रविवार, 17 फ़रवरी 2019

मोदी सरकार की कोई भी दुस्साहसिक कार्यवाही अलगाववादियों को मदद करेगी-अखिलेन्द्र

मोदी सरकार की कोई भी दुस्साहसिक कार्यवाही अलगाववादियों को मदद करेगी-अखिलेन्द्र
 सुरक्षा चूक और राजनैतिक असफलता की जिम्मेदारी ले मोदी सरकार
 कश्मीर समस्या का राजनैतिक-कूटनीतिक हल करें सरकार
पुलवामा में मारे गये सीआरपीएफ के शहीदों के परिवारों के दुःख के साथ हम पूरी तौर पर शरीक हैं और अपनी एकजुटता सेना और सुरक्षा बलों के साथ व्यक्त करते हैं। पुलवामा की घटना भारी सुरक्षा चूक और मुख्य तौर पर मोदी सरकार की लगभग पिछले 5 वर्षों से चल रही कश्मीर नीति व पाकिस्तान नीति की असफलता का परिणाम है और मोदी सरकार को इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। यह बातें आज ओबरा कार्यालय में सोनभद्र, मिर्जापुर व चंदौली के अगुवा साथियो के साथ बातचीत करते हुए स्वराज अभियान के राष्ट्रीय कार्यसमिति सदस्य अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने कहीं।
उन्होंने कहा कि भाजपा कश्मीर समस्या को हल करने में कम और कश्मीर घाटी में अपना जनाधार बढ़ाने में ज्यादा दिलचस्पी ले रही थी। इसी के तहत जिस पीडीपी के बारे में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा आतंकियों के सहयोगी दल होने की बात करते थे उसके साथ उन्होंने मिलकर जम्मू कश्मीर में सरकार बनाई और पार्टी स्वार्थ में ही सरकार को गिरा भी दिया। घाटी में शांति बहाली और लोगों के अलगाव को दूर करने की कोई राजनीतिक समझ मोदी सरकार में नहीं दिखी। उनके कार्यकाल में केंद्र सरकार व राज्य सरकार से कश्मीरी अवाम का अलगाव बढ़ता गया और आज हालत यह हो गई कि कश्मीरी नौजवान आत्मघाती दस्ते में तब्दील होते जा रहे हैं। पूरे देश को अपने रंग में रंगने की आरएसएस की जो आत्मघाती व वैचारिक कट्टरपन की नीति है, उसी का परिणाम है कि उत्तर पूर्व में भी अलगाव बढ़ रहा है और नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में उत्तर पूर्व भारत में ‘हैलो चाईना बाॅय बाॅय इंडिया‘ के नारे लग रहे हैं ।
कश्मीर की समस्या इजराइल के विरूद्ध फिलीस्तीन के पैटर्न पर बढ़ती जा रही है जो पूरी तौर पर चिंताजनक है। पाकिस्तान के बारे में भी कोई ठोस नीति मोदी सरकार की नहीं दिखती है। कभी दोस्ती कभी युद्ध का माहौल बनाया जाता है। दरअसल पूरी विदेश नीति ही दिशाहीन हो गई है और सभी पड़ोसी मुल्कों के साथ सम्बंध खराब होते गए हैं यहां तक कि भूटान से भी पहले वाले सहज सम्बंध नहीं रह गया है। इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तान के विरूद्ध लिया गया कोई भी दुस्साहिक कदम अलगाववादियों का मनोबल बढायेगा, कश्मीर की समस्या को और जटिल करेगा और विदेशी ताकतों को भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप का मौका देगा। इराक और अफगानिस्तान में अमरीकी दमन के बावजूद आतंकी घटनाएं खत्म नहीं हुई हैं।
भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके संगठनों द्वारा पैदा किया जा रहा युद्धोन्माद व सांप्रदायिकता चिंताजनक है, इससे देश को बचने की जरूरत है। जो लोग ‘खून का बदला खून‘, ‘युद्ध करो-युद्ध करो‘ का नारा लगा रहे हैं वह लोग बेरोजगारी, दरिद्रता व भयावह गरीबी में फंसे आम जनजीवन की जिंदगी को तबाही की तरफ ले जाना चाहते हैं और युद्ध से मालामाल होने वाले हथियार के सौदागरों को मदद पहुंचा रहे हैं। 1971 में पाकिस्तान के विरूद्ध इन्दिरा की जीत की नसीहत का आज कोई मायने मतलब नहीं है, क्योंकि उस समय उनकी जीत के पीछे अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के संतुलन के साथ-साथ बंगलादेश की मुक्ति का राष्ट्रीय आंदोलन भी था। इसलिए ऐसे नाजुक वक्त में देश को नफरत व उन्माद में ढकेलने की जगह ठण्डे दिमाग से प्रभावशाली राजनैतिक-कूटनीतिक पहल लेने की जरूरत है जिससे पाकिस्तान पर दबाब बनाया जा सके और कश्मीर की आवाम का विश्वास भी जीता जा सके। हमें यह याद रखना होगा कि राजनीतिक खालीपन में ही अलगाव और आतंकी घटनाएं बढ़ती हैं । इसलिए हिंसा और युद्धोन्माद नहीं कश्मीर के सभी हिस्सेदारों (स्टेक होल्डरों) से वार्ता की जरूरत अब भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी चार साल पहले थी। इस तरह की कार्यवाही यदि चार साल पहले हुई होती तो सम्भवतः उरी, पठानकोट और अब पुलवामा जैसी आतंकी घटनाओं से देश बच गया होता और किसानों, मजदूरों और गरीबों के सैनिक बेटों की जिदंगी बच गयी होती।
दिनकर कपूर
राज्य कार्यसमिति सदस्य
स्वराज अभियान, उo प्रo द्वारा जारी।

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019

आर्थिक आधार पर आरक्षण : आशंकाएं एवं नयी संभावनाएं - एस.आर.दारापुरी


आर्थिक आधार पर आरक्षण : आशंकाएं एवं नयी संभावनाएं
-एस.आर.दारापुरी पूर्व आई.जी. एवं संयोजक जन मंच  
हाल में भाजपा सरकार द्वारा आर्थिक तौर पर वंचित लोगों को सरकारी नौकरियों में 10% आरक्षण देने सम्बन्धी बिल पास कराया गया है और संविधान संशोधन किया है जिसे राष्ट्रपति की स्वीकृति भी मिल गयी है. यह भी उल्लेखनीय है कि इसे लगभग सभी राजनीतिक दलों का समर्थन मिला है.  यद्यपि  केन्द्रीय सरकार द्वारा इस सम्बन्ध में अभी तक कोई शासनादेश जारी नहीं किया गया है परन्तु गुजरात सरकार ने इसे तुरंत लागू करने का फैसला किया है. यह भी उल्लेखनीय है कि इसे सवर्णों के ही एक संगठन द्वारा सुप्रीम कोर्ट चुनौती भी दे दी गयी है.
इस व्यवस्था के अंतर्गत समाज के आर्थिक तौर पर पिछड़े तबके के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं (सरकारी एवं गैर सरकारी) में 10% आरक्षण देने का प्रावधान किया गया है. इस श्रेणी के लोगों को चिन्हित करने के लिए 8 लाख से कम वार्षिक आय, 5 एकड़ से कम ज़मीन, शहरी क्षेत्र में 1000 वर्ग फुट, छोटे नगरों में 100 वर्ग गज तथा ग्रामीण क्षेत्र में 200 वर्ग गज से कम पलाट होने की शर्त रखी गयी है. यह भी उल्लेखनीय है इस माप दंड के अंतर्गत समाज का 90% हिस्सा आ जाता है.
अब देखने की बात यह है कि क्या यह भाजपा सरकार की गरीबों को वास्तविक लाभ पहुँचाने की भावना से प्रेरित है या केवल आसन्न चुनाव में राजनीतिक लाभ के लिए गरीब लोगों को प्रभावित करने का प्रयास है. यह बात भी सही है कि अब तक भाजपा तमाम वायदों और सबका साथ,  सब का विकास जैसे नारों के बावजूद समाज के कमज़ोर तबकों, किसानों और मजदूरों  की समस्यायों को हल करने में नाकामयाब रही है. सरकार प्रति वर्ष 2 करोड़ रोज़गार पैदा करने के वायदे के विपरीत कुछ लाख ही रोज़गार पैदा कर सकी है. सरकारी क्षेत्र में रोज़गार के अवसर लगातार कम हो रहे हैं और बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ रही है. ऐसी स्थिति में ऐसा नहीं लगता कि प्रस्तावित आरक्षण व्यवस्था समाज के आर्थिक तौर पर गरीब लोगों को कोई वास्तविक  लाभ पहुंचा पायेगा. अतः बेरोगजारी समस्या का हल तो अधिक रोज़गार सृजन ही है न कि आरक्षण.इसके साथ ही रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने तथा निजी क्षेत्र में भी आरक्षण को लागू करने की ज़रुरत है. 
अब अगर आरक्षण के प्रस्तावित मापदंडों को देखा जाये तो यह बहुत ही अन्यायकारी और अव्यवहारिक हैं क्योंकि 8 लाख की आय सीमा के अंतर्गत गैर अनुसूचित और अनुसूचित जातियों का 90% तबका आ जाता है जिसके लिए 10% आरक्षण प्रस्तावित किया गया है. इसी प्रकार 5 एकड़ कृषि भूमि की सीमा भी बहुत ऊँची है जबकि लघु एवं सीमांत कृषकों की संख्या बहुत अधिक है.  इसी प्रकार मकान के पलाट के साईज वाला माप दंड भी बहुत अव्यवहारिक है. अब सरकार अगर वास्तव में समाज के गरीब तबकों को कोई लाभ पहुंचना चाहती है तो 8 लाख की आय की सीमा को घटा कर आय कर से मुक्त व्यक्तियों और 5 एकड़ की सीमा को कम कर के  लघु एवं सीमांत कृषक और प्लाट का साईज़ निर्बल वर्ग आवास तक ही सीमित किया जाना चाहिए.
यदि  प्रस्तावित आरक्षण के संवैधानिक पहलू को देखा जाए तो वर्तमान में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का कोई भी प्रावधान नहीं है. इससे पहले भी जब जब आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया गया है तो इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर दिया जाता रहा है. आरक्षण का वर्तमान आधार सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ापन सामूहिक और जातिगत है जबकि गरीबी व्यक्तिगत स्थिति है. सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ापन ऐतहासिक परिस्थियों की देन है जबकि आर्थिक पिछड़ापन सरकार की आर्थिक नीतियों का परिणाम है और परिवर्तनीय है. अतः प्रस्तावित आरक्षण के सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किये जाने की भी प्रबल सम्भावना है क्योंकि यह संविधान की मूल भावना के विपरीत है. यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% है जबकि प्रस्तावित आरक्षण इसे 60% तक ले जाता है. इस आधार पर भी इसके सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किये जाने की सम्भावना है.
यह भी विचारणीय है कि आरक्षण का मूल प्रयोजन सदियों से व्यवस्था से बाहर रखे गये अनुसूचित जाति/ जनजाति तथा पिछड़े वर्ग  के लोगों को प्रशासन, राजनीति और शिक्षा के क्षेत्र में विशेष अवसर दे कर प्रतिनिधित्व द्वारा शेष वर्गों के समकक्ष समानता स्थापित करने का है. यह कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है. उच्च वर्गों की गरीबी दूर करने के लिए गरीबी उन्मूलन एवं कल्याणकारी कार्यक्रमों को मजबूती से लागू करने की है जबकि सरकार इन कार्यक्रमों का बजट लगातार घटा रही है. अतः राज्य के कल्याणकरी कार्यक्रमों हेतु अधिक बजट दिए जाने की ज़रुरत है.
सामाजिक न्याय के नाम पर  दलित बहुजन दृष्टि वाले कुछ नेता यह मांग उठाते हैं कि आरक्षण को सभी जातियों में उनकी आबादी के अनुपात में बाँट देना चाहिए. यह तर्क एक दम बेतुका है क्योंकि आरक्षण कोई खैरात नहीं है जिसे सबको बाँट देना चाहिए. यह एतहासिक तौर पर शोषण और भेदभाव का शिकार हुए तबकों को विशेष अवसर देकर मुख्य धारा मे प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था है न कि कोई आर्थिक लाभ पहुँचाने की.  इसके अतिरिक्त जब वर्तमान व्यवस्था में आरक्षण  की अधिकतम सीमा 50% है  तो फिर इसे 100% कैसे किया जा सकता है. इस सम्बन्ध में दलित वर्ग के अन्दर भी एक भय पैदा हो गया है कि यदि आज सवर्णों के लिए आरक्षण का आर्थिक आधार हो जाने से कल को दलितों के आरक्षण के जातीय आधार को अर्थिक आधार में बदलने की मांग जोर पकड़ सकती है.
मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित आरक्षण का एक सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि इससे सवर्णों द्वारा आरक्षण के विरोध का आधार समाप्त हो गया है क्योंकि इसे समाज के सभी वर्गों ने स्वीकार कर लिया है. इससे अब तक दिए गये आरक्षण का औचित्य और आवश्यकता भी सिद्ध हो गयी है. इसके अतिरिक्त इसने सवर्णों के अभिजात्य वर्ग द्वारा इसका विरोध करने के कारण सवर्णों की जातीय एकजुटता को भी कमज़ोर किया है जोकि लोकतंत्र के हित में है और स्वागतयोग्य है.
जिस जल्दबाजी और समय के बिंदु पर मोदी सरकार ने आर्थिक आधार पर आरक्षण की घोषणा की है वह एक राजनीतिक चालबाजी का प्रतीक है. इसके माध्यम से भाजपा एक तो सवर्णों के गरीब तबके जो कि उससे तेजी से हट रहा था को आरक्षण दे कर जोड़े रखने का प्रयास कर रही है वहीं वह इसका विरोध करने वाली पार्टियों को भी गरीब विरोधी घोषित करके लाभ लेने के प्रयास में थी परन्तु उसे इसमें आंशिक सफलता ही मिली है. इसके विपरीत सवर्णों का अभिजात्य वर्ग उससे नाराज़ हो गया है क्योंकि इसमें उसे अपने लिए  खतरा दिखायी दे रहा है. उसे लगता है कि आगे चल कर आरक्षण की सीमा और भी बढ़ाई जा सकती है. इसी लिए किसी और ने नहीं बल्कि “यूथ फार इक्वालिटी”’ जो हमेशा से जातिगत आरक्षण का विरोध करती रही है ने इसका विरोध करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में रिट दाखिल कर दी है. इसके इलावा अगर सुप्रीम कोर्ट इस आरक्षण को रद्द नहीं करती तो यह पिछड़े वर्गों द्वारा भी अपने आरक्षण की सीमा बढ़ाये जाने की मांग को उठाने के लिए प्रेरित कर सकता है.
यह भी सर्वविदित है कि आरक्षण उत्पीडित वर्गों में शासक वर्ग को अपना विस्तार करने और एक नये अभिजात्य वर्ग को जन्म देने का अवसर देता  है जिसका स्वार्थ उसे शासक वर्ग में आत्मसात होने के लिए प्रेरित करता है. यह देखा गया है कि दलित और पिछड़े वर्गों में जो अभिजात्य वर्ग (क्रीमी लेयर) पैदा हुआ है जिसका स्वार्थ आरक्षण के लाभ को अधिक से अधिक अपने लिए हथियाने का होता है. यह भी एक आम चर्चा है अब तक आरक्षण का लाभ केवल कुछ संपन्न परिवारों तक ही सीमित हो कर रह गया है. यह भी आरोप लगाया जाता है कि इन वर्गों का अभिजात्य हिस्सा आरक्षण के माप दंडों शिथिल करने का विरोध करता है,  जैसे क्रीमी लेयर के लिए आय सीमा को कम किया जाना. सवर्ण तबका प्राय यह मांग करता रहा है कि इन वर्गों के संपन्न परिवारों तथा एक बार आरक्षण से लाभान्वित हो चुके परिवारों  को आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाना चाहिए. नई आरक्षण व्यवस्था इस बहस को और भी गति देगी.   
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मोदी सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर लाया गया आरक्षण यद्यपि सवर्णों के गरीब तबकों को वास्तविक  लाभ पहुँचाने की बजाये राजनीति से अधिक प्रेरित है परन्तु फिर भी इसके बहुत सारे निहितार्थ हैं. यदि इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द नहीं किया जाता तो यह समाज के अन्दर नये समीकरणों को जन्म दे सकता है और सवर्ण जातीय एकजुटता को कमज़ोर कर सकता है. दलित, ओबीसी तथा सवर्णों के अभिजात्य वर्ग की शेष तबकों के विरुद्ध निहितस्वार्थ के लिए एकजुटता को भी जन्म दे सकता है. जहाँ तक भाजपा के लिए इससे राजनीतिक लाभ की बात है वह बहुत सीमित ही होगा क्योंकि जहाँ एक तरफ गरीब सवर्ण खुश हो सकता है तो वहीं उच्च सवर्ण नाराज़ भी हो सकता है. वैसे कुल मिला कर आर्थिक आधार पर आरक्षण पूरे सामाजिक के लिए एक दिलचस्प परिघटना है जिसके दूरगामी सामाजिक एवं राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं.


क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है?

  क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है ? हाल ही में हुई बहसों में सवाल उठाया गया है कि क्या अनुसूचित जाति के उपसमूहों में सकारात्म...