‘भारतीय विचारधारा’: मिथक से यथार्थ की ओर
Posted by Reyaz-ul-haque on 1/23/2013 03:08:00 PM
सुभाष गाताडे
अपनी किताब‘ द जर्मन आइडिओलोजी’ (रचनाकाल 1845-46) मार्क्स एवं एंगेल्स इतिहास की अपने भौतिकवादी व्याख्या का निरूपण करते है। किताब की शुरूआत 19 वीं सदी के शुरूआत में जर्मनी के दार्शनिक जगत पर हावी हेगेल की आदर्शवादी परम्परा एवं उसके प्रस्तोताओं की तीखी आलोचना से होती है जिसमें यह दोनों युवा इन्कलाबी चेतना एवं अमूर्त विचारों पर फोकस करनेवाले और सामाजिक यथार्थ के उससे निःसृत होने की उनकी समझदारी पर जोरदार हमला बोलते हैं। इस ऐतिहासिक रचना से नामसादृश्य रखनेवाली पेरी एण्डरसन (थ्री एसेज़, 2012) की किताब ‘द इण्डियन आइडिओलोजी’ का फ़लक भले ही दर्शन नहीं है, मगर अपने वक्त़ के अग्रणी विचारकों द्वारा भारतीय राज्य एवं समाज की विवेचना की आलोचना के मामले में वह उतनी ही निर्मम दिखती है।
आज की तारीख में भारतीय राज्य एक स्थिर राजनीतिक जनतंत्र, एक सद्भावपूर्ण क्षेत्रीय एकता और एक सुसंगत धार्मिक पक्षपातविहीनता के मूल्यों को स्थापित करने का दावा करता है। उपनिवेशवादी गुलामी से लगभग एक ही समय मुक्त तीसरी दुनिया के तमाम अन्य मुल्कों की तुलना में – जहाँ अधिनायकवादी ताकतों ने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं एवं संस्थाओं को मज़बूत नहीं होने नहीं दिया है – विगत साठ साल से अधिक समय से यहां जारी संसदीय जनतंत्र के प्रयोग को लेकर वह आत्ममुग्ध भी दिखता है। इतना ही नहीं अक्सर यह भी देखने में आता है कि भारतीय समाज की विभिन्न गैरबराबरियों, जाति-जेण्डर-नस्ल आदि पर आधारित तमाम सोपानक्रमों के विभिन्न आलोचक भी भारतीय राज्य की इस आत्मप्रस्तुति/आत्मप्रशंसा से सहमत हुए दिखते हैं। मगर यह बेचैन करने वाला सवाल नहीं पूछा जाता कि भारतीय राज्य के तमाम दावों एवं वास्तविक हकीकत के बीच कितना तारतम्य है ? अगर दावों एवं हकीकत के बीच अन्तराल दिखता है तो उसे हम परिस्थिति की नियति कह सकते हैं या उसकी जड़ें शासकों के आचरण में ढूंढ सकते हैं।
दरअसल भारत को अपनी इकहरी नज़र के तहत हिन्दू राष्ट्र बनाने को आमादा विचारकों/कार्यकर्ताओं की चिन्तनप्रणाली/कार्यपद्धति विगत दो दशकों से अधिक समय से लिबरल/उदारवादी एवं वाम विचारकों की चिन्ता एवं आलोचना का विषय रही है। विडम्बना यही कही जाएगी कि साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता, अधिनायकवाद बनाम जनतंत्र जैसे द्धिविध/बायनरी रूप में प्रस्तुत इस बहस में खुद लिबरल विचारकों की सीमाएँ, उनके द्वारा धर्मनिरपेक्षता/जनतंत्र/एकता आदि मसले को गैरआलोचनात्मक ढंग से देखने का मसला कभी भी एजेण्डा पर नहीं आ सका है। लन्दन रिव्यू आफ बुक्स में 2012 की गर्मियों में प्रकाशित पेरी एण्डरसन द्वारा लिखे भारत सम्बन्धी आलेखों का प्रस्तुत संकलन न केवल भारतीय संघ की वास्तविकता को पैनी नज़र से देखता है बल्कि उसे लेकर स्थापित विभिन्न ‘सच्चाइयों’ को प्रश्नांकित करता है और साथ साथ ही हमारे वक्त के तमाम अग्रणी विचारकों के रूख पर भी सवाल खड़े करता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि (बकौल सुश्री अरून्धति राय) ‘पेरी एण्डरसन के तर्क उन तमाम विद्धानों एवं विचारकों को बेचैन कर देंगे जिन्होंने भारतीय गणतंत्र के हालात को लेकर महिमामण्डित करनेवाली सहमति कायम की है।’ पेरी एण्डरसन के मुताबिक भारतीय गणतंत्र की तमाम बीमारियों की जड़ें, ऐतिहासिक तौर पर, गहरी हैं। उनके मुताबिक भारत का आज़ादी का आन्दोलन जिस तरह लड़ा गया, जिसकी परिणति एक बंटे हुए उपमहाद्वीप में कांग्रेस के हाथों सत्ता हस्तांतरण मे हुई, उस पूरे इतिहास को नए सिरे से देखने-परखने की ज़रूरत है। इस किताब की प्रस्तावना में पेरी एण्डरसन पूछते हैं ‘‘गहराई में जाकर देखें तो भारत में जनतंत्र का सामाजिक आधार/एंकरेज कितना है और उसमें जाति की कितनी भूमिका है ? ..भारतीय संघ में धर्म का कितना स्थान है – जो घोषित तौर पर सेक्युलर है, मगर अन्तर्वस्तु में कितना है ? और अन्त में, राष्ट्र की एकता के जन्मचिन्ह क्या हैं और उसकी कितनी कीमत अदा करनी पड़ी है ?’’किताब में समूचा ज़ोर लिबरल/उदारवादी, सेक्युलर चिन्तकों पर है तथा इसमें वाम की चर्चा नहीं की गयी है। लेखक के मुताबिक एक ताकत के तौर पर वाम की ‘सापेक्ष राजनीतिक कमजोरी’ ने भारतीय विचारधारा की पकड़ को और मजबूत बनाया है।
लेखक के मुताबिक वाम की कमजोरी के कारणों की गहराई में जाकर पड़ताल ज़रूरी है, मगर उसका मानना है कि इसकी प्रमुख वजह ‘आज़ादी के आन्दोलन के साथ राष्ट्र के धर्म के साथ एकीकरण में निहित है।’ आयर्लण्ड, जहाँ लेखक पैदा हुआ, उसकी चर्चा करते हुए वह यह भी जोड़ते हैं कि जहाँ-जहाँ पर ऐसा एकीकरण हुआ, वहाँ पर वाम के लिए ज़मीन हमेशा शुरू से प्रतिकूल रही है। प्रस्तावना के अन्त में वह यह सलाह भी देते हैं कि वाम को चाहिए कि वह अपने दौर को श्रद्धाभाव से देखने के बजाय अम्बेडकर एवं पेरियार की तर्ज़ पर अधिक आलोचनात्मक ढंग से देखे।
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अपने प्रथम अध्याय ‘इण्डिपेण्डस’ की शुरूआत लेखक जवाहरलाल नेहरू की बहुचर्चित किताब ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ के उद्धरण से करते हैं जिसमें भारत के भावी प्रधानमंत्री आज़ादी के कुछ समय पहले ‘भारत की संस्कृति एवम सभ्यता की पाँच-छह हज़ार वर्षों से अधिक समय चली आ रही निरन्तरता’ को लेकर अपनी मुग्धता बयान करते हुए इस उपमहाद्वीप की प्राचीनता के अनोखेपन का जिक्र करते हैं, जो ‘सभ्यता की सुबह से ही भारत के विचार में व्याप्त एकता के सपने’ में प्रतिबिम्बित होती है। फिर अमर्त्य सेन, मेघनाद देसाई, रामचन्द्र गुहा, सुनिल खिलनानी, प्रताप भानु मेहता जैसे शीर्षस्थ विद्वानों की भारत सम्बन्धी गम्भीर रचनाओं का ज़िक्र करते हुए लेखक बताते हैं कि किस तरह भारत को समझने के लिए अनिवार्य इनकी रचनाएँ भी ‘राज्य के अपने प्रति शब्दाडम्बर (rhetoric) को सांझा करती हैं। राष्ट्रीय आन्दोलन में जिस तरह ‘भारत के प्रकृति द्वारा निर्मित एक अविभाजित धरती’ (बकौल महात्मा गाँधी) जहां ‘दुनिया के अन्य हिस्सों से बिल्कुल अलग राष्ट्रीयता की भावना प्रगट होती थी’ जैसी बातों का बोलबाला था उसी सिलसिले के आज भी जारी होने की बात को रेखांकित करते हुए किताब एक महत्वपूर्ण तथ्य की तरफ इशारा करती है। दरअसल यह उपमहाद्वीप जिसे आज हम इस रूप में जानते हैं वह पूर्वआधुनिक समय में कभी भी एक राजनीतिक या सांस्कृतिक इकाई के रूप में अस्तित्व में नहीं था, ब्रिटिशों के आगमन ने ही पहली दफा इसे एक प्रशासकीय और विचारधारात्मक हकीकत में तब्दील किया।
अगर हम अतीत के पन्नों को पलटें तो इतिहास के लम्बे कालखण्ड में उसका भूभाग मध्यम आकार के राज्यों का हिस्सा था। भारत के इतिहास में नज़र आने वाले तीन बड़े साम्राज्यों – मौर्य, गुप्त या मुगल साम्राज्यों – का दायरा कभी भी नेहरू द्वारा ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ में वर्णित भूभाग तक फैला नहीं था। जिस ‘भारत के विचार’ की बातें आज़ादी के आन्दोलन के अग्रणियों ने की, वह ‘सारतः एक यूरोपीय विचार’ था। किसी भी देशज भाषा में ऐसा शब्द वजूद में नहीं दिखता। यह अकारण नहीं था कि इस उपमहाद्वीप का बंटा हुआ समाज एवं अलग अलग राज्यों में विभक्त भूभाग पर नियंत्राण करना बर्तानवी शासकों के लिए बहुत कठिन साबित नहीं हुआ। निश्चित ही पुलिस एवं फौज से बनी दमनात्मक मशीनरी के अलावा ब्रिटिश राज के आधुनिकीकरण की ताकत कानूनी किताबों के निर्माण या रेल एवं यातायात के साधनों को विकसित करने तक सीमित नहीं थी। उन्होंने एक देशज अभिजात तबके के निर्माण के भी बीज डाले जो मेकॉले की भाषा में ‘रंग एवं वर्ण में भारतीय था, मगर रुचियों, मतों, बौद्धिकता एवं नैतिकता के मामले में ब्रिटिश’ था। ‘भारत का विचार (आयडिया आफ इण्डिया) उनका था। मगर जैसे जैसे वह नौकरशाही नियम का हिस्सा बना, फिर प्रजा अपने शासकों के खिलाफ उठ खड़ी हो सकती थी और साम्राज्य का प्रभामण्डल राष्ट्र के करिश्मे में तिरोहित होनेवाला था।’ (पेज 15)
इस अध्याय का शेष भाग गाँधी द्वारा आज़ादी के आन्दोलन की अगुआई, जातिप्रथा से लेकर मशीनरी आदि ज्वलन्त मसलों पर उनके विचार, अहिंसा की रणनीति का उनके द्वारा इस्तेमाल तथा ब्रिटिश राज के दिनों में सम्पन्न चुनावों में अलग अलग सूबों में कायम कांग्रेस सरकारों के दमनात्मक स्वरूप आदि पर केन्द्रित है। जहाँ 1857 के महासमर के बाद पहली दफा एक व्यापक जनान्दोलन खड़ा करने में गाँधी की भूमिका, कांग्रेस को एक लोकप्रिय राजनीतिक ताकत बनाने की उनकी कोशिशों की इसमें चर्चा है, वहीं वह इस बात का विशेष उल्लेख करती है कि चन्द अपवादों को छोड़ दें तो किस तरह बीसवीं सदी के राष्ट्रीय आन्दोलनों में उभरे तमाम नेताओं में से बहुत कम धार्मिक नेता थे और इस कतार में गाँधी बिल्कुल अलग ठहरते हैं। उनके लिए ‘राजनीति की तुलना में धर्म की अधिक अहमियत थी’ (पेज 19) अपने बुनियादी विश्वासों को लेकर ‘हिन्द स्वराज्य’ किताब में वह लिखते हैं कि ‘मशीनरी अधिक पाप की खान है’ , ‘रेलवे ने ब्युबानिक प्लेग को फैलाने में मदद पहुँचाई है’, और ‘अकाल की वारम्वारिता को बढ़ाया है’ ‘अस्पताल ऐसे स्थान हैं, जो पाप को बढ़ावा देते हैं;’ आदि (पेज 21)
कहीं कहीं लेखक ऐसे वक्तव्य देते हैं जिनसे सहमत होना मुश्किल दिखता है, मसलन उनके मुताबिक ‘कांग्रेस अभिजातों की बुनियादी राजनीति खालिस सेक्युलर थी। पार्टी पर गाँधी के नियंत्रण ने न केवल उसे लोकप्रिय आधार प्रदान किया, जो उसके पास नहीं था, मगर साथ ही साथ उसने – मिथक, धर्मशास्त्र आदि के रूप में धर्म के तत्वों का भी जोरदार प्रवेश सम्भव बनाया।’ (पेज 22) ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक गाँधी के आगमन के पूर्व कांग्रेस राजनीति में हावी लोकमान्य तिलक आदि की राजनीति के प्रति उतने परिचित नहीं दिखते। याद रहे कि तिलक को यह ‘श्रेय’ जाता है कि उन्होंने लोगों को लामबन्द करने के लिए सार्वजनिक गणेशोत्सव या शिवजयंती जैसे त्यौहारों का आयोजन शुरू किया, जो निश्चित ही किसी भी मायने में सेक्युलर कदम नहीं कहे जा सकते।
गाँधीजी द्वारा बार-बार हिन्दू धर्म की दुहाई देने के उदाहरणों को पेश करने के बाद लेखक यह सवाल भी उठाते हैं कि ‘इस किस्म के हिन्दू पुनरूत्थानवादी से हम ऐसी उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह मुसलमानों को भी एक साझे राष्ट्रीय संघर्ष हेतु एकताबद्ध करेगा ?’ (पेज 24) इस पहेली का समाधान एक तरह से गाँधी ने यह ढूंढा कि ‘इस्लाम के बैनर तले ही ब्रिटिश राज के खिलाफ मुसलमानों को गोलबन्द किया जाए..’ टर्की में खिलाफत की समाप्ति एक ऐसा मुद्दा था, जिसके नाम पर रूढ़िवादी मुसलमानों के बड़े हिस्से को साथ जोड़ा जा सकता था। स्पष्ट था यह ऐसा मसला था जो ‘..अधिक सेक्युलर मुसलमानों के लिए – जिनमें जिन्ना भी शामिल थे – न केवल अप्रासंगिक था, बल्कि बेहद प्रतिक्रियावादी भी था…’
(पेज 25) असहयोग आन्दोलन में चौरीचौरा की घटना में हुई हिंसा के बाद समूचे आन्दोलन को वापस लेने वाले गाँधीजी किस तरह बीस साल बाद ‘गुलामी के जोखड़ को उतार फेंकने के लिए जरूरत पड़े तो हिंसा का भी सहारा लेने की बात करते हैं’ आदि विभिन्न घटनाओं की चर्चाओं के जरिए गाँधीजी के विचारों में नज़र आनेवाली असंगतियों के मद्देनज़र लेखक गांधीजी द्वारा उसे औचित्य प्रदान किए जाने की बात को रेखांकित करते हैं। (पेज 31) असहयोग आन्दोलन एवं खिलाफत आन्दोलन - जिसमें हिन्दू मुस्लिम दोनों ने जम कर हिस्सेदारी की थी, उस पूरे जनउभार को चौरीचौरा की घटना के बाद अचानक वापस लिए जाने के गाँधी के फैसले का लेखक के मुताबिक एक अन्य असर यह भी रहा कि ‘इसके बाद स्थूल रूप में मुसलमानों ने उन पर भरोसा नहीं किया।’ मार्च 1930 में जब गांधी अपने दूसरे व्यापक जनअभियान सविनय अवज्ञा आन्दोलन की शुरूआत दाण्डी मार्च के बहाने की तो इस बार आन्दोलन का दायरा ‘भौगोलिक तौर पर व्यापक था, लेकिन साम्प्रदायिक तौर पर संकीर्ण था – लगभग मुसलमानों ने इसमें हिस्सा नहीं लिया’ (पेज 36)
आगे लेखक ‘अस्पृश्यों को’ अलग मतदातासंघ प्रदान करने के गोलमेज सम्मेलन के फैसले के बहाने जाति के प्रश्न पर गाँधी के उहापोह एवं उनकी रूढिवादी समझदारी की चर्चा करते हें। वर्णव्यवस्था की हिमायत करनेवाले (‘अगर हिन्दू समाज आज भी खड़ा है तो उसकी वजह जातिव्यवस्था की उसकी बुनियाद है। स्वराज्य की जड़ें जाति प्रथा में देखी जा सकती हैं।’ ‘मेरा स्पष्ट मानना है कि जाति प्रथा ने हिन्दू धर्म को विघटन से बचाया है) और अस्पृश्यता को ‘मानवीय गलती’ का हिस्सा माननेवाले गाँधी के लिए ब्रिटिश सरकार का यह फैसला महज राष्ट्रीय आन्दोलन को बाँटने का मसला मात्र नहीं था, बल्कि इसका अर्थ था कि जाति व्यवस्था के चलते हिन्दू धर्म के अभिशप्त होने की बात को कूबूल करना। दलितों को अलग मतदातासंघ प्रदान करने के फैसले को पलटने के लिए गांधी द्वारा लिया गया आमरण अनशन का सहारा और अम्बेडकर पर डाला गया प्रचण्ड दबाव इसकी चर्चा करते हुए लेखक बताते हैं कि किस तरह अम्बेडकर के साथ सम्पन्न पूना करार – जिसने ‘अस्पृश्यों’ के लिए चुनावों में अधिक सीटें प्रदान करने की बात की गयी, उसने दलित समुदाय को राजनीतिक स्वायत्तता से वंचित कर दिया। ‘हिन्दू जो भी कहें, हिन्दू धर्म समानता, स्वतंत्रता एवं बन्धुता के लिए खतरा है’ इस बात को जोर से रखनेवाले अम्बेडकर ने बाद में पूना करार के वक्त अपने समर्पण – जब समूचे दलित समुदाय पर वर्णसमाज के आक्रमण का खतरा मण्डरा रहा था – पर पश्चाताप प्रगट करते हुए कहा कि ‘इस अनशन में कोई उदात्तता नहीं थी। वह एक निकृष्ट एवं निन्दनीय कदम था।’
पार्टी के अन्दर वामपंथी धारा के अगुआ सुभाषचन्द्र बोस, जो पार्टी के इतिहास में अभूतपूर्व चुनाव में उसके अध्यक्ष चुने गए थे, और जिन्हें पार्टी की अन्दरूनी बगावत के जरिए गाँधी ने पद से बेदखल कर दिया और बाद में कांग्रेस से भी बाहर जाने को मजबूर किया, उनके द्वारा पार्टी के अन्दर रहते हुए हिन्दू-मुस्लिम एकता कायम करने के लिए ली गयी एक अद्भुत पहलकदमी की लेखक चर्चा करते हैं। कांग्रेस की युवा शाखा के अगुआ बोस ने बंगाल प्रांत में – जमींदारों के खिलाफ खड़ी- मुस्लिम किसानों की पार्टी के साथ गठजोड़ बनाने की हिमायत की थी। लेखक के मुताबिक जी एम बिड़ला, जो मारवाडी व्यापारी थे तथा कांग्रेस के लिए लाखों रूपए का चन्दा देते थे, उनका इस कदम के प्रति विरोध था (बंगाल की तत्कालीन परिस्थिति से परिचित लोग बता सकते हैं कि अधिकतर जमींदार हिन्दू थे) और उन्हीं की सलाह पर गांधी ने इस अन्तरसामुदायिक पहल में अडंगा लगा दिया।
भारत छोड़ो आन्दोलन के जरिए अपनी जिन्दगी के आखरी बड़े संघर्ष की अगुआई करनेवाले गाँधी ने किस तरह कभी हिटलर की प्रशंसा की थी, उसका उल्लेख करना लेखक नहीं भूलते। ‘उसके कोई दुर्गुण नहीं है। उसने शादी नहीं की है। उसका चरित्र भी पारदर्शी कहा जाता है।’(कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी, पेज 177,: 17 दिसम्बर 1941) यह आन्दोलन – जिसके लिए कांग्रेस ने कोई तैयारी नहीं की थी – उसकी समाप्ति के बाद, ब्रिटिश सरकार आज़ादी के मसले के समाधान को अधिक लटकाना चाहती थी। इस परिस्थिति में बुनियादी फर्क दूसरे विश्वयुद्ध में शामिल जापानी सेनाओं ने किस तरह डाला और दक्षिण पूर्व एवं दक्षिण एशिया में यूरोपीय उपनिवेशवाद को किस तरह जबरदस्त नुकसान पहुँचाया, इसके विवरण के साथ प्रथम अध्याय समाप्त होता है। (पेज 48)
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दूसरा अध्याय एक तरह से नेहरू के राजनीतिक व्यक्तित्व, गाँधी के साथ उनके विशिष्ट किस्म के रिश्ते ‘जिसमें भावनात्मक बन्धनों के साथ साथ परस्पर हितों के समीकरण भी शामिल थे’ (पेज 51) तथा आज़ादी के आन्दोलन में उन्होंने निभायी भूमिका की चर्चा करता है।
एक क्षेपक के तौर पर इस बात का भी उल्लेख करना जरूरी है कि लेखक बौद्धिक क्षमता के मामले में अम्बेडकर के साथ नेहरू की तुलना करते हैं। ‘अम्बेडकर की नेहरू के साथ तुलना करना न्यायपूर्ण नहीं होगा, जो बौद्धिक क्षमता के मामले में कांग्रेस के तमाम नेताओं से बहुत आगे थे, जिसकी एक वजह यह भी कही जा सकती है कि डा अम्बेडकर ने लन्दन स्कूल आफ इकोनोमिक्स एवं कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अधिक गम्भीर अध्ययन किया था, जिन्हें पढ़ना एक तरह से एक अलग दुनिया में प्रवेश करना है। मगर हम ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ को पढ़ें तो वह न केवल नेहरू की औपचारिक विद्वत्ता की कमी एवं रूमानी मिथकों के प्रति अत्यधिक लगाव को उजागर करता है बल्कि अधिक गहराई में जाकर देखें तो …आत्मप्रवंचना की क्षमता को भी प्रदर्शित करता है जिसके राजनीतिक परिणाम बेहद प्रतिकूल हुए।’ (पेज 53)
जातिव्यवस्था को लेकर नेहरू की एक किस्म की समाजशास्त्रीय दृष्टिहीनता की बात का भी किताब में उल्लेख है। डिस्कवरी आफ इण्डिया में नेहरू लिखते हैं कि ‘जातिप्रथा एक ऐसी व्यवस्था थी, जो सेवाओं एवं कार्यों पर आधारित थी। उसका मकसद एक साझे दृष्टांत (dogma) के बिना एक सर्वसमावेशी प्रणाली कायम करना था जिसमें हर समूह को स्थान मिले।’ (डिस्कवरी आफ इण्डिया, पेज 248-249) यह अकारण नहीं था कि जब गांधीजी अम्बेडकर का भयादोहन (ब्लैकमेल) कर रहे थे कि वह उनकी इस माँग माने कि ‘अस्पृश्य’ जाति प्रथा में शामिल एकनिष्ठ हिन्दू हैं तथा अलग मतदातासंघ की माँग छोड़ दें तो उस वक्त नेहरू ने अम्बेडकर के समर्थन में एक लफ्ज़ भी नहीं बोला। नेहरू के लिए वह एक ‘छोटा सा मामला’ (साइड इश्यू) था। अपने आप को नास्तिक कहलानेवाले नेहरू ने किस तरह धर्म को राष्ट्र के साथ जोड़ा था, इसकी चर्चा करते हुए किताब बताती है कि ‘हिन्दू धर्म राष्ट्रवाद का प्रतीक बना। वह वाकई एक राष्ट्रीय धर्म था, उसके तमाम गहरे भावों के साथ, नस्लीय और सांस्कृतिक, जो मौजूदा समय में हर जगह राष्ट्रवाद का आधार बनते हैं।’ इसके बरअक्स बौद्ध धर्म, जिसका जन्म भारत में हुआ, उसकी वहाँ हार हुई क्योंकि वह ‘सारतः अन्तरराष्ट्रीय’ था। ( उद्धरण, डिस्कवरी आफ इण्डिया, पेज 129)
अगर राष्ट्रीय धर्म एवं उसकी बुनियादी संस्थाओं के बारे में नेहरू का यह नज़रिया था तो अन्य धर्मों के अनुयायी जो जनम से ही राष्ट्रीय नहीं थे, उसके प्रति उनका रूख क्या था ? लेखक के मुताबिक इसकी पहली परीक्षा 1937 में सम्पन्न प्रांतीय चुनावों के बाद आयी, जब नेहरू खुद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे तथा गांधी ने एक तरह से 1934 से अपने आप को किनारे किया था। कई प्रांतों मे कांग्रेस को मिले बहुमत से गदगद नेहरू ने ऐलान किया कि अब भारत में दो ही ताकतें हैं: कांग्रेस एवं ब्रिटिश सरकार, जबकि हकीकत यही थी कि मुस्लिम-बहुल कुछ प्रांतों में सत्ता की बागडोर मुस्लिम लीग के हाथ में थी और जहां तक कांग्रेस की सदस्यता का सवाल है तो वह 97 फीसदी हिन्दू थी। ‘समूचे भारत में 90 फीसदी मुस्लिम मतदातासंघों में उसे प्रत्याशी तक नहीं मिले थे। नेहरू के अपने सूबे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने तमाम हिन्दू सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन उसे एकभी मुस्लिम सीट नहीं मिली थी’ (पेज 56) इस परिस्थिति के बावजूद नेहरू ने मुस्लिम लीग के इस अनुरोध को ठुकरा दिया कि वह सरकार के साथ गठजोड करना चाहती है ताकि उसे भी प्रतिनिधित्व मिले। पचहत्तर साल बाद आज भले ही हम इस मसले पर कोई निश्चयात्मक राय न बना सकें, मगर कम से कम इस बात को रेखांकित कर सकते हैं कि आजादी के संघर्ष में कांग्रेस पार्टी की अपने एकाधिकार की समझदारी के प्रतिकूल परिणाम हुए।
प्रस्तुत अध्याय में आगे एक वक्त सेक्युलर नज़रिया रखनेवाले जिन्ना का कांग्रेस में हाशिये में जाना, कांग्रेस की समाजशास्त्रीय हकीकत के बारे में – कि वह मूलतः हिन्दू पार्टी है -उनका बढ़ता एहसास,मुस्लिम समुदाय के रूढिवादी तत्वों को साथ में लेकर चलने की कांग्रेस की कोशिशों के प्रति उनका बढ़ता विरोध और बाद में मुस्लिम राष्ट्रवाद की उनकी हिमायत की चर्चा है। बर्तानवी उपनिवेशवादियों ने किस तरह कभी हिन्दुओं से या कभी मुसलमानों से नज़दीकी दिखा कर अपने आप को केन्द्र में बना कर रखा, बँटवारे के वक्त किस तरह उनके लिए हिन्दू-बहुल कांग्रेस अधिक प्रिय हो चली, इसका विवरण भी पेश किया गया है। बँटवारे के वक्त़ हुए आबादियों की अदलाबदली एवं उससे जनित हिंसा को लेकर एक बात रेखांकित की गयी है कि भले ही पंजाब एवं पूरब के बंगाल से आबादियों की अदलाबदली हुई, मगर जितने बड़े पैमाने पर पंजाब के बंटवारे के वक्त हिंसाचार देखने को मिला, उसकी तुलना में बंगाल में बहुत कम हिंसा हुई। जहाँ लगभग 45 लाख हिन्दु एवं सिखों को पश्चिमी पंजाब से बेदखल कर दिया गया, वहीं पंजाब के पूर्वी हिस्से से 55 लाख से अधिक मुसलमान अपने घरों से बेदखल हुए।किताब में कश्मीर के भारत में एकीकरण को लेकर भी कई अनछुए तथ्यों को रेखांकित किया गया है।
गौरतलब है कि बँटवारे के वक्त चली अन्तरसामुदायिक हिंसा के वातावरण में हथियारबन्द पठानों ने पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी प्रांत से कश्मीर पर हमला बोल दिया और उनकी असंगठित टीमें श्रीनगर तक पहुंची। उनके डर से कश्मीर के तत्कालीन राजा हरि सिंह ने जम्मू की तरफ पलायन किया। कश्मीर को ‘आज़ाद’ रखने की ख्वाहिश रखनेवाले राजा हरिसिंह के पास भारत में विलय के करारनामे पर दस्तखत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, मगर इसका इन्तज़ार किए बिना एक फर्ज़ी दस्तावेज पेश किया गया जिसमें महाराजा द्वारा भारत के साथ विलय पर सहमति पेश की गयी थी। यही वह फर्ज़ी दस्तावेज है जिसके आधार पर साठ साल के बाद भी भारतीय राज्य कश्मीर पर अपने नियंत्रण को जायज़ ठहराता है। (पेज 83) और जिसके आधार पर भारतीय सेनाओं ने कश्मीर पर नियंत्रण कायम करने की कार्रवाई शुरू की।
‘इसके बावजूद, यह बिल्कुल स्पष्ट था कि एक ऐसा प्रांत जो मुस्लिम-बहुल था उसे ताकत के बल पर – और जैसा कि बाद की घटनाओं ने स्पष्ट किया – फरेब के बलबूते हासिल किया गया था। यहाँ तक कि लन्दन में सत्तासीन एटली के नेतृत्व वाली लेबर पार्टी की सरकार, जिसका कांग्रेस के प्रति बेहतर रूख था, उसने इस घटनाक्रम पर बेचैनी प्रगट की। प्रधानमन्त्री एटली ने इसे ‘डर्टी बिजनेस’ की संज्ञा दी। संयुक्त राष्ट्रसंघ में भी इसके चलते समस्या खड़ी हुई।’’ (पेज 84)
कश्मीर में जनमतसंग्रह को लेकर जिसका वायदा भारत सरकार ने किया था ताकि यह दिखाया जा सके कि कश्मीरी लोग अपनी स्वेच्छा से भारत से जुड़े हैं, न कि राजा की इच्छा से, उसके बारे में भी जल्दही स्थिति स्पष्ट होती गयी। कश्मीर के भारत में ‘विलय’ के कुछ समय बाद ही गृहमंत्री पटेल ने नेहरू को लिखा: ‘‘यह दिख रहा है कि नेशनल कान्फेरेन्स एवं शेख साहब (अब्दुल्ला) घाटी की जनता पर अपनी पकड़ खो रहे हैं और अलोकप्रिय हो रहे हैं …ऐसी परिस्थितियों में मैं आप से सहमत हूं कि जनमतसंग्रह अवास्तविक होगा।’’ (पेज 86 पर उद्धृत, दुर्गा दास (सम्पा.) ‘पटेलज् कारसपान्डन्स, अहमदाबाद, 1971, वाल्यूम 1,पेज 286, 317)
मुल्क के बँटवारे की बात करना जिस वक्त कांग्रेस पार्टी में कुफ्र था, और खुद मुस्लिम लीग के लिए भी अभी इस मसले को लेकर धुंधली समझदारी थी, उस वक्त (1944) में प्रकाशित डा अम्बेडकर की रचना ‘पाकिस्तान आर पार्टिशन आफ इण्डिया’ की प्रशंसा करते हुए लेखक बताता है कि इस मुद्दे पर प्रकाशित एकमात्रा गम्भीर उपरोक्त रचना, ‘जिसके सन्दर्भ रेनन से एक्टन से कार्सन तक फैले हैं, कनाडा से आयर्लण्ड से स्वित्जर्लण्ड तक बिखरे हैं, वह कांग्रेस एवं उसके नेताओं के बौद्धिक दिवालियेपन का ठोस सबूत थी।’ (पेज 89)
अध्याय में हैदराबाद पर भारतीय सेनाओं के नियंत्रण के बाद वहाँ भारतीय सेनाओं की मदद से हिन्दुओं द्वारा किए गए स्थानीय मुस्लिम आबादी के जनसंहार के लगभग भुला दिए गए तथ्य की भी चर्चा है। ध्यान रहे कि इस जनसंहार की जाँच के लिए भेजी गयी सरकारी टीम का अनुमान था कि इस मारकाट में कुछ सप्ताह के अन्दर ही वहाँ 27 हजार से 45 हजार तक मुसलमान मार दिए गए थे। ‘भारतीय संघ के इतिहास में यह सबसे बड़ा क़त्लेआम था, जिसके सामने पठान घुसपैठियों द्वारा श्रीनगर पर नियंत्रण कायम करने की कोशिशों के दौरान की गयी हिंसा बहुत छोटी मालूम पड़ती है…(पेज 91)
अन्त में, लेखक यह सवाल रखता है कि क्या भारत का बँटवारा अनिवार्य था ? ब्रिटिश राज के खिलाफ चले संघर्ष को लेकर उपलब्ध प्रचुर साहित्य में भी इस प्रश्न पर व्याप्त मौन की भी बात इसमें की गयी है। राष्ट्रीय आन्दोलन में एक स्थापित समझदारी यही चली आ रही है कि ब्रिटिशों की ‘बाँटो एवं राज करो’ की नीति का प्रतिफलन इस उपमहाद्वीप का बँटवारा हुआ। इसके बरअक्स लेखक का स्पष्ट मानना है कि ‘इसकी अन्तिम चालक शक्तियाँ देशज थीं, न कि सामराजी।’ राष्ट्रीय आन्दोलन की शब्दावली एवं चित्रांकन में धर्म के प्रवेश के लिए जिन्ना को जिम्मेदार ठहराये जाने की प्रवृत्ति को प्रश्नांकित करते हुए लेखक इसका जिम्मेदार गाँधी को मानते हैं। उनके मुताबिक ‘भले ही उन्होंने इस काम को संकीर्ण भावना के साथ नहीं किया, जहां मुसलमानों को खिलाफत बचाने के लिए आगे आने को कहा वहीं हिन्दुओं को रामराज्य कायम करने की अपील की, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्होंने ब्रिटिशों के खिलाफ साझा संघर्ष में अपने सहयोगी कौन हो सकते हैं इस सवाल को छोड़ दिया।’ (पेज 94)
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किताब का अन्तिम अध्याय ‘रिपब्लिक’ भारतीय गणतंत्र के निर्माण एवं विकास की यात्रा चर्चा करता है और भारतीय जनतंत्र के स्थायित्व को लेकर लिबरल विचारकों द्वारा अक्सर किए जानेवाले महिमामण्डन में दबे रहनेवाले तथ्यों को रेखांकित करता है। लेखक के मुताबिक भारतीय जनतंत्र का स्थायित्व भारत की आज़ादी की स्थितियों से सबसे पहले निर्धारित हुआ, जहाँ ब्रिटिश राज को पलटा नहीं गया बल्कि कांग्रेस को सत्ता हस्तांतरित की गयी। उपनिवेशवादियों को अलविदा कहा गया, मगर औपनिवेशिक नौकरशाही तंत्र एवं सेना को भी अक्षुण्ण रखा गया। राज की विरासत सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं थी। प्रशासन एवं दमन के तंत्र के साथ साथ कांग्रेस ने प्रतिनिधित्व की उसकी परम्परा को भी आगे बढ़ाया।
इस सन्दर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है कि जिस संविधान सभा ने देश को अपना संविधान दिया वह ब्रिटिशों द्वारा निर्मित इकाई थी (1946), जिसके लिए ब्रिटेन की तत्कालीन प्रजा के सात में से एक व्यक्ति को मताधिकार मिला था। निश्चित ही आज़ादी मिलने के बाद कांग्रेस सार्विक मताधिकार के साथ नए चुनावों का आयोजन कर सकती थी, मगर उसे इस बात का डर था कि इसका नतीजा क्या हो सकता है ? 1951-52 के पहले ऐसे चुनाव नहीं हुए। ‘इस तरह जिस निकाय ने भारतीय जनतंत्र को जन्म दिया वह उसकी अभिव्यक्ति नहीं थी बल्कि उस पर लादी गयी औपनिवेशिक बन्दिशों का प्रतीक थी। (पेज 106) बकौल सुनिल खिलनानी (द इण्डियन कान्स्टिटयूशन एण्ड डेमोक्रसी, देखें: इण्डियाज लिविंग कान्स्टिटयूशन, सम्पा. जोया हसन तथा अन्य) ‘सामाजिक संरचना के मामले में संविधान सभा एक बहुत संकीर्ण इकाई थी जिस पर कांग्रेस के ऊँची जाति वाले एवं ब्राहमणवादी अभिजातों का दबदबा था और उसने ऐसा संविधान बनाया जो सार्वजनिक जीवन को गठित करनेवाला नहीं बल्कि किसी क्लब हाउस के नियमों की तर्ज़ पर था..’
इस संविधान सभा द्वारा निर्मित भारतीय जनतंत्र की प्रातिनिधिक संस्थाओं की जड़ में ही किस तरह चुनावी विकृतियाँ थीं, इसकी चर्चा करते हुए लेखक इस बात पर ज़ोर देता है कि यहाँ आनुपातिक प्रतिनिधित्व देने की बजाय फर्स्ट पास्ट द पोस्ट अर्थात जो जीता वही सिकंदर की तर्ज़ पर प्रतिनिधित्व दिया गया जिसके चलते 1951 से 1971 के दरमियान कभी भी वोटों का बहुमत न मिलने के बावजूद (जो कभी 45 फीसदी से आगे नहीं गया) कांग्रेस पार्टी संसद में 70 फीसदी सीटों पर कब्ज़ा कर सकी। आगे भारतीय जनतंत्र के एक अन्य अपवाद की चर्चा है, भारत में जहाँ गरीब मतदाताओं की संख्या अधिक है वहीं वोट देने में भी वह आगे ही रहते हैं, इसके बरअक्स शेष दुनिया में जैसे जैसे आय एवं साक्षरता में गिरावट आती है उसी अनुपात में वोट का प्रतिशत भी गिरता है। आखिर ऐसा क्यों है ? गरीबों, वंचितों को गुस्सा उदार जनतंत्र के खिलाफ फूट न पड़ने का कारण यहाँ की ‘सामाजिक स्तरीकरण की प्रणाली’ है, जो किसी भी किस्म की सामूहिक कार्रवाई की राह में बाधा है। भारत के इस ‘जातिबद्ध’ जनतंत्र - जो धार्मिक ताकतों में भी आबद्ध है – की चर्चा के बाद आगे यहाँ व्याप्त प्रचण्ड विविधता में कायम एकता पर किताब फोकस करती है। संविधान निर्माताओं ने सचेतन तौर पर ’संघीय’ (फेडरल) शब्द के इस्तेमाल से परहेज़ किया। आज़ादी के वक्त भारत में चौदह राज्य थे और आज इनकी संख्या 28 तक पहुँची है। ‘कभी भी इस पुनर्विभाजन के लिए मतदाताओं से सलाह मशविरा नहीं लिया गया है, न पहले और न ही बाद में, ..’। भारत के हुक्मरानों ने अपनी सुविधा से इसे अंजाम दिया, इसके बावजूद एक केन्द्रीय सरकार के अधीन इन क्षेत्रीय हुकूमतों को भारतीय संविधान की एक ‘अलग किस्म की उपलब्धि’ के तौर पर रेखांकित किया जाता है और यह समझदारी ‘भारतीय विचारधारा’ का एक अहम अंग बनी है कि यह धारणा कि देश की एकता की भारतीय राज्य द्वारा रक्षा एक किस्म का करिश्मा है। ‘निश्चित तौर पर इस किस्म के हाँकने का कोई आधार नहीं है।’ (पेज 114) किसी भी यूरोपीय उपनिवेश को आज देखें तो यही नियम दिखता है।
भारतीय राज्य द्वारा ब्रिटिशकालीन भारत को ‘एकताबद्ध’ रखने की कोशिशों ने किस तरह कश्मीरी जनता की लोकप्रिय इच्छा/पापुलर विल पर कहर बरपाया है इसकी चर्चा के बाद लेखक उत्तरपूर्व को एकीकृत रखने की नवस्वाधीन मुल्क की कोशिशों पर आता है, जहाँ की जनता का बड़ा हिस्सा आज भी इस कहर को – दमनात्मक कानूनों या बड़े हिस्सों में आज भी जारी सैन्य दमन के रूप में झेल रहा है। ध्यान रहे कि यह वह इलाका है जहाँ आज़ादी के बाद से ही हथियारबन्द संघर्षों का सिलसिला जारी है, जो भारत से आत्मनिर्णय के अधिकार की माँग करते रहे हैं। इस सन्दर्भ में नागा नेशनल कौन्सिल के प्रतिनिधिमण्डल को गाँधी द्वारा दिए गए आश्वासन को अक्सर भुला दिया जाता है। आज़ादी से एक माह पहले इस प्रतिनिधिमण्डल से गाँधीजी ने साफ कहा था कि ‘..व्यक्तिगत तौर पर, आप सभी मेरा या भारत का हिस्सा हैं। मगर अगर आप यह कहते हैं कि नहीं, तो कोई भी आप पर दबाव नहीं डाल सकता।’’ (पेज 121)
नेहरू की महानता की चर्चा करते वक्त जिस बात का अक्सर उल्लेख किया जाता है कि वह तानाशाहों से बजबजाती गैरपश्चिमी दुनिया में एक जनतांत्रिक नेता के तौर पर शासन करते रहे, उस सन्दर्भ में लेखक इस पहलू को रेखांकित करना नहीं भूलता ‘.. नेहरू सबसे पहले एक भारतीय राष्ट्रवादी थे और जहाँ आम जनइच्छा राष्ट्र के उनके तसव्वुर/कल्पना के साथ सामंजस्य बिठाती नहीं दिखी, उन्होंने बिना पश्चात्ताप के उसको दमित किया। यहाँ सरकार की प्रणाली मतदातापत्र नहीं थी, बल्कि जैसा कि उन्होंने खुद कहा है, संगीनें थीं।’ (पेज 133) ‘1961 में उन्होंने भारत की एकता पर भाषण में या लेखन में, छवि में या प्रतीक में, सवाल उठाने को अपराध घोषित किया, जिसके लिए तीन साल की सज़ा दी जा सकती थी। नागा जनता, जिस पर उन्होंने 1963 में बमबारी शुरू की, वह अभी भी लड़ रही थी, जब उनका देहान्त हुआ। तीन साल बाद बगल की मिजो जनता भी बग़ावत में उठ खड़ी हुई।’ (पेज 135)
‘भारतीय विचारधारा’ का तीसरा अहम हिस्सा धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर लेखक आगे बताता है कि किस तरह संविधान को अपनाते वक्त़ भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य कहने से बचा गया। न उसने कानून के सामने समानता के सिद्धान्त को स्थापित किया, न समान नागरिक संहिता को लागू किया: हिन्दू एवं मुसलमान दोनों अपने पारिवारिक जीवन में अपनी आस्था से जनित परम्परा/रिवाजों के अधीन रखे गए, दैनंदिन जीवन में धार्मिक सोपानक्रमों में दखल देने से इन्कार किया गया , अस्पृश्यता पर पाबन्दी लगा दी गयी, मगर जाति को अक्षुण्ण रखा गया। गौरतलब है कि संविधाननिर्माता के तौर पर अक्सर महिमामण्डित किए जानेवाले डा अम्बेडकर खुद संविधान जैसा कि वजूद में आया उससे सन्तुष्ट नहीं थे। संविधान निर्माण के बाद उनका यह वक्तव्य मशहूर है। ‘लोग अक्सर मुझे कहते हैं कि सर, आप संविधान के निर्माता हैं। मेरा जवाब होता है, मैं किराये का टट्टू था, मुझे जो करने के लिए कहा गया, मैंने किया और अधिकतर मेरी इच्छा के खिलाफ’(पेज 139) हिन्दुओं के विवाह प्रथा में व्याप्त गैरबराबरी के खिलाफ हिन्दू कोड बिल बनाने की उनकी योजना को जब पलीता लगा, तो उसके आधार पर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर हुए डा अम्बेडकर इस बात के प्रति भी सचेत थे कि संविधान के बनने से उनके अपने लोगों की स्थिति में कोई सुधार आया है: ‘वही तानाशाही, वहीं पुराने उत्पीड़न का अस्तित्व आज भी बना हुआ है, पहले से चला आ रहा भेदभाव आज भी जारी है, और आज शायद अधिक खराब रूप में।’ (अम्बेडकर,रायटिंग्ज एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम 14, पार्ट 2, बाम्बे 1995, पेज 1318-1322) यहाँ धर्मनिरपेक्षता को धर्म के राज्य से अलगाव के तौर पर अपनाने एवं व्यवहार में लाने के बजाय सर्वधर्मसमभाव के तौर पर अपनाया गया। ‘..कांग्रेस के नेतृत्ववाले राज्य ने भी कभी भी मुस्लिम अल्पसंख्यकों की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति सुधारने के लिए गम्भीर प्रयास नहीं किए। अगर पार्टी या राज्य वाकई धर्मनिरपेक्ष होता, तो हर मामले में उसे प्राथमिकता मिलती, लेकिन यह बात उसके दिमाग में कभी नहीं आयी।’ (पेज 146)
अन्त में किताब जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता एवं एकता की यह ‘त्रिमूर्ति’ जो लेखक के मुताबिक भारतीय विचारधारा की बुनियाद है, इस पर विभिन्न अग्रणी विचारकों की समझदारी की चर्चा करती है और स्पष्टतः लिखती है कि जहाँ सामाजिक आलोचना का पक्ष इनकी रचनाओं में अहम दिखता है, वही तेवर राजनीतिक आलोचना में नज़र नहीं आता। एक उदाहरण के तौर पर वह आक्सफोर्ड कम्पैनियन टू पालिटिक्स शीर्षक से हाल में प्रकाशित एक सन्दर्भग्रंथ का उल्लेख करते हैं, जिसमें भारत जैसा कि आज अस्तित्व में है उसके बारे में इन तमाम अग्रणियों के विचारों को देखा जा सकता है। भारतीय राज्य की दमनात्मक प्रणालियों पर यह कम्पैनियन लगभग मौन है।
अपनी इस किताब का समापन करते हुए लेखक लिखते हैं कि ‘एक बार जब उपनिवेशवादविरोधी संघर्ष से किसी नवस्वाधीन राष्ट्र का निर्माण होता है, तो उसकी जागृति के लिए प्रयुक्त विमर्श उसे उन्मत्त भी कर सकता है। भारत में यह खतरा अधिक दिखता है.. आज ज़रूरत इस बात की है कि रूमानीकृत अतीत के मोह एवं वर्तमान में मौजूद उसके अवशेषों से हम मुक्त हों’।’
भारत की अवाम की बेहतरी के लिए चिन्तनरत तथा सक्रिय हर व्यक्ति के लिए पेरी एण्डरसन की यह किताब बेहद जरूरी है। ज़रूरी नहीं कि हम उसके तमाम निष्कर्षों से सहमत हों, मगर भारतीय राज्य द्वारा अपनी आत्मप्रशंसा में बनाए गए तमाम मिथकों से – जो सहजबोध का हिस्सा बने हैं – मुक्त होने के लिए यह हमें निश्चित तौर पर एक आईना प्रदान करती है। जिस तरह जर्मन आइडिओलोजी में लेखकद्वय ने अपने समकालीन चिन्तकों,लेखकों से - जिनका जोर चेतना एवं अमूर्त विचारों पर था – ‘जिन्दगी की वास्तविक परिस्थितियों से रूबरू होने’ की अपील की थी, उसी तरह यह किताब भी भारत के यथार्थ, अतीत और वर्तमान की तमाम असहज करनेवाली सच्चाइयों का सामना करने के लिए लोगों को झकझोरती है। (समयांतर में प्रकाश्य. काफिला से साभार)
अपनी किताब‘ द जर्मन आइडिओलोजी’ (रचनाकाल 1845-46) मार्क्स एवं एंगेल्स इतिहास की अपने भौतिकवादी व्याख्या का निरूपण करते है। किताब की शुरूआत 19 वीं सदी के शुरूआत में जर्मनी के दार्शनिक जगत पर हावी हेगेल की आदर्शवादी परम्परा एवं उसके प्रस्तोताओं की तीखी आलोचना से होती है जिसमें यह दोनों युवा इन्कलाबी चेतना एवं अमूर्त विचारों पर फोकस करनेवाले और सामाजिक यथार्थ के उससे निःसृत होने की उनकी समझदारी पर जोरदार हमला बोलते हैं। इस ऐतिहासिक रचना से नामसादृश्य रखनेवाली पेरी एण्डरसन (थ्री एसेज़, 2012) की किताब ‘द इण्डियन आइडिओलोजी’ का फ़लक भले ही दर्शन नहीं है, मगर अपने वक्त़ के अग्रणी विचारकों द्वारा भारतीय राज्य एवं समाज की विवेचना की आलोचना के मामले में वह उतनी ही निर्मम दिखती है।
आज की तारीख में भारतीय राज्य एक स्थिर राजनीतिक जनतंत्र, एक सद्भावपूर्ण क्षेत्रीय एकता और एक सुसंगत धार्मिक पक्षपातविहीनता के मूल्यों को स्थापित करने का दावा करता है। उपनिवेशवादी गुलामी से लगभग एक ही समय मुक्त तीसरी दुनिया के तमाम अन्य मुल्कों की तुलना में – जहाँ अधिनायकवादी ताकतों ने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं एवं संस्थाओं को मज़बूत नहीं होने नहीं दिया है – विगत साठ साल से अधिक समय से यहां जारी संसदीय जनतंत्र के प्रयोग को लेकर वह आत्ममुग्ध भी दिखता है। इतना ही नहीं अक्सर यह भी देखने में आता है कि भारतीय समाज की विभिन्न गैरबराबरियों, जाति-जेण्डर-नस्ल आदि पर आधारित तमाम सोपानक्रमों के विभिन्न आलोचक भी भारतीय राज्य की इस आत्मप्रस्तुति/आत्मप्रशंसा से सहमत हुए दिखते हैं। मगर यह बेचैन करने वाला सवाल नहीं पूछा जाता कि भारतीय राज्य के तमाम दावों एवं वास्तविक हकीकत के बीच कितना तारतम्य है ? अगर दावों एवं हकीकत के बीच अन्तराल दिखता है तो उसे हम परिस्थिति की नियति कह सकते हैं या उसकी जड़ें शासकों के आचरण में ढूंढ सकते हैं।
दरअसल भारत को अपनी इकहरी नज़र के तहत हिन्दू राष्ट्र बनाने को आमादा विचारकों/कार्यकर्ताओं की चिन्तनप्रणाली/कार्यपद्धति विगत दो दशकों से अधिक समय से लिबरल/उदारवादी एवं वाम विचारकों की चिन्ता एवं आलोचना का विषय रही है। विडम्बना यही कही जाएगी कि साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता, अधिनायकवाद बनाम जनतंत्र जैसे द्धिविध/बायनरी रूप में प्रस्तुत इस बहस में खुद लिबरल विचारकों की सीमाएँ, उनके द्वारा धर्मनिरपेक्षता/जनतंत्र/एकता आदि मसले को गैरआलोचनात्मक ढंग से देखने का मसला कभी भी एजेण्डा पर नहीं आ सका है। लन्दन रिव्यू आफ बुक्स में 2012 की गर्मियों में प्रकाशित पेरी एण्डरसन द्वारा लिखे भारत सम्बन्धी आलेखों का प्रस्तुत संकलन न केवल भारतीय संघ की वास्तविकता को पैनी नज़र से देखता है बल्कि उसे लेकर स्थापित विभिन्न ‘सच्चाइयों’ को प्रश्नांकित करता है और साथ साथ ही हमारे वक्त के तमाम अग्रणी विचारकों के रूख पर भी सवाल खड़े करता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि (बकौल सुश्री अरून्धति राय) ‘पेरी एण्डरसन के तर्क उन तमाम विद्धानों एवं विचारकों को बेचैन कर देंगे जिन्होंने भारतीय गणतंत्र के हालात को लेकर महिमामण्डित करनेवाली सहमति कायम की है।’ पेरी एण्डरसन के मुताबिक भारतीय गणतंत्र की तमाम बीमारियों की जड़ें, ऐतिहासिक तौर पर, गहरी हैं। उनके मुताबिक भारत का आज़ादी का आन्दोलन जिस तरह लड़ा गया, जिसकी परिणति एक बंटे हुए उपमहाद्वीप में कांग्रेस के हाथों सत्ता हस्तांतरण मे हुई, उस पूरे इतिहास को नए सिरे से देखने-परखने की ज़रूरत है। इस किताब की प्रस्तावना में पेरी एण्डरसन पूछते हैं ‘‘गहराई में जाकर देखें तो भारत में जनतंत्र का सामाजिक आधार/एंकरेज कितना है और उसमें जाति की कितनी भूमिका है ? ..भारतीय संघ में धर्म का कितना स्थान है – जो घोषित तौर पर सेक्युलर है, मगर अन्तर्वस्तु में कितना है ? और अन्त में, राष्ट्र की एकता के जन्मचिन्ह क्या हैं और उसकी कितनी कीमत अदा करनी पड़ी है ?’’किताब में समूचा ज़ोर लिबरल/उदारवादी, सेक्युलर चिन्तकों पर है तथा इसमें वाम की चर्चा नहीं की गयी है। लेखक के मुताबिक एक ताकत के तौर पर वाम की ‘सापेक्ष राजनीतिक कमजोरी’ ने भारतीय विचारधारा की पकड़ को और मजबूत बनाया है।
लेखक के मुताबिक वाम की कमजोरी के कारणों की गहराई में जाकर पड़ताल ज़रूरी है, मगर उसका मानना है कि इसकी प्रमुख वजह ‘आज़ादी के आन्दोलन के साथ राष्ट्र के धर्म के साथ एकीकरण में निहित है।’ आयर्लण्ड, जहाँ लेखक पैदा हुआ, उसकी चर्चा करते हुए वह यह भी जोड़ते हैं कि जहाँ-जहाँ पर ऐसा एकीकरण हुआ, वहाँ पर वाम के लिए ज़मीन हमेशा शुरू से प्रतिकूल रही है। प्रस्तावना के अन्त में वह यह सलाह भी देते हैं कि वाम को चाहिए कि वह अपने दौर को श्रद्धाभाव से देखने के बजाय अम्बेडकर एवं पेरियार की तर्ज़ पर अधिक आलोचनात्मक ढंग से देखे।
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अपने प्रथम अध्याय ‘इण्डिपेण्डस’ की शुरूआत लेखक जवाहरलाल नेहरू की बहुचर्चित किताब ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ के उद्धरण से करते हैं जिसमें भारत के भावी प्रधानमंत्री आज़ादी के कुछ समय पहले ‘भारत की संस्कृति एवम सभ्यता की पाँच-छह हज़ार वर्षों से अधिक समय चली आ रही निरन्तरता’ को लेकर अपनी मुग्धता बयान करते हुए इस उपमहाद्वीप की प्राचीनता के अनोखेपन का जिक्र करते हैं, जो ‘सभ्यता की सुबह से ही भारत के विचार में व्याप्त एकता के सपने’ में प्रतिबिम्बित होती है। फिर अमर्त्य सेन, मेघनाद देसाई, रामचन्द्र गुहा, सुनिल खिलनानी, प्रताप भानु मेहता जैसे शीर्षस्थ विद्वानों की भारत सम्बन्धी गम्भीर रचनाओं का ज़िक्र करते हुए लेखक बताते हैं कि किस तरह भारत को समझने के लिए अनिवार्य इनकी रचनाएँ भी ‘राज्य के अपने प्रति शब्दाडम्बर (rhetoric) को सांझा करती हैं। राष्ट्रीय आन्दोलन में जिस तरह ‘भारत के प्रकृति द्वारा निर्मित एक अविभाजित धरती’ (बकौल महात्मा गाँधी) जहां ‘दुनिया के अन्य हिस्सों से बिल्कुल अलग राष्ट्रीयता की भावना प्रगट होती थी’ जैसी बातों का बोलबाला था उसी सिलसिले के आज भी जारी होने की बात को रेखांकित करते हुए किताब एक महत्वपूर्ण तथ्य की तरफ इशारा करती है। दरअसल यह उपमहाद्वीप जिसे आज हम इस रूप में जानते हैं वह पूर्वआधुनिक समय में कभी भी एक राजनीतिक या सांस्कृतिक इकाई के रूप में अस्तित्व में नहीं था, ब्रिटिशों के आगमन ने ही पहली दफा इसे एक प्रशासकीय और विचारधारात्मक हकीकत में तब्दील किया।
अगर हम अतीत के पन्नों को पलटें तो इतिहास के लम्बे कालखण्ड में उसका भूभाग मध्यम आकार के राज्यों का हिस्सा था। भारत के इतिहास में नज़र आने वाले तीन बड़े साम्राज्यों – मौर्य, गुप्त या मुगल साम्राज्यों – का दायरा कभी भी नेहरू द्वारा ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ में वर्णित भूभाग तक फैला नहीं था। जिस ‘भारत के विचार’ की बातें आज़ादी के आन्दोलन के अग्रणियों ने की, वह ‘सारतः एक यूरोपीय विचार’ था। किसी भी देशज भाषा में ऐसा शब्द वजूद में नहीं दिखता। यह अकारण नहीं था कि इस उपमहाद्वीप का बंटा हुआ समाज एवं अलग अलग राज्यों में विभक्त भूभाग पर नियंत्राण करना बर्तानवी शासकों के लिए बहुत कठिन साबित नहीं हुआ। निश्चित ही पुलिस एवं फौज से बनी दमनात्मक मशीनरी के अलावा ब्रिटिश राज के आधुनिकीकरण की ताकत कानूनी किताबों के निर्माण या रेल एवं यातायात के साधनों को विकसित करने तक सीमित नहीं थी। उन्होंने एक देशज अभिजात तबके के निर्माण के भी बीज डाले जो मेकॉले की भाषा में ‘रंग एवं वर्ण में भारतीय था, मगर रुचियों, मतों, बौद्धिकता एवं नैतिकता के मामले में ब्रिटिश’ था। ‘भारत का विचार (आयडिया आफ इण्डिया) उनका था। मगर जैसे जैसे वह नौकरशाही नियम का हिस्सा बना, फिर प्रजा अपने शासकों के खिलाफ उठ खड़ी हो सकती थी और साम्राज्य का प्रभामण्डल राष्ट्र के करिश्मे में तिरोहित होनेवाला था।’ (पेज 15)
इस अध्याय का शेष भाग गाँधी द्वारा आज़ादी के आन्दोलन की अगुआई, जातिप्रथा से लेकर मशीनरी आदि ज्वलन्त मसलों पर उनके विचार, अहिंसा की रणनीति का उनके द्वारा इस्तेमाल तथा ब्रिटिश राज के दिनों में सम्पन्न चुनावों में अलग अलग सूबों में कायम कांग्रेस सरकारों के दमनात्मक स्वरूप आदि पर केन्द्रित है। जहाँ 1857 के महासमर के बाद पहली दफा एक व्यापक जनान्दोलन खड़ा करने में गाँधी की भूमिका, कांग्रेस को एक लोकप्रिय राजनीतिक ताकत बनाने की उनकी कोशिशों की इसमें चर्चा है, वहीं वह इस बात का विशेष उल्लेख करती है कि चन्द अपवादों को छोड़ दें तो किस तरह बीसवीं सदी के राष्ट्रीय आन्दोलनों में उभरे तमाम नेताओं में से बहुत कम धार्मिक नेता थे और इस कतार में गाँधी बिल्कुल अलग ठहरते हैं। उनके लिए ‘राजनीति की तुलना में धर्म की अधिक अहमियत थी’ (पेज 19) अपने बुनियादी विश्वासों को लेकर ‘हिन्द स्वराज्य’ किताब में वह लिखते हैं कि ‘मशीनरी अधिक पाप की खान है’ , ‘रेलवे ने ब्युबानिक प्लेग को फैलाने में मदद पहुँचाई है’, और ‘अकाल की वारम्वारिता को बढ़ाया है’ ‘अस्पताल ऐसे स्थान हैं, जो पाप को बढ़ावा देते हैं;’ आदि (पेज 21)
कहीं कहीं लेखक ऐसे वक्तव्य देते हैं जिनसे सहमत होना मुश्किल दिखता है, मसलन उनके मुताबिक ‘कांग्रेस अभिजातों की बुनियादी राजनीति खालिस सेक्युलर थी। पार्टी पर गाँधी के नियंत्रण ने न केवल उसे लोकप्रिय आधार प्रदान किया, जो उसके पास नहीं था, मगर साथ ही साथ उसने – मिथक, धर्मशास्त्र आदि के रूप में धर्म के तत्वों का भी जोरदार प्रवेश सम्भव बनाया।’ (पेज 22) ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक गाँधी के आगमन के पूर्व कांग्रेस राजनीति में हावी लोकमान्य तिलक आदि की राजनीति के प्रति उतने परिचित नहीं दिखते। याद रहे कि तिलक को यह ‘श्रेय’ जाता है कि उन्होंने लोगों को लामबन्द करने के लिए सार्वजनिक गणेशोत्सव या शिवजयंती जैसे त्यौहारों का आयोजन शुरू किया, जो निश्चित ही किसी भी मायने में सेक्युलर कदम नहीं कहे जा सकते।
गाँधीजी द्वारा बार-बार हिन्दू धर्म की दुहाई देने के उदाहरणों को पेश करने के बाद लेखक यह सवाल भी उठाते हैं कि ‘इस किस्म के हिन्दू पुनरूत्थानवादी से हम ऐसी उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह मुसलमानों को भी एक साझे राष्ट्रीय संघर्ष हेतु एकताबद्ध करेगा ?’ (पेज 24) इस पहेली का समाधान एक तरह से गाँधी ने यह ढूंढा कि ‘इस्लाम के बैनर तले ही ब्रिटिश राज के खिलाफ मुसलमानों को गोलबन्द किया जाए..’ टर्की में खिलाफत की समाप्ति एक ऐसा मुद्दा था, जिसके नाम पर रूढ़िवादी मुसलमानों के बड़े हिस्से को साथ जोड़ा जा सकता था। स्पष्ट था यह ऐसा मसला था जो ‘..अधिक सेक्युलर मुसलमानों के लिए – जिनमें जिन्ना भी शामिल थे – न केवल अप्रासंगिक था, बल्कि बेहद प्रतिक्रियावादी भी था…’
(पेज 25) असहयोग आन्दोलन में चौरीचौरा की घटना में हुई हिंसा के बाद समूचे आन्दोलन को वापस लेने वाले गाँधीजी किस तरह बीस साल बाद ‘गुलामी के जोखड़ को उतार फेंकने के लिए जरूरत पड़े तो हिंसा का भी सहारा लेने की बात करते हैं’ आदि विभिन्न घटनाओं की चर्चाओं के जरिए गाँधीजी के विचारों में नज़र आनेवाली असंगतियों के मद्देनज़र लेखक गांधीजी द्वारा उसे औचित्य प्रदान किए जाने की बात को रेखांकित करते हैं। (पेज 31) असहयोग आन्दोलन एवं खिलाफत आन्दोलन - जिसमें हिन्दू मुस्लिम दोनों ने जम कर हिस्सेदारी की थी, उस पूरे जनउभार को चौरीचौरा की घटना के बाद अचानक वापस लिए जाने के गाँधी के फैसले का लेखक के मुताबिक एक अन्य असर यह भी रहा कि ‘इसके बाद स्थूल रूप में मुसलमानों ने उन पर भरोसा नहीं किया।’ मार्च 1930 में जब गांधी अपने दूसरे व्यापक जनअभियान सविनय अवज्ञा आन्दोलन की शुरूआत दाण्डी मार्च के बहाने की तो इस बार आन्दोलन का दायरा ‘भौगोलिक तौर पर व्यापक था, लेकिन साम्प्रदायिक तौर पर संकीर्ण था – लगभग मुसलमानों ने इसमें हिस्सा नहीं लिया’ (पेज 36)
आगे लेखक ‘अस्पृश्यों को’ अलग मतदातासंघ प्रदान करने के गोलमेज सम्मेलन के फैसले के बहाने जाति के प्रश्न पर गाँधी के उहापोह एवं उनकी रूढिवादी समझदारी की चर्चा करते हें। वर्णव्यवस्था की हिमायत करनेवाले (‘अगर हिन्दू समाज आज भी खड़ा है तो उसकी वजह जातिव्यवस्था की उसकी बुनियाद है। स्वराज्य की जड़ें जाति प्रथा में देखी जा सकती हैं।’ ‘मेरा स्पष्ट मानना है कि जाति प्रथा ने हिन्दू धर्म को विघटन से बचाया है) और अस्पृश्यता को ‘मानवीय गलती’ का हिस्सा माननेवाले गाँधी के लिए ब्रिटिश सरकार का यह फैसला महज राष्ट्रीय आन्दोलन को बाँटने का मसला मात्र नहीं था, बल्कि इसका अर्थ था कि जाति व्यवस्था के चलते हिन्दू धर्म के अभिशप्त होने की बात को कूबूल करना। दलितों को अलग मतदातासंघ प्रदान करने के फैसले को पलटने के लिए गांधी द्वारा लिया गया आमरण अनशन का सहारा और अम्बेडकर पर डाला गया प्रचण्ड दबाव इसकी चर्चा करते हुए लेखक बताते हैं कि किस तरह अम्बेडकर के साथ सम्पन्न पूना करार – जिसने ‘अस्पृश्यों’ के लिए चुनावों में अधिक सीटें प्रदान करने की बात की गयी, उसने दलित समुदाय को राजनीतिक स्वायत्तता से वंचित कर दिया। ‘हिन्दू जो भी कहें, हिन्दू धर्म समानता, स्वतंत्रता एवं बन्धुता के लिए खतरा है’ इस बात को जोर से रखनेवाले अम्बेडकर ने बाद में पूना करार के वक्त अपने समर्पण – जब समूचे दलित समुदाय पर वर्णसमाज के आक्रमण का खतरा मण्डरा रहा था – पर पश्चाताप प्रगट करते हुए कहा कि ‘इस अनशन में कोई उदात्तता नहीं थी। वह एक निकृष्ट एवं निन्दनीय कदम था।’
पार्टी के अन्दर वामपंथी धारा के अगुआ सुभाषचन्द्र बोस, जो पार्टी के इतिहास में अभूतपूर्व चुनाव में उसके अध्यक्ष चुने गए थे, और जिन्हें पार्टी की अन्दरूनी बगावत के जरिए गाँधी ने पद से बेदखल कर दिया और बाद में कांग्रेस से भी बाहर जाने को मजबूर किया, उनके द्वारा पार्टी के अन्दर रहते हुए हिन्दू-मुस्लिम एकता कायम करने के लिए ली गयी एक अद्भुत पहलकदमी की लेखक चर्चा करते हैं। कांग्रेस की युवा शाखा के अगुआ बोस ने बंगाल प्रांत में – जमींदारों के खिलाफ खड़ी- मुस्लिम किसानों की पार्टी के साथ गठजोड़ बनाने की हिमायत की थी। लेखक के मुताबिक जी एम बिड़ला, जो मारवाडी व्यापारी थे तथा कांग्रेस के लिए लाखों रूपए का चन्दा देते थे, उनका इस कदम के प्रति विरोध था (बंगाल की तत्कालीन परिस्थिति से परिचित लोग बता सकते हैं कि अधिकतर जमींदार हिन्दू थे) और उन्हीं की सलाह पर गांधी ने इस अन्तरसामुदायिक पहल में अडंगा लगा दिया।
भारत छोड़ो आन्दोलन के जरिए अपनी जिन्दगी के आखरी बड़े संघर्ष की अगुआई करनेवाले गाँधी ने किस तरह कभी हिटलर की प्रशंसा की थी, उसका उल्लेख करना लेखक नहीं भूलते। ‘उसके कोई दुर्गुण नहीं है। उसने शादी नहीं की है। उसका चरित्र भी पारदर्शी कहा जाता है।’(कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी, पेज 177,: 17 दिसम्बर 1941) यह आन्दोलन – जिसके लिए कांग्रेस ने कोई तैयारी नहीं की थी – उसकी समाप्ति के बाद, ब्रिटिश सरकार आज़ादी के मसले के समाधान को अधिक लटकाना चाहती थी। इस परिस्थिति में बुनियादी फर्क दूसरे विश्वयुद्ध में शामिल जापानी सेनाओं ने किस तरह डाला और दक्षिण पूर्व एवं दक्षिण एशिया में यूरोपीय उपनिवेशवाद को किस तरह जबरदस्त नुकसान पहुँचाया, इसके विवरण के साथ प्रथम अध्याय समाप्त होता है। (पेज 48)
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दूसरा अध्याय एक तरह से नेहरू के राजनीतिक व्यक्तित्व, गाँधी के साथ उनके विशिष्ट किस्म के रिश्ते ‘जिसमें भावनात्मक बन्धनों के साथ साथ परस्पर हितों के समीकरण भी शामिल थे’ (पेज 51) तथा आज़ादी के आन्दोलन में उन्होंने निभायी भूमिका की चर्चा करता है।
एक क्षेपक के तौर पर इस बात का भी उल्लेख करना जरूरी है कि लेखक बौद्धिक क्षमता के मामले में अम्बेडकर के साथ नेहरू की तुलना करते हैं। ‘अम्बेडकर की नेहरू के साथ तुलना करना न्यायपूर्ण नहीं होगा, जो बौद्धिक क्षमता के मामले में कांग्रेस के तमाम नेताओं से बहुत आगे थे, जिसकी एक वजह यह भी कही जा सकती है कि डा अम्बेडकर ने लन्दन स्कूल आफ इकोनोमिक्स एवं कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अधिक गम्भीर अध्ययन किया था, जिन्हें पढ़ना एक तरह से एक अलग दुनिया में प्रवेश करना है। मगर हम ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ को पढ़ें तो वह न केवल नेहरू की औपचारिक विद्वत्ता की कमी एवं रूमानी मिथकों के प्रति अत्यधिक लगाव को उजागर करता है बल्कि अधिक गहराई में जाकर देखें तो …आत्मप्रवंचना की क्षमता को भी प्रदर्शित करता है जिसके राजनीतिक परिणाम बेहद प्रतिकूल हुए।’ (पेज 53)
जातिव्यवस्था को लेकर नेहरू की एक किस्म की समाजशास्त्रीय दृष्टिहीनता की बात का भी किताब में उल्लेख है। डिस्कवरी आफ इण्डिया में नेहरू लिखते हैं कि ‘जातिप्रथा एक ऐसी व्यवस्था थी, जो सेवाओं एवं कार्यों पर आधारित थी। उसका मकसद एक साझे दृष्टांत (dogma) के बिना एक सर्वसमावेशी प्रणाली कायम करना था जिसमें हर समूह को स्थान मिले।’ (डिस्कवरी आफ इण्डिया, पेज 248-249) यह अकारण नहीं था कि जब गांधीजी अम्बेडकर का भयादोहन (ब्लैकमेल) कर रहे थे कि वह उनकी इस माँग माने कि ‘अस्पृश्य’ जाति प्रथा में शामिल एकनिष्ठ हिन्दू हैं तथा अलग मतदातासंघ की माँग छोड़ दें तो उस वक्त नेहरू ने अम्बेडकर के समर्थन में एक लफ्ज़ भी नहीं बोला। नेहरू के लिए वह एक ‘छोटा सा मामला’ (साइड इश्यू) था। अपने आप को नास्तिक कहलानेवाले नेहरू ने किस तरह धर्म को राष्ट्र के साथ जोड़ा था, इसकी चर्चा करते हुए किताब बताती है कि ‘हिन्दू धर्म राष्ट्रवाद का प्रतीक बना। वह वाकई एक राष्ट्रीय धर्म था, उसके तमाम गहरे भावों के साथ, नस्लीय और सांस्कृतिक, जो मौजूदा समय में हर जगह राष्ट्रवाद का आधार बनते हैं।’ इसके बरअक्स बौद्ध धर्म, जिसका जन्म भारत में हुआ, उसकी वहाँ हार हुई क्योंकि वह ‘सारतः अन्तरराष्ट्रीय’ था। ( उद्धरण, डिस्कवरी आफ इण्डिया, पेज 129)
अगर राष्ट्रीय धर्म एवं उसकी बुनियादी संस्थाओं के बारे में नेहरू का यह नज़रिया था तो अन्य धर्मों के अनुयायी जो जनम से ही राष्ट्रीय नहीं थे, उसके प्रति उनका रूख क्या था ? लेखक के मुताबिक इसकी पहली परीक्षा 1937 में सम्पन्न प्रांतीय चुनावों के बाद आयी, जब नेहरू खुद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे तथा गांधी ने एक तरह से 1934 से अपने आप को किनारे किया था। कई प्रांतों मे कांग्रेस को मिले बहुमत से गदगद नेहरू ने ऐलान किया कि अब भारत में दो ही ताकतें हैं: कांग्रेस एवं ब्रिटिश सरकार, जबकि हकीकत यही थी कि मुस्लिम-बहुल कुछ प्रांतों में सत्ता की बागडोर मुस्लिम लीग के हाथ में थी और जहां तक कांग्रेस की सदस्यता का सवाल है तो वह 97 फीसदी हिन्दू थी। ‘समूचे भारत में 90 फीसदी मुस्लिम मतदातासंघों में उसे प्रत्याशी तक नहीं मिले थे। नेहरू के अपने सूबे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने तमाम हिन्दू सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन उसे एकभी मुस्लिम सीट नहीं मिली थी’ (पेज 56) इस परिस्थिति के बावजूद नेहरू ने मुस्लिम लीग के इस अनुरोध को ठुकरा दिया कि वह सरकार के साथ गठजोड करना चाहती है ताकि उसे भी प्रतिनिधित्व मिले। पचहत्तर साल बाद आज भले ही हम इस मसले पर कोई निश्चयात्मक राय न बना सकें, मगर कम से कम इस बात को रेखांकित कर सकते हैं कि आजादी के संघर्ष में कांग्रेस पार्टी की अपने एकाधिकार की समझदारी के प्रतिकूल परिणाम हुए।
प्रस्तुत अध्याय में आगे एक वक्त सेक्युलर नज़रिया रखनेवाले जिन्ना का कांग्रेस में हाशिये में जाना, कांग्रेस की समाजशास्त्रीय हकीकत के बारे में – कि वह मूलतः हिन्दू पार्टी है -उनका बढ़ता एहसास,मुस्लिम समुदाय के रूढिवादी तत्वों को साथ में लेकर चलने की कांग्रेस की कोशिशों के प्रति उनका बढ़ता विरोध और बाद में मुस्लिम राष्ट्रवाद की उनकी हिमायत की चर्चा है। बर्तानवी उपनिवेशवादियों ने किस तरह कभी हिन्दुओं से या कभी मुसलमानों से नज़दीकी दिखा कर अपने आप को केन्द्र में बना कर रखा, बँटवारे के वक्त किस तरह उनके लिए हिन्दू-बहुल कांग्रेस अधिक प्रिय हो चली, इसका विवरण भी पेश किया गया है। बँटवारे के वक्त़ हुए आबादियों की अदलाबदली एवं उससे जनित हिंसा को लेकर एक बात रेखांकित की गयी है कि भले ही पंजाब एवं पूरब के बंगाल से आबादियों की अदलाबदली हुई, मगर जितने बड़े पैमाने पर पंजाब के बंटवारे के वक्त हिंसाचार देखने को मिला, उसकी तुलना में बंगाल में बहुत कम हिंसा हुई। जहाँ लगभग 45 लाख हिन्दु एवं सिखों को पश्चिमी पंजाब से बेदखल कर दिया गया, वहीं पंजाब के पूर्वी हिस्से से 55 लाख से अधिक मुसलमान अपने घरों से बेदखल हुए।किताब में कश्मीर के भारत में एकीकरण को लेकर भी कई अनछुए तथ्यों को रेखांकित किया गया है।
गौरतलब है कि बँटवारे के वक्त चली अन्तरसामुदायिक हिंसा के वातावरण में हथियारबन्द पठानों ने पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी प्रांत से कश्मीर पर हमला बोल दिया और उनकी असंगठित टीमें श्रीनगर तक पहुंची। उनके डर से कश्मीर के तत्कालीन राजा हरि सिंह ने जम्मू की तरफ पलायन किया। कश्मीर को ‘आज़ाद’ रखने की ख्वाहिश रखनेवाले राजा हरिसिंह के पास भारत में विलय के करारनामे पर दस्तखत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, मगर इसका इन्तज़ार किए बिना एक फर्ज़ी दस्तावेज पेश किया गया जिसमें महाराजा द्वारा भारत के साथ विलय पर सहमति पेश की गयी थी। यही वह फर्ज़ी दस्तावेज है जिसके आधार पर साठ साल के बाद भी भारतीय राज्य कश्मीर पर अपने नियंत्रण को जायज़ ठहराता है। (पेज 83) और जिसके आधार पर भारतीय सेनाओं ने कश्मीर पर नियंत्रण कायम करने की कार्रवाई शुरू की।
‘इसके बावजूद, यह बिल्कुल स्पष्ट था कि एक ऐसा प्रांत जो मुस्लिम-बहुल था उसे ताकत के बल पर – और जैसा कि बाद की घटनाओं ने स्पष्ट किया – फरेब के बलबूते हासिल किया गया था। यहाँ तक कि लन्दन में सत्तासीन एटली के नेतृत्व वाली लेबर पार्टी की सरकार, जिसका कांग्रेस के प्रति बेहतर रूख था, उसने इस घटनाक्रम पर बेचैनी प्रगट की। प्रधानमन्त्री एटली ने इसे ‘डर्टी बिजनेस’ की संज्ञा दी। संयुक्त राष्ट्रसंघ में भी इसके चलते समस्या खड़ी हुई।’’ (पेज 84)
कश्मीर में जनमतसंग्रह को लेकर जिसका वायदा भारत सरकार ने किया था ताकि यह दिखाया जा सके कि कश्मीरी लोग अपनी स्वेच्छा से भारत से जुड़े हैं, न कि राजा की इच्छा से, उसके बारे में भी जल्दही स्थिति स्पष्ट होती गयी। कश्मीर के भारत में ‘विलय’ के कुछ समय बाद ही गृहमंत्री पटेल ने नेहरू को लिखा: ‘‘यह दिख रहा है कि नेशनल कान्फेरेन्स एवं शेख साहब (अब्दुल्ला) घाटी की जनता पर अपनी पकड़ खो रहे हैं और अलोकप्रिय हो रहे हैं …ऐसी परिस्थितियों में मैं आप से सहमत हूं कि जनमतसंग्रह अवास्तविक होगा।’’ (पेज 86 पर उद्धृत, दुर्गा दास (सम्पा.) ‘पटेलज् कारसपान्डन्स, अहमदाबाद, 1971, वाल्यूम 1,पेज 286, 317)
मुल्क के बँटवारे की बात करना जिस वक्त कांग्रेस पार्टी में कुफ्र था, और खुद मुस्लिम लीग के लिए भी अभी इस मसले को लेकर धुंधली समझदारी थी, उस वक्त (1944) में प्रकाशित डा अम्बेडकर की रचना ‘पाकिस्तान आर पार्टिशन आफ इण्डिया’ की प्रशंसा करते हुए लेखक बताता है कि इस मुद्दे पर प्रकाशित एकमात्रा गम्भीर उपरोक्त रचना, ‘जिसके सन्दर्भ रेनन से एक्टन से कार्सन तक फैले हैं, कनाडा से आयर्लण्ड से स्वित्जर्लण्ड तक बिखरे हैं, वह कांग्रेस एवं उसके नेताओं के बौद्धिक दिवालियेपन का ठोस सबूत थी।’ (पेज 89)
अध्याय में हैदराबाद पर भारतीय सेनाओं के नियंत्रण के बाद वहाँ भारतीय सेनाओं की मदद से हिन्दुओं द्वारा किए गए स्थानीय मुस्लिम आबादी के जनसंहार के लगभग भुला दिए गए तथ्य की भी चर्चा है। ध्यान रहे कि इस जनसंहार की जाँच के लिए भेजी गयी सरकारी टीम का अनुमान था कि इस मारकाट में कुछ सप्ताह के अन्दर ही वहाँ 27 हजार से 45 हजार तक मुसलमान मार दिए गए थे। ‘भारतीय संघ के इतिहास में यह सबसे बड़ा क़त्लेआम था, जिसके सामने पठान घुसपैठियों द्वारा श्रीनगर पर नियंत्रण कायम करने की कोशिशों के दौरान की गयी हिंसा बहुत छोटी मालूम पड़ती है…(पेज 91)
अन्त में, लेखक यह सवाल रखता है कि क्या भारत का बँटवारा अनिवार्य था ? ब्रिटिश राज के खिलाफ चले संघर्ष को लेकर उपलब्ध प्रचुर साहित्य में भी इस प्रश्न पर व्याप्त मौन की भी बात इसमें की गयी है। राष्ट्रीय आन्दोलन में एक स्थापित समझदारी यही चली आ रही है कि ब्रिटिशों की ‘बाँटो एवं राज करो’ की नीति का प्रतिफलन इस उपमहाद्वीप का बँटवारा हुआ। इसके बरअक्स लेखक का स्पष्ट मानना है कि ‘इसकी अन्तिम चालक शक्तियाँ देशज थीं, न कि सामराजी।’ राष्ट्रीय आन्दोलन की शब्दावली एवं चित्रांकन में धर्म के प्रवेश के लिए जिन्ना को जिम्मेदार ठहराये जाने की प्रवृत्ति को प्रश्नांकित करते हुए लेखक इसका जिम्मेदार गाँधी को मानते हैं। उनके मुताबिक ‘भले ही उन्होंने इस काम को संकीर्ण भावना के साथ नहीं किया, जहां मुसलमानों को खिलाफत बचाने के लिए आगे आने को कहा वहीं हिन्दुओं को रामराज्य कायम करने की अपील की, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्होंने ब्रिटिशों के खिलाफ साझा संघर्ष में अपने सहयोगी कौन हो सकते हैं इस सवाल को छोड़ दिया।’ (पेज 94)
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किताब का अन्तिम अध्याय ‘रिपब्लिक’ भारतीय गणतंत्र के निर्माण एवं विकास की यात्रा चर्चा करता है और भारतीय जनतंत्र के स्थायित्व को लेकर लिबरल विचारकों द्वारा अक्सर किए जानेवाले महिमामण्डन में दबे रहनेवाले तथ्यों को रेखांकित करता है। लेखक के मुताबिक भारतीय जनतंत्र का स्थायित्व भारत की आज़ादी की स्थितियों से सबसे पहले निर्धारित हुआ, जहाँ ब्रिटिश राज को पलटा नहीं गया बल्कि कांग्रेस को सत्ता हस्तांतरित की गयी। उपनिवेशवादियों को अलविदा कहा गया, मगर औपनिवेशिक नौकरशाही तंत्र एवं सेना को भी अक्षुण्ण रखा गया। राज की विरासत सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं थी। प्रशासन एवं दमन के तंत्र के साथ साथ कांग्रेस ने प्रतिनिधित्व की उसकी परम्परा को भी आगे बढ़ाया।
इस सन्दर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है कि जिस संविधान सभा ने देश को अपना संविधान दिया वह ब्रिटिशों द्वारा निर्मित इकाई थी (1946), जिसके लिए ब्रिटेन की तत्कालीन प्रजा के सात में से एक व्यक्ति को मताधिकार मिला था। निश्चित ही आज़ादी मिलने के बाद कांग्रेस सार्विक मताधिकार के साथ नए चुनावों का आयोजन कर सकती थी, मगर उसे इस बात का डर था कि इसका नतीजा क्या हो सकता है ? 1951-52 के पहले ऐसे चुनाव नहीं हुए। ‘इस तरह जिस निकाय ने भारतीय जनतंत्र को जन्म दिया वह उसकी अभिव्यक्ति नहीं थी बल्कि उस पर लादी गयी औपनिवेशिक बन्दिशों का प्रतीक थी। (पेज 106) बकौल सुनिल खिलनानी (द इण्डियन कान्स्टिटयूशन एण्ड डेमोक्रसी, देखें: इण्डियाज लिविंग कान्स्टिटयूशन, सम्पा. जोया हसन तथा अन्य) ‘सामाजिक संरचना के मामले में संविधान सभा एक बहुत संकीर्ण इकाई थी जिस पर कांग्रेस के ऊँची जाति वाले एवं ब्राहमणवादी अभिजातों का दबदबा था और उसने ऐसा संविधान बनाया जो सार्वजनिक जीवन को गठित करनेवाला नहीं बल्कि किसी क्लब हाउस के नियमों की तर्ज़ पर था..’
इस संविधान सभा द्वारा निर्मित भारतीय जनतंत्र की प्रातिनिधिक संस्थाओं की जड़ में ही किस तरह चुनावी विकृतियाँ थीं, इसकी चर्चा करते हुए लेखक इस बात पर ज़ोर देता है कि यहाँ आनुपातिक प्रतिनिधित्व देने की बजाय फर्स्ट पास्ट द पोस्ट अर्थात जो जीता वही सिकंदर की तर्ज़ पर प्रतिनिधित्व दिया गया जिसके चलते 1951 से 1971 के दरमियान कभी भी वोटों का बहुमत न मिलने के बावजूद (जो कभी 45 फीसदी से आगे नहीं गया) कांग्रेस पार्टी संसद में 70 फीसदी सीटों पर कब्ज़ा कर सकी। आगे भारतीय जनतंत्र के एक अन्य अपवाद की चर्चा है, भारत में जहाँ गरीब मतदाताओं की संख्या अधिक है वहीं वोट देने में भी वह आगे ही रहते हैं, इसके बरअक्स शेष दुनिया में जैसे जैसे आय एवं साक्षरता में गिरावट आती है उसी अनुपात में वोट का प्रतिशत भी गिरता है। आखिर ऐसा क्यों है ? गरीबों, वंचितों को गुस्सा उदार जनतंत्र के खिलाफ फूट न पड़ने का कारण यहाँ की ‘सामाजिक स्तरीकरण की प्रणाली’ है, जो किसी भी किस्म की सामूहिक कार्रवाई की राह में बाधा है। भारत के इस ‘जातिबद्ध’ जनतंत्र - जो धार्मिक ताकतों में भी आबद्ध है – की चर्चा के बाद आगे यहाँ व्याप्त प्रचण्ड विविधता में कायम एकता पर किताब फोकस करती है। संविधान निर्माताओं ने सचेतन तौर पर ’संघीय’ (फेडरल) शब्द के इस्तेमाल से परहेज़ किया। आज़ादी के वक्त भारत में चौदह राज्य थे और आज इनकी संख्या 28 तक पहुँची है। ‘कभी भी इस पुनर्विभाजन के लिए मतदाताओं से सलाह मशविरा नहीं लिया गया है, न पहले और न ही बाद में, ..’। भारत के हुक्मरानों ने अपनी सुविधा से इसे अंजाम दिया, इसके बावजूद एक केन्द्रीय सरकार के अधीन इन क्षेत्रीय हुकूमतों को भारतीय संविधान की एक ‘अलग किस्म की उपलब्धि’ के तौर पर रेखांकित किया जाता है और यह समझदारी ‘भारतीय विचारधारा’ का एक अहम अंग बनी है कि यह धारणा कि देश की एकता की भारतीय राज्य द्वारा रक्षा एक किस्म का करिश्मा है। ‘निश्चित तौर पर इस किस्म के हाँकने का कोई आधार नहीं है।’ (पेज 114) किसी भी यूरोपीय उपनिवेश को आज देखें तो यही नियम दिखता है।
भारतीय राज्य द्वारा ब्रिटिशकालीन भारत को ‘एकताबद्ध’ रखने की कोशिशों ने किस तरह कश्मीरी जनता की लोकप्रिय इच्छा/पापुलर विल पर कहर बरपाया है इसकी चर्चा के बाद लेखक उत्तरपूर्व को एकीकृत रखने की नवस्वाधीन मुल्क की कोशिशों पर आता है, जहाँ की जनता का बड़ा हिस्सा आज भी इस कहर को – दमनात्मक कानूनों या बड़े हिस्सों में आज भी जारी सैन्य दमन के रूप में झेल रहा है। ध्यान रहे कि यह वह इलाका है जहाँ आज़ादी के बाद से ही हथियारबन्द संघर्षों का सिलसिला जारी है, जो भारत से आत्मनिर्णय के अधिकार की माँग करते रहे हैं। इस सन्दर्भ में नागा नेशनल कौन्सिल के प्रतिनिधिमण्डल को गाँधी द्वारा दिए गए आश्वासन को अक्सर भुला दिया जाता है। आज़ादी से एक माह पहले इस प्रतिनिधिमण्डल से गाँधीजी ने साफ कहा था कि ‘..व्यक्तिगत तौर पर, आप सभी मेरा या भारत का हिस्सा हैं। मगर अगर आप यह कहते हैं कि नहीं, तो कोई भी आप पर दबाव नहीं डाल सकता।’’ (पेज 121)
नेहरू की महानता की चर्चा करते वक्त जिस बात का अक्सर उल्लेख किया जाता है कि वह तानाशाहों से बजबजाती गैरपश्चिमी दुनिया में एक जनतांत्रिक नेता के तौर पर शासन करते रहे, उस सन्दर्भ में लेखक इस पहलू को रेखांकित करना नहीं भूलता ‘.. नेहरू सबसे पहले एक भारतीय राष्ट्रवादी थे और जहाँ आम जनइच्छा राष्ट्र के उनके तसव्वुर/कल्पना के साथ सामंजस्य बिठाती नहीं दिखी, उन्होंने बिना पश्चात्ताप के उसको दमित किया। यहाँ सरकार की प्रणाली मतदातापत्र नहीं थी, बल्कि जैसा कि उन्होंने खुद कहा है, संगीनें थीं।’ (पेज 133) ‘1961 में उन्होंने भारत की एकता पर भाषण में या लेखन में, छवि में या प्रतीक में, सवाल उठाने को अपराध घोषित किया, जिसके लिए तीन साल की सज़ा दी जा सकती थी। नागा जनता, जिस पर उन्होंने 1963 में बमबारी शुरू की, वह अभी भी लड़ रही थी, जब उनका देहान्त हुआ। तीन साल बाद बगल की मिजो जनता भी बग़ावत में उठ खड़ी हुई।’ (पेज 135)
‘भारतीय विचारधारा’ का तीसरा अहम हिस्सा धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर लेखक आगे बताता है कि किस तरह संविधान को अपनाते वक्त़ भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य कहने से बचा गया। न उसने कानून के सामने समानता के सिद्धान्त को स्थापित किया, न समान नागरिक संहिता को लागू किया: हिन्दू एवं मुसलमान दोनों अपने पारिवारिक जीवन में अपनी आस्था से जनित परम्परा/रिवाजों के अधीन रखे गए, दैनंदिन जीवन में धार्मिक सोपानक्रमों में दखल देने से इन्कार किया गया , अस्पृश्यता पर पाबन्दी लगा दी गयी, मगर जाति को अक्षुण्ण रखा गया। गौरतलब है कि संविधाननिर्माता के तौर पर अक्सर महिमामण्डित किए जानेवाले डा अम्बेडकर खुद संविधान जैसा कि वजूद में आया उससे सन्तुष्ट नहीं थे। संविधान निर्माण के बाद उनका यह वक्तव्य मशहूर है। ‘लोग अक्सर मुझे कहते हैं कि सर, आप संविधान के निर्माता हैं। मेरा जवाब होता है, मैं किराये का टट्टू था, मुझे जो करने के लिए कहा गया, मैंने किया और अधिकतर मेरी इच्छा के खिलाफ’(पेज 139) हिन्दुओं के विवाह प्रथा में व्याप्त गैरबराबरी के खिलाफ हिन्दू कोड बिल बनाने की उनकी योजना को जब पलीता लगा, तो उसके आधार पर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर हुए डा अम्बेडकर इस बात के प्रति भी सचेत थे कि संविधान के बनने से उनके अपने लोगों की स्थिति में कोई सुधार आया है: ‘वही तानाशाही, वहीं पुराने उत्पीड़न का अस्तित्व आज भी बना हुआ है, पहले से चला आ रहा भेदभाव आज भी जारी है, और आज शायद अधिक खराब रूप में।’ (अम्बेडकर,रायटिंग्ज एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम 14, पार्ट 2, बाम्बे 1995, पेज 1318-1322) यहाँ धर्मनिरपेक्षता को धर्म के राज्य से अलगाव के तौर पर अपनाने एवं व्यवहार में लाने के बजाय सर्वधर्मसमभाव के तौर पर अपनाया गया। ‘..कांग्रेस के नेतृत्ववाले राज्य ने भी कभी भी मुस्लिम अल्पसंख्यकों की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति सुधारने के लिए गम्भीर प्रयास नहीं किए। अगर पार्टी या राज्य वाकई धर्मनिरपेक्ष होता, तो हर मामले में उसे प्राथमिकता मिलती, लेकिन यह बात उसके दिमाग में कभी नहीं आयी।’ (पेज 146)
अन्त में किताब जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता एवं एकता की यह ‘त्रिमूर्ति’ जो लेखक के मुताबिक भारतीय विचारधारा की बुनियाद है, इस पर विभिन्न अग्रणी विचारकों की समझदारी की चर्चा करती है और स्पष्टतः लिखती है कि जहाँ सामाजिक आलोचना का पक्ष इनकी रचनाओं में अहम दिखता है, वही तेवर राजनीतिक आलोचना में नज़र नहीं आता। एक उदाहरण के तौर पर वह आक्सफोर्ड कम्पैनियन टू पालिटिक्स शीर्षक से हाल में प्रकाशित एक सन्दर्भग्रंथ का उल्लेख करते हैं, जिसमें भारत जैसा कि आज अस्तित्व में है उसके बारे में इन तमाम अग्रणियों के विचारों को देखा जा सकता है। भारतीय राज्य की दमनात्मक प्रणालियों पर यह कम्पैनियन लगभग मौन है।
अपनी इस किताब का समापन करते हुए लेखक लिखते हैं कि ‘एक बार जब उपनिवेशवादविरोधी संघर्ष से किसी नवस्वाधीन राष्ट्र का निर्माण होता है, तो उसकी जागृति के लिए प्रयुक्त विमर्श उसे उन्मत्त भी कर सकता है। भारत में यह खतरा अधिक दिखता है.. आज ज़रूरत इस बात की है कि रूमानीकृत अतीत के मोह एवं वर्तमान में मौजूद उसके अवशेषों से हम मुक्त हों’।’
भारत की अवाम की बेहतरी के लिए चिन्तनरत तथा सक्रिय हर व्यक्ति के लिए पेरी एण्डरसन की यह किताब बेहद जरूरी है। ज़रूरी नहीं कि हम उसके तमाम निष्कर्षों से सहमत हों, मगर भारतीय राज्य द्वारा अपनी आत्मप्रशंसा में बनाए गए तमाम मिथकों से – जो सहजबोध का हिस्सा बने हैं – मुक्त होने के लिए यह हमें निश्चित तौर पर एक आईना प्रदान करती है। जिस तरह जर्मन आइडिओलोजी में लेखकद्वय ने अपने समकालीन चिन्तकों,लेखकों से - जिनका जोर चेतना एवं अमूर्त विचारों पर था – ‘जिन्दगी की वास्तविक परिस्थितियों से रूबरू होने’ की अपील की थी, उसी तरह यह किताब भी भारत के यथार्थ, अतीत और वर्तमान की तमाम असहज करनेवाली सच्चाइयों का सामना करने के लिए लोगों को झकझोरती है। (समयांतर में प्रकाश्य. काफिला से साभार)