मंगलवार, 29 जून 2021

उत्तर प्रदेश में दलित-आदिवासी और भूमि का प्रश्न

 

उत्तर प्रदेश में दलित-आदिवासी और भूमि का प्रश्न

-    एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट

2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति (दलित) की कुल आबादी 4.13 करोड़ है जो उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का लगभग 21% है। इसी जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में दलितों के 61.91 लाख परिवार हैं जो उत्तर प्रदेश के कुल परिवारों का 23% हैं। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) की कुल आबादी लगभग 11.34 लाख है जो उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का लगभग 1% है। इसमें आदिवासियों के लगभग 1.77 लाख परिवार हैं।

उपरोक्त जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में लगभग 42% दलित परिवार भूमिहीन एवं हाथ का श्रम करने वाले हैं। दलित परिवारों में से केवल 2.93% सरकारी, 1.14% गैर सरकारी तथा 1.92% निजी क्षेत्र में अर्थात लगभग 6% ही नौकरी पेशा हैं। शेष 94% मजदूरी तथा अन्य  पेशों में हैं। इसी प्रकार 35.30% आदिवासी परिवार भूमिहीन तथा हाथ का श्रम करने वाले हैं। इनमें से 3.54% सरकारी, 1.63% गैर सरकारी तथा 2.95% निजी क्षेत्र में अर्थात 8% परिवार ही नौकरी पेशा हैं। शेष 92% मजदूर तथा अन्य पेशों में हैं।

इसी जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश के 82.40% परिवारों की आय 5000 प्रतिमाह से कम है। 13.25% परिवारों की आय 5000 से 10,000 तथा 4.29% परिवारों की  आय 10,000 प्रतिमाह से अधिक है। सरकारी नौकरी से 5000 से अधिक आय वाले परिवारों की संख्या केवल 2.71% ही है। 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में 81.35% आदिवासी परिवारों की आय 5000 प्रतिमाह से कम है। 13.82% परिवारों की आय 5000 से 10,000 के बीच तथा 4.81% परिवारों की आय 10,000 प्रतिमाह से अधिक है। केवल 3.31% प्रतिशत परिवारों की सरकारी नौकरी से 5000 से अधिक आय है।

2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में 15.69% दलित परिवारों के पास असिंचित, 42.06% के पास सिंचित तथा 9.12% परिवारों के पास अन्य भूमि उपलब्ध है। इसी प्रकार 28.16% आदिवासी परिवारों के पास असिंचित, 39.33% के पास सिंचित तथा 12.50% के पास अन्य भूमि थी।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश के दलित अधिकतर भूमिहीन, अल्प आय तथा बेरोजगार हैं जोकि उनके सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक पिछड़ापन का मुख्य कारण है। भूमिहीन तथा केवल हाथ का श्रम करने वाले होने के कारण गाँव में वे अधिकतर कृषि मजदूर का काम करते हैं। अपने जानवरों के लिए चारा तथा टट्टी पेशाब के लिए भी उन्हें दूसरे के खेतों में जाना पड़ता है। भूमिहीन तथा बेरोजगार होने के कारण उन्हें ऊंची जातियों के अत्याचार तथा शोषण को झेलना पड़ता है। इसी कमजोरी को चिह्नित करते हुए डा. अंबेडकर ने आगरा  में अपने भाषण में कहा था, “मेरे ग्रामीण भाइयों पर अत्याचार होता है क्योंकि उनके पास जमीन नहीं है। इसी लिए अब मैं उनके लिए जमीन की लड़ाई लड़ूँगा।“

यह भी सर्वविदित है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और इसकी लगभग 60% आबादी कृषि से किसान तथा खेतिहर मजदूर के तौर पर जुड़ी हुई है। उपरोक्त आंकड़ों से यह भी स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में भी अधिकतर दलित एवं आदिवासी भूमिहीन हैं और वे केवल हाथ की मजदूरी ही कर सकते हैं। भूमिहीनता और केवल हाथ की मजदूरी उनकी सब से बड़ी दुर्बलताएं हैं। इनके कारण न तो वे जातिभेद और छुआछूत के कारण अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों का मजबूती से सामना कर पाते हैं और न ही मजदूरी के सवाल पर सही ताकत से लड़ाई। क्योंकि खेती में रोज़गार केवल मौसमी होता है, अतः उन्हें शेष समय मजदूरी के लिए अन्यत्र खोजना पड़ता है या फिर बेरोजगार रहना पड़ता है।

ग्रामीण क्षेत्र में यह भी एक यथार्थ है कि भूमि न केवल उत्पादन का साधन है बल्कि यह सम्मान और सामाजिक दर्जे का भी प्रतीक है। गाँव में जिस के पास ज़मीन है वह न केवल आर्थिक तौर पर मज़बूत है बल्कि सामाजिक तौर पर भी सम्मानित है। अब चूँकि अधिकतर दलितों के पास न तो ज़मीन है और न ही नियमित रोज़गार, अतः वे न तो सामाजिक तौर पर सम्मानित हैं और न ही आर्थिक तौर पर मज़बूत। ग्रामीण क्षेत्र में दलित तभी सशक्त हो सकते हैं जब उन के पास ज़मीन आये और उन्हें नियमित रोज़गार मिले। अतः भूमि वितरण और सुरक्षित रोज़गार की उपलब्धता दलितों और आदिवासियों तथा अन्य भूमिहीनों की प्रथम ज़रूरत है।

भारत के स्वतंत्र होने पर देश में संसाधनों के पुनर्वितरण हेतु ज़मींदारी व्यवस्था समाप्त करके भूमि सुधार लागू किये गए थे। इस द्वारा देश में व्याप्त भूमि सीमारोपण कानून बनाये गए थे जिस से भूमिहीनों को आवंटन के लिए भूमि उपलब्ध करायी जानी थी। परन्तु इन कानूनों को लागू करने में बहुत बेईमानी की गयी क्योंकि उस समय सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस में अधिकतर नेता पुराने ज़मीदार ही थे और प्रशासन में भी इसी वर्ग का बर्चस्व था। इसी लिए एक तो इन कानूनों से बहुत कम ज़मीन निकली और जो निकली भी उसका भूमिहीनों को वितरण नहीं किया गया। परिणामस्वरूप इन कानूनों को लागू करने से पहले जिन लोगों के पास उक्त ज़मीन थी वह उनके पास ही बनी रही। आज भी विभिन्न राज्यों में बेनामी और ट्रस्टों व मंदिरों के नाम हजारों हजारों एकड़ ज़मीन बनी हुई है. उत्तर प्रदेश में भी यही स्थिति है।

सामाजिक-आर्थिक एवं जाति जनगणना के आंकड़ों के विश्लेषण से स्पष्ट है ग्रामीण क्षेत्र के दलितों एवं आदिवासियों के लिए भूमि का प्रश्न सब से महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसे भूमि सुधारों को सही ढंग से लागू किये बिना हल करना संभव नहीं है। परन्तु यह बहुत बड़ी बिडम्बना है कि भूमि सुधार और भूमि वितरण किसी भी दलित अथवा गैर दलित राजनीतिक पार्टी के एजंडे पर नहीं है. अतः दलितों एवं आदिवासियों का तब तक सशक्तिकरण संभव नहीं है जब तक उन्हें भूमि वितरण द्वारा भूमि उपलब्ध नहीं करायी जाती।

यह ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश में 1995 से लेकर 2012 तक मायावती चार बार मुख्य मंत्री रही है। उसके शासन काल में केवल 1995 तथा 1997 में उत्तर प्रदेश के मध्य तथा पच्छिमी क्षेत्र को छोड़ कर शेष भागों में कोई भी भूमि आवंटन नहीं किया गया। पूर्वी उत्तर प्रदेश जहाँ दलितों की सब से घनी आबादी है, में तो गोरखपुर को छोड़ कर कहीं भी भूमि आवंटन नहीं हुआ, वह भी एक अधिकारी (हरीश चंद्र, आयुक्त गोरखपुर) के प्रयासों के फलस्वरूप ही। ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश में आवंटन के लिए भूमि उपलब्ध नहीं थी। 1995 में उत्तर प्रदेश में सीलिंग की अतिरिक्त भूमि, ग्राम समाज तथा भूदान की इतनी भूमि उपलब्ध थी कि उससे न केवल दलित बल्कि अन्य जातियों के भूमिहीनों को भी गुज़ारे लायक भूमि मिल सकती थी परन्तु मायावती ने उसका आवंटन नहीं किया।  इतना ही नहीं जो भूमि पूर्व में आवंटित थी उसके कब्ज़े दिलाने के लिए भी कोई कार्रवाही नहीं की। 1997 के बाद तो फिर सर्वजन की राजनीति के चक्कर में न तो कोई आवंटन किया गया और न ही कोई कब्ज़ा ही दिलवाया गया।

उत्तर प्रदेश में जब 2002 में मुलायम सिंह यादव की सरकार आई तो उन्होंने राजस्व कानून में संशोधन करके दलितों की भूमि आवंटन की वरीयता को ही बदल दिया और उसे अन्य भूमिहीन वर्गों के साथ जोड़ दिया।  उनकी सरकार में भूमि आवंटन तो हुआ परन्तु ज़मीन दलितों को न दे कर अन्य जातियों को दी गयी। इसके साथ ही उन्होंने कानून में संशोधन करके दलितों की ज़मीन को गैर दलितों द्वारा ख़रीदे जाने वाले प्रतिबंध को भी हटा दिया। उस समय तो यह कानूनी संशोधन टल गया था परन्तु बाद में उन्होंने इसे विधिवत कानून का रूप दे दिया। इस प्रकार मायावती द्वारा दलितों को भूमि आवंटन न करने, मुलायम सिंह द्वारा कानून में दलितों की भूमि आवंटन की वरीयता को समाप्त करने के कारण उत्तर प्रदेश के दलितों को भूमि आवंटन नहीं हो सका और ग्रामीण क्षेत्र में उनकी स्थिति अति दयनीय बनी हुई है।

आदिवासियों के सशक्तिकरण हेतु वनाधिकार कानून- 2006 तथा नियमावली 2008 में लागू हुई  थी  इस कानून के अंतर्गत सुरक्षित जंगल क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों तथा गैर आदिवासियों को उनके कब्ज़े की आवासीय तथा कृषि भूमि का पट्टा दिया जाना था। इस सम्बन्ध में आदिवासियों द्वारा अपने दावे प्रस्तुत किये जाने थे. उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी परन्तु उसकी सरकार ने इस दिशा में कोई भी प्रभावी कार्रवाही नहीं की जिस का नतीजा यह हुआ कि 30.1.2012 को उत्तर प्रदेश में आदिवासियों द्वारा प्रस्तुत कुल 92,406 दावों में से 74,701 दावे अर्थात 81% दावे रद्द कर दिए गए थे और केवल 17,705 अर्थात केवल 19% दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1,39,777 एकड़ भूमि ही आवंटित की गयी थी।

मायावती सरकार की आदिवासियों को भूमि आवंटन में लापरवाही और दलित/आदिवासी विरोधी मानसिकता को देख कर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की थी जिस पर हाई कोर्ट ने अगस्त, 2013 में राज्य सरकार को वनाधिकार कानून के अंतर्गत सभी दावों को पुनः सुन कर तेज़ी से निस्तारित करने के आदेश दिए थे परन्तु उस पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया। इस प्रकार मायावती तथा अखिलेश की  सरकार की लापरवाही तथा दलित/आदिवासी विरोधी मानसिकता के कारण 81% दावे रद्द कर दिए गए।

आइये अब ज़रा इस कानून को लागू करने के बारे में भाजपा की योगी सरकार की भूमिका को भी देख लिया जाए। यह सर्विदित है कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश के 2017 विधान सभा चुनाव में अपने संकल्प पत्र में लिखा था कि यदि उसकी सरकार बनेगी तो ज़मीन के सभी अवैध कब्जे (ग्राम सभा तथा वनभूमि) खाली कराए जायेंगे। मार्च 2017 में सरकार बनने पर जोगी ने इस पर तुरंत कार्रवाही शुरू कर दी और इसके अनुपालन में ग्राम समाज की भूमि तथा जंगल की ज़मीन से उन लोगों को बेदखल किया जाने लगा जिन का ज़मीन पर कब्ज़ा तो था परन्तु उनका पट्टा उनके नाम नहीं था। इस आदेश के अनुसार 13 जिलों के वनाधिकार के ख़ारिज हुए 74,701 दावेदारों को भी बेदखल किया जाना था। जब योगी सरकार ने बेदखली की कार्रवाही शुरू की तो इस के खिलाफ हम लोगों को फिर इलाहाबाद हाई कोर्ट की शरण में जाना पड़ा। हम लोगों ने बेदखली की कार्रवाही को रोकने तथा सभी दावों के पुनर परीक्षण का अनुरोध किया। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने हमारे अनुरोध पर बेदखली की कार्रवाही पर रोक लगाने, सभी दावेदारों को छुटा हुआ दावा दाखिल करने तथा पुराने दावों पर अपील करने के लिए एक महीने का समय दिया तथा सरकार को तीन महीने में सभी दावों की पुनः सुनवाई करके निस्तारण करने का आदेश दिया। परंतु उक्त अवधि पूर्ण हो जाने के बाद भी सरकार द्वारा इस संबंध में कोई भी कार्रवाही नहीं की गयी।

कुछ वर्ष पहले वाईल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया द्वारा सुप्रीम कोर्ट में वनाधिकार कानून की वैधता को चुनौती दी गयी तथा वनाधिकार के अंतर्गत निरस्त किये गये दावों से जुड़ी ज़मीन को खाली करवाने हेतु सभी राज्य सरकारों को आदेशित करने का अनुरोध किया गया था। मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में आदिवासियों/वनवासियों का पक्ष नहीं रखा। परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट ने 24 जुलाई, 2019 तक वनाधिकार के ख़ारिज हुए सभी दावों की ज़मीन खाली कराने का आदेश पारित कर दिया। इससे पूरे देश में प्रभावित होने वाले परिवारों की संख्या 20 लाख है जिसमें उत्तर प्रदेश के 74,701  परिवार हैं। इस आदेश के विरुद्ध हम लोगों ने आदिवासी वनवासी महासभा के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में फिर गुहार लगाई जिसमें हम लोगों ने बेदखली पर अपने आदेश पर रोक तथा सभी राज्यों को सभी दावों का पुनर्परीक्षण करने का अनुरोध किया। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हमारे अनुरोध को स्वीकार करते हुए 10 जुलाई, 2019 तक बेदखली पर रोक तथा सभी राज्यों को सभी दावों की पुन: सुनवाई का आदेश दिया था परंतु दो वर्ष बीत जाने पर इस पर कोई कार्रवाही नहीं की गई है.

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि किस तरह पहले मायावती और फिर अखिलेश यादव की सरकार ने दलितों, आदिवासियों और परंपरागत वनवासियों को वनाधिकार कानून के अंतर्गत भूमि के अधिकार से वन्चित किया है और भाजपा सरकार में उन पर बेदखली की तलवार लटकी हुई है। यह विचारणीय है कि यदि मायावती और अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल में इन लोगों के दावों का विचरण कर उन्हें भूमि का अधिकार दे दिया होता तो आज उनकी स्थिति इतनी दयनीय नहीं होती। इसी प्रकार यदि मायावती ने अपने शासन काल में भूमिहीनों को ग्रामसभा की ज़मीन जो आज भी दबंगों के कब्जे में है, के पट्टे कर दिए होते तो उनकी आर्थिक हालत कितनी बदल चुकी होती। अतः यह विचारणीय है कि क्या मायावती और अखिलेश यादव जोकि सामाजिक न्याय के नाम पर सरकार बनाते रहे हैं ने दलितों-आदिवासियों को कोई सामाजिक न्याय दिया है. भाजपा तो सामाजिक न्याय की जगह समरसता की बात करती है जोकि यथास्थितिवाद  है। क्या उत्तर प्रदेश के दलित आदिवासी आगामी विधान सभा चुनाव में अपने साथ किए गए उपरोक्त अन्याय के लिए सपा, बसपा और भाजपा से जवाब नहीं मांगेंगे?

अतः अगर उत्तर प्रदेश के दलितों और आदिवासियों का वास्तविक सशक्तिकरण करना है तो वह भूमि सुधारों को कड़ाई से लागू करके तथा भूमिहीनों को भूमि आवंटित करके ही किया जा सकता है। इसके लिए वांछित स्तर की राजनीतिक इच्छा शक्ति की ज़रूरत है जिस का वर्तमान में सर्वथा अभाव है. अतः भूमि सुधारों को लागू कराने तथा भूमिहीन दलितों/आदिवासियों को भूमि आवंटन कराने के लिए एक मज़बूत भूमि आन्दोलन चलाये जाने की आवश्यकता है। इस आन्दोलन को बसपा जैसी अवसरवादी और केवल जाति की राजनीति करने वाली पार्टी नहीं चला सकती है क्योंकि इसे सभी प्रकार के आंदोलनों से परहेज़ है. समाजवादी पार्टी भी केवल सत्ता की राजनीति करती है। उसे भी दलितों आदिवासियों के सशक्तिकरण से कोई सरोकार नहीं है।

आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने हमेशा भूमि सुधार और भूमि आवंटन को अपने एजंडे में प्रमुख स्थान दिया है और इसके लिए अदालत में तथा ज़मीन पर भी लड़ाई लड़ी है।  इसी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को ईमानदारी से लागू कराने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय तथा सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकाएं  दायर करके आदेश भी प्राप्त किया था जिसे मायावती और अखिलेश की सरकार ने विफल कर दिया। अतः आइपीएफ सभी दलित/आदिवासी हितैषी संगठनों और दलित राजनीतिक पार्टियों का आवाहन करता है कि वे अगर सहमत हों तो उत्तर प्रदेश के 2022  के चुनाव में भूमि सुधार और भूमि आवंटन को सभी राजनीतिक पार्टियों के एजंडे में शामिल कराने के लिए जन दबाव बनाने हेतु एक मंच पर आएं।

 

 

शनिवार, 19 जून 2021

भारतीय सेना में दलितों का संक्षिप्त इतिहास और डा. अंबेडकर की भूमिका - भगवान दास

भारतीय सेना में दलितों का संक्षिप्त इतिहास और डा. अंबेडकर की भूमिका

-    भगवान दास

(नोट: यह निबंध भगवान दास ने 2005 में मेरे अनुरोध पर अंग्रेजी में लिखा था। वास्तव में भगवान दास ने भारतीय सेना में अछूतों की भूमिका पर एक पुस्तक लिखने का प्रस्ताव रखा था और उन्होंने कुछ सामग्री भी एकत्र की थी लेकिन वह उसे नहीं कर सके। ऐसा इसलिए था क्योंकि भगवान दास ने स्वयं सेना में नौकरी की थी। उन्हें  राडार ऑपरेटर के रूप में रॉयल एयर फोर्स में और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानी हमले का सामना करने के लिए बर्मा सीमा पर तैनात किया गया था। उन्होंने दलित युवाओं को सेना में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जहां अधिकारी स्तर पर बहुत सारी रिक्तियां हैं। दरअसल डॉ अम्बेडकर भी दलितों के सेना में नौकरी के पक्ष में थे क्योंकि सेना में शामिल हुए लोगों ने दलितों को जगाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

 उन्होंने "Untouchable Soldier " नाम से एक छोटी सी पुस्तक का संपादन और प्रकाशन भी किया, जो कैनेडा की एक विद्वान आरडिथ बाशम का एम.ए. असाइनमेंट था। यह पुस्तक मज़हबी और महार समुदायों (अछूत) का विवरण देती है जिन्हें अंग्रेजों द्वारा सेना में भर्ती किया गया था। ये अभी भी भारतीय सेना में सिख लाइट इन्फैंट्री (सिख एल.आई.) और महार रेजिमेंट के रूप में जीवित हैं। मैंने "Untouchable Soldier " का हिंदी में अनुवाद "अछूत सैनिक" के रूप में किया है और दलित टुडे प्रकाशन, लखनऊ इसे जल्द ही प्रकाशित करने जा रहा है। - एस.आर. दारापुरी आई.पी.एस. (सेवानिवृत्त)।

मैं भारत में सशस्त्र बलों के विकास के इतिहास में नहीं जा रहा हूं। शायद प्रारंभिक अवस्था में परिवार के सदस्यों ने संपत्ति, भूमि आदि के लिए लड़ाई लड़ी। बाद में परिवार नियमित रूप से लड़ने वाले समूहों में शामिल हो गए। पश्चिमी देशों के लोगों के आने से पहले धनुष, तीर, तलवार, भाले का इस्तेमाल किया जाता था, जिन्होंने गन पाउडर और विस्फोटक विकसित किए थे। इन नए हथियारों से कुछ लोगों या लोगों के समूहों ने नई भूमि पर विजय प्राप्त की और साम्राज्यों का निर्माण किया।

भारत में सेना

भारत को विभिन्न भाषाई राज्यों और क्षेत्रों में विभाजित किया गया था। तमिल, तेलगु, कन्नड़, मलयालम, उड़िया, मराठी, बंगाली, हिंदी की विभिन्न बोलियाँ, पंजाबी, पुश्तु आदि भारत के विभिन्न भागों में बोली जाती थीं।

भारत ने सबसे अच्छे प्रकार के कपड़े का उत्पादन किया जो उत्तरी क्षेत्र, यूरोप आदि में बहुत लोकप्रिय था, यूरोपीय देशों जैसे ब्रिटेन, फ्रांस, पुरतगल, स्पेन आदि से लोग मुख्य रूप से बाजार स्थापित करने और कपड़ा, मसाले आदि आयात करने के लिए भारत आए थे। ईस्ट इंडिया कंपनी (ब्रिटिश) और इसी तरह के व्यापारियों के छोटे समूहों ने व्यापारिक कंपनियों की स्थापना की और अपने मालिकों और उनके द्वारा बसे हुए उपनिवेशों की रक्षा के लिए चौकीदारों की भर्ती की और उन्हें बंदूकें संभालने और अपनी रक्षा करने के लिए प्रशिक्षित किया। इन बलों को कुछ नवाबों और छोटे शासकों द्वारा विशेष रूप से बंगाल, उड़ीसा और मद्रास के पास के इलाकों में रखा गया था। फ्रांस और स्पेन ने अपने व्यापार को जल्दी ही बंद कर दिया क्योंकि वे अंग्रेजों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते थे।

ब्रिटिश द्वीपों- इंग्लैंड, आयरलैंड और वेल्स से ज्यादा लोग भारत नहीं आ सके। उन्हें हिंदू, इस्लाम और ईसाई धर्म को मानने वाले भारतीय मूल के लोगों की भर्ती करनी थी। निचली जातियों और अछूतों के लोगों को ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में सैनिकों के रूप में भर्ती नहीं किया गया था। राजपूत, जाट आदि उच्च जातियों के लोगों को भारतीय सेना में भर्ती किया जाता था। मुस्लिम बड़ी संख्या में शामिल हुए क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा दिए जाने वाले वेतन हिंदू और मुस्लिम शासकों द्वारा दिए जाने वाले वेतन से बहुत अधिक थे।

अंग्रेजों ने "मार्शल" और “नॉन-मार्शल” रेस (लड़ाकू और गैर लड़ाकू कौम) का सिद्धांत तैयार किया। अधिकांश सैनिक तथाकथित मार्शल रेस से भर्ती किए गए थे। ब्रिटिश सैनिकों को भारतीय सैनिकों की तुलना में अधिक वेतन दिया जाता था।

भारतीय सैनिकों को ब्रिटिश शासकों के खिलाफ कई शिकायतें थीं। उच्च और महत्वाकांक्षी जातियों और हिंदुओं और मुसलमानों के वर्गों से संबंधित भारतीय थे। किसी ने अफवाह फैला दी कि उन्नीसवीं सदी के मध्य में जिन कारतूसों की आपूर्ति शुरू हुई थी, उन पर सूअरों और गायों की चर्बी लगी हुई थी और कारतूस को दांतों से पकड़कर निकालना पड़ता था। कई लोगों ने नाराजगी दिखाई और नए कारतूसों को संभालने से इनकार कर दिया। कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने कारतूस वापस ले लिए और भारतीय सैनिकों को सलाह दी कि वे अपनी पसंद के तेल के साथ कारतूस को तर कर लें। कुछ क्षेत्रों में विद्रोह सैनिकों द्वारा वापस ले लिया गया था। लेकिन जानवरों की चर्बी से लदी गोलियों और कारतूसों के बारे में अफवाह बहुत तेजी से फैल गई, खासकर उत्तरी क्षेत्र में और इसके परिणामस्वरूप कई ब्रिटिश अधिकारी मारे गए, उनकी संपत्ति लूट ली गई, व्यापारियों की हत्या कर दी गई। इस विद्रोह के पीछे कौन था, अलग-अलग सिद्धांत हैं और कई किताबें लिखी गई हैं। कुछ लोगों ने इस विद्रोह को "स्वतंत्रता का पहला युद्ध" कहा और कुछ लोगों ने इसे लोगों का विद्रोह और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कहा। स्थिति को नियंत्रण में लाया गया और अंग्रेजों ने विद्रोही सैनिकों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की।

सेना में कुछ नए परिवर्तन

पंजाब में सिख: महाराजा रणजीत सिंह सबसे प्रसिद्ध शासक थे जिन्होंने उत्तरी भारत के बड़े क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की और सिख साम्राज्य का निर्माण किया। उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने कई शासकों को अपना मित्र और सहयोगी बना लिया। पटियाला, नाभा, कलसिया, कपूरथला ने अंग्रेजों का समर्थन किया। अंग्रेजों ने सिखों को सेना में भर्ती किया और वे बहुत प्रतिबद्ध और बहादुर सैनिक साबित हुए।

सेना में अछूत

चमड़ा कामगार (चमार), स्वीपर और मैला ढोने वाले, कसाई (खाटिक) ने छावनियों में अंग्रेजों की सेवा की और नौकरशाही का काम किया। उन्होंने सेना के अधीन सेवा की लेकिन उन्हें सैनिकों के रूप में भर्ती नहीं किया गया। विद्रोह के दौरान उच्च जातियों के सैनिकों की कमी के कारण अंग्रेजों ने अपनी नीति बदल दी और चमारों और चुहड़ा  को सैनिकों के रूप में भर्ती करना शुरू कर दिया। उन्होंने मज़हबी-रामदसिया रेजिमेंट का गठन किया और कुछ प्रशिक्षण देकर उन्हें विद्रोही सैनिकों के खिलाफ लड़ने के लिए दिल्ली और उत्तर प्रदेश भेज दिया। अंग्रेजों ने हिंदी पट्टी में एक मेहतर रेजीमेंट भी खड़ी की और उन्हें न केवल सैनिकों के रूप में इस्तेमाल किया गया बल्कि उत्तर प्रदेश (कानपुर) और पड़ोसी राज्यों में उच्च जाति के सैनिकों को दंडित करने के लिए भी नियुक्त किया गया। विद्रोह के बाद इन रेजिमेंटों को भंग कर दिया गया था लेकिन मज़हबी-रामदसिया रेजिमेंट को जारी रखने की अनुमति दी गई थी।

विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने अपनी भर्ती की नीति बदल दी और सिखों, मुसलमानों आदि से संबंधित लोगों की सावधानीपूर्वक भर्ती की। उच्च जाति के लोगों विशेषकर व्यापारिक समुदायों द्वारा शुरू किए गए राजनीतिक संघर्ष को देखते हुए, अंग्रेजों ने अपनी नीति बदल दी।

जर्मनी के खिलाफ प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के दौरान अंग्रेजों ने फिर से अपनी भर्ती नीति में बदलाव किया। हिंदुओं, मुसलमानों, सिखों आदि की विभिन्न जातियों के लोगों को सैनिकों के रूप में भर्ती किया गया और यूरोप में लड़ने के लिए भेजा गया। जर्मनी की हार हुई और यूरोपीय राजनीति में बदलाव आया।

द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1946)

अंग्रेजों ने देश में विकसित हो रही राजनीतिक स्थिति को देखते हुए कुछ बदलाव किए थे।

गांधी एक शक्तिशाली राजनीतिक नेता के रूप में उभर रहे थे। वह हिंदू धर्म को बढ़ावा दे रहे थे और 'सांप्रदायिकता' के खिलाफ लड़ाई का समर्थन भी कर रहे थे, जर्मनी ने फिर से युद्ध शुरू किया जो जल्द ही ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम और यूरोप के अन्य देशों में फैल गया और उन्हें प्रभावित किया। विशेष रूप से ब्रिटेन के  कुछ प्रमुख औद्योगिक केंद्र बमबारी के आसान लक्ष्य बन गए। जर्मन ब्रिटेन में नहीं उतरे। अंग्रेजों ने कुछ उद्योगों को भारत में स्थानांतरित कर दिया। युद्ध सामग्री के निर्माण और लोगों को प्रशिक्षण देने के लिए विशेष व्यवस्था की गई थी।

डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर की भूमिका

1942 में डॉ. अम्बेडकर को वायसराय की कार्यकारी परिषद में श्रम सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया था। श्रम विभाग न केवल श्रम की समस्याओं से निपटता था, तकनीकी प्रशिक्षण और अन्य विभागों को भी श्रम विभाग के तहत स्थानांतरित कर दिया गया था। श्री एच.सी. परिऑर  आईसीएस सचिव थे; ब्रिगेडियर ए.डब्ल्यू.एच. री निदेशक तकनीकी प्रशिक्षण थे। खान बहादुर मुश्ताक अहमद गुरमानी निदेशक प्रचार और भर्ती थे। डॉ. अम्बेडकर ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को प्रशिक्षित करने के लिए कई नई योजनाएं शुरू कीं। बेविन प्रशिक्षण योजना के तहत कई लोगों को इंग्लैंड में इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी की विभिन्न शाखाओं में अध्ययन करने और प्रशिक्षण लेने के लिए भेजा गया था। भारत लौटने के बाद इन युवकों ने बहुत महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। बाबासाहेब ने सिविल पायनियर फोर्स और अर्ध-सैन्य बलों को भी खड़ा किया। उन्होंने महार रेजीमेंट को खड़ा करने में भी विशेष रुचि ली। श्रम विभाग द्वारा संचालित प्रशिक्षण केंद्र में हजारों युवकों को तकनीशियन के रूप में प्रशिक्षित किया गया।

कई रेजिमेंट और सैनिक केवल तकनीकी काम करते थे। इन विभागों में अनुसूचित जाति और जनजाति के कई लोग भी शामिल हुए। कुछ I.E.M.E और आर.ई.एम.ई. में उच्च पदों पर पहुंचे।

डॉ. अम्बेडकर के नियंत्रण और मार्गदर्शन में श्रम विभाग ने भारतीय सेना के धर्मनिरपेक्षीकरण में एक बहुत ही महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका निभाई। इन उपेक्षित समुदायों के कई लोग भी भारतीय वायु सेना और रॉयल इंडियन आर्मी में शामिल हो गए।

भारत सरकार में श्रम सदस्य के रूप में डॉ. अम्बेडकर के योगदान ने कुछ उपायों की शुरुआत की, जो भारत के लोगों के दृष्टिकोण में ऐतिहासिक परिवर्तन लाए, विशेष रूप से समाज के दलित और पिछड़े वर्गों के बीच।

 

(भगवान दास का जन्म 23 अप्रैल 1927 को जुतोग छावनी, शिमला (हिमाचल प्रदेश), भारत में एक अछूत परिवार में हुआ था। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रॉयल इंडियन एयर फोर्स में सेवा की और विमुद्रीकरण के बाद भारत सरकार के विभिन्न विभागों में विभिन्न क्षमताओं में सेवा की। सहारनपुर, शिमला और दिल्ली में। उन्होंने इतिहास में एमए (पंजाब विश्वविद्यालय) और एलएलबी दिल्ली विश्वविद्यालय से किया। उन्होंने '1840-1915 तक “लेखापरीक्षा विभाग के भारतीयकरण पर शोध किया। 2010 में उनका निधन हो गया।)

 

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