वाली गाड़ियाँ आसानी से न पहुँच सकें। दलित बस्तियों में लगभग 5-30 घंटे लूट पाट और आगजनी चलती रही और लगभग 300 दलित घर जल कर स्वाह हो गए। शुक्र है कि दलित बस्तियों पर इस हमले में कोई जान नहीं गयी क्योंकि दलित हमले से पहले ही अपने घर छोड़ कार जंगल की तरफ भाग गये थे। जले, लुटे और तबाह हुए दलित घरों की 300 की संख्या इस हमले की व्यापकता और तीव्रता को दर्शाती है। पुलिस ने अब तक 90 लोगों को गिरफ्तार किया है और 500 अन्य अज्ञात लोगों के विरुद्ध मुकदमा कायम किया है। यह उल्लेखनीय है कि घटना के समय गाँव में लगभग 300 पुलिस कर्मचारी मौजूद थे परन्तु उन्होंने हमलावरों को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। उन्होंने इस का कारण हमलावरों के मुकाबले अपनी संख्या कम होने का बहाना बनाया है।
तमिलनाडु जो कि एक उन्नत प्रदेश कहा जाता है दलितों पर इस प्रकार के हमलों और उत्पीडन के लिए कुख्यात है। यद्यपि संख्या में ये हमले कम हैं परन्तु गंभीरता और व्यापकता में ये काफी बड़े हैं।
इस से पहले भी 1968 में किलवेनमेनी गाँव में इसी प्रकार एक दलित बस्ती पर हमला हुआ था जिस में 44 दलित, जिन में अधिकतर औरतें और बच्चे, थे मौत का शिकार हो गए थे।
उपरोक्त घटना के विश्लेषण से निम्नलिखित बातें उभर कर आती हैं:-
1. हमारे समाज में आज भी जाति भेद बहुत उग्र रूप में व्याप्त है। आज भी जाति- सम्मान जाति- पहचान से बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है। जैसे ही इस को कोई ठेस पहुंचती है तो उस पर हिंसक प्रतिक्रिया देखने को मिलती है।
2. वर्तमान में दलितों का अधिकतर टकराव ऊँची जातियों के स्थान पर पिछड़ी जातियों के साथ हो रहा हैं क्योंकि यह जातियां नव ब्राह्मणवादी एवं नव धनाड्य बनी हैं। वास्तव में इन जातियों का जाति- हित और वर्ग- हित भी दलितों से टकराता है। ऐसी परिस्थिति में कुछ दलित बुद्धिजीवियों द्वारा बहु प्रचारित दलित- बहुजन (दलित और पिछड़े) एकता की अवधारणा पर भी प्रशन चिन्ह लग जाता है।
3. तमिलनाडु में रामा स्वामी नायकर पेरियार द्वारा ब्राह्मण विरोधी "आत्म सम्मान" आदोलन से आर्थिक एवं राजनितिक- सत्ता ब्राह्मणों के हाथ से निकल कर पिछड़ी जातियों के हाथ में आ गयी है जो कि एक प्रभुत्वशाली नव ब्राह्मणवादी वर्ग बन गया है और उन का दलितों के प्रति नजरिया और व्यवहार पूरी तरह से जातिवादी है।
4. खाप पंचायतें और इस मामले में कंगारू अदालतें सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के खिलाफ फतवे देकर संविधान और कानून का मजाक उड़ाती हैं परन्तु कोई भी सरकार या राजनीतिक पार्टी उन के विरुद्ध न तो कोई कार्रवाही करती है और न ही उनके फरमानों के खिलाफ कोई आवाज़ उठाती है। वर्तमान में जाति वोट बैंक की राजनीति ऐसी गैर संविधानिक संस्थायों को बढावा देती है जो कि लोकतंत्र के लिए सब से बड़ा खतरा है।
5 तमिलनाडु के ब्राह्मण विरोध आन्दोलन से यह भी स्पष्ट है कि केवल ब्राह्मण विरोध से जाति सत्ता में दलितों के पक्ष में कोई लाभकारी परिवर्तन होने की आशा नहीं की जा सकती क्योंकि इस से नव ब्राह्मणवादियों का उद्गम हो जाता है। अतः सम्पूर्ण जाति विनाश से ही जाति- भेद और जाति- उत्पीडन से निजात संभव हो सकती है। इस के लिए दलितों को ही आगे आना होगा जैसा कि डॉ आंबेडकर ने अपेक्षा की थी। वर्तमान में दलित ही जाति - भेद और जाति-उत्पीडन का सब से बड़ा शिकार हैं।
6. दलित राजनीति को भी जाति और जाति -पहचान की राजनीती से बाहर निकल कर दलितों के मूल मुद्दों पर राजनीति करनी होगी क्योंकि इस से दलित नेताओं को जाति के नाम पर दलितों के मुद्दों के समाधान के लिए कुछ भी न करके दलितों का केवल भावनात्मक शोषण करके व्यक्तिगत लाभ कमाने का मौका मिल जाता है।
7. दलित अपनी सुरक्षा के लिए सरकार अथवा पुलिस पर आश्रित रह कर उत्पीडन से नहीं बच सकते। इस मामले में भी घटना के दिन उक्त क्षेत्र में लगभग पुलिस के 300 कर्मचारी मौजूद थे परन्तु उन्होंने उपद्रवियों को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। यह सर्व विदित है पुलिस का नजरिया भी अधिकतर जातिवादी और दलित विरोधी होता है। अतः दलितों को अपनी रक्षा खुद करने के लिए आत्मरक्षा- दल बनाने पर विचार करना होगा। डॉ आंबेडकर ने इसी ध्येय से "समता सैनिक दल" की स्थापना की थी जो आज भी कमज़ोर स्थिति में मौजूद है। उसे पुनर्जीवित कर मज़बूत करने की ज़रूरत है। बाबा साहेब का "शिक्षित करो, संघर्ष करो और संघटित करो" का नारा आज और भी प्रासंगिक है। बाबा साहेब ने यह भी कहा था," सिद्धांत अहिंसा का होना चाहिए परन्तु अगर ज़रूरत हो तो हिंसा ज़रूर होनी चाहिए।" यह भी सर्वविदित है कि आत्मरक्षा में की गयी हिंसा हिंसा नहीं होती।
8. दलितों को जाति संघटनों से बाहर निकल कर वर्ग आधारित उत्पीडित वर्गों के साथ मिल कर संघटन बनाने पर विचार करना होगा क्योंकि जाति जोड़ने की नहीं तोड़ने की प्रक्रिया है। इस से जाती टूटने के स्थान पर मजबूत होती है। यह डॉ आंबेडकर के जाति एवं वर्ग विहीन समाज की स्थापना के लक्ष्य के भी प्रतिकूल है। इसी कारण से दलितों के मज़बूत संघटन नहीं बन पा रहे हैं।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों के विरुद्ध हो रहे आक्रमण और उत्पीडन की घटनाओं का विस्तार और तीव्रता लगातार बढ़ रही है जिस के परिपेक्ष्य में दलितों को आत्म रक्षा और संघटन निर्माण पर नए सिरे से सोचना होगा। दलित राजनीति को भी जाति के मकडजाल से निकाल कर वर्ग राजनीति में परिवर्तित होना होगा ताकि वे अन्य समान हित वाले वर्गों को साथ लेकर शक्तिशाली संघटन बना सकें और मुद्दा आधारित राजनीति के माध्यम से सत्ता में हिस्सेदारी पा सकें।

क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है?

  क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है ? हाल ही में हुई बहसों में सवाल उठाया गया है कि क्या अनुसूचित जाति के उपसमूहों में सकारात्म...