सोमवार, 22 जुलाई 2019

सोनभद्र आदिवासी नरसंहार और भूमि का प्रश्न


सोनभद्र आदिवासी नरसंहार और भूमि का प्रश्न
-एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
सोनभद्र में 17 जुलाई को उभ्भी गाँव में ज़मीन के कब्ज़े को लेकर आदिवासियों के नरसंहार की घटना से सभी को सतर्क होने तथा समय से भूमि के प्रशन को हल करने की ज़रुरत और महत्त्व को सझना चाहिए. इसके लिए आदिवासी बाहुल्य जिले सोनभद्र, चंदौली तथा इलाहबाद में दलितों तथा आदिवासियों के लम्बे समय से चले आ रहे तनाव, शोषण तथा संघर्ष के इतिहास को जानना और समझना ज़रूरी है. सोनभद्र उत्तर प्रदेश का क्षेत्रफल में सबसे बड़ा जिला है. यह एक आदिवासी-दलित बाहुल्य जिला है. इस जिले की कुल आबादी 18.62 लाख है जिस में से 4.2 लाख  दलित और 3.85 लाख आदिवासी हैं जोकि कुल आबादी का लगभग 44% है. यह जिला कैमूर की पहाड़ियों में बसा है. इसका 3.26 हेक्टेयर भाग जंगल और पहाड़ से आच्छादित है. इसकी सीमा बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश से लगती है.इसके पड़ोसी जिलों चंदौली के चकिया, नौगढ़ क्षेत्र तथा इलाहबाद में भी आदिवासियों की काफी आबादी है.
जैसाकि सर्वविदित है कि ग्रामीण परिवेश में भूमि का बहुत महत्त्व होता है. सोनभद्र जिले की कुल आबादी (18.62 लाख) का तीन चौथाई भाग (15.48 लाख) ग्रामीण क्षेत्र में रहता है. अतःइन सबके लिए भूमि का स्वामित्व अति महत्वपूर्ण है. ग्रामीण लोगों में बहुत कम परिवारों के पास पुश्तैनी ज़मीन है. अधिकतर लोग जंगल की ज़मीन पर बसे हैं परन्तु उस पर उनका मालिकाना हक़ नहीं है. इसी लिए जंगल की ज़मीन पर बसे लोगों को स्थायित्व प्रदान करने के उद्देश्य से 2006 में वनाधिकार अधिनयम बनाया गया था जिसके अनुसार जंगल में रहने वाले आदिवासियों एवं वनवासियों को उनके कब्ज़े वाली ज़मीन का मालिकाना हक़ अधिकार के रूप में दिया जाना था. इस हेतु निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार प्रत्येक परिवार का ज़मीन का दावा तैयार करके ग्राम वनाधिकार समिति की जाँच एवं संस्तुति के बाद राजस्व विभाग को भेजा जाना था जहाँ  उसका सत्यापन कर दावे को स्वीकृत किया जाना था जिससे उन्हें उक्त भूमि पर मालिकाना हक़ प्राप्त हो जाना था.
वनाधिकार अधिनयम 2008 में लागू हुआ, उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती की बहुत मज़बूत सरकार थी. उसी वर्ष इस कानून के अंतर्गत  सोनभद्र जिले में वनाधिकार के 65,500 दावे तैयार हुए परन्तु 2009 में इनमे से 53,500 अर्थात 81% दावे ख़ारिज कर दिए गये. मायावती सरकार की इस कार्रवाही  के खिलाफ आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने अपने संगठन आदिवासी-वनवासी महासभा के माध्यम से आवाज़ उठाई परन्तु मायावती सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. अंतत मजबूर हो कर हमे इलाहाबाद हाई कोर्ट की शरण में जाना पड़ा. हाई कोर्ट ने हमारे अनुरोध को स्वीकार करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को सभी दावों की पुनः सुनवाई करने का आदेश अगस्त,  2013 को दिया परन्तु तब तक मायवती की सरकार जा चुकी थी और उस का स्थान अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार ने ले लिया था. हम लोगों ने 5 साल तक अखिलेश सरकार से इलाहबाद हाई कोर्ट के आदेश के अनुपालन में कार्रवाही करने का अनुरोध किया परन्तु उन्होंने हमारी एक भी नहीं सुनी और एक भी दावे का निस्तारण नहीं किया. इससे स्पष्ट है कि किस प्रकार मायावती और अखिलेश की सरकार ने सोनभद्र के दलितों और आदिवासियों को बेरहमी से भूमि के अधिकार से वंचित रखा.
आइये वनाधिकार कानून को लागू करने के बारे में अब ज़रा भाजपा की योगी सरकार की भूमिका को भी देख लिया जाए. यह सर्विदित है कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश के 2017 विधान सभा चुनाव में अपने संकल्प पत्र में लिखा था कि यदि उसकी सरकार बनेगी तो ज़मीन के सभी अवैध कब्जे (ग्राम सभा तथा वनभूमि ) खाली कराए जायेंगे. मार्च 2017 में सरकार बनने पर जोगी सरकार  ने इस पर तुरंत कार्रवाही शुरू कर दी और इसके अनुपालन में ग्राम समाज की भूमि तथा जंगल की ज़मीन से उन लोगों को बेदखल किया जाने लगा जिन का ज़मीन पर कब्ज़ा तो था परन्तु उनका पट्टा उनके नाम नहीं था. इस आदेश के अनुसार वनाधिकार के ख़ारिज हुए 53,500 दावेदारों को भी बेदखल किया जाना था. जोगी सरकार की बेदखली की इस कार्रवाही के खिलाफ हम लोगों को फिर इलाहाबाद हाई कोर्ट की शरण में जाना पड़ा. हम लोगों ने बेदखली की कार्रवाही को रोकने तथा सभी दावों के पुनर परीक्षण का अनुरोध किया.  इलाहबाद हाई कोर्ट ने हमारे अनुरोध पर बेदखली की कार्रवाही पर रोक लगाने, सभी दावेदारों को छुटा हुआ दावा दाखिल करने तथा पुराने दावों पर अपील करने के लिए डेढ़ महीने का समय दिया तथा सरकार को तीन महीने में सभी दावों की पुनः सुनवाई करके निस्तारण करने का आदेश दिया.  अब उक्त अवधि पूर्ण हो चुकी है परन्तु योगी  सरकार द्वारा इस संबंध में कोई भी कार्रवाही नहीं की गयी है.
इसी बीच माह फरवरी, 2019 में वाईल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया तथा दो अन्य संस्थाओं  द्वारा सुप्रीम कोर्ट में वनाधिकार कानून की वैधता को चुनौती दी गयी तथा वनाधिकार के अंतर्गत निरस्त किये गये दावों से जुडी ज़मीन को खाली करवाने हेतु सभी राज्य सरकारों को आदेशित करने का अनुरोध किया गया. मोदी सरकार ने इसमें आदिवासियों/वनवासियों का पक्ष नहीं रखा. परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट ने 24 जुलाई तक ख़ारिज  हुए सभी दावों की ज़मीन खाली कराने का आदेश पारित कर दिया. इससे प्रभावित होने वाले परिवारों की संख्या 20 लाख है जिसमे सोनभद्र जिले के 65,500 परिवार हैं. इस आदेश के विरुद्ध हम लोगों ने आदिवासी वनवासी महासभा के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई जिसमें हम लोगों ने बेदखली पर अपने आदेश पर रोक तथा सभी राज्यों को सभी दावों का पुनर्परीक्षण करने का अनुरोध किया.  इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हमारे अनुरोध को स्वीकार करते हुए 10 जुलाई तक बेदखली पर रोक तथा सभी राज्यों को सभी दावों की पुन: सुनवाई का आदेश दिया है जिस पर कार्रवाही की जानी थी परन्तु उत्तर प्रदेश में अब तक कोई कारवाही की गयी प्रतीत नहीं होती है. .
इसी प्रकार सोनभद्र जिले में ग्राम समाज की हजारों हेक्टेयर ज़मीन उपलब्ध है जिसका भूमिहीनों को वितरण नहीं किया गया. यह काम मायावती के चार वार के मुख्यमंत्री काल में नहीं किया गया जबकि शुरू में बसपा का नारा रहा है,” जो ज़मीन सरकारी है, वो ज़मीन हमारी है.” अखिलेश सरकार ने तो जानबूझ कर दलितों को भूमि आवंटन किया ही नहीं बल्कि रेविन्यू कोड को संशोधित करके दलितों की भूमि आवंटन की वरीयता ही बदल दी थी. वर्तमान में ग्राम समाज की ज़मीन पर दबंग लोगों का कब्ज़ा है. इस समय ग्राम समाज की ज़मीन पर यदि दलितों का कब्ज़ा है भी तो उसका पट्टा न होने के कारण उन्हें योगी सरकार का बेदखली का नोटिस मिल चुका है. मायावती और अखिलेश सरकार द्वारा भूमिहीन दलितों को ग्राम समाज की ज़मीन का पट्टा न दिए जाने से वे इन दोनों से बहुत नाराज़ थे जिस कारण उन्होंने इनके गतबंधन को वोट नहीं दिया.
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि किस तरह पहले मायावती और फिर अखिलेश यादव की सरकार ने दलितों, आदिवासियों और वनवासियों को वनाधिकार कानून के अंतर्गत भूमि के अधिकार से वन्चित किया है और भाजपा सरकार में उन पर बेदखली की तलवार लटकी हुयी है. यह विचारणीय है कि यदि मायावती और अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल में इन लोगों के दावों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करके उन्हें भूमि का अधिकार दे दिया होता तो आज उनकी स्थिति इतनी दयनीय नहीं होती. इसी प्रकार यदि मायावती ने अपने शासन काल में भूमिहीनों को ग्रामसभा की ज़मीन, जो आज भी दबंगों के कब्जे में है, के पट्टे कर दिए होते तो उनकी आर्थिक हालत कितनी बदल चुकी होती.
अतः अब यह ज़रूरी है कि भाजपा सरकार सोनभद्र, चकिया-नौगढ़,(चंदौली),  मिर्ज़ापुर तथा उत्तर प्रदेश के अन्य जिले यहाँ पर आदिवासी रहते हैं और वहां पर वनाधिकार कानून लागू होता है, में सुप्रीम के निर्देशानुसार निर्धारित प्रक्रिया का अनुपालन करते हुए सभी दावों का पुनरपरीक्षण करवाए तथा उन्हें भूमि का मालिकाना हक़ दे. इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि उत्तर प्रदेश सरकार भूमि के प्रशन का सही अध्ययन, अनुसन्धान तथा ट्रस्ट, सहकारी समितियों तथा अन्य बेनामी भूमि धारकों का पता लगाने एवं ग्राम समाज तथा वन की भूमि पर अवैध कब्जों का पता लगाने हेतु भूमि आयोग का गठन करे. यह आयोग पूरे प्रदेश में ग्राम समाज, बंजर,  भूदान तथा अवैध कब्जों वाली भूमि का एक निश्चित अवधि में अध्ययन करे तथा इसके भूमिहीनों को आवंटन सम्बन्धी रिपोर्ट प्रस्तुत करे.
 यह भी ज्ञातव्य है कि पूर्व में पूर्वांचल खास करके चंदौली, सोनभद्र तथा इलाहाबाद जिलों में  भूमि के मामले को लेकर ही तथाकथित नक्सलवाद की समस्या रही है. अब भी अगर भूमि के प्रशन को हल नहीं किया गया तो उक्त सामाजिक- आर्थिक विषमता एवं शोषण के विरुद्ध जन आन्दोलन खड़ा हो सकता है. यद्यपि हम लोगों ने बहुत सारे पुराने नक्सलियों को अपनी पार्टी, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट में शामिल करके उनको राजनीतिक गतिविधियों में लगा रखा है और उनके संघर्ष को कानून के अन्दर नई दिशा दी है परन्तु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सोभाद्र, चंदौली तथा मिर्ज़ापुर की सीमा नक्सलवाद तथा माओवादी गतिविधियों से प्रभावित सीमावर्ती बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश से लगती है, का प्रभाव उत्तर प्रदेश के इन जिलों में भी पड़ सकता है. अतः उत्तर प्रदेश को उस प्रकार की अवैधानिक गतिविधियों से बचाने के लिए भूमि के प्रशन को उच्च प्राथमिकता के आधार पर ग्राम समाज तथा वनाधिकार की भूमि को भूमिहीनों तथा आदिवासियों में बाँटना देशहित तथा जनहित में ज़रूरी है.

शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

उत्तर प्रदेश में ज़मीन के सवाल को हल करे योगी सरकार


उत्तर प्रदेश में ज़मीन के सवाल को हल करे योगी सरकार
-एस.आर.दारापुरी आई.पी.एस. (से.नि.)
हाल में सोनभद्र जिले के उभी गाँव में ज़मीन के कब्जे को लेकर हुए नरसंहार से, जिसमे 10 लोग मर चुके हैं तथा तिन दर्जन के करीब घायल हैं, भूमि का सवाल फिर चर्चा के केंद्र में आ गया है. इससे एक बात स्पष्ट तौर पर उभर कर आई है कि इस क्षेत्र में किस तरह अधिकारियों, राजनेताओं और दबंग लोगों ने आदिवासियों, ग्राम समाज तथा जंगल की ज़मीन को हथिया रखा है. इस प्रकार की स्थिति पूर्वांचल के सोनभद्र, मिर्ज़ापुर और चंदौली जिले की चकिया और नौगढ़ तहसील में व्याप्त है. इन जिलों में वन में रहने वाले आदिवासियों और उस पर आश्रित लोगों (वनवासी) की काफी बड़ी जनसँख्या है.इन जिलों में जंगल तथा पहाड़ हैं और इसमें आदिवासी तथा वनवासी आबादी का बड़ा हिस्सा निवास करता है परन्तु उनमें से अधिकतर लोगों के पास ज़मीन का मालिकाना हक़ नहीं है. जंगल तथा ग्राम समाज की ज़मीन ट्रस्ट तथा सहकारी समितियां बना कर हथिया ली गयी है. यहाँ पर गैर हाज़िर अधिकारियों, राजनेताओं तथा दबंग लोगों के बड़े बड़े फार्म हैं. भूमि पर सीलिंग एक्ट लागू होने पर भी इस क्षेत्र में ज़मींदारी व्यवस्था बरकरार है. इस क्षेत्र में ज़मीन तथा आदिवासियों/दलितों के शोषण के विरुद्ध नक्सलवाडी आन्दोलन काफी लम्बी अवधि तक चलता रहा है. अब भी अगर ज़मीन के प्रशन को शीघ्र हल नहीं किया गया तो इसके पुनः खड़े होने में बहुत देर नहीं लगेगी.
2011 की सामाजिक एवं आर्थिक जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश की दलित आबादी के 42% तथा आदिवासी आबादी के  35%  परिवार भूमिहीन मजदूर है.  1991 में उत्तर प्रदेश में 42.03% दलित भूमिधर थे जो 2001 में 30% रह गए थे और इसके बाद और कम हो गए हैं. उत्तर प्रदेश में बहुत कम दलितों के पास ज़मीन  होने का एक कारण यह है कि यहाँ भी बिहार की तरह भूमि सुधारों को सही ढंग से लागू नहीं किया गया जिस कारण बहुत कम ज़मीन सीलिंग में चिन्हित हो सकी और जो चिन्हित भी हुयी थी उसका भूमिहीनों को सही आवंटन नहीं किया गया. भूमि का थोडा बहुत आवंटन इंदिरा गाँधी के समय 1976-77 में किया गया जिसमे दलितों को छोटे छोटे पट्टे दिए गये थे. इनमें से अभी भी बहुत से पट्टों पर दलितों का कब्ज़ा नही है. सत्ता में आने से पहले बसपा का एक नारा था-“जो ज़मीन सरकारी है, वो ज़मीन हमारी है”. परन्तु चार बार मुख्य मंत्री बनने पर मायावती को इस नारे पर अमल करने की याद नहीं आई. परिणामस्वरूप पच्छिमी यूपी में तो 1995 थोडा बहुत भूमि आवंटन तो हुआ पर पूर्वांचल में वह भी नहीं. इसी लिए आज पूर्वांचल के जिलों खास करके  मिर्ज़ापुर, सोनभद्र तथा चंदौली में अधिकतर दलितों के पास ज़मीन नहीं है जबकि आज भी हरेक गाँव में ग्राम समाज की ज़मीन मौजूद है परन्तु वह दबंगों के कब्जे में है. मायावती ने दबंगों से उक्त ज़मीन खाली कराकर भूमिहीनों को आवंटन नहीं किया क्योंकि इससे उसके सर्वजन वोटर के नाराज़ हो जाने का डर था.
उत्तर प्रदेश में जब 2002 में मुलायम सिंह यादव की सरकार आई तो उन्होंने राजस्व कानून में संशोधन करके दलितों की भूमि आवंटन की वरीयता को ही बदल दिया और उसे अन्य भूमिहीन वर्गों के साथ जोड़ दिया. उनकी सरकार में भूमि आवंटन तो हुआ परन्तु ज़मीन दलितों को न दे कर अन्य जातियों को दे दी गयी. इसके साथ ही उन्होंने कानून में संशोधन करके दलितों की ज़मीन को गैर दलितों द्वारा ख़रीदे जाने वाले प्रतिबंध को भी हटा दिया. उस समय तो यह कानूनी संशोधन टल गया था परन्तु बाद में इसे विधिवत कानून का रूप दे दिया है. इस प्रकार मायावती द्वारा दलितों को भूमि आवंटन न करने, मुलायम सिंह द्वारा कानून में दलितों की भूमि आवंटन की वरीयता को समाप्त करने के कारण उत्तर प्रदेश के दलितों को भूमि आवंटन नहीं हो सका और ग्रामीण क्षेत्र में उनकी स्थिति अति दयनीय बनी हुयी है. 
आदिवासियों के सशक्तिकरण हेतु वनाधिकार कानून- 2006 तथा नियमावली 2008 में लागू हुयी थी. इस कानून के अंतर्गत सुरक्षित जंगल क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों तथा गैर आदिवासियों को उनके कब्ज़े की आवासीय तथा कृषि भूमि का पट्टा दिया जाना था. इस सम्बन्ध में आदिवासियों द्वारा अपने दावे प्रस्तुत किये जाने थे. उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी परन्तु उसकी सरकार ने इस दिशा में कोई भी प्रभावी कार्रवाही नहीं की जिस का नतीजा यह हुआ कि 30.1.2012 को उत्तर प्रदेश में आदिवासियों द्वारा प्रस्तुत कुल 92,406 दावों में से 74,701 दावे अर्थात 81% दावे रद्द कर दिए गए और केवल 17,705 अर्थात केवल 19% दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1,39,777 एकड़ भूमि आवंटित की गयी.
मायावती सरकार की आदिवासियों को भूमि आवंटन में लापरवाही और दलित/आदिवासी विरोधी मानसिकता को देख कर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की थी जिस पर उच्च न्यायालय ने अगस्त, 2013 में राज्य सरकार को वनाधिकार कानून के अंतर्गत दावों को पुनः सुन कर तेज़ी से निस्तारित करने के आदेश दिए थे परन्तु उस पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया. इस प्रकार मायावती तथा मुलायम सरकार की लापरवाही तथा दलित/आदिवासी विरोधी मानसिकता के कारण 80% दावे रद्द कर दिए गए. उत्तर प्रदेश सरकार ने यह भी दिखाया है की सरकारी स्तर पर कोई भी दावा लंबित नहीं है. इसी प्रकार दिनांक 30.04.2016 तक राष्ट्रीय स्तर पर कुल 44,23,464 दावों में से 38,57,379 दावों का निस्तारण किया गया जिन में केवल 17,44,274 दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1.03,58,376 एकड़ भूमि आवंटित की गयी जो कि प्रति दावा लगभग 5 एकड़ बैठती है. राष्ट्रीय स्तर पर अस्वीकृत दावों की औसत 53.8 % है जब कि उत्तर प्रदेश  में यह 80.15% है. इससे स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को लागू करने में घोर लापरवाही बरती गयी है जिस के लिए मायावती तथा अखिलेश सरकार बराबर के ज़िम्मेदार हैं.  
इसके बाद आरएसएस से जुडी कुछ संस्थाओं द्वारा दाखिल की गयी जनहित याचिका में फरवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट का एक निर्णय आया है जिसमें वनाधिकार के सभी रद्द हुए दावों वाली भूमि को 27 जुलाई तक खाली कराने का आदेश पारित किया गया था. इसका प्रभाव उत्तर प्रदेश के 74,000 परिवारों  तथा पूरे देश में 20 लाख परिवारों पर पड़ने वाला है जिनकी बेदखली  होने की सम्भावना है.  सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के विरुद्ध हमारी पार्टी से जुडी आदिवासी वनवासी महासभा ने कुछ अन्य संस्थाओं के साथ मिल कर पिटीशन की थी जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई तक बेदखली पर रोक लगते हुए सभी दावों की पुनः सुनवाई करने की अनुमति दे दी थी परन्तु अभी तक उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इस दिश में कोई भी कार्रवाही की गयी प्रतीत नहीं होती है.
जैसा की सर्वविदित है कि मिर्जापुर, सोनभद्र और खासकर चंदौली के चकिया व नौगढ़ क्षेत्र भूमि प्रश्नों पर आंदोलन, हिंसा और दमन के इलाके रहे हैं. यहां पर बैराठ फार्म से लेकर ढेर सारी अन्य जगहों पर गैरकानूनी ढंग से जमीनों को हड़पा गया है और अधिकांश जमीनों से आदिवासी, वनवासी, खेत मजदूर या तो बेदखल किए गए या जमीनों को हासिल करने के लिए उन्हें जो कानूनी अधिकार मिले थे, उनको उन्हें उपलब्ध नहीं कराया गया। इस पूरे क्षेत्र में जमीन के सवाल को लेकर कई बार हिंसक झड़पें हुई हैं, ढेर सारे लोग मारे गए हैं।
इसलिए यह आवश्यक है कि उत्तर प्रदेश सरकार भूमि के प्रश्न पर महत्वपूर्ण निर्णय ले और भूमि के सवाल को जो विकास, रोजगार और सामाजिक न्याय दिलाने की कुंजी है, उसे वरीयता के आधार पर हल करे।
अतः उत्तर प्रदेश सरकार से अनुरोध है कि -
1. उभा काण्ड की न्यायिक जांच करायी जाए और यह पता लगाया  जाए कि एक प्रशासनिक अधिकारी द्वारा कैसे आदर्श कोपरेटिव सोसाइटी बनाकर ग्रामसभा की इतनी ज्यादा जमीन हड़प ली गयी और बाद में उसके परिजनों द्वारा उसकी बिक्री की गयी। खरीद बिक्री की इस पूरी प्रक्रिया में लिप्त प्रशासनिक अधिकारियों की जवाबदेही तय कर उन्हें दण्डित किया जाए. उभा गांव में कोपरेटिव सोसाइटी की जमीन को सरकार द्वारा अधिगृहित कर जो ग्रामीण उस पर काबिज है उन्हें पट्टा दिया जाए. उभा गांव में पीड़ित ग्रामीणों पर लगाए गुण्डा एक्ट के मुकदमें तत्काल वापस लिए जायें.
2. प्रदेश सरकार जमीन के सवाल को हल करने के लिए भूमि आयोग का गठन करे। उक्त आयोग ट्रस्ट या अन्य माध्यमों से गांव सभा या लोगों से छीन ली गई या हड़प ली गई जमीनों को अधिगृहीत करे और ग्राम सभा की फाजिल जमीनों समेत इन जमीनों को गरीबों में वितरित करने के लिए काम करे. औद्योगिक विकास के नाम पर भी जो जमीनें किसानों से ली गई थीं उन जमीनों को किसानों को वापस कर देना विधि सम्मत होगा.
3. प्रदेश में वनाधिकार कानून को ईमानदारी से लागू किया जाए और इसके तहत प्रस्तुत दावों का विधिसम्मत निस्तारण किया जाए और जो आदिवासी व वनाश्रित पुश्तैनी रूप से वन भूमि पर रहते हैं और खेती किसानी करते है, उन्हें तत्काल उसका पट्टा दिया जाए और जब तक उनके दावों का विधिक निस्तारण नहीं हो जाता तब तक उन्हें बेदखल करने से रोके और वन विभाग उनके खेती-बाड़ी के अधिकार में हस्तक्षेप न करे.
4. भूमि विवादों के तत्काल निस्तारण के लिए उत्तर प्रदेश सरकार रेवन्यू फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन करे।
 उम्मीद की जाती है कि उत्तर प्रदेश में सोनभद्र गांव की हृदय विदारक घटना अन्य जिलों और गांव में न घटित हो, इसलिए उत्तर प्रदेश की सरकार इस दिशा में पहल करेगी और भूमि सुधार को लागू किया जाएगा। यह काम उच्च प्राथमिकता पर एक विशेष अभियान चला कर किया जाना लाभप्रद होगा.


बुधवार, 3 जुलाई 2019

माब लिंचिंग में राज्य/पुलिस की अपराधिक भूमिका


माब लिंचिंग में राज्य/पुलिस की अपराधिक भूमिका
-एस.आर.दारापुरी आई.पी.एस. (से.नि.) एवं संयोजक, जन मंच
इधर कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जबकि किसी न किसी राज्य से माब लिंचिंग यानिकि भीड़ द्वारा हिंसा जिसमें काफी मामलों में इसका शिकार हुए व्यक्ति की मृत्यु तक हो जा रही है, की खबर न आ रही हो. यह स्थिति देश के अन्दर अराजकता, कानून के राज्य का भाव एवं विभिन्न समुदायों में गहरा अविश्वास तथा शत्रुता का प्रतीक है. इसकी एक विशेषता यह है कि माब लिंचिंग अधिकतर अल्प संख्यक (मुसलमान), ईसाई, दलित तथा कमज़ोर तबकों के साथ हो रही है. इसमें अधिकतर हिन्दू- मुसलमान, सवर्ण-दलित वैमनस्य तथा विभिन्न समुदाय/धर्म के व्यक्तियों के बीच प्रेम सम्बन्ध आदि कारक पाए जाते हैं. इसके अतिरिक्त राजनीतिक प्रतिद्वंदिता भी इसका कारक पायी जाती है.
पूर्व में इस प्रकार की घटनाएँ बहुत कम होती थीं. यदाकदा आदिवासियों में किसी महिला को डायन करार देकर उस पर हिंसा की जाती थी. कभी कभार साम्प्रदायिक दंगों में इस प्रकार की हिंसा होना पाया जाता था. परन्तु इधर कुछ वर्षों से भीड़ द्वारा हिंसक हो कर माब लिंचिंग की घटनाओं में एक दम वृद्धि हुयी है.  डाटा दर्शाता है कि 2012 से 2014 तक 6 मामलों की अपेक्षा 2015 से अब तक 121 घटनाएँ हो चुकी हैं. यह वृद्धि भाजपा शासित राज्यों में अधिक पायी गयी है. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार पाया गया है की 2009 से लेकर अब तक माब लिंचिंग के 297  मामले हुए हैं जिनमें से 66% भाजपा शासित राज्यों में हुए हैं.  इनमे अभी तक 98 लोग मर चुके हैं तथा 722 घायल हुए हैं. 2009 से 2019 तक माब लिंचिंग की घटनाओं में 59% मुसलमान थे.  इनमें से 28% घटनाएँ पशु चोरी/तस्करी  के सम्बन्ध में थीं. काफी घटनाएँ गोमांस लेजाने की आशंका को लेकर थीं. कुछ घटनाएँ बच्चा चोरी की आशंका को ले कर भी थीं.
माब लिंचिंग की घटनाओं में देखा गया है कि इनमें हिंदुत्व के समर्थकों की अधिक भागीदारी रही है. यह  सर्वविदित  है कि भाजपा/आरएसएस की हिंदुत्व की राजनीति का मुख्य आधार हिन्दू- मुस्लिम विभाजन एवं ध्रुवीकरण है. माब लिंचिंग के दौरान मुसलमानों से “जय श्रीराम” तथा “भारत माता की जय”  के नारे लगवाना समाज के हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण और आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा के अंग हैं. इधर की काफी घटनाओं में इस प्रकार की हरकत दृष्टिगोचर हुयी है . काफी जगह पर लोगों के पहनावे तथा दाढ़ी-टोपी का भी उपहास उड़ाया गया है.  दरअसल ऐसा व्यवहार मुसलमानों का मनोबल गिराने तथा अपमानित करने के इरादे से किया जाता है. वास्तव में माब लिंचिंग भाजपा की नफरत की राजनीति का एक महत्वपूरण अंग है. भाजपा शासित राज्यों में माब लिंचिंग के आरोपियों पर प्रभावी कार्रवाही न करना  उनको प्रोत्साहन देना है.
माब लिंचिंग की घटनाओं में यह पाया गया है कि पुलिस का व्यवहार अति पक्षपातपूर्ण रहता है. बहुत सी घटनायों में पाया गया है कि मौके पर पुलिस की उपस्थिति के बावजूद घटना को रोकने की कोई कोशिश नहीं की जाती. अधिकतर मामलों में पुलिस मूक दर्शक बनी रहती है जोकि उसकी  कर्तव्य की अवहेलना का प्रतीक है और एक सरकारी कर्मचारी का दंडनीय अपराधिक कृत्य है. यह एक दृष्टि से राज्य की अपने नागरिकों की जानमाल की सुरक्षा सुनिश्चित करने के कर्तव्य की अवहेलना है  तथा कुछ विशेष समुदायों के प्रति वैमनस्य का भी प्रतीक है. यह राज्य के फासीवादी रुझान का प्रतीक है जो अपने विरोधियों को नुकसान पहुँचाने तथा मनोबल गिराने का उपक्रम है.
इसके अतिरिक्त यह भी पाया गया है कि एक समुदाय की हिंसा को उचित ठहराने और अपराध को हल्का करने के इरादे से हिंसा के शिकार हुए लोगों के विरुद्ध झूठे/ सच्चे क्रासकेस दर्ज कर दिए जाते हैं और उनको भी आरोपी बना दिया जाता है. इससे हिंसा के दोषी लोगों को बहुत लाभ पहुँचता है और केस कमज़ोर हो जाता है. इन मामलों की तफ्तीश में पुलिस की भूमिका बहुत पक्षपात पूर्ण रहती है. वह हिंसा के शिकार पक्ष के सुबूत या ब्यान को सही ढंग से दर्ज नहीं करती जिस कारण उनका केस कमज़ोर हो जाता है. कई मामलों में पाया गया कि भीड़ हिंसा के शिकार लोग वैध तरीके से जानवर खरीद कर ले जा रहे थे और उनके पास खरीददारी सम्बन्धी कागजात भी थे जो गोरक्ष्कों द्वारा छीन लिए गये और उन पर पशु तस्करी का आरोप लगा कर मारपीट की गयी. पुलिस ने भी गोरक्ष्कों की बात मान कर पीड़ित लोगों पर ही पशु तस्करी का आरोप लगा कर चालान कर दिया जबकि पुलिस को उनकी बात का सत्यापन करना चाहिए था. परन्तु ऐसा जानबूझ कर नहीं किया जाता.  पहलू खान का मामला इसकी ज्वलंत उदहारण है.
जैसाकि ऊपर अंकित किया गया है कि माब लिंचिंग के मामलों में पुलिस का व्यवहार अधिकतर पक्षपातपूर्ण पाया जाता है. यह वास्तव में पीड़ित वर्गों के प्रति राज्य के व्यवहार को ही प्रदर्शित करता है. हाल में झारखण्ड में तबरेज़ की हुयी माब लिंचिंग इसका ज्वलंत उदाहरण है. 18 जून को तबरेज़ पर चोरी की आशंका में तब हमला किया गया जब वह रात में जमशेदपुर से अपनें गाँव सराइकेला जा रहा था. उसे रात भर बुरी तरह से पीटा गया. अगले दिन उसे पुलिस के सुपुर्द किया गया परन्तु पुलिस ने उसे कोई डाक्टरी सहायता नहीं दिलवाई जबकि वह बुरी तरह से घायल था. इतना ही नहीं जब उसके घर वाले उसे मिलने थाने पर गए तो उनके अनुरोध पर भी उसे इलाज हेतु नहीं भेजा गया. इसके बाद उसे चोरी के मामले में अदालत में पेश करके जेल भेज दिया गया.  जहाँ पर भी उसे उचित डाक्टरी सहायता नहीं दिलाई गयी जिसके फलस्वरूप 22 जून को उसकी मौत हो गयी. यह बड़ी चिंता की बात है कि तबरेज़ के मामले में न तो पुलिस, न अदालत और न ही जेल अधिकारियों ने उसे नियमानुसार डाक्टरी सहायता दिलाने की कार्रवाही की जिसके अभाव में उसकी मौत हो गयी. राज्य/पुलिस का यह व्यवहार राज्य के कानून के शासन को जानबूझ कर लागू न करना बहुत चिंता की बात है.
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि माब लिंचिंग केवल हिन्दू-मुस्लिम, हिन्दू-दलित या हिन्दू- ईसाई समस्या नहीं है बल्कि राज्य द्वारा नागरिकों की जानमाल की सुरक्षा की गारंटी, कानून का राज  एवं न्याय व्यवस्था को सुचारू रूप से लागू होने देने में विफलता है.  यह राज्य के जनविरोधी फासिस्ट रुझान का प्रबल प्रतीक है जिसका डट कर मुकाबला किये जाने की ज़रुरत है. इसके साथ ही यह यह भाजपा/आरएसएस की नफरत की राजनीति का दुष्परिणाम भी है जिसके विरुद्ध सभी धर्मनिरपेक्ष, जनवादी एवं लोकतान्त्रिक ताकतों को गोलबंद होना होगा.  

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