गुरुवार, 22 दिसंबर 2011
बुधवार, 21 दिसंबर 2011
वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहां शम्बूक-वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें
कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्या करें
बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूंठ में भी सेक्स का एहसास लेकर क्या करें
गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें.
-अदम गोंडवी
वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहां शम्बूक-वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें
कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्या करें
बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूंठ में भी सेक्स का एहसास लेकर क्या करें
गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें.
-अदम गोंडवी
मायावती का मूर्तिकरण और दलित विकास का प्रश्न
मायावती का मूर्तिकरण और दलित विकास का प्रश्न
एस. आर. दारापुरी आई.पी.एस.
(से. नि. )एवं संयोजक जन मंच
(नोट: यद्यपि यह लेख 2011 में लिखा गया था परन्तु आज मूर्तियों के सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट
द्वारा दिए गये निर्णय के आलोक में यह और भी प्रासंगिक हो गया है. वैसे यह आदेश सभी मूर्तियों पर लागू होना चाहिए.)
2007 के विधान सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में, खास करके दलित वर्ग ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी को भारी बहुमत
से इस लिए जिताया था कि वह इस बार स्थाई सरकार बना कर उ.प्र. के पिछड़ेपन के
मक्कड़ जाल से निकालने के लिए विकास का एजेंडा लागू करेंगी. इस से पहले के तीन बार
के मुख्यमंत्री काल के दौरान कोई भी विकास न कर सकने के पीछे मायावती का यह बहाना
था कि उस समय वह सरकार चलाने के लिए दूसरी पार्टियों पर निर्भर थी और स्वतंत्र तौर
पर काम करने के लिए उसे बहुमत की सरकार चाहिए थी. इसीलिए इस चुनाव में उ.प्र. की
जनता ने उसे भारी बहुमत से जिताकर कर काम करने का मौका दिया था. परन्तु इस बार भी
मायावती जनता की इस अपेक्षा पर पूरी नहीं उतरीं. न तो विकास का कोई एजेंडा ही बना
और न ही मायावाती द्वारा मूर्तियों और समारकों पर व्यय की जाने वाली फ़िज़ूल खर्ची
में ही कोई कमी आई.
देखा जाये तो उ.प्र. आज भी
विकास की दौड़ में देश के अति पिछड़े राज्यों में से एक है. आबादी की दृष्टि से 2001 की जनगणना के अनुसार उ.प्र. प्रदेश, देश में सबसे
अधिक आबादी 16.61 करोड़ वाला प्रदेश है जो
कि देश की कुल आबादी का 16.16 % है. विकास के मानकों के अनुसार उ.प्र. में साक्षरता दर 56.3 % (पुरुष 68.8 तथा महिलाएं 42.2 %) है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर 64.84% (पुरुष 75.26 तथा महिलाएं 53.67%) है. उ.प्र. में महिला और
पुरुष का अनुपात 898 है जब कि राष्ट्रीय स्तर
प़र यह अनुपात 933 है. उपलब्ध आंकड़ों के
अनुसार वर्ष 2005-06 के दौरान उ.प्र. में प्रति व्यक्ति आय 1,336 रुपए थी जो कि बिहार ( 787 रूपए ) को छोड़ कर पूरे देश
(25716 रुपए) की अपेक्षा सब से कम
थी. इसी अवधि में प्रति व्यक्ति विद्युत् उत्पादन 113 कि.वाट तथा उपभोग 167 कि.वाट. था जबकि पूरे देश
में यह 563 तथा 372 था. इस वर्ष उ.प्र. में विद्युतीकरण
ग्रामों का प्रतिशत 68.30 प्रतिशत था जबकि राष्ट्रीय
स्तर पर यह 77.4%
था. सार्वजानिक स्वास्थ्य
की दृष्टि से उ.प्र. में जन्म दर 30.4 %, मृत्यु दर 8.7%तथा शिशु मृत्यु दर 73 प्रति हज़ार थी जबकि राष्ट्रीय
स्तर पर यह दर क्रमश: 23.8%, 7.6 % तथा 58 प्रति हज़ार थी. रोज़गार की दृष्टि से उ.प्र. में
कुल जनसँख्या के केवल 23.78% व्यक्ति मुख्य कर्मकार थे
और कुल कर्मकारों में से 66 % व्यक्ति कृषि में लगे हुए थे. वर्ष 2005 में उ.प्र. में 25.5 % व्यक्ति गरीबी की रेखा
से नीचे थे जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर केवल 21.8% थी.
उपरोक्त संक्षिप्त विवरण से
स्पष्ट है की भारत के अन्य प्रदेशों की अपेक्षा उ.प्र. विकास की दृष्टि से एक अति
पिछड़ा प्रदेश है. ऐसी परिस्थिति में मायावती ही नहीं बल्कि किसी भी सरकार से यह
अपेक्षा की जाती है कि वह विकास का एजेंडा बनाकर प्रदेश के सभी संसाधनों का
इस्तेमाल उ.प्र. को पिछड़ेपन से बाहर निकलने के लिए करे, परन्तु पिछले कई वर्षों से ऐसा नहीं हुआ है.
1993-94 और वर्ष 1999-2001 के दौरान प्रतिव्यक्ति
खर्च में कमी आई थी. इस समय भी उ.प्र. में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय प्रति
व्यक्ति आय रुपए 46,500 से लगभग आधी है. कम आय का असर लोगों के जीवन स्तर पर पड़ता है. इस
दशक में बसपा ने भाजपा से मिल कर दो बार सरकार बनाई परन्तु दशम पंचम वर्षीय योजना
के मसौदे के अनुसार दलितों के जीवन स्तर में कोई सुधार
नहीं हुआ. बसपा सरकार ने न तो दलितों और न ही प्रदेश के विकास का कोई एजेंडा
बनाया. इसी प्रकार वर्ष 2003 और 2007 में भी सत्तासीन होने पर भी
विकास का कोई एजेंडा नहीं बनाया बल्कि मायावती मूर्तियों और समार्कों के प्रतीकों
की राजनीति ही करती रहीं
यह सर्वविदित है कि
मायावाती ने कभी विकास को अपना मुद्दा नहीं बनाया. बसपा ने चुनाव में एक बार को
छोड़ क़र कभी भी घोषणा पत्र जारी नहीं किया. ऐसा जान बूझ कर किया गया क्योंकि घोषणा पत्र जारी करने से बाद में
उसे लागू करने की वाध्यता हो जाती है और लागू न करने पर जनता की नाराजगी झेलनी
पड़ती है. इसी प्रकार जब कांशी राम ने बाबा साहेब का मिशन पूरा कारने का नारा दिया था
तो उस मिशन को लिखित रूप में कभी परिभाषित नहीं किया. पहले सत्ता और बाद में कोई
काम के वायदे से दलितों को समर्थन करने के लिए कहा गया. शुरू में दलितों को
सवर्णों के खिलाफ गैर राजनीतिक मुद्दों पर भड़काकर लामबंद किया गया परन्तु बाद में
उनसे ही गैर सैद्धांतिक और अवसरवादी समझौते कर लिए गए. अम्बेडकरवाद के सभी सिद्धांतों
को तिलांजलि दे क़र सत्ता प्राप्त करने
हेतु अवसरवाद को महिमामंडित किया गया. दलित मुद्दों को न उठकर उनका जाति और सवर्ण
विरोध के नाम पर भावनात्मक शोषण किया गया और सत्ता प्राप्त कर व्यक्तिगत
महत्वाकांक्षा पूरी की गई. इस मुद्दाविहीन, विकासविहीन , भ्रष्ट और अवसरवादी राजनीति का परिणाम यह हुआ कि आज न केवल दलित
बल्कि पूरा प्रदेश गरीबी, बेरोज़गारी, पिछड़ापन एवं विकासहीनता के गड्डे में गिरा हुआ है.
अब यह विचारणीय है कि इस
दौरान सरकार के बजट का खर्च किन मदों पर किया गया. जो पैसा कल्याणकारी योजनाओं पर
खर्च भी हुआ वह व्यापक भ्रष्टाचार के कारण गरीबों तक नहीं पहुंचा. इसका सब से बड़ा
कारण मायावती का व्यक्तिगत भ्रष्टाचार है जिस के लिए उन्हें निकट भविष्य में जेल
भी जाना पड़ सकता है. उसके विरुद्ध ताज कोरिडोर का मामला हाई कोर्ट में और 30 करोड़ की अवैध संपत्ति में
आरोप पत्तर दाखिल होने का मामला सुप्रीम कोर्ट में है जिस में अगले साल की प्रथम
फरबरी की तारीख निश्चित है.मायावती के कई मंत्री भी भ्रष्टाचार में पकडे गए हैं और
कितनों के विरुद्ध लोकायुक्त द्वारा जाँच की जा रही है. मायावती ने बजट का बड़ा
हिस्सा लखनऊ और गाजिआबाद में मूर्तियाँ लगवाने, समारक बनवाने और शहर के सुन्दरीकरण
पर खर्च किया है. उन्होंने डॉ. आंबेडकर और कुछ अन्य दलित महापुरुषों के साथ साथ
अपनी और कांशी राम की मूर्तियाँ भी लगवाईं हैं जो कि किसी जीवित व्यक्ति द्वारा
अपनी मूर्तियाँ लगवाने की पहली मिसाल है. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार मायावती ने अब
तक मुर्तिओं, पार्कों और समारकों पर लगभग
6000 करोड़ रुपए खर्च किये हैं.
ये मूर्तियाँ और समारक इतने भव्य हैं कि शायद राजे महाराजे भी इन्हें न बनवा पाते.
एक जर्मन विद्वान् के अनुसार मायावती ने अपमा रोम बनवाया है. एक अन्य विद्वान् के
अनुसार यह जनता के पैसे का अपराधिक दुरूपयोग है.
वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार उ.प्र.
में दलितों की आबादी 3.51 करोड़ है जो कि उ.प्र. की कुल आबादी का 21.1 प्रतिशत है. सामान्यतया यह
अपेक्षा की जाती है कि जिस प्रदेश में एक दलित मुख्य मंत्री चौथी बार गद्दी पर
आसीन हुआ हो वहां पर दलितों का बहुत विकास हुआ होगा.परन्तु ज़मीनी सच्चाई इस के
बिलकुल विपरीत है. वर्तमान में दलित पूरे प्रदेश की तरह विकास की दृष्टि से अति
पिछड़े हुए हैं.विकास के मापदंडों पर देखने से यह पाया जाता है कि उ.प्र. के दलित
उड़ीसा, और बिहार के दलितों को छोड़ कर देश के सभी राज्यों के
दलितों से पिछड़े हुए हैं. 2001की जनगणना के अनुसार उ.प्र. में दलितों का स्त्री-पुरुष अनुपात 900 है जबकि राष्ट्रीय स्तर
प़र दलितों का यह अनुपात 936 है. इसी तरह उ.प्र. के दलितों का साक्षरता दर 46.3% है जबकि राष्ट्रीय स्तर
पर यह 54.7 % है.पुरुषों और महिलायों
का शिक्षा दर क्रमश: 60.3तथा 30.5% है जबकि राष्ट्रीय स्तर
पर दलितों का यह अनुपात क्रमश: 66.6 तथा 41.9% है. इसी जनगणना के अनुसार उ.प्र. में 5-16 वर्ष आयु के 1.33 कारोड़ बच्चों में से केवल
58.3 लाख (56.4%) बच्चे ही स्कूल जा रहे
थे.
जनगणना के अनुसार उ.प्र. के
कुल दलितों का मात्र 42.5% ही कृषि मजदूरों का है जबकि पूरे भारत में दलितों की यह दर 45.1 % है. अन्य मजदूरों की
श्रेणी में यह औसत 22.2 % है जबकि राष्ट्रीय स्तर प़र यह औसत 30.5 % है. उ.प्र. में दलितों
का लगभग 60% हिस्सा गरीबी क़ी रेखा से
नीचे है. उ.प्र. में 87.7 प्रतिशत दलित कृषि मजदूर हैं जबकि सिंचाई के साधनों के अभाव में
यहाँ कृषि अति पिछड़ी हुई है. वर्ष 1991-2001 के दशक में 12% दलित काश्तकार की श्रेणी
से गिर क़र भूमिहीन की श्रेणी में आ गए हैं. ग्रामीण क्षेत्र में भूमि के
स्वामित्व का बहुत महत्व है परन्तु उ.प्र. में भूमिसुधारों को सही ढंग से लागू
नहीं किया गया. आज भी लाखों हेक्टेयर ज़मीन भूमि विवादों में फंसी हुई है जिन्हें
सरकार द्वारा समाप्त कराके भूमिहीनों में आवंटित किया जा सकता था परन्तु इस दिशा
कोई भी प्रभावी कार्रवाही नहीं की गई. आज भी जो भूमि दलितों और अन्य भूमिहीनों को
आवंटित की गई थी वह भी पट्टे धारकों के कब्जे में नहीं है . मायावती ने सर्वजन के
सवर्णों को खुश रखने के लिए इस दिशा में कब्जेदारों को हटाने की कोई भी कार्रवाही
नहीं की.
उ.प्र. में सामंती व्यवस्था
के कारण जातिभेद और छुआछुत के प्रचलन के फलस्वरूप दलितों पर उच्च जातिओं द्वारा अत्याचार
किये जाते हैं जो कि पूरे भारत में सबसे अधिक हैं. एक दलित मुख्यमंत्री होने के
कारण इन अपराधों में कमी होने और प्रभावी कार्रवाही किये जाने कि अपेक्षा की जाती
है, परन्तु ज़मीनी सच्चाई इस के बिलकुल उल्ट है.
मायावती ने अपने पूर्व कार्यकाल में दलित उत्पीड़न के आंकड़े कम रखने के उद्देश्य
से वर्ष 2001 में दलित उत्पीड़न को रोकने
और उन पर प्रभावी कार्रवाही करने के उद्द्देश्य से बनाए गए अनुसूचित जाति/जन जाति
अत्याचार निवारण अधिनियम -1989 को लिखित आदेश दे कर निष्प्रभावी कर दिया था जिसे बाद में कड़ा
विरोध होने तथा मामला कोर्ट में पहुँच जाने पर 2003 में वापस लेना पड़ा था.
परन्तु अपरोक्ष रूप से यह आदेश आज भी लागू है. परिणाम स्वरूप दलित उत्पीड़न की
घटनाएँ तो बराबर हो रही हैं परन्तु उनकी रिपोर्ट थाने पर नहीं लिखी जाती है. इस के
अतिरिक्त अन्य संस्थानों जैसे प्राइमरी स्कूलों में मध्यान्ह भोजन तथा हस्पतालों
में छुआछूत का व्यवहार खुले आम हो रहा है परन्तु उस पर कोई ठोस कार्रवाही नहीं की
जाती. उत्पादन के साधनों के अभाव तथा बेरोज़गारी के कारण उत्तर प्रदेश के दलित गाँव
छोड़ कर बाहर जा रहे हैं.
अब यदि मूर्तिकरण के पीछे
मायावती द्वारा दलित महापुरुषों को सम्मान देने के तर्क को देखा जाये तो यह काफी
हद तक उनकी विचारधारा के विपरीत है. यदि डॉ. आंबेडकर को ही लें तो उन्होंने स्वयं
कहा था " मैं मूर्ती पूजक नहीं, मैं मूर्ती भंजक हूँ. ' वे राजनीति में भक्ति के विरुद्ध थे. वे व्यक्ति पूजा और किसी
व्यक्ति को देवता बनाने के खिलाफ थे. परन्तु आज मायावती स्वयं को दलितों की देवी
कह रही है.
28 मार्च, 1916 को डॉ. आंबेडकर ने फिरोजशाह मेहता की मूर्ती
लगाने की आलोचना की थी तथा गोपाल कृषण गोखले की समृति में उनके सर्वन्ट्स ऑफ़
इंडिया संस्था की शाखाएँ पूरे भारत में खोलने की प्रशंसा की थी. उन्होंने इस
सम्बन्ध में बम्बई क्रोनिकल में छपे अपने पत्र में कहा था कि मेहता तो बम्बई
म्युनिस्पल कार्यालय के सामने बुत्त के रूप में खड़े हो जायेंगे. उन्होंने उनकी
मूर्ती लगाने पर दुःख व्यक्त करते हुए लिखा था की क्या उनका समारक ऐसा नहीं बन
सकता जो आगे आने वाली पीढ़ियों के काम आ
सके. उन्होंने सुझाव दिया था कि मेहता का स्मारक एक पुस्कालय के रूप में बनाया
जाये. डॉ आंबेडकर ने अमेरिका के सबसे बड़े विश्व विद्यालय के पुस्तकालय से सबक
लेते हुए चिंता व्यक्त की थी कि हम लोगों ने समाज और व्यक्ति क़ी प्रगति में
पुस्तकालयों के योगदान को नहीं समझा है. बाद में इन्हीं सिद्धांतों पर चलते हुए
उन्होंने दलितों के विकास में शिक्षा के महत्त्व को समझाते हुए 1944 में पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी
की स्थापना की. वर्ष 1944 में सिद्धार्थ कालेज और वर्ष 1950 में मिलिंद महाविद्यालय की स्थापना की. इसके लिए
उन्होंने बम्बई और अति पिछड़े इलाके मराठवाडा को चुना. उन्होंने अपने शिक्षा
संस्थानों के नाम की प्रेरणा तक्षिला, नालंदा, विक्रिमशिला, सोमापुरा और ओदंतपुरी बौद्ध
विद्यालयों से ली थी. काश! मायावती ने डॉ.
अम्बेडकर के जीवन से कोई प्रेरणा ले कर विश्व विद्यालय, महा विद्यालय और पुस्तकालयों की स्थापना की होती जिस से न केवल दलित
बल्कि समाज के सभी वर्गों के बच्चे सदियों तक लाभान्वित होते.
लोगों का कहना है कि
महापुरुषों की मूर्तियाँ लोगों के लिए प्रेरणा का श्रोत होती हैं, परन्तु यह बात केवल कुछ हद तक ही सही है क्योंकि मूर्तियों से मिलने
वाली प्रेरणा की एक सीमा होती है और मूर्तियाँ लगाने की भी. महापुरुषों के जीवन से
स्थाई प्रेरणा उनके जीवन के आदर्शों और उनकी विचारधारा के प्रचार प्रसार और उस पर
चलने से मिलती है. परन्तु अफ़सोस है की
मायावती ने इस दिशा में कुछ भी नहीं किया. यदि इन महापुरुषों की मूर्तियों पर व्यय
की गई धनराशि उनके नाम पर शैक्षिक संस्थानों की स्थापना पर लगाई होती तो समाज में
एक नई चेतना का विकास हुआ होता और उसमें एक गुणात्मक परिवर्तन आता.
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट
है की दलितों का विकास मूर्तियाँ लगाने से नहीं बलिक उनके विकास हेतु योजनाएं
बनाने और उन्हें ईमानदारी से लागू कारने से होगा. महापुरुषों के नाम पर असंख्य
मूर्तियाँ लगा कर जनता के धन का दुरूपयोग करने की बजाए उनके नाम पर शैक्षिक
संस्थाएं, अस्पताल एवं अन्य जनउपयोगी
संस्थाओं की स्थापना करना न केवल समाज के लिए लाभप्रद होगा बल्कि यह उनके प्रति एक
सच्ची श्रद्धांजली और सम्मान का प्रतीक भी होगा.
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मंगलवार, 20 दिसंबर 2011
मायावती ने उत्तर प्रदेश के दलितों का क्या किया ?
मायावती ने उत्तर प्रदेश के दलितों का क्या किया ?
एस. आर. दारापुरी आई. पी. एस. (से. नि. ) तथा राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
भारतवर्ष में उत्तर प्रदेश कई मायनों में अपना एक स्थान रखता है. राजनीतिक दृष्टि से यह पहला राज्य है जहाँ प़र एक दलित महिला चौथी बार मुख्य मंत्री की कुर्सी पर आसीन हुई है. उ. प्र. की आबादी भारत के सभी राज्यों से अधिक है. यहाँ दलितों की सबसे बड़ी आबादी ( ३.५१ करोढ़ ) है जो कि प्रदेश की कुल आबादी का २१.१ प्रतिशत है. दुखदाई बात यह है कि यहीं दलितों पर सब से अधिक उत्पीडन की घटनाएँ घटित होती हैं. यहीं सबसे अधिक बच्चे एवं महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं. इसी प्रदेश में पोलिओ के सबसे अधिक मामले पाए जाते हैं. अब यह देखना होगा कि विकास कि दृष्टि से उत्तर प्रदेश के दलित अन्य प्रदेशों के दलितों की अपेक्षा कहाँ ठहरते हैं. इस का सही मूल्याँकन करने हेतु विकास के निम्नलिखित पहलुओं पर दलितों की स्थिति का अध्ययन करना उचित होगा:-
स्त्री- पुरुष अनुपात
उत्तर प्रदेश के दलितों में महिलायों और पुरुषों का लिंग अनुपात ९०० प्रति हज़ार है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों का यह अनुपात ९३६ है. इसी प्रकार ०-६ वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों का यह अनुपात ९३० है जबकि राष्टीय स्तर पर यह अनुपात ९३८ है.
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि यहाँ के दलित देश के अन्य प्रान्तों के दलितों से इस अनुपात में काफी पीछे हैं जो कि दलित महिलायों और बच्चों की निम्न स्थिति का प्रतीक है इसका मुख्य कारण न केवल लड़कों की वरीयता के कारण है कन्यायों की भ्रूण हत्या है बल्कि महिलायों एवं बालिकाओं के साथ नियोजित भेदभाव एवं कुपोषण भी है.
वर्ष २००५-२००६ में किये गए राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में ४७ प्रतिशत महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं. इसी सर्वेक्षण में पाया गया था कि उत्तर प्रदेश में ४७ प्रतिशत बच्चे भी कुपोषण से ग्रस्त होने के कारण कम वज़न वाले थे जिनमें से १३ प्रतिशत बच्चे मृत्यु का शिकार हो गए और ४६ प्रतिशत बच्चों की शारीरिक बढोतरी बाधित हो चुकी थी. इस सर्वेक्षण से यह भी प्रकट हुआ था कि उत्तर प्रदेश में १००० जीवित प्रसवों में से ७३ मृत प्रसव थे जो कि ९ वर्ष पूर्व के राष्ट्रीय औसत ६७.६ से काफी अधिक थे. हाल में cry संस्था दुआरा कराए गए सर्वेक्षण से पाया गया कि उत्तर प्रदेश में ७० प्रतिशत दलित बच्चे कुपोषण का शिकार हैं.
यद्यपि उपरोक्त आंकड़े सभी महिलायों और बच्चों कि स्थिति दार्शाते हैं परन्तु इनमें दलित महिलायों और बच्चों की स्थिति औ़र भी दयनीय है. इसी कारण इस राज्य में महिलायों और पुरुषों का लिंग अनुपात चिंतनीय है. सामान्य वर्ग और दलित महिलायों और बच्चों की उपरोक्त दुर्दशा के लिए महिला एवं बाल कल्याण सम्बन्धी योजनाओं जैसे समग्र बाल विकास योजना, मध्यान्ह भोजन योजना एवं सार्वजानिक खाद्यान्न वितरण प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं सरकारी मशीनरी दुआरा बरती जा रही उदासीनता जिम्मेवार है.
शिक्षा का स्तर
सन २००१ कि जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में दलितों की साक्षरता दर ४६.३ प्रतिशत है जबकि दलितों का राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा दर ५४.७ प्रतिशत है. पुरुषों एवं, महिलायों की शिक्षा दर क्रमश ६०.३ और ३०.५ प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों की यह दर क्रमश: ६६.६ और ४१.९ प्रतिशत है. इस प्रकार उत्तर प्रदेश के दलित पुरुष एवं महिलाएं साक्षरता दर में भारत के अन्य प्रान्तों के दलितों से काफी पीछे हैं. उत्तर प्रदेश के साक्षर दलितों में से ३८ प्रतिशत ऐसे हैं जिनका शिक्षा का कोई भी स्तर नहीं है. यहाँ अधिकांश दलित बहुत कम पड़े लिखे हैं . प्राईमरी और मिडल स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने वाले दलितों का प्रतिशत क्रमश: २७.१ और १८.५ प्रतिशत है. मैट्रिक, हायर सेकंडरी और स्नातक स्तर तक शिक्षा पाने वाले दलितों का प्रतिशत: केवल ०.१ प्रतिशत है. सेकंडरी से आगे साक्षरों का प्रतिशत दर मिडल पास से लगभग आधा है तथा उससे ऊपर शिक्षितों का अनुपात मैट्रिक पास (८.५ प्रतिशत ) का १/३ है.
वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार उत्तर पदेश में ५ से १४ वश आयु के १ करोढ़ ३३ लाख दलित बच्चों में से केवल ५३.३ लाख यानिकि ५६.४ प्रतिशत बच्चे स्कूल जा ही नहीं रहे थे. इसके विपरीत सरकारी दावा है कि सभी बच्चे स्कूल जा रहे हैं.
स्कूल छोड़ने की दर
बेसिक शिक्षा निदेशालय, उत्तर पदेश दुआरा जारी आंकड़ों के अनुसार १९९१ में बच्चों दुआरा प्राईमरी स्तर पर स्कूल छोड़ने का दर ४५.०२ प्रतिशत है. इस प्रकार हरेक दूसरा बच्चा प्राईमरी शिक्षा पूरी होने से पहले स्कूल छोड़ देता है. लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर ४६.२५ प्रतिशत है जो कि लड़कों की दर से थोड़ी ऊँची है. यह सर्वविदित है कि विभिन्न कारणों से दलित बच्चों की स्कूल छोड़ने की दर सामान्य जातियों के बच्चों से अधिक होती है जिसका सीधा असर दलितों की साक्षरता दर पर पड़ता है. वर्तमान में भी दलित बच्चों का स्कूल छोड़ने की दर सबसे अधिक है.
स्कूलों में छुआछुत
विभिन्न सर्वेक्षणों से यह पाया गया है कि उत्तर प्रदेश में "छुआछुत और जातिगत भेदभाव" बुरी तरह से व्यापत है. इसका प्रकोप प्राईमरी और मिडिल विद्यालयों में मिड-डे मील में भी स्पष्ट दिखाई देता है.सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के अनुसार भोजन पकाने हेतु दलित रसोइओं की वरीयता के अनुसार नियुक्ति करने के आदेश थे परन्तु २००७ में एक सर्वेक्षण में यह पाया गया कि उत्तर प्रदेश में केवल १७ प्रतिशत स्कूलों में ही दलित रसोइओं की नियुक्ति की गयी थी. सरकार दुआरा अपने ही आदेशों को लागू करने में बरती जा रही उदासीनता के कारण काफी स्कूलों में सवर्ण जाति के बच्चों दुआरा दलित रसोइओं दुआरा बनाये गए भोजन का बहिष्कार किया गया. इस परिस्थिति में सरकार से यह अपेक्षा की जाती थी की वह ऐसे मामलों में सखत कार्रवाही करके दलित रसोइओं की नियुक्ति को लागू करवाती परन्तु ऐसा न करके मायावती ने उन की नियुक्ति सम्बन्धी आदेश को ही वापस ले लिया. इस का परिणाम यह है की अधिकतर स्कूलों में दलित रसोइओं को निकाल दिया गया. इस से उत्तर प्रदेश में छुअछुता को खुला बढावा मिला है.
कार्य सहभागिता
वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में दलितों की कार्य सहभागिता दर ३४.७ प्रतिशत है जब कि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों कि कार्य सहभागिता दर (४०.४०) प्रतिशत है जो कि उत्तर प्रदेश में दलितों में व्यापक बेरोज़गारी और गरीबी को दर्शाता है. कार्य सहभागिता का अर्थ नियमित रोज़गार से है.
दलित मजदूरों की श्रेणी
वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार उत्त प्रदेश के दलितों में कुल मजदूरों का ४२.५ प्रतिशत भाग कृषि मजदूरों का है जब कि पूरे भारत में दलितों की यह औसत ४५.६ प्रतिशत है. अन्य मजदूरों की श्रेणी में दलितों की औसत दर ३०.५ प्रतिशत के मुकाबले में उत्तर प्रदेश की यह दर २२.२ प्रतिशत है. उत्तर प्रदेश में घरेलू उद्योग से जुड़े दलितों का प्रतिशत ४.३ प्रतिशा है जबकि राष्ट्रीय सता प् यह औसत ३.९ प्रतिशत है. इस से स्पष्ट है की उत्तर प्रदेश में रोज़गार की बहुत कमी है.
गरीबी रेखा के नीचे दलित
वर्ष २००४-०५ के आंकड़ों के अनुसा उत्तर प्रदेश में गरीबी रेखा के नीचे लोगों का प्रतिशत ३२.८ प्रतिशत है जबकि पूरे भारत में यह दर केवल २७.५ प्रतिशत है. इन में दलितों का प्रतिशत अन्य वर्गों की अपेक्षा काफी अधिक है. एन. एस. एस. ओ. के वर्ष १९९०-२००० के सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में ४४ प्रतिशत दलित गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे थे. वास्तव में दलितों के गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों का औसत ६० प्रतिशत से कम नहीं है.
आर्थिक स्थिति
उत्त प्रदेश कृषि प्रधान प्रदेश है और ८७.७ प्रतिशत दलित ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं. उनमे से ७५ प्रतिशत कृषि मजदूर अथवा सीमांत एवं लघु कृषक के रूप में खेती से जुड़े हुए हैं. पच्छमी उत्तर प्रदेश को छोड़ कर शेष क्षेत्र में कृषि का विकास नगण्य है जिसका असर किसानों के साथ साथ कृषि मजदूरों पर भी पड़ रहा है. इसी कारण उत्त्तर प्रदेश में कृषि में लगे दलितों की संख्या राष्ट्रीय औसत से कम है. वर्ष १९९०-९१ की कृषि जोत जनगणना के अनुसार उ. प्र. के दलित कृषकों में से ४१.७ प्रतिशत सीमांत, लघु और अर्ध मध्यम श्रेणी के तथा केवल २.४ प्रतिशत ही बड़ी जोत के मालिक थे. जोतों के क्षेत्रफल की दृष्टि से ३९.५ प्रतिशत दलित कृषक लघु/ सीमांत/अर्ध मध्यम एवं मध्यम श्रेणी के तथा केवल २.१ प्रतिशत दलित बड़ी जोत के मालिक थे. इस प्रकार दलितों के पास कुल जोत का १६.३ प्रतिशत तथा कुल जोत क्षेत्रफल का १०.५ प्रतिशात ही था जोकि उनकी २१.१५ प्रतिशा आबादी के मुकाबले में बहुत ही कम है. दलितों की जोत का औसत क्षेत्रफल ०.६० हेक्टेअर है. इस से स्पष्ट है कि उत्त प्रदेश में अधिकतर दलित भूमिहीन हैं.
वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार उ.प्र. के ३०.९ प्रतिशत दलित काश्तकार की श्रेणी में हैं जबकि १९९१ कि जनगणना में यह प्रतिशत ४२.६३ था. इस प्रकार १९९१ से वर्ष २००१ के दशक में लगभग १२ प्रतिशत दलित काश्तकार की श्रेणी से गिर क़र भूमिहीन की श्रेणी में आ गए हैं. यह स्थिति दलितों के सश्क्तिकर्ण की बजाये उनके अशक्तिकर्ण को दर्शाती है. दलितों के भूमि से इस वन्चितिकरण का एक कारण सरकारी कल्याणकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार के कारण उनका का लाभ प्राप्त न होना और बेरोज़गारी है क्योंकि वर्तमान में कल्याणकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार में कोई कमी आने की बजाये उसमे बढोतरी ही हुई है. इस के साथ ही रोजगार के कोई अवसर भी पैदा नहीं हुए हैं. मजदूर परिवारों को नरेगा में १०० दिन का रोजगार देने वाली योजना का यह हाल है कि पिछले वर्षों में ग्रामीण मजदूरों को केवल ८ दिन का रोज़गार ही मिला था जैसाकि केग की रिपोर्ट में है. मायावती ने तो २००७ में प्रधान मंत्री बनने पर इस योजना को ही ख़तम कर देने की घोषणा कर दी थी. मनरेगा में व्यापक भ्रष्टाचार किसी से छुपा नहीं है और मायावती इस को रोकने में बिलकुल असफल रही हैं जिसका खमियाजा दलितों को भुगतना पड़ रहा है.
पिछले ३६ वर्षों से उ.प्र.में दलितों सहित अन्य भूमिहीनों को थोड़ी थोड़ी ज़मीन आबंटित की जाती रही है . एक तो यह भूमि अधिकतर अनुपजाऊ तथा बंजर किस्म की रही है. दूसरी ओर अधिकतर आबंटियों को इन पर कब्ज़े ही नहीं मिले. इस का एक सब से बढ़िया उदाहरन हरदोई जनपद के दलितों दुआरा विधान भवन के सामने किये गये धरने एवं अनशन का है. उनकी शिकायत थी कि उन्हें 32 वर्ष पूर्व मिले भूमि पटटों का आज तक कब्ज़ा नहीं मिला है. उनकी भूमि प़र कब्ज़ा करने वाले सवर्णों को उस क्षेत्र के बसपा विधायक का संरक्षण प्राप्त है. बहुत दिन तक धरना और अनशन के बाद उन्हें कहीं कब्ज़ा मिल सका. ऐसी स्थिति पूरे उ.प्र. में है. दलितों के पटटों पर दबंगों के कब्ज़े हैं परन्तु मायावती अपने सर्वजन समाज को नाराज़ नहीं करना चाहती. अत: दलितों के पट्टे आज भी दबंगों के कब्जे में हैं और दलितों की कोई सुनवाई नहीं है.
दलित उत्पीडन में उत्तर प्रदेश सब से आगे
यह सर्वविदित है कि दलित उत्पीडन के मामले में उ.प्र. भारत में प्रथम स्थान रखता है. यह स्थिति राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो दुआरा वर्ष २०१० की र्रेपोर्ट से भी प्रकट होती है. इसका मुख्य कारण उ.प्र. में दलितों की बड़ी आबादी, सामंती सामाजिक व्यस्था तथा सरकार दुआरा उत्पीडन के मामलों की उपेक्षा है. उ.प्र. में यह पुरानी परम्परा रही है कि जो भी मुख्य मंत्री आता है वह अपने काल में अपराध के आंकड़े अपने पूर्व वाले मुख्य मंत्री के काल से कम कर के दिखाता है. मायावती भी इस का कोई अपवाद नहीं है. मायावती ने तो वर्ष १९९५ में अपने प्रथम मुख्य मंत्री काल में अपराध के आंकड़ों को लेकर पुलिस अधिकारियों को निलंबित और स्थानान्तित करके तहलका मचा दिया था. इसके बाद तो उन्होंने दलित उत्पीडन को रोकने के ध्येय से बनाये गए केन्द्रीय अधिनियम ( अनुसूचित जाति/ जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम १९८९ ) को लागू न करने का सरकारी आदेश जारी करके इस प़र रोक ही लगा दी थी. बाद में इस का बहुत विरोध होने और मामला हाई कोर्ट पहुँचने पर उसे वापस लिया गया परन्तु व्यव्हार में यह आदेश अब भी लागू है. इस समय इस एक्ट के दुरूपयोग को रोकने के नाम पर मायावती का मौखिक आदेश है कि इस एक्ट का प्रयोग केवल हत्या और बलात्कार के मामलों में ही किया जाये और वह भी डाक्टरी परीक्षण के बाद. दलित उत्पीडन के शेष १९ प्रकार के मामलों में यह लागू नहीं किया जाये. इस के कारण उ.प्र. में दलितों पर बराबर अत्याचार हो रहे हैं परन्तु पुलिस इस एक्ट के अंतर्गत मुकदमे दर्ज नहीं करती और दबंग अत्याचार करने के लिए स्वतन्त्र हैं. पुलिस अपराध के आंकड़े कम रखने के कारण दलित उत्पीडन की रिपोर्ट नहीं लिखती. इससे उत्तर प्रदेश के दलित न केवल सामंतों दुआरा किये जा रहे उत्पीडन को झेलने के लिए बाध्य हैं बल्कि उत्पीडन का शिकार होने पर मिलने वाली आर्थिक सहायता से भी वंचित रह रहे हैं.
वर्ष २००७ में समाचार पत्रों में दलित महिलायों के बलात्कार के छपे मामलों के अध्ययन के अनुसार वर्ष २००७ में दलित महिलायों के बलात्कार के ११० मामलों में से पुलिस दुआरा केवल ५० प्रतिशत मामले ही दर्ज किये गए थे. बलात्कार के इन मामलों में से ८५ प्रतिशत मामले नाबालिग दलित लड़कियों के साथ थे. इसी प्रकार बलात्कार के बाद हत्या के १९ मामलों में से ५० %, हत्या में से २५% , शीलभंग में से ७१%, तथा अपहरण में से ८०% मामले दर्ज ही नहीं किये गए थे. ऐसी ही स्थिति उत्पीडन के अन्य मामलों की भी है. वास्तव में मायावती सवर्ण वोटों के चक्कर में इस एक्ट को लागू करके उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहती है जिस का खामिआज़ा दलितों को भुगतना पड़ रहा है.
देश के अन्य राज्यों के दलितों से तुलना करने पर यह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश के दलित बिहार और ओढिसा के दलितों को छोड़कर विकास के सभी मानकों पर अन्य राज्यों के दलितों से पिछड़े हुए हैं. यह भी विदित है कि मायावती १९९५ से लेकर अब तक चौथी बार उ.प्र. की मुख्य मंत्री बनी है परन्तु इस काल में दलितों कि स्थिति में कोई भी सुधार नहीं हुआ है. इसके विपरीत दलितों की आर्थिक स्थिति पहले से बदतर हुई है. क्या उ.प्र. के दलितों के पिछड़ेपन के लिए मायावती को काफी हद तक जुम्मेदार नहीं माना जाना चाहिए? यह सर्वविदित है कि मायावती ने न तो पहले और न इस बार भी दलितों एवं प्रदेश का विकास का कोई एजेंडा बनाया. विकास की किसी भी अवधारणा के अभाव में न तो प्रदेश का और न ही दलितों का कोई विकास हुआ.
राज्य सरकार के बजट का काफी बड़ा हिस्सा गैर योजनागत व्यय पर लगाया गया है. कई अरब की धन राशी भव्य समारोहों, स्मारकों. एवं अपनी मूर्तिओं सहित अन्य मूर्तियों प़र खर्च की गयी जबकि यह धनराशी प्रदेश के विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य कल्याणकारी योजनाओं प़र खर्च की जा सकती थी. मायावती सरकार दुआरा प्रतीकों की राजनीति करने से दलितों का कुछ भावनात्मिक तुष्टिकरण तो हुआ परन्तु उनका कोई भी विकास नहीं हुआ. व्यापक भ्रष्टाचार के कारण उन्हें कल्याणकारी योजनाओं का भी कोई लाभ नहीं ,मिल सका .
पिछले वर्ष के ट्रांसपेरेंसी इंटरनॅशनल संस्था दुआरा किये गए विवेचन से यह पाया गया था कि भ्रष्टाचार के मामले में उ.प्र. चिंतनीय दशा से भ्रष्ट राज्य है. प्रदेश में सर्वत्र विकास का अभाव इस का दुष्परिनाम है. परदेश के दो बड़े नेता- मुलायम सिंह तथा मायावाती भ्रष्टाचार के मामलों में आरोपित हैं. मुलायम सिंह के विरुद्ध तो अभी जांच चल ही रही है पान्तु मायावती के खिलाफ तो विवेचना पूरी हो चुकी है. उसके विरुद्ध ताज कोरिडोर का मामला इलाहाबाद उच्च न्यायलय तथा ३० करोड़ की अवैध संपत्ति में आरोप पत्तर दाखिल करने का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है जिस पर अगले साल के फरवरी माह की प्रथम तारीख को आरोप पत्तर दाखिल करने का आदेश होने की सम्भावना है. इस पर मायावती को ज़मानत कराने के लिए अदालत में समर्पण करना होगा और उस समय उसकी जेल जाने की नौबत भी आ सकती है.
मायावती के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का असर उ.प्र. की राजनीति और नौकरशाही पर भी पड़ा है. यही कारण है कि प्रदेश में घोर भ्रष्टाचार व्याप्त है. सभी कल्याणकारी योजनायें जैसे मनरेगा, राशन वितरण प्रणाली, बाल विकास, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, विधवा पेंशन, वृदा पेंशन, जननी सुरक्षा योजना आदि घोर भ्रष्टाचार का शिकार हो गयीं हैं जिससे न केवल दलित बल्कि सभी लोग इनके वांछित लाभ से वंचित रह गए हैं . शिक्षा एवं स्वास्थ्य मायावती सरकार के सब से कम वरीयता वाले क्षेत्र रहे हैं. २००९ के चुनाव के समय मायावती देश का प्रधान मंत्री का सपना देख रही थीं जो पूरा नहीं हुआ और चुनाव में बड़ी मुश्किल से २० सीटें ही मिल पायीं. अब तो २०११ के चुनाव में उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने की भी कोई सम्भावना नहीं है जैसा कि जनता की आवाज़ सुनाई पड़ रही है.
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है की उत्तर प्रदेश के दलितों की अधोगति के लिए मायावती को काफी हद तक जुम्मेवार ठहराया जा सकता है जोकि उसके व्यक्तिगत भ्रष्टाचार और सिधांतहीन राजनीति का ही दुष्परिणाम है. उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश के दलित भी अब समझ गए होंगे कि केवल किसी भी तरह से सत्ता पा लेने से ही समस्याएँ हाल नहीं हो जातीं. उसके लिए डॉ. आंबेडकर जैसी सैधांतिक तथा एजेंडा आधारित मौलिक परिवर्तन की राजनीति की ज़रुरत है.
एस. आर. दारापुरी आई. पी. एस. (से. नि. ) तथा राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
भारतवर्ष में उत्तर प्रदेश कई मायनों में अपना एक स्थान रखता है. राजनीतिक दृष्टि से यह पहला राज्य है जहाँ प़र एक दलित महिला चौथी बार मुख्य मंत्री की कुर्सी पर आसीन हुई है. उ. प्र. की आबादी भारत के सभी राज्यों से अधिक है. यहाँ दलितों की सबसे बड़ी आबादी ( ३.५१ करोढ़ ) है जो कि प्रदेश की कुल आबादी का २१.१ प्रतिशत है. दुखदाई बात यह है कि यहीं दलितों पर सब से अधिक उत्पीडन की घटनाएँ घटित होती हैं. यहीं सबसे अधिक बच्चे एवं महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं. इसी प्रदेश में पोलिओ के सबसे अधिक मामले पाए जाते हैं. अब यह देखना होगा कि विकास कि दृष्टि से उत्तर प्रदेश के दलित अन्य प्रदेशों के दलितों की अपेक्षा कहाँ ठहरते हैं. इस का सही मूल्याँकन करने हेतु विकास के निम्नलिखित पहलुओं पर दलितों की स्थिति का अध्ययन करना उचित होगा:-
स्त्री- पुरुष अनुपात
उत्तर प्रदेश के दलितों में महिलायों और पुरुषों का लिंग अनुपात ९०० प्रति हज़ार है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों का यह अनुपात ९३६ है. इसी प्रकार ०-६ वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों का यह अनुपात ९३० है जबकि राष्टीय स्तर पर यह अनुपात ९३८ है.
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि यहाँ के दलित देश के अन्य प्रान्तों के दलितों से इस अनुपात में काफी पीछे हैं जो कि दलित महिलायों और बच्चों की निम्न स्थिति का प्रतीक है इसका मुख्य कारण न केवल लड़कों की वरीयता के कारण है कन्यायों की भ्रूण हत्या है बल्कि महिलायों एवं बालिकाओं के साथ नियोजित भेदभाव एवं कुपोषण भी है.
वर्ष २००५-२००६ में किये गए राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में ४७ प्रतिशत महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं. इसी सर्वेक्षण में पाया गया था कि उत्तर प्रदेश में ४७ प्रतिशत बच्चे भी कुपोषण से ग्रस्त होने के कारण कम वज़न वाले थे जिनमें से १३ प्रतिशत बच्चे मृत्यु का शिकार हो गए और ४६ प्रतिशत बच्चों की शारीरिक बढोतरी बाधित हो चुकी थी. इस सर्वेक्षण से यह भी प्रकट हुआ था कि उत्तर प्रदेश में १००० जीवित प्रसवों में से ७३ मृत प्रसव थे जो कि ९ वर्ष पूर्व के राष्ट्रीय औसत ६७.६ से काफी अधिक थे. हाल में cry संस्था दुआरा कराए गए सर्वेक्षण से पाया गया कि उत्तर प्रदेश में ७० प्रतिशत दलित बच्चे कुपोषण का शिकार हैं.
यद्यपि उपरोक्त आंकड़े सभी महिलायों और बच्चों कि स्थिति दार्शाते हैं परन्तु इनमें दलित महिलायों और बच्चों की स्थिति औ़र भी दयनीय है. इसी कारण इस राज्य में महिलायों और पुरुषों का लिंग अनुपात चिंतनीय है. सामान्य वर्ग और दलित महिलायों और बच्चों की उपरोक्त दुर्दशा के लिए महिला एवं बाल कल्याण सम्बन्धी योजनाओं जैसे समग्र बाल विकास योजना, मध्यान्ह भोजन योजना एवं सार्वजानिक खाद्यान्न वितरण प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं सरकारी मशीनरी दुआरा बरती जा रही उदासीनता जिम्मेवार है.
शिक्षा का स्तर
सन २००१ कि जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में दलितों की साक्षरता दर ४६.३ प्रतिशत है जबकि दलितों का राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा दर ५४.७ प्रतिशत है. पुरुषों एवं, महिलायों की शिक्षा दर क्रमश ६०.३ और ३०.५ प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों की यह दर क्रमश: ६६.६ और ४१.९ प्रतिशत है. इस प्रकार उत्तर प्रदेश के दलित पुरुष एवं महिलाएं साक्षरता दर में भारत के अन्य प्रान्तों के दलितों से काफी पीछे हैं. उत्तर प्रदेश के साक्षर दलितों में से ३८ प्रतिशत ऐसे हैं जिनका शिक्षा का कोई भी स्तर नहीं है. यहाँ अधिकांश दलित बहुत कम पड़े लिखे हैं . प्राईमरी और मिडल स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने वाले दलितों का प्रतिशत क्रमश: २७.१ और १८.५ प्रतिशत है. मैट्रिक, हायर सेकंडरी और स्नातक स्तर तक शिक्षा पाने वाले दलितों का प्रतिशत: केवल ०.१ प्रतिशत है. सेकंडरी से आगे साक्षरों का प्रतिशत दर मिडल पास से लगभग आधा है तथा उससे ऊपर शिक्षितों का अनुपात मैट्रिक पास (८.५ प्रतिशत ) का १/३ है.
वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार उत्तर पदेश में ५ से १४ वश आयु के १ करोढ़ ३३ लाख दलित बच्चों में से केवल ५३.३ लाख यानिकि ५६.४ प्रतिशत बच्चे स्कूल जा ही नहीं रहे थे. इसके विपरीत सरकारी दावा है कि सभी बच्चे स्कूल जा रहे हैं.
स्कूल छोड़ने की दर
बेसिक शिक्षा निदेशालय, उत्तर पदेश दुआरा जारी आंकड़ों के अनुसार १९९१ में बच्चों दुआरा प्राईमरी स्तर पर स्कूल छोड़ने का दर ४५.०२ प्रतिशत है. इस प्रकार हरेक दूसरा बच्चा प्राईमरी शिक्षा पूरी होने से पहले स्कूल छोड़ देता है. लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर ४६.२५ प्रतिशत है जो कि लड़कों की दर से थोड़ी ऊँची है. यह सर्वविदित है कि विभिन्न कारणों से दलित बच्चों की स्कूल छोड़ने की दर सामान्य जातियों के बच्चों से अधिक होती है जिसका सीधा असर दलितों की साक्षरता दर पर पड़ता है. वर्तमान में भी दलित बच्चों का स्कूल छोड़ने की दर सबसे अधिक है.
स्कूलों में छुआछुत
विभिन्न सर्वेक्षणों से यह पाया गया है कि उत्तर प्रदेश में "छुआछुत और जातिगत भेदभाव" बुरी तरह से व्यापत है. इसका प्रकोप प्राईमरी और मिडिल विद्यालयों में मिड-डे मील में भी स्पष्ट दिखाई देता है.सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के अनुसार भोजन पकाने हेतु दलित रसोइओं की वरीयता के अनुसार नियुक्ति करने के आदेश थे परन्तु २००७ में एक सर्वेक्षण में यह पाया गया कि उत्तर प्रदेश में केवल १७ प्रतिशत स्कूलों में ही दलित रसोइओं की नियुक्ति की गयी थी. सरकार दुआरा अपने ही आदेशों को लागू करने में बरती जा रही उदासीनता के कारण काफी स्कूलों में सवर्ण जाति के बच्चों दुआरा दलित रसोइओं दुआरा बनाये गए भोजन का बहिष्कार किया गया. इस परिस्थिति में सरकार से यह अपेक्षा की जाती थी की वह ऐसे मामलों में सखत कार्रवाही करके दलित रसोइओं की नियुक्ति को लागू करवाती परन्तु ऐसा न करके मायावती ने उन की नियुक्ति सम्बन्धी आदेश को ही वापस ले लिया. इस का परिणाम यह है की अधिकतर स्कूलों में दलित रसोइओं को निकाल दिया गया. इस से उत्तर प्रदेश में छुअछुता को खुला बढावा मिला है.
कार्य सहभागिता
वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में दलितों की कार्य सहभागिता दर ३४.७ प्रतिशत है जब कि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों कि कार्य सहभागिता दर (४०.४०) प्रतिशत है जो कि उत्तर प्रदेश में दलितों में व्यापक बेरोज़गारी और गरीबी को दर्शाता है. कार्य सहभागिता का अर्थ नियमित रोज़गार से है.
दलित मजदूरों की श्रेणी
वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार उत्त प्रदेश के दलितों में कुल मजदूरों का ४२.५ प्रतिशत भाग कृषि मजदूरों का है जब कि पूरे भारत में दलितों की यह औसत ४५.६ प्रतिशत है. अन्य मजदूरों की श्रेणी में दलितों की औसत दर ३०.५ प्रतिशत के मुकाबले में उत्तर प्रदेश की यह दर २२.२ प्रतिशत है. उत्तर प्रदेश में घरेलू उद्योग से जुड़े दलितों का प्रतिशत ४.३ प्रतिशा है जबकि राष्ट्रीय सता प् यह औसत ३.९ प्रतिशत है. इस से स्पष्ट है की उत्तर प्रदेश में रोज़गार की बहुत कमी है.
गरीबी रेखा के नीचे दलित
वर्ष २००४-०५ के आंकड़ों के अनुसा उत्तर प्रदेश में गरीबी रेखा के नीचे लोगों का प्रतिशत ३२.८ प्रतिशत है जबकि पूरे भारत में यह दर केवल २७.५ प्रतिशत है. इन में दलितों का प्रतिशत अन्य वर्गों की अपेक्षा काफी अधिक है. एन. एस. एस. ओ. के वर्ष १९९०-२००० के सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में ४४ प्रतिशत दलित गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे थे. वास्तव में दलितों के गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों का औसत ६० प्रतिशत से कम नहीं है.
आर्थिक स्थिति
उत्त प्रदेश कृषि प्रधान प्रदेश है और ८७.७ प्रतिशत दलित ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं. उनमे से ७५ प्रतिशत कृषि मजदूर अथवा सीमांत एवं लघु कृषक के रूप में खेती से जुड़े हुए हैं. पच्छमी उत्तर प्रदेश को छोड़ कर शेष क्षेत्र में कृषि का विकास नगण्य है जिसका असर किसानों के साथ साथ कृषि मजदूरों पर भी पड़ रहा है. इसी कारण उत्त्तर प्रदेश में कृषि में लगे दलितों की संख्या राष्ट्रीय औसत से कम है. वर्ष १९९०-९१ की कृषि जोत जनगणना के अनुसार उ. प्र. के दलित कृषकों में से ४१.७ प्रतिशत सीमांत, लघु और अर्ध मध्यम श्रेणी के तथा केवल २.४ प्रतिशत ही बड़ी जोत के मालिक थे. जोतों के क्षेत्रफल की दृष्टि से ३९.५ प्रतिशत दलित कृषक लघु/ सीमांत/अर्ध मध्यम एवं मध्यम श्रेणी के तथा केवल २.१ प्रतिशत दलित बड़ी जोत के मालिक थे. इस प्रकार दलितों के पास कुल जोत का १६.३ प्रतिशत तथा कुल जोत क्षेत्रफल का १०.५ प्रतिशात ही था जोकि उनकी २१.१५ प्रतिशा आबादी के मुकाबले में बहुत ही कम है. दलितों की जोत का औसत क्षेत्रफल ०.६० हेक्टेअर है. इस से स्पष्ट है कि उत्त प्रदेश में अधिकतर दलित भूमिहीन हैं.
वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार उ.प्र. के ३०.९ प्रतिशत दलित काश्तकार की श्रेणी में हैं जबकि १९९१ कि जनगणना में यह प्रतिशत ४२.६३ था. इस प्रकार १९९१ से वर्ष २००१ के दशक में लगभग १२ प्रतिशत दलित काश्तकार की श्रेणी से गिर क़र भूमिहीन की श्रेणी में आ गए हैं. यह स्थिति दलितों के सश्क्तिकर्ण की बजाये उनके अशक्तिकर्ण को दर्शाती है. दलितों के भूमि से इस वन्चितिकरण का एक कारण सरकारी कल्याणकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार के कारण उनका का लाभ प्राप्त न होना और बेरोज़गारी है क्योंकि वर्तमान में कल्याणकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार में कोई कमी आने की बजाये उसमे बढोतरी ही हुई है. इस के साथ ही रोजगार के कोई अवसर भी पैदा नहीं हुए हैं. मजदूर परिवारों को नरेगा में १०० दिन का रोजगार देने वाली योजना का यह हाल है कि पिछले वर्षों में ग्रामीण मजदूरों को केवल ८ दिन का रोज़गार ही मिला था जैसाकि केग की रिपोर्ट में है. मायावती ने तो २००७ में प्रधान मंत्री बनने पर इस योजना को ही ख़तम कर देने की घोषणा कर दी थी. मनरेगा में व्यापक भ्रष्टाचार किसी से छुपा नहीं है और मायावती इस को रोकने में बिलकुल असफल रही हैं जिसका खमियाजा दलितों को भुगतना पड़ रहा है.
पिछले ३६ वर्षों से उ.प्र.में दलितों सहित अन्य भूमिहीनों को थोड़ी थोड़ी ज़मीन आबंटित की जाती रही है . एक तो यह भूमि अधिकतर अनुपजाऊ तथा बंजर किस्म की रही है. दूसरी ओर अधिकतर आबंटियों को इन पर कब्ज़े ही नहीं मिले. इस का एक सब से बढ़िया उदाहरन हरदोई जनपद के दलितों दुआरा विधान भवन के सामने किये गये धरने एवं अनशन का है. उनकी शिकायत थी कि उन्हें 32 वर्ष पूर्व मिले भूमि पटटों का आज तक कब्ज़ा नहीं मिला है. उनकी भूमि प़र कब्ज़ा करने वाले सवर्णों को उस क्षेत्र के बसपा विधायक का संरक्षण प्राप्त है. बहुत दिन तक धरना और अनशन के बाद उन्हें कहीं कब्ज़ा मिल सका. ऐसी स्थिति पूरे उ.प्र. में है. दलितों के पटटों पर दबंगों के कब्ज़े हैं परन्तु मायावती अपने सर्वजन समाज को नाराज़ नहीं करना चाहती. अत: दलितों के पट्टे आज भी दबंगों के कब्जे में हैं और दलितों की कोई सुनवाई नहीं है.
दलित उत्पीडन में उत्तर प्रदेश सब से आगे
यह सर्वविदित है कि दलित उत्पीडन के मामले में उ.प्र. भारत में प्रथम स्थान रखता है. यह स्थिति राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो दुआरा वर्ष २०१० की र्रेपोर्ट से भी प्रकट होती है. इसका मुख्य कारण उ.प्र. में दलितों की बड़ी आबादी, सामंती सामाजिक व्यस्था तथा सरकार दुआरा उत्पीडन के मामलों की उपेक्षा है. उ.प्र. में यह पुरानी परम्परा रही है कि जो भी मुख्य मंत्री आता है वह अपने काल में अपराध के आंकड़े अपने पूर्व वाले मुख्य मंत्री के काल से कम कर के दिखाता है. मायावती भी इस का कोई अपवाद नहीं है. मायावती ने तो वर्ष १९९५ में अपने प्रथम मुख्य मंत्री काल में अपराध के आंकड़ों को लेकर पुलिस अधिकारियों को निलंबित और स्थानान्तित करके तहलका मचा दिया था. इसके बाद तो उन्होंने दलित उत्पीडन को रोकने के ध्येय से बनाये गए केन्द्रीय अधिनियम ( अनुसूचित जाति/ जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम १९८९ ) को लागू न करने का सरकारी आदेश जारी करके इस प़र रोक ही लगा दी थी. बाद में इस का बहुत विरोध होने और मामला हाई कोर्ट पहुँचने पर उसे वापस लिया गया परन्तु व्यव्हार में यह आदेश अब भी लागू है. इस समय इस एक्ट के दुरूपयोग को रोकने के नाम पर मायावती का मौखिक आदेश है कि इस एक्ट का प्रयोग केवल हत्या और बलात्कार के मामलों में ही किया जाये और वह भी डाक्टरी परीक्षण के बाद. दलित उत्पीडन के शेष १९ प्रकार के मामलों में यह लागू नहीं किया जाये. इस के कारण उ.प्र. में दलितों पर बराबर अत्याचार हो रहे हैं परन्तु पुलिस इस एक्ट के अंतर्गत मुकदमे दर्ज नहीं करती और दबंग अत्याचार करने के लिए स्वतन्त्र हैं. पुलिस अपराध के आंकड़े कम रखने के कारण दलित उत्पीडन की रिपोर्ट नहीं लिखती. इससे उत्तर प्रदेश के दलित न केवल सामंतों दुआरा किये जा रहे उत्पीडन को झेलने के लिए बाध्य हैं बल्कि उत्पीडन का शिकार होने पर मिलने वाली आर्थिक सहायता से भी वंचित रह रहे हैं.
वर्ष २००७ में समाचार पत्रों में दलित महिलायों के बलात्कार के छपे मामलों के अध्ययन के अनुसार वर्ष २००७ में दलित महिलायों के बलात्कार के ११० मामलों में से पुलिस दुआरा केवल ५० प्रतिशत मामले ही दर्ज किये गए थे. बलात्कार के इन मामलों में से ८५ प्रतिशत मामले नाबालिग दलित लड़कियों के साथ थे. इसी प्रकार बलात्कार के बाद हत्या के १९ मामलों में से ५० %, हत्या में से २५% , शीलभंग में से ७१%, तथा अपहरण में से ८०% मामले दर्ज ही नहीं किये गए थे. ऐसी ही स्थिति उत्पीडन के अन्य मामलों की भी है. वास्तव में मायावती सवर्ण वोटों के चक्कर में इस एक्ट को लागू करके उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहती है जिस का खामिआज़ा दलितों को भुगतना पड़ रहा है.
देश के अन्य राज्यों के दलितों से तुलना करने पर यह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश के दलित बिहार और ओढिसा के दलितों को छोड़कर विकास के सभी मानकों पर अन्य राज्यों के दलितों से पिछड़े हुए हैं. यह भी विदित है कि मायावती १९९५ से लेकर अब तक चौथी बार उ.प्र. की मुख्य मंत्री बनी है परन्तु इस काल में दलितों कि स्थिति में कोई भी सुधार नहीं हुआ है. इसके विपरीत दलितों की आर्थिक स्थिति पहले से बदतर हुई है. क्या उ.प्र. के दलितों के पिछड़ेपन के लिए मायावती को काफी हद तक जुम्मेदार नहीं माना जाना चाहिए? यह सर्वविदित है कि मायावती ने न तो पहले और न इस बार भी दलितों एवं प्रदेश का विकास का कोई एजेंडा बनाया. विकास की किसी भी अवधारणा के अभाव में न तो प्रदेश का और न ही दलितों का कोई विकास हुआ.
राज्य सरकार के बजट का काफी बड़ा हिस्सा गैर योजनागत व्यय पर लगाया गया है. कई अरब की धन राशी भव्य समारोहों, स्मारकों. एवं अपनी मूर्तिओं सहित अन्य मूर्तियों प़र खर्च की गयी जबकि यह धनराशी प्रदेश के विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य कल्याणकारी योजनाओं प़र खर्च की जा सकती थी. मायावती सरकार दुआरा प्रतीकों की राजनीति करने से दलितों का कुछ भावनात्मिक तुष्टिकरण तो हुआ परन्तु उनका कोई भी विकास नहीं हुआ. व्यापक भ्रष्टाचार के कारण उन्हें कल्याणकारी योजनाओं का भी कोई लाभ नहीं ,मिल सका .
पिछले वर्ष के ट्रांसपेरेंसी इंटरनॅशनल संस्था दुआरा किये गए विवेचन से यह पाया गया था कि भ्रष्टाचार के मामले में उ.प्र. चिंतनीय दशा से भ्रष्ट राज्य है. प्रदेश में सर्वत्र विकास का अभाव इस का दुष्परिनाम है. परदेश के दो बड़े नेता- मुलायम सिंह तथा मायावाती भ्रष्टाचार के मामलों में आरोपित हैं. मुलायम सिंह के विरुद्ध तो अभी जांच चल ही रही है पान्तु मायावती के खिलाफ तो विवेचना पूरी हो चुकी है. उसके विरुद्ध ताज कोरिडोर का मामला इलाहाबाद उच्च न्यायलय तथा ३० करोड़ की अवैध संपत्ति में आरोप पत्तर दाखिल करने का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है जिस पर अगले साल के फरवरी माह की प्रथम तारीख को आरोप पत्तर दाखिल करने का आदेश होने की सम्भावना है. इस पर मायावती को ज़मानत कराने के लिए अदालत में समर्पण करना होगा और उस समय उसकी जेल जाने की नौबत भी आ सकती है.
मायावती के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का असर उ.प्र. की राजनीति और नौकरशाही पर भी पड़ा है. यही कारण है कि प्रदेश में घोर भ्रष्टाचार व्याप्त है. सभी कल्याणकारी योजनायें जैसे मनरेगा, राशन वितरण प्रणाली, बाल विकास, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, विधवा पेंशन, वृदा पेंशन, जननी सुरक्षा योजना आदि घोर भ्रष्टाचार का शिकार हो गयीं हैं जिससे न केवल दलित बल्कि सभी लोग इनके वांछित लाभ से वंचित रह गए हैं . शिक्षा एवं स्वास्थ्य मायावती सरकार के सब से कम वरीयता वाले क्षेत्र रहे हैं. २००९ के चुनाव के समय मायावती देश का प्रधान मंत्री का सपना देख रही थीं जो पूरा नहीं हुआ और चुनाव में बड़ी मुश्किल से २० सीटें ही मिल पायीं. अब तो २०११ के चुनाव में उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने की भी कोई सम्भावना नहीं है जैसा कि जनता की आवाज़ सुनाई पड़ रही है.
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है की उत्तर प्रदेश के दलितों की अधोगति के लिए मायावती को काफी हद तक जुम्मेवार ठहराया जा सकता है जोकि उसके व्यक्तिगत भ्रष्टाचार और सिधांतहीन राजनीति का ही दुष्परिणाम है. उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश के दलित भी अब समझ गए होंगे कि केवल किसी भी तरह से सत्ता पा लेने से ही समस्याएँ हाल नहीं हो जातीं. उसके लिए डॉ. आंबेडकर जैसी सैधांतिक तथा एजेंडा आधारित मौलिक परिवर्तन की राजनीति की ज़रुरत है.
सोमवार, 19 दिसंबर 2011
चमारों की गली -अदम गोंडवी
चमारों की गली
-अदम गोंडवी
आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गयी फुलिया बिचारी इक कुएं में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबरायी हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलायी हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाये खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोयी हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेखबर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गयी
छटपटायी पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गयी
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज में
होश में आयी तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गयी थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आखिर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पांव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे जिंदा उनको छोड़ेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करें
बोला कृष्ना से – बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गयी इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गये थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लंबी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या जमाना आ गया
कल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस में मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गंवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गयी
जाने-अनजाने वो लज्जत जिंदगी की पा गयी
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गयी
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गांव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूंछों पर गये माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक था आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हां, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफान वह पुर जोर था
भोर होते ही वहां का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
“जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आये सामने”
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलायी दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर “माल वो चोरी का तूने क्या किया”
“कैसी चोरी माल कैसा” उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
“मेरा मुंह क्या देखते हो! इसके मुंह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूंक दो”
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहां चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहां खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे
“कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूं कोई कहीं जाए नहीं”
यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े “इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा”
इक सिपाही ने कहा “साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें”
बोला थानेदार “मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है”
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
“कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल”
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूं आएं मेरे गांव में
तट पे नदियों की घनी अमराइयों की छांव में
गांव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्णा रोटी के लिए!
-अदम गोंडवी
आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गयी फुलिया बिचारी इक कुएं में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबरायी हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलायी हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाये खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोयी हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेखबर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गयी
छटपटायी पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गयी
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज में
होश में आयी तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गयी थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आखिर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पांव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे जिंदा उनको छोड़ेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करें
बोला कृष्ना से – बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गयी इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गये थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लंबी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या जमाना आ गया
कल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस में मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गंवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गयी
जाने-अनजाने वो लज्जत जिंदगी की पा गयी
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गयी
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गांव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूंछों पर गये माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक था आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हां, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफान वह पुर जोर था
भोर होते ही वहां का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
“जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आये सामने”
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलायी दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर “माल वो चोरी का तूने क्या किया”
“कैसी चोरी माल कैसा” उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
“मेरा मुंह क्या देखते हो! इसके मुंह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूंक दो”
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहां चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहां खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे
“कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूं कोई कहीं जाए नहीं”
यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े “इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा”
इक सिपाही ने कहा “साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें”
बोला थानेदार “मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है”
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
“कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल”
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूं आएं मेरे गांव में
तट पे नदियों की घनी अमराइयों की छांव में
गांव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्णा रोटी के लिए!
भूख के एहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो
भूख के एहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो गजल माशूक के जल्वों से वाकिफ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
मुझको नज्मो-जब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो
गंगाजल अब बूर्जुआ तहजीब की पहचान है
तिशनगी को वोदका के आचमन तक ले चलो
खुद को जख्मी कर रहे हैं गैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बांकपन तक ले चलो
-अदम गोंडवी
भूख के एहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो गजल माशूक के जल्वों से वाकिफ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
मुझको नज्मो-जब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो
गंगाजल अब बूर्जुआ तहजीब की पहचान है
तिशनगी को वोदका के आचमन तक ले चलो
खुद को जख्मी कर रहे हैं गैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बांकपन तक ले चलो
-अदम गोंडवी
गलतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले
हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िए
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए
गलतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िए
हैं कहां हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज खां
मिट गये सब, कौम की औकात को मत छेड़िए
छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िए
गलतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले
-अदम गोंडवी
हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िए
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए
गलतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िए
हैं कहां हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज खां
मिट गये सब, कौम की औकात को मत छेड़िए
छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िए
गलतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले
-अदम गोंडवी
चाँद है जेरे कदम सूरज खिलौना हो गया
चाँद है जेरे कदम सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर दौर में किरदार बौना हो गया
शहर के दंगों में जब भी मुफलिसों के घर जले
कोथिओं कि लान का मंज़र सलोना हो गया
ढो रहा है आदमी कंधे पे खुद अपनी सलीब
ज़िन्दगी का फलसफा जब भोज ढोना हो गया
यूँ तो अदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास
रूह उरियां क्या हुई मौसम घिनौना हो गया
अब किसी लैला को भी इकरारे-महबूबी नहीं
इस अहद में प्यार का सिम्बल तिकोना हो गया
अदम गोंडवी
चाँद है जेरे कदम सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर दौर में किरदार बौना हो गया
शहर के दंगों में जब भी मुफलिसों के घर जले
कोथिओं कि लान का मंज़र सलोना हो गया
ढो रहा है आदमी कंधे पे खुद अपनी सलीब
ज़िन्दगी का फलसफा जब भोज ढोना हो गया
यूँ तो अदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास
रूह उरियां क्या हुई मौसम घिनौना हो गया
अब किसी लैला को भी इकरारे-महबूबी नहीं
इस अहद में प्यार का सिम्बल तिकोना हो गया
अदम गोंडवी
रविवार, 18 दिसंबर 2011
विनम्र श्रद्धांजलि
Kavi Pankaj Angaar kabirism
चट्टानों सी सख्त थी जिसकी हर इक बात
गुज़र गया संसार से ख़ामोशी के साथ .........
गाया जिसने जाग कर इन रातों का दर्द ......
एक सितारा भी नहीं था उसका हमदर्द .......
लज्जित हो स्वीकारते पंकज हम यह पाप.....
हमने भी बिसरा दिया .उनका हर संताप
ग़ज़लें बौराई फिरें शब्द पड़े बेहोश
मिली दुखद ये सूचना अदम हुए खामोश
विनम्र श्रद्धांजलि
Kavi Pankaj Angaar kabirism
चट्टानों सी सख्त थी जिसकी हर इक बात
गुज़र गया संसार से ख़ामोशी के साथ .........
गाया जिसने जाग कर इन रातों का दर्द ......
एक सितारा भी नहीं था उसका हमदर्द .......
लज्जित हो स्वीकारते पंकज हम यह पाप.....
हमने भी बिसरा दिया .उनका हर संताप
ग़ज़लें बौराई फिरें शब्द पड़े बेहोश
मिली दुखद ये सूचना अदम हुए खामोश
विनम्र श्रद्धांजलि
जो'डलहौजी' न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
जो 'डलहौजी' न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे
सूरा औ सुंदरी के शौक में डूबे हुए रहबर
ये दिल्ली को रंगीले शाह का हम्माम कर देंगे
ये वन्देमातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीजों के दुगने दाम कर देंगे
सदन में घूस देकर बच गयी कुर्सी तो देखोगे
ये अगली योजना में घूस खोरी आम कर देंगे
-Adam Gondvi=Shri Ramnath Singh
जो 'डलहौजी' न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे
सूरा औ सुंदरी के शौक में डूबे हुए रहबर
ये दिल्ली को रंगीले शाह का हम्माम कर देंगे
ये वन्देमातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीजों के दुगने दाम कर देंगे
सदन में घूस देकर बच गयी कुर्सी तो देखोगे
ये अगली योजना में घूस खोरी आम कर देंगे
-Adam Gondvi=Shri Ramnath Singh
न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से
कि अब मर्क़ज़ में रोटी है, मुहब्बत हाशिये पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से
अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से
बहारे-बेकिराँ में ता-क़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से
अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को क़रीने से.
-ADAM GONDVI
न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से
कि अब मर्क़ज़ में रोटी है, मुहब्बत हाशिये पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से
अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से
बहारे-बेकिराँ में ता-क़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से
अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को क़रीने से.
-ADAM GONDVI
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।।
भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी।
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।
बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है।।
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे।
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।
ADAM GONDVI
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।।
भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी।
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।
बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है।।
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे।
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।
ADAM GONDVI
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है
लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है
तुम्हारी मेज चाँदी की तुम्हारे ज़ाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है
ADAM GONDVI
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है
लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है
तुम्हारी मेज चाँदी की तुम्हारे ज़ाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है
ADAM GONDVI
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है
रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बतलाएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है
- ADAM GONDVI
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है
रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बतलाएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है
- ADAM GONDVI
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
काजू भुने पलेट में, व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह
जो आ गये फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहां की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूं मैं होशो-हवास में
Adam Gondvi
काजू भुने पलेट में, व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह
जो आ गये फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहां की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूं मैं होशो-हवास में
Adam Gondvi
आदम गोंडवी एक मूल्यांकन
“आइए और महसूस कीजिए जिंदगी के ताप को,
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको,
जिस गली में भुखमरी की यातना से उबकर,
मर गई फुलिया बिचारी कल कुएं में डूबकर।”
ये लाइनें अदम गोंडवी की लिखी “चमारों की गली” की हैं जिसे हमने पढ़ा, गाया, अभिनय भी किया बस जी नहीं पाए। अदम ने इसे जीकर लिखा था। अदम की लिखी मुक्ति प्रकाशन से छपी किताब “धरती की सतह” पर इस वक्त पुरानी फाइल में लगे फोटोस्टेट पन्नों की शक्ल में सामने पड़ी है। अदम कह रहे हैं-
“वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है,
उसी के दम पर रौनक आपके बंगले में आई है।
इधर इक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का,
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है।“
अदम चेता रहे हैं—
“गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे,
क्या इससे किसी कौम की तकदीर बदल दोगे,
तारीख बताती है तुम भी तो लुटेरे हो,
क्या द्राविड़ों से छीनी जागीर बदल दोगे।“
अदम भड़क उठे हैं—
“जितने हरामखोर थे कुर्बो-जवार में,
परधान बनके आ गये अगली कतार में,
बंजर जमीन पट्टे में जो दे रहे हैं आप,
ये रोटी का टुकड़ा है मियादी बुखार में।“
अदभुत व्यंग है अदम का—
“महज तनख्वाह से निबटेंगे क्या नखरे लुगाई के,
हजारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के।
मिसेज सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं,
पिछली बाढ़ के तोहफे हैं, ये कंगन कलाई के।“
अदम की आंखों से देखिए—
“आप कहते हैं सरापा गुलमोहर है जिंदगी,
हम गरीबों की नजर मे इक कहर है जिंदगी,
दफ्न होता है जहां आकर नई पीढ़ी का प्यार,
शहर की गलियों का वो गंदा गटर है जिंदगी।“
अदम की अब मान भी लीजिए—
“हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए,
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेडिए।
गलतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यूं जले,
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िए।“
अदम को कितने डिबेट, कितने नाटकों, कितनी तकरीरों, कितने निबंधों में, जिंदगी के कितने लम्हों में, कहां कहां नहीं पाया था। मुझे जैसे कितने ही नौजवानों की जान थे अदम। अदम की जिंदगी को उन्हें जीने वालों का सलाम। बस खला इतना ही है कि अदम के बाद अब कौन बताएगा —
“बजाहिर प्यार की दुनिया में जो नाकाम होता है,
कोई रुसो, कोई हिटलर, कोई खैयाम होता है।”
अदम गोंडवी
“आइए और महसूस कीजिए जिंदगी के ताप को,
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको,
जिस गली में भुखमरी की यातना से उबकर,
मर गई फुलिया बिचारी कल कुएं में डूबकर।”
ये लाइनें अदम गोंडवी की लिखी “चमारों की गली” की हैं जिसे हमने पढ़ा, गाया, अभिनय भी किया बस जी नहीं पाए। अदम ने इसे जीकर लिखा था। अदम की लिखी मुक्ति प्रकाशन से छपी किताब “धरती की सतह” पर इस वक्त पुरानी फाइल में लगे फोटोस्टेट पन्नों की शक्ल में सामने पड़ी है। अदम कह रहे हैं-
“वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है,
उसी के दम पर रौनक आपके बंगले में आई है।
इधर इक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का,
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है।“
अदम चेता रहे हैं—
“गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे,
क्या इससे किसी कौम की तकदीर बदल दोगे,
तारीख बताती है तुम भी तो लुटेरे हो,
क्या द्राविड़ों से छीनी जागीर बदल दोगे।“
अदम भड़क उठे हैं—
“जितने हरामखोर थे कुर्बो-जवार में,
परधान बनके आ गये अगली कतार में,
बंजर जमीन पट्टे में जो दे रहे हैं आप,
ये रोटी का टुकड़ा है मियादी बुखार में।“
अदभुत व्यंग है अदम का—
“महज तनख्वाह से निबटेंगे क्या नखरे लुगाई के,
हजारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के।
मिसेज सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं,
पिछली बाढ़ के तोहफे हैं, ये कंगन कलाई के।“
अदम की आंखों से देखिए—
“आप कहते हैं सरापा गुलमोहर है जिंदगी,
हम गरीबों की नजर मे इक कहर है जिंदगी,
दफ्न होता है जहां आकर नई पीढ़ी का प्यार,
शहर की गलियों का वो गंदा गटर है जिंदगी।“
अदम की अब मान भी लीजिए—
“हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए,
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेडिए।
गलतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यूं जले,
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िए।“
अदम को कितने डिबेट, कितने नाटकों, कितनी तकरीरों, कितने निबंधों में, जिंदगी के कितने लम्हों में, कहां कहां नहीं पाया था। मुझे जैसे कितने ही नौजवानों की जान थे अदम। अदम की जिंदगी को उन्हें जीने वालों का सलाम। बस खला इतना ही है कि अदम के बाद अब कौन बताएगा —
“बजाहिर प्यार की दुनिया में जो नाकाम होता है,
कोई रुसो, कोई हिटलर, कोई खैयाम होता है।”
अदम गोंडवी
क्या देश आजाद है?
-अदम गोंडवी
सौ में सत्तर आदमी
फिलहाल जब नाशादहैं
दिल पे रखकर हाथ कहिये
देश क्या आजाद है? सौ में सत्तर …
कोठियों से मुल्क के
मेयार को मत आंकिये
असली हिंदुस्तान तो
फुटपाथ पर आबाद है । सौ में सत्तर आदमी ….
सत्ताधारी लड़ पड़े हैं
आज कुत्तों की तरह
सूखी रोटी देखकर
हम मुफ्लिसों के हाथ में! सौ में सत्तर आदमी …
जो मिटा पाया न अब तक
भूख के अवसाद को
दफन कर दो आज उस
मफ्लूक पूंजीवाद को । सौ में सत्तर आदमी…
बूढ़ा बरगद साक्षी है
गांव की चौपाल पर
रमसुदी की झोंपड़ी भी
ढह गई चौपाल में । सौ में सत्तर आदमी…
जिस शहर के मुन्तजिम
अंधे हों जलवागाह के
उस शहर में रोशनी की
बात बेबुनियाद है । सौ में सत्तर आदमी…
जो उलझ कर रह गई है
फाइलों के जाल में
रोशनी वो गांव तक
पहुँचेगी कितने साल में । सौ में सत्तर आदमी…
शनिवार, 17 दिसंबर 2011
डॉ. अम्बेडकर एवं श्रमिक वर्ग
डॉ. अम्बेडकर एवं श्रमिक वर्ग
एस. आर. दारापुरी(आई. पी. एस. से0 नि0)
बाबा साहब डॉ.भीम राव अम्बेडकर न केवल महान कानूनविद, प्रख्यात समाज शास्त्री एवं अर्थशास्त्री ही थे वरन वे दलित वर्ग के साथ-साथ श्रमिक वर्ग के भी उद्धारक थे। बाबा साहब स्वयं एक मजदूर नेता भी थे। अनेक सालों तक वे मजदूरों की बस्ती में रहे थे। इसलिये उन्हें श्रमिकों की समस्याओं की पूर्ण जानकारी थी। साथ ही वे स्वयं एक माने हुए अर्थशास्त्री होने के कारण उन स्थितियों के सुलझाने के तरीके भी जानते थे। इसी लिये उनके द्वारा सन 1942 से 1946 तक वायसराय की कार्यकारिणी में श्रम मंत्री के समय में श्रमिकों के लिये जो कानून बने और जो सुधार किये गये वे बहुत ही महत्वपूर्ण एवं मूलभूत स्वरुप के है।
डॉ. भीम राव अम्बेडकर की श्रमिक वर्ग के अधिकारों एवं कल्याण के प्रति चिन्ता उन शब्दों से परिलक्षित होती है जो उन्होंने 9 सितम्बर, 1943 को प्लेनरी, लेबर परिषद के सामने उद्योगीकरण पर भाषण देते हुए कहे थे, "पूंजीवादी संसदीय प्रजातंत्र व्यवस्था में दो बातें अवश्य होती हैं। जो काम करते हैं उन्हें गरीबी से रहना पड़ता है और जो काम नही करते उनके पास अथाह दौलत जमा हो जाती है। एक ओर राजनीतिक समता और दूसरी ओर आर्थिक विषमता । जब तक मजदूरों को रोटी कपड़ा और मकान, निरोगी जीवन नहीं मिलता एवं विशेष रुप से जब तक के सम्मान के साथ अपना जीवन यापन नहीं कर सकते, तब तक स्वाधीनता कोई मायने नहीं रखती। हर मजदूर को सुरक्षा और राष्ट्रीय सम्पत्ति में सहभागी होने का आश्वाशन मिलना आवश्यक है।"
उनका ध्यान इस बात पर था कि श्रम का मूल्य बढ़े। इसके अतिरिक्त बाबा साहब ने दिसम्बर 1945 के प्रथम सप्ताह में श्रम अधिकारियों की एक विभागीय बैठक जो बम्बई सचिवालय में सम्पन्न हुई थी, का उदघाटन करते हुए कहा, "कि औद्योगिक झगड़े टालने के लिये तीन बातें आवश्यक है। १-समुचित संगठन, 2. कानून में आवश्यक सुधार, और 3. श्रमिकों के न्यूनतम वेतन का निर्धारण। औद्योगिक शांति सत्ता के बल पर नहीं वरन न्याय नीति के तत्वों पर आधारित होनी चाहिये। श्रमिकों को अपने कर्तव्यों की पहचान होनी चाहिए। मालिकों को भी मजदूरों को उचित वेतन देना चाहिये। साथ ही, सरकार और श्रमिक समाज को भी अपने आपसी संबंध सौहार्दपूर्ण बनाए रखने की लगन से कोशिश चाहिए ।
उपरोक्त संक्षिप्त उद्धरणों से स्पष्ट हैं कि बाबा साहब को मजदूर वर्ग की समस्याओं की कितनी गहरी जानकारी थी। इन समस्याओं के निराकरण के लिए उन्होंने अपने श्रम मंत्री के चार वर्ष के संक्षिप्त काल में कई एतिहासिक श्रम कानून बनाए जिनका मुख्य उद्देश्य मजदूरों को कानूनी अधिकार दिलाना, उनका कल्याण सुनिश्चत करना तथा औद्योगिक झगड़ों के निपटारे हेतु स्थाई व्यवस्था करना था।
एस. आर. दारापुरी(आई. पी. एस. से0 नि0)
बाबा साहब डॉ.भीम राव अम्बेडकर न केवल महान कानूनविद, प्रख्यात समाज शास्त्री एवं अर्थशास्त्री ही थे वरन वे दलित वर्ग के साथ-साथ श्रमिक वर्ग के भी उद्धारक थे। बाबा साहब स्वयं एक मजदूर नेता भी थे। अनेक सालों तक वे मजदूरों की बस्ती में रहे थे। इसलिये उन्हें श्रमिकों की समस्याओं की पूर्ण जानकारी थी। साथ ही वे स्वयं एक माने हुए अर्थशास्त्री होने के कारण उन स्थितियों के सुलझाने के तरीके भी जानते थे। इसी लिये उनके द्वारा सन 1942 से 1946 तक वायसराय की कार्यकारिणी में श्रम मंत्री के समय में श्रमिकों के लिये जो कानून बने और जो सुधार किये गये वे बहुत ही महत्वपूर्ण एवं मूलभूत स्वरुप के है।
डॉ. भीम राव अम्बेडकर की श्रमिक वर्ग के अधिकारों एवं कल्याण के प्रति चिन्ता उन शब्दों से परिलक्षित होती है जो उन्होंने 9 सितम्बर, 1943 को प्लेनरी, लेबर परिषद के सामने उद्योगीकरण पर भाषण देते हुए कहे थे, "पूंजीवादी संसदीय प्रजातंत्र व्यवस्था में दो बातें अवश्य होती हैं। जो काम करते हैं उन्हें गरीबी से रहना पड़ता है और जो काम नही करते उनके पास अथाह दौलत जमा हो जाती है। एक ओर राजनीतिक समता और दूसरी ओर आर्थिक विषमता । जब तक मजदूरों को रोटी कपड़ा और मकान, निरोगी जीवन नहीं मिलता एवं विशेष रुप से जब तक के सम्मान के साथ अपना जीवन यापन नहीं कर सकते, तब तक स्वाधीनता कोई मायने नहीं रखती। हर मजदूर को सुरक्षा और राष्ट्रीय सम्पत्ति में सहभागी होने का आश्वाशन मिलना आवश्यक है।"
उनका ध्यान इस बात पर था कि श्रम का मूल्य बढ़े। इसके अतिरिक्त बाबा साहब ने दिसम्बर 1945 के प्रथम सप्ताह में श्रम अधिकारियों की एक विभागीय बैठक जो बम्बई सचिवालय में सम्पन्न हुई थी, का उदघाटन करते हुए कहा, "कि औद्योगिक झगड़े टालने के लिये तीन बातें आवश्यक है। १-समुचित संगठन, 2. कानून में आवश्यक सुधार, और 3. श्रमिकों के न्यूनतम वेतन का निर्धारण। औद्योगिक शांति सत्ता के बल पर नहीं वरन न्याय नीति के तत्वों पर आधारित होनी चाहिये। श्रमिकों को अपने कर्तव्यों की पहचान होनी चाहिए। मालिकों को भी मजदूरों को उचित वेतन देना चाहिये। साथ ही, सरकार और श्रमिक समाज को भी अपने आपसी संबंध सौहार्दपूर्ण बनाए रखने की लगन से कोशिश चाहिए ।
उपरोक्त संक्षिप्त उद्धरणों से स्पष्ट हैं कि बाबा साहब को मजदूर वर्ग की समस्याओं की कितनी गहरी जानकारी थी। इन समस्याओं के निराकरण के लिए उन्होंने अपने श्रम मंत्री के चार वर्ष के संक्षिप्त काल में कई एतिहासिक श्रम कानून बनाए जिनका मुख्य उद्देश्य मजदूरों को कानूनी अधिकार दिलाना, उनका कल्याण सुनिश्चत करना तथा औद्योगिक झगड़ों के निपटारे हेतु स्थाई व्यवस्था करना था।
शनिवार, 10 दिसंबर 2011
भारत के गाँव : वर्तमान और भविष्य
एस. आर. दारापुरी
साक्षात्कार: शाह नवाज़
25 Sep,2011
1.क्या देश को गांवों की जररूत है?
हाँ, भारत को गावों की जरुरत है क्योकि भारत की 80% आबादी गावों में ही रहती है. भारत को गाँव का देश भी कहा जाता है. यह बात अलग है कि भारत के गाँव अति पिछड़े हुए हैं. डॉ. आंबेडकर ने इन्हें अज्ञानता के गढ़ कहा था . उनका यह भी सुझाव था कि गाँव को उजाड़ क़र इनके स्थान पर नगर बसाए जाने चाहिए. उनकी यह बात बहुत क्रन्तिकारी थी परन्तु यह व्यवहारिक नहीं थी.
2.भूमंडलीकृत भारत का गांव कैसा होगा ?
भूमंडलीकृत भारत में गाँव अति पिछड़े हुए होंगे क्योंकि भूमंडलीकृत विकास में गाँव के विकास की कोई भी योजना नहीं है. इसमें तो बड़े शहरों और नगरों के विकास की ही अवधारणा है. गाँव से विस्थापन होगा और लोग गाँव से शहर की ओर पलायन करेंगे. किसान अपनी ज़मीन बेचकर भूमिहीन मजदूर की श्रेणी में आ जायेंगे क्योंकि खेती को जानबूझ क़र अलाभकारी बनाया जा रहा ह. किसानों की खेती की जगह कारपोरेट खेती ले लेगी.ै. किसानों की ज़मीन सेज या विकास की योजनाओ के नाम पर हडप ली जाएँगी. कृषि मजदूर भी बेरोजगार हो जायेंगे. ग्रामीण कारीगरों के धंधे भी छिन जायेंगे. इस का दलितों और समाज के अन्य कमज़ोर तबकों पर बहुत बुरा असर पड़ेगा.
.
3.केंद्रीकृत विकास में गांवों की मृत्यु अनिवार्य नहीं है ?
हाँ केंद्रीकृत विकास में गाँव की मृत्यु अनिवार्य है क्योंकि गाँव का स्थान नए नगर और नए शहर ले लेंगें. गाँव से शहरों कि ओर पलायन होगा. खेती का नष्ट होना स्वाभाविक है क्योंकि सरकार किसानी ख़तम करके कारपोरेट खेती को बढावा दे रही है. सरकार जiन बुझ कर गाँव में बुनियादी सुविधाएँ नहीं दे रही है ताकि लोग शहरों कि ओर भागें. पूरी विकास कि प्रकिर्या में एक शहरी पूर्वाग्रह है जिस कारण गाँव के विकास में अनुपातिक संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जाते. परिणाम स्वरूप विकास कि दौड में गाँव पिछड़ रहे हैं.
4.क्या गांव को बचाने का स्वप्न कहीं शेष है ?
हाँ केवल कुछ लोगों में ही गांव को बचाने का स्वप्न शेष है . अधिकतार गाँव वाले भी गाँव के विनाश से बेखबर हैं. दरअसल उन्हें जीवित रहने कि लड़ाई में इस के बारे में सोचने कि फुर्सत ही नहीं है. वे गाँव के साथ किये जा धोखे और लूट से बेखबर हैं. उन्हें अपनी बदहाली शहर कि चकाचौंध कि ओर आकर्षित कर रही है और वे मन्त्र मुग्ध हो कर शहर कि खींचे चले जा रहे हैं.
5.आपकी नजरों का गांव कैसा है ?
मेरे विचार में गाँव का वैसा ही विकास होना चाहिए जैसा कि शहरों का किया जा रहा है. खेती को उन्नत करके इसे लाभकारी बनाया जाए. गाँव में ही खेती आधारित उद्योग तथा ग्रामीण उद्योगों को बढावा दिया जाए.गाँव में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराई जाएँ. गाँव से शहरों कि ओर पलायन रोकने हेतु गाँव में ही रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए जाएँ जैसा कि चीन आदि में किया गया है. गाँव के लोगों के धार्मिक अंध विश्वास ख़तम करने हेतु शिक्षा और वैज्ञानिक सोच को बढावा दिया जाए. गाँव में सामाजिक बुराइयों जैसे छुआछुत आदि को समाप्त करने हेते समाज सुधार आन्दोलन चलाये जाएँ तथा इस सम्बन्धी कानूनों को सख्ती से लागू किया जाए. गाँव के संसाधनों पर गर्म पंचायत का अधिकार होना चाहिए. गाँव का समग्र विकास किया जाए.
एस. आर. दारापुरी
साक्षात्कार: शाह नवाज़
25 Sep,2011
1.क्या देश को गांवों की जररूत है?
हाँ, भारत को गावों की जरुरत है क्योकि भारत की 80% आबादी गावों में ही रहती है. भारत को गाँव का देश भी कहा जाता है. यह बात अलग है कि भारत के गाँव अति पिछड़े हुए हैं. डॉ. आंबेडकर ने इन्हें अज्ञानता के गढ़ कहा था . उनका यह भी सुझाव था कि गाँव को उजाड़ क़र इनके स्थान पर नगर बसाए जाने चाहिए. उनकी यह बात बहुत क्रन्तिकारी थी परन्तु यह व्यवहारिक नहीं थी.
2.भूमंडलीकृत भारत का गांव कैसा होगा ?
भूमंडलीकृत भारत में गाँव अति पिछड़े हुए होंगे क्योंकि भूमंडलीकृत विकास में गाँव के विकास की कोई भी योजना नहीं है. इसमें तो बड़े शहरों और नगरों के विकास की ही अवधारणा है. गाँव से विस्थापन होगा और लोग गाँव से शहर की ओर पलायन करेंगे. किसान अपनी ज़मीन बेचकर भूमिहीन मजदूर की श्रेणी में आ जायेंगे क्योंकि खेती को जानबूझ क़र अलाभकारी बनाया जा रहा ह. किसानों की खेती की जगह कारपोरेट खेती ले लेगी.ै. किसानों की ज़मीन सेज या विकास की योजनाओ के नाम पर हडप ली जाएँगी. कृषि मजदूर भी बेरोजगार हो जायेंगे. ग्रामीण कारीगरों के धंधे भी छिन जायेंगे. इस का दलितों और समाज के अन्य कमज़ोर तबकों पर बहुत बुरा असर पड़ेगा.
.
3.केंद्रीकृत विकास में गांवों की मृत्यु अनिवार्य नहीं है ?
हाँ केंद्रीकृत विकास में गाँव की मृत्यु अनिवार्य है क्योंकि गाँव का स्थान नए नगर और नए शहर ले लेंगें. गाँव से शहरों कि ओर पलायन होगा. खेती का नष्ट होना स्वाभाविक है क्योंकि सरकार किसानी ख़तम करके कारपोरेट खेती को बढावा दे रही है. सरकार जiन बुझ कर गाँव में बुनियादी सुविधाएँ नहीं दे रही है ताकि लोग शहरों कि ओर भागें. पूरी विकास कि प्रकिर्या में एक शहरी पूर्वाग्रह है जिस कारण गाँव के विकास में अनुपातिक संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जाते. परिणाम स्वरूप विकास कि दौड में गाँव पिछड़ रहे हैं.
4.क्या गांव को बचाने का स्वप्न कहीं शेष है ?
हाँ केवल कुछ लोगों में ही गांव को बचाने का स्वप्न शेष है . अधिकतार गाँव वाले भी गाँव के विनाश से बेखबर हैं. दरअसल उन्हें जीवित रहने कि लड़ाई में इस के बारे में सोचने कि फुर्सत ही नहीं है. वे गाँव के साथ किये जा धोखे और लूट से बेखबर हैं. उन्हें अपनी बदहाली शहर कि चकाचौंध कि ओर आकर्षित कर रही है और वे मन्त्र मुग्ध हो कर शहर कि खींचे चले जा रहे हैं.
5.आपकी नजरों का गांव कैसा है ?
मेरे विचार में गाँव का वैसा ही विकास होना चाहिए जैसा कि शहरों का किया जा रहा है. खेती को उन्नत करके इसे लाभकारी बनाया जाए. गाँव में ही खेती आधारित उद्योग तथा ग्रामीण उद्योगों को बढावा दिया जाए.गाँव में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराई जाएँ. गाँव से शहरों कि ओर पलायन रोकने हेतु गाँव में ही रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए जाएँ जैसा कि चीन आदि में किया गया है. गाँव के लोगों के धार्मिक अंध विश्वास ख़तम करने हेतु शिक्षा और वैज्ञानिक सोच को बढावा दिया जाए. गाँव में सामाजिक बुराइयों जैसे छुआछुत आदि को समाप्त करने हेते समाज सुधार आन्दोलन चलाये जाएँ तथा इस सम्बन्धी कानूनों को सख्ती से लागू किया जाए. गाँव के संसाधनों पर गर्म पंचायत का अधिकार होना चाहिए. गाँव का समग्र विकास किया जाए.
दलित मुक्ति आन्दोलन : सीमा व संभावना
सुभाष चन्द्र , एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र,
समाज में मौजूद किसी भी आन्दोलन की कुछ न कुछ विचारधारा अवश्य होती है, कोई दृष्टि ज़रूर होती है, जिससे वह समाज के विभिन्न पहलुओं पर विचार करती है। विचारधारा के बिना किसी सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलन की कल्पना नहीं की जा सकती। दलित एक ऐसा विशिष्ट वर्ग है, जो शोषण की अन्य संरचनाओं को झेलते हुए अमानवीय छुआछूत का शिकार भी रहा है और अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करता रहा है और जिसके तेजस्वी, प्रखर व जुझारू संघर्ष व चिन्तन ने कथित मुख्यधारा के दर्शन व मूल्यों को चुनौती दी है। वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली में दलितों के आकार व राजनीतिक जागरूकता के कारण दलित आन्दोलन चर्चा का विषय बना हुआ है। दलित कोई एकरूप समाज नहीं है और न ही दलित आन्दोलन की कोई एक निश्चित विचारधारा है। उसके कई कई रूप हैं, जो कुछ तो लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की मजबूरियों के कारण है और कुछ वास्तविक तौर पर दलित आन्दोलन की परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं और मानवीय गरिमा पाने व शोषण से मुक्ति प्राप्त करने के संघर्ष की सही दिशा में हैं। दलित चिन्तन व आन्दोलन की शक्ति व संभावना पर तथा दशा व दिशा पर विचार करने के लिए दलित मुक्ति के लिए कार्यरत विभिन्न धाराओं को आधार बनाकर विचार किया जा सकता है। इसी पर विचार करते हुए ही दलित आन्दोलन की शक्ति, स्वरूप व दिशा का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है।, दलित चिन्तन का मतलब दलितों द्वारा किया गया चिन्तन है या दलितों के बारे में चिन्तन है इस बहस में न पड़कर यदि दलित-दृष्टि की बात की जाए तो वह ज्यादा सार्थक होगी। समाज की बनावट-बुनावट को उसके मान मूल्यों एवं संस्कारों-विचारों को, संस्कृति को, इतिहास को, धर्म को, राजनीति को, अर्थनीति को या जीवन के अन्य प्राथमिक और गौण पहलुओं को विश्लेषित करने व आदर्शीकृत करने की कई दृष्टियां हैं, जिसमें दलित-दृष्टि महत्वपूर्ण है। जब से समाज में दलितों का अस्तित्व है लगभग तभी से उनके बारें में बृहतर समाज की धरणाएं हैं उसी तरह दलितों की भी बृहतर समाज के बारें में तथा अपने समाज के बारे में चिन्तन करने की परम्परा कमोबेश अवश्य रही है। जब जब समाज में बदलाव हुए हैं, समाज के स्वरूप व तंत्र में बदलाव हुआ है तो समाज के विभिन्न वर्गों की स्थितियां व हैसियत भी निश्चित रूप से बदली हैं, तब तब वर्गों की एक दूसरे के बारे में समझ व धारणाओं में भी परिवर्तन हुआ है। बृहतर समाज में परिवर्तन के बिन्दुओं व पड़ावों की पहचान करते हुए दलितों की स्थिति में और दलित दृष्टि में हुए परिवर्तनों को समझने की जरूरत है। इन परिवर्तनों की पहचान ही दलित दृष्टि के इतिहास व परम्परा का आधार बन सकती है और इसके सृजनात्मक पहलुओं को सही सही रेखांकित किया जा सकता है।, हमारे देश में में दो तरह की संस्कृतियां, विचार, मूल्य-संस्कार रहे हैं और दिलचस्प बात यह है कि इनका रिश्ता परस्परता व सह-अस्तित्व का नहीं बल्कि संघर्ष और टकराहट का रहा है। ये टकराहट अमूर्त किस्म की या मात्र बौद्धिक स्तर की नहीं रही बल्कि समाज में होने वाली ठोस टकराहट है जो दलितों के मानवीय गरिमा और सम्मान पूर्वक जीने की अनिवार्य शर्त की तरह रही है। इनमें एक है-ब्राह्मणवादी संस्कृति व दूसरी है श्रमण संस्कृति ,जिसमें दलित दृष्टि शामिल है। इन दो मूल्य समूहों की टकराहट-संघर्षों के रूपों और तीव्रता को चिन्हित करके ही दलित दृष्टि की पहचान हो सकती है। दलित दृष्टि ब्राह्मणवादी दृष्टि की समानान्तर प्रतिक्रिया भी है और विकल्प भी। मानवीय गरिमा प्राप्त करने के इस संघर्ष में दलित दृष्टि ने न केवल दलितों के लिए बल्कि बृहतर समाज के लिए भी बहुत कुछ सकारात्मक दिया है।, देखने की जरूरत यह भी है कि इन दो संस्कृतियों में संघर्ष के मुख्य बिन्दु क्या रहे हैं। सर्व विख्यात है कि ब्राह्मणवादी संस्कृति मुख्यत: दो स्तम्भों पर टिकी है, कम से कम इन पर 'गर्व' करने लायक कुछ भी नहीं है बल्कि भारत की लगभग 70 प्रतिशत इन्सानों ने इसे अभिशाप की तरह भुक्ता है और इस बहुसंख्यक आबादी का कोई भौतिक या आध्यात्मिक कसूर भी नहीं था, ये तो केवल एक दंभ का शिकार हुए। ब्राह्मणवादी संस्कृति के वे कुख्यात स्तम्भ हैं--पितृसत्ता और वर्ण-व्यवस्था। पितृसत्ता यानि पुरूष प्रधानता के दंश को आधी आबादी ने झेला है, इसने स्त्रियों के स्वतंत्र मानवीय अस्तित्व को नकार कर उसे पराधीन बनाया और तमाम नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया। ब्राह्मणवाद का यह पूरे समाज के चिन्तन व जीवन में किसी न किसी रूप में बैठा रहा।, ब्राह्मणवाद के दूसरे स्तम्भ--वर्ण-व्यवस्था की भेदभावपूर्ण दृष्टि और उत्पति के कृत्रिम 'द्विज' सिद्धांत ने शेष आधी से अधिक आबादी को इन्सान मानने से ही इन्कार कर दिया। इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को सख्ती से लागू करने के लिए ज्ञान और बाहुबल की पूरी ताकत लगा दी और बड़ी चालाकी से दलितों को शस्त्र-शास्त्र विहिन करके गुलाम की हालत में पहुंचाया और उसकी मेहनत से ऐश्वर्यपूर्ण जीवन का आनन्द लूटा। ब्राह्मणवाद के इन प्राण-तत्वों ने अधिकांश आबादी को दबाए रखने के लिए नए नए पैंतरे बदले हैं और सुपर टेक्नॉलोजी के युग में आज भी विभिन्न रूपों में मानवता को लीलने की आधुनिक विधियां खोज रहे हैं, जबकि दलित संस्कृति ने इसके बरक्स अन्याय, अत्याचार, शोषण से मुक्ति के लिए संघर्ष किया है और मानवीय दृष्टि के निर्माण में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाई। ब्राह्मणवादी संस्कृति के इन दो मूल्यों की टकराहट में ही दलित दृष्टि व दलित चिन्तन का निर्माण-विकास हुआ है।, ब्राह्मणवाद का आधार या जीवन स्रोत हिन्दू धर्मग्रन्थ जैसे वेद-वेदांग, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रन्थ,पौराणिक साहित्य एवं स्मृति ग्रन्थ हैं। इन्हीं के माध्यम से ब्राह्मणवाद अपना विचारधारात्मक वर्चस्व स्थापित करता रहा है। दलित दृष्टि इस वर्चस्व को लगातार चुनौती दी है। यदि दलितों के दैंनदिन के अलिखित संघर्षों को न भी गिना जाए तो भी भारतीय इतिहास में बौद्ध धर्म के उभार, भक्ति-आन्दोलन तथा जोतिबा फूले व अंबेडकर की संघर्ष दृष्टि को तो स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह वर्तमान दलित आन्दोलन और दलित दर्शन की परम्परा एवं प्रेरणा स्रोत है, जिससे वर्तमान दलित दृष्टि काफी कुछ ग्रहण कर सकती है। भक्ति-आन्दोलन के संत-कवियों ने अपनी रचनाओं में ब्राह्मणवाद की तथाकथित शाश्वतता, पवित्रता व सार्वभौमिकता पर उंगली उठाकर चुनौती दी और श्रेष्ठता ओर उच्चता पर प्रहार किया। संत-साहित्य की व्यावहारिक और मानवीय दृष्टि के सामने ब्राह्मणवाद बौना व लाचार नजर आया, परिणामस्वरूप यह आन्दोलन के रूप में काफी बड़े क्षेत्र में फैल गया। कबीर, नानक, रविदास व अन्य संतों की वाणी ने मानवता को जगाया जिसका असर आज भी जनमानस पर है।, आज के दलित चिन्तन की एक धारा ने ब्राह्मणवाद के संपूर्ण विरोध की बजाए उसके स्मृति-पक्ष या स्मृति धर्म को ही अपने विरोध का मुख्य लक्ष्य मान लिया है। ब्राह्मणवाद को मात्र मनुवाद तक सीमित कर देना और मनुवाद को ही ब्राह्मणवाद का पर्याय मान लेना एकांगी दृष्टिकोण है। दलित चिन्तन में यह एकांगीता गहरे में घर कर रही है, जिसकी वजह से ब्राह्मणवाद पर उतना तीखा प्रहार नहीं होता। इस एकांगीता के कारण दलित चिन्तन जातिप्रथा-उन्मूलन का नहीं बल्कि जातिवाद के विरोध का आन्दोलन बनकर रह गया है।, वर्तमान दलित चिन्तन में मनुवाद की निन्दा की जाती है, लेकिन मनुवाद समाप्त करने की ललक कम ही दिखाई देती है। ब्राह्मणवादी मानसिकता की नकल करके अपने दलित होने पर गर्व करने और महिमामंडि़त करने का विचार जोर पकड़ रहा है। इस मानसिकता के चलते दलित कही जाने वाली जातियों के लोगों की एकता,इन्सानी भाईचारे व समानता की बजाए जातिगत पद सोपान के ऊंच-नीच, श्रेष्ठ-निम्न के ब्राह्मणवादी फर में पड़ गई हैं। ब्राह्मणवादी विचारधारा और सता ने इसे हवा दी है, जिसके चंगुल में आकर दलित बुद्धिजीवी उसी चैखटे में फिट हो रहे हैं और एक दलित जाति दूसरी दलित जाति का राजनीतिक-सामाजिक स्तर पर विरोध कर रही हैं। विडम्बनापूर्ण है कि जातिगत ढाचों में झूल रहा दलित चिन्तन जाने-अनजाने ब्राह्मणवाद को पोषित करने में भूमिका निभा रहा हैं, जबकि जातिविहीन समाज में ही दलित समाज को सामाजिक समानता, सामाजिक न्याय और सामाजिक सम्मान मिल सकता है।, संस्कृतिकरण, नीची जाति या समुदाय द्वारा द्विज समुदाय को मॉडल मान कर उसी के आचार-व्यवहार, खान-पान और पहनावे का अनुकरण करते हुए सामाजिक प्रगति का प्रयास करना' संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कहलाती है, इस सिद्धांत का प्रतिपादन एम.एन. श्रीनिवास ने किया था। अगर कोई गैरद्विज जाति खास तौर से ब्राह्मणों को मॉडल बनाती है तो इसे ब्राह्मणीकरण भी कह सकते हैं लेकिन संस्कृतिकरण में नीची जातियों ने अक्सर क्षत्रियों को मॉडल माना है।1 ब्राह्मणवाद की तमाम बुराइयां दलित चिन्तन में घर करती जा रही है भाग्यवाद, नियतिवाद, रूढिवाद, पाखण्ड, कर्मफल, पुनर्जन्म आदि से ग्रस्त हो रहा है। इन बुराइयों के खिलाफ कोई आन्दोलन दलित चिन्तन में दिखाई नहीं देता। दलित आबादी में जागरण-कीर्तन, व्रत-उपवास, कर्मकाण्ड-कावड़, तथाकथित धर्मग्रन्थों का पाठन-वाचन आदि ब्राह्मणवादी चैखटे में हो रहा है। जिस तरह स्वर्ण हिन्दू अपने मोहल्लों या मण्डियों में हिन्दू देवी देवताओं के नाम पर मंन्दिरों का निर्माण कर रहे हैं और धर्मसेवा व पुण्य कमाने के अहं में मस्त हो रहे हैं उसी तरह दलित भी इन आयोजनों में न केवल सक्रिय भागीदारी कर रहे हैं बल्कि इनका नेतृत्व भी कर रहे हैं। दलित बस्तियों,मोहल्लो व चौपालों में ब्राह्मणवाद के प्रतीक हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं तो कहीं पर रविदास-बाल्मिकी के नाम पर मंदिर बना कर इनका भी ब्राह्मणीकरण कर रहे हैं। प्रसाद-चढावा और भंडारे का स्वाद चखने के लिए एक नया पुजारी वर्ग पैदा हो रहा है जो अंधश्रद्धा पैदा करके ब्राह्मणवादी संस्कारों-मूल्यों को वैधता प्रदान कर रहा है और ब्राह्मणवादी जीवन-पद्धति व संस्कारों को दलितों में घुसा रहे हैं।, डॉ अम्बेडकर ने मंदिरों में प्रवेश का संघर्ष पूजा करने के लिए नहीं किया था बल्कि इसलिए किया था कि दलितों का यह नागरिक और मानवीय अधिकार है कि वे सार्वजनिक स्थानों पर जा सकते हैं फिर चाहे वह तालाब हों,चौपाल हों या कि मंदिर। वे इन मंदिरों को दलितों के प्रति भेदभाव का प्रतीक मानते थे और इस भेदभाव को मिटाना उनका मकसद था। मंदिर प्रवेश उनके लिए मानवीय गरिमा पाने की लड़ाई का हिस्सा थी न कि पूजा करने के अधिकार पाने का, इसीलिए उन्होंने दलितों केे लिए अलग से मंदिरों का निर्माण अभियान नहीं चलाया और न ही दलितों को इसके लिए प्रेरित किया। यदि पूजा करना या धार्मिक उद्देश्य होता तो वे इसको अलग से मंदिर बनाकर भी पूरा कर सकते थे,परन्तु उनका जोर इसी बात पर था कि दलितों को समाज में बराबरी का दर्जा मिले। लेकिन अब जो मंदिर निर्माण अभियान चल रहा है उसके पीछे ऐसा कोई मकसद नहीं है बल्कि मूलत: यह दलित दृष्टि और चिन्तन के खिलाफ है और ब्राह्मणवाद का पोषण करता है। यह मानवीय गरिमा हासिल करने का नहीं बल्कि अंधश्रद्धा की उपज है। 'तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार' का नारा देकर दलित आक्रोश को राजनीतिक रूप देने वाला नेतृत्व अब कहने लगा है कि 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्म, विष्णु, महेश है'। ब्राह्मणवादी विचारधारा के संवाहक इन प्रतीकों के साथ इसकी विचारधारा को भी दलितों में मान्यता मिल रही है। संत कवियों ने इस ब्राह्मणवादी पाखण्ड का विरोध किया था।, ब्राह्मणवाद की अमानवीय विचारधारा की शोषित-वंचित वर्गों में स्वीकृति को समाप्त करना दलित आन्दोलन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। वर्ण धर्म की नैतिकता को, जाति-आधारित भेदभाव व ऊंच-नीच को, भाग्यवाद व रूढि़वाद को, कर्मफल व पुनर्जन्म के नियतिवादी मान्यताओं को इन वर्गों से समाप्त करना है। दलित आन्दोलन के चिन्तकों ने ब्राह्मणवादी धार्मिक-पाखण्डों, कर्मकाण्डों, नियतिवाद-भाग्यवाद व रूढि़वाद का विरोध किया है। लेकिन वर्तमान में दलित आन्दोलन इससे छुटकारा पाने के प्रयास करने की बजाए इसको अपना रहा है और जगरातों-कीर्तन, गुरूवाद, व्रत-उपवास, कावड़ आदि में लिप्त है। अंधविश्वास, अंधश्रद्धा और ईश्वरवाद शोषण, अन्याय, उत्पीडऩ, गरीबी व अभावग्रस्तता के समाधान पराभौतिक ढूंढता है और व्यवस्थाजन्य नहीं मानता। इस मिथ्याचेतना से टकराए बिना दलित आन्दोलन अपनी सही दिशा ग्रहण नहीं कर सकता।, राजनीतिक सत्ता बनाम सामाजिक परिवर्तन, दलित आन्दोलन और दलित चिन्तन मूलत: सामाजिक आन्दोलन हैं, जिसकी राजनीतिक भंगिमा भी है,लेकिन वर्तमान दलित-आन्दोलन और दलित-चिन्तन सामाजिक सवाल को पीछे करके मुख्यत: राजनीतिक स्वर ग्रहण कर रहा हैै। चिन्ता की बात यह है कि इस सता प्राप्त करने की राजनीति पर ब्राह्मणवादी किस्म का राजनीतिक अवसरवाद हावी है, जो दलितों को ही आहत कर रहा हैै। इसके उदाहरण मिल जायेंगें कि समय समय पर दलित कही जाने वाली जातियों के लोगों में राजनीतिक एकता तो हो जाती है लेकिन सामाजिक एकता नहीं हो पाती। सामाजिक एकता के अभाव में सशक्त आन्दोलन का निर्माण नहीं हो पाता और तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों के चलते यह एकता भी कुछ समय के बाद छिन्न-भिन्न हो जाती है। दलित चिन्तन को प्रगतिशील सामाजिक दर्शन की जरूरत है जो दलितों की सामाजिक एकता बनाए बना सके। प्रगतिशील दर्शन के अभाव में दलित-आन्दोलन स्वार्थी नेतृत्व के राजनीतिक अवसरवाद का शिकार होने को मजबूर है। स्वार्थी नेतृत्व अपने व्यक्तिगत हितों के लिए घोर मनुवादियों के साथ भी सता की बन्दरबांट करने में कोई हिचकिचाहट नहीं करता। आर.एस.एस.और उसके आनुषंगिक संगठन तो समाज में मनु-संहिता और ब्राह्मणवादी संस्कृति को प्रतिष्ठापित करने के लिए वचनबद्ध हैं और जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे जैसे मूल्यों पर आधरित संविधन को भी बदलना चाहतें हैं। ऐसे चरम मनुवादियों के साथ भी गलबंहियां करने में कोई गुरेज न होना न केवल उनके विचारधारात्मक दिवालियेपन को दर्शाता है बल्कि घोर स्वार्थ को भी बताता है। अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए हिन्दुओं की एकता चाहने वाले आर.एस.एस. व उसके आनुषंगिक संगठनों को सामाजिक दृष्टि से विभाजित हिन्दू ही चाहिए। ब्राह्मणवाद की वकालत करने वाले इन संगठनों की विचारधारा से दलित चिन्तन का मूलभूत विरोध है। जहां इनके लिए मनुस्मृति पूज्य और आदर्श ग्रन्थ है वहीं दलितों के मसीहा डॉ. अम्बेडकर ने इसे दलित उत्पीडन का प्रतीक मानकर जलाया था।, डॉ भीमराव अम्बेडकर ने यह तो अवश्य कहा था कि 'राजनीति की चाबी से सभी ताले खुलते हैं' लेकिन उनका मुख्य जोर सामाजिक सुधार पर ही था। तत्कालीन कांग्रेस और गांधी की आलोचना भी उन्होंने इसी दृष्टि से की थी कि कांग्रेस में सामाजिक सुधारकों की आवाज राजनीतिक कार्यकर्ताओं के आगे दब गई थी। कांग्रेस ने समाज सुधार का काम अपने राजनीतिक कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया ही नहीं और ज्यों ज्यों स्वतंत्रता आन्दोलन तेज हुआ त्यों त्यों कांग्रेस का समाज सुधार की ओर से ध्यान कम होता गया। दरअसल कांग्रेस के नेतृत्व ने यह मान कर गलती की थी कि स्वतंत्रता प्राप्त हो जाने के बाद शिक्षा के प्रसार से या वैज्ञानिक विकास से जो तरक्की होगी उससे सामाजिक बुराइयां स्वत: ही समाप्त हो जायेंगीं, इनके खात्मे के लिए अलग कोई आन्दोलन चलाना जरूरी नहीं है। इसकारण उन्होंने राजनीतिक स्वर को मुख्य रखा। डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि स्वतंत्रता के लिए संघर्ष के साथ साथ सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने का अभियान चलाया जाए और समाज सुधार को राजनीतिक कार्यक्रमों का जरूरी हिस्सा बनाया जाए। कांग्रेस द्वारा समाज सुधार पर बल न देने का एक कारण यह भी था कि कांग्रेस में भी ब्राह्मणवादी विचारधारा के समर्थकों काफी बड़ी संख्या थी, जो विचार के तौर पर इसके तर्क से सहमत थे। डॉ. अम्बेडकर की आश्ंाका सही साबित हुई स्वतंत्र भारत की सता सामन्ती ब्राह्मणवादी तत्वों के हाथों में आती चली गई और दलितों को सही हक नहीं मिला।, आमूल चूल सामाजिक बदलाव के लिए राजनीतिक शक्ति हासिल करना दलित आन्दोलन की जरूरत है, लेकिन सिर्फ सत्ता प्राप्त करना व उसमें बने रहने मात्र से ही दलित आन्दोलन का भला नहीं हो सकता। राजनीतिक नेतृत्व ने 'सोशल चेंज' यानी सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्ष करने के अलावा 'सोशल-इंजीनियरिंग' के सिद्धांत को 'गुरू-किल्ली' मान लिया है। इस इंजीनियरिंग में जातियां भी यूं की यूं बनी रहती हैं और उनमें व्याप्त भेदभाव भी। सामाजिक परिवर्तन को अपने राजनीतिक एजेंडे से निकाल देने पर सत्ता दलितों के किसी काम नहीं आती। राजनीतिक शक्ति का प्रयोग सामाजिक न्याय व उत्पीडऩ के खिलाफ प्रयोग न किया जाए तो उसकी क्रांतिकारिता गायब हो जाती है। अन्य पूंजीवादी राजनीतिक दलों की तरह यहां धन-शक्ति का वर्चस्व बढ रहा है, जो दलितों को राजनीतिक रूप से निराश कर रहा है। दलित राजनीतिक नेतृत्व में सामन्ती तत्वों व गैर बराबरी की मौजूदगी उसे प्रगति विरोधी बना देती है, जिसमें एक व्यक्ति तो ऊपर उठता रहता है, लेकिन सारा समाज पिछड़ता जाता है।, जाति-उन्मूलन बनाम जाति-स्वाभिमान, मनुवाद का सीधा सा अर्थ है कि वर्ण व जाति व्यवस्था को स्वीकृत करना और जाति की संरचना को तोडऩा। दलित आन्दोलन की परम्परा संघर्ष इसके खिलाफ रहा है। लेकिन आज दलित आन्दोलन में इसे तोडऩे की बजाय या तो अपनी जाति पर गर्व करने की या जातिगत आधार पर एकत्रित होने की होड़ है। दलित मुक्ति की लड़ाई जाति-स्वाभिमान का रूप लेती जा रही है। जाति का यह स्वाभिमान कहीं दलित महापुरूषों के नाम पर भव्य भवन बनाने में तो कहीं उनके नाम पर पार्क या शिक्षण-संस्थाओं के नाम रखवाने के लिए, तो कहीं चैक पर उनकी मूर्ति-स्थापना करवाने के लिए किए जा रहे प्रयासों में प्रदर्शित हो रहा है। दलित कही जाने वाली जातियों ने अपनी-अपनी जाति के महापुरूषों की खोज कर ली है। किसी जाति ने पौराणिक-धार्मिक मिथकों से अपने महापुरूषों को ढूंढ निकाला है तो कोई ऐतिहासिक पुरूषों के साथ किवंदतियां जोड़कर उनको मिथकों की तरह प्रस्तुत कर रही है और इनमें अपनी अस्मिता की तलाश कर रही हैं। महापुरूषों की जयन्ती और पुण्य-तिथि पर जाति के इतिहास का स्तुतिगान हो रहा है व इन दिवसों पर जाति भव्य-भोज के आयोजनों में 'जाति-सेवा' व 'जाति-प्रेम' टपक रहा है। इसी आधार पर अपनी अपनी जातियों के नेता बनकर अपनी जाति को ऊपर उठाने के प्रयास में खुद ही ऊपर उठे जा रहे हैं और मुटा रहे हैं। दलितों की एकता को जाति में बांटकर दलित उद्धारक के खिताब से भी स्वयं को गौरवान्वित कर रहे हैं। अपनी जाति के लोगों में ब्राह्मणवादी संस्कार व जाति-भावना को मजबूत करके उनको फिर से जाति के दड़बे में ध्केल रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि दलितों में से उभरा मध्यवर्ग दलित आन्दोलन को पुख्ता करने की बजाए उसे जाति-आन्दोलन में तब्दील कर रहा है। अपने समाज को जातिगत पहचान देकर पुरानी संरचनाओं में जकड़ रहे हैं। दलित-प्रतीकों के लिए संघर्षों से वास्तविक बदलाव के ठोस मुद्दे गायब हो रहे हैं। दलित आन्दोलन का विकास जाति तोडऩे की प्रक्रिया में विकसित होगा, न कि जातिगत स्वाभिमान के प्रदर्शन में।, जाति स्वाभिमान की लड़ाई से दूर हटकर जाति तोडऩे की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल होकर ही दलित चिन्तन रचनात्मक भूमिका अदा कर सकता है। जाति स्वाभिमान की इस लड़ाई को नागरिक समाज के निर्माण की लड़ाई में बदलने की जरूरत है क्योंकि लोकतांत्रिक और नागरिक समाज के निर्माण के बिना समानता, स्वाधीनता और भाईचारे के मूल्यों की स्थापना नहीं हो सकती, एक दूसरे के प्रति सम्मान और आदर की भावना का विकास ऐसे ही समाज में संभव है।, धर्म परिवर्तन से दलित-मुक्ति नहीं, दलित-चिन्तन की एक धारा दलित-उत्पीडन का समाधन धर्म परिवर्तन में ढूंढ रही है। जब भी दलित उत्पीडऩ की दिल दहला देने वाली कोई घटना घटती है तो इसका निदान धर्मान्तरण में ढूंढने वाले दलित चिन्तक अपने अमले के साथ पीडि़तों के पास पहुंच जाते हैं। गौर करने की बात यह है कि दलित को हिन्दू धर्म से दूसरे धर्म की दीक्षा देने का यह कर्मकाण्ड उसी समय होता है जब कोई लोमहर्षक घटना घट जाए, जबकि दलितों का उत्पीडऩ तो हर रोज होता रहता है। इस समय उत्पीडि़त दलितों को कोई हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाने की प्रेरणा देता है तो कोई इस्लाम जैसे कि सिर मुंडा लेने से या दाढी रख लेने व कलमा पढ लेने से उनकी सारी समस्याओं का हल हो जाएगा। ''अगर धर्मान्तरण व्यक्तिगत विकास में आस्था रखकर किया जाता है, तो आगे विचार करने की जरूरत नहीं है। लेकिन जब धर्मान्तरण को न केवल एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तन, मगर सामाजिक परिवर्तन के एक बुनियादी औजार के रूप में मानकर चलें तब धर्मान्तरण के नाम पर जो भी हो रहा है उस पर सवाल खड़ा करना व्यवहारिक है।''2, दलित उत्पीडऩ कोई धार्मिक उत्पीडऩ नहीं है बल्कि इसकी जडें़ तो सामाजिक जीवन में हैं। जब दलित और सवर्ण का धर्म एक है, पूजा पद्धति एक जैसी है देवी देवता एक जैसे हें तो उनमें टकराव क्यों है? सवर्ण हिन्दू अपने सहधर्मियों पर अत्याचार और उत्पीडऩ क्यों करता है? इस पर नजर डालने से धर्मान्तरण के विचार की अपर्याप्तता स्पष्ट हो जायेगी। यह सामाजिक समस्या है न कि धार्मिक, इसलिए इसका समाधान भी सामाजिक ढंग से ही निकलेगा न कि धार्मिक ढंग से। सामाजिक उत्पीडऩ व अत्याचार की धर्म से तो मात्र वैधता ठहराई जाती है।, धर्मान्तरण इसमें कोई सकारात्मक भूमिका नहीं निभा सकता क्योंकि धर्मान्तरण से उनकी सामाजिक हैसियत में या स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आता। धर्म परिवर्तन से न तो बृहतर समाज की उनके बारे में कोई धरणा बदलती है और न ही दलितों के अन्दर कोई आत्मविश्वास आता है,जब कोई सामाजिक टकराहट होगी तो उनके प्रति वही रवैया होगा। अधिक से अधिक इतना अन्तर आता है कि उनके प्रति होने वाले उत्पीडऩ को दलित उत्पीडऩ कहने की बजाए बौद्ध दलित उत्पीडऩ या मुस्लिम दलित उत्पीडऩ या ईसाई दलित उत्पीडऩ कह दिया जाएगा।, बहुत से दलितों ने हिन्दू धर्म को छोड़कर दूसरे धर्मों को अपनाया है इससे उनकी स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया। ''जनवरी 1988 में अपनी वार्षिक बैठक में तमिलनाडु के बिशपों ने इस बात पर ध्यान दिया कि धर्मांतरण के बाद भी अनुसूचित जाति के ईसाई परंपरागत अछूत प्रथा से उत्पन्न सामाजिक व शैक्षिक और आर्थिक अति पिछड़ेपन का शिकार बने हुए हैं। फरवरी 1988 में जारी एक भावपूर्ण पत्र में तमिलनाडु के कैथलिक बिशपों ने स्वीकार किया 'जातिगत विभेद और उनके परिणामस्वरूप होने वाला अन्याय और हिंसा ईसाई सामाजिक जीवन और व्यवहार में अब भी जारी है। हम इस स्थिति को जानते हैं और गहरी पीड़ा के साथ इसे स्वीकार करते हैं।' भारतीय चर्च अब यह स्वीकार करता है कि एक करोड़ 90 लाख भारतीय ईसाइयों का लगभग 60 प्रतिशत भाग भेदभावपूर्ण व्यवहार का शिकार है। उसके साथ दूसरे दर्जे के ईसाई जैसा अथवा उससे भी बुरा व्यवहार किया जाता है। दक्षिण में अनुसूचित जातियों से ईसाई बनने वालों को अपनी बस्तियों तथा गिरिजाघर दोनों जगह अलग रखा जाता है। उनकी 'चेरी' या बस्ती मुख्य बस्ती से कुछ दूरी पर होती है और दूसरों को उपलब्ध नागरिक सुविधओं से वंचित रखी जाती है। चर्च में उन्हें दाहिनी ओर अलग कर दिया जाता है। उपासना , सर्विस , के समय उन्हें पवित्र पाठ पढऩे की अथवा पादरी की सहायता करने की अनुमति नहीं होती। बपतिस्मा, दृढि़करण अथवा विवाह संस्कार के समय उनकी बारी सबसे बाद में आती है। नीची जातियों से ईसाई बनने वालों के विवाह और अंतिम संस्कार के जुलूस मुख्य बस्ती के मार्गों से नहीं गुजर सकते। अनुसूचित जातियों से ईसाई बनने वालों के कब्रिस्तान अलग हैं। उनके मृतकों के लिए गिरजाघर की घंटियां नहीं बजतीं, न ही अंतिम प्रार्थना के लिए पादरी मृतक के घर जाता है। अंतिम संस्कार के लिए शव को गिरजाघर के भीतर नहीं ले जाया जा सकता। स्पष्ट है कि 'उच्च जाति' और 'निम्न जाति'Ó के ईसाइयों के बीच अंतर्विवाह नहीं होते और अंतर्भोज भी नगण्य हैं। उनके बीच झड़पें आम हैं। नीची जाति के ईसाई अपनी स्थिति सुधारने के लिए संघर्ष छेड़ रहे हैं, गिरजाघर अनुकूल प्रतिक्रिया भी कर रहा है लेकिन अब तक कोई सार्थक बदलाव नहीं आया है। ऊंची जाति के ईसाइयों में भी जातिगत मूल याद किए जाते हैं और प्रछन्न रूप से ही सही लेकिन सामाजिक संबंधोंं में उनका रंग दिखाई देता है।, मुसलमानों में स्थिति कुछ भिन्न है। नमाज अदा करने के लिए मस्जिदों में प्रवेश पर कोई प्रतिबंध नहीं हैं और अछूत प्रथा स्पष्ट नहीं है। लेकिन सामाजिक स्थिति के सूचक तथा सामाजिक अन्त:क्रिया को नियंत्रित करने वाले वर्ण तथा जाति जैसे विभेद मौजूद हैं। अशराफ (शरीफ जातियां, उच्च जाति जैसा वर्ग) और अजलाफ (आम, नीची जाति जैसा वर्ग) जात की बात करना आम है। ये विभेद विवाह, अंतर्भोज तथा समारोहों और अन्य सामाजिक आयोजनों में भागीदारी जैसी अंतर्समूह सामाजिक अंतर्कि्रया का निर्धरण करते हैं। मूल याद किये जाते हैं और हिन्दू धर्म से इस्लाम धर्म अंगीकार करने वाले अब भी बड़े पैमाने पर अपने पुराने जातिगत व्यवसायों में लगे हैं। मुगलकाल में सैयद, शेख, मुगल और पठानों के विभाजनों की समानता प्राय: हिन्दू समाज के वर्ण विभाजनों से दिखाई जाती थी और भारत के कुछ भागों में हिन्दू धर्म से इस्लाम ग्रहण करने वाले इन्ही विभाजनों में से किसी एक में शामिल होना आवश्यक मानते थे। इस्लाम के प्रति यह ठीक है या नहीं यह एक अलग प्रश्न है किंतु यह तो एक तथ्य है ही कि ऐसा होता है। सैयद पैगम्बर की बेटी के जरिये उनके परिवार के वंशज हैं। वे अरब मूल के हैं। लेकिन इस्लाम में धर्मांतरित अनेक उच्चतर जातियां इस परिस्थिति का दावा करती हैं। धर्मांतरित ब्राह्मणों ने दावा किया कि उनकी सैयद परिस्थिति की पुष्टि सम्राट अकबर ने की थी। शेख भी अरब मूल के हैं यद्यपि वे पैगम्बर के वंशज नहीं हैं। धर्मांतरित की पहली पीढ़ी भी खुद को शेख कहती है। दिल्ली का शासक वंश 'मुगलÓ शेख के बाद आता था। वे तुर्की मूल के थे लेकिन तुर्की के आटोमन शासकों से स्वयं को अलग दिखाने के लिए उन्होंने 'मुगलÓ पदनाम ग्रहण कर लिया था। पठान अफगान मूल के थे यद्यपि उनमें से अनेक ने, जिनका अफगानिस्तान से दूर दूर तक कोई नाता नहीं था, पठान होने का दावा किया। स्तर कूद और सामाजिक सीढ़ी चढऩे का काम काफी हुआ। यह प्रवृति एक चुटकले में, जो बहुत सुरुचिपूर्ण नहीं है, अभिव्यक्त हुई है: 'पिछले साल मैं जुलाहा था,इस साल शेख हूं,अगले साल अगर फसल अच्छी हुई, मैं सैयद बन जाऊंगा।' उच्चतर जातियां - राजपूत, जाट और अहीर - अपनी पहचान बनाये रहीं। जुलाहा, तेली, भाट, कलाल और भिश्ती जैसी अनेक जातियों की तुलना कई दृष्टियों से हिन्दू जातियों के साथ की जा सकती है जिनके विशिष्ट व्यवसाय हैं तथा परिस्थितिक्रम है। जाति के बने रहने से मुसलमान धर्मशास्त्री तथा सामाजिक सुधारक चिंतित हैं किंतु कट्टरपंथ की ताजा लहर भी इसे नष्ट नहीं कर पाई है।, भारतीय मूल के धर्मों - जैन, बौद्ध तथा सिख - जाति के जारी रहने के साक्ष्य हैं। नव बौद्धों को स्वयं को अपनी पूर्व जाति परिस्थिति से असंबद्ध करना कठिन लग रहा है। सिख धर्म का समतावादी लोकाचार जाति यहां तक कि अस्पृश्यता की भी उपस्थिति से भोंथरा हो रहा है।, वर्ण और जाति की धरणाओं की पकड़ ऐसी है कि उसने हिन्दू धर्म से आगे बढ़ अन्य धर्मों पर भी अपनी जकड़ बना ली है। जाति और वर्ण को भारतीय समाज के लगभग सभी हिस्सों में सक्रिय देखा जा सकता है। समाज सुधारक भी इस रुझान को बदल पाने में अफल रहे हैं हालांकि कुछ समाज सुधारकों ने इसे बदलने के लिए कड़ी मेहनत की है।''3, धर्मांतरितों के प्रति वही भाव अभी भी है, जो हिन्दू धर्म में रहते हुए था।धर्म बदलने से उनकी संस्कृति और पेशा नहीं बदलता परिणामत: जीवन में भी कोई परिवर्तन नहीं होता। जिन्होंंने हिन्दू धर्म के अपमान से बचने के लिए बौद्ध या इस्लाम धर्म अपनाया वे आज भी अछूत या दलित होने का अभिशाप भुगत रहे हैं और विड़म्बना यह है कि नौकरियों में आरक्षण पाने के लिए अपने को दलित साबित करने पर विवश हैं। ''आम तौर पर मुस्लिम समाज को एक 'मॉनोलिथ सोसाइटी' के रूप में देखा जाता है, लेकिन हकीकत यह नहीं है। इसमें एक से बढ़कर एक तरक्कीयाफ्ता तबके हैं, तो इसका एक बड़ा हिस्सा पसमांदा , पिछड़ा , और दलित भी है। बिरादरी, कबीला और खानदान के नाम पर आला और अदना का फर्क यहां भी मौजूद है। इस नाम पर सैंकड़ों सालों से तफरीक , भेदभाव , बरता जाता है। इस्लाम में उसूलन इस तरह के बातों की सख्त मनाही है। बावजूद इसके हमारे उलेमा इन सवालों पर कभी मुंह नहीं खोलते। .... मुसलमानों में कई बिरादरियां ऐसी हैं, जिनकी समाजी, तालीमी और माली हालत हिन्दू दलितों से भी खराब है। इन बिरादरियों का नाम और पेशा भी हिन्दू दलितों से मिलता-जुलता है। मसलन हिन्दू धोबी, मुस्लिम धोबी, हिन्दू नट, मुस्लिम नट, हिन्दुओं में हलखोर तो मुसलमानों में हलालखोर आदि कोई एक दर्जन ऐसी बिरादरियां हैं, जो पहली नजर में ही शेड्यूल कास्ट के दर्जे की हकदार हैं। हिन्दू दलितों के बीच से तो राष्टपति से लेकर मुख्यमंत्री तक होते हैं। मगर मुस्लिम दलित के बीच आज तक कोई एम.पी., एम.एल.ए. नहीं हुआ। यह देखकर खुशी होती है कि आज भारत के हिंदू दलितों के बीच आई.ए.एस., आई.पी.एस. की भरमार है। मगर मुस्लिम दलित के बीच तो स्कूल मास्टर और किरानी मिलना मुश्किल होता है। बिहार पहला राज्य है जिसने मुस्लिम दलितों को शेड्यूल कास्ट का दर्जा और सहूलियत देने का प्रस्ताव बजाब्ता विधान मंडल के दोनों सदनों से पारित कराकर केन्द्र सरकार को भेजा है।''4, सामाजिक स्थिति बदलने वाला कोई कदम ही दलितों की स्थिति बदल सकता है और उनको सामाजिक सम्मान व मानवीय गरिमा हासिल हो सकती है। बिना सामाजिक परिस्थिति बदले धर्म बदलना तो ऐसा कदम है जैसे कि किसी आदमी को एक कुएं से निकाल कर दूसरे कुएं में फंक देना। सभी धर्मों के साथ बुराइयां ,रूढियां ,भाग्यवाद ,नियतिवाद आदि अनिवार्य रूप से चिपटे हुए हैं। ''स्वाभिमान और सम्मान के लिये धर्मान्तरण करने वाला दलित उन सिद्धान्तों को कभी स्वीकार नहीं कर सकता, जो तकदीर के भरोसे रहने की शिक्षा देते हैं या जो उसे संघर्ष करने से रोकते हैं। इस्लाम और ईसाई धर्मों में ऐसे सिधन्त उसी तरह मौजूद हैं, जिस तरह हिंदू धर्म में मौजूद हैं।ÓÓ5, धर्मान्तरण में दलितों की मुक्ति की तलाश करने वाला दलित-चिन्तन संत कवियों से सीख सकता है। कबीर, नानक, रविदास व अन्य संत कवियों ने धर्म के संस्थागत रूप का विरोध किया। संतों ने न तो परम्परागत रूप से मौजूद बौद्ध, हिन्दू या इस्लाम में अपने को दीक्षित किया, न उनके प्रतीक धारण किए और न अपने को किसी धर्म के आगे समर्पण किया। उन्होंने एक धर्म की बुराइयों को छोड़कर दूसरे धर्म की बुराइयों को अपनाने में कोई समझदारी नहीं समझी बल्कि इसके विपरीत धर्म की प्रचलित अवधरणाओं को चाहे वो ईश्वर-संबंधी हो या पूजा-पद्धति संबंधी इनको अस्वीकार कर दिया था फिर दोनों में कोई अन्तर नहीं समझा। संत कवियों के अनुसार तो एक धर्म को छोड़कर दूसरे में जाने में कोई समझदारी की बात नही है,बल्कि धर्मों को व उनकी भूमिका को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने की जरूरत है। शायद किसी भी धर्म में दलितों की मुक्ति की संभावना बहुत कम है। संतों की तरह आज के वक्त के अनुसार धर्म की मानवीय व्याख्याएं करना जरूरी है या फिर धर्म में निहित शोषण की पक्षधरता को उजागर करते हुए उसकी वैध्ता पर प्रश्न चिह्न लगाने की जरूरत है। कबीर और रविदास ने हिन्दू और इस्लाम धर्म में कोई अन्तर नहीं किया।, मोकों कहॉं ढूढै बन्दे, मैं तो तेरे पास में।, ना मैं देवल ना मैं मस्जिद,ना काबे कैलास में।।, ना तो कौने क्रिया-कर्म में,न ही योग बैराग में।, खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं,पलभर की तालास में।।, कहैं कबीर सुनो भाई साधे ,सब स्वांॅसों की स्वॉंस में।, ऽ ऽ ऽ, जो खोदाय मस्जीद बसत हे, और मुलुक केहि केरा।, तीरथ-मूरत राम-निवासी, बाहर करे की हेरा।, पूरब दिशा हरी का बासा, पच्छिम अलह मुकामा।, दिल में खोज दिलहिं में खोजौ, इहै करीमा रामा।, जेते औरत-मरद उपानी, सो सब रूप तुम्हारा।, कबीर पोंगड़ा अलह-राम का , सो गुरू पीर हमारा।, ऽ ऽ ऽ, रविदास ने लिखा, काबे और कैलाश मह जिहकू ढूंढा जाहि, रविदास प्यारा हरितऊ बैठहि मन माहि, ऽ ऽ ऽ, राधे कृष्न-करीम हरि राम रहीम खुदाय, रविदास मोरे मन बसहिं काहे खोजहु बन जाई, ऽ ऽ ऽ, हिन्दू पूजे देहरा मुसलमान मसीत, रविदास पूजे इक नाम जिन्ह निरंतर प्रीति, ऽ ऽ ऽ, दलित-उत्पीडऩ की घटनाएं घट रही हैं उनमें धार्मिक कम और सामाजिक सर्वोच्चता का अहं अधिक है। सामाजिक वर्चस्व की जड़ें उत्पीड़क और उत्पीडि़त की सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक स्थिति में हैं। आमतौर पर देखने में आया हे कि गांवों में मूल झगड़ा या टकराहट तो पेशागत होती है, लेकिन वह रूप लेती है जातीय संघर्ष का। दलित सामाजिक दृष्टि से हीन, राजनीतिक दृष्टि से असुरक्षित और आर्थिक दृष्टि से गरीब है। ऐसे में उसके जीवन के वास्तविक संघर्ष को कुचलने के लिए जाति या धर्म का रंग देना बिल्कुल आसान है।यह कोई धार्मिक मूल्यों की टकराहट नहीं है बल्कि वास्तविक जीवन के संघर्ष हैं। इस संघर्ष की सही सही रूप में पहचानने और उसको सही परिप्रेक्ष्य में वाणी देने की जरूरत है।, ''आधुनिक चुनौतियों के मद्देनजर धर्मान्तरण पर पुनर्विचार की प्रक्रिया दलितों में शुरू हो गई है। एक ऐसा बौद्धिक दलित वर्ग उभर रहा है, जो धर्मान्तरण को दलित समस्या का हल नहीं मानता है। यह वर्ग डा. आम्बेडकर के उन विचारों से सहमत है, जो उन्होंने 1940 के दशक में श्रम सदस्य की हैसियत से मजदूर वर्ग के हित में व्यक्त किये थे। यह दलित चिन्तन डा. आम्बेडकर के इस मत को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानता है कि इतिहास की आर्थिक व्याख्या का अर्थ यह है कि मजदूर वर्ग को वैसी प्राथमिकता दे, जिस तरह मालिक वर्ग को देता है। दलित चिन्तकों का यह वर्ग डा. आम्बेडकर के इस विचार को आगे बढ़ाना चाहता है कि मजदूर वर्ग को एक सम्पूर्ण वर्ग के रूप में से जुड़े आर्थिक तथ्यों को ताकत देने में फल होना है। भारत में दलित वर्ग सबसे बड़ा मजदूर वर्ग है। उसकी अशिक्षा, गुलामी और दरिद्रता का मुख्य कारण जहां वर्ण-व्यवस्था है, वहीं भारतीय अर्थ व्यवस्था भी है। दलित धर्मान्तरण करता है। किन्तु वह यह सवाल भी उठाता है कि जब वर्ण-व्यवस्था सभी समाजों में व्याप्त हो चुकी है तो धर्मान्तरण करने पर उससे मुक्ति कैसे मिल सकती है? दलित किसी भी धर्म को अपनाये, भले ही वह बौध धर्म को अपनाए, उसकी सामाजिक स्थिति में अन्तर नहीं आता है। तब, क्यों न दलित उस अर्थ-व्यवस्था से लडऩे के लिए संघर्ष करे, जो उसे अशिक्षित, गुलाम और दरिद्र बनाये हुए है? अब दलित को धर्मान्तरण के साथ साथ इस प्रश्न पर भी विचार करना होगा कि धर्मान्तरण के बाद उसके आर्थिक हितों पर क्या प्रभाव पडऩे वाला है, या जिस धर्म में वह जाना चाहता है, उसका आर्थिक दर्शन क्या है और उसके लिये आर्थिक कार्यक्रम क्या है?''6, सामाजिक-उत्पीडऩ का कारण धार्मिक मात्र नहीं है, लेकिन वह अपने शोषण व उत्पीडऩ को जायज ठहराने के लिए धर्म की सत्ता से वैधता प्राप्त करती है, इसलिए दलित-उत्पीडऩ का निदान धर्म का परिवर्तन करने से नहीं हो सकता, उसके लिए सामाजिक आन्दोलन की जरूरत है, जो लोगों के दिमाग से धर्म में व्याप्त अमानवीय प्रथाओं व परम्पराओं को हटा दे और उसकी जगह वैज्ञानिक आधार पर मानवीय चिन्तन को प्रस्तुत करे। दलितों के प्रति अन्याय इसलिए नहीं है कि वे किसी खास धर्म से ताल्लुक रखते हैं, बल्कि उनके प्रति समाज में उत्पीडऩ इसलिए है कि वे आर्थिक तौर पर दरिद्र व सम्पतिहीन, सामाजिक तौर पर नीच व हीन तथा राजनीतिक तौर पर असुरक्षित व कमजोर हैं। इन सब पक्षों को समाहित करने वाला आन्दोलन ही दलित मुक्ति की दिशा ग्रहण करने की क्षमता रखता है।, सामाजिक व आर्थिक संघर्षों की एकता, गांव में सम्मानजनक जिन्दगी हासिल करने की शर्त है-जमीन पर हक। यहां जमीन ही संसाधन है और उत्पादन का साधन है और यह स्पष्ट ही है कि उत्पादक संसाधनों में हिस्सेदारी का अर्थ है आत्मनिर्भरता व स्वावलम्बन। आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बन किसी देश, समूह या व्यक्ति के लिए सम्मान और सुरक्षा की गारंटी है। जिसके पास जमीन नहीं है वह अपने पशुओं के चारे के लिए, अनाज के लिए तथा अन्य जरूरतों के लिए पूरी तरह भू-मालिक स्वर्णों पर निर्भर हैं और ये भू-मालिक इस 'अनुकम्पा' के लिए पूरी कीमत वसूलता है,इस कीमत चुकाने में लाख जतन करने पर भी उसके सम्मान की बलि चढ जाती है। जिसके पास गांव में जमीन है न तो उसको उजाडऩे की किसी में हिम्मत है और न ही वह स्वयं उजडऩे के लिए तैयार ही होगा। इस संदर्भ में संत साहित्य से प्रेरणा मिल सकती है। इतिहासकारों का अध्ययन बताता है कि भक्ति आन्दोलन के उभार के पीछे एक आर्थिक परिस्थिति भी थी। संत कवियों द्वारा ब्राह्मणवादी पाखण्ड़ का और छल को इतने विश्वास और प्रखरता से उठाने का साहस का रहस्य कहीं न कहीं आर्थिक पहलू में है। कबीर व अन्य संत कवियों ने आर्थिक विषमता को सामाजिक सम्मान न मिलने का कारण माना था,उनकी ऑंखों से आर्थिक वर्गभेद ओझल नहीं था,लेकिन उन्होंने इसको ईश्वर की लीला मान लिया।, कुंभरा एक कमाई माटी, बहु विधि जुगति बणाई।, एकनि मैं मुक्ताहल मोती,एकनि व्याधि लगाई।, एकनि दीना पाट-पटम्बर,एकनि सेज निवारा।, एकनि दीनौं गरे गुदरी,एकनि सेज पयारा।, संत कवि इस बात को पहचानते थे कि धनी व्यक्ति निर्धन कोई आदर नहीं देता,परन्तु ईश्वरवाद के भंवर में फंसकर यह सच्चाई दब कर रह गई। यह तत्कालीन समाज की युग चेतना की ही सीमा है कि संत कवियों की दृष्टि आर्थिक स्थिति के साथ सामाजिक समानता में तार्किक संबंध नहीं जोड़ पाई।, निर्धन आदर कोई न देई, लाख जतन करै ओहुचित न धरेई।, जौ निर्धन सरधन कै जाई,आगै बैठा पीठ फिराई।, जो सरधन निर्धन कै जाई,दीया आदर लिया बुलाई।, निधर््न सरधन दोनों भाई, प्रभु की लीला मेटी न जाई।, कहि कबीर निर्धन है सोई, जाकै हिरदै न नाम न होई।, संत कवियों ने माया का खण्डन करते हुए अमीरी और गरीबी की परिभाषा बदलने की कोशिश की। अपनी विपन्नता को उन्होंने दार्शनिक आधार देकर मानवीय गरिमा का अहसास पैदा किया था, लेकिन वर्तमान समाज में यह तरीका कारगर साबित नहीं हो सकता। यद्यपि संतों ने भी अपनी आजीविका के साधन नहीं छोड़े थे और न ही उन्होंने सम्पति का त्याग किया था।, सामाजिक बराबरी हासिल करने के संघर्ष में उत्पादन के साधनों में हिस्सेदारी प्राप्त करने का संघर्ष अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। ब्राह्मणवाद ने दलितों केा सम्पति के अधिकार से वंचित करके अपने वर्चस्व को स्थापित किया था इसलिए उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व के पहलू को दलित आन्दोलन और चिन्तन का केन्द्रीय मुद्दा बनाना होगा। चूंकि भारत की अधिकतर आबादी जमीन से जुड़ी है, इसलिए भूमि-संबंधोंं को बदलने के संघर्ष के साथ ही दलित मुक्ति का संघर्ष जुड़ा है। इससे जुड़े बिना दलित चिन्तन पीडि़त व्यक्ति का प्रलाप बनकर रह जाएगा। संत-कवियों के संघर्ष में आर्थिक पक्ष स्पष्ट नहीं था, इसलिए भावनात्मक आन्दोलन बनकर रह गया और इतनी प्रखरता के बावजूद भी मानवता का अहसास जगाने के अलावा कुछ विशेष नहीं कर पाया।इस ठोस जमीन पर वह नहीं था इसलिए बाद में उन्हीं बुराईयों का शिकार हो गया, जिनके विरूद्ध यह खड़ा हुआ था। ब्राह्मणवाद से सिर्फ विचारधारात्मक स्तर पर संघर्ष करके उसे परास्त नहीं किया जा सकता, बल्कि उसके आधार पर ही चोट करने से यह संभव है। पेरियार के आन्दोलन का जो हश्र हुआ उससे भी इसका महत्व उजागर होता है। दलित चिन्तन का संघर्ष वर्ण-व्यवस्था में उच्च वर्ण हासिल करने का या अवर्ण से स्वर्ण बनने का या जाति की बराबरी का नहीं, बल्कि ऐसी संस्थाओं व ढांचों को तोडऩे का है जो मनुष्य मनुष्य में भेदभाव करते हैं। स्पष्ट शब्दों में कहें तो वर्ण मिटाने की लड़ाई वर्ग मिटाने की लड़ाई से जुड़ी है।, कथित उच्च जातियों के नेतृत्व ने दलितों के संसाधनों के शोषण के लिए ही सामाजिक तौर पर निम्न व संपति से वंचित करने का डिजाइन बनाया और उनके विद्रोहों को दबाने के लिए ही उनके लिए कठोर दण्ड-व्यवस्था की थी। इसलिए संसाधनों को अपने पक्ष में करने पर ही शोषण व मुक्ति संभव है। हिन्दुस्तान में संपति के संबंध मूलत: भूमि संबंध ही हैं, जिनको बदले बिना सामाजिक सम्मान और मानवीय गरिमा हासिल नहीं की जा सकती। आजादी के आन्दोलन के दौरान जमींदारी प्रथा समाप्त करने और जोतने वाले की ही जमीन होने का मुद्दा सर्वाधिक चर्चा का विषय था, लेकिन आजादी के बाद के शासक वर्गों ने इसे त्याग दिया और संपति के संबंध जस के तस ही रहे। इन संपति के संबंधों में दलितों के हिस्से आया उच्च वर्गों का उत्पीडऩ और विस्थापन जिसे पूरे देश के दलित भुगत रहे हैं। उत्पादन के साधनों में हिस्सेदारी के बिना सामाजिक बराबरी व मानवीय सम्मान पाना मुश्किल है। उत्पादन के साधनों में हिस्सेदारी का अर्थ है आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बन। आत्मनिर्भर व स्वावलम्बी हुए बिना कोई वर्ग समाज में सम्मानजनक स्थान नहीं पा सकता। इसलिए संविधान में दलितों के विकास के लिए कुछ प्रावधान किए थे, उनके कुछ सकारात्मक परिणाम निकले हैं।, वर्तमान में दलित-उत्पीडऩ की घटनाओं की प्रकृति पर नजर डालने से यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि इस उत्पीडऩ के पीछे दलितों आत्मनिर्भरता व स्वावलम्बन की चाह है। शिक्षा के प्रसार से या फिर उत्पादन के साधनों में परिवर्तन से या बदली भौतिक-परिस्थितियों के कारण दलितों की स्थिति भी बदली है। वर्चस्वी शक्तियों को यह स्वीकार नहीं है, उसकी अभिव्यक्ति इन हिंसक घटनाओं में होती है, फिर बहाना चाहे गाय का हो या मजदूरी बढ़वाने का।, ब्राह्मणवादी सोच में दलित के लिए सम्मान की कोई जगह नहीं है, परन्तु अब चूंकि लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है, दलितों में शिक्षा प्रसार से या आर्थिक स्थिति के बदलने से उनमें स्वाभिमान की भावना जगी है। बदली परिस्थिति में दलित अपनी पुरानी सामाजिक स्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, दूसरी और अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए वर्चस्ववादी शक्तियों का दर्प हिंसक रूप धरण कर लेता है। इसके लिए फिर बहाना चाहे गाय का ढूंढना पड़े,चाहे मजदूरी बढवाने के लिए संघर्ष का हो। दलित व स्वर्ण संघर्ष सिर्फ इस बात की सूचना नहीं देता कि दलितों पर अत्याचार हो रहे हैं या बढ रहे हैं बल्कि इसमें ये स्वर बिल्कुल स्पष्ट है कि अब दलित जिल्लत और अपमान का जीवन जीने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हें चाहे उनको इसकी कुछ भी कीमत चुकानी पड़े,कितनी ही मुसीबतें क्यों न उठानी पड़े, चाहे घर बार छोड़कर उजडऩा भी क्यों न पड़े। वैसे भी नई व्यवस्था में गावों में रहने का कोई पेशागत कारण नहीं है,न तो उनके पास जमीन का मालिकाना हक है कि वे उस खेती कर सके और न ही मजदूरी करने की कोई जगह है। इसके बावजूद गांव छोडऩे का फैसला उनका अपना नहीं बल्कि उन पर थोंपा हुआ है,जिसे उन्होंने मजबूरी में ही स्वीकार करना पड़ा है। उनकी दिली इच्छा तो सम्मानपूर्वक रहने की है, पर अपने सम्मान को गंवाकर वे किसी भी जगह नहीं रहना चाहते। इन संघर्षों में निहित इस आवाज को भी सुनने और सही रूप में प्रस्तुत करने की जरूरत है। इसको अपने में समाहित करके और संबोध्ति करके ही दलित चिन्तन अपनी ऐतिहासिक जिम्मेवारी को निभा पाएगा।, आधार-विस्तार के लिए समग्र दृष्टि, दलित आन्दोलन के समक्ष अपने आधार को विस्तृत करने की चुनौती है। इस परिवर्तनकामी आन्दोलन में समाज के वही वर्ग शामिल होंगें, जो शोषणपरक व्यवस्था के सताए हुए हैं। डा. भीमराव आम्बेडकर ने इसकी कल्पना की थी कि कथित पिछड़ी जातियां, आदिवासी व अछूत इस आन्दोलन का आधार हो सकते हैं। इनमें सामाजिक एकता स्थापित करके इस आधार को पुख्ता किया जा सकता है। लेकिन देखने में आया है कि राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए न केवल इन वर्गों में बल्कि दलितों में भी भारी होड़ शत्रुता की हद तक है। किसी मौके पर राजनीतिक जरूरत के तहत एकता स्थापित भी हो जाती है तो वह सामाजिक एकता के मजबूत आधार के बिना जल्दी ही टूट जाती है। दलित वर्ग की तरह स्त्री भी मानवीय गरिमा से वंचित रही है। मानव गरिमा प्राप्त करने के संघर्ष में स्त्री उसकी सहयोगी हो सकती है, इसीलिए डॉ. आम्बेडकर ने स्त्री मुक्ति के लिए हर संभव प्रयत्न किए थे, लेकिन यह भी सच है कि वर्तमान का दलित आन्दोलन में स्त्री-मुक्ति का प्रश्न असंबोधित ही है। दलित आन्दोलन पितृसता को चुनौती नहीं प्रस्तुत करता, इसकारण ब्राह्मणवाद अपना अस्तित्व बनाए रखता है।, नागरिक व लोकतांत्रिक समाज अकेली अकेली जाति या समूचे दलित वर्ग से संभव नही है बल्कि बृहतर समाज के उन प्रगतिशील व संघर्षशील वर्गों को भी अपने साथ जोडऩे की जरूरत है जो ऐसे समाज निर्माण में विश्वास रखते हों। बृहतर समाज के इन परिवर्तनशील वर्गों के सहयोग के बिना दलित आन्दोलन का अपेक्षित परिणाम निकलना यदि असंभव न भी हो तो कठिन तो बहुत है ही। दलित आन्दोलन व चिन्तन की जीत दलितवाद में नहीं बल्कि बृहतर समाज के पीडि़त-वंचित वर्गों को संघर्ष में शामिल करने में हैं। दलित-चिन्तन के विस्तार और विकास की संभावनाएं भी यहीं से खुलती हें कि वह समाज में ऐसे वर्गों की पहचान करे, जो दलितों के साथ संघर्ष करने को तैयार हो और अपने संबोध्न-चिंतन में बृहतर समाज के ऐसे वर्गों की आकांक्षाओं को जगह दे। दलित मुक्ति के सवाल को बृहतर मानवीय गरिमा के संघर्ष के साथ जोड़ दे।, बृहतर समाज के प्रगतिशील वर्गों की पहचान करके व उत्पीडि़त वर्गों को संबोध्न करके ही दलित चिन्तन सृजनात्मक पक्ष उजागर कर सकता है, इसी प्रक्रिया में बृहतर वर्गों को जोडऩे की क्षमता भी बनेगी। जैसे महिलाओं को अभी तक समाज में वांछित दर्जा नहीं मिला है,उसने सदियों से ब्राह्मणवादी विचारधारा की चाबुक की उतनी ही मार खाई है जितनी कि दलित ने। उसकी हालत दलितों से खास बेहतर नही है, अभी उसे मानवीय गरिमा हासिल नही हुई है। दलित चिन्तन व आन्दोलन दलित मुक्ति के संघर्ष में नारी मुक्ति को शामिल करके संघर्ष को तीव्र कर सकता है। समाज के अन्य वर्ग हैं जो ब्राह्मणवादी घृणा व विचारधारा के सताये हुए हैं जैसे अल्पसंख्यक और पिछड़ी जातियां आदि जो अछूत तो नहीं हैं लेकिन जिनको प्रथम दर्जा हासिल नहीं है,जिनका कि सम्पति के साधनों में बहुत कम हिस्सेदारी है या कहिए कि सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से शोषित-उत्पीडि़त की श्रेणी में ही आते हैं उनको शामिल किया जा सकता है।किसी भी बड़े परिवर्तन के लिए समाज के अधिकाशं वर्गों को आन्दोलनों और संघर्षों में शामिल करना जरूरी है। यदि बृहतर संघर्षों से अलग थलग रहकर बड़े बड़े आन्दोलन भी होंगें तो वे बिना किसी विशेष उपलब्धि के अस्मिता, स्वाभिमान व पहचान की संकीर्णता का शिकार हो सकते हैं,और इसके विपरीत बृहतर समाज के संघर्षों से जुड़कर छोटे छोटे आन्दोलन भी बड़े बड़े परिवर्तनों की पृष्ठभूमि बन जाते हैं।, कबीर, नानक और रविदास जैसे संत कवियों की लोकप्रियता का आधार उनकी वाणी में मौजूद मानव समानता व मानव गरिमा है। ब्राह्मणवादी वर्ण-धर्म व उसके संस्थागत रूप के पाखण्डों में मौजूद अमानवीयता को उद्घाटित करने से ही समाज के विभिन्न वर्गों की आकांक्षाओं को वाणी देने में संभव हो सके। दलित चिन्तन को अपने अन्दर इसी तरह की सर्वग्राह्यता की जरूरत है। संत कवियों केे विचारों की ताजगी व सार्थकता का एक ही रहस्य यह है कि वे समाज के प्रगतिशील वर्गों से जुड़े थे और उनकी परिवर्तनकामी आकंाक्षा को वाणी दे रहे थे। संत कवियों ने मानवीय गरिमा हासिल करने के लिए इन वर्गों को अपनी सामाजिक स्थिति का अहसास करवाया था।, बृहतर समाज में ब्राह्मणवादी दुष्प्रचार ने दलित चिन्तन की ऐसी छवि बना दी है जैसे कि यह उस समाज के खिलाफ हो और इसमें कोई सार तत्व न हो। घृणा के इस प्रचार को काटने के लिए तथा बृहतर समाज के सामने अपनी तस्वीर पेश करने के लिए भी दलित चिन्तन काफी मेहनत करने की जरूरत है। उसको बार बार बताना पड़ेगा कि वह समाज के खिलाफ नहीं बल्कि ब्राह्मणवादी विचारधारा के खिलाफ है जो समाज में भेदभाव पैदा करती है,अमावीयता और शोषण को बढावा देती है। दलित चिंतन नकारात्मक विचारधारा नहीे है,बल्कि इसके पास लोकतांत्रिक समाज निर्माण का सकारात्मक एजेण्डा है,एक ऐसे समाज का सपना है जिसमें सभी वर्गों व व्यक्तियों को विकास के समान अवसर उपलब्ध होंगे, जिसमें सभी के विकास की गुंजाइश होगी।, दलित आन्दोलन को समग्र दृष्टि की आवश्यकता है, जो सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक सवालों को संबोधित करे। आर्थिक सवालों को दरकिनार करके मात्र सामाजिक सम्मान प्राप्त करने का संघर्ष समाज में ठोस बदलाव नहीं ला सकता और सामाजिक सवालों को छोड़कर केवल आर्थिक हितों के लिए संघर्ष की भी यही परिणति है। असल में दलितों को सामाजिक तौर पर निम्न मानने के पीछे के उनके संसाधनों का शोषण ही है। सामाजिक तौर पर उनको निम्न घोषित करके उनका आर्थिक शोषण आसान हो जाता है। इस परिस्थिति को बदलने वाली दृष्टि अपनाकर व इस दिशा में संघर्ष से ही दलित आन्दोलन की दिशा सही हो सकती है। डा. भीमराव आम्बेडकर के विचारों व सिद्धातों के सूत्र 'समानता, स्वतंत्रता और भाईचारेÓ को अपने चिन्तन व संघर्ष का केन्द्रीय सूत्र बनाने की आवश्यकता है। समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे को तोडऩे या पोषित करने वाले रिवाजों, प्रथाओं, मूल्यों, विश्वासों, प्रणालियों, विचार सरणियों को समाप्त करने के लिए संघर्ष करना तथा इन को मजबूत व स्थापित करने वाले चिन्तन को आधार प्रदान करना दलित आन्दोलन के चिन्तन को दिशा दे सकते हैं। दलितों को मानवीय, प्राकृतिक व कानूनी अधिकार प्राप्त करने के संघर्ष में ही सदियों पुराने अन्याय की प्रणालियां समाप्त होंगी और मानवीय गरिमा हासिल होगी। दलित आन्दोलन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह बदली हुई परिस्थितियों में अपना वैचारिक पक्ष निर्मित करे जिसमें न केवल दलित-मुक्ति की संभावना हो, बल्कि पूरी जनता की मुक्ति के लिए उसमें गुंजाइश हो। यदि जनता के दूसरे हिस्सों की मुक्ति की गुंजाइश इस चिंतन में होगी तभी वह अपने नेतृत्व में आन्दोलन चलाने में सक्षम हो सकती है। और समाज के दूसरे वर्ग भी उसका नेतृत्व तभी स्वीकार करेंगे जब उसमें समावेश की संभावना होगी।, संदर्भ:, 1 सं. अभय कुमार दुबे, आधुनिकता के आइने में दलित, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2005, पृ. 421, 2 सं. मणिमाला, धर्मान्तरण:जरा सी जिन्दगी के लिए, बुक्स फॉर चेन्ज, दिल्ली, 2003, पृ. 10, प्रकाश लुईस का लेख - दलित आदिवासी और धर्मान्तरण: दिशा और दृष्टिकोण, 3 श्यामाचरण दुबे, भारतीय समाज, नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया, चौैथा सं., पृ. 53 से 55, 4 सं. मणिमाला, धर्मान्तरण: जरा सी जिन्दगी के लिए,बुक्स फॉर चेन्ज, दिल्ली, 2003,पृ. 65 से 67, अली अनवर का लेख - धर्म बदलने से कुछ नहीं होगा, 5 सं. मणिमाला,धर्मान्तरण:जरा सी जिन्दगी के लिए,बुक्स फॉर चेन्ज, दिल्ली,2003,पृ. 61 ,कंवल भारती का लेख - धर्मान्तरण आज कि परिप्रेक्ष्य में, 6 सं. मणिमाला, धर्मान्तरण:जरा सी जिन्दगी के लिए, बुक्स फॉर चेन्ज, दिल्ली, 2003, पृ. 62, कंवल भारती का लेख - धर्मान्तरण आज कि परिप्रेक्ष्य में
सुभाष चन्द्र , एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र,
समाज में मौजूद किसी भी आन्दोलन की कुछ न कुछ विचारधारा अवश्य होती है, कोई दृष्टि ज़रूर होती है, जिससे वह समाज के विभिन्न पहलुओं पर विचार करती है। विचारधारा के बिना किसी सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलन की कल्पना नहीं की जा सकती। दलित एक ऐसा विशिष्ट वर्ग है, जो शोषण की अन्य संरचनाओं को झेलते हुए अमानवीय छुआछूत का शिकार भी रहा है और अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करता रहा है और जिसके तेजस्वी, प्रखर व जुझारू संघर्ष व चिन्तन ने कथित मुख्यधारा के दर्शन व मूल्यों को चुनौती दी है। वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली में दलितों के आकार व राजनीतिक जागरूकता के कारण दलित आन्दोलन चर्चा का विषय बना हुआ है। दलित कोई एकरूप समाज नहीं है और न ही दलित आन्दोलन की कोई एक निश्चित विचारधारा है। उसके कई कई रूप हैं, जो कुछ तो लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की मजबूरियों के कारण है और कुछ वास्तविक तौर पर दलित आन्दोलन की परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं और मानवीय गरिमा पाने व शोषण से मुक्ति प्राप्त करने के संघर्ष की सही दिशा में हैं। दलित चिन्तन व आन्दोलन की शक्ति व संभावना पर तथा दशा व दिशा पर विचार करने के लिए दलित मुक्ति के लिए कार्यरत विभिन्न धाराओं को आधार बनाकर विचार किया जा सकता है। इसी पर विचार करते हुए ही दलित आन्दोलन की शक्ति, स्वरूप व दिशा का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है।, दलित चिन्तन का मतलब दलितों द्वारा किया गया चिन्तन है या दलितों के बारे में चिन्तन है इस बहस में न पड़कर यदि दलित-दृष्टि की बात की जाए तो वह ज्यादा सार्थक होगी। समाज की बनावट-बुनावट को उसके मान मूल्यों एवं संस्कारों-विचारों को, संस्कृति को, इतिहास को, धर्म को, राजनीति को, अर्थनीति को या जीवन के अन्य प्राथमिक और गौण पहलुओं को विश्लेषित करने व आदर्शीकृत करने की कई दृष्टियां हैं, जिसमें दलित-दृष्टि महत्वपूर्ण है। जब से समाज में दलितों का अस्तित्व है लगभग तभी से उनके बारें में बृहतर समाज की धरणाएं हैं उसी तरह दलितों की भी बृहतर समाज के बारें में तथा अपने समाज के बारे में चिन्तन करने की परम्परा कमोबेश अवश्य रही है। जब जब समाज में बदलाव हुए हैं, समाज के स्वरूप व तंत्र में बदलाव हुआ है तो समाज के विभिन्न वर्गों की स्थितियां व हैसियत भी निश्चित रूप से बदली हैं, तब तब वर्गों की एक दूसरे के बारे में समझ व धारणाओं में भी परिवर्तन हुआ है। बृहतर समाज में परिवर्तन के बिन्दुओं व पड़ावों की पहचान करते हुए दलितों की स्थिति में और दलित दृष्टि में हुए परिवर्तनों को समझने की जरूरत है। इन परिवर्तनों की पहचान ही दलित दृष्टि के इतिहास व परम्परा का आधार बन सकती है और इसके सृजनात्मक पहलुओं को सही सही रेखांकित किया जा सकता है।, हमारे देश में में दो तरह की संस्कृतियां, विचार, मूल्य-संस्कार रहे हैं और दिलचस्प बात यह है कि इनका रिश्ता परस्परता व सह-अस्तित्व का नहीं बल्कि संघर्ष और टकराहट का रहा है। ये टकराहट अमूर्त किस्म की या मात्र बौद्धिक स्तर की नहीं रही बल्कि समाज में होने वाली ठोस टकराहट है जो दलितों के मानवीय गरिमा और सम्मान पूर्वक जीने की अनिवार्य शर्त की तरह रही है। इनमें एक है-ब्राह्मणवादी संस्कृति व दूसरी है श्रमण संस्कृति ,जिसमें दलित दृष्टि शामिल है। इन दो मूल्य समूहों की टकराहट-संघर्षों के रूपों और तीव्रता को चिन्हित करके ही दलित दृष्टि की पहचान हो सकती है। दलित दृष्टि ब्राह्मणवादी दृष्टि की समानान्तर प्रतिक्रिया भी है और विकल्प भी। मानवीय गरिमा प्राप्त करने के इस संघर्ष में दलित दृष्टि ने न केवल दलितों के लिए बल्कि बृहतर समाज के लिए भी बहुत कुछ सकारात्मक दिया है।, देखने की जरूरत यह भी है कि इन दो संस्कृतियों में संघर्ष के मुख्य बिन्दु क्या रहे हैं। सर्व विख्यात है कि ब्राह्मणवादी संस्कृति मुख्यत: दो स्तम्भों पर टिकी है, कम से कम इन पर 'गर्व' करने लायक कुछ भी नहीं है बल्कि भारत की लगभग 70 प्रतिशत इन्सानों ने इसे अभिशाप की तरह भुक्ता है और इस बहुसंख्यक आबादी का कोई भौतिक या आध्यात्मिक कसूर भी नहीं था, ये तो केवल एक दंभ का शिकार हुए। ब्राह्मणवादी संस्कृति के वे कुख्यात स्तम्भ हैं--पितृसत्ता और वर्ण-व्यवस्था। पितृसत्ता यानि पुरूष प्रधानता के दंश को आधी आबादी ने झेला है, इसने स्त्रियों के स्वतंत्र मानवीय अस्तित्व को नकार कर उसे पराधीन बनाया और तमाम नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया। ब्राह्मणवाद का यह पूरे समाज के चिन्तन व जीवन में किसी न किसी रूप में बैठा रहा।, ब्राह्मणवाद के दूसरे स्तम्भ--वर्ण-व्यवस्था की भेदभावपूर्ण दृष्टि और उत्पति के कृत्रिम 'द्विज' सिद्धांत ने शेष आधी से अधिक आबादी को इन्सान मानने से ही इन्कार कर दिया। इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को सख्ती से लागू करने के लिए ज्ञान और बाहुबल की पूरी ताकत लगा दी और बड़ी चालाकी से दलितों को शस्त्र-शास्त्र विहिन करके गुलाम की हालत में पहुंचाया और उसकी मेहनत से ऐश्वर्यपूर्ण जीवन का आनन्द लूटा। ब्राह्मणवाद के इन प्राण-तत्वों ने अधिकांश आबादी को दबाए रखने के लिए नए नए पैंतरे बदले हैं और सुपर टेक्नॉलोजी के युग में आज भी विभिन्न रूपों में मानवता को लीलने की आधुनिक विधियां खोज रहे हैं, जबकि दलित संस्कृति ने इसके बरक्स अन्याय, अत्याचार, शोषण से मुक्ति के लिए संघर्ष किया है और मानवीय दृष्टि के निर्माण में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाई। ब्राह्मणवादी संस्कृति के इन दो मूल्यों की टकराहट में ही दलित दृष्टि व दलित चिन्तन का निर्माण-विकास हुआ है।, ब्राह्मणवाद का आधार या जीवन स्रोत हिन्दू धर्मग्रन्थ जैसे वेद-वेदांग, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रन्थ,पौराणिक साहित्य एवं स्मृति ग्रन्थ हैं। इन्हीं के माध्यम से ब्राह्मणवाद अपना विचारधारात्मक वर्चस्व स्थापित करता रहा है। दलित दृष्टि इस वर्चस्व को लगातार चुनौती दी है। यदि दलितों के दैंनदिन के अलिखित संघर्षों को न भी गिना जाए तो भी भारतीय इतिहास में बौद्ध धर्म के उभार, भक्ति-आन्दोलन तथा जोतिबा फूले व अंबेडकर की संघर्ष दृष्टि को तो स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह वर्तमान दलित आन्दोलन और दलित दर्शन की परम्परा एवं प्रेरणा स्रोत है, जिससे वर्तमान दलित दृष्टि काफी कुछ ग्रहण कर सकती है। भक्ति-आन्दोलन के संत-कवियों ने अपनी रचनाओं में ब्राह्मणवाद की तथाकथित शाश्वतता, पवित्रता व सार्वभौमिकता पर उंगली उठाकर चुनौती दी और श्रेष्ठता ओर उच्चता पर प्रहार किया। संत-साहित्य की व्यावहारिक और मानवीय दृष्टि के सामने ब्राह्मणवाद बौना व लाचार नजर आया, परिणामस्वरूप यह आन्दोलन के रूप में काफी बड़े क्षेत्र में फैल गया। कबीर, नानक, रविदास व अन्य संतों की वाणी ने मानवता को जगाया जिसका असर आज भी जनमानस पर है।, आज के दलित चिन्तन की एक धारा ने ब्राह्मणवाद के संपूर्ण विरोध की बजाए उसके स्मृति-पक्ष या स्मृति धर्म को ही अपने विरोध का मुख्य लक्ष्य मान लिया है। ब्राह्मणवाद को मात्र मनुवाद तक सीमित कर देना और मनुवाद को ही ब्राह्मणवाद का पर्याय मान लेना एकांगी दृष्टिकोण है। दलित चिन्तन में यह एकांगीता गहरे में घर कर रही है, जिसकी वजह से ब्राह्मणवाद पर उतना तीखा प्रहार नहीं होता। इस एकांगीता के कारण दलित चिन्तन जातिप्रथा-उन्मूलन का नहीं बल्कि जातिवाद के विरोध का आन्दोलन बनकर रह गया है।, वर्तमान दलित चिन्तन में मनुवाद की निन्दा की जाती है, लेकिन मनुवाद समाप्त करने की ललक कम ही दिखाई देती है। ब्राह्मणवादी मानसिकता की नकल करके अपने दलित होने पर गर्व करने और महिमामंडि़त करने का विचार जोर पकड़ रहा है। इस मानसिकता के चलते दलित कही जाने वाली जातियों के लोगों की एकता,इन्सानी भाईचारे व समानता की बजाए जातिगत पद सोपान के ऊंच-नीच, श्रेष्ठ-निम्न के ब्राह्मणवादी फर में पड़ गई हैं। ब्राह्मणवादी विचारधारा और सता ने इसे हवा दी है, जिसके चंगुल में आकर दलित बुद्धिजीवी उसी चैखटे में फिट हो रहे हैं और एक दलित जाति दूसरी दलित जाति का राजनीतिक-सामाजिक स्तर पर विरोध कर रही हैं। विडम्बनापूर्ण है कि जातिगत ढाचों में झूल रहा दलित चिन्तन जाने-अनजाने ब्राह्मणवाद को पोषित करने में भूमिका निभा रहा हैं, जबकि जातिविहीन समाज में ही दलित समाज को सामाजिक समानता, सामाजिक न्याय और सामाजिक सम्मान मिल सकता है।, संस्कृतिकरण, नीची जाति या समुदाय द्वारा द्विज समुदाय को मॉडल मान कर उसी के आचार-व्यवहार, खान-पान और पहनावे का अनुकरण करते हुए सामाजिक प्रगति का प्रयास करना' संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कहलाती है, इस सिद्धांत का प्रतिपादन एम.एन. श्रीनिवास ने किया था। अगर कोई गैरद्विज जाति खास तौर से ब्राह्मणों को मॉडल बनाती है तो इसे ब्राह्मणीकरण भी कह सकते हैं लेकिन संस्कृतिकरण में नीची जातियों ने अक्सर क्षत्रियों को मॉडल माना है।1 ब्राह्मणवाद की तमाम बुराइयां दलित चिन्तन में घर करती जा रही है भाग्यवाद, नियतिवाद, रूढिवाद, पाखण्ड, कर्मफल, पुनर्जन्म आदि से ग्रस्त हो रहा है। इन बुराइयों के खिलाफ कोई आन्दोलन दलित चिन्तन में दिखाई नहीं देता। दलित आबादी में जागरण-कीर्तन, व्रत-उपवास, कर्मकाण्ड-कावड़, तथाकथित धर्मग्रन्थों का पाठन-वाचन आदि ब्राह्मणवादी चैखटे में हो रहा है। जिस तरह स्वर्ण हिन्दू अपने मोहल्लों या मण्डियों में हिन्दू देवी देवताओं के नाम पर मंन्दिरों का निर्माण कर रहे हैं और धर्मसेवा व पुण्य कमाने के अहं में मस्त हो रहे हैं उसी तरह दलित भी इन आयोजनों में न केवल सक्रिय भागीदारी कर रहे हैं बल्कि इनका नेतृत्व भी कर रहे हैं। दलित बस्तियों,मोहल्लो व चौपालों में ब्राह्मणवाद के प्रतीक हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं तो कहीं पर रविदास-बाल्मिकी के नाम पर मंदिर बना कर इनका भी ब्राह्मणीकरण कर रहे हैं। प्रसाद-चढावा और भंडारे का स्वाद चखने के लिए एक नया पुजारी वर्ग पैदा हो रहा है जो अंधश्रद्धा पैदा करके ब्राह्मणवादी संस्कारों-मूल्यों को वैधता प्रदान कर रहा है और ब्राह्मणवादी जीवन-पद्धति व संस्कारों को दलितों में घुसा रहे हैं।, डॉ अम्बेडकर ने मंदिरों में प्रवेश का संघर्ष पूजा करने के लिए नहीं किया था बल्कि इसलिए किया था कि दलितों का यह नागरिक और मानवीय अधिकार है कि वे सार्वजनिक स्थानों पर जा सकते हैं फिर चाहे वह तालाब हों,चौपाल हों या कि मंदिर। वे इन मंदिरों को दलितों के प्रति भेदभाव का प्रतीक मानते थे और इस भेदभाव को मिटाना उनका मकसद था। मंदिर प्रवेश उनके लिए मानवीय गरिमा पाने की लड़ाई का हिस्सा थी न कि पूजा करने के अधिकार पाने का, इसीलिए उन्होंने दलितों केे लिए अलग से मंदिरों का निर्माण अभियान नहीं चलाया और न ही दलितों को इसके लिए प्रेरित किया। यदि पूजा करना या धार्मिक उद्देश्य होता तो वे इसको अलग से मंदिर बनाकर भी पूरा कर सकते थे,परन्तु उनका जोर इसी बात पर था कि दलितों को समाज में बराबरी का दर्जा मिले। लेकिन अब जो मंदिर निर्माण अभियान चल रहा है उसके पीछे ऐसा कोई मकसद नहीं है बल्कि मूलत: यह दलित दृष्टि और चिन्तन के खिलाफ है और ब्राह्मणवाद का पोषण करता है। यह मानवीय गरिमा हासिल करने का नहीं बल्कि अंधश्रद्धा की उपज है। 'तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार' का नारा देकर दलित आक्रोश को राजनीतिक रूप देने वाला नेतृत्व अब कहने लगा है कि 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्म, विष्णु, महेश है'। ब्राह्मणवादी विचारधारा के संवाहक इन प्रतीकों के साथ इसकी विचारधारा को भी दलितों में मान्यता मिल रही है। संत कवियों ने इस ब्राह्मणवादी पाखण्ड का विरोध किया था।, ब्राह्मणवाद की अमानवीय विचारधारा की शोषित-वंचित वर्गों में स्वीकृति को समाप्त करना दलित आन्दोलन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। वर्ण धर्म की नैतिकता को, जाति-आधारित भेदभाव व ऊंच-नीच को, भाग्यवाद व रूढि़वाद को, कर्मफल व पुनर्जन्म के नियतिवादी मान्यताओं को इन वर्गों से समाप्त करना है। दलित आन्दोलन के चिन्तकों ने ब्राह्मणवादी धार्मिक-पाखण्डों, कर्मकाण्डों, नियतिवाद-भाग्यवाद व रूढि़वाद का विरोध किया है। लेकिन वर्तमान में दलित आन्दोलन इससे छुटकारा पाने के प्रयास करने की बजाए इसको अपना रहा है और जगरातों-कीर्तन, गुरूवाद, व्रत-उपवास, कावड़ आदि में लिप्त है। अंधविश्वास, अंधश्रद्धा और ईश्वरवाद शोषण, अन्याय, उत्पीडऩ, गरीबी व अभावग्रस्तता के समाधान पराभौतिक ढूंढता है और व्यवस्थाजन्य नहीं मानता। इस मिथ्याचेतना से टकराए बिना दलित आन्दोलन अपनी सही दिशा ग्रहण नहीं कर सकता।, राजनीतिक सत्ता बनाम सामाजिक परिवर्तन, दलित आन्दोलन और दलित चिन्तन मूलत: सामाजिक आन्दोलन हैं, जिसकी राजनीतिक भंगिमा भी है,लेकिन वर्तमान दलित-आन्दोलन और दलित-चिन्तन सामाजिक सवाल को पीछे करके मुख्यत: राजनीतिक स्वर ग्रहण कर रहा हैै। चिन्ता की बात यह है कि इस सता प्राप्त करने की राजनीति पर ब्राह्मणवादी किस्म का राजनीतिक अवसरवाद हावी है, जो दलितों को ही आहत कर रहा हैै। इसके उदाहरण मिल जायेंगें कि समय समय पर दलित कही जाने वाली जातियों के लोगों में राजनीतिक एकता तो हो जाती है लेकिन सामाजिक एकता नहीं हो पाती। सामाजिक एकता के अभाव में सशक्त आन्दोलन का निर्माण नहीं हो पाता और तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों के चलते यह एकता भी कुछ समय के बाद छिन्न-भिन्न हो जाती है। दलित चिन्तन को प्रगतिशील सामाजिक दर्शन की जरूरत है जो दलितों की सामाजिक एकता बनाए बना सके। प्रगतिशील दर्शन के अभाव में दलित-आन्दोलन स्वार्थी नेतृत्व के राजनीतिक अवसरवाद का शिकार होने को मजबूर है। स्वार्थी नेतृत्व अपने व्यक्तिगत हितों के लिए घोर मनुवादियों के साथ भी सता की बन्दरबांट करने में कोई हिचकिचाहट नहीं करता। आर.एस.एस.और उसके आनुषंगिक संगठन तो समाज में मनु-संहिता और ब्राह्मणवादी संस्कृति को प्रतिष्ठापित करने के लिए वचनबद्ध हैं और जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे जैसे मूल्यों पर आधरित संविधन को भी बदलना चाहतें हैं। ऐसे चरम मनुवादियों के साथ भी गलबंहियां करने में कोई गुरेज न होना न केवल उनके विचारधारात्मक दिवालियेपन को दर्शाता है बल्कि घोर स्वार्थ को भी बताता है। अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए हिन्दुओं की एकता चाहने वाले आर.एस.एस. व उसके आनुषंगिक संगठनों को सामाजिक दृष्टि से विभाजित हिन्दू ही चाहिए। ब्राह्मणवाद की वकालत करने वाले इन संगठनों की विचारधारा से दलित चिन्तन का मूलभूत विरोध है। जहां इनके लिए मनुस्मृति पूज्य और आदर्श ग्रन्थ है वहीं दलितों के मसीहा डॉ. अम्बेडकर ने इसे दलित उत्पीडन का प्रतीक मानकर जलाया था।, डॉ भीमराव अम्बेडकर ने यह तो अवश्य कहा था कि 'राजनीति की चाबी से सभी ताले खुलते हैं' लेकिन उनका मुख्य जोर सामाजिक सुधार पर ही था। तत्कालीन कांग्रेस और गांधी की आलोचना भी उन्होंने इसी दृष्टि से की थी कि कांग्रेस में सामाजिक सुधारकों की आवाज राजनीतिक कार्यकर्ताओं के आगे दब गई थी। कांग्रेस ने समाज सुधार का काम अपने राजनीतिक कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया ही नहीं और ज्यों ज्यों स्वतंत्रता आन्दोलन तेज हुआ त्यों त्यों कांग्रेस का समाज सुधार की ओर से ध्यान कम होता गया। दरअसल कांग्रेस के नेतृत्व ने यह मान कर गलती की थी कि स्वतंत्रता प्राप्त हो जाने के बाद शिक्षा के प्रसार से या वैज्ञानिक विकास से जो तरक्की होगी उससे सामाजिक बुराइयां स्वत: ही समाप्त हो जायेंगीं, इनके खात्मे के लिए अलग कोई आन्दोलन चलाना जरूरी नहीं है। इसकारण उन्होंने राजनीतिक स्वर को मुख्य रखा। डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि स्वतंत्रता के लिए संघर्ष के साथ साथ सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने का अभियान चलाया जाए और समाज सुधार को राजनीतिक कार्यक्रमों का जरूरी हिस्सा बनाया जाए। कांग्रेस द्वारा समाज सुधार पर बल न देने का एक कारण यह भी था कि कांग्रेस में भी ब्राह्मणवादी विचारधारा के समर्थकों काफी बड़ी संख्या थी, जो विचार के तौर पर इसके तर्क से सहमत थे। डॉ. अम्बेडकर की आश्ंाका सही साबित हुई स्वतंत्र भारत की सता सामन्ती ब्राह्मणवादी तत्वों के हाथों में आती चली गई और दलितों को सही हक नहीं मिला।, आमूल चूल सामाजिक बदलाव के लिए राजनीतिक शक्ति हासिल करना दलित आन्दोलन की जरूरत है, लेकिन सिर्फ सत्ता प्राप्त करना व उसमें बने रहने मात्र से ही दलित आन्दोलन का भला नहीं हो सकता। राजनीतिक नेतृत्व ने 'सोशल चेंज' यानी सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्ष करने के अलावा 'सोशल-इंजीनियरिंग' के सिद्धांत को 'गुरू-किल्ली' मान लिया है। इस इंजीनियरिंग में जातियां भी यूं की यूं बनी रहती हैं और उनमें व्याप्त भेदभाव भी। सामाजिक परिवर्तन को अपने राजनीतिक एजेंडे से निकाल देने पर सत्ता दलितों के किसी काम नहीं आती। राजनीतिक शक्ति का प्रयोग सामाजिक न्याय व उत्पीडऩ के खिलाफ प्रयोग न किया जाए तो उसकी क्रांतिकारिता गायब हो जाती है। अन्य पूंजीवादी राजनीतिक दलों की तरह यहां धन-शक्ति का वर्चस्व बढ रहा है, जो दलितों को राजनीतिक रूप से निराश कर रहा है। दलित राजनीतिक नेतृत्व में सामन्ती तत्वों व गैर बराबरी की मौजूदगी उसे प्रगति विरोधी बना देती है, जिसमें एक व्यक्ति तो ऊपर उठता रहता है, लेकिन सारा समाज पिछड़ता जाता है।, जाति-उन्मूलन बनाम जाति-स्वाभिमान, मनुवाद का सीधा सा अर्थ है कि वर्ण व जाति व्यवस्था को स्वीकृत करना और जाति की संरचना को तोडऩा। दलित आन्दोलन की परम्परा संघर्ष इसके खिलाफ रहा है। लेकिन आज दलित आन्दोलन में इसे तोडऩे की बजाय या तो अपनी जाति पर गर्व करने की या जातिगत आधार पर एकत्रित होने की होड़ है। दलित मुक्ति की लड़ाई जाति-स्वाभिमान का रूप लेती जा रही है। जाति का यह स्वाभिमान कहीं दलित महापुरूषों के नाम पर भव्य भवन बनाने में तो कहीं उनके नाम पर पार्क या शिक्षण-संस्थाओं के नाम रखवाने के लिए, तो कहीं चैक पर उनकी मूर्ति-स्थापना करवाने के लिए किए जा रहे प्रयासों में प्रदर्शित हो रहा है। दलित कही जाने वाली जातियों ने अपनी-अपनी जाति के महापुरूषों की खोज कर ली है। किसी जाति ने पौराणिक-धार्मिक मिथकों से अपने महापुरूषों को ढूंढ निकाला है तो कोई ऐतिहासिक पुरूषों के साथ किवंदतियां जोड़कर उनको मिथकों की तरह प्रस्तुत कर रही है और इनमें अपनी अस्मिता की तलाश कर रही हैं। महापुरूषों की जयन्ती और पुण्य-तिथि पर जाति के इतिहास का स्तुतिगान हो रहा है व इन दिवसों पर जाति भव्य-भोज के आयोजनों में 'जाति-सेवा' व 'जाति-प्रेम' टपक रहा है। इसी आधार पर अपनी अपनी जातियों के नेता बनकर अपनी जाति को ऊपर उठाने के प्रयास में खुद ही ऊपर उठे जा रहे हैं और मुटा रहे हैं। दलितों की एकता को जाति में बांटकर दलित उद्धारक के खिताब से भी स्वयं को गौरवान्वित कर रहे हैं। अपनी जाति के लोगों में ब्राह्मणवादी संस्कार व जाति-भावना को मजबूत करके उनको फिर से जाति के दड़बे में ध्केल रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि दलितों में से उभरा मध्यवर्ग दलित आन्दोलन को पुख्ता करने की बजाए उसे जाति-आन्दोलन में तब्दील कर रहा है। अपने समाज को जातिगत पहचान देकर पुरानी संरचनाओं में जकड़ रहे हैं। दलित-प्रतीकों के लिए संघर्षों से वास्तविक बदलाव के ठोस मुद्दे गायब हो रहे हैं। दलित आन्दोलन का विकास जाति तोडऩे की प्रक्रिया में विकसित होगा, न कि जातिगत स्वाभिमान के प्रदर्शन में।, जाति स्वाभिमान की लड़ाई से दूर हटकर जाति तोडऩे की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल होकर ही दलित चिन्तन रचनात्मक भूमिका अदा कर सकता है। जाति स्वाभिमान की इस लड़ाई को नागरिक समाज के निर्माण की लड़ाई में बदलने की जरूरत है क्योंकि लोकतांत्रिक और नागरिक समाज के निर्माण के बिना समानता, स्वाधीनता और भाईचारे के मूल्यों की स्थापना नहीं हो सकती, एक दूसरे के प्रति सम्मान और आदर की भावना का विकास ऐसे ही समाज में संभव है।, धर्म परिवर्तन से दलित-मुक्ति नहीं, दलित-चिन्तन की एक धारा दलित-उत्पीडन का समाधन धर्म परिवर्तन में ढूंढ रही है। जब भी दलित उत्पीडऩ की दिल दहला देने वाली कोई घटना घटती है तो इसका निदान धर्मान्तरण में ढूंढने वाले दलित चिन्तक अपने अमले के साथ पीडि़तों के पास पहुंच जाते हैं। गौर करने की बात यह है कि दलित को हिन्दू धर्म से दूसरे धर्म की दीक्षा देने का यह कर्मकाण्ड उसी समय होता है जब कोई लोमहर्षक घटना घट जाए, जबकि दलितों का उत्पीडऩ तो हर रोज होता रहता है। इस समय उत्पीडि़त दलितों को कोई हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाने की प्रेरणा देता है तो कोई इस्लाम जैसे कि सिर मुंडा लेने से या दाढी रख लेने व कलमा पढ लेने से उनकी सारी समस्याओं का हल हो जाएगा। ''अगर धर्मान्तरण व्यक्तिगत विकास में आस्था रखकर किया जाता है, तो आगे विचार करने की जरूरत नहीं है। लेकिन जब धर्मान्तरण को न केवल एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तन, मगर सामाजिक परिवर्तन के एक बुनियादी औजार के रूप में मानकर चलें तब धर्मान्तरण के नाम पर जो भी हो रहा है उस पर सवाल खड़ा करना व्यवहारिक है।''2, दलित उत्पीडऩ कोई धार्मिक उत्पीडऩ नहीं है बल्कि इसकी जडें़ तो सामाजिक जीवन में हैं। जब दलित और सवर्ण का धर्म एक है, पूजा पद्धति एक जैसी है देवी देवता एक जैसे हें तो उनमें टकराव क्यों है? सवर्ण हिन्दू अपने सहधर्मियों पर अत्याचार और उत्पीडऩ क्यों करता है? इस पर नजर डालने से धर्मान्तरण के विचार की अपर्याप्तता स्पष्ट हो जायेगी। यह सामाजिक समस्या है न कि धार्मिक, इसलिए इसका समाधान भी सामाजिक ढंग से ही निकलेगा न कि धार्मिक ढंग से। सामाजिक उत्पीडऩ व अत्याचार की धर्म से तो मात्र वैधता ठहराई जाती है।, धर्मान्तरण इसमें कोई सकारात्मक भूमिका नहीं निभा सकता क्योंकि धर्मान्तरण से उनकी सामाजिक हैसियत में या स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आता। धर्म परिवर्तन से न तो बृहतर समाज की उनके बारे में कोई धरणा बदलती है और न ही दलितों के अन्दर कोई आत्मविश्वास आता है,जब कोई सामाजिक टकराहट होगी तो उनके प्रति वही रवैया होगा। अधिक से अधिक इतना अन्तर आता है कि उनके प्रति होने वाले उत्पीडऩ को दलित उत्पीडऩ कहने की बजाए बौद्ध दलित उत्पीडऩ या मुस्लिम दलित उत्पीडऩ या ईसाई दलित उत्पीडऩ कह दिया जाएगा।, बहुत से दलितों ने हिन्दू धर्म को छोड़कर दूसरे धर्मों को अपनाया है इससे उनकी स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया। ''जनवरी 1988 में अपनी वार्षिक बैठक में तमिलनाडु के बिशपों ने इस बात पर ध्यान दिया कि धर्मांतरण के बाद भी अनुसूचित जाति के ईसाई परंपरागत अछूत प्रथा से उत्पन्न सामाजिक व शैक्षिक और आर्थिक अति पिछड़ेपन का शिकार बने हुए हैं। फरवरी 1988 में जारी एक भावपूर्ण पत्र में तमिलनाडु के कैथलिक बिशपों ने स्वीकार किया 'जातिगत विभेद और उनके परिणामस्वरूप होने वाला अन्याय और हिंसा ईसाई सामाजिक जीवन और व्यवहार में अब भी जारी है। हम इस स्थिति को जानते हैं और गहरी पीड़ा के साथ इसे स्वीकार करते हैं।' भारतीय चर्च अब यह स्वीकार करता है कि एक करोड़ 90 लाख भारतीय ईसाइयों का लगभग 60 प्रतिशत भाग भेदभावपूर्ण व्यवहार का शिकार है। उसके साथ दूसरे दर्जे के ईसाई जैसा अथवा उससे भी बुरा व्यवहार किया जाता है। दक्षिण में अनुसूचित जातियों से ईसाई बनने वालों को अपनी बस्तियों तथा गिरिजाघर दोनों जगह अलग रखा जाता है। उनकी 'चेरी' या बस्ती मुख्य बस्ती से कुछ दूरी पर होती है और दूसरों को उपलब्ध नागरिक सुविधओं से वंचित रखी जाती है। चर्च में उन्हें दाहिनी ओर अलग कर दिया जाता है। उपासना , सर्विस , के समय उन्हें पवित्र पाठ पढऩे की अथवा पादरी की सहायता करने की अनुमति नहीं होती। बपतिस्मा, दृढि़करण अथवा विवाह संस्कार के समय उनकी बारी सबसे बाद में आती है। नीची जातियों से ईसाई बनने वालों के विवाह और अंतिम संस्कार के जुलूस मुख्य बस्ती के मार्गों से नहीं गुजर सकते। अनुसूचित जातियों से ईसाई बनने वालों के कब्रिस्तान अलग हैं। उनके मृतकों के लिए गिरजाघर की घंटियां नहीं बजतीं, न ही अंतिम प्रार्थना के लिए पादरी मृतक के घर जाता है। अंतिम संस्कार के लिए शव को गिरजाघर के भीतर नहीं ले जाया जा सकता। स्पष्ट है कि 'उच्च जाति' और 'निम्न जाति'Ó के ईसाइयों के बीच अंतर्विवाह नहीं होते और अंतर्भोज भी नगण्य हैं। उनके बीच झड़पें आम हैं। नीची जाति के ईसाई अपनी स्थिति सुधारने के लिए संघर्ष छेड़ रहे हैं, गिरजाघर अनुकूल प्रतिक्रिया भी कर रहा है लेकिन अब तक कोई सार्थक बदलाव नहीं आया है। ऊंची जाति के ईसाइयों में भी जातिगत मूल याद किए जाते हैं और प्रछन्न रूप से ही सही लेकिन सामाजिक संबंधोंं में उनका रंग दिखाई देता है।, मुसलमानों में स्थिति कुछ भिन्न है। नमाज अदा करने के लिए मस्जिदों में प्रवेश पर कोई प्रतिबंध नहीं हैं और अछूत प्रथा स्पष्ट नहीं है। लेकिन सामाजिक स्थिति के सूचक तथा सामाजिक अन्त:क्रिया को नियंत्रित करने वाले वर्ण तथा जाति जैसे विभेद मौजूद हैं। अशराफ (शरीफ जातियां, उच्च जाति जैसा वर्ग) और अजलाफ (आम, नीची जाति जैसा वर्ग) जात की बात करना आम है। ये विभेद विवाह, अंतर्भोज तथा समारोहों और अन्य सामाजिक आयोजनों में भागीदारी जैसी अंतर्समूह सामाजिक अंतर्कि्रया का निर्धरण करते हैं। मूल याद किये जाते हैं और हिन्दू धर्म से इस्लाम धर्म अंगीकार करने वाले अब भी बड़े पैमाने पर अपने पुराने जातिगत व्यवसायों में लगे हैं। मुगलकाल में सैयद, शेख, मुगल और पठानों के विभाजनों की समानता प्राय: हिन्दू समाज के वर्ण विभाजनों से दिखाई जाती थी और भारत के कुछ भागों में हिन्दू धर्म से इस्लाम ग्रहण करने वाले इन्ही विभाजनों में से किसी एक में शामिल होना आवश्यक मानते थे। इस्लाम के प्रति यह ठीक है या नहीं यह एक अलग प्रश्न है किंतु यह तो एक तथ्य है ही कि ऐसा होता है। सैयद पैगम्बर की बेटी के जरिये उनके परिवार के वंशज हैं। वे अरब मूल के हैं। लेकिन इस्लाम में धर्मांतरित अनेक उच्चतर जातियां इस परिस्थिति का दावा करती हैं। धर्मांतरित ब्राह्मणों ने दावा किया कि उनकी सैयद परिस्थिति की पुष्टि सम्राट अकबर ने की थी। शेख भी अरब मूल के हैं यद्यपि वे पैगम्बर के वंशज नहीं हैं। धर्मांतरित की पहली पीढ़ी भी खुद को शेख कहती है। दिल्ली का शासक वंश 'मुगलÓ शेख के बाद आता था। वे तुर्की मूल के थे लेकिन तुर्की के आटोमन शासकों से स्वयं को अलग दिखाने के लिए उन्होंने 'मुगलÓ पदनाम ग्रहण कर लिया था। पठान अफगान मूल के थे यद्यपि उनमें से अनेक ने, जिनका अफगानिस्तान से दूर दूर तक कोई नाता नहीं था, पठान होने का दावा किया। स्तर कूद और सामाजिक सीढ़ी चढऩे का काम काफी हुआ। यह प्रवृति एक चुटकले में, जो बहुत सुरुचिपूर्ण नहीं है, अभिव्यक्त हुई है: 'पिछले साल मैं जुलाहा था,इस साल शेख हूं,अगले साल अगर फसल अच्छी हुई, मैं सैयद बन जाऊंगा।' उच्चतर जातियां - राजपूत, जाट और अहीर - अपनी पहचान बनाये रहीं। जुलाहा, तेली, भाट, कलाल और भिश्ती जैसी अनेक जातियों की तुलना कई दृष्टियों से हिन्दू जातियों के साथ की जा सकती है जिनके विशिष्ट व्यवसाय हैं तथा परिस्थितिक्रम है। जाति के बने रहने से मुसलमान धर्मशास्त्री तथा सामाजिक सुधारक चिंतित हैं किंतु कट्टरपंथ की ताजा लहर भी इसे नष्ट नहीं कर पाई है।, भारतीय मूल के धर्मों - जैन, बौद्ध तथा सिख - जाति के जारी रहने के साक्ष्य हैं। नव बौद्धों को स्वयं को अपनी पूर्व जाति परिस्थिति से असंबद्ध करना कठिन लग रहा है। सिख धर्म का समतावादी लोकाचार जाति यहां तक कि अस्पृश्यता की भी उपस्थिति से भोंथरा हो रहा है।, वर्ण और जाति की धरणाओं की पकड़ ऐसी है कि उसने हिन्दू धर्म से आगे बढ़ अन्य धर्मों पर भी अपनी जकड़ बना ली है। जाति और वर्ण को भारतीय समाज के लगभग सभी हिस्सों में सक्रिय देखा जा सकता है। समाज सुधारक भी इस रुझान को बदल पाने में अफल रहे हैं हालांकि कुछ समाज सुधारकों ने इसे बदलने के लिए कड़ी मेहनत की है।''3, धर्मांतरितों के प्रति वही भाव अभी भी है, जो हिन्दू धर्म में रहते हुए था।धर्म बदलने से उनकी संस्कृति और पेशा नहीं बदलता परिणामत: जीवन में भी कोई परिवर्तन नहीं होता। जिन्होंंने हिन्दू धर्म के अपमान से बचने के लिए बौद्ध या इस्लाम धर्म अपनाया वे आज भी अछूत या दलित होने का अभिशाप भुगत रहे हैं और विड़म्बना यह है कि नौकरियों में आरक्षण पाने के लिए अपने को दलित साबित करने पर विवश हैं। ''आम तौर पर मुस्लिम समाज को एक 'मॉनोलिथ सोसाइटी' के रूप में देखा जाता है, लेकिन हकीकत यह नहीं है। इसमें एक से बढ़कर एक तरक्कीयाफ्ता तबके हैं, तो इसका एक बड़ा हिस्सा पसमांदा , पिछड़ा , और दलित भी है। बिरादरी, कबीला और खानदान के नाम पर आला और अदना का फर्क यहां भी मौजूद है। इस नाम पर सैंकड़ों सालों से तफरीक , भेदभाव , बरता जाता है। इस्लाम में उसूलन इस तरह के बातों की सख्त मनाही है। बावजूद इसके हमारे उलेमा इन सवालों पर कभी मुंह नहीं खोलते। .... मुसलमानों में कई बिरादरियां ऐसी हैं, जिनकी समाजी, तालीमी और माली हालत हिन्दू दलितों से भी खराब है। इन बिरादरियों का नाम और पेशा भी हिन्दू दलितों से मिलता-जुलता है। मसलन हिन्दू धोबी, मुस्लिम धोबी, हिन्दू नट, मुस्लिम नट, हिन्दुओं में हलखोर तो मुसलमानों में हलालखोर आदि कोई एक दर्जन ऐसी बिरादरियां हैं, जो पहली नजर में ही शेड्यूल कास्ट के दर्जे की हकदार हैं। हिन्दू दलितों के बीच से तो राष्टपति से लेकर मुख्यमंत्री तक होते हैं। मगर मुस्लिम दलित के बीच आज तक कोई एम.पी., एम.एल.ए. नहीं हुआ। यह देखकर खुशी होती है कि आज भारत के हिंदू दलितों के बीच आई.ए.एस., आई.पी.एस. की भरमार है। मगर मुस्लिम दलित के बीच तो स्कूल मास्टर और किरानी मिलना मुश्किल होता है। बिहार पहला राज्य है जिसने मुस्लिम दलितों को शेड्यूल कास्ट का दर्जा और सहूलियत देने का प्रस्ताव बजाब्ता विधान मंडल के दोनों सदनों से पारित कराकर केन्द्र सरकार को भेजा है।''4, सामाजिक स्थिति बदलने वाला कोई कदम ही दलितों की स्थिति बदल सकता है और उनको सामाजिक सम्मान व मानवीय गरिमा हासिल हो सकती है। बिना सामाजिक परिस्थिति बदले धर्म बदलना तो ऐसा कदम है जैसे कि किसी आदमी को एक कुएं से निकाल कर दूसरे कुएं में फंक देना। सभी धर्मों के साथ बुराइयां ,रूढियां ,भाग्यवाद ,नियतिवाद आदि अनिवार्य रूप से चिपटे हुए हैं। ''स्वाभिमान और सम्मान के लिये धर्मान्तरण करने वाला दलित उन सिद्धान्तों को कभी स्वीकार नहीं कर सकता, जो तकदीर के भरोसे रहने की शिक्षा देते हैं या जो उसे संघर्ष करने से रोकते हैं। इस्लाम और ईसाई धर्मों में ऐसे सिधन्त उसी तरह मौजूद हैं, जिस तरह हिंदू धर्म में मौजूद हैं।ÓÓ5, धर्मान्तरण में दलितों की मुक्ति की तलाश करने वाला दलित-चिन्तन संत कवियों से सीख सकता है। कबीर, नानक, रविदास व अन्य संत कवियों ने धर्म के संस्थागत रूप का विरोध किया। संतों ने न तो परम्परागत रूप से मौजूद बौद्ध, हिन्दू या इस्लाम में अपने को दीक्षित किया, न उनके प्रतीक धारण किए और न अपने को किसी धर्म के आगे समर्पण किया। उन्होंने एक धर्म की बुराइयों को छोड़कर दूसरे धर्म की बुराइयों को अपनाने में कोई समझदारी नहीं समझी बल्कि इसके विपरीत धर्म की प्रचलित अवधरणाओं को चाहे वो ईश्वर-संबंधी हो या पूजा-पद्धति संबंधी इनको अस्वीकार कर दिया था फिर दोनों में कोई अन्तर नहीं समझा। संत कवियों के अनुसार तो एक धर्म को छोड़कर दूसरे में जाने में कोई समझदारी की बात नही है,बल्कि धर्मों को व उनकी भूमिका को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने की जरूरत है। शायद किसी भी धर्म में दलितों की मुक्ति की संभावना बहुत कम है। संतों की तरह आज के वक्त के अनुसार धर्म की मानवीय व्याख्याएं करना जरूरी है या फिर धर्म में निहित शोषण की पक्षधरता को उजागर करते हुए उसकी वैध्ता पर प्रश्न चिह्न लगाने की जरूरत है। कबीर और रविदास ने हिन्दू और इस्लाम धर्म में कोई अन्तर नहीं किया।, मोकों कहॉं ढूढै बन्दे, मैं तो तेरे पास में।, ना मैं देवल ना मैं मस्जिद,ना काबे कैलास में।।, ना तो कौने क्रिया-कर्म में,न ही योग बैराग में।, खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं,पलभर की तालास में।।, कहैं कबीर सुनो भाई साधे ,सब स्वांॅसों की स्वॉंस में।, ऽ ऽ ऽ, जो खोदाय मस्जीद बसत हे, और मुलुक केहि केरा।, तीरथ-मूरत राम-निवासी, बाहर करे की हेरा।, पूरब दिशा हरी का बासा, पच्छिम अलह मुकामा।, दिल में खोज दिलहिं में खोजौ, इहै करीमा रामा।, जेते औरत-मरद उपानी, सो सब रूप तुम्हारा।, कबीर पोंगड़ा अलह-राम का , सो गुरू पीर हमारा।, ऽ ऽ ऽ, रविदास ने लिखा, काबे और कैलाश मह जिहकू ढूंढा जाहि, रविदास प्यारा हरितऊ बैठहि मन माहि, ऽ ऽ ऽ, राधे कृष्न-करीम हरि राम रहीम खुदाय, रविदास मोरे मन बसहिं काहे खोजहु बन जाई, ऽ ऽ ऽ, हिन्दू पूजे देहरा मुसलमान मसीत, रविदास पूजे इक नाम जिन्ह निरंतर प्रीति, ऽ ऽ ऽ, दलित-उत्पीडऩ की घटनाएं घट रही हैं उनमें धार्मिक कम और सामाजिक सर्वोच्चता का अहं अधिक है। सामाजिक वर्चस्व की जड़ें उत्पीड़क और उत्पीडि़त की सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक स्थिति में हैं। आमतौर पर देखने में आया हे कि गांवों में मूल झगड़ा या टकराहट तो पेशागत होती है, लेकिन वह रूप लेती है जातीय संघर्ष का। दलित सामाजिक दृष्टि से हीन, राजनीतिक दृष्टि से असुरक्षित और आर्थिक दृष्टि से गरीब है। ऐसे में उसके जीवन के वास्तविक संघर्ष को कुचलने के लिए जाति या धर्म का रंग देना बिल्कुल आसान है।यह कोई धार्मिक मूल्यों की टकराहट नहीं है बल्कि वास्तविक जीवन के संघर्ष हैं। इस संघर्ष की सही सही रूप में पहचानने और उसको सही परिप्रेक्ष्य में वाणी देने की जरूरत है।, ''आधुनिक चुनौतियों के मद्देनजर धर्मान्तरण पर पुनर्विचार की प्रक्रिया दलितों में शुरू हो गई है। एक ऐसा बौद्धिक दलित वर्ग उभर रहा है, जो धर्मान्तरण को दलित समस्या का हल नहीं मानता है। यह वर्ग डा. आम्बेडकर के उन विचारों से सहमत है, जो उन्होंने 1940 के दशक में श्रम सदस्य की हैसियत से मजदूर वर्ग के हित में व्यक्त किये थे। यह दलित चिन्तन डा. आम्बेडकर के इस मत को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानता है कि इतिहास की आर्थिक व्याख्या का अर्थ यह है कि मजदूर वर्ग को वैसी प्राथमिकता दे, जिस तरह मालिक वर्ग को देता है। दलित चिन्तकों का यह वर्ग डा. आम्बेडकर के इस विचार को आगे बढ़ाना चाहता है कि मजदूर वर्ग को एक सम्पूर्ण वर्ग के रूप में से जुड़े आर्थिक तथ्यों को ताकत देने में फल होना है। भारत में दलित वर्ग सबसे बड़ा मजदूर वर्ग है। उसकी अशिक्षा, गुलामी और दरिद्रता का मुख्य कारण जहां वर्ण-व्यवस्था है, वहीं भारतीय अर्थ व्यवस्था भी है। दलित धर्मान्तरण करता है। किन्तु वह यह सवाल भी उठाता है कि जब वर्ण-व्यवस्था सभी समाजों में व्याप्त हो चुकी है तो धर्मान्तरण करने पर उससे मुक्ति कैसे मिल सकती है? दलित किसी भी धर्म को अपनाये, भले ही वह बौध धर्म को अपनाए, उसकी सामाजिक स्थिति में अन्तर नहीं आता है। तब, क्यों न दलित उस अर्थ-व्यवस्था से लडऩे के लिए संघर्ष करे, जो उसे अशिक्षित, गुलाम और दरिद्र बनाये हुए है? अब दलित को धर्मान्तरण के साथ साथ इस प्रश्न पर भी विचार करना होगा कि धर्मान्तरण के बाद उसके आर्थिक हितों पर क्या प्रभाव पडऩे वाला है, या जिस धर्म में वह जाना चाहता है, उसका आर्थिक दर्शन क्या है और उसके लिये आर्थिक कार्यक्रम क्या है?''6, सामाजिक-उत्पीडऩ का कारण धार्मिक मात्र नहीं है, लेकिन वह अपने शोषण व उत्पीडऩ को जायज ठहराने के लिए धर्म की सत्ता से वैधता प्राप्त करती है, इसलिए दलित-उत्पीडऩ का निदान धर्म का परिवर्तन करने से नहीं हो सकता, उसके लिए सामाजिक आन्दोलन की जरूरत है, जो लोगों के दिमाग से धर्म में व्याप्त अमानवीय प्रथाओं व परम्पराओं को हटा दे और उसकी जगह वैज्ञानिक आधार पर मानवीय चिन्तन को प्रस्तुत करे। दलितों के प्रति अन्याय इसलिए नहीं है कि वे किसी खास धर्म से ताल्लुक रखते हैं, बल्कि उनके प्रति समाज में उत्पीडऩ इसलिए है कि वे आर्थिक तौर पर दरिद्र व सम्पतिहीन, सामाजिक तौर पर नीच व हीन तथा राजनीतिक तौर पर असुरक्षित व कमजोर हैं। इन सब पक्षों को समाहित करने वाला आन्दोलन ही दलित मुक्ति की दिशा ग्रहण करने की क्षमता रखता है।, सामाजिक व आर्थिक संघर्षों की एकता, गांव में सम्मानजनक जिन्दगी हासिल करने की शर्त है-जमीन पर हक। यहां जमीन ही संसाधन है और उत्पादन का साधन है और यह स्पष्ट ही है कि उत्पादक संसाधनों में हिस्सेदारी का अर्थ है आत्मनिर्भरता व स्वावलम्बन। आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बन किसी देश, समूह या व्यक्ति के लिए सम्मान और सुरक्षा की गारंटी है। जिसके पास जमीन नहीं है वह अपने पशुओं के चारे के लिए, अनाज के लिए तथा अन्य जरूरतों के लिए पूरी तरह भू-मालिक स्वर्णों पर निर्भर हैं और ये भू-मालिक इस 'अनुकम्पा' के लिए पूरी कीमत वसूलता है,इस कीमत चुकाने में लाख जतन करने पर भी उसके सम्मान की बलि चढ जाती है। जिसके पास गांव में जमीन है न तो उसको उजाडऩे की किसी में हिम्मत है और न ही वह स्वयं उजडऩे के लिए तैयार ही होगा। इस संदर्भ में संत साहित्य से प्रेरणा मिल सकती है। इतिहासकारों का अध्ययन बताता है कि भक्ति आन्दोलन के उभार के पीछे एक आर्थिक परिस्थिति भी थी। संत कवियों द्वारा ब्राह्मणवादी पाखण्ड़ का और छल को इतने विश्वास और प्रखरता से उठाने का साहस का रहस्य कहीं न कहीं आर्थिक पहलू में है। कबीर व अन्य संत कवियों ने आर्थिक विषमता को सामाजिक सम्मान न मिलने का कारण माना था,उनकी ऑंखों से आर्थिक वर्गभेद ओझल नहीं था,लेकिन उन्होंने इसको ईश्वर की लीला मान लिया।, कुंभरा एक कमाई माटी, बहु विधि जुगति बणाई।, एकनि मैं मुक्ताहल मोती,एकनि व्याधि लगाई।, एकनि दीना पाट-पटम्बर,एकनि सेज निवारा।, एकनि दीनौं गरे गुदरी,एकनि सेज पयारा।, संत कवि इस बात को पहचानते थे कि धनी व्यक्ति निर्धन कोई आदर नहीं देता,परन्तु ईश्वरवाद के भंवर में फंसकर यह सच्चाई दब कर रह गई। यह तत्कालीन समाज की युग चेतना की ही सीमा है कि संत कवियों की दृष्टि आर्थिक स्थिति के साथ सामाजिक समानता में तार्किक संबंध नहीं जोड़ पाई।, निर्धन आदर कोई न देई, लाख जतन करै ओहुचित न धरेई।, जौ निर्धन सरधन कै जाई,आगै बैठा पीठ फिराई।, जो सरधन निर्धन कै जाई,दीया आदर लिया बुलाई।, निधर््न सरधन दोनों भाई, प्रभु की लीला मेटी न जाई।, कहि कबीर निर्धन है सोई, जाकै हिरदै न नाम न होई।, संत कवियों ने माया का खण्डन करते हुए अमीरी और गरीबी की परिभाषा बदलने की कोशिश की। अपनी विपन्नता को उन्होंने दार्शनिक आधार देकर मानवीय गरिमा का अहसास पैदा किया था, लेकिन वर्तमान समाज में यह तरीका कारगर साबित नहीं हो सकता। यद्यपि संतों ने भी अपनी आजीविका के साधन नहीं छोड़े थे और न ही उन्होंने सम्पति का त्याग किया था।, सामाजिक बराबरी हासिल करने के संघर्ष में उत्पादन के साधनों में हिस्सेदारी प्राप्त करने का संघर्ष अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। ब्राह्मणवाद ने दलितों केा सम्पति के अधिकार से वंचित करके अपने वर्चस्व को स्थापित किया था इसलिए उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व के पहलू को दलित आन्दोलन और चिन्तन का केन्द्रीय मुद्दा बनाना होगा। चूंकि भारत की अधिकतर आबादी जमीन से जुड़ी है, इसलिए भूमि-संबंधोंं को बदलने के संघर्ष के साथ ही दलित मुक्ति का संघर्ष जुड़ा है। इससे जुड़े बिना दलित चिन्तन पीडि़त व्यक्ति का प्रलाप बनकर रह जाएगा। संत-कवियों के संघर्ष में आर्थिक पक्ष स्पष्ट नहीं था, इसलिए भावनात्मक आन्दोलन बनकर रह गया और इतनी प्रखरता के बावजूद भी मानवता का अहसास जगाने के अलावा कुछ विशेष नहीं कर पाया।इस ठोस जमीन पर वह नहीं था इसलिए बाद में उन्हीं बुराईयों का शिकार हो गया, जिनके विरूद्ध यह खड़ा हुआ था। ब्राह्मणवाद से सिर्फ विचारधारात्मक स्तर पर संघर्ष करके उसे परास्त नहीं किया जा सकता, बल्कि उसके आधार पर ही चोट करने से यह संभव है। पेरियार के आन्दोलन का जो हश्र हुआ उससे भी इसका महत्व उजागर होता है। दलित चिन्तन का संघर्ष वर्ण-व्यवस्था में उच्च वर्ण हासिल करने का या अवर्ण से स्वर्ण बनने का या जाति की बराबरी का नहीं, बल्कि ऐसी संस्थाओं व ढांचों को तोडऩे का है जो मनुष्य मनुष्य में भेदभाव करते हैं। स्पष्ट शब्दों में कहें तो वर्ण मिटाने की लड़ाई वर्ग मिटाने की लड़ाई से जुड़ी है।, कथित उच्च जातियों के नेतृत्व ने दलितों के संसाधनों के शोषण के लिए ही सामाजिक तौर पर निम्न व संपति से वंचित करने का डिजाइन बनाया और उनके विद्रोहों को दबाने के लिए ही उनके लिए कठोर दण्ड-व्यवस्था की थी। इसलिए संसाधनों को अपने पक्ष में करने पर ही शोषण व मुक्ति संभव है। हिन्दुस्तान में संपति के संबंध मूलत: भूमि संबंध ही हैं, जिनको बदले बिना सामाजिक सम्मान और मानवीय गरिमा हासिल नहीं की जा सकती। आजादी के आन्दोलन के दौरान जमींदारी प्रथा समाप्त करने और जोतने वाले की ही जमीन होने का मुद्दा सर्वाधिक चर्चा का विषय था, लेकिन आजादी के बाद के शासक वर्गों ने इसे त्याग दिया और संपति के संबंध जस के तस ही रहे। इन संपति के संबंधों में दलितों के हिस्से आया उच्च वर्गों का उत्पीडऩ और विस्थापन जिसे पूरे देश के दलित भुगत रहे हैं। उत्पादन के साधनों में हिस्सेदारी के बिना सामाजिक बराबरी व मानवीय सम्मान पाना मुश्किल है। उत्पादन के साधनों में हिस्सेदारी का अर्थ है आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बन। आत्मनिर्भर व स्वावलम्बी हुए बिना कोई वर्ग समाज में सम्मानजनक स्थान नहीं पा सकता। इसलिए संविधान में दलितों के विकास के लिए कुछ प्रावधान किए थे, उनके कुछ सकारात्मक परिणाम निकले हैं।, वर्तमान में दलित-उत्पीडऩ की घटनाओं की प्रकृति पर नजर डालने से यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि इस उत्पीडऩ के पीछे दलितों आत्मनिर्भरता व स्वावलम्बन की चाह है। शिक्षा के प्रसार से या फिर उत्पादन के साधनों में परिवर्तन से या बदली भौतिक-परिस्थितियों के कारण दलितों की स्थिति भी बदली है। वर्चस्वी शक्तियों को यह स्वीकार नहीं है, उसकी अभिव्यक्ति इन हिंसक घटनाओं में होती है, फिर बहाना चाहे गाय का हो या मजदूरी बढ़वाने का।, ब्राह्मणवादी सोच में दलित के लिए सम्मान की कोई जगह नहीं है, परन्तु अब चूंकि लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है, दलितों में शिक्षा प्रसार से या आर्थिक स्थिति के बदलने से उनमें स्वाभिमान की भावना जगी है। बदली परिस्थिति में दलित अपनी पुरानी सामाजिक स्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, दूसरी और अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए वर्चस्ववादी शक्तियों का दर्प हिंसक रूप धरण कर लेता है। इसके लिए फिर बहाना चाहे गाय का ढूंढना पड़े,चाहे मजदूरी बढवाने के लिए संघर्ष का हो। दलित व स्वर्ण संघर्ष सिर्फ इस बात की सूचना नहीं देता कि दलितों पर अत्याचार हो रहे हैं या बढ रहे हैं बल्कि इसमें ये स्वर बिल्कुल स्पष्ट है कि अब दलित जिल्लत और अपमान का जीवन जीने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हें चाहे उनको इसकी कुछ भी कीमत चुकानी पड़े,कितनी ही मुसीबतें क्यों न उठानी पड़े, चाहे घर बार छोड़कर उजडऩा भी क्यों न पड़े। वैसे भी नई व्यवस्था में गावों में रहने का कोई पेशागत कारण नहीं है,न तो उनके पास जमीन का मालिकाना हक है कि वे उस खेती कर सके और न ही मजदूरी करने की कोई जगह है। इसके बावजूद गांव छोडऩे का फैसला उनका अपना नहीं बल्कि उन पर थोंपा हुआ है,जिसे उन्होंने मजबूरी में ही स्वीकार करना पड़ा है। उनकी दिली इच्छा तो सम्मानपूर्वक रहने की है, पर अपने सम्मान को गंवाकर वे किसी भी जगह नहीं रहना चाहते। इन संघर्षों में निहित इस आवाज को भी सुनने और सही रूप में प्रस्तुत करने की जरूरत है। इसको अपने में समाहित करके और संबोध्ति करके ही दलित चिन्तन अपनी ऐतिहासिक जिम्मेवारी को निभा पाएगा।, आधार-विस्तार के लिए समग्र दृष्टि, दलित आन्दोलन के समक्ष अपने आधार को विस्तृत करने की चुनौती है। इस परिवर्तनकामी आन्दोलन में समाज के वही वर्ग शामिल होंगें, जो शोषणपरक व्यवस्था के सताए हुए हैं। डा. भीमराव आम्बेडकर ने इसकी कल्पना की थी कि कथित पिछड़ी जातियां, आदिवासी व अछूत इस आन्दोलन का आधार हो सकते हैं। इनमें सामाजिक एकता स्थापित करके इस आधार को पुख्ता किया जा सकता है। लेकिन देखने में आया है कि राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए न केवल इन वर्गों में बल्कि दलितों में भी भारी होड़ शत्रुता की हद तक है। किसी मौके पर राजनीतिक जरूरत के तहत एकता स्थापित भी हो जाती है तो वह सामाजिक एकता के मजबूत आधार के बिना जल्दी ही टूट जाती है। दलित वर्ग की तरह स्त्री भी मानवीय गरिमा से वंचित रही है। मानव गरिमा प्राप्त करने के संघर्ष में स्त्री उसकी सहयोगी हो सकती है, इसीलिए डॉ. आम्बेडकर ने स्त्री मुक्ति के लिए हर संभव प्रयत्न किए थे, लेकिन यह भी सच है कि वर्तमान का दलित आन्दोलन में स्त्री-मुक्ति का प्रश्न असंबोधित ही है। दलित आन्दोलन पितृसता को चुनौती नहीं प्रस्तुत करता, इसकारण ब्राह्मणवाद अपना अस्तित्व बनाए रखता है।, नागरिक व लोकतांत्रिक समाज अकेली अकेली जाति या समूचे दलित वर्ग से संभव नही है बल्कि बृहतर समाज के उन प्रगतिशील व संघर्षशील वर्गों को भी अपने साथ जोडऩे की जरूरत है जो ऐसे समाज निर्माण में विश्वास रखते हों। बृहतर समाज के इन परिवर्तनशील वर्गों के सहयोग के बिना दलित आन्दोलन का अपेक्षित परिणाम निकलना यदि असंभव न भी हो तो कठिन तो बहुत है ही। दलित आन्दोलन व चिन्तन की जीत दलितवाद में नहीं बल्कि बृहतर समाज के पीडि़त-वंचित वर्गों को संघर्ष में शामिल करने में हैं। दलित-चिन्तन के विस्तार और विकास की संभावनाएं भी यहीं से खुलती हें कि वह समाज में ऐसे वर्गों की पहचान करे, जो दलितों के साथ संघर्ष करने को तैयार हो और अपने संबोध्न-चिंतन में बृहतर समाज के ऐसे वर्गों की आकांक्षाओं को जगह दे। दलित मुक्ति के सवाल को बृहतर मानवीय गरिमा के संघर्ष के साथ जोड़ दे।, बृहतर समाज के प्रगतिशील वर्गों की पहचान करके व उत्पीडि़त वर्गों को संबोध्न करके ही दलित चिन्तन सृजनात्मक पक्ष उजागर कर सकता है, इसी प्रक्रिया में बृहतर वर्गों को जोडऩे की क्षमता भी बनेगी। जैसे महिलाओं को अभी तक समाज में वांछित दर्जा नहीं मिला है,उसने सदियों से ब्राह्मणवादी विचारधारा की चाबुक की उतनी ही मार खाई है जितनी कि दलित ने। उसकी हालत दलितों से खास बेहतर नही है, अभी उसे मानवीय गरिमा हासिल नही हुई है। दलित चिन्तन व आन्दोलन दलित मुक्ति के संघर्ष में नारी मुक्ति को शामिल करके संघर्ष को तीव्र कर सकता है। समाज के अन्य वर्ग हैं जो ब्राह्मणवादी घृणा व विचारधारा के सताये हुए हैं जैसे अल्पसंख्यक और पिछड़ी जातियां आदि जो अछूत तो नहीं हैं लेकिन जिनको प्रथम दर्जा हासिल नहीं है,जिनका कि सम्पति के साधनों में बहुत कम हिस्सेदारी है या कहिए कि सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से शोषित-उत्पीडि़त की श्रेणी में ही आते हैं उनको शामिल किया जा सकता है।किसी भी बड़े परिवर्तन के लिए समाज के अधिकाशं वर्गों को आन्दोलनों और संघर्षों में शामिल करना जरूरी है। यदि बृहतर संघर्षों से अलग थलग रहकर बड़े बड़े आन्दोलन भी होंगें तो वे बिना किसी विशेष उपलब्धि के अस्मिता, स्वाभिमान व पहचान की संकीर्णता का शिकार हो सकते हैं,और इसके विपरीत बृहतर समाज के संघर्षों से जुड़कर छोटे छोटे आन्दोलन भी बड़े बड़े परिवर्तनों की पृष्ठभूमि बन जाते हैं।, कबीर, नानक और रविदास जैसे संत कवियों की लोकप्रियता का आधार उनकी वाणी में मौजूद मानव समानता व मानव गरिमा है। ब्राह्मणवादी वर्ण-धर्म व उसके संस्थागत रूप के पाखण्डों में मौजूद अमानवीयता को उद्घाटित करने से ही समाज के विभिन्न वर्गों की आकांक्षाओं को वाणी देने में संभव हो सके। दलित चिन्तन को अपने अन्दर इसी तरह की सर्वग्राह्यता की जरूरत है। संत कवियों केे विचारों की ताजगी व सार्थकता का एक ही रहस्य यह है कि वे समाज के प्रगतिशील वर्गों से जुड़े थे और उनकी परिवर्तनकामी आकंाक्षा को वाणी दे रहे थे। संत कवियों ने मानवीय गरिमा हासिल करने के लिए इन वर्गों को अपनी सामाजिक स्थिति का अहसास करवाया था।, बृहतर समाज में ब्राह्मणवादी दुष्प्रचार ने दलित चिन्तन की ऐसी छवि बना दी है जैसे कि यह उस समाज के खिलाफ हो और इसमें कोई सार तत्व न हो। घृणा के इस प्रचार को काटने के लिए तथा बृहतर समाज के सामने अपनी तस्वीर पेश करने के लिए भी दलित चिन्तन काफी मेहनत करने की जरूरत है। उसको बार बार बताना पड़ेगा कि वह समाज के खिलाफ नहीं बल्कि ब्राह्मणवादी विचारधारा के खिलाफ है जो समाज में भेदभाव पैदा करती है,अमावीयता और शोषण को बढावा देती है। दलित चिंतन नकारात्मक विचारधारा नहीे है,बल्कि इसके पास लोकतांत्रिक समाज निर्माण का सकारात्मक एजेण्डा है,एक ऐसे समाज का सपना है जिसमें सभी वर्गों व व्यक्तियों को विकास के समान अवसर उपलब्ध होंगे, जिसमें सभी के विकास की गुंजाइश होगी।, दलित आन्दोलन को समग्र दृष्टि की आवश्यकता है, जो सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक सवालों को संबोधित करे। आर्थिक सवालों को दरकिनार करके मात्र सामाजिक सम्मान प्राप्त करने का संघर्ष समाज में ठोस बदलाव नहीं ला सकता और सामाजिक सवालों को छोड़कर केवल आर्थिक हितों के लिए संघर्ष की भी यही परिणति है। असल में दलितों को सामाजिक तौर पर निम्न मानने के पीछे के उनके संसाधनों का शोषण ही है। सामाजिक तौर पर उनको निम्न घोषित करके उनका आर्थिक शोषण आसान हो जाता है। इस परिस्थिति को बदलने वाली दृष्टि अपनाकर व इस दिशा में संघर्ष से ही दलित आन्दोलन की दिशा सही हो सकती है। डा. भीमराव आम्बेडकर के विचारों व सिद्धातों के सूत्र 'समानता, स्वतंत्रता और भाईचारेÓ को अपने चिन्तन व संघर्ष का केन्द्रीय सूत्र बनाने की आवश्यकता है। समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे को तोडऩे या पोषित करने वाले रिवाजों, प्रथाओं, मूल्यों, विश्वासों, प्रणालियों, विचार सरणियों को समाप्त करने के लिए संघर्ष करना तथा इन को मजबूत व स्थापित करने वाले चिन्तन को आधार प्रदान करना दलित आन्दोलन के चिन्तन को दिशा दे सकते हैं। दलितों को मानवीय, प्राकृतिक व कानूनी अधिकार प्राप्त करने के संघर्ष में ही सदियों पुराने अन्याय की प्रणालियां समाप्त होंगी और मानवीय गरिमा हासिल होगी। दलित आन्दोलन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह बदली हुई परिस्थितियों में अपना वैचारिक पक्ष निर्मित करे जिसमें न केवल दलित-मुक्ति की संभावना हो, बल्कि पूरी जनता की मुक्ति के लिए उसमें गुंजाइश हो। यदि जनता के दूसरे हिस्सों की मुक्ति की गुंजाइश इस चिंतन में होगी तभी वह अपने नेतृत्व में आन्दोलन चलाने में सक्षम हो सकती है। और समाज के दूसरे वर्ग भी उसका नेतृत्व तभी स्वीकार करेंगे जब उसमें समावेश की संभावना होगी।, संदर्भ:, 1 सं. अभय कुमार दुबे, आधुनिकता के आइने में दलित, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2005, पृ. 421, 2 सं. मणिमाला, धर्मान्तरण:जरा सी जिन्दगी के लिए, बुक्स फॉर चेन्ज, दिल्ली, 2003, पृ. 10, प्रकाश लुईस का लेख - दलित आदिवासी और धर्मान्तरण: दिशा और दृष्टिकोण, 3 श्यामाचरण दुबे, भारतीय समाज, नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया, चौैथा सं., पृ. 53 से 55, 4 सं. मणिमाला, धर्मान्तरण: जरा सी जिन्दगी के लिए,बुक्स फॉर चेन्ज, दिल्ली, 2003,पृ. 65 से 67, अली अनवर का लेख - धर्म बदलने से कुछ नहीं होगा, 5 सं. मणिमाला,धर्मान्तरण:जरा सी जिन्दगी के लिए,बुक्स फॉर चेन्ज, दिल्ली,2003,पृ. 61 ,कंवल भारती का लेख - धर्मान्तरण आज कि परिप्रेक्ष्य में, 6 सं. मणिमाला, धर्मान्तरण:जरा सी जिन्दगी के लिए, बुक्स फॉर चेन्ज, दिल्ली, 2003, पृ. 62, कंवल भारती का लेख - धर्मान्तरण आज कि परिप्रेक्ष्य में
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