संविधान, संविधादनवाद और आंबेडकर
-
कँवल भारती
(27 मार्च 2025 को इलाहाबाद
में "संविधान, संविधानवाद और डा.
आंबेडकर" विषय पर दिया गया व्याख्यान)
आदरणीय सभापति महोदय, डा. प्रणय कृष्ण जी, और उपस्थित विद्वान् साथियों !
मैं आभारी हूँ, विनोद तिवारी जी का, जिनके प्रेमपूर्ण आग्रह पर
मैं यहाँ उपस्थित हुआ और सत्यप्रकाश मिश्र साहित्य संस्थान के तत्वावधान में
आयोजित इस 18 वें सत्यप्रकाश मिश्र स्मृति
व्याख्यानमाला में मुझे भी एक माला प्रस्तुत करने का अवसर मिला।
मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं अकादमिक जगत से
नहीं हूँ, इसलिए मुझे यह कहने में कोई
संकोच नहीं है कि सत्यप्रकाश मिश्र जी के योगदान से, उनके कृतित्व से मैं परिचित नहीं हूँ। विनोद जी से ही मुझे उनके बारे में
जानकारी मिली। मिश्र जी को जड़ता और यथास्थितिवाद पसंद नहीं था, और गलत और न्याय-विरुद्ध कुछ भी हो, वह उसके खिलाफ हमेशा आवाज़ उठाते थे। मैं ऐसे
महान साहित्यिक की स्मृति को नमन करता हूँ, और अपनी बात आपके समक्ष रखता हूँ।
साथियों, मैं किसी भी विषय का स्वयं को आधिकारिक विद्वान् नहीं मानता हूँ। और यह जो
विषय है, ‘संविधान, संविधानवाद और आंबेडकर’ इसमें आंबेडकर को छोड़कर
संविधान और संविधानवाद की भी कोई ख़ास समझ भी मैं नहीं रखता हूँ। वास्तव में तो यह
विषय एक न्यायविद और विधि-वेत्ता के दायरे का है, मुझ जैसे दलित आलोचक का नहीं। बहरहाल, मैं अपनी सीमित बुद्धि और सीमित ज्ञान से इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने का
प्रयास करूँगा।
संविधान तो हम सब जानते हैं, पर संविधानवाद उससे जुड़ा होकर भी उससे जुदा शब्द
है। इसके बारे में मैंने पहली बार कुछ सोचने और जानने की कोशिश की है। आंबेडकरवाद, गांधीवाद, समाजवाद ये आसानी से समझ में आने वाले शब्द हैं, लेकिन संविधानवाद पर जब मैंने विचार किया, तो यह मुझे बहुत व्यापक और जटिल लगा। गाँधी ने
जो कहा था, वह गाँधी की किताबों में दर्ज
है, आंबेडकर ने जो कहा था, वह आंबेडकर की किताबों में दर्ज है। उनके
विचारों में या शब्दों में परिवर्तन नहीं हो सकता, हालाँकि उनकी व्याख्याएं अलग-अलग हो सकती हैं। समाजवाद के सिद्धांतों में
भी परिवर्तन या संशोधन संभव नहीं है, भले ही उसकी व्याख्याएं अलग हों। लेकिन संविधान के साथ ऐसा नहीं है।
संविधान अपरिवर्तनीय नहीं है। उसमें तमाम संशोधन हुए हैं, शायद सौ से भी ज्यादा। और व्याख्याएं तो
हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट अपने-अपने हिसाब से करते ही रहते हैं। इसलिए मेरे विचार से
संविधानवाद कोई ऐसा दर्शन नहीं है, जो एक ख़ास खांचे में फिक्स हो।
जैसे समाजवाद यह बताता है कि समाज को कैसा होना
चाहिए, उसी तरह संविधानवाद भी हमें
संविधान को कैसा होना चाहिए, इसका संकेत
देता है। जब हम समाजवाद कहते हैं, तो तत्क्षण, समाजवाद बोलते ही, एक संविधानवाद की परिकल्पना भी हमारे मन में उभरती है। लेकिन फिर भी दोनों
एक-दूसरे के पर्याय नहीं हैं। संविधानवाद किसी देश की अपनी सांस्कृतिक नैतिकता पर
भी निर्भर करता है। अगर किसी देश की नैतिकता धर्म से निर्मित है, तो वहां संविधानवाद ऐसे संविधान को प्राथमिकता
देगा, जो धार्मिक मूल्यों पर आधारित
होगा। हम पाकिस्तान और इस्लामी गणराज्यों के संविधान में इन मूल्यों को देख सकते
हैं। हालाँकि, धार्मिक समतावाद भी कई देशों
में संविधानवाद का हिस्सा है। लेकिन वह लोकतंत्र का रूप नहीं है। इस्लामिक
संविधानवाद के समतावाद में एक मुस्लिम भाईचारा जरूर है, पर उसमें स्त्री-पुरुष समान नहीं हैं। ईसाई
संविधानवाद का समतावाद बाइबल की इस धारणा पर आधारित है—कि ‘न तो कोई यहूदी है, न कोई यूनानी, न कोई गुलाम और न कोई मालिक है, सब मसीह यीशु में एक हैं।’ लेकिन यदि हम हिन्दू संविधानवाद की बात करें, जिसकी आवाजें पिछले कुछ सालों से लगातार उठ रही
हैं, तो उसकी स्थिति यह बनती है कि
वह इस्लाम या ईसाईयत की तरह किसी समतावाद का दावा नहीं करता। जैसा कि आंबेडकर ने
कहा कि इस्लाम और ईसाईयत की तरह हिन्दू धर्म यह तो कहता है कि सारे मनुष्य एक
ब्रह्मा से उत्पन्न हैं, पर वह आगे यह भी कहता है कि
कुछ मनुष्य ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए हैं, कुछ उसकी भुजाओं से, कुछ उसकी जंघा से तो कुछ उसके
पैरों से पैदा हुए हैं। इसलिए उनमें मूलभूत समता का अभाव है।
इसलिए, संविधान और संविधानवाद के बीच एक महीन सी नहीं, मोटी सी लकीर है। संविधान समाज का निर्माण नहीं
करता। वह समाज को न नैतिक समाज बनाता है, और न अनैतिक। वह सिर्फ समाज को नियंत्रित करता है। लेकिन संविधानवाद में
किसी ख़ास तरह के समाज का निर्माण करने की भावना निहित होती है। इसलिए अच्छे या
बुरे संविधान का निर्माण करने के लिए जो चीज़ प्रेरित करती है, वह निस्संदेह संविधानवाद है। यह एक संवैधानिक
धारणा, दर्शन या वैचारिकी का नाम है।
निकोलो मैकियावेली को आधुनिक संविधानवाद का जनक
माना जाता है। मैकियावेली संविधानवाद के निष्कर्ष पर प्राचीन गणराज्यों के अध्ययन
के बाद पहुंचे थे। आधुनिक संविधानवाद और प्राचीन गणतंत्रवाद तीन केंद्रीय
मान्यताओं को साझा करते हैं : पहला, सरकार को न्याय और आम भलाई की सेवा करनी चाहिए; दूसरा, यह काम सरकार को कानूनों के माध्यम से करना चाहिए; तीसरा, ये एक अच्छी तरह से बनाए गए संविधान के माध्यम से सुरक्षित ढंग से होना
चाहिए। मैकियावेली के इस काम ने उभरती आधुनिकता की राजनीति को बदल दिया और दुनिया
भर में सरकार को फिर से संगठित किया।
अनेक विद्वानों ने भारत के प्राचीन गणराज्यों की
चर्चा की है। डा. आंबेडकर ने भी भारत के वज्जियों, लिच्छवियों और शाक्यों के प्राचीन गणराज्यों की प्रशंसा की है। लेकिन वे
गणराज्य लोकतान्त्रिक राज्य नहीं थे। उन गणराज्यों में केवल राजपुरुष ही परस्पर
सम्मति से निर्णय लेते थे। उनके फैसलों में आम जनता की भागीदारी नहीं होती थी। आम
जनता की भागीदारी वाले गणतंत्र को भारत में आने में अभी ढाई हजार सालों का समय था।
जिस संविधानवाद के साथ लोकतंत्र का घनिष्ठ सम्बन्ध बनना है, उसकी अवधारणा भारत में उन्नीसवीं सदी में, और पूरी तरह बीसवीं सदी में आई। इसलिए यह कहना
कदाचित गलत न होगा कि भारत में संविधानवाद ब्रिटिश उपनिवेशवाद की देन है।
इस औपनिवेशिक संविधानवाद का लोकतंत्र के साथ
घनिष्ठ सम्बन्ध है, जो नागरिकों के हितों, उनकी स्वतन्त्रता और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए
एक मजबूत सुरक्षा की मांग करता है। लेकिन संविधानवाद संविधान की तुलना में एक
कमजोर अवधारणा भी है, क्योंकि संविधान सरकारों पर
लगाम लगाने में समर्थ है, जबकि संविधानवाद समर्थ नहीं
है, जो सिर्फ एक अवधारणा है, शक्ति नहीं है।
लेकिन अधिकांश विद्वानों का मत है कि संविधानवाद
की उत्पत्ति 1789 की फ्रांस
की राज्य-क्रान्ति से हुई थी। वे मानते हैं कि इसी क्रान्ति ने नागरिक अधिकारों की
घोषणा की थी, जिसने संविधानवाद को जन्म
दिया था। इस संविधानवाद ने ही फ्रांसीसी संविधान का निर्माण किया। इस राज्य
क्रान्ति ने आंबेडकर को बहुत प्रभावित किया था। उसी से प्रेरित होकर उन्होंने 1927 में अछूतों के मानवाधिकारों के लिए
महाड़-सत्याग्रह किया था। उस सम्मेलन में उन्होंने एक हिन्दू के क्या अधिकार होने
चाहिए, इसका घोषणापत्र जारी किया था।
हालाँकि यह मनुष्य के अधिकारों का घोषणापत्र नहीं, बल्कि एक हिन्दू के अधिकारों का घोषणापत्र था। वह इसलिए कि उस समय उनका जोर
हिन्दू समाज में अधिकार-वंचित दलितों को अधिकार दिलाने पर था। उन्होंने अपने उस
घोषणापत्र में एक हिन्दू के जिन अधिकारों की घोषणा की थी, वे इस तरह थे —
1. सभी हिन्दुओं का सामाजिक स्तर
जन्म से समान होता है, और समान रहना चाहिए।
2. जनता समस्त सत्ता की स्रोत
है। इसलिए किसी भी व्यक्ति या वर्ग के विशेषाधिकार का दावा तब तक वैध नहीं हो सकता, जब तक कि समस्त जनता उसे मान्यता नहीं देती है।
3. प्रत्येक हिन्दू का यह
जन्मसिद्ध अधिकार है कि उसे काम करने और बोलने की आज़ादी हो।
4. किसी भी हिन्दू को, उसके जन्मसिद्ध अधिकारों के अतिरिक्त, अन्य अधिकारों से केवल कानून द्वारा ही वंचित
किया जा सकता है।
5. कानून किसी व्यक्ति या
व्यक्तियों के समूह का आदेश नहीं है। कानून परिवर्तन के लिए जनादेश है। कानून का
निर्माण सबकी सहमति से हो, और उसे बिना किसी भेदभाव के
सब पर लागू किया जाए।
आप देख सकते हैं कि इस घोषणापत्र में आंबेडकर का
संविधानवाद बोलता है। यह घोषणा पत्र वह संविधानवाद था, जिसने अधिकार-वंचित समुदायों को देखकर और
मनुस्मृति को पढ़ते हुए आकार लिया था। यह संविधानवाद हमें आंबेडकर के ‘राज्य और
अल्पसंख्यक’ नाम से 1947 में
संविधान-सभा को दिए गए ज्ञापन में भी दिखाई देता है, जिसमें उन्होंने एक समाजवादी अर्थव्यवस्था वाले संविधान के निर्माण की मांग
की थी।
आंबेडकर समाज को बदलने के लिए संविधान की भूमिका
को जरूरी समझते थे। लन्दन के गोलमेज सम्मलेन के दौरान, आंबेडकर ने ब्रिटिश नेताओं और बुद्धिजीवियों के
बीच एक पुस्तिका वितरित की थी, जिसका नाम
था ‘द अंटचेबिल्स एंड द पैक्स ब्रिटानिका’। इसमें उन्होंने कहा था कि समाज हमेशा
रूढ़िवादी होता है। उसे तब तक नहीं बदला जा सकता, जब तक कि उसे बदलने के लिए बाध्य नहीं किया जाता। और यह काम कानून के
माध्यम से ही किया जा सकता है। आप जानते होंगे, जब पंडिता रमाबाई ने सरकार से बम्बई में लड़कियों के लिए स्कूल खोलने की
मांग की थी, तो सनातनी ब्राह्मणों ने उसके
खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। इस विरोध के सबसे प्रमुख नेता बाल गंगाधर तिलक थे, जो राष्ट्रवादी माने जाते थे। उसी दौर में जब
दलितों ने अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग की थी, तो इन्हीं तिलक ने शोलापुर की एक सभा में कहा था, ये तेली-तमोली क्या असेम्बली में जाकर हल
चलाएंगे? जब केंद्रीय असेम्बली में
हिन्दू लड़कियों की विवाह की आयु 8 वर्ष से
बढ़ाकर 14 वर्ष करने का प्रस्ताव लाया
गया था, तो उसके खिलाफ ब्राह्मणों के
कुल-भूषण मदन मोहन मालवीय ने आसमान सिर पर उठा लिया था, और कहा था कि अंग्रेज हमारे सनातन हिन्दू धर्म
को समाप्त करना चाहते हैं। इसी तरह जब 1850 में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार ने हिन्दू विधवाओं के विवाह को कानूनी
मान्यता दी थी, और मृतक पति की संपत्ति में
उसके अधिकार को स्वीकार किया था, तो तब भी
रूढ़िवादी ब्राह्मण नेताओं ने यही आवाज़ उठाई थी कि हिन्दू धर्म को बचाने के लिए
सरकार के खिलाफ बगावत करनी होगी। आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि ब्राह्मण वर्ग, जो भारत का शासक और बुद्धिजीवी वर्ग भी था, सुधारों को कितना नापसंद करता था। इसका कारण था
उसके मस्तिष्क में बैठा वह संविधानवाद, जो मनु और याज्ञवल्क्य की स्मृतियों से निर्मित हुआ था। इसके दूसरे छोर पर
आंबेडकर थे, जिनके संविधानवाद ने हिन्दुओं
के रुढ़िवाद से पीड़ित अधिकार-विहीन अछूतों की दयनीय स्थिति को बदलने की भावना से
आकार लिया था। वह बदलाव चाहते थे। भारत में कैसा संविधान होना चाहिए, यह उन्होंने 1927 में अपने महाद सत्याग्रह में मनुस्मृति को जलाकर पूरे देश को बता दिया था।
उनके इस कृत्य को किताब या साहित्य को जलाने के रूप में न देखा जाए। उन्होंने
साहित्य नहीं जलाया था, काला कानून जलाया था। आज भी
काले कानूनों की प्रतियाँ जलाई जाती हैं। कुछ साल पहले किसान आन्दोलन में किसानों
ने किसान विरोधी तीन काले कानूनों की प्रतियाँ जलाई थीं।
1943 में आंबेडकर
ने कहा था कि जिन कष्टों से अछूत पीड़ित हैं, अगर उनका उतना प्रचार नहीं किया गया है, जितना यहूदियों के कष्टों का किया गया है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि अछूतों के कष्ट वास्तविक नहीं हैं। और न वे
साधन और न वे तरीके, कम क्रूर हैं, जिनका प्रयोग हिन्दुओं द्वारा अछूतों के विरुद्ध
किया जाता है, बल्कि वे उतने ही क्रूर हैं, जितने क्रूर तरीके और साधन नाजियों ने यहूदियों
के विरुद्ध प्रयोग किए थे। यहूदियों के विरुद्ध नाजियों का ‘एंटी-सेमिटिज्म’ विचार
और कार्य में अछूतों के विरुद्ध हिन्दुओं के ‘सनातनवाद’ से बिलकुल भी भिन्न नहीं
है। उन्होंने यह पेपर कनाडा के शांति सम्मेलन में पढ़ा था। उन्होंने कहा था कि अब
समय आ गया है कि दासों, नीग्रों और यहूदियों की
समस्या की तुलना में भारत के अछूतों की समस्या को भी समझा जाए।
आंबेडकर जानते थे कि नीग्रों के विरुद्ध भेदभाव, यानी काले और गोरे का भेदभाव बाइबिल में नहीं है, बल्कि उस कानून में था, जो उनके विरुद्ध बनाए गए थे। लेकिन भारत में
इसका उल्टा है। यहाँ हिन्दू धर्म में सामाजिक भेदभाव है, जबकि कानून में नहीं है। इसलिए यहाँ जितना
प्रभावी धर्म है, उतना प्रभावी कानून नहीं है।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि कानून ने समाज को बदला नहीं है। हिन्दू समाज की
बहुत सी बुराइयां बेहद अमानवीय थीं, जो ब्रिटिश काल में कानून के दबाव से धीरे-धीरे समाप्त हुईं। परन्तु क्या
कारण है कि दलितों के प्रति अस्पृश्यता और भेदभाव की बुराई खत्म नहीं हुई। आंबेडकर
ने इसका कारण यह बताया कि केवल वे बुराइयां दूर हुईं, जिन्हें हिन्दू स्वयं दूर करना चाहते थे। वे
हिन्दू परिवार की बुराइयां थीं, जिनमें
सतीप्रथा, विधवा पुनर्विवाह, स्त्रीशिक्षा आदि थीं। किन्तु अस्पृश्यता को
हिन्दू बुराई नहीं मानते, बल्कि वह उनके लिए हिन्दू
समाज की संरचनात्मक व्यवस्था है, जिसे वे
समाप्त करना नहीं चाहते। इसे आप क्या कहेंगे? सिवाए इसके कि अगर कोई समाज अपनी धार्मिक बुराई को दूर करना न चाहे, तो कानून कुछ नहीं कर सकता। यही कारण है कि
कानूनन अस्पृश्यता और जातीय भेदभाव समाप्त होने के बावजूद, हिन्दू समाज में ये दोनों बुराइयां मौजूद हैं।
दलित को मूंछें रखने पर, दलित को घुड़चढ़ी करने पर, दलित को सवर्ण घरों के सामने से अपनी बारात
निकालने पर, दलित द्वारा पानी का घड़ा छूने
पर, उनके खिलाफ हिन्दुओं की हिंसा
किस कदर कहर ढाती है, आप सब जानते हैं। और ये सब
अभी हाल की ही घटनाएँ हैं। यह खबर
तो इसी महीने की राजस्थान की है कि प्राइमरी स्कूल के हेड मास्टर ने एक मासूम दलित
छात्र की इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि
उसने उसके घड़े से पानी पी लिया था। आपने इसी महीने प्रतापगढ़ की यह खबर भी पढ़ी होगी
कि चोरी के इलज़ाम में एक दलित को
चारपाई से बांधकर जिंदा जला दिया था। ये बुराइयां इसीलिए बनी हुई हैं, क्योंकि ये सतीप्रथा, विधवा-विवाह और स्त्री-शिक्षा की तरह हिन्दू
परिवार की बुराई नहीं है, बल्कि यह हिन्दू समाज की
संरचनात्मक व्यवस्था है, दूसरे शब्दों में यह उनका
सनातन धर्म है, जिसका वे अनुसरण करते हैं। अब
किसी हिन्दू के मन में अपनी विधवा को जलाने या त्यागने का भाव नहीं आता है। अब
किसी हिन्दू के मन में अपनी लड़की को अशिक्षित रखने का भाव मन में नहीं आता है, पर किसी दलित को देखकर अस्पृश्यता का भाव उसके
मन में अवश्य आता है। दलित जातियों के साथ अस्पृश्यता और भेदभाव की शिक्षा
हिन्दुओं का धर्म देता है। इसलिए इस मामले में वह कानून को नहीं मानता। एक दलित का
अपमान करने या उस पर अत्याचार करने में वह एससी-एसटी एक्ट की भी परवाह नहीं करता।
इस एक्ट के तहत कार्यवाही करने वाले पुलिस अधिकारी और जज भी इसे ज्यादा महत्व नहीं
देते हैं। इस एक्ट के तहत हजारों मुकदमे दर्ज होते हैं, पर अधिकांश में दोषी बाइज्जत बरी हो जाते हैं।
इस सारी प्रक्रिया के बीच हिन्दू समाज व्यवस्था से निर्मित मानसिकता काम करती है।
आज भी दबंग सवर्ण अपने तरीके से दलित को दंड देने में ज्यादा विश्वास करते हैं, वे कानून के दंड में विश्वास नहीं करते। आंबेडकर
ने कहा था, और यह दलितों का भी अनुभव है
कि सवर्ण और दलित जब मिलते हैं, तो दो
अलग-अलग नेशन के रूप में मिलते हैं। एक वह नेशन, जो रूलर है, और दूसरा वह नेशन, जो उसकी प्रजा है। यही कारण है कि आज भी दलित की
सवर्ण से और सवर्ण की दलित से स्वाभाविक दोस्ती नहीं होती। अपवाद हो सकते हैं, और ऐसे अपवाद को मैं सलाम करता हूँ।
मैं इस बहस में नहीं जाऊंगा, जो आरएसएस ने चलाई हुई है कि आंबेडकर संविधान के
निर्माता हैं या नहीं। इससे भाषण बहुत लम्बा हो जायेगा, और यह विषयांतर भी होगा। इस सम्बन्ध में संविधान
सभा की सारी कार्यवाहियां प्रकाशित हो चुकी हैं। किस तरह आंबेडकर ने ड्राफ्ट
संविधान की एक-एक धारा पर सदस्यों की शंकाओं का समाधान करते हुए बहस की है, और किस तरह की समस्याएं संविधान का ड्राफ्ट
तैयार करने में पेश आई थीं, वह सब अब उपलब्ध हैं, जिन्हें देखा जा सकता है। लेकिन मैं यह ज़रूर
कहना चाहूँगा कि आरएसएस और भाजपा की एक परेशानी आंबेडकर का नाम भी है, जो संविधान के निर्माता के रूप में जुड़ गया है।
अगर आंबेडकर दलित नहीं होते, ब्राह्मण
होते, तो उन्हें शायद इतनी परेशानी
नहीं होती। मैं समझता हूँ, यही एक मानसिकता पूरे देश में
आंबेडकर की प्रतिमाएं तोड़ने के पीछे भी काम करती है। वे जहाँ भी आंबेडकर की मूर्ति
देखते हैं, आंबेडकर की तस्वीर देखते हैं, किसी दलित की बाइक पर जय भीम लिखा देखते हैं, तो दलितों के प्रति उनके मस्तिष्क में बैठी हुई
घृणा एक्शन के रूप में बाहर आ जाती है। इस तरह की घटनाएँ 2014 के बाद से काफी संख्या में होने लगी हैं।
क्योंकि अब सनातनधर्म को मूल रूप में वापस लाया जा रहा है।
संविधान के खिलाफ देशव्यापी अभियान आरएसएस ने ही
चलाया था। उसने आंबेडकर के पुतले जलाए थे, और दिल्ली के रामलीला मैदान में एक बड़ी सभा करके उसने संविधान का विरोध
किया था। आरएसएस के मुखपत्र ‘आर्गेनाइज़र’ के 30 नवम्बर 1949 के अंक में
संविधान के विरोध में सम्पादकीय लिखा गया था। उसमें कहा गया था–‘भारत के नए
संविधान के बारे में सबसे खराब बात यह है कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे भारतीय कहा जाए। इसमें न भारतीय कानून हैं
और न भारतीय संस्थाएं हैं। इसमें प्राचीन भारत के अद्वितीय कानूनों का भी उल्लेख
नहीं है। जैसे मनु के कानूनों का, जो स्पार्टा
के लाइकुर्गुस या पर्शिया के सोलोन से भी बहुत पहले लिखे गए थे। आज मनुस्मृति के
कानून दुनिया को प्रेरित करते हैं। किन्तु हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उनका
कोई अर्थ नहीं है।’
भारत की किस प्राचीन संस्था को संविधान में होना
चाहिए था? इसके बारे में आरएसएस का कोई
आदमी नहीं बताता। लेकिन मैं पूछना चाहता हूँ कि जिस मनुस्मृति को वे भारत का
अद्वितीय कानून बताते हैं, उसका कौन सा कानून वे भारत के
संविधान में रखना चाहते थे या रखना चाहते हैं? क्या यह कानून कि 30 वर्ष का पुरुष 8 वर्ष की कन्या से विवाह करे? या यह कानून कि शूद्र को द्विजों की सेवा के लिए
बनाया गया है, उसके साथ सामाजिक व्यवहार न
करें? या यह कानून कि स्त्री के लिए
न शिक्षा है, न स्वतन्त्रता, बस पति की सेवा और घर की चार दीवारी में रहना ही
उसका धर्म है? या यह कानून कि शूद्र उपदेश
दे, तो उसके मुंह और कान में
खौलता हुआ तेल डाल देना चाहिए? या यह कानून
कि शूद्र को धन का संचय नहीं करने देना चाहिए, उसे निर्धन बनाकर रखा जाए? दुनिया के
उस प्राचीन और श्रेष्ठ कानून में कौन सा कानून है, जिसे आरएसएस संविधान में रखना चाहता है? आरएसएस का कोई नेता इसका खुलासा नहीं करता।
संविधान सभा में भी हिन्दू माडल की बात उठाई गई
थी। 4 नवम्बर 1948 को आंबेडकर ने संविधान सभा में संविधान की
आलोचनाओं पर बात करते हुए कहा था कि कुछ आलोचकों का आरोप है कि इसका कोई भी भाग
भारत की प्राचीन राजनीति का प्रतिनिधित्व नहीं करता। उन आलोचकों का कहना था कि नए
संविधान को भारत राज्य के हिन्दू माडल पर तैयार किया जाना चाहिए था। वे आलोचक
चाहते थे कि संविधान को ग्राम पंचायत और जिला पंचायतों पर आधारित होना चाहिए था, न कि पश्चिम के सिद्धांतों पर। आंबेडकर ने कहा
कि उन्हें ग्रामीण समुदाय के प्रति भारतीय बुद्धिजीवियों की इस बुद्धि पर तरस आता
है। ये बुद्धिजीवी भारतीयों गाँवों की मेटकाल्फ द्वारा की गई उस प्रशंसा से अभिभूत
दिखते हैं, जिसने उनको छोटे गणराज्यों के
रूप में वर्णित किया है। आंबेडकर ने कहा कि ये लोग नहीं जानते कि गाँवों के ये
तथाकथित गणराज्य भारत की बर्बादी के सबसे बड़े कारण हैं। उन्होंने इस बात पर
आश्चर्य व्यक्त किया कि जो लोग प्रांतीयता और साम्प्रदायिकता की निंदा करते हैं, वे गांवों के चैम्पियन कैसे बन गए? उन्होंने कहा कि गाँव अज्ञानता, संकीर्ण मानसिकता, जातिवाद और साम्प्रदायिकता के अड्डों के सिवा क्या हैं? उन्होंने कहा कि ये हिन्दुओं के लिए गणराज्य हो
सकते हैं, पर दलितों के लिए ये घेटो
यानी यातना-गृह से कम नहीं हैं। उन्होंने कहा कि मुझे ख़ुशी है कि संविधान के
ड्राफ्ट में गाँव को हटाकर व्यक्ति को इकाई के रूप में अपनाया गया है।
सबसे ज्यादा आलोचना ड्राफ्ट संविधान में स्वीकार
किए गए मौलिक अधिकारों की हुई थी। इसका कारण यह था कि वर्णव्यवस्था से निर्मित
हिन्दू मानस के लिए यह नई चीज़ थी। हिन्दू यह सोच भी नहीं सकते थे, खास तौर से ब्राह्मण कि द्विजों के सिवा
दलित-शूद्रों के भी कुछ अधिकार हो सकते हैं। आंबेडकर ने सदन में बहस करते हुए कहा
कि भारत में मौलिक अधिकारों का इतिहास बड़ा विचित्र है। उन्होंने कहा कि प्राचीनं
हिन्दू भारत में केवल दो लोगों के लिए मौलिक अधिकार थे, एक ब्राह्मण के लिए और दूसरा गाय के लिए। राजा
इन दोनों की सुरक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध था। फिर मुसलमान आए, उन्होंने ये दोनों अधिकार, ब्राह्मण के भी और गाय के भी, खत्म कर दिए। उन्होंने जो अधिकार मुसलमानों को
दिए, वे गैर-मुस्लिमों को नहीं
दिए। उनके बाद अंग्रेज आए, उन्होंने 1772 से 1935 तक जितने कानून बनाए, उनमें भी वे
मौलिक अधिकार नहीं थे, जो स्वतंत्र भारत के संविधान
ने अपने नागरिकों को दिए। समानता का अधिकार, स्वतन्त्रता का अधिकार, शोषण के
विरुद्ध अधिकार, शिक्षा का अधिकार और सुरक्षा
का अधिकार, ये न रूढ़िवादी हिन्दुओं के गले उतरा और न सामन्ती
मुसलमानों के। हिन्दू-मुसलमान दोनों आलोचकों ने यह कहकर मूल अधिकारों की आलोचना की
कि ये यूनाइटेड स्टेट्स के संविधान से लिए गए हैं। किन्तु संविधान सभा के दूरदर्शी
और जागरूक सदस्यों ने समझ लिया था कि अगर लोकतंत्र स्थापित करना है, तो व्यक्ति के इन मौलिक अधिकारों को अस्वीकार
नहीं किया जा सकता।
25 नवम्बर 1949 को आंबेडकर ने संविधान सभा में ड्राफ्ट संविधान
पर बोलते हुए अपनी इस चिंता को साझा किया था कि भारत को जो स्वतन्त्रता मिली है, क्या वह उसे बनाए रखेगा, या इसे फिर से खो देगा? उन्होंने कहा कि जिन तत्वों के कारण हमारे देश
ने अपनी स्वतन्त्रता खोई थी, वे तत्व
खत्म नहीं हुए हैं। वे धर्म और जाति के रूप में अभी भी सक्रिय हैं। उन्होंने कहा
कि वह नहीं जानते कि भारत की जनता धर्म को अपने देश से ऊपर रखेगी या अपने देश को
धर्म से ऊपर रखेगी? लेकिन इतना तय है कि यदि
राजनीतिक दल धर्म को देश से ऊपर रखेंगे, तो हमारी स्वाधीनता दूसरी बार खतरे में पड़ सकती है। उन्होंने आगे कहा था कि
अगर हम इस लोकतंत्र को बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए
संवैधानिक तरीकों को दृढ़ता से अपनाना होगा। उन्होंने कहा कि दूसरी चीज, जो हमारी स्वतन्त्रता के लिए घातक हो सकती है, वह भक्ति अर्थात नायक-पूजा है। उन्होंने कहा कि
धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकती है, परन्तु राजनीति में, यह निश्चित रूप से पतन और अंतत: तानाशाही की ओर
ले जाने वाला मार्ग है। उन्होंने एक तीसरी बात यह कही कि 26 जनवरी 1950 को हम एक विरोधाभासी जीवन में प्रवेश करेंगे। राजनीति में हम सब एक व्यक्ति
एक मूल्य के आधार पर समान होंगे, परन्तु
सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता से ग्रस्त रहेंगे। इस विरोधाभास को हमें जितनी
जल्दी हो सके, दूर करना होगा। अन्यथा, असमानता से पीड़ित लोग मेहनत से खड़े किए गए इस
लोकतंत्र के ढाँचे को ध्वस्त कर देंगे।
लेकिन अफ़सोस! कि न सामाजिक विषमता समाप्त हुई, और न आर्थिक विषमता। इसके उलट, वह और भी ज्यादा बढ़ गई है। आज आर्थिक विषमता से
पीड़ित लोगों की एक विशाल संख्या भारत में है। किन्तु आंबेडकर की भविष्यवाणी गलत
साबित हुई। विषमता से पीड़ित लोगों ने कोई विद्रोह नहीं किया, उन्होंने लोकतंत्र के ढाँचे को नष्ट नहीं किया।
इसका क्या कारण है? क्या उन्हें सामाजिक-आर्थिक
विषमता का अहसास नहीं है, या वे इस विषमता से पीड़ित
नहीं हैं? हालाँकि, सच यह है कि उन्हें विषमता का अहसास भी है, और वे इससे पीड़ित भी हैं। लेकिन वे बगावत नहीं
कर सकते। आखिर क्यों? इसका जो प्रमुख कारण मैं देख
रहा हूँ, वह धर्म है। धर्म, जिससे वे गहराई से जुड़े हुए हैं, बल्कि कहना चाहिए, जोड़े गए हैं। सामाजिक-आर्थिक विषमता को बनाए रखने वाले व्यवस्थावादियों ने
हजारों की संख्या में उनके बीच संत-महात्माओं को छोड़ दिया है, जो गरीबों में, कमजोर तबकों में धार्मिक आस्थाओं को, पूर्वजन्म के कर्मफल को, भाग्यवाद को, मुक्ति-मोक्ष और संतोष-सब्र की मान्यताओं को
मजबूत करते रहते हैं। इस प्रचार ने उनमें यह आस्था पैदा कर दी कि हुइये वही जो राम
लिख राखा। या, जो तकदीर लिखाकर लाये हैं, उसे कौन मेट सकता है। या, जब हमारे भाग्य में ही गरीबी है, तो क्या कर सकते हैं? या, संत-महात्माओं का यह बताना कि आपकी गरीबी, आपका दलित होना पूर्वजन्म का कर्मफल है। यह धर्म की सबसे बर्बर अवधारणा है, और मनुष्य-विरोधी भी। भाग्य और कर्मफल में
विश्वास करने वाला हिन्दू कभी भी संवेदनशील नहीं हो सकता। पीड़ित और गरीब के प्रति
उसमें संवेदना जग ही नहीं सकती, क्योंकि
उसके लिए वह उसका कर्मफल है। कैथरीन मेयो की एक किताब है ‘स्लेव्स ऑफ़ द गॉडस’।
उसमें एक दृष्टांत आया है। एक बूढ़ी गाय, जिसे उसके ब्राह्मण मालिक ने सड़क पर आज़ाद छोड़ दिया था, जिए या मरे। वह कमजोर इतनी थी कि उसमें चलने की
ताकत नहीं थी। एक दिन उसे कुत्ते घेरकर फाड़ देते हैं। वह तड़प-तड़प के मर जाती है।
इस दृश्य को एक अंग्रेज कलेक्टर ने अपनी आँखों से देखा। उसने वहां के ब्राह्मणों
से इस सम्बन्ध में शिकायत की कि तुम लोग एक बूढ़ी गाय की भी सेवा नहीं कर सकते। इस
पर उन ब्राह्मणों ने जवाब दिया कि साहिब इस गाय ने अपने पूर्व जन्म का फल भोगा है।
तो यह जो धर्म की शिक्षा है, इसने मनुष्य
की संवेदना खत्म कर दी। यह धारणा कभी गरीबों को यह एहसास नहीं होने देगी कि उनकी
गरीबी और बदहाली का कारण पूर्वजन्म के कर्मफल या भाग्य नहीं, बल्कि सत्ता की गलत नीतियाँ हैं।
अंत में मैं भूमि सुधार पर आंबेडकर की
जो जवाब दिया, वह यहाँ महत्वपूर्ण है। उसने कहा, ‘तुम इन संगीनों से कुछ भी कर सकते हो, पर तुम उन पर बैठ नहीं सकते।’ आंबेडकर ने कहा, इसी तरह जो निजी सम्पत्ति सरकार ने पैदा की है, उस पर वह बैठ नहीं सकती, पर जमीनों के मालिक उस पर जरूर बैठ जायेंगे।
उन्होंने कहा कि काँग्रेस भूमि का राष्ट्रीयकरण कर सकती थी, पर उसने राजनैतिक चुनाव जीतने के लिये, ऐसा कदम नहीं उठाया और स्थिति यह हो गयी कि अब
उसके लिये जमीन की सीमा निर्धारण करना भी नामुमकिन हो गया है। यह बात उन्होंने 1954 में कही थी।
मैंने जितना अध्ययन किया था, उसके आधार पर ‘संविधान, संविधानवाद और आंबेडकर’ विषय पर आपके समक्ष अपनी
बात रखकर आपसे विदा लेता हूँ। संवैधानिक चिंता का उल्लेख करके अपनी बात समाप्त
करूँगा। 1954 में संविधान
के अनुच्छेद 31 पर, भूमि अधिग्रहण के सम्बन्ध में प्रस्तुत किए गए
एक संशोधन बिल पर बोलते हुए आंबेडकर ने इस बिल
का विरोध किया था। इस धारा में भूस्वामियों को पूर्ण मुआवजा देकर उनसे भूमि लेने
का प्रावधान किया गया था। आंबेडकर ने कहा कि यह धारा संविधान के ड्राफ्ट में नहीं
थी, इसलिए यह हमारा ड्राफ्ट नहीं
है, और वह इसकी जिम्मेदारी नहीं
ले सकते। जब इस धारा पर बहस चल रही थी, तो सदन में आंबेडकर सम्भवतः पहले व्यक्ति थे, जो उसके विरोध में थे। आंबेडकर भूमि के निजी स्वामित्व के खिलाफ थे। वह
चाहते थे कि भूमि पर राज्य का स्वमित्व होना चाहिए। किन्तु कांग्रेस पार्टी के
सदस्य इसके पक्ष में नहीं थे। इसका कारण भी था, वे हजार-हजार एकड़ जमीनों के मालिक थे। इस धारा पर बहस के दौरान काँग्रेस
में तीन गुट हो गये थे। वल्लभभाई पटेल भू-स्वामियों को बाज़ार-दर से जमीन की कीमत
के साथ 15 प्रतिशत मुआवजा भी देने के
समर्थन में थे। नेहरू मुआवजा देने के विरोध में थे। किन्तु पन्त बीच का कोई रास्ता, यानी सुरक्षित प्रसव का तरीका निकालना चाहते थे।
इस विवाद का निपटारा भूमि सुधारों की हत्या पर हुआ। आंबेडकर ने कहा कि यह धारा
इतनी बदसूरत है कि ‘मैं इसकी तरफ देखना भी पसन्द नहीं करता।’
भूमि की समस्या पर ही आंबेडकर ने अपनी बहस में
जोर देकर कहा था : ‘मेरा मानना है कि इस देश में किसानों के स्वामित्व से देश पूरी
तरह बर्बाद हो जाएगा।’ उन्होंने कहा, ‘हालांकि मैं कम्युनिस्ट नहीं हूँ, पर जो मैं चाहता हूँ, वह है
सामूहिक खेती की रूसी प्रणाली।’ उनका कहना था कि ‘यही एकमात्र तरीका है, जिससे हम अपनी कृषि समस्या का समाधान कर सकते
हैं।’ लेकिन यह तभी संभव था, जब जमीन का
स्वामित्व सरकार के पास होता।
इस सम्बन्ध
में, आंबेडकर ने
नेपोलियन का एक वाकया सुनाया। उन्होंने कहा, एक बार टेलीराण्ड ने नेपोलियन
से पूछा था, ‘तुम्हें यूरोप से इतनी दुश्मनी क्यों है? तुम फ्रांस का सम्राट बनने के
लिये तैयार क्यों नहीं हो जाते? मैं तुम्हारा प्रधानमन्त्री बन जाऊँगा।’
नेपोलियन के महल के बाहर कुछ सैनिक खड़े थे, सूरज की रोशनी में उनकी
बन्दूकों की संगीनें साफ चमक रही थीं। नेपोलियन बहुत गुस्से वाला था। उसने
टेलीराण्ड से पूछा, ‘तुम मेरे सैनिकों को देख रहे हो?’ उसने कहा, ‘हाँ, मैं उन्हें
देख रहा हूँ।’ तब, नेपोलियन ने कहा, ‘जब मेरे पास एक सेना है, तो मैं एक
सम्राट क्यों नहीं हूँ?’ टेलीराण्ड ने उसका जो जवाब दिया, वह यहाँ
महत्वपूर्ण है। उसने कहा, ‘तुम इन संगीनों से कुछ भी कर सकते हो, पर तुम उन
पर बैठ नहीं सकते।’ आंबेडकर ने कहा, इसी तरह जो निजी सम्पत्ति
सरकार ने पैदा की है, उस पर वह बैठ नहीं सकती, पर जमीनों
के मालिक उस पर जरूर बैठ जायेंगे। उन्होंने कहा कि काँग्रेस भूमि का राष्ट्रीयकरण
कर सकती थी, पर उसने राजनैतिक चुनाव जीतने के लिये, ऐसा कदम नहीं उठाया और स्थिति
यह हो गयी कि अब उसके लिये जमीन की सीमा निर्धारण करना भी नामुमकिन हो गया है। यह
बात उन्होंने 1954 में कही थी।
मैंने जितना अध्ययन किया था, उसके आधार पर ‘संविधान, संविधानवाद और आंबेडकर’ विषय पर आपके समक्ष अपनी
बात रखकर आपसे विदा लेता हूँ। आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद।
आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद।