शनिवार, 25 मार्च 2017

दलित राजनीति की विफलता और विकल्प की आवश्यकता

दलित राजनीति की विफलता और विकल्प की आवश्यकता
- एस. आर. दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

हाल में उत्तर प्रदेश के चुनाव ने दर्शाया है कि दलित राजनीति एक बार फिर बुरी तरह से विफल हुयी है. इस चुनाव में बहुमत से सरकार बनाने का दावा करने वाली दलितों की तथाकथित बहुजन समाज पार्टी (बसपा) 403 में से केवल 19 सीटें ले कर तीसरे नंबर पर रही है. यद्यपि 2009 (लोक सभा) और 2012 (विधान सभा) चुनाव में इस पार्टी का अवसान बराबर दिखाई दे रहा था परन्तु 2014 के लोक सभा चुनाव में इसका पूरी तरह से सफाया हो गया था और इसे एक भी सीट नहीं मिली थी. इसी तरह 2007 के बाद बसपा के वोट प्रतिशत में भी लगातार गिरावट आयी है जो 2007 में 30% से गिर कर 2017 में 23% पर पहुँच गया है। यद्यपि बसपा सुप्रीमो मायावती ने बड़ी चतुराई से इस विफलता  का मुख्य कारण ईवीएम मशीनों की गड़बड़ी बता कर अपनी जुम्मेदारी पर पर्दा डालने की कोशिश की है परन्तु उसकी अवसरवादिता, भ्रष्टाचार, तानाशाही, दलित हितों की अनदेखी और जोड़तोड़ की राजनीति के हथकंडे किसी से छिपे नहीं हैं. बसपा के पतन के लिए आज नहीं तो कल उसे अपने ऊपर जुम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी.
दलित राजनीति की विफलता का यह पहला अवसर नहीं है. इससे पहले भी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया इसी प्रकार की विफलता का शिकार हो चुकी है. जब तक यह पार्टी डॉ. आंबेडकर की विचारधारा का अनुसरण करती रही तब तक यह फलती फूलती रही परन्तु जैसे ही यह नेताओं के व्यक्तिवाद, अवसरवाद और मुद्दाविहिनता का शिकार हुयी इसका पतन शुरू हो गया और अब यह खंड खंड हो चुकी है. पूर्व में उत्तर प्रदेश में भी इस पार्टी की शानदार उपलब्धियां रही हैं. 1962 में उत्तर प्रदेश में इस पार्टी के 4 सांसद और 8 विधायक थे तथा 1967 में इसका एक सांसद और 10 विधायक थे. उसके बाद इसका विघटन शुरू हो गया.  उस दौरान पार्टी का एक प्रगतिशील एजंडा था और यह संघर्ष और जनांदोलन में विश्वास रखती थी. इस पार्टी ने ही 1964 में 6 दिसंबर से देशव्यापी भूमि आन्दोलन शुरू किया था. इस आन्दोलन में 3 लाख से अधिक आन्दोलनकारी गिरफ्तार हुए थे और तत्कालीन कांग्रेस सरकार को इसकी सभी मांगें माननी पड़ी थीं जिस में भूमि आवंटन मुख्य मांग थी. इसके बाद कांग्रेस ने इसके नेताओं की व्यक्तिगत कमजोरियों का लाभ उठा कर तथा उन्हें पद तथा अन्य लालच देकर तोड़ना शुरू कर दिया. परिणामस्वरूप 1970 तक आते आते यह पार्टी कई टुकड़ों में बंट गयी और आज इसके नेता व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए अलग अलग पार्टियों से समझौते करके अपना पेट पाल रहे हैं.
अब अगर उत्तर भारत ख़ास करके उत्तर प्रदेश में बसपा के उत्थान को देखा जाये तो यह एक तरीके से आरपीआई के पतन की प्रतिक्रिया का ही परिणाम था. कांशी रामजी ने आरपीआई के अवशेषों पर ही बसपा का नवनिर्माण किया था. वास्तव में शुरू में आरपीआई के अधिकतर कार्यकर्ता ही इसमें शामिल हुए थे और दलितों के मध्यवर्ग का इसे बड़ा सहयोग मिला था. 1993 में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन से इसे बड़ी सफलता मिली थी और सपा-बसपा की सरकार बनी थी. उस समय दलितों, पिछड़ों और मुसलामानों का एक शक्तिशाली गठबंधन बना था और इसका सन्देश पूरे भारत में गया था. परन्तु दुर्भाग्य से कुछ निजी स्वार्थों के कारण यह गठबंधन जल्दी ही टूट गया. इस परिघटना की सबसे घातक बात यह थी कि इसमें दलितों की घोर विरोधी पार्टी भारतीय जनता पार्टी से समर्थन लिया गया था. इसके बाद भी इसी प्रकार दो बार फिर भाजपा से गठजोड़ किया गया जोकि मायावती के व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए तो ठीक था परन्तु दलित हितों के लिए घातक था. इससे दलितों में एक दिशाहीनता का विकास हुआ और वे दोस्त और दुश्मन का भेद करना भूल गए. जिस ब्राह्मणवादी विचारधारा से उनकी लड़ाई थी उसी से उन्हें दोस्ती करने के लिए आदेशित किया गया. बाद में मायावती ने दलित राजनीति को उन्हीं गुंडों, बदमाशों, माँफियायों और दलित उत्पीड़कों के हाथों बेच दिया जिनसे उनकी लड़ाई थी.
यद्यपि बसपा चार बार सत्ता में आई परन्तु उसने कभी भी अपना दलित एजंडा घोषित नहीं किया. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि तथाकथित दलित सरकार तो बनी परन्तु दलितों के सशक्तिकरण के लिए कोई भी योजना लागू नहीं की गयी. इसके फलस्वरूप दलितों का भावनात्मक तुष्टिकरण तो हुआ और उनमें कुछ हद तक स्वाभिमान भी जागृत  हुआ परन्तु उनकी भौतिक परिस्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं आया है. सामाजिक-आर्थिक एवं जाति जनगणना-2011 के आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण भारत में 56% परिवार भूमिहीन हैं जिन में से लगभग 73% दलित तथा 79%  आदिवासी परिवार हैं. ग्रामीण दलित परिवारों में से 45% तथा आदिवासियों में से 30% परिवार केवल हाथ की मजदूरी करते हैं. इसी प्रकार ग्रामीण दलित परिवारों में से केवल 18.35% तथा आदिवासी परिवारों में से 38% खेतिहर हैं. इस जनगणना से एक यह बात भी उभर कर आई है कि हमारी जनसँख्या का केवल 40% हिस्सा ही नियमित रोज़गार में है और शेष 60% हिस्सा अनियमित रोज़गार में है जिस कारण वे अधिक समय रोज़गारविहीन रहते हैं.
सामाजिक एवं आर्थिक जनगणना से यह भी उभर कर आया है कि ग्रामीण क्षेत्र में दलितों की दो सबसे बड़ी कमजोरियां हैं: एक है भूमिहीनता और दूसरी है केवल हाथ का श्रम. यह बड़े खेद की बात है कि यद्यपि मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्य मंत्री रही है परन्तु उसने 1995 के काल को छोड़ कर दलितों को न तो भूमि आवंटन किया और न ही ज़मीनों पर कब्ज़े ही दिलवाए. इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि ग्रामीण दलित आज भी भूमि मालिकों पर मजदूरी, टट्टी पेशाब तथा जानवरों के लिए घास-पट्ठा के लिए आश्रित हैं. इस कमजोरी के कारण वे अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों का भी प्रभावी ढंग से प्रतिकार नहीं कर पाते. ऐसा लगता है कि शायद दलितों को कमज़ोर तथा आश्रित बना कर रखना मायावती की राजनीति का हिस्सा रहा है.
यह देखा गया है कि जब से देश में नवउदारवादी नीतियाँ लागू हुयी हैं तब से दलित इसका सबसे बड़ा शिकार हुए हैं. कृषि और स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश की कटौती का सबसे बुरा असर दलितों पर ही पड़ा है.  देश में रोज़गार सृजन की गति में गिरावट भी दलितों के लिए बहुत घातक सिद्ध हुयी है. निजीकरण के कारण सरकारी नौकरियों में आरक्षण भी निष्प्रभावी हो गया है. परन्तु मायावती ने दलितों पर पड़ने वाले इन दुष्प्रभावों को पूरी तरह से नज़रंदाज़ किया है. दरअसल मायावती भी दलितों के साथ उसी प्रकार की राजनीति करती रही है जैसीकि मुख्यधारा की पार्टियाँ करती आई हैं. उसने भी दलितों को स्वावलंबी बनाने तथा उनका सशक्तिकरण करने की बजाये केवल प्रतीकों की राजनीति करके उन्हें अपने वोट बैंक के तौर पर ही देखा है. मायावती के इस रवैये के कारण भी दलितों का उससे मोहभंग हुआ है.
बसपा की जाति की राजनीति ने हिंदुत्व को कमज़ोर करने की बजाये उसे मज़बूत ही किया है जिसका लाभ भाजपा ने उठाया है. इसी कारण वह दलितों की अधिकतर उपजातियों को हिंदुत्व में समाहित करने में सफल हुयी है. यह भी विदित है कि जाति जोड़ने की नहीं बल्कि तोड़ने की प्रक्रिया है.  अतः जाति की राजनीति की भी यही परिणति होना स्वाभाविक है. बसपा के साथ भी यही हुआ है. एक तरफ जब यह बात जोरशोर से प्रचारित की गयी कि बसपा मुख्यतया चमारों और जाटवों की पार्टी है तो दलितों की अन्य उपजातियों का प्रतिक्रिया में जाना स्वाभाविक था. पिछले कई चुनावों  से यही होता आया है. उत्तर प्रदेश में दलितों की अधिकतर उपजातियां बसपा से अलग हो कर भाजपा, सपा तथा कांग्रेस की तरफ चली गयी हैं. कुछ हद तक जाटव और चमार वोट भी बसपा से अलग हो गया है.
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि उत्तर भारत में बसपा की जाति की राजनीति अवसरवादिता, सिद्धान्हीनता, दलित हितों की उपेक्षा और भ्रष्टाचार का शिकार हो कर विफल हो चुकी है. अतः इस परिपेक्ष्य में दलितों को अब एक नए रैडिकल विकल्प की आवश्यकता है. यह विकल्प जातिहित से ऊपर उठकर वर्गहित पर आधारित होना चाहिए ताकि इसमें सभी वर्गों के समान परिस्थितियों वाले लोग बिना किसी जातिभेद के शामिल हो सकें. आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने इस दिशा में पहल की है. आप इसके संविधान, नीतियों एवं कार्यक्रमों के बारे में www.aipfr.org पर विस्तार से पढ़ सकते हैं. यदि आप को यह विकल्प अच्छा लगे तो इसे अवश्य अपनाएं.

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

बर्बरता के विरुद्ध: पुजारियों की पैदावार

बर्बरता के विरुद्ध: पुजारियों की पैदावार: साथी अमर के लगातार सहयोग के चलते इस बार हम फ्रंटलाइन के जुलाई 4-17, 2009 के अंक में छपे एक लेख का अनुवाद 'बर्बरता के विरुद्ध' पर दे...

मोदी के दलित या दलितों के मोदी: बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में जाति-राजनीति की भूलभलैया को कैसे पछाड़ा

मोदी के दलित या दलितों के मोदी: बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में जाति-राजनीति की भूलभलैया को कैसे पछाड़ा
-सत्याकी राय तथा पंकज सिंह
(अनुवादकीय नोट: इस लेख में बहुत अच्छी तरह से बताया गया है कि इस चुनाव में भाजपा ने किस तरह से जाति की राजनीति का इस्तेमाल अपने पक्ष में किया है. दरअसल जाति की राजनीति ने हिंदुत्व की ताकतों को ही मज़बूत किया है. इसका मुकाबला केवल जाति की राजनीति को छोड़ कर वर्गहित आधारित जनवादी राजनीति से ही किया जा सकता है.- एस.आर. दारापुरी )
उत्तर और पच्छिम भारत में अपने वर्चस्व को मज़बूत करने के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और उसके रणनीतिकार दलित जनसख्या के बड़े हिस्से को जीतना चाहते हैं. अब तक यह प्रक्रिया बहुत आसान नहीं रही है.
उत्तर प्रदेश की दलित आबादी का एक बड़ा हिस्सा बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती का नियमित वोटर रहा है जिस कारण पिछले कुछ चुनावों में उसके वोट बैंक में बहुत गिरावट नहीं आई है.
इस बीच गुजरात और महाराष्ट्र में उच्च जातियों और निचली जातियों की राजनीति का अतिवादीकरण (रैडीकलायिज़ेशन) हुआ है. इसमें जिग्नेश मवानी और हार्दिक पटेल जैसे नेताओं का उभार तथा खामोश मराठा प्रदर्शनों द्वारा आरक्षण विरोध यह दर्शाता है कि जाति पुनरुत्थान और राजनीतिक अस्थिरता कितनी क्षणभंगुर है. इस परिदृश्य में मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह साथ बनाने के लिए बहुत कुछ करने के लिए तैयार हैं और हम लोग देखेंगे कि भारत में लोकतंत्र असंभव गठजोड़ों की तरफ जाने वाला है.
परन्तु दलितों को अपने वोट आधार में शामिल करने की उनकी इच्छा नयी नहीं है. छत्तीसगढ़ में 2013 के चुनाव से पहले बीजेपी ने दलित वोटों को जोड़ने के प्रयास में बौद्ध भिक्षुओं को घुमाया था. चुनाव में उन्होंने 10 में से 9 आरक्षित सीटें जीत ली थीं. यह उत्तर प्रदेश में अप्रैल से अक्तूबर 2016 की 6 माह की धम्म चेतना यात्रा का पूर्वगामी था. इसके दौरान बौद्ध भिक्षुयों ने प्रदेश में लगभग 1000 बुद्ध तथा आंबेडकर मूर्तियों को माल्यार्पण किया. बीजेपी का दावा है इस दौरान वे 40 से 50 लाख लोगों से मिले.
मई, 2016 में सिंहस्थ कुम्भ मेला में अमित शाह ने शिप्रा नदी में दलित साधुयों के साथ स्नान किया.  2015 और 2016 के दौरान लन्दन में आंबेडकर के बंगले का अधिग्रहण किया गया तथा उसे "शिक्षा भूमि" बनाने की नींव रखी गयी.
धम्म देशना यात्रा के दौरान यह पर्चे बांटे गए कि इस शिक्षा भूमि में दलित विद्यार्थियों को मुफ्त सुविधाएँ दी जाएँगी. 2016 में डॉ. आंबेडकर की 125वीं जयंती के अवसर पर आरएसएस की साप्ताहिक पत्रिका पञ्चजन्य और इसके अंग्रेज़ी संस्करण अर्गेनाईज़र के विशेष अंक निकाले गए.
मोदी ने आंबेडकर के जन्मस्थान मऊ में रैली की और उसे एक मुख्य पर्यटन केंद्र बनाने की घोषणा की.  मोदी आंबेडकर के अंतिम संस्कार वाले स्थल "चैत्य भूमि" पर भी गए. बीजेपी ने बुद्ध से जुड़े पांच तीर्थों पर भी आयोजन किये.
इन महीनों में सबसे बड़ा अवरोध गुजरात में गौरक्ष्कों द्वारा ऊना में दलितों की पिटाई थी. रातों रत दलित इकठ्ठा हो गए और मायावती गुजरात गयी और उसने दलितों से अपील की. ऊना के बाद कहा गया कि इससे बीजेपी का चुनाव में नुकसान होगा.
परन्तु बीजेपी के गुणाभाग ने इन घटनाओं का मुकाबला किया. यह क्षेत्रिय एकजुटता के अभाव के कारण संभव हुआ. या यह हो सकता है कि गोहत्या या इस पर प्रतिबंध का चुनाव पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा. इससे यह स्पष्ट हो गया है कि बहुत सारे मतदाता गौहत्या पर प्रतिबंध या वैरभाव वाले धार्मिक मूल्यों को मुख्य चुनाव समस्या नहीं मानते.
उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा इलाहाबाद और अन्य स्थानों पर बुच्चड़खानों  की तालाबंदी इस श्रेणी में आते हैं. इसका उत्तर भारत में दलित मतदाताओं पर उतना ही असर पड़ेगा जितना चमड़े के धंधे पर परन्तु यह चुनाव पर बहुत प्रभाव डालने वाला नहीं है.
2017 के चुनाव में बीजेपी दलित वोटों को जाटवों और गैर-जाटवों में बाँटने में सफल रही. बीजेपी ने मायावती की उपजाति वाले जाटवों को जोकि राज्य की कुल दलित आबादी का 57% हैं को केवल 23 टिकट दिए. इसके मुकाबले में उसने यूपी की दूसरी बड़ी दलित उपजाति पासी को 21 टिकट दिए. उन्होंने बसपा से कम जुड़ाव रखने वाली दलित उपजातियों जैसे धोबी, खटीक, कोरी और बल्मिकियों को 36 टिकट दिए.
इस बार 85 आरक्षित सीटों में से बीजेपी ने 69 सीटें जीत ली हैं जबकि 2012 में उसे केवल 3 ही मिली थीं. उसने 403 सीटों में कुल 80 दलित खड़े किये थे जबकि मायावती ने 87 खड़े किये थे.
इस बीच अमित शाह अलग अलग निचली जातियों के समारोहों में शामिल हुए थे. उन्होंने  छोटी अतिपिछड़ी जातियों जैसे गोड, लोहार, कुम्हार और मल्लाह अदि के साथ सौदेबाज़ी की. इसके नतीजे देखने लायक हैं. मायावती का वोटबैंक थोडा कम हुआ है जबकि बीजेपी का वोट बैंक बहुत बढ़ा है. दूसरे तो डूब ही गए हैं.
अकादिमीशियन और मुख्यधरा का मीडिया बीजेपी को सवर्णों की पार्टी कहते हैं, जो शीर्ष पर है भी, बीजेपी ने जाति की राजनीति की भुलभलैया को सफलतापूर्वक समझा है और उसे खेला है. इसके कारण अब स्पष्ट हैं.
 जाति दावेदारी बीजेपी की रणनीति नहीं है जैसी कि कभी थी. सच्चाई यह है कि जहाँ वे एक तरफ जाति समूहों से मोलतोल करते रहे हैं वहीँ वे एक अकेले मजबूत नेता की छवि भी पेश करते रहे हैं. अपने नेता की छवि को आरएसएस के इतिहास से अलग करके वे रणनीतिक चालबाजी खेलने में सफल रहे हैं.
 अगर मायावती बेचैन नवयुवकों की अपेक्षाओं का अवतार बनने में असफल रही तो वहीँ मोदी ने इस भूमिका को बखूबी निभाया. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मोदी और शाह इस समय और युग में सूचना और प्रभाव कैसे काम करते हैं, को अच्छी तरह समझते हैं. उसने हाल में कहा है कि लोग खबर को टीवी चैनल और अखबार की अपेक्षा मोबाइल फोन से अधिक ग्रहण करते हैं
.मोदी इस मुख्य तथ्य को समझाते हैं कि आज कल चुनाव को व्हाट्सअप ग्रुप और यूट्यूब विडिओ से प्रभावित किया जा सकता है. विश्वस्तर पर बुद्धिजीविओं ने भी माना है ट्विटर-प्रेरित "अरब स्प्रिंग" आन्दोलन तकनीकी विकास और उदार मूल्यों के फैलने से ही संभव हुआ था.
मोदी और शाह की रणनीतियों को दो तरीकों से देखा जा सकता है: एक यह हो सकता है कि बीजेपी अब वास्तव में दलितों और देश में अन्य निचली जातियों के लिए नीतियाँ और प्रोग्राम बनाएगी. मोदी के अनुयायी इस वक्त यही विश्वास दिलाना चाहेंगे जिसमे कोई आपत्ति नहीं है. इसके इलावा बीजेपी सचमुच में एक उच्च- जातीय पार्टी होते हुए भी निचली जातियों के सशक्तिकरण के लिए काम करने वाली अलग पार्टी भी बन जाएगी. यह एतहासिक होगा. पार्टी में उच्च जातियां और संघ परिवार इसकी हिमायत करें या न करें. यदि ऐसा होता है तो इसमें संदेह है कि उनके सामने बहुत विकल्प होंगे.
दूसरा यह हो सकता है कि मोदी और शाह केवल सद्भावना प्रदर्शन और प्रेरक नेतृत्व के वादों द्वारा दलित समुदाय के कुछ हिस्सों को मना लें और उनको कुछ सीटें देने के इलावा  वास्तव में कोई सत्ता नहीं देना चाहते हैं. परन्तु अगर हम फ़्रांसिसी विद्वान् क्रित्स्टोफ जैफर्लोट द्वारा प्रदर्शित कांग्रेस की शुरू की चुनाव रणनीतियों को देखें तो बिलकुल यही किया गया था.
कांग्रेस ने निचली जातियों को कभी भी सत्ता में सही हिस्सेदारी नहीं दी बल्कि उनके नेताओं और मुद्दों को अपने एजंडे का हिस्सा बना लिया. अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि मोदी और बीजेपी का उभार उच्च जातियों की पार्टियों द्वारा पूर्व में निचली जातियों के वोट को इकठ्ठा करने हेतु अपनाये गए हत्थ्कंडों का ही परिणाम मात्र है. इसमें कुछ भी नया नहीं है. इसमें कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है कि बेहतर नेताओं ने बेहतर खेल खेला है.
(फर्स्ट पोस्ट डाट काम से साभार)

मंगलवार, 21 मार्च 2017

क्रांति से अभी कोसों दूर , मायाजी ! -- मीरा नंदा

क्रांति से अभी कोसों दूर , मायाजी ! -- मीरा नंदा



(अनुवादकीय नोट: यद्यपि मीरा नंदा ने यह लेख 2007 में मायावती के चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के समय तहलका मैगज़ीन में अंग्रेजी में लिखा था परन्तु इसमें उसने मायावती की सर्वजन की राजनीति से उपजे जिन खतरों और कमजोरियों को डॉ. आंबेडकर के माध्यम से इंगित किया था, आज वे सभी सही साबित हुयी हैं. मायावती हिंदुत्व को रोकने में सफल होने की बजाये स्वयम उसमें समा गयी है. मीरा नंदा की अम्बेडकरवाद की समझ बहुत गहरी और व्यापक है.- एस.आर. दारापुरी) 
मायावती के चुनाव अभियान में भीम राव आंबेडकर का नाम बार बार आता है . परन्तु क्या संविधान निर्माता उसकी राजनीति की तारीफ करते? मीरा नंदा ने चुनाव उपरांत इन दोनों के बीच वार्तालाप की कल्पना की है.

लखनऊ, रविवार, 13 मई, 2007
आधी रात गुजर चुकी थी, और मायावती थकी हुयी थी. उसका दिन राज्यपाल हाउस पर मुख्य मंत्री के पद की शपथ ग्रहण में गुजरा था. यह एक भव्य दृश्य था- उसके पीछे उसके 50 मंत्री बड़ी भीड़ और कैमरों की चमक. मायवती एक लम्बी दौड़ के बाद समाप्ति रेखा को छूने वाले विजेता की तरह, उत्साही परन्तु थकी हुयी थी.  वह तकिये पर सर रखते ही सो गयी. उस पर डॉ. आंबेडकर की मूर्ती जिसे उसने दिन में आंबेडकर पार्क में हार पहनाया था सजीव हो उठी और बोलना शुरू किया जैसा कि सपने में मूर्तिया बोलने लगती हैं.

आंबेडकर:  मायाजी आज आप को पार्क में अपने बहुत साथियों के साथ देख कर बहुत अच्छा लगा. अपने भारतीय भाईयों को इतने जोश, उत्साह और आशा के साथ वोट डालते देख कर  बहुत अच्छा लगा.
मायावती: पूज्य बाबासाहेब! क्या शुभ मुहूर्त है कि आप के दर्शन  मिले. ( आंबेडकर के चरण छूने के लिए झुकती है )
आंबेडकर:  (पीछे हट जाते हैं और अभिवादन में हाथ जोड़ते हैं). कृपया मेरे सामने अथवा किसी दूसरे के सामने भी अपने आप को मत झुकाइये. मुझे याद आया कि अब आप मुख्य मंत्री हैं. आप ने अपने पिछले तीन बार के मुख्यमंत्री काल में बहुत उत्साह दिखाया था. मेरी मूर्तियाँ खड़ी करने की बजाये जनता के पैसे  को बेहतर ढंग से खर्च करने के तरीके हैं.
मायावती:  आप हमारे मार्गदर्शक हैं. आप की मूर्तियों से दलित जनता में आत्मविश्वास और स्वाभिमान को प्रेरणा मिलती है.
आंबेडकर:  मैं उनके संघर्षों से द्रवित हो जाता हूँ और मुझे उनकी उपलब्धियों पर अभिमान होता है. परन्तु प्रेरणा लेने के लिए उन्हें मेरी मूर्तियों की ज़रुरत नहीं है.
.मायावती:  हम जिस तरह से आप के विचारों पर काम कर रहे हैं उस पर आप को बहुत गर्व होगा. हम ने उत्तर प्रदेश में जो क्रांति शुरू की है वह आप की विचारधारा का रूपान्तर है. जब कांशी राम जी थे हम लोगों ने बसपा में  "बाबा तेरा मिशन अधूरा, कांशी राम करेंगे  पूरा" का नारा लगाया था.
आंबेडकर:  मैं आप की इसी "सामाजिक क्रांति" के बारे में ही तो बात करने के लिए आया हूँ. मैंने सुना है कि बहुत से विद्वान लोग आप की तुलना माओ से कर रहे हैं, वामपंथी पत्रकार जाति पिरामिड को पलटने के लिए आप की तारीफ कर रहे हैं, दक्षिण पंथी हिन्दू उग्रवादी जाति समरसता को बढ़ाने के लिए आप की प्रशंसा कर रहे हैं. मैं इन प्रशंसकों में शामिल नहीं हो सकता. यह मेरे सपनों की क्रांति नहीं है. मुझे गलत मत समझना: एक चमार की बेटी के इतना ऊपर उठने पर मुझे खुशी है. मैं आपकी और कांशी राम की अपने दलित भाईयों, जिन्हें अब तक केवल वोट बैंक समझा जाता था, को लामबंद करने के लिए प्रशंसा करता हूँ. और आप ने एक जीतने वाले राजनीतिक गठजोड़ को अंजाम दिया है. मुझे विश्वास है आप एक अच्छी चेस खिलाड़ी बन सकती हैं.
मायावती:  सब आप की कृपा है, बाबासाहेब! हम आप के शिष्य हैं. हम अम्बेडकरवाद को लागू कर रहे हैं.
आंबेडकर:  परन्तु जैसा मैं कह रहा था, मैं आप के अम्बेडकरवाद के साथ असहज महसूस कर रहा हूँ. यह तो मेरी विचारधारा के साथ भद्दा मजाक है. मेरे विचार में लोकतंत्र केवल उपरी समानता और समयबद्ध चुनाव जीतने का नाम नहीं है. यह तो समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा और न्याय पर आधारित नए समाज के निर्माण की प्रक्रिया है. सच्चे लोकतंत्र का अर्थ है भाईचारा, एक साहचर्य जीवन और अपने साथियों के प्रति सम्मान. समाज में इस प्रकार के लोकतंत्र की जड़ें जमाने के लिए ज़रूरी है कि उन सभी विचारों को नष्ट किया जाये जो जाति, वर्ग एवं लिंगभेद को स्वाभाविक एवं समरस बताते हैं. मेरा जातिभेद के विनाश से यही मतलब था. इसी लिए आप अगर इसे अम्बेडकरवाद कहना चाहती हैं तो यह केवल चुनाव जीतने के लिए ही नहीं है. अगर आप को फुर्सत मिले तो मेरी पुस्तक "जातिभेद का विनाश" से धूल पोंछियेगा. उस छोटी सी पुस्तक में मेरे दर्शन का निचोड़ है. यह सही है कि मैं चाहता था कि उन्हें शासक समुदाय बनने के लिए साथी बनाने चाहिए. उदाहरण के लिए स्वतंत्र मजदूर पार्टी में हम लोगों ने सभी जातियों के मजदूरों को लिया था. बहुत से अवसरों पर जागरूक ब्राह्मणों और द्विजों ने मेरी सहायता की थी. मैंने उनको इस लिए साथ नहीं लिया था कि वे मुझे वोट दिला सकते हैं परन्तु इस लिए क्योंकि वे मेरी स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृभाव की विचारधारा में विश्वास रखते थे. परन्तु आप की पार्टी के लिए सत्ता प्राप्ति ही लक्ष्य बन गयी है. आप को इससे  कोई मतलब नहीं है कि आप किस से हाथ मिला रही हैं, आप उनको कैसे पटाती हैं और सत्ता पाने के बाद आप क्या करेंगी. बड़े परिवर्तन का एजंडा कहाँ है जो पूँजीवाद, ब्राह्मणवाद और धार्मिक अंध विश्वासों को चुनौती दे सके?
मायावती:  परन्तु बाबासाहेब समय बदल गया है. आज कल सभी राजनीतिक पार्टियाँ सौदे करती हैं  जिसे "सोशल इन्जिनीरिंग" कहते हैं. क्यों, अभी पंजाब में अकाली बीजेपी की मदद से सत्ता में आये हैं जो सिक्खों को अभी भी हिन्दू मानती है. कांग्रेस इतने दिन सत्ता में इसी लिए बनी रही क्योंकि उसने ब्राह्मणों, मुसलमानों और दलितों का बड़ा गठजोड़ बना रखा था. जैसा आप जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में दलित केवल 21% ही हैं. हम लोग जब तक बड़ा गठबंधन नहीं बनायेंगे, हम लोग सत्ता में नहीं आ सकते.
आंबेडकर:  मायाजी, आप 100% सही हैं. सभी बड़ी पार्टियाँ चुनाव जीतने के लिए सब प्रकार के सौदे करती हैं. एक पुरानी कहावत है कि राजनीति अजनबियों को भी हमबिस्तर कर देती है. क्योंकि हरेक ऐसा कर रहा है, इसी लिए यह ठीक नहीं हो जाता. इस प्रकार की खरीद-फरोख्त से लोकतंत्र की गुणवत्ता कम हो जाती है. हमारा देश जमीनी स्तर पर अभी भी कानून का देश नहीं है बल्कि यह सत्ता में बैठे लोगों के रहमो-कर्म पर आश्रित है. परन्तु इस सौदेबाजी को अम्बेडकरवाद का नाम क्यों दे रही है? अगर आप जातिगत गणित को अम्बेडकरवाद कहती हैं तो मैं अम्बेडकरवादी नहीं हूँ. आंबेडकरवाद चुनाव जीतने से बहुत कुछ आगे है. यह एक नए समतावादी, तार्किक सांस्कृतिक सोच और राजनैतिक लोकतंत्र को धर्मनिरपेक्ष सामाजिक लोकतंत्र में बदलने के लिए है. जैसा कि मैं संविधान सभा में कांग्रेस वालों को जताता रहता था कि " हमारे पास राजनैतिक लोकतंत्र हमारी सामाजिक व्यवस्था को सुधरने के लिए है जो कि बहुत असमानताओं और भेदभाव से भरा हुआ है...."
मायावती:  परन्तु हम अपनी सामाजिक व्यवस्था को सुधारने के लिए सत्ता हथियाना चाहते हैं. हम लोग बसपा में जाति के विनाश के लिए प्रतिबद्ध हैं परन्तु हम व्यवहारिक हैं. हम दलितों के नेतृत्व में उच्च जातियों, पिछड़ी जातियों और गरीब मुसलमानों को एक इन्द्रधनुष में ला रहे है.
आंबेडकर:  मत के तौर पर तो यह बहुत अच्छा लगता है. परन्तु यह एक निराशाजनक तथ्य है कि भारत में सच्ची भाईचारे की भावना मौजूद नहीं है. यद्यपि हम लोग आज कल चातुर्वर्ण का शब्द प्रयोग नहीं करते परन्तु ऊँचनीच को उचित ठहराने की मानसिकता अभी भी मौजूद है.
मायावती:  मैं सहमत हूँ कि समाज के सभी स्तरों पर जातिभेद व्यापत है. परन्तु सभी जातियों को दलितों के नेतृत्व में लाकर इसे चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं ताकि हम सब के लिए समानता के द्वार खोल सकें.
आंबेडकर:  तुम्हारे ही रिकार्ड के अनुसार जाति आधारित गठजोड़ जातिवाद को कम करने की बजाये बढ़ावा देते हैं. जब आप मुख्यमंत्री थीं तो आप ने अपने लोगों को बढ़ाया और जब मुलायम सिंह मुख्यमंत्री थे तो उसने अपने यादव लोगों को बढ़ाया. जब आप मुख्यमंत्री थीं तो आप ने दलितों पर अत्याचार रोकने के लिए कानून व्यवस्था को कड़ा किया (वास्तव में मायावती ने तो दलित एक्ट लागू करने पर रोक लगा दी थी) और जब आपकी सहयोगी बीजेपी सत्ता में आई तो उन्होंने तुरंत इन कानूनों को शिथिल कर दिया. जब आप तीसरी वार 2002 में सत्ता में आयीं तो आप ने  बीजेपी के समर्थन को कायम रखने के लिए गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के लिए मोदी को दोष मुक्त कर दिया (वास्तव में इस वर्ष मायावती ने गुजरात जा कर मोदी के पक्ष में चुनाव प्रचार भी किया था). इस सब के बाद आप समझ जाएँगी कि मुझे आप की जीत पर कोई ख़ुशी नहीं है.
मायावती:  दूसरे सभी अवसरों पर बसपा सरकार थोड़ी थोड़ी अवधि के लिए थी. इस बार हम अधिक काम करेंगे क्योंकि हमें पूरे पांच साल मिलेंगे.
आंबेडकर:  हाँ हाँ, मैं जानता हूँ कि इस बार उच्च जाति के लोग बसपा में हैं और इसे बाहर से समर्थन नहीं दे रहे हैं. परन्तु क्या आप को विश्वास है कि क्योंकि वे इस बार बसपा के टिकट पर लड़े हैं उन्होंने हिन्दू बहुलवादी और परम्परावादी सोच छोड़ दी है. आप नहीं सोचतीं कि वे आप का इस्तेमाल कर रहे हैं जैसा कि आप सोचती हैं कि आप उनका इस्तेमाल कर रही हैं.
मायावती:  ऐसा हो सकता है. क्या आप एक मुख्यमंत्री की इंजीनियरिंग का दलितों पर असर नहीं देख रहे? जब भी मैं सत्ता में होती हूँ तो दलित अधिक सुरक्षित और अधिक आत्मविश्वासी दिखाई देते हैं. क्या आप ने देखा कि किस तरह शपथ ग्रहण के समय सभी ब्राह्मण मंत्रियों और अन्यों ने मेरे चरण छुए थे.
आंबेडकर:  यह लोकतंत्र का खोखलापन है कि जब दलित मुख्यमंत्री होता है तो दलित अधिक आश्वासित होते हैं. और ब्राह्मणों का आप के चरण छूने को आप को बढ़ावा नहीं देना चाहिए. मेरी एक अच्छे समाज की अवधारणा है जहाँ पर चरण वंदना और चापलूसी नहीं होनी चाहिए.
मायावती:  आप को ये चरणवंदना और चापलूसी अच्छी न लगती हो परन्तु हमें तो रीति रिवाज़ का आदर करना है. इतनी सदियों के बाद यह कोई छोटी बात नहीं है कि बलशाली सवर्ण हमारे सामने झुक रहे हैं. इससे एक ताकत का अहसास होता है. परन्तु हमारी क्रांति संकेतों से आगे बढ़ कर है. जब भी हम सत्ता में आये हैं हम हजारों आंबेडकर- गाँव के लिए सड़क, बिजली, पानी और स्कूल का ठोस लाभ लाये हैं. दलित जानते हैं कि जब कोई उनका अपना सत्ता में होगा तो उनकी ज़रूरतें पूरी होंगी. इसी लिए हमें बार बार वोट देते हैं
आंबेडकर:  मैं मानता हूँ यह सकारात्मक कदम हैं. परन्तु दूसरी जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के गरीब लोग भी तो इसी देश के नागरिक हैं और उन्हें  भी अच्छे जीवन के लिए सुविधायों का अधिकार है. उनका कल्याण सत्ता में व्यक्तियों की जाति पर निर्भर नहीं रहना चाहिए.
मायावती:  आप का विचार विमर्श का लोकतंत्र सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है. परन्तु राजनेतायों को ज़मीनी हकीकत की चिंता करनी होती है. परन्तु एक बिंदु पर तो आप हमें पूरे अंक दीजिये कि हम धर्मनिरपेक्षता की सुरक्षा कर रहे हैं. मैं इसे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानती हूँ. बसपा ने बीजेपी से ब्राह्मण वोट छीन लिया है. एक बार हम लोग यूपी माडल पूरे देश में ले आयें तो बीजेपी ख़त्म हो जाएगी.
आंबेडकर:  यह सही है की बसपा को बीजेपी की कीमत पर लाभ हुआ है. मुझे हिन्दू राष्ट्रवादियों पर रोक  लगने पर ख़ुशी है. परन्तु दो कारणों से मैं अभी भी चिंतित हूँ. एक आप ने अपनी चुनाव अपीलों में देवताओं का आवाहन करके धर्म निरपेक्षता के पहले सिद्धांत का उलंघन किया है. मैं बसपा के हाथी के गणेश में बदलने और उसके हिन्दू त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) में बदलने पर हक्का बक्का रह गया हूँ. अगर चुनाव में बीजेपी के लिए देवताओं का प्रदर्शन गलत है तो फिर बीएसपी द्वारा भी ऐसा किया जाना गलत है. दरअसल बीएसपी द्वारा देवताओं का सम्मान करना बिलकुल ढोंग है जिससे दलित और शूद्र सदियों से वर्जित रहे हैं. आप ने फ़िलहाल बीजेपी को तो रोका है परन्तु आप जनता में धर्मनिरपेक्षता को आगे बढ़ाने में विफल रही हैं.
मायावती:  सम्मानित बाबासाहेब ! आप वर्तमान सच्चाई को उच्च आदर्शों पर माप रहे हैं.
आंबेडकर:  हमें अपने कृत्यों को उच्च आदर्शों पर ही मापना चाहिए. वर्ना आदर्श किस काम के? परन्तु मैं आप की धर्म निरपेक्षता की रक्षा करने पर खुश न होने का दूसरा कारण बताता हूँ. आप समझती हैं कि गाँव में अगर ब्राह्मण भूमिहीन दलित मजदूरों पर रोब  नहीं गान्ठेगा तो वे शूद्र भूमिधरों के विरुद्ध आप के साथी बन जायेंगे. क्योंकि ब्राह्मणों और दलितों में कोई आर्थिक टकराहट नहीं है अतः दलितों और ब्राह्मणों में कोई विचारधारा की टकराहट भी नहीं है. मुझे डर है की आप रीति रिवाज़, मिथक और मन के विश्वास को कम करके आंक रही हैं. न तो शहरी मध्य वर्ग और न ही ज़मींदारों ने ऊँचनीच और लिंगभेद की आत्मा और पुनर्जन्म की अवधारणाओं को बदला है. अगर कुछ हुआ है तो यह कि इन नव-हिन्दू गुरुओं और पुरातन पंडितों ने इस अन्धविश्वासी विश्वदृष्टि को विज्ञान के पर्दे से ढकने की कोशिश की है. इसी लिये मैं हमेशा दलितों को वैज्ञानिक सोच विकसित करने और अतार्किक विचार और व्यवहारों को सक्रिय रूप से चुनौती देने के लिए कहता रहा हूँ. मेरे "बुद्ध और उनका धम्म" का यही सन्देश है. यह संभव है कि जिन ब्राह्मणों ने एक रणनीति के अंतर्गत आप को वोट दिया है वे वास्तव में मंदिरों और वैदिक पाठशालाओं, जो आप के राज्य में बहुतायत में हैं, में रुढ़िवादी सामाजिक मूल्य और  अन्धविश्वासी धार्मिक प्रथाओं का प्रचार करके रोज़ी कमाँ रहे हैं. अब चूँकि उनका सरकार में दखल हो गया है वे शिक्षा और अन्य सांस्कृतिक परम्परागत एजंडा के लिए सरकारी मदद की अपेक्षा नहीं करेंगे? मेरी धारणा है कि हिन्दू परम्परावाद हिन्दू राष्ट्रवाद की जननी है. इसी लिए मुझे चिंता है कि क्या आप हिंदूत्व की ताकतों को रोक पाएंगी?
मायावती:  मैं समझती हूँ कि मैं हिन्दू एजंडा को विफल करने के लिए मज़बूत हूँ. हमारा एजंडा धर्म निरपेक्ष है और मैं किसी भी हिंदुत्व एजंडा को सहन नहीं करुँगी.
आंबेडकर:  मायाजी! आप मज़बूत हों. आपको और यूपी में आप के लोगों को मेरी शुभ कामनाएं. मैं लेट हो रहा हूँ और मैं आप से विदा लूँ. परन्तु मैं भावनाओं में हमेशा आप के साथ रहूँगा.
आंबेडकर की आवाज़ धीमी पड़ जाती है और मूर्ति फिर पत्थर में बदल जाती है. मायावती जाग जाती है और भोर में बैठ कर सोचने लगती है.
(मीरा नंदा एक विज्ञान दार्शनिक हैं  और जॉन टेम्प्लटन फैलो हैं.)

रविवार, 19 मार्च 2017

दलित-जातिवादी राजनीति बनाम हिंदुत्व

दलित-जातिवादी राजनीति बनाम हिंदुत्व
 -  तुलसी राम



पिछले पचीस सालों में दलितों के साथ पिछड़े वर्ग की राजनीति में जातिवाद अपनी चरम सीमा पार कर गया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि विशुद्ध हिंदुत्व की राजनीति करने वाली भाजपा ने अकेले बहुमत पाकर भारत की सत्ता प्राप्त कर ली। भारतीय जाति-व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि इसे धर्म और ईश्वर से जोड़ दिया गया। यही कारण था कि इसे ईश्वरीय देन मान लिया गया। गांधीजी जैसे व्यक्ति भी इसी अवधारणा में विश्वास करते थे। इस अवधारणा का प्रचार सारे हिंदू ग्रंथ करते हैं। इसलिए हिंदुत्व पूर्णरूपेण जाति-व्यवस्था पर आधारित दर्शन है।
विभिन्न जातियां हिंदुत्व की सबसे मजबूत स्तंभ हैं। इसलिए इन स्तंभों की रक्षा के लिए ही भारत के सभी देवी-देवताओं को हथियारबंद दिखाया गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि दलितों पर आज भी वैदिक हथियारों से हमले जारी हैं। ऐसी स्थिति में जब जाति को मजबूत किया जाता है, तो हिंदुत्व स्वत: मजबूत होता चला जाता है। पिछले पचीस वर्षों में ऐसा ही हुआ है।
नब्बे के दशक में कांशीराम ने एक अत्यंत खतरनाक नारा दिया था- 'अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो'। इसी नारे पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) खड़ी हुई। परिणामस्वरूप डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित जाति-व्यवस्था विरोधी आंदोलन की अवधारणा को मायावती ने शुद्ध जातिवादी अवधारणा में बदल दिया। इतना ही नहीं, गौतम बुद्ध द्वारा दी गई 'बहुजन हिताय' की अवधारणा को चकनाचूर करके उन्होंने 'सर्वजन हिताय' का नारा दिया, जिसका व्यावहारिक रूप सभी जातियों के गठबंधन के अलावा कुछ भी नहीं था। परिणामस्वरूप दलितों की विभिन्न जातियों के साथ-साथ ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों के अलग-अलग सम्मेलनों की बसपा ने भरमार कर दी, जिससे हर जाति का दंभी गौरव खूब पनपने लगा।
ब्राह्मण सम्मेलनों के दौरान बसपा के मंचों पर हवन कुंड खोदे जाने लगे और वैदिक मंत्रों के बीच ब्राह्मणत्व का प्रतीक परशुराम का फरसा (वह भी चांदी का) मायावती को भेंट किया जाने लगा। इस दौरान दलित बड़े गर्व के साथ नारा लगाते थे- 'हाथी नहीं, गणेश हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश हैं'। मायावती हर मंच से दावा करने लगीं कि ब्राह्मण हाशिये पर चले गए हैं, इसलिए वे उनका खोया हुआ गौरव वापस दिलाएंगी। वे इस तथ्य को जरा भी समझ नहीं पार्इं कि ब्राह्मण कभी भी हाशिये पर नहीं जाते हैं। उनका सबसे बड़ा हथियार धर्म और ईश्वर है। इन्हीं हथियारों के बल पर ब्राह्मणों ने हमेशा समाज की बागडोर अपने हाथ में रखी।
इससे पहले मायावती तीन बार भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं और गठबंधन की सरकार चलाई। इतना ही नहीं, भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए मायावती विश्व हिंदू परिषद के त्रिशूल दीक्षा समारोह में भी शामिल हुर्इं। पर जब वे मोदी का प्रचार करने गुजरात गर्इं, तो उन्होंने धार्मिक उन्माद पर खुलेआम ठप्पा लगा दिया। दलित सत्ता के नारे के साथ मायावती ने जातीय सत्ता की प्रतिस्पर्द्धा को जन्म दिया। इस जातीय सत्ता की होड़ में मंडलवादियों ने शामिल होकर धर्म के स्तंभों को और मजबूत किया।
अगर राजनीति में धर्म का इस्तेमाल धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के विरुद्ध है, तो धर्म से उत्पन्न जाति का इस्तेमाल कैसे धर्म-निरपेक्ष हो सकता है? इसलिए धर्म का राजनीति में इस्तेमाल जितना खतरनाक है, जाति का इस्तेमाल उससे कम खतरनाक नहीं है। इस तथ्य को न कभी मायावती समझ पार्इं और न ही मंडलवादी। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव और नीतीश कुमार आदि सब ने जातिवादी राजनीति के माध्यम से धर्म की राजनीति को मजबूत किया।
आज नरेंद्र मोदी जो छप्पन इंच का सीना तान कर घूम रहे हैं, उसकी पृष्ठभूमि में जातिवादी राजनीति रही है। उक्त सारे नेताओं द्वारा जाति के साथ-साथ मुसलिम वोटों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करने के प्रयास से आम हिंदू नाराज होकर पूरी तरह भाजपा की तरफ चला गया। इसलिए संघ परिवार जिसकी वकालत बरसों से कर रहा था, उसमें वह पूर्णत: सफल रहा। भाजपा ने धर्म और जाति, दोनों का इस्तेमाल बड़ी रणनीति के साथ किया, जिसके पीछे वह चालाकी से 'विकास' की बात करके जनता को भ्रमित करने में सफल रही, जबकि असली मुद्दा धार्मिक ध्रुवीकरण का ही था।
मायावती ने डॉ. आंबेडकर की मूर्तियों और पार्कों की आड़ में दलितों को उनके रास्ते से भटकाने का काम बड़ी सफलता से किया। डॉ. आंबेडकर ने दलितों को सामाजिक और धार्मिक भेदभाव से मुक्ति दिलाने के लिए एक दोहरी रणनीति अपनाई थी। एक तरफ उन्होंने जाति-व्यवस्था विरोधी आंदोलन का सूत्रपात करके 'मनुस्मृति' को जलाया था और दूसरी तरफ जातिवाद को स्थापित करने वाले वैदिक ब्राह्मण धर्म के विकल्प के रूप में बौद्ध धर्म को अपनाया था। मायावती डॉ. आंबेडकर की दोनों रणनीतियों को दरकिनार करके जातिवादी राजनीति के चंगुल में फंसती चली गर्इं।
एक बार कांशीराम ने घोषणा की थी कि वे डॉ. आंबेडकर से कहीं ज्यादा लोगों के साथ, यानी बीस लाख से अधिक लोगों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण करेंगे, पर स्वास्थ्य की समस्या के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए। बाद में मायावती ने कहा कि बौद्ध धर्म ग्रहण करने से सामाजिक सद्भावना के बिगड़ने की संभावना है, इसलिए जब वे प्रधानमंत्री बन जाएंगी, तो बौद्ध धर्म ग्रहण करेंगी। जाहिर है, जब उन्होंने उक्त बातें कहीं, उस समय मायावती भाजपा के साथ उत्तर प्रदेश की सरकार चला रही थीं।
डॉ. आंबेडकर के दर्शन के बारे में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे भारत के लिए द्वि-दलीय प्रणाली की वकालत करते थे, इसलिए वे दलित नाम से कोई पार्टी नहीं चलाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी को प्रस्तावित किया। कांग्रेस का यही विकल्प उन्होंने प्रस्तुत किया था। पर एक बात उन्होंने जोर देकर कही थी कि दलितों को आरएसएस और हिंदू महासभा (वर्तमान विश्व हिंदू परिषद) जैसे संगठनों के साथ कभी भी समझौता नहीं करना चाहिए।
संघ ने 1951 में जनसंघ की स्थापना की थी, पर आंबेडकर के समय में उसका प्रभाव नगण्य था। इसीलिए सीधे-सीधे उन्होंने संघ से किसी भी तरह का समझौता करने से दलितों को मना किया था। मायावती ने डॉ. आंबेडकर के हर कदम को नजरअंदाज करके संघ-परिवार का हाथ मजबूत किया। डॉ. आंबेडकर का जनतंत्र में अटूट विश्वास था, जिसकी झलक भारत के संविधान में साफ तौर पर मिलती है। उनका मानना था कि जाति-व्यवस्था एक तरह से तानाशाही वाली व्यवस्था थी, जिसके चलते दलित हर तरह के मानवीय अधिकारों से वंचित रहे। इसलिए जनतांत्रिक प्रणाली को वे दलितों के लिए सर्वोत्तम प्रणाली समझते थे।
पर सारी जातिवादी पार्टियां अपनी ही जाति के लोगों को हमेशा जनतांत्रिक अधिकारों से वंचित करती रही हैं। ऐसी पार्टी के नेताओं में मायावती का नाम सबसे ऊपर आता है। यहां तक कि बैठकों के दौरान न सिर्फ मायावती कुर्सी पर बैठा करती थीं और बाकी नेता जमीन पर बैठते थे; विधानसभा हो या संसद, उनके डर से कोई पार्टी विधायक या सांसद कुछ भी बोलने से डरता था। उनका व्यवहार एकदम सामंती हो गया था। उन्हें आम सभाओं में चांदी-सोने के ताज पहनाए जाते थे और उनके हर जन्म दिवस पर लाखों रुपए की भारी-भरकम माला भी पहनाई जाती थी। 1951 में मुंबई के दलितों ने बड़ी मुश्किल से दो सौ चौवन रुपए की एक थैली डॉ. आंबेडकर को उनके जन्मदिन पर भेंट की थी, जिस पर नाराज होकर उन्होंने चेतावनी दी थी कि अगर कहीं भी ऐसा दोबारा किया तो वे ऐसे समारोहों का बहिष्कार करेंगे।
पिछली दफा राज्यसभा का परचा दाखिल करते हुए मायावती ने आमदनी वाले कॉलम में एक सौ तेईस करोड़ रुपए की संपत्ति दिखाई थी। हकीकत यह थी कि मायावती के गैर-जनतांत्रिक व्यवहार के चलते बसपा में भ्रष्ट और अपराधी तत्त्वों की भरमार हो गई थी, जिसके कारण पूरा दलित समाज न सिर्फ बदनाम हुआ, बल्कि इससे दलित विरोधी भावनाएं भी समाज में खूब विकसित हुर्इं। एक तरह से मायावती दलित वोटों का व्यापार करने लगी थीं। पिछले अनेक वर्षों में चमार और जाटव समाज के लोग उत्तर प्रदेश में भेड़ की तरह मायावती के पीछे चलने लगे थे। इसलिए वे भ्रष्टाचारियों और अपराधियों को चुन कर विधानसभा और संसद में भेजने लगे थे।
बाबा साहेब आंबेडकर ने संविधानसभा में बोलते हुए एक बार कहा था, 'धर्म में नायक पूजा किसी को मुक्ति प्रदान कर सकती है, पर राजनीति में नायक पूजा निश्चित रूप से तानाशाही की ओर ले जाएगी।' मायावती के संदर्भ में यह शत-प्रतिशत सही सिद्ध हुआ। राजा-रानियों की तरह मायावती ने अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करते हुए प्रेस सम्मेलन में कहा था, 'मेरा उत्तराधिकारी चमार जाति का ही होगा, जिसका नाम मैंने एक लिफाफे में बंद कर दिया है। यह लिफाफा मेरी मृत्यु के बाद खोला जाएगा।' इससे एक बात साफ हो गई कि मायावती के रहते कोई अन्य दलित नेता नहीं बन सकता था।
उनके द्वारा बार-बार चमार जाति के उल्लेख से दलित की गैर-चमार जातियां बसपा से कटती चली गर्इं और उनमें से अधिकतर या तो भाजपा के साथ हो गर्इं या मुलायम सिंह यादव के साथ चली गर्इं। उत्तराधिकारी की घोषणा के बाद एक रोचक घटना हुई। मीडिया वालों ने अंदाजवश आजमगढ़ के राजाराम के रूप में उत्तराधिकारी की पहचान कर ली। परिणामस्वरूप मायावती ने अविलंब राजाराम को पार्टी से बर्खास्त कर दिया।
जब मायावती सामाजिक अभियांत्रिकी (सोशल इंजीनियरी) के नाम पर ब्राह्मणों को सतीश मिश्रा के माध्यम से अपनी तरफ खींचने का अभियान चला रही थीं तो दलितों के विरुद्ध उसका दूरगामी प्रभाव पड़ा। इससे पहले चुनावी राजनीति में ही सही, सारी पार्टियां दलितों को अपनी तरफ खींचने का प्रयास करती थीं और उनके लिए तरह-तरह के वादे भी किया करती थीं, जिसका परिणाम अनेक अवसरों पर काफी सकारात्मक भी हुआ करता था। इसलिए दलित हमेशा एक दबाव समूह का काम करते थे। पर मायावती उस तथाकथित सामाजिक अभियांत्रिकी के चलते हर पार्टी के लिए ब्राह्मण खुद दबाव समूह के लिए दलितों को हाशिये पर डाल दिए। परिणामस्वरूप मायावती के चक्कर में दलित हर पार्टी के लिए दुश्मन बन गए। अब उनके कल्याण के लिए कोई भी पार्टी तत्पर नहीं दिखाई पड़ती। सच ही कहा गया है, 'माया मिली न राम।'
मायावती के एक अन्य दलित-विरोधी फैसले का दूरगामी प्रभाव पड़ा। किसी गैर-दलित मुख्यमंत्री की कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि वह 'दलित अत्याचार विरोधी अधिनियम' से छेड़छाड़ करे। पर मायावती जब भाजपा के साथ संयुक्त सरकार चला रही थीन, तो उन्होंने गैर-दलितों को खुश करने के लिए उपरोक्त अधिनियम में संशोधन करके यह प्रावधान कर दिया कि दलित महिलाओं के साथ बलात्कार जैसे अपराधों को पुलिस तब तक दर्ज न करे, जब तक कि डॉक्टर प्रमाणित न कर दे कि सही मायने में बलात्कार हुआ है। मायावती के इस आदेश का परिणाम यह हुआ कि दलितों पर तरह-तरह के अत्याचार होते रहे, पर पुलिस अधिकतर मामलों में आज भी केस दर्ज नहीं करती है।
इस बार लोकसभा चुनावों में जब बसपा का सफाया हो गया, तो मायावती ने इसके लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा दिया। हकीकत तो यह है कि मायावती अपनी व्यक्तिगत सत्ता के लिए लगातार जातिवादी नीतियां अपनाती रही हैं, जिससे दलित निरंतर सबसे कटते चले गए। पिछले पचीस सालों के अनुभव से पता चलता है कि अब देश को जातिवादी पार्टियों की जरूरत नहीं है, बल्कि सबके सहयोग से जाति-व्यवस्था विरोधी एक मोर्चे की आवश्यकता है, अन्यथा जातियां मजबूत होती रहेंगी, जिससे धर्म की राजनीति को ऑक्सीजन मिलता रहेगा। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान डॉ. आंबेडकर ने गांधीजी से कहा था, 'स्वतंत्रता आंदोलन में सारा देश एक तरफ है, पर जाति-व्यवस्था विरोधी आंदोलन सारे देश के खिलाफ है, इसलिए यह काम बहुत मुश्किल है।' उम्मीद है, दलित इतिहास से कुछ सीख अवश्य लेंगे।
(जनसत्ता 25 मई, 2014 से साभार)

शनिवार, 18 मार्च 2017

डॉ. आंबेडकर की राजनीति, राजनैतिक पार्टी एवं सत्ता की अवधारणा

डॉ. आंबेडकर की राजनीति, राजनैतिक पार्टी  एवं सत्ता की अवधारणा
- एस.आर. दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट



साथियो! जैसा कि आप अवगत हैं कि वर्तमान दलित राजनीति एक बहुत बड़े संकट में से गुज़र रही है. हम लोगों ने देखा है कि पहले बाबासाहेब द्वारा स्थापित रेडिकल रिपब्लिकन पार्टी कैसे व्यक्तिवाद, सिद्धांतहीनता और अवसरवाद का शिकार हो कर बिखर चुकी है. इसके बाद बहुजन के नाम पर शुरू हुयी दलित राजनीति कैसे सर्वजन के गर्त में समा गयी है.  इस समय दलितों के सामने एक राजनीतिक शून्यता की स्थिति पैदा हो गयी है. मेरे विचार में इस संकट के समय में सबसे पहले हमें डॉ. आंबेडकर के राजनीति, राजनेता, राजनैतिक सत्ता और राजनीतिक पार्टी के सम्बन्ध में विचारों का पुनर अध्ययन करना चाहिए और उसे वर्तमान परिपेक्ष्य में समझ कर एक नए रेडिकल विकल्प का निर्माण करना चाहिए. इसी ध्येय से इस लेख में डॉ. आंबेडकर के राजनैतिक पार्टी, राजनेता और सत्ता की अवधारणा के बारे में विचारों को संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि इन माप-दंडों पर वर्तमान दलित राजनीति और राजनेताओं का आंकलन करके एक नया विकल्प खड़ा किया जा सके.
1. “राजनीति वर्ग चेतना पर आधारित  होनी चाहिए. जो राजनीति वर्ग चेतना के प्रति सचेत नहीं है वह ढोंग है.”
2. “केवल राजनीतिक आदर्श रखना ही काफी नहीं है. इन आदर्शों को विजयी बनाना भी ज़रूरी है. परन्तु आदर्शों की विजय एक संगठित पार्टी द्वारा ही संभव है न कि व्यक्तियों द्वारा.”
3. एक राजनैतिक पार्टी एक सेना की तरह होती है. इसके ज़रूरी अंग हैं:-
एक नेता जो एक सेनापति जैसा हो.
एक संगठन जिस में (1) सदस्यता, (2) एक ज़मीनी योजना (3) अनुशासन हो.
इसके सिद्धांत और नीति ज़रूर होनी चाहिए.
इसका प्रोग्राम या कार्य योजना होनी चाहिए.
इस की रणनीति और कौशल होना चाहिए यानि कि कब क्या करना है तथा लक्ष्य तक कैसे पहुंचना है, की योजना होनी चाहिए.”
3. “किसी भी पार्टी में कभी भी न बिकने वाला इमानदार नेतृत्व का बहुत महत्त्व है. उसी प्रकार पार्टी के विकास के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं का होना भी बहुत ज़रूरी है.”
4. “एक राजनैतिक पार्टी का काम केवल चुनाव जीतना ही नहीं होता है. एक राजनैतिक पार्टी का काम लोगों को राजनीतिक तौर से शिक्षित करने, उद्देलित करने और संगठित करने का होता है.”
5. “आप के नेता बहुत योग्य होने चाहिए. आप के नेताओं का साहस और बौद्धिकता किसी भी पार्टी के सर्वोच्च नेता की टक्कर की होनी चाहिए.”
6. शैड्युल्ड कास्ट्स फेडरशन के एजंडा के बारे में बोलते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था:-
1. “आज हमारा मुख्य काम जनता में वर्ग चेतना पैदा करना है और तब वर्तमान विरोधी नेतृत्व अपने आप ध्वस्त हो जायेगा.
2. राजनीतिक आज़ादी जीतने के लिए शोषकों और शोषितों का गठजोड़ ज़रूरी हो सकता है परन्तु शोषकों और शोषितों के गठजोड़ से समाज के पुनर्निर्माण हेतु साँझा पार्टी बनाना जनता को धोखा देना है.
3. पूंजीपतियों और ब्राह्मणों के हाथ में राजनीतिक सत्ता देने से उन की प्रतिष्ठा बढ़ेगी. इस के विपरीत दलितों और पिछड़ों के हाथ में सत्ता देने से राष्ट्र की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और यह भौतिक समृद्धि बढ़ाने में सहायक होगा.
4. राजनीतिक सत्ता सामाजिक प्रगति की चाबी है और दलित संगठित होकर सत्ता पर कब्ज़ा करके  अपनी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं. राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल समाज के विकास के लिए किया जाना चाहिए.
7. "राजनीतिक सत्ता का मुख्य ध्येय सामाजिक और आर्थिक सुधार करना होना चाहिए.”
8. “हमें पिछड़ों और आदिवासियों के साथ गठजोड़ करना चाहिए क्योंकि उन की स्थिति भी दलितों जैसी ही है. उनमें फिलहाल राजनीतिक चेतना की कमी है.”
9. नायक पूजा के खिलाफ:
 “असीमित प्रशंसा के रूप में नायक पूजा एक बात है. नायक की आज्ञा मानना एक बिलकुल अलग तरह की नायक पूजा है. पहली में कोई बुराई नहीं है परन्तु दूसरी बहुत घातक है. पहली प्रकार की नायक पूजा व्यक्ति की बुद्धि और कार्य स्वतंत्रता का हनन नहीं करती है. दूसरी व्यक्ति को पक्का मूर्ख बना देती है. पहली से देश का कोई नुक्सान नहीं होता है. दूसरी प्रकार की नायक पूजा तो देश के लिए पक्का खतरा है.”
“यदि आप शुरू में ही नायक पूजा के विचार पर रोक नहीं लगायेंगे तो आप बर्बाद हो जायेंगे. किसी व्यक्ति को देवता बना कर आप अपनी सुरक्षा और मुक्ति के लिए एक व्यक्ति में विश्वास करने लगते हैं जिस का नतीजा होता है कि आप निर्भर रहने तथा अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन रहने की आदत बना लेते हैं. यदि आप इन विचारों के शिकार हो जायेंगे तो राष्ट्रीय जीवन में आप लकड़ी के लट्ठे की तरह हो जायेंगे. आप का संघर्ष समाप्त हो जायेगा.”
10.  डॉ. आंबेडकर का अक्सर दोहराया जाने वाला नारा "राजनैतिक सत्ता सब समस्याओं की चाबी है" दलित नेताओं के हाथों नाकाम हो गया है. इसका मुख्य कारण उनका  दलितों के सामजिक व् आर्थिक सश्क्तिकरण का कोई भी एजेंडा  न होना है. वास्तव में उनमें  ऐसी दृष्टि का सर्वथा अभाव  है. राजनीति की भूमिका पर  विचार प्रकट करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था, "किसी भी राष्ट्र के जीवन में राजनीति ही सब कुछ नहीं होती है. हमें भारतीय समस्यायों के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों का अध्ययन करना चाहिए और पददलित वर्गों की समस्यायों को हल करने के लिए अपने ढंग से प्रयास करना चाहिए." परन्तु दलित नेताओं के लिए राजनैतिक सत्ता जीतना ही सब कुछ है. डॉ. आंबेडकर ने तो यह कहा था कि "सत्ता का इस्तेमाल समाज के विकास के लिए किया जाना चाहिए" परन्तु दलित नेताओं ने इस का इस्तेमाल समाज के लिए लगभग नगण्य परन्तु अपने लिए खूब  किया है.
11.  प्रशासन की भूमिका की व्याख्या करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था, "लोगों के  कल्याण के लिए स्वच्छ प्रशासन ज़रूरी है. लोगों को रोटी और कपड़ा देने में कठिनाई हो सकती है परन्तु जनता को स्वच्छ प्रशासन देने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए." परन्तु मायावती स्वच्छ प्रशासन देने में बिलकुल नाकाम रही है. उसके व्यक्तिगत भ्रष्टाचार की छूत  सरकार के सभी विभागों तक फ़ैल गयी थी. उसने इस कहावत को "सत्ता भ्रष्ट कर देती है और निरंकुश सत्ता निरंकुश रूप से भ्रष्ट कर देती है " को पूरी तरह से सही सिद्ध कर दिया है. उसने उत्तर प्रदेश के लिए "चिंता जनक रूप से भ्रष्ट राज्य" की ख्याति  अर्जित कर  दी थी.
12.  डॉ. अम्बेडकर ने एक बार कहा था, "मेरे  विरोधी मेरे विरुद्ध सभी प्रकार के आरोप लगाते रहे हैं परन्तु कोई भी मेरे  चरित्र और सत्यनिष्ठा पर ऊँगली उठाने का  साहस नहीं कर सका." कितने  दलित नेता अपने लिए इस प्रकार का दावा कर  सकते हैं?
13.  स्वतंत्र मजदूर पार्टी की मीटिंग में डॉ. आंबेडकर  ने कहा था, "मजदूरों के दो दुश्मन हैं- एक पूंजीवाद और दूसरा ब्राह्मणवाद. उन्हें इन से कभी भी समझौता नहीं करना चाहिए." परन्तु मायावती ने इन दोनों को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है. ब्राह्मणवाद को सर्वजन के रूप में और पूंजीवाद को कारपोरेटीकरण  के रूप में.
14.  डॉ. आंबेडकर ने  संघर्ष और ज़मीनी स्तर के सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों को बहुत महत्व दिया था. वास्तव में यह आन्दोलन ही उनकी राजनीति का आधार थे. परन्तु वर्तमान दलित पार्टियाँ संघर्ष न करके सत्ता पाने के आसान रास्ते तलाश करती हैं. बसपा इस का सब से बड़ा उदहारण है. डॉ. आंबेडकर का "शिक्षित करो , संघर्ष करो और संगठित करो " का नारा दलित राजनीति का भी मूलमंत्र होना चाहिए.
15.  डॉ. आंबेडकर दलितों के लिए भूमि के महत्व को भली भांति जानते थे. उनका यह निश्चित मत था कि दलितों पर इस लिए अत्याचार होते हैं क्योंकि उनके पास ज़मीन नहीं है. इसी लिए उन्होंने आगरा के भाषण में कहा था, “मैंने अब तक जो कुछ भी किया है वह पढ़े लिखे दलितों के लिए ही किया है. परन्तु मैं अपने ग्रामीण भाईयों के लिए कुछ नहीं कर सका. अब मैं लाठी लेकर आगे आगे चलूँगा और सब को ज़मीन दिला कर ही दम लूँगा.”
बाबासाहेब ने अपने जीवन काल में कोंकण क्षेत्र में शैडयुल्ड कास्ट्स फेडरेशन के तत्वाधान में   भूमि आन्दोलन चलाया था और दलितों को गुलाम बना कर रखने वाली खोती प्रथा को समाप्त करने के लिए केस लड़ा था और जीता भी था. इसके बाद रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया ने 1964-65 में पूरे देश में भूमि आन्दोलन चलाया था और इसमें 3 लाख से अधिक दलित जेल गए थे. इस के दबाव में कांग्रेस सरकार को आर.पी.आई की भूमि आबंटन, न्यूनतम मजदूरी एवं अन्य सभी मांगे माननी पड़ी थीं. परन्तु इस के बाद किसी भी दलित पार्टी अथवा दलित नेता ने दलितों के भूमि के मुद्दे को नहीं उठाया क्योंकि इसके लिए  संघर्ष करना पड़ता है जिस से वे डरते हैं. इतना ही नहीं मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्य मंत्री बनी परन्तु उस ने भी एक बार (1995) को छोड़ कर भूमि आबंटन का कोई कार्यक्रम नहीं चलाया जब कि उत्तर प्रदेश में इस हेतु पर्याप्त भूमि उपलब्ध थी. इस का मुख्य कारण उसकी बहुजन की राजनीति छोड़ कर सर्वजन की राजनीति अपनाना था. यह सर्वविदित है कि सरकारी ज़मीन अधिकतर उच्च जातियों के अवैध कब्ज़े में थी परन्तु मायावती उनसे ज़मीन छीन कर उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहती थी.
2011 की आर्थिक एवं सामाजिक जनगणना के अनुसार देश के देहात क्षेत्र में 42% परिवार भूमिहीनता तथा  हाथ की मजदूरी करने वाले हैं जो कि उनकी सब से बड़ी कमजोरी है. इनमें अगर दलित परिवारों को देखा जाये तो वह 70 से 80% हो सकते हैं. इस कारण दलित भूमिधारकों पर निर्भर हैं जिस कारण वे सभी प्रकार के अत्याचार सहने के लिए मजबूर हैं. इसी कारण दलितों के लिए भूमि का प्रश्न आज भी बहुत महत्वपूर्ण है.
16.  डॉ. आंबेडकर की दलित राजनेताओं और कार्यकर्ताओं से अपेक्षा
“ यदि किसी को राजनीति करनी हो, तो पहले उसे राजनीति का अच्छा अध्ययन करना चाहिए. अध्ययन के बगैर दुनिया में कुछ भी साधा नहीं जा सकता. हमारे प्रत्येक कार्यकर्त्ता को राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक प्रश्नों का बारीकी के साथ अध्ययन करना चाहिए. जिन्हें नेता बनना है, उन्हें नेता के कर्तव्य व नेता की जिम्मेदारी क्या होती है, इस बात की समझ होनी चाहिए. हमारे  नेता की जिम्मेदारी बहुत बड़ी है. दूसरे समाज के नेता की तरह हमारे समाज के नेता की स्थिति नहीं है. दूसरे नेता को सभा में जाना, लम्बे भाषण करना, तालियाँ बटोरना और अंत में गले में हार पहन कर घर आना, इतना ही काम करना रहता है. हमारे नेता के इतना करने मात्र से बात नहीं बनेगी. उसे अच्छी तरह अध्ययन करना, चिंतन करना, समाज की उन्नति के लिए दिन-रात दौड़-धूप करनी पड़ेगी. तब ही वह हमारे लोगों का भला कर पायेगा और ऐसा करने वाला ही हमारा सच्चा नेता होगा.” ( डॉ. आंबेडकर के प्रेरक भाषण (2014), सम्यक प्रकाशन, नयी दिल्ली. पृष्ठ- 100)
वैसे तो डॉ. आंबेडकर का लेखन बहुत विस्तृत है जिसे किसी एक विषय पर संकलित करना बहुत कठिन है. फिर भी मैंने उपरोक्त विषय पर उनके कुछ विचारों को संकलित कर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ताकि हम लोग उनका पुनर स्मरण करके वर्तमान दलित राजनीति के संकट से उबर सकें और नए राजनीतिक विकल्प का निर्माण कर सकें. इस सम्बन्ध में सभी अम्बेद्करवादियों और जनवादी, प्रगतिशील राजनीति के पक्षधर साथियों से अनुरोध है कि वे इस सम्बन्ध में अपने बहुमूल्य सुझाव अवश्य दें.





मंगलवार, 14 मार्च 2017

उदारतावाद का विरोध करो – माओ त्सेतुंग


उदारतावाद का विरोध करो
– माओ त्सेतुंग
7 सितम्बर, 1937

(नोट: माओ त्सेतुंग का यह लेख यद्यपि पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए लिखा गया था परन्तु यह सामान्य जनजीवन के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है. आज हमारे जनजीवन में जो व्याधियां व्याप्त हैं वे इसी उदारतावाद की ही देन हैं. इसी लिए मेरे विचार में हम सब लोगों को जो किसी भी क्षेत्र में हों को इस लेख को अवश्य पढ़ना चाहिए ताकि हम लोग उदारतावाद से उपजी बुराईयों पर काबू पा सकें.
दलितों को यह लेख अवश्य पढना चाहिए क्योंकि वर्तमान में वे राजनितिक क्षेत्र में उदारतावाद का सबसे बड़ा शिकार हैं. )

हम सक्रिय विचारधारात्मक संघर्ष का समर्थन करते हैं क्योंकि यह एक ऐसा हथियार है जो हमारे संघर्ष के हित में पार्टी की एकता और क्रन्तिकारी संगठनों की एकता की गारंटी कर देता है. हर कम्युनिस्ट और क्रांतिकारी को चाहिए कि वह इस हथियार का उपयोग करे. लेकिन उदारतावाद विचारधारात्मक संघर्ष से इनकार करता है और सिद्धान्तहीन शांति का समर्थन करता है; इस तरह यह एक सड़े-गले, अधकचरे रुख को जन्म देता है और पार्टी व क्रांतिकारी संगठनों की कुछ इकाईयों और व्यक्तियों को राजनीतिक पतन की ओर ले जाता है.
उदारतावाद विभिन्न रूपों में सामने आता है.
यह मालूम होते हुए भी सम्बंधित व्यक्ति स्पष्टत: गलत है, लेकिन चूँकि वह पुराणी जान-पहचान का है, एक ही इलाके का है, स्कूली दोस्त है, घनिष्ठ मित्र है, प्रियजन है, पुराना सहकर्मी है या पहले मातहत रह चुका है, इसलिए उससे सिद्धांत के आधार पर तर्क न करना, बल्कि शांति और मित्रता बनाये रखने के लिए मामले को घिसटने देना. या फिर मामले को महज़ उपरी तौर पर छू देना, उसका पूरी तरह समाधान न करना जिससे कि अच्छे सम्बन्ध बने रहें. नतीजे के तौर पर संगठन तथा सम्बंधित व्यक्ति दोनों को नुक्सान पहुंचाना. यह पहली किस्म का उदारतावाद है. संगठन के सामने सक्रिय रूप से अपने विचार पेश न करके एकांत में गैर-जिम्मेदारी के साथ आलोचना करना. लोगों के मुंह पर तो कुछ न कहना लेकिन पीठ पीछे बुराई करना, या सभा में तो चुप्पी साधे रहना लेकिन बाद में अनाप-शनाप बकना. सामूहिक जीवन के सिद्धांतों को कतई नज़रंदाज़ करते हुए खुद अपनी मर्ज़ी के मुताबिक चलना. यह दूसरी किस्म का उदारतावाद है.
किसी बात से अगर सीधा ताल्लुक न हो, तो फिर उसकी तरफ से उदासीन हो जाना; यह अच्छी तरह से भी जानते हुए भी कि क्या गलत है, उस बारे में कम बोलना; दुनियादारी से काम लेना और अपनी चमड़ी बचाने की कोशिश करना तथा सिर्फ यह कोशिश करते रहना कि कहीं इलज़ाम अपने सर पर न आ जाये. यह तीसरी किस्म का उदारतावाद है.
आदेशों का पालन न करना बल्कि खुद अपनी राय को सर्वोपरी रखना. संगठन से अपने प्रति विशेष व्यवहार की मांग करना. यह चौथी किस्म का उदारतावाद है.
एकता बढ़ाने, प्रगति करने या काम सुचारू रूप से चलाने के उद्देश्य से गलत विचारों के विरुद्ध संघर्ष या वाद- विवाद करने के बजाए व्यक्तिगत आक्षेप करना, झगड़ा मोल लेना. व्यक्तिगत शिकवे-शिकायतों को सामने लाना, या बदला लेना. यह पांचवीं किस्म का उदारवाद है.
गलत विचारों को सुनकर भी उनका विरोध न करना और यहाँ तक आगे बढ़ जाना कि क्रांति-विरोधी बातों को सुनकर भी उनके बारे में नेतृत्व को खबर न देना, बलि उन्हें चुपचाप बर्दाश्त कर लेना, मानो कुछ हुआ ही न हो. यह छठी किस्म का उदारतावाद है.
जनता के बीच रहकर भी प्रचार और आन्दोलन न करना, अथवा भाषण न देना या जांच-पड़ताल और पूछताछ न करना, बल्कि जनता से कोई वास्ता ही न रखना, उसकी सुख-सुविधायों की तरफ कतई ध्यान न देना: यह भूल जाना कि वह एक कम्यूनिस्ट है और इस तरह व्यवहार करना मानों वह कोई मामूली सा गैर-कम्युनिस्ट हो. यह सातवीं किस्म का उदारतावाद है.
यह देख कर भी कि कोई जनता के हितों को नुक्सान पहुंचा रहा है. क्रोध अनुभव न करना, ऐसे आदमी को मना न करना या न रोकना, अथवा उसे न समझाना-बुझाना, बल्कि उसे यह सब करने देना. यह आठवीं किस्म का उदारतावाद है.
बिना किसी निश्चित योजना या निर्देशन के बेमन से काम करन; लापरवाही से किसी न किसी तरह अपनी डयूटी पूरी करते जाना और जैसे तैसे दिन बिता देना-“जब तक मैं बौद्ध भिक्षु हूँ, घंटी बजाता रहूँगा.” यह नवीं किस्म का उदारतावाद है.
अपने बारे में ऐसा समझना कि मैंने क्रांति के लिए भारी योगदान किया है, बहुत तजरबेकार होने की शेखी बघारना, बड़े काम करने के योग्य होना मगर फिर भी छोटे कामों को हिकारत की नज़र से देखना, काम के प्रति लापरवाह होना और अध्ययन में ढील आने देना. यह दसवीं किस्म का उदारतावाद है.
अपनी गलतियों को जानते हुए भी उन्हें सुधरने का प्रयास न करना और खुद अपने प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाना. यह ग्यारहवीं किस्म का उदारतावाद है.
हम उदारतावाद के और भी अनेक रूप गिना सकते हैं. लेकिन ये ग्यारह मुख्य हैं. ये सब उदारतावाद के ही रूप हैं.
क्रांतिकारी संगठनों के लिए उदारतावाद अत्यंत हानिकारक होता है. उदारतावाद एक ऐसा घुन है जो एकता को खा जाता है, भाईचारे को कमज़ोर बनाता है, काम में निष्क्रियता ला देता है और मतभेद पैदा कर देता है. यह क्रांतिकारी पांतों को ठोस संगठन व कठोर अनुशासन से वंचित कर देता है, नीतियों को पूर्णतया लागू होने से रोक देता है और पार्टी के नेतृत्व में चलने वाली जनता को पार्टी-संगठनों से अलग कर देता है. यह एक हद्द दर्जे की एक बुरी प्रवृति है.
उदारतावाद का जन्म निम्न-पूंजीपति वर्ग की स्वार्थपरता से होता है. यह व्यक्तिगत हितों को सर्वोपरी रखता है और क्रांति के हितों को दूसरा स्थान देता है, और यह स्थिति विचारधारात्मक, राजनीतिक व संगठनात्मक उदारतावाद को उत्पन्न कर देती है.
उदारतावादी लोग मार्क्सवाद के सिद्धांतों को महज़ खोखले जड़सूत्रों के रूप में देखते हैं. वे मार्क्सवाद को स्वीकार तो करते हैं, लेकिन उस पर अमल करने या पूर्णतया अमल करने के लिए तैयार नहीं होते. ऐसे लोगों के पास मार्क्सवाद होता तो है, किन्तु साथ ही साथ उनके पास उदारतावाद भी होता है- वे बातें तो मार्क्सवाद की करते हैं पर अमल उदारतावाद पर करते है; वे दूसरों पर तो मार्क्सवाद लागू करते हैं, और खुद अपने लिए उदारतावाद बरतते हैं. उनके झोले में दोनों ही तरह का माल रहता है, जहाँ जैसा मौका देखा वहां उस तरह का भिड़ा दिया. कुछ लोगों का दिमाग इसी तरह काम करता है.
उदारतावाद अवसरवाद का ही एक रूप है और मार्क्सवाद का उससे बुनियादी विरोध है. उसका स्वरूप नकारात्मक है और वस्तुगत रूप में वह शत्रु के लिए सहायक बन जाता है; यही कारण है कि शत्रु हमारे बीच उदारतावाद के बने रहने का स्वागत करता है. जब उसका स्वरूप इस तरह का है, तो फिर क्रांतिकारी पांतों में उसे कोई जगह नहीं मिलनी चाहिए.
उदारतावाद पर, जो एक नकारात्मक भावना है, विजय पाने के लिए हमें मार्क्सवाद का, जो एक सकारात्मक भावना है, इस्तेमाल करना चाहिए. एक कम्युनिस्ट का हृदय विशाल होना चाहिए, और उसे निष्ठावान व सक्रिय होना चाहिए, क्रांति के हितों को उसे अपने प्राणों से भी ज्यादा मूल्यवान समझना चाहिए और अपने व्यक्तिगत हितों को क्रांति के हितों के अधीन रखना चाहिए; उसे हर जगह और हमेशा सही सिद्धांतों पर डटे रहना चाहिए और सभी गलत विचारों और कामों के विरुद्ध अथक संघर्ष `चलाना चाहिए ताकि पार्टी की सामूहिक जिंदगी और अधिक ठोस बने तथा पार्टी और जन-समुदाय के बीच की कड़ियाँ और अधिक मज़बूत हों; उसे किसी व्यक्ति-विशेष से अधिक पार्टी और जन-समुदाय की चिंता होनी चाहिए और अपने से अधिक दूसरों का ध्यान रखना चाहिए. सिर्फ तभी उसे कम्यूनिस्ट माना जायेगा.
तमाम वफादार, ईमानदार, सक्रिय व सच्चे कम्युनिस्टों को चाहिए कि वे एकताबद्ध होकर हमारे बीच कुछ लोगों के अन्दर पैदा हुयी उदारतावादी प्रवृतियों का विरोध करें और उन्हें सही रास्ते पर ले आयें. यह विचारधारात्मक मोर्चे पर हमारे कार्यों में से एक है.


सोमवार, 13 मार्च 2017

मायावती की अवसरवादी जातीय राजनीति के दुष्परिणाम - आनंद तेल्तुम्बडे

मायावती की अवसरवादी जातीय राजनीति के दुष्परिणाम - आनंद तेलतुंबड़े 




कुछ समझदार दलित बुद्धिजीवियों ने इस पर अफसोस जाहिर किया है कि बसपा ने दलितों के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया है. लेकिन इस मामले की असल बात यह है कि इस खेल का तर्क बसपा को ऐसा करने की इजाजत नहीं देता है. जैसे कि शासक वर्गीय दलों के लिए यह बेहद जरूरी है कि वे जनसमुदाय को पिछड़ेपन और गरीबी में बनाए रखें, मायावती ने यही तरीका अख्तियार करते हुए उत्तर प्रदेश में दलितों को असुरक्षित स्थिति में बनाए रखा. वे भव्य स्मारक बना सकती थीं, दलित नायकों की प्रतिमाएं लगवा सकती थीं, चीजों के नाम उन नायकों के नाम पर रख सकती थीं और दलितों में अपनी पहचान पर गर्व करने का जहर भर सकती थीं लेकिन वे उनकी भौतिक हालत को बेहतर नहीं बना सकती थीं वरना ऐसे कदम से पैदा होने वाले अंतर्विरोध जाति की सोची-समझी बुनियाद को तहस नहस कर सकते थे. स्मारक वगैरह बसपा की जीत में योगदान करते रहे औऱ इस तरह उनकी घटक जातियों तथा समुदायों द्वारा हिचक के साथ वे कबूल कर लिए गए. लेकिन भेद पैदा करने वाला भौतिक लाभ समाज में ऐसी न पाटी जा सकने वाली खाई पैदा करता, जिसे राजनीतिक रूप से काबू में नहीं किया सकता. इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि एक दलित या गरीब परस्त एजेंडा नहीं बनाया जा सकता था. राजनीतिक सीमाओं के बावजूद वे दिखा सकती थीं कि एक ‘दलित की बेटी’ गरीब जनता के लिए क्या कर सकती है. लेकिन उन्होंने न केवल अवसरों को गंवाया बल्कि उन्होंने लोगों के भरोसे और समर्थन का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया.
बाद में उनकी बढ़ी हुई महत्वाकांक्षाएं उन्हें बहुजन से सर्वजन तक ले गईं, जिसमें उन्होंने अपना रुख पलटते दिया और उनमें दलितों के लिए जो भी थोड़ा बहुत सरोकार बचा था, उसे और खत्म कर दिया. तब अनेक विश्लेषकों ने यह अंदाजा लगाया था कि दलित मतदाता बसपा से अलग हो जाएंगे, लेकिन दलित उन्हें हैरानी में डालते हुए मायावती के साथ पहले के मुकाबले अधिक मजबूती से खड़े हुए और उन्हें 2007 की अभूतपूर्व सफलता दिलाई. इसने केवल दलितों की असुरक्षा को ही उजागर किया. वे बसपा से दूर नहीं जा सकते, भले ही इसकी मुखिया चाहे जो कहें या करें, क्योंकि उन्हें डर था कि बसपा के सुरक्षात्मक कवच के बगैर उन्हें गांवों में सपा समर्थकों के हमले का सामना करना पड़ेगा. अगर मायावती इस पर गर्व करती हैं कि उनके दलित मतदाता अभी भी उनके प्रति आस्थावान हैं तो इसका श्रेय मायावती को ही जाता है कि उन्हें दलितों को इतना असुरक्षित बना दिया है कि वे इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं अपना सकते. निश्चित रूप से इस बार भाजपा ने कुछ दलित जातियों को लुभाया है और वे संभवत: गोंड, धानुक, खटिक, रावत, बहेलिया, खरवार, कोल आदि हाशिए की जातियां होंगी जो दलित आबादी का 9.5 फीसदी हिस्सा हैं. मुसलमान भी ऐसे ही एक और असुरक्षित समुदाय हैं जिन्हें हमेशा अपने बचाव कवच के बारे में सोचना पड़ता है. इस बार बढ़ रही मोदी लहर और घटती हुई बसपा की संभावनाओं को देखते हुए वे सपा के इर्द-गिर्द जमा हुए थे उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा. 2007 के चुनावों में उत्तर प्रदेश की सियासी दुनिया में फिर से दावेदारी जताने को बेकरार ब्राह्मणों समेत ये सभी जातियां बसपा की पीठ पर सवार हुईं और उन्होंने बसपा को एक भारी जीत दिलाई थी, लेकिन बसपा उनकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी. तब वे उससे दूर जाने लगे जिसका नतीजा दो बरसों के भीतर, 2009 के आम चुनावों में दिखा जब बसपा की कुल वोटों में हिस्सेदारी 2007 के 30.46 फीसदी से गिरकर 2009 में 27.42 फीसदी रह गई. इस तरह 3.02 फीसदी वोटों का उसे नुकसान उठाना पड़ा. तीन बरसों में यह नुकसान 1.52 फीसदी और बढ़ा और 2012 के विधानसभा चुनावों में कुल वोटों की हिस्सेदारी गिरकर 25.90 पर आ गई. और अब 2014 में यह 19.60 फीसदी रह गई है जो कि 6.30 फीसदी की गिरावट है. यह साफ साफ दिखाता है कि दूसरी जातियां और अल्पसंख्यक तेजी से बसपा का साथ छोड़ रहे हैं और यह आने वाले दिनों की सूचना दे रहा है जब धीरे धीरे दलित भी उन्हीं के नक्शेकदम पर चलेंगे. असल में मायावती की आंखें इसी बात से खुल जानी चाहिए कि उनका राष्ट्रीय वोट प्रतिशत 2009 के 6.17 से गिर कर इस बार सिर्फ 4.1 फीसदी रह गया है.
जबकि जाटव-चमार वोट उनके साथ बने हुए दिख रहे हैं, तो यह सवाल पैदा होता है कि वे कब तक उनके साथ बने रहेंगे. मायावती उनकी असुरक्षा को बेधड़क इस्तेमाल कर रही हैं. न केवल वे बसपा के टिकट ऊंची बोली लगाने वालों को बेचती रही हैं, बल्कि उन्होंने एक ऐसा अहंकार भी विकसित कर लिया है कि वे दलित वोटों को किसी को भी हस्तांतरित कर सकती हैं. उन्होंने आंबेडकरी आंदोलन की विरासत को छोड़ कर 2002 के बाद के चुनावों में मोदी के लिए प्रचार किया जब पूरी दुनिया मुसलमानों के जनसंहार के लिए उन्हें गुनहगार ठहरा रही थी. उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु कांशीराम के ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ जैसे नारों को भी छोड़ दिया और मौकापरस्त तरीके से ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ जैसे नारे चलाए. लोगों को कुछ समय के लिए पहचान का जहर पिलाया जा सकता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे बेवकूफ हैं. लोगों को मायावती की खोखली राजनीति का अहसास होने लगा है और वे धीरे धीरे बसपा से दूर जाने लगे हैं. उन्होंने मायावती को चार बार उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया लेकिन उन्होंने जनता को सिर्फ पिछड़ा बनाए रखने का काम किया और अपने शासनकालों में उन्हें और असुरक्षित बना कर रख दिया. उत्तर प्रदेश के दलित विकास के मानकों पर दूसरे राज्यों के दलितों से कहीं अधिक पिछड़े बने हुए हैं, बस बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के दलित ही उनसे ज्यादा पिछड़े हैं. मायावती ने भ्रष्टाचार और पतनशील सामंती संस्कृति को बढ़ाना देने में नए मुकाम हासिल किए हैं, जो कि बाबासाहेब आंबेडकर की राजनीति के उल्टा है जिनके नाम पर उन्होंने अपना पूरा कारोबार खड़ा किया है. उत्तर प्रदेश दलितों पर उत्पीड़न के मामले में नंबर एक राज्य बना हुआ है. यह मायावती ही थीं, जिनमें यह बेहद गैर कानूनी निर्देश जारी करने का अविवेक था कि बिना जिलाधिकारी की इजाजत के दलितों पर उत्पीड़न का कोई भी मामला उत्पीड़न अधिनियम के तहत दर्ज नहीं किया जाए. ऐसा करने वाली वे पहली मुख्यमंत्री थीं.
जातीय राजनीति की कामयाबी ने बसपा को इस कदर अंधा कर दिया था कि वह समाज में हो रहे भारी बदलावों को महसूस नहीं कर पाई. नई पीढ़ी उस संकट की आग को महसूस कर ही है जिसे नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने उनके लिए पैदा की हैं. देश में बिना रोजगार पैदा किए वृद्धि हो रही है, और सेवा क्षेत्र में जो भी थोड़े बहुत रोजगार पैदा हो रहा है उन्हें बहुत कम वेतन वाले अनौपचारिक क्षेत्र में धकेल दिया जा रहा है. सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्रों के सिकुड़ने से आरक्षण दिनों दिन अप्रासंगिक होते जा रहे हैं. दूसरी तरफ सूचनाओं में तेजी से हो रहे इजाफे के कारण नई पीढ़ी की उम्मीदें बढ़ती जा रही हैं. उन्हें जातिगत भेदभाव की वैसी आग नहीं झेलनी पड़ी है जैसी उनके मां-बाप ने झेली थी. इसलिए वे ऊंची जातियों के बारे में पेश की जाने वाली बुरी छवि को अपने अनुभवों के साथ जोड़ पाने में नाकाम रहते हैं. उनमें से अनेक बिना दिक्कत के ऊंची जातियों के अपने दोस्तों के साथ घुलमिल रहे हैं. हालांकि वे अपने समाज से रिश्ता नहीं तोड़ेंगे लेकिन जब कोई विकास के बारे में बात करेगा तो यह उन्हें अपनी तरफ खींचेगा. और यह खिंचाव पहचान संबंधी उन बातों से कहीं ज्यादा असरदार होगा जिसे वे सुनते आए हैं. दलित नौजवान उदारवादी संस्कृति से बचे नहीं रह सकते हैं, बल्कि उन्हें व्यक्तिवाद, उपभोक्तावाद, उपयोगवाद वगैरह उन पर असर डाल रहे हैं, इनकी गति हो सकता है कि धीमी हो. यहां तक कि गांवों में भीतर ही भीतर आए बदलावों ने निर्वाचन क्षेत्रों की जटिलता को बदल दिया है, जिसे हालिया अभियानों में भाजपा ने बड़ी महारत से इस्तेमाल किया जबकि बसपा और सपा अपनी पुरानी शैली की जातीय और सामुदायिक लफ्फाजी में फंसे रहे. बसपा का उत्तर प्रदेश के नौजवान दलित मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाना साफ साफ दिखाता है कि दलित वोटों में 1.61 करोड़ के कुल इजाफे में से केवल 9 लाख ने ही बसपा को वोट दिया.
भाजपा और आरएसएस ने मिल कर दलित और पिछड़ी जातियों के वोटों को हथियाने की जो आक्रामक रणनीति अपनाई, उसका असर भी बसपा के प्रदर्शन पर दिखा है. उत्तर प्रदेश में भाजपा के अभियान के संयोजक अमित शाह ने आरएसएस के कैडरों के साथ मिल कर विभिन्न जातीय नेताओं और संघों के साथ व्यापक बातचीत की कवायद की. शाह ने मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हमले का इस्तेमाल पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में लुभाने के लिए किया. उसने मोदी की जाति का इस्तेमाल ओबीसी वोटों को उत्साहित करने के लिए किया कि उनमें से ही एक इंसान भारत का प्रधानमंत्री बनने जा रहा है. इस रणनीति ने उन इलाकों की पिछड़ी जातियों में सपा की अपील को कमजोर किया, जो सपा का गढ़ मानी जाती थीं. इस रणनीति का एक हिस्सा बसपा के दलित आधार में से गैर-जाटव जातियों को अलग करना भी था. भाजपा ने जिस तरह से विकास पर जोर दिया और अपनी सुनियोजित प्रचार रणनीति के तहत बसपा की मौकापरस्त जातीय राजनीति को उजागर किया, उसने भी बसपा की हार में एक असरदार भूमिका अदा की. लेकिन किसी भी चीज से ज्यादा, बसपा की अपनी कारगुजारियां ही इसकी बदतरी की जिम्मेदार हैं. यह उम्मीद की जा सकती है कि इससे पहले कि बहुत देर हो जाए बसपा आत्मविश्लेषण करेगी और खुद में सुधार करेगी.

बुधवार, 8 मार्च 2017

नानक- अल्लामा इक़बाल


नानक - अल्लामा इक़बाल



क़ौम ने पैग़ाम-ए-गौतम की ज़रा परवा न की
कद्र पहचानी न अपने गौहर-ए-यक-दाना की 
आह बद-क़िस्मत रहे आवाज़-ए-हक़ से बे-ख़बर
ग़ाफ़िल अपने फल की शीरीनी से होता है शजर 
आश्कार उस ने किया जो ज़िंदगी का राज़ था
हिन्द को लेकिन ख़याली फ़ल्सफ़ा पर नाज़ था 
शम-ए-हक़ से जो मुनव्वर हो ये वो महफ़िल न थी
बारिश-ए-रहमत हुई लेकिन ज़मीं क़ाबिल न थी
आह शूदर के लिए हिन्दोस्ताँ ग़म-ख़ाना है
दर्द-ए-इंसानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है
बरहमन सरशार है अब तक मय-ए-पिंदार में 
शम-ए-गौतम जल रही है महफ़िल-ए-अग़्यार में 
बुत-कदा फिर बाद मुद्दत के मगर रौशन हुआ 
नूर-ए-इब्राहीम से आज़र का घर रौशन हुआ 
फिर उठी आख़िर सदा तौहीद की पंजाब से
हिन्द को इक मर्द-ए-कामिल ने जगाया ख़्वाब से 

बुद्ध - हरिवंश राय बच्चन

बुद्ध  - हरिवंश राय बच्चन 



जब ईश्वर-अल्ल्ह की नहीं गली दाल
वहाँ बुद्ध की क्या चलती चाल
वे थे मूर्ति के खिलफ उसने उन्ही की बनायीं मूर्ति 

वे थे पूजा के विरुद्ध उसने उन्ही को दिया पूज
उन्हें ईश्वर में था अविश्वास उसने उन्ही को कह दिया भगवान
वे तो आये थे फ़ैलाने को वैराग
मिटाने को श्रृंगार पटार उसने उन्ही को बना दिया श्रृंगार
बनाया उनका सुन्दर आकार
उनका बेल-मुंड था शीश उसने लगाये बाल घुँगरदार
मिट्टी,लकड़ी,लोहा,पीतल,तांबा,सोना,चाँदी,मूंगा,पन्ना,हाथी दाँत
सब के अंदर इन्हे डाल, तराश, खराद बना दिया इन्हे बाजार में बिकने का सामान
बुद्ध भगवान अमीरों के ड्राइंग रूम, रईसों के मकान
तुम्हारे चित्र, तुम्हारी मूर्ति से शोभायमान
पर वे हैं तुम्हारे दर्शन से अनभिज्ञ
तुम्हरे विचारों से अनजान
सपने में भी इन सब को नहीं आता ध्यान
इसीलिए क्या की थी आसमान जमीन एक
और आज देखता हूँ तुमको जहाँ
एक ओर है तुम्हारी प्रतिमा दूसरी ओर है डांसिंग हॉल
हे पशुओं पर दया के प्रचारक
अहिंसा के अवतार परम विरक्त संयम साकार
मची तुम्हारे सामने रूप यौवन की ठेल-पेल
इच्छा और वासना खुल कर कर रही है खेल
हर तरफ है हिंसा, हर तरफ है चोरी, मक्कारी.

सोमवार, 6 मार्च 2017

मायावती ने उत्तर प्रदेश के दलितों का क्या किया ?

मायावती ने उत्तर प्रदेश के दलितों का क्या किया ?
-एस. आर. दारापुरी आई. पी. एस. (से. नि. ) तथा राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
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(नोट: यद्यपि यह लेख 2008में लिखा गया था परन्तु आज भी उत्तर प्रदेश के दलितों की स्थिति में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ है)

भारतवर्ष में उत्तर प्रदेश कई मायनों में अपना एक स्थान रखता है. राजनीतिक दृष्टि से यह पहला राज्य है जहाँ प़र एक दलित महिला चौथी बार मुख्य मंत्री की कुर्सी पर आसीन हुई है. उ. प्र. की आबादी भारत के सभी राज्यों से अधिक है. यहाँ दलितों की सबसे बड़ी आबादी ( ३.५१ करोढ़ ) है जो कि प्रदेश की कुल आबादी का २१.१ प्रतिशत है. दुखदाई बात यह है कि यहीं दलितों पर सब से अधिक उत्पीडन की घटनाएँ घटित होती हैं. यहीं सबसे अधिक बच्चे एवं महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं. इसी प्रदेश में पोलिओ के सबसे अधिक मामले पाए जाते हैं. अब यह देखना होगा की विकास कि दृष्टि से उत्तर प्रदेश के दलित अन्य प्रदेशों के दलितों की अपेक्षा कहाँ ठहरते हैं. इस का सही मूल्याँकन करने हेतु विकास के निम्नलिखित पहलुओं पर दलितों की स्थिति का अध्ययन करना उचित होगा:-
स्त्री- पुरुष अनुपात
उत्तर प्रदेश के दलितों में महिलायों और पुरुषों का लिंग अनुपात ९०० प्रति हज़ार है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों का यह अनुपात ९३६ है. इसी प्रकार ०-६ वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों का यह अनुपात ९३० है जबकि राष्टीय स्तर पर यह अनुपात ९३८ है.
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि यहाँ के दलित देश के अन्य प्रान्तों के दलितों से इस अनुपात में काफी पीछे हैं जो कि दलित महिलायों और बच्चों की निम्न स्थिति का प्रतीक है इसका मुख्य कारण न केवल लड़कों की वरीयता के कारण है कन्यायों की भ्रूण हत्या है बल्कि महिलायों एवं बालिकाओं के साथ नियोजित भेदभाव एवं कुपोषण भी है.
वर्ष २००५-२००६ में किये गए राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में ४७ प्रतिशत महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं. इसी सर्वेक्षण में पाया गया था कि उत्तर प्रदेश में ४७ प्रतिशत बच्चे भी कुपोषण से ग्रस्त होने के कारण कम वज़न वाले थे जिनमें से १३ प्रतिशत बच्चे मृत्यु का शिकार हो गए और ४६ प्रतिशत बच्चों की शारीरिक बढोतरी बाधित हो चुकी थी. इस सर्वेक्षण से यह भी प्रकट हुआ था कि उत्तर प्रदेश में १००० जीवित प्रसवों में से ७३ मृत प्रसव थे जो कि ९ वर्ष पूर्व के राष्ट्रीय औसत ६७.६ से काफी अधिक थे. हाल में CRY संस्था दुआरा कराए गए सर्वेक्षण से पाया गया कि उत्तर प्रदेश में ७० प्रतिशत दलित बच्चे कुपोषण का शिकार हैं.
यद्यपि उपरोक्त आंकड़े सभी महिलायों और बच्चों कि स्थिति दार्शाते हैं परन्तु इनमें दलित महिलायों और बच्चों की स्थिति औ़र भी दयनीय है. इसी कारण इस राज्य में महिलायों और पुरुषों का लिंग अनुपात चिंतनीय है. सामान्य वर्ग और दलित महिलायों और बच्चों की उपरोक्त दुर्दशा के लिए महिला एवं बाल कल्याण सम्बन्धी योजनाओं जैसे समग्र बाल विकास योजना, मध्यान्ह भोजन योजना एवं सार्वजानिक खाद्यान्न वितरण प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं सरकारी मशीनरी द्वारा बरती जा रही उदासीनता जिम्मेवार है.
शिक्षा का स्तर
सन २००१ की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में दलितों की साक्षरता दर ४६.३ प्रतिशत है जबकि दलितों का राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा दर ५४.७ प्रतिशत है. पुरुषों एवं, महिलायों की शिक्षा दर क्रमश ६०.३ और ३०.५ प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों की यह दर क्रमश: ६६.६ और ४१.९ प्रतिशत है. इस प्रकार उत्तर प्रदेश के दलित पुरुष एवं महिलाएं साक्षरता दर में भारत के अन्य प्रान्तों के दलितों से काफी पीछे हैं. उत्तर प्रदेश के साक्षर दलितों में से ३८ प्रतिशत ऐसे हैं जिनका शिक्षा का कोई भी स्तर नहीं है. यहाँ अधिकांश दलित बहुत कम पड़े लिखे हैं . प्राईमरी और मिडल स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने वाले दलितों का प्रतिशत क्रमश: २७.१ और १८.५ प्रतिशत है. मैट्रिक, हायर सेकंडरी और स्नातक स्तर तक शिक्षा पाने वाले दलितों का प्रतिशत: केवल ०.१ प्रतिशत है. सेकंडरी से आगे साक्षरों का प्रतिशत दर मिडल पास से लगभग आधा है तथा उससे ऊपर शिक्षितों का अनुपात मैट्रिक पास (८.५ प्रतिशत ) का १/३ है.
वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार उत्तर पदेश में ५ से १४ वर्ष आयु के १ करोढ़ ३३ लाख दलित बच्चों में से केवल ५३.३ लाख यानिकि ५६.४ प्रतिशत बच्चे स्कूल जा ही नहीं रहे थे. इसके विपरीत सरकारी दावा है कि सभी बच्चे स्कूल जा रहे हैं.
स्कूल छोड़ने की दर
बेसिक शिक्षा निदेशालय, उत्तर पदेश दुआरा जारी आंकड़ों के अनुसार १९९१ में बच्चों द्वारा प्राईमरी स्तर पर स्कूल छोड़ने का दर ४५.०२ प्रतिशत है. इस प्रकार हरेक दूसरा बच्चा प्राईमरी शिक्षा पूरी होने से पहले स्कूल छोड़ देता है. लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर ४६.२५ प्रतिशत है जो कि लड़कों की दर से थोड़ी ऊँची है. यह सर्वविदित है कि विभिन्न कारणों से दलित बच्चों की स्कूल छोड़ने की दर सामान्य जातियों के बच्चों से अधिक होती है जिसका सीधा असर दलितों की साक्षरता दर पर पड़ता है. वर्तमान में भी दलित बच्चों का स्कूल छोड़ने की दर सबसे अधिक है.
स्कूलों में छुआछुत
विभिन्न सर्वेक्षणों से यह पाया गया है कि उत्तर प्रदेश में "छुआछुत और जातिगत भेदभाव" बुरी तरह से व्यापत है. इसका प्रकोप प्राईमरी और मिडिल विद्यालयों में मिड-डे मील में भी स्पष्ट दिखाई देता है.सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के अनुसार भोजन पकाने हेतु दलित रसोइओं की वरीयता के अनुसार नियुक्ति करने के आदेश थे परन्तु २००७ में एक सर्वेक्षण में यह पाया गया कि उत्तर प्रदेश में केवल १७ प्रतिशत स्कूलों में ही दलित रसोइओं की नियुक्ति की गयी थी. सरकार दुआरा अपने ही आदेशों को लागू करने में बरती जा रही उदासीनता के कारण काफी स्कूलों में सवर्ण जाति के बच्चों दुआरा दलित रसोइओं द्वारा बनाये गए भोजन का बहिष्कार किया गया. इस परिस्थिति में सरकार से यह अपेक्षा की जाती थी की वह ऐसे मामलों में सखत कार्रवाही करके दलित रसोइओं की नियुक्ति को लागू करवाती परन्तु ऐसा न करके मायावती ने उन की नियुक्ति सम्बन्धी आदेश को ही वापस ले लिया. इस का परिणाम यह है की अधिकतर स्कूलों में दलित रसोइओं को निकाल दिया गया. इस से उत्तर प्रदेश में छुअछुता को खुला बढ़ावा मिला है.
कार्य सहभागिता
वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में दलितों की कार्य सहभागिता दर ३४.७ प्रतिशत है जब कि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों कि कार्य सहभागिता दर (४०.४०) प्रतिशत है जो कि उत्तर प्रदेश में दलितों में व्यापक बेरोज़गारी और गरीबी को दर्शाता है. कार्य सहभागिता का अर्थ नियमित रोज़गार से है.
दलित मजदूरों की श्रेणी
वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश के दलितों में कुल मजदूरों का ४२.५ प्रतिशत भाग कृषि मजदूरों का है जब कि पूरे भारत में दलितों की यह औसत ४५.६ प्रतिशत है. अन्य मजदूरों की श्रेणी में दलितों की औसत दर ३०.५ प्रतिशत के मुकाबले में उत्तर प्रदेश की यह दर २२.२ प्रतिशत है. उत्तर प्रदेश में घरेलू उद्योग से जुड़े दलितों का प्रतिशत ४.३ प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत ३.९ प्रतिशत है. इस से स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में रोज़गार की बहुत कमी है.
गरीबी रेखा के नीचे दलित
वर्ष २००४-०५ के आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में गरीबी रेखा के नीचे लोगों का प्रतिशत ३२.८ प्रतिशत है जबकि पूरे भारत में यह दर केवल २७.५ प्रतिशत है. इन में दलितों का प्रतिशत अन्य वर्गों की अपेक्षा काफी अधिक है. एन. एस. एस. ओ. के वर्ष १९९०-२००० के सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में ४४ प्रतिशत दलित गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे थे. वास्तव में दलितों के गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों का औसत ६० प्रतिशत से कम नहीं है.
आर्थिक स्थिति
उत्त प्रदेश कृषि प्रधान प्रदेश है और ८७.७ प्रतिशत दलित ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं. उनमे से ७५ प्रतिशत कृषि मजदूर अथवा सीमांत एवं लघु कृषक के रूप में खेती से जुड़े हुए हैं. पशिचम उत्तर प्रदेश को छोड़ कर शेष क्षेत्र में कृषि का विकास नगण्य है जिसका असर किसानों के साथ साथ कृषि मजदूरों पर भी पड़ रहा है. इसी कारण उत्त्तर प्रदेश में कृषि में लगे दलितों की संख्या राष्ट्रीय औसत से कम है. वर्ष १९९०-९१ की कृषि जोत जनगणना के अनुसार उ. प्र. के दलित कृषकों में से ४१.७ प्रतिशत सीमांत, लघु और अर्ध मध्यम श्रेणी के तथा केवल २.४ प्रतिशत ही बड़ी जोत के मालिक थे. जोतों के क्षेत्रफल की दृष्टि से ३९.५ प्रतिशत दलित कृषक लघु/ सीमांत/अर्ध मध्यम एवं मध्यम श्रेणी के तथा केवल २.१ प्रतिशत दलित बड़ी जोत के मालिक थे. इस प्रकार दलितों के पास कुल जोत का १६.३ प्रतिशत तथा कुल जोत क्षेत्रफल का १०.५ प्रतिशात ही था जोकि उनकी २१.१५ प्रतिशा आबादी के मुकाबले में बहुत ही कम है. दलितों की जोत का औसत क्षेत्रफल ०.६० हेक्टेअर है. इस से स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में अधिकतर दलित भूमिहीन हैं.
वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार उ.प्र. के ३०.९ प्रतिशत दलित काश्तकार की श्रेणी में हैं जबकि १९९१ की जनगणना में यह प्रतिशत ४२.६३ था. इस प्रकार १९९१ से वर्ष २००१ के दशक में लगभग १२ प्रतिशत दलित काश्तकार की श्रेणी से गिर क़र भूमिहीन की श्रेणी में आ गए हैं. यह स्थिति दलितों के सश्क्तिकर्ण की बजाये उनके अशक्तिकर्ण को दर्शाती है. दलितों के भूमि से इस वन्चितिकरण का एक कारण सरकारी कल्याणकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार के कारण उनका का लाभ प्राप्त न होना और बेरोज़गारी है क्योंकि वर्तमान में कल्याणकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार में कोई कमी आने की बजाये उसमे बढोतरी ही हुई है. इस के साथ ही रोजगार के कोई नए अवसर भी पैदा नहीं हुए हैं. मजदूर परिवारों को नरेगा में १०० दिन का रोजगार देने वाली योजना का यह हाल है कि पिछले वर्षों में ग्रामीण मजदूरों को केवल ८ दिन का रोज़गार ही मिला था जैसाकि केग की रिपोर्ट में है. मायावती ने तो २००७ में प्रधान मंत्री बनने पर इस योजना को ही ख़तम कर देने की घोषणा कर दी थी. मनरेगा में व्यापक भ्रष्टाचार किसी से छुपा नहीं है और मायावती इस को रोकने में बिलकुल असफल रही हैं जिसका खमियाजा दलितों को भुगतना पड़ रहा है.
पिछले ३६ वर्षों से उ.प्र.में दलितों सहित अन्य भूमिहीनों को थोड़ी थोड़ी ज़मीन आबंटित की जाती रही है . एक तो यह भूमि अधिकतर अनुपजाऊ तथा बंजर किस्म की रही है. दूसरी ओर अधिकतर आबंटियों को इन पर कब्ज़े ही नहीं मिले. इस का एक सब से बढ़िया उदाहरण हरदोई जनपद के दलितों द्वारा विधान भवन के सामने किये गये धरने एवं अनशन का है. उनकी शिकायत थी कि उन्हें 32 वर्ष पूर्व मिले भूमि पटटों का आज तक कब्ज़ा नहीं मिला है. उनकी भूमि प़र कब्ज़ा करने वाले सवर्णों को उस क्षेत्र के बसपा विधायक का संरक्षण प्राप्त है. बहुत दिन तक धरना और अनशन के बाद उन्हें कहीं कब्ज़ा मिल सका. ऐसी स्थिति पूरे उ.प्र. में है. दलितों के पटटों पर दबंगों के कब्ज़े हैं परन्तु मायावती अपने सर्वजन समाज को नाराज़ नहीं करना चाहती. अत: दलितों के पट्टे आज भी दबंगों के कब्जे में हैं और दलितों की कोई सुनवाई नहीं है.
दलित उत्पीडन में उत्तर प्रदेश सब से आगे
यह सर्वविदित है कि दलित उत्पीडन के मामले में उ.प्र. भारत में प्रथम स्थान रखता है. यह स्थिति राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा वर्ष २०१० की रिपोर्ट से भी प्रकट होती है. इसका मुख्य कारण उ.प्र. में दलितों की बड़ी आबादी, सामंती सामाजिक व्यस्था तथा सरकार दुआरा उत्पीडन के मामलों की उपेक्षा है. उ.प्र. में यह पुरानी परम्परा रही है कि जो भी मुख्य मंत्री आता है वह अपने काल में अपराध के आंकड़े अपने पूर्व वाले मुख्य मंत्री के काल से कम कर के दिखाता है. मायावती भी इस का कोई अपवाद नहीं है. मायावती ने तो वर्ष १९९५ में अपने प्रथम मुख्य मंत्री काल में अपराध के आंकड़ों को लेकर पुलिस अधिकारियों को निलंबित और स्थानान्तित करके तहलका मचा दिया था. इसके बाद तो उन्होंने दलित उत्पीडन को रोकने के ध्येय से बनाये गए केन्द्रीय अधिनियम ( अनुसूचित जाति/ जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम १९८९ ) को लागू न करने का सरकारी आदेश जारी करके इस प़र रोक ही लगा दी थी. बाद में इस का बहुत विरोध होने और मामला हाई कोर्ट पहुँचने पर उसे वापस लिया गया परन्तु व्यव्हार में यह आदेश अब भी लागू है. इस समय इस एक्ट के दुरूपयोग को रोकने के नाम पर मायावती का मौखिक आदेश है कि इस एक्ट का प्रयोग केवल हत्या और बलात्कार के मामलों में ही किया जाये और वह भी डाक्टरी परीक्षण के बाद. दलित उत्पीडन के शेष १९ प्रकार के मामलों में यह लागू नहीं किया जाये. इस के कारण उ.प्र. में दलितों पर बराबर अत्याचार हो रहे हैं परन्तु पुलिस इस एक्ट के अंतर्गत मुकदमे दर्ज नहीं करती और दबंग अत्याचार करने के लिए स्वतन्त्र हैं. पुलिस अपराध के आंकड़े कम रखने के कारण दलित उत्पीडन की रिपोर्ट नहीं लिखती. इससे उत्तर प्रदेश के दलित न केवल सामंतों द्वारा किये जा रहे उत्पीडन को झेलने के लिए बाध्य हैं बल्कि उत्पीडन का शिकार होने पर मिलने वाली आर्थिक सहायता से भी वंचित रह रहे हैं.
वर्ष २००७ में समाचार पत्रों में दलित महिलायों के बलात्कार के छपे मामलों के अध्ययन के अनुसार वर्ष २००७ में दलित महिलायों के बलात्कार के ११० मामलों में से पुलिस दुआरा केवल ५० प्रतिशत मामले ही दर्ज किये गए थे. बलात्कार के इन मामलों में से ८५ प्रतिशत मामले नाबालिग दलित लड़कियों के साथ थे. इसी प्रकार बलात्कार के बाद हत्या के १९ मामलों में से ५० %, हत्या में से २५% , शीलभंग में से ७१%, तथा अपहरण में से ८०% मामले दर्ज ही नहीं किये गए थे. ऐसी ही स्थिति उत्पीडन के अन्य मामलों की भी है. वास्तव में मायावती सवर्ण वोटों के चक्कर में इस एक्ट को लागू करके उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहती है जिस का खामिआज़ा दलितों को भुगतना पड़ रहा है.
देश के अन्य राज्यों के दलितों से तुलना करने पर यह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश के दलित बिहार और ओड़िसा के दलितों को छोड़कर विकास के सभी मानकों पर अन्य राज्यों के दलितों से पिछड़े हुए हैं. यह भी विदित है कि मायावती १९९५ से लेकर अब तक चौथी बार उ.प्र. की मुख्य मंत्री बनी है परन्तु इस काल में दलितों की स्थिति में कोई भी सुधार नहीं हुआ है. इसके विपरीत दलितों की आर्थिक स्थिति पहले से बदतर हुई है. क्या उ.प्र. के दलितों के पिछड़ेपन के लिए मायावती को काफी हद तक जुम्मेदार नहीं माना जाना चाहिए? यह सर्वविदित है कि मायावती ने न तो पहले और न इस बार भी दलितों एवं प्रदेश का विकास का कोई एजेंडा बनाया है. विकास की किसी भी अवधारणा के अभाव में न तो प्रदेश का और न ही दलितों का कोई विकास हुआ है.
राज्य सरकार के बजट का काफी बड़ा हिस्सा गैर योजनागत व्यय पर लगाया गया है. कई अरब की धन राशी भव्य समारोहों, स्मारकों. एवं अपनी मूर्तिओं सहित अन्य मूर्तियों प़र खर्च की गयी जबकि यह धनराशी प्रदेश के विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य कल्याणकारी योजनाओं प़र खर्च की जा सकती थी. मायावती सरकार द्वारा  प्रतीकों की राजनीति करने से दलितों का कुछ भावनात्मक तुष्टिकरण तो हुआ परन्तु उनका कोई भी विकास नहीं हुआ. व्यापक भ्रष्टाचार के कारण उन्हें कल्याणकारी योजनाओं का भी कोई लाभ नहीं ,मिल सका .
पिछले वर्ष के ट्रांसपेरेंसी इंटरनॅशनल संस्था द्वारा किये गए विवेचन से यह पाया गया था कि भ्रष्टाचार के मामले में उ.प्र. चिंतनीय दशा से भ्रष्ट राज्य है. प्रदेश में सर्वत्र विकास का अभाव इस का दुश्परिणाम है. प्रदेश के दो बड़े नेता- मुलायम सिंह तथा मायावाती भ्रष्टाचार के मामलों में आरोपित हैं. मुलायम सिंह के विरुद्ध तो अभी जांच चल ही रही है पान्तु मायावती के खिलाफ तो विवेचना पूरी हो चुकी है. उसके विरुद्ध ताज कोरिडोर का मामला इलाहाबाद उच्च न्यायलय तथा ३० करोड़ की अवैध संपत्ति में आरोप पत्तर दाखिल करने का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है जिस पर अगले साल के फरवरी माह की प्रथम तारीख को आरोप पत्र दाखिल करने का आदेश होने की सम्भावना है. इस पर मायावती को ज़मानत कराने के लिए अदालत में समर्पण करना होगा और उस समय उसकी जेल जाने की नौबत भी आ सकती है.
मायावती के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का असर उ.प्र. की राजनीति और नौकरशाही पर भी पड़ा है. यही कारण है कि प्रदेश में घोर भ्रष्टाचार व्याप्त है. सभी कल्याणकारी योजनायें जैसे मनरेगा, राशन वितरण प्रणाली, बाल विकास, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, विधवा पेंशन, वृदा पेंशन, जननी सुरक्षा योजना आदि घोर भ्रष्टाचार का शिकार हो गयीं हैं जिससे न केवल दलित बल्कि सभी लोग इनके वांछित लाभ से वंचित रह गए हैं . शिक्षा एवं स्वास्थ्य मायावती सरकार के सब से कम वरीयता वाले क्षेत्र रहे हैं. २००९ के चुनाव के समय मायावती देश का प्रधान मंत्री का सपना देख रही थीं जो पूरा नहीं हुआ और चुनाव में बड़ी मुश्किल से २० सीटें ही मिल पायीं. अब तो २०१२ के चुनाव में उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने की भी कोई सम्भावना नहीं है जैसा कि जनता की आवाज़ सुनाई पड़ रही है.
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है की उत्तर प्रदेश के दलितों की अधोगति के लिए मायावती को काफी हद तक जुम्मेवार ठहराया जा सकता है जोकि उसके व्यक्तिगत भ्रष्टाचार और सिद्धान्तहीन राजनीति का ही दुष्परिणाम है. उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश के दलित भी अब समझ गए होंगे कि केवल किसी भी तरह से सत्ता पा लेने से ही समस्याएँ हल नहीं हो जातीं. उसके लिए डॉ. आंबेडकर जैसी सैद्धांतिक तथा एजेंडा आधारित मौलिक परिवर्तन की राजनीति की ज़रुरत है.

क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है?

  क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है ? हाल ही में हुई बहसों में सवाल उठाया गया है कि क्या अनुसूचित जाति के उपसमूहों में सकारात्म...