मंगलवार, 25 जून 2013

सपा सरकार की साप्रदायिक राजनीती को उभारने की कोशिश


सपा सरकार की साप्रदायिक राजनीती को उभारने की कोशिश
-एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट  
आज एक समाचार पत्र में यह समाचार छपा है कि उत्तर प्रदेश कि समाजवादी सरकार ने गोरखपुर की एक अदालत में सरकारी वकील के माध्यम से गोरखपुर बम विस्फोट के आरोपी तारिक कासमी के मुक़दमे को यह कह कर वापस लेने का अनुरोध किया है कि इस में इस आरोपी में विरुद्ध सज़ा दिलाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं है. इस पार्थना पत्र में इस मुकदमे को वापस लेने के निम्नलिखित पांच आधार दिए गए है:
1.       अगर अपर्याप्त साक्ष्य के होते हुए भी आरोपी को जेल में रखा जाता है और वह बाद में दोष मुक्त हो जाता है, तो इस से समाज में एक गलत सन्देश जायेगा जिस का जनहित पर बुरा असर पड़ेगा.
2.       यह  जनहित में महत्वपूर्ण है कि कमज़ोर लोगों का दुर्भावना से उत्पीड़न नहीं होना चाहिए.
3.       शांति तथा सामाजिक समरसता बनाये रखने के लिए.
4.       इस मामले में अपर्याप्त साक्ष्य है  और इस कि कड़ी अधूरी है. अतः इस में आरोपी के छूटने की सम्भावना है. यह जनहित और न्याय के हित में नहीं होगा कि उसके विरुद्ध मुकदमा चलाया जाये. मुकदमे को चालू रखना सरकारी कोष पर एक अनावश्यक बोझ है और जनता के धन की बर्बादी है.
इस प्रार्थना पत्र में निमेश कमीशन की रिपोर्ट का भी उल्लेख किया गया है जिस में तारिक और खालिद की गिरफतारी और उन से असलों और विस्फोटों की दिखाई गयी बरामदगी को संदिग्ध बताया गया है और असली मुजरिमों को पकड़ने और इन लोगों को फर्जी तरके से गिरफ्तार करने और बरामदगी दिखने वाले पुलिस अधिकारियों को चिन्हित कर दण्डित करने की सिफारिश भी की गयी है. यह भी उल्लेखनीय है कि इस से पहले इसी प्रकार का प्रार्थना पत्र बाराबंकी के न्यायलय द्वारा निरस्त किया जा चुका है जिस में जनहित और साम्प्रदायिक  सदभावना  के आधार पर तारिक और खालिद के विरुद्ध लखनऊ और फैजाबाद कचेहरी परिसर में विस्फोटों के मुकदमे वापस लेने का अनुरोध किया गया था.
अब अगर बाराबंकी और गोरखपुर के न्यायालयों में तारिक और खालिद के मुकदमों को वापस लेने के लिए दिए गए आधार को कानूनी तौर पर देखा जाये तो यह बिलकुल अस्वीकार्य है. जनहित , सामाजिक समरस्ता और अपर्याप्त साक्ष्य मुकदमा वापस लेने का उचित आधार नहीं हो सकता और इस के अदालत द्वारा अस्वीकार किये जाने की बहुत बड़ी सम्भावना है. इस से स्पष्ट है कि अखिलेश सरकार मुकदमों को वापस लेने के ठोस आधार के स्थान पर केवल सरसरी आधार देकर रस्म अदायगी कर रही है. इस से जहाँ वह एक ओर मुसलमानों को यह कह कर खुश करने का प्रयास कर रही है कि वह तो मुक़दमे वापस लेना चाहती है पर इस में अदालतें बाधक बन रही हैं. वहीँ वह मुकदमों की वापसी के लिए कोई भी ठोस और उचित कार्रवाई न करके कट्टरवादी हिन्दुओं की नाराज़गी से भी बच रही है. सरकार की इस आधी अधूरी कार्रवाई से मुसलमानों का कोई भला नहीं हो पा रहा है परन्तु इस से हिन्दुओं में यह सन्देश ज़रूर जा रहा है कि मुलायम सिंह मुसलमानों का तुष्टिकरण कर रहे हैं और उनके प्रति एक अनावश्यक आक्रोश बढ़ रहा है. दरअसल यह रणनीति अपना कर मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश में मुसलमानों और हिन्दुओं के वोट का ध्रुविकरण करना चाहते हैं जो कि उन की और भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति  के लिए लाभकारी है.
अब अगर देखा जाये कि क्या मुलायम सरकार के पास तारिक कासमी, खालिद मुजाहिद या अन्य आतंकी मामलो में फंसाए गए निर्दोष लोगों के मुक़दमे वापस लेने का  कोई ठोस और कानूनी आधार उपलब्ध नहीं है. सच्चाई यह है कि इन मामलों को वापस लेने के लिए उसके पास बहुत ठोस और कानूनी आधार उपलब्ध हैं परन्तु वह उसे जानबूझ कर पेश नहीं कर रही है.
अखलेश सरकार के पास  तारिक और खालिद जिन्हें यूपी पुलिस ने हुजी के सदस्य होना कहा है, के मामले में निमेश कमीशन की रिपोर्ट है जिस के आधार पर वह इन के विरुद्ध मुकदमों की पुनर विवेचना और असली दोषी मुजरिमों को पकड़ने की बात कह सकती है. इस के इलावा इन की बेगुनाही का सब से बड़ा सबूत यूपी एटीएस के पास है जो कि 2008 में  पकडे गए तथाकथित इंडियन मुजाहिदीन के सदस्यों की पूछताछ रिपोर्टें (इन्टेरोगेशन रिपोर्ट) हैं जिस में उन्होंने कचेहरी विस्फोटों के साथ साथ गोरखपुर, वाराणसी, फैजाबाद और श्रमजीवी ट्रेन में हुए विस्फोटों की जिम्मेदारी सवीकार की है. यह रिपोर्ट अन्य राज्यों की पुलिस के पास भी उपलब्ध हैं क्योंकि इन व्यक्तिओं से उन्होंने भी पूछताछ कि थी. यूपी एटीएस ने पूछताछ रिपोर्टों को गोपनीय करार देकर छुपाया है और इसे अदालत के सामने जानबूझ कर नहीं रखा है. एटीएस के पास यह रिपोर्टें 2008 से ही हैं परन्तु इस तथ्य को पहले पकडे गए और चालान किये गए तथाकथित हुजी सदस्यों की बेगुनाही के सबूत के तौर पर अदालत में पेश नहीं किया गया. यदि एटीएस इन रिपोर्टों को इमानदारी बरतते हुए समय से अदालत में पेश कर देती तो हुजी के नाम पर जेलों में सड़ रहे बहुत से व्यक्ति छूट जाते और असली मुजरिम पकडे जाते. परन्तु एटीएस ने ऐसा न करके न केवल अदालत को धोखा दिया है बल्कि बहुत से निर्दोष व्यक्तियों को झूठे गंभीर मामलों में  फंसाने का अपराध भी किया है. मुलायम सरकार चाहे तो अभी भी अदालत के सामने इन सबूतों को आधार बना कर  औ पुनर विवेचना कि मांग रख कर मुकदमे वापस ले सकती है परन्तु वह जानबूझ कर ऐसा न करके केवल सरसरी आधार पर मुक़दमे वापस लेने का नाटक कर रही है जो कि उसकी साम्प्रदायिक राजनीति का हिस्सा है.
जहाँ तक इन मामलों में साक्ष्य के अपर्याप्त होने का प्रशन है वह न केवल अपर्याप्त है बल्कि बिलकुल तुच्छ भी है. इस का अंदाज़ा इस से लगाया जा सकता है कि कचेहरी बम विस्फोट में खुफिया एजंसी अर्थात आई बी  कि रिपोर्ट को एफ. आई. आर का आधार बनाया गया है और शस्त्र और विस्फोटक कि बरामदगी दिखाई गयी है. इस के इलावा विवेचना में मुजरिमों के इकबालिया बयान आरोप सिद्ध करने का आधार है. सब से हास्यस्पद साक्ष्य तो यह है कि इस में इन्टरनेट से “इंस्टीटयूट आफ डिफेन्स स्टडीज एंड  एनाल्सिज़” की वेबसाइट से “हुजी आफ्टर दी डेथ ऑफ़ इट्स इंडिया चीफ’ शीर्षक का लेख डाउनलोड करके साक्ष्य के रूप में पेश किया गया है क्योंकि इस में लिखा हुआ है कि  हुजी के लोगों ने देश के अन्य हिस्सों के साथ साथ उत्तर प्रदेश में भी आतंकी घटनाएँ की थीं. अतः पुलिस ने उस समय पकडे गए इन निर्दोष लोगों को हुजी के सदस्य करार दे कर इन मामलों में फिट कर दिया जबकि पुलिस की अपनी पूछताछ रिपोर्ट के अनुसार 2008 में पकडे गए तथाकथित इंडियन मुजाहिदीन के लोगों ने इन घटनाओं को करने की बात स्वीकार की थी. इस से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पुलिस ने इन मामलों में किस तरह हलके फुल्के तरीके से विवेचनाएँ की और हलके फुल्के साक्ष्य के आधार पर चार्ज शीट लगा दी.  
इसी महीने की 13 तारीख को आशीष खेतान , एक ख्याति-प्राप्त पत्रकार, ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है जिस में उस ने ऊतर प्रदेश के आतंक से सम्बन्धित सात मामलों में उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा विवेचना में की गयी जालसाजी और धोखाधड़ी के परिपेक्ष्य में इन सब मामलों की पुनर विवेचना करने, दोषी पुलिस अधिकारियों को दण्डित करने, निर्दोष व्यक्तियों को छोड़ने और पुनर्वासित करने का अनुरोध किया है. उस ने अपनी याचिका के साथ यूपी एटीएस की गोपनीय कह कर छुपायी गयी पूछताछ रिपोर्टें भी संलग्न की हैं जिन से यह सिद्ध होता है कि पुलिस ने आतंक के जिन सात मामलों में जिन लोगों को हुजी के सदस्य कह कर फंसाया है और वे  6 से 8 साल से अधिक समय से जेलों में सड़ रहे हैं और जिन में खालिद की न्यायायिक हिरासत में मौत हो गयी और  श्रमजीवी विस्फोट के एक आरोपी वसिउर्रह्मान को  दस साल की सजा भी हो गयी है निर्दोष हैं.  हो सकता है कि इसी प्रकार की सजा दूसरे आरोपियों को भी हो जाये.
अब अगर माननीय उच्च न्यायालय ने आशीष खेतान की जनहित याचिका को स्वीकार कर इन सभी मामलों की पुनर विवेचना का अनुरोध सवीकार कर लिया तो इस से यूपी पुलिस की इन विवेचनाओं में की गयी धोखाधड़ी और जालसाजी सामने आ जाएगी जिस के फलस्वरूप इसे करने वाले पुलिस अधिकारियों को सजा भी मिल सकती है. लगता है कि अखिलेश सरकार इन पुलिस अधिकारियों  दण्डित होने और असली मुजरिमों को पकड़ने से डरती है और वह मुक़दमे वापस लेने के ठोस आधार पेश न करके केवल सरसरी आधार देकर रस्म अदायगी कर रही है. इस में उसकी साम्प्रदायिक राजनीति भी शामिल है जिस  के तहत वह एक तीर से दो निशाने बना कर उत्तर प्रदेश में सम्प्रदायिक राजनीति को तेज करना चाहती है. इस लिए प्रदेश में सभी धर्मनिरपेक्ष और जनवादी ताकतों को एक जुट हो कर मुलायम सिंह और भाजपा की आतंकवाद के नाम पर सम्प्रदायिक राजनीती का विरोध करना चाहिए और निर्दोषों को न्याय दिलाने के लिए आगे आना चाहिए. हाल में आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने “कानून का राज के लिए जन अभियान” के अंतर्गत दस दिन के उपवास और धरने के माध्यम से इस दिशा में पहलकदमी ली है. इस में उसे वाम जनवादी और धर्म निरपेक्ष ताकतों का भारी समर्थन भी मिला है.       

रविवार, 23 जून 2013

क्या आई बी कानून से उपर है?

क्या आई बी कानून से उपर है?
-एस. आर.दारापुरी आई. पी. एस. (से. नि.)

आज कल आईबी (इंटेलिजेंस ब्यूरो) ख़बरों में है. इस का संद्धर्भ आईबी के एक अधिकारी राजिंदर कुमार की गुजरात पुलिस द्वारा इशरत जहाँ की फर्जी मुठभेड़ में मारने की साजिश में शामिल होने का है. वर्तमान में इस मामले की विवेचना सीबीआई द्वारा की जा रही है और उस ने इस साजिश में राजिंदर कुमार के शामिल होने के बारे में पुख्ता सबूत इकठ्ठा किये हैं. अब तक की विवेचना से यह पाया गया है कि राजिंदर कुमार ने इशारत जहाँ और उस के साथी जावेद शेख उर्फ़ प्रणेश पिल्ले सहित दो पाकिस्तानियों के लश्करे-तैयबा के सदस्य होने और गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी को मारने के लिए गुजरात में आने की जूठी सूचना दी थी. इतना ही नहीं यह भी पाया गया है कि वह इन को मारने की साजिश में शामिल भी था और उस ने इन तथाकथित आतंकवादियों से बरामद दिखाई गयी एके-47 रायफल भी गुजरात पुलिस के अधिकारियों को उपलब्ध करायी थी. वह गुजरात पुलिस द्वारा फार्ज़ी मुठ-भेड़ को अंजाम देने के तुरंत बाद घटना स्थल पर भी गया था.
उक्त साक्ष्य के साथ सीबीआई ने उसे विवेचनाकर्ता टीम के सामने इस साजिश में शामिल होने या न होने के बारे में अपना ब्यान देने के लिए बुलाया था. वे इस से बहुत दिनों तक बचता रह और तब ही पेश हुआ जब उसे गिरफतार करने की धमकी दी गयी. आईबी के अधिकारीयों ने यह बहाना बनाया कि उस की भूमिका गुजरात पुलिस को सूचना देने कि ही थी न कि उसे मारन देने की. निदेशक आईबी ने यह भी वास्ता दिया कि यदि राजिंदर कुमार को इस मामले में गिरफतार किया गया तो इस से आईबी के अधिकारीयों का मनोबल टूट जायेगा और वे अपने आतंकवादियों के बारे में सूचना एकत्र करने और उसे राज्य पुलिस को देने के कर्तव्य को करने से डरने लगेंगे. उसने गृह मंत्रालय के माध्यम से भी सीबीआई पर दबाव डलवाने की कोशिश की. आईबी ने इशरत जहाँ के आतंवादी होने की बात को सिद्ध करने के लिए उसकी लश्करे-तैयबा के संचालकों से बातचीत की एक सीडी भी एक चैनल पर चलवाई जिस के सही होने का कोई प्रमाण नहीं है. यह भी उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय सरकार द्वारा गुजरात हाई कोर्ट में दाखिल किये गए हलफनामे में इशरत जहाँ के बारे में ऐसी कोई बात नहीं कही गयी है. इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि आईबी द्वारा राजिंदर कुमार को बचाने के लिए ये किये गए सभी दावे झूठे और बेबुनियाद हैं. उस के इस साजिश में शामिल होने की पुष्टि गुजरात पुलिस के उन अधिकारियों द्वारा भी की गयी है जो इस साजिश में स्वयं शामिल थे. इस से राजिंदर कुमार के इस साजिश में शामिल होने की पूरी तरह से पुष्टि होती है.
अब प्रशन यह पैदा होता है कि आईबी द्वारा एक गुप्तचर संस्था होने और अपराध करने पर पकडे जाने से मनोबल के गिरने का बहाना लेकर कानून से बचने का दावा करने का मतलब क्या है? हमारे देश में कानून के सामने समानता और कानून की प्रक्रिया अपनाने का सिद्धांत लागू है. क्या इस प्रकरण में राजिंदर कुमार केवल खुफिया संस्था के अधिकारी होने के नाते कानून से ऊपर होने का दावा कर सकता है? मेरे विचार में इस का उत्तर किसी भी हालत में हाँ में नहीं हो सकता. वह एक हत्या के अपराध की साजिश में लिप्त है और उससे कानूनी तौर पर पूछताछ की जानी चाहिए. जहाँ तक इस से आईबी के अधिकारियों का मनोबल गिरने का प्रशन है यह बहाना सभी पुलिस एजंसियों द्वारा गलती पर पकडे जाने पर बनाया जाता है और इस द्वारा अपने आकायों से संरक्षण प्राप्त किया जाता है. इस के विपरीत मेरे विचार में इस से सही काम करने वाले अधिकारियों का मनोबल बढ़ेगा क्योंकि प्राय: गलत काम करने वाले अधिकारी इस प्रकार के फर्जी काम करके वाहवाही लूटते रहते हैं और सही काम करने वाले अधिकारी नज़रंदाज़ कर दिए जाते हैं. इस से सही काम करने वाले अधिकारीयों का मनोबल गिरता है और गलत काम करने वाले अधिकारी मज़े लूटते हैं. पुलिस द्वारा फर्जी और गैर कानूनी काम करने से पुलिस से जनता का विश्वास भी उठता है जैसा कि वर्तमान में है. इस विश्वास को पुनर्स्थापित करने के लिए पुलिस का कानूनी, निष्पक्ष और न्यायपूर्ण ढंग से काम करना ज़रूरी है.
जहाँ तक इशरत जहाँ और उस के साथियों के लश्करे-तैयबा से सम्बन्ध का प्रशन है, इस का अभी तक कोई पुख्ता सबूत नहीं है. आईबी पेशबंदी में इस बारे में तरह तरह की कहानियां घड रही है. अब यदि इस आरोप को सही भी मान लिया जाये तो क्या इस से पुलिस को उन्हें मारने का अधिकार मिल जाता है. वास्तव में यह आईबी के कुछ अधिकारियों की साम्प्रदायिक मानसिकता का परिणाम है जो उन द्वारा पुलिस से मिलकर मुस्लिम नौजवानों को शिकार बनाये जाने के लिए ज़िम्मेदार है. इन अधिकारियों ने कई बेकसूर मुस्लिम नौजवानों के बारे में आतंकवादी होने की झूठी सूचनायें पुलिस को देकर उन्हें फर्जी मुठभेड़ों में मरवाया है या झूठे केसों में फंसवाया है. आईबी के कुछ अधिकारीयों की मुस्लिम विरोधी मानसिकता इस से भी झलकती है कि अब तक वह मुसलमान आतंकवादी संगठनों के बारे में तो झूठी सच्ची सूचनाये देती रही है परन्तु उस ने आज तक किसी भी हिन्दुत्व आतंकवादी संगठन के बारे में कोई सूचना नहीं दी है. नेहरु ने ऐसे साम्प्रदायिक तत्वों के पुलिस संगठनों में होने की बात गाँधी जी की हत्या के तुरंत बाद 1948 में कही थी और कुछ साल पहले इस का उल्लेख तत्कालीन केन्द्रीय गृह मंत्री श्री चिन्द्रम ने भी किया था. परन्तु अब तक इस प्रकार के तत्वों को पहचानने और उनके विरुद्ध कार्रवाई करने की दिशा में कुछ भी नहीं किया गया है.
आईबी द्वारा इस प्रकार की भूमिका उत्तर प्रदेश में भी निभाई गयी है. वर्ष 2007 के आतंकवाद के तीन मामले , वाराणसी, लखनऊ और फैजाबाद में कचेहरी बम्ब विस्फोट की प्रथम सूचना रिपोर्ट में आईबी द्वारा कुछ व्यक्तियों के इंडियन मुजाहिदीन के सदस्य होने की सूचना देने की बात दर्ज है. फैजाबाद और लखनऊ के मामलों में तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद की गिरफ्तारी को निमेश कमीशन ने गलत ठहराया है. इस में से खालिद की न्यायायिक हिरासत में मौत भी हो चुकी है जिस के सम्बन्ध में आईबी सहित 42 पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध अभियोग भी दर्ज हुआ है. हाल में आशीष खेतान, एक ख्याति प्राप्त पत्रकार द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गयी है जिस में यह आरोप लगाया गया है कि वर्ष 2005 से 2007 के दौरान के 7 आतंकवाद के मामलों में पुलिस ने गलत लोगों को हुजी के सदस्य कह कर फंसाया है जबकि यूपी पुलिस के पास बाद में पकडे गए तथाकथित इंडियन मुजाहिदीन के सदस्यों ने अपनी पूछताछ रिपोर्टों के अनुसार इन घटनायों को करने की बात स्वीकार की थी परन्तु पुलिस द्वारा बाद में प्रकाश में इन तथ्यों को अदालत के सामने नहीं रखा गया. इस प्रकार इन मामलों में अब तक फंसाए गए सभी अहियुक्त बेकसूर हैं. इन में से एक अभियुक्त वलीउल्लाह को दस वर्ष कि सजा भी हो चुकी है. आशीष खेतान ने पुलिस द्वारा गोपनीय करार दी गयी पूछताछ रिपोर्टों की प्रतिलिपियां हाई कोर्ट को उपलब्ध करायी गयी हैं. इन में से तीन मामलों में आईबी द्वारा ही सूचना दी गयी थी. अब अगर हाई कोर्ट द्वारा यह जनहित याचिका स्वीकार कर ली जाति है और इन मामलों की पुनर विवेचना किये गए अनुरोध के अनुसार मान ली जाती है तो इस से आईबी और पुलिस का सारा फरेब और झूठ सामने आ जायेगा.
जैसा कि हम जानते हैं कि आईबी इस देश में इस प्रकार का संदिग्ध कार्य करती रही है. सबसे पहले तो यह एक ऐसा संगठन है जिस का कोई वैधानिक आधार ही नहीं है और यह संस्था किसी के प्रति भी जवाबदेह नहीं है. इस के कर्तव्य और जिम्मेवारियों का कहीं भी निर्धारण नहीं किया गया है. इस के बजट पर कोई चर्चा नहीं होती है. आईबी के एक रिटायर्ड अधिकारी ने आईबी के वैधानिक आधार को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर रखी है जो अभी विचाराधीन है. अब तक आईबी बड़े मज़े से काम करती रही है. परन्तु जब यह गैर क़ानूनी काम करने के मामले में फंस गयी है तो इस के अधिकारी अब अपने काम और उत्तरदायित्व के निर्धारण की बात करने लगे है.
उपलब्ध जानकारी के अनुसार आईबी का मुख्य काम देश की आन्तरिक सुरक्षा के बारे में गोपनीय सूचनाएं एकत्र करके सरकार को उपलब्ध कराना है परन्तु इस का शासक पार्टी द्वारा अपने राजनीतिक हितों को बढावा अथवा संरक्षण देने तथा अपने विरोधियों की जासूसी करने के लिए खुला दुरूपयोग किया जाता रहा है. इस का इस्तेमाल चुनाव के समय शासक पार्टी द्वारा अपने प्रत्याशियों की जीत/हार का आंकलन करने के लिए किया जाता रहा है. आईबी को ऐसे कार्यों को करने के लिए भारी मात्रा में फंड भी मिलता है. इस प्रकार आईबी अपने सत्ताधारी मालिक के लिए निष्ठापूर्वक काम करती है और इस में जनता के धन का पार्टी हित में दुरूपयोग होता है.
इशरत जहाँ के मामले में आईबी द्वारा एक गोपनीय संगठन होने तथा उस के सदस्यों के अपराधिक कार्यों के लिए पकडे जाने और दण्डित किये जाने से अपने अधिकारियों का मनोबल गिरने की दुहाई दी गयी है. इस सम्बन्ध में हमारे देश में “कानून का राज” का सिद्धांत लागू है. किसी भी अधिकारी को अपने निर्धारित कर्तव्य से इतर गैर कानूनी कार्य करने की छूट नहीं है. अतः आईबी को कानून से ऊपर नहीं रखा जा सकता. आईबी का एक “पवित्र गाय” होने के दावे को नहीं माना जा सकता. हमारी अपराधिक-न्याययिक प्रणाली किसी के भी साथ कोई भेद भाव करने की अनुमति नहीं देती है. दोषी व्यक्तियों को अपने अपराधिक कृत्यों का परिणाम भुगतान ही होगा. अतः इस के साथ यह भी आवश्यक है कि आईबी को एक वैधानिक आधार दिया जाये और इसे अन्य देशों की ख़ुफ़िया एजंसियों की तरह पार्लियामेंट के प्रति जवाबदेह बनाया जाये. इस के कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का सपष्ट निर्धारण भी किया जाना चाहिए ताकि इस के सत्ताधारी पार्टी द्वारा दुरुपयोग कि सम्भावना को रोका जा सके.

शुक्रवार, 7 जून 2013

कानून के राज के लिए जन अधिकार अभियान

ALL INDIA PEOPLES FRONT: कानून के राज के लिए जन अधिकार अभियान: कानून के राज के लिए जन अधिकार अभियान भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी), राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल, सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया), राष्ट्रवादी...

क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है?

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