भगवान दास जी का योगिंदर
सिकंद द्वारा लिया गया साक्षात्कार
(भगवान दास (23 अप्रैल, 1927- 18 नवम्बर, 2010) जी का यह
साक्षात्कार उनके परिनिर्वाण से काफी पहले लिया गया था. इस साक्षात्कार में भगवान
दास जी ने दलित आन्दोलन से अपने जुड़ने, दलित आन्दोलन की कमजोरियों, जातिभेद के
विनाश के लिए बाबा साहेब के बौद्ध धर्म आन्दोलन की प्रासंगिकता, भंगी जातियों के
बाल्मिकीकरण और दलित आन्दोलन के भविष्य की संभावनाएं एवं उसकी सही दिशा के बारे
में काफी सारगर्भित तथा बेबाक टिप्पणियाँ की हैं. सब से पहले यह साक्षात्कार
अंग्रेजी में इन्टरनेट पर छपा था जिसे बाद में सिकंद जी ने “धर्म और राजनीति”
नामिक पुस्तिका में हिंदी में भी प्रकाशित किया था. यह साक्षात्कार आज 23 अप्रैल
को उनके जन्म दिन के अवसर पर स्मृति के तौर पर प्रकाशित किया जा रहा है.)
प्र०: आप दलित आन्दोलन में
किस प्रकार आये?
उ०: मेरा जन्म हिमाचल
प्रदेश में एक अछूत परिवार में हुआ. मेरे पिता एक पोस्ट आफिस में सफाई-कर्मचारी
थे. मेरी माँ अर्द्ध-मुस्लिम परिवार से थी. मुझे डॉ. आंबेडकर से मिलने का अनुभव
कुछ अवसरों पर हुआ. सब से पहले मैं उन को बम्बई में1943 में मिला. वायु सेना नौकरी
करते समय मेरी पोस्टिंग हुयी तो उनको मिलने के लिए हफ्ते में तीन बार ज़रूर जाता
था, मैं कुछ पेपर वर्क करता था जैसे पेपर क्लिपिंग इत्यादि जो वह मुझे देते थे,
टाइपिंग और अन्य कार्य जो मुझे सूचना के तौर पर इकठ्ठा करने होते थे. इस प्रकार
मैं दलित आन्दोलन में आया. डॉ. आंबेडकर ने 1956 में बौद्ध धर्म अपनाया, मैंने भी
1957 में अपने परिवार सहित बौद्ध धर्म अपना लिया.
प्र०: आंबेडकर ने बौद्ध
धर्म क्यों अपनाया?
उ०: अवर्ण होने के कारण
दलित कभी भी हिन्दू नहीं रहे थे, वे चार वर्णों से बाहर थे. डॉ. आंबेडकर के अनुसार
बौद्ध धर्म दलितों का मूल धर्म था. यह आज़ादी और मुक्ति का धर्म है. डॉ. आंबेडकर
मानते थे कि सभी राजनैतिक क्रांतियों से पहले सामाजिकऔर धार्मिक क्रांतियाँ हुयीं,
अतः धर्मपरिवर्तन दलित संघर्ष की मूलभूत आवश्यकता थी.
हम दलित कभी भी हिन्दू
नहीं थे. असल में ब्राह्मणवादी परम्पराओं और विश्वासों से अलग हमारी अपनी
मान्यताएं थीं. मेरी अपनी भंगी जाति को ही ले लीजिये. वे न हिन्दू थे, न मुसलमान.
हमें इनमें कहीं भी रखना मुश्किल था क्योंकि हम किसी हिन्दू भगवान की पूजा नहीं करते
थे, न ही हम मस्जिद में नमाज़ पढ़ने जाते थे. हमारे अपने महापुरुष थे जिन की हम पूजा
करते थे लेकिन वो रीति रिवाज़ अब भुला दिए गए हैं क्योंकि हिन्दू संस्थाएं हमें
हिंदू बनाने पर तुली हुई हैं.
हम भंगियों के अपने
महात्मा हुए हैं जिनका नाम लालबेग था लेकिन बाद के आर्यसमाजियों ने हमें हिन्दू
बना दिया कि हम बाल्मीकि के शिष्य हैं जिन्होंने बाल्मीकि रामायण लिखी. मैंने इस
मिथ को कभी नहीं स्वीकारा.
प्र०: लालबेग कौन था?
उ०: कुछ लोग कहते हैं कि
लालबेग वास्तव में भिक्षु था जो एक बौद्ध संत हो सकता है. यदि उत्तर भारत की भंगी
जातियों की लालबेग को समर्पित प्रार्थनाएं सुनेंगे तो आप को कुछ मज़ेदार बातें पता
चलेंगी. इन प्रार्थनाओं को कुर्सीनामा कहते हैं. यंगस्टन ने इन्हें इकठ्ठा किया और
अपनी पुस्तक एंटीक्वेरीज़ आफ इंडिया में प्रकाशित किया. ये ओल्ड टेस्टामेंट के
जेनेसिस की तरह हैं. कुर्सीनामा बताती है कि हम न हिन्दू हैं न मुसलमान. कहीं पर
हिन्दू भगवान राम और कृष्ण का ज़िक्र नहीं है. लेकिन मज़ेदार बात यह है कि
कुर्सीनामा की शुरुआत “बिस्मिल्लाह-इरर्रह्मान इर्ररहीम” से होती है जो कि कुरआन
की आयत है जिसे शुरुआत में पढ़ा जाता है और अंत में वे सभी चिल्लाते हैं “बोलो
मोमिनों वोही एक है.” ( ओ! भक्तो वो ही एकमात्र सत्य है). कुर्सीनामा में कई जगह
पर बालाशाह और लालबेग का नाम एक दुसरे के लिए इस्तेमाल किया गया है. बलाशाह एक
प्रसिद्ध पंजाबी संत थे. पंजाबी साहित्य में अपने समय की महान रचना “हीर” में
पंजाबी सूफी कवि वारिसशाह कहते हैं कि बलाशाह दो निम्न जातियों चूहड़े और पासियों
के पीर थे.
प्र०: क्या भंगी अभी भी
इस बात से परिचित हैं?
उ०: दुर्भाग्यवश बहुत कम
लोग इस बारे में जानते हैं. वह परम्परा लुप्त होती जा रही है. एक कारण तो यह है कि
हिन्दू संस्थाएं अपनी संख्या बढ़ाने के चक्कर में भंगियों को हिन्दू बना रही हैं
क्योंकि उन्हें खतरा है कि भंगी अगर ईसाई बन जायेंगे जैसा कि 1873 में हुआ और 1931
तक चलता रहा. अतः उन्होंने धर्मान्तरण
रोकने के लिए सभी हथकंडे अपनाये. दूसरी ओर उन्होंने यह कहानी बेचनी शुरू कर
दी कि भंगी वास्तव में वाल्मीकि के वंशज हैं. उन का यह भी कहना है कि बालाशाह जो
कि लालबेग का दूसरा नाम था, वाल्मीकि का अपभ्रंश रूप था.
प्र०: लेकिन यह कैसे संभव
है जब बाल्मीकि रामायण में जाति व्यवस्था को उचित ठहराते हैं? वह हमें बताते हैं
कि राम ने शम्बूक की गर्दन इसलिए उड़ा दी थी क्योंकि वह स्वर्ग जाने लिए समाधि
(ध्यान) लगा रहा था.
उ०: यह एक मिथ है. समस्या
यह है कि वे किस बाल्मीकि की बात कर रहे हैं: वो ब्राह्मणवादी बाल्मीकि जो
ब्राह्मण है और वरुण के दसवें पुत्र होने का दावा करता है? या वह बाल्मीकि जिसे
पुरानों में डाकू बताया गया है? जिस बाल्मीकि ने रामायण लिखी वह जाति व्यवस्था का
समर्थन करता है. अतः वह भंगी कैसे हो सकता है. वह वास्तव में ब्राह्मण था.
बाल्मीकि और भंगी जाति के संबंधों में एक समस्या है कि जब चमार रविदास को अपना
मानते हैं तो दोनों के मध्य एक सम्बन्ध बनता है, जैसे जुलाहा और बुनकर कबीर को
अपना कहते हैं लेकिन रामायण के बाल्मीकि और भंगियों में कोई सम्बन्ध नहीं है.
प्र०: क्या भंगियों के इस
संस्कृतिकरण से उनकी सामाजिक स्थिति में कोई सुधार आया है?
उ०: नहीं, बिलकुल नहीं.
मैं इसे संस्कृतिकरण नहीं कहूँगा. वास्तव में यह ब्राह्मणी रीती रिवाजों का सस्ता अनुकरण है. संस्कृतिकरण के कारण भंगियों की
सामाजिक गतिशीलता नहीं बढ़ी है. जाति के मामले में मुश्किल यह है कि अगर आप इसे
दरवाजे से बाहर फेंकना चाहें तो वह पिछले दर्वाज़े या खिड़की से फिर अन्दर आ जाती
है. दलितों के ईसाई धर्म, सिख धर्म और इस्लाम में धर्मांतरण का यही हाल हुआ है
जबकि ये धर्म सिद्धांत रूप में समतावादी हैं परन्तु हिन्दू धर्म में ऐसा नहीं हैं.
जहाँ तक मैं समझाता हूँ संस्कृतिकरण के नाम पर रीति-रिवाजों में कुछ बाहरी
परिवर्तन तो हो सकते हैं लेकिन इससे दलितों के प्रति ऊँची जाति वालों का रवैया
नहीं बदलता. भंगियों का यही तजुर्बा रहा है जो बाल्मीकि होने का दावा करते हैं.
इसलिए अगर एक भंगी अपने आप को बाल्मीकि या चमार या रविदासी या आधर्मी या बढ़ई कहने
लगता है, इससे दलितों के प्रति हिंदुयों के रवैये में कोई बदलाव नहीं आता.
प्र०: आपके हिसाब से दलित
मुक्ति संघर्ष में संस्कृतिकरण का क्या प्रभाव पड़ेगा?
उ०: मेरे हिसाब से दलितों
को हिन्दू बनाने का ही दूसरा नाम संस्कृतिकरण है. दलित मुक्ति पर इस का बुरा असर
पड़ा है. यह दलितों को बांटता है. चमारों में जो उत्तर भारत में संख्या में सबसे
ज्यादा हैं संस्कृतिकरण की वजह से वे 67 उप-जातियों में बंट गए हैं. इनमें से कोई
भी दूसरी जाति में शादी नहीं करता है. उत्तर प्रदेश में भंगी 7 सजातीय समूहों में
बंटे हैं. संस्कृतिकरण से उन लोगों के रूख
में कोई परिवर्तन नहीं आया है जो सदियों से दलितों के प्रति छुआछूत कर रहे
थे. तौर तारीके बदल सकते हैं लेकिन नफरत बरक़रार है.
दलितों के हिन्दुकरण से
उनके अन्दर चेतना का आना बहुत मुश्किल हो जाता है क्योंकि हिन्दू बन गयी दलित
जातियां उन समूहों से नफरत करने लगती हैं जो कम हिन्दू हैं. यदि आप एक बाल्मीकि
पुरुष से एक धानुक या बांसफोड़ महिला से शादी करने को कहें तो वह साफ़ तौर पर इनकार
कर देगा क्योंकि धानुक और बांसफोड़
बाल्मिकियों के मुकाबले कम हिन्दू हैं.
प्र०: दलित जातियों और
उनके मुक्ति संघर्ष पर हिंदुत्व के एजंडा का क्या असर है?
उ०: मेरी दृष्टि में
हिंदुत्व संगठन दलितों को जो हिन्दू नहीं हैं हिन्दू धर्म में लाना चाहते हैं और
सब से नीचे रखना चाहेंगे. ऐसा गाँधी जी ने भी किया. वे दलितों को बताते थे कि
भगवान ने दलितों को सिर्फ इसलिए बनाया है कि वे सवर्णों की सेवा कर सकें और उन्हें
इस उम्मीद से अपने जातीय धंधे करते रहना चाहिए ताकि अगले जन्म में उन का जन्म ऊँची
जाति में हो सके. हिंदुत्व का पूरा प्रोजेक्ट यही है. इसलिए हिंदुत्व का बढ़ना
दलितों के विचार से बहुत खतरनाक है. यदि आप इस जातीय ढांचे में मूलभूत परिवर्तन
लाने के विषय में गंभीर हैं तो आप को जातीय व्यवस्था और उसे पैदा करने वाली
धार्मिक विचारधारा पर जम कर हमला करना होगा. लेकिन हिंदुत्व के संगठन न तो ऐसा
करेंगे और न ही वे ऐसा कर सकते हैं.
प्र०: हिंदुत्व की आदर्श
व्यवस्था की क्या स्थिति होगी?
उ०: हिंदुत्व की योजनाओं
के अनुसार सबसे आदर्श युग जिसे स्वर्णिम युग कहते हैं, वह युग वेदों, रामायण, गीता
और मनुस्मृति का युग है. तब उस समय दलितों और शूद्रों की क्या स्थिति थी? हम लोगों
के साथ गुलामों से भी बदतर व्यवहार किया जाता था और उसे इन ब्राह्मणवादी शास्त्रों
में धार्मिक मान्यता प्रदान की गयी थी जिसे हिंदुत्व के प्रहरी आज प्रचारित कर रहे
हैं. हिंदुत्व के संगठन वर्ण-व्यवस्था को अलग अलग तरीकों से लागू करना चाहते हैं
और यह हमारे लिए सबसे खतरनाक प्रभाव है. अभी मैं आर.एस.एस. के प्रमुख गोलवलकर की
पुस्तक पढ़ रहा था जिसमे उन्होंने कहा है कि जाति-व्यवस्था ने कोई नुक्सान नहीं
पहुँचाया है. जाति-व्यवस्था का गुणगान उनके लिए अच्छा हो सकता है परन्तु हमारे लिए
कदापि नहीं. हमारी दृष्टि से हिंदुत्व का बढ़ना किसी भी कीमत पर बढ़ती दलित-चेतना को
रोकना है जो दलित मुक्ति का एक मात्र रास्ता है और इसके लिए हिंदुत्व की शक्तियां
उनका ध्यान बांटने के लिए मुसलामानों और ईसाईयों को अपना निशाना बना रही हैं.
प्र०: धर्म का विस्तृत
संघर्ष में क्या रोल है?
ऊ०: मैं समझाता हूँ कि एक
समाज के चलाने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं: पहला विवाह, दूसरा सरकार और तीसरा
धर्म जो को एक नैतिक आधार देता है और जोड़ता है. इस सवाल ने डॉ. अम्बेडकर को उस
वक्त बहुत उद्देलित किया था जब उन्होंने हिन्दू धर्म छोड़ा,जिस के साथ ऐतहासिक रूप
से बहुत कम लोग जुड़े थे. अतः उन्होंने बौद्ध धर्म की नयी परिभाषा दी जो दक्षिणी
अमेरिका के कैथोलिकों की लिबरेशन थियोलोजी से मिलती जुलती थी. उनका पहला सवाल होता
था कि धर्म का समाज में क्या रोल है? उन्होंने जोर देकर कहा कि धर्म एक अछी नर्स
है परंतु खराब रखैल है क्योंकि धर्म ने बहुत अच्छा और तोड़क रोल भी खेलें हैं.
प्र०: बहुत से महायानी और
हीनयानी बौद्ध कहते हैं कि आंबेडकर की बौद्ध धर्म की परिभाषा बौद्ध धर्म के मूलभूत
सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है?
उ०: यह बात सही है कि
आंबेडकर द्वारा दी गयी बौद्ध धर्म की परिभाषा महायान और हीनयान दोनों से कई
महत्वपूर्ण मामलों में भिन्न है. लेकिन शुरू से ही बुद्ध की मौत तक बौद्ध धर्म में
आन्तरिक विविधताएँ रही हैं. उदाहरणार्थ जापान में 1260 विभिन्न समुदाय हैं.
प्र०: क्या दलित बौद्ध
आन्दोलन और आजकल के ईसाई समुदय में दृश्य दलित ईसाई दह्र्म में कोई सम्बन्ध है?
उ०: दलित क्रिश्चियन
थिओलोजी पिछले दस साल में उभर कर आई है जो कि दलितों की चेतना में आ रही वृद्धि के
फलस्वरूप है. मेरा यह व्यक्तिगत विचार है कि यह चर्च के भीतर वर्णवाद और सवर्ण
प्रभुत्ववाद के विरुद्ध एक चुनौती है. मैंने दलित क्रिश्चियन थिओलाजी का असर अन्य
गैर-ईसाई दलितों पर पड़ते नहीं देखा. कई गैर ईसाई चर्च के अचानक दलित सवाल को उठाने
को संशय की दृष्टि से देखते हैं. मैं समझता हूँ कि चर्च के लोग इस बात से परेशान
हैं कि ईसाईयों की संख्या घट रही है क्योंकि कई दलित ईसाई आरक्षण का फायदा उठाने
के लिए चर्च छोड़ रहे हैं. कानून के अनुसार आरक्षण क्रिश्चियन दलितों को नहीं है.
शायद दलित क्रिश्चियन थिओलाजी इसे रोकने का ही एक हिस्सा है.
प्र०: क्या आप यह कहेंगे
कि दलितों में आज धर्मान्तरण मुख्यत: बौद्ध धर्म की और है न कि ईसाई धर्म की ओर?
उ०: हाँ मुझे तो ऐसा ही
दिखता है. बौद्ध धर्म से उन्हें गर्व और पहचान का अनुभव होता है और यह उन्हें
पुराने स्वार्णिम काल से जोड़ता है. लेकिन बौद्ध धर्म आन्दोलन उतनी तेजी से नहीं चल
रहा है जितना कि हम चाहते हैं. एक कारण तो यह है कि भिक्खुओं की ट्रेनिंग की कोई
व्यवस्था नहीं है, हालाँकि डॉ. अम्बेडकर ने इस के लिए कहा था. उन्होंने कहा था कि
भिक्खुओं के प्रशिक्षण के लिए स्कूल होने चाहिए जैसे प्राचीन बौद्धों ने बनाए थे. नालंदा और तक्षिला के विश्वविद्यालय
इस का एक उदाहरण हैं. शुरुआत के लिए हम ने कोशिश की. अपने भिक्खुओं को प्रशिक्षण
के लिए थाईलैंड भेजा. उनमें से कई लोग प्रशिक्षण पूरा करने के बाद पच्छिम की ओर
चले गए और वे भारत में सेवा करने के लिए वापस नहीं आये. यह हमारे लिए एक बड़ी
समस्या है. लेकिन इस साल हम इस समस्या को हल करने के लिए कोशिश कर रहे हैं. उत्तर
प्रदेश के तराई क्षेत्र में भिक्षुओं के प्रशिक्षण के लिए एक शिक्षणालय खोलने की
योजना है जिस में बौद्ध धर्म-शास्त्रों की शिक्षा दी जाएगी. आंबेडकर के दर्शन और
अन्य समकालीन धर्मों के बारे में भी पढ़ाया जायेगा.
प्र०: बौद्ध धर्म में
धर्म-परिवर्तन से महाराष्ट्र के महारों पर, जिस जाति से डॉ. अम्बेडकर थे, क्या
प्रभाव पड़ा है?
उ०: मेरे हिसाब से धर्म
बदलने से केवल रीति-रिवाजों में परिवर्तन आया है. सामाजिक स्तर पर कोई खास बदलाव
नहीं आया है. लेकिन धर्म बदलने से कई लोगों ने शराब पीना छोड़ दिया और हिन्दू देवी
देवताओं जैसे राम और कृष्ण की पूजा करना भी छोड़ दी है. आज महाराष्ट्र में बौद्ध
धर्म मुख्यतः महारों तक ही सीमित है और उनके प्रति दूसरों का रवैया हकीकत में नहीं
बदला है. लेकिन कम से कम धर्म बदलने से उनको एक नयी पहचान तो मिली है और उनके
अन्दर आत्म-सम्मान की भावना आई है.
प्र०: क्या बौद्ध धर्म की
मदद से जाति-व्यवस्था कमज़ोर पड़ सकती है?
उ०: आज ऐसा ही हो रहा है हालाँकि इस की रफ़्तार धीमी है.
मिसाल के तौर पर आंबेडकर मिशन सोसाइटी जिस से मैं जुड़ा हूँ के सभी सदस्य बौद्ध
हैं. हम इस बात पर जोर दे रहे हैं कि परिवार का एक सदस्य अपनी जाति से बाहर शादी
करे. जाति-व्यवस्था को ख़त्म करने का यही एक तरीका है. यदि अलग-अलग जातियों वाले
दलित बौद्ध धर्म में आ जाएँ और अंतरजातीय विवाह शुरू करें तो ऐतहासिक तौर रूप से
दलितों को कमज़ोर करने के लिए इन के बीच जो मतभेद पैदा किये गए हैं वह धीरे धीरे
समाप्त हो जायेंगे. उन्हें इकट्ठा होने का अवसर मिलेगा. इससे उनको एक पहचान मिलेगी और वे गर्व महसूस
करेंगे. अगर वे धर्म परिवर्तन नहीं करते तो वे कई सौ जाति-समूहों में बंटे रहेंगे
और उनकी कोई पहचान भी नहीं बन पायेगी.