मंगलवार, 30 जून 2020

भारत में हर रोज पुलिस अभिरक्षा में क्यों होती हैं मौतें?


भारत में हर रोज पुलिस अभिरक्षा में क्यों होती हैं मौतें?
-एस आर दारापुरी आईपीएस (से.नि.), राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट.






वैसे तो अंग्रेजों के द्वारा बनाई और उसी समय के पुलिस एक्ट से चल रही भारतीय पुलिस हर रोज अपनी क्रूरता, निरंकुशता एवं कानून विरोधी गतिविधियों के लिए खबरों एवं चर्चा में बनी रहती है. परन्तु हाल में यह अमेरिका में जॉन फ्लायड की पुलिस द्वारा निर्मम हत्या को लेकर भारत में भी पुलिस की दिल्ली में हुई हिंसा और घायल नवयुवकों के साथ अमानवीयता के सन्दर्भ में चर्चा में आई थी.  तमिलनाडु के टूटीकोरन जिले के सथान्कुलम कस्बे में 62 वर्षीय जयराज तथा उसके 32 वर्षीय पुत्र बेनेक्स की पुलिस टार्चर द्वारा हुयी हत्या के मामले से भारतीय पुलिस की कार्यपद्धति एक बार फिर राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में है.
इस घटना के विवरण के अनुसार यह दोनों व्यक्ति मोबाईल मरम्मत की दुकान चलते थे. 19 जून को पुलिस उन्हें लाकडाउन समय के बाद दुकान खुला रखने के अपराध मे पकड़ कर थाने पर ले गयी जहाँ पर उनकी निर्मम पिटाई की गयी. रात में उनके घरवालों को नहीं मिलने दिया गया. अगले दिन जब उनकी हालत बिगड़ी तो उन्हें स्थानीय अस्पताल ले जाया गया. उस समय उनकी पेंट्स खून से लथपथ थीं. निरंतर खून बहने से उनकी लुंगियां लगातार बदलनी पड़ रही थीं. पुलिस ने घर वालों को गाढ़े रंग की लुंगियां लाने के लिए कहा. अस्पताल पर तीन घंटे के बाद उन्हें स्थानीय मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया. मैजिस्ट्रेट ने उनको अपने सामने प्रस्तुत कराए बिना ही अपने मकान की पहली मंजिल से हाथ हिला कर रिमांड की स्वीकृति दे दी और उन्हें कोविलपट्टी सब जेल में न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. उनके घर वालों को बाद में पिता-पुत्र को निकट के सरकारी अस्पताल में स्थानांतरित करने की कोई भी खबर 22 जून की शाम तक नहीं मिली. निरंतर रक्तस्राव तथा पुलिस अभिरक्षा में गंभीर आन्तरिक एवं बाहरी चोटों के कारण बेनिक्स की 22 जून की शाम तथा जयराज की 23 जून को सुबह मृत्यु हो गयी.
यद्यपि इस सम्बन्ध में थाने पर पुलिस वालों के खिलाफ प्रथम सूचना दर्ज की गयी है लेकिन उसमें किसी भी पुलिस वाले के विरुद्ध हत्या का आरोप नहीं लगाया गया, अभी तक पुलिस वालों को धारा 311 के अंतर्गत नौकरी से बर्खास्त नहीं किया गया है, यहां तक कि उनकी गिरफ्तारी भी नहीं हुई है. जनता के विरोध प्रदर्शन एवं हंगामे के बाद चार पुलिस वालों को निलंबित किया गया है और न्यायिक जांच के आदेश दिए गए हैं. राज्य सरकार नें पीड़ित परिवार को 20 लाख मुआवजा देने को घोषणा की है. मुख्यमंत्री ने कल इस मामले की जांच सीबीआई से कराने की घोषणा की है. लेकिन सवाल यह है कि पुलिस कस्टडी में हत्या या पुलिस वालों द्वारा हत्या करने के बाद महज मुआवजा देने से न्याय पूरा हो जाता है. इससे पिछले माह में भी इसी प्रकार का एक मामला तिरनुरवेली जिले में भी हुआ था जिसमें कुमारसेन नाम के एक नवयुवक की पुलिस पिटाई से मौत हो गयी थी. कहा जाता है कि तमिलनाडु में पुलिस का ऐसा दुर्व्यवहार एक सामान्य प्रक्रिया है और इसे उच्च अधिकारियों एवं सरकार की मौन स्वीकृति है जैसाकि इस मामले में भी स्पष्ट दिखाई देता है.
   पुलिस कस्टडी में पुलिस टार्चर की घटनाएँ केवल तमिलनाडु तक ही सीमित नहीं हैं. पुलिस का यह दुराचार पूरे देश में व्याप्त है. नैशनल कैम्पेन अगेंस्ट टार्चर की पुलिस टार्चर के सम्बन्ध में 2019 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार इस अवधि में टार्चर से 1,731 मौते हुयी थीं जिनमें से 1,606 न्यायिक हिरासत में तथा 125 मौतें पुलिस कस्टडी में हुयी थीं. इससे स्पष्ट है कि भारत में अभिरक्षा में हर रोज 5 मौते होती हैं. इस रिपोर्ट से यह भी निकलता है कि इन 125 मौतों में 7 गरीब और हाशिये के लोग थे. इनमें 13 दलित और आदिवासी तथा 15 मुसलमान थे जबकि 35 लोगों को छोटे अपराधों में उठाया गया था. इनमें 3 किसान, 2 सुरक्षा गार्ड, एक चीथड़े बीनने तथा 1 शरणार्थी था. कस्टडी में महिलाओं और कमजोर वर्गों का उत्पीडन एवं लैंगिक शोषण आम बात है. इस अवधि में 4 महिलायों की भी पुलिस कस्टडी में मौत हो गयी थी.
   राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2017 में पुलिस कस्टडी में 100 मौते हुयी थी जिनमें 58 लोग पुलिस की अवैध कस्टडी तथा 42 न्यायिक हिरासत में थे. मौतों के मामले में सबसे आगे आंध्र प्रदेश 27, गुजरात तथा महाराष्ट्र में 15-15. इन 100 मौतों में अभी तक किसी भी पुलिस वालों को सजा नहीं हुयी है जबकि इनमें 33 पुलिस वाले गिरफ्तार हुए और 27 पर चार्जशीट दाखिल की गयी थी. इसी प्रकार 2017 में मानवाधिकार हनन के 56 मामलों में 48 पुलिस वालों पर आरोप तय हुए थे परन्तु सजा केवल 3 लोगों को ही मिली. इससे स्पष्ट है कि टार्चर के मामलों में दोषी पुलिस वालों के विरुद्ध बेहद कम कार्रवाही होती है.
    पुलिस द्वारा उत्पीड़न का मेरा अपना भी अनुभव है. पिछले वर्ष जब पूरे देश में सीएएनआरसी का विरोध चल रहा था तो उस समय उत्तर प्रदेश में लगातार मेरे दल आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट द्वारा लगातार ली गयी लोकतांत्रिक पहलकदमी से बौखलायी योगी सरकार ने राजनीतिक बदले की भावना से मेरी गिरफ्तारी कराई थी. जबकि जिस दिन 19 दिसंबर, 2019 को लखनऊ में हिंसा की घटना हुई मुझे पुलिस ने गैर कानूनी तरीके से मेरे घर पर ही नजरबंद रखा था. मैं खुद एक जिम्मेदार नागरिक होने के कारण इस हिंसा से चिंतित था और आधी रात को मैने फेसबुक पर शांति की अपील तक की. बावजूद इसके अगले दिन लखनऊ पुलिस मुझे दोपहर में मेरे घर से ले गयी और दिनभर गाजीपुर थाने में बिठाये रखा. मुझे दवा तक नहीं दी गयी. शाम को 6 बजे मुझे हजरतगंज थाने पर ले जाया गया. उसे शाम को 5.40 बजे मेरे घर से काफी दूर पार्क से दिखाई. उस दिन दिनभर मुझे खाना नहीं मिला. रात में थाने पर मुझे ठण्ड लगी तो मैंने कम्बल माँगा परन्तु मुझे कम्बल नहीं दिया गया. मुझे अपने वकील को बुलाने की सुविधा भी नहीं दी गयी. अगले दिन 21 दिसंबर को मुझे शाम को करीब 7 बजे लखनऊ जेल पर मैजिस्ट्रेट के सामने रिमांड के लिए पेश किया गया परन्तु मैजिस्ट्रेट ने बिना मेरी कोई बात सुने रिमांड पेपर पर हस्ताक्षर करके मुझे जेल भेज दिया. अब जैसी कि सूचना है कि रामकथा जैसी कहानियां बनाने में दक्ष पुलिस ने झूठी कहानियों के बल पर मुझे ही लखनऊ में हुई हिंसा का मास्टर माइंड बना दिया. इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मेरे जैसा व्यक्ति जो 32 साल आईपीएस में रहा हो और आई.जी. के पद से सेवानिवृत हुआ हो, उसके साथ पुलिस कस्टडी में ऐसा दुर्व्यवहार किया जा सकता है तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आम नागरिक के साथ क्या होता होगा. जेल में मुझे मेरे साथ गिरफ्तार किये गए काफी लोगों ने बताया कि थाने पर उनके साथ वरिष्ठ अधिकारियों के सामने बुरी तरह से मारपीट की गयी जिनमें एक महिला भी थी. पता नहीं मारपीट से मुझे कैसे छोड़ दिया गया.
दरअसल हमारी पुलिस इतनी क्रूर, निरंकुश एवं कानून विरोधी क्यों है? इसे समझने के लिए कुछ मुख्य कारणों पर चर्चा करना चाहूंगा. पहला हमारी पुलिस को अंग्रेजों के बनाए कानून द्वारा असीम अधिकार दिए गए हैं जिनका खुल कर दुरूपयोग होता है. हमारी न्यायपालिका आँख मूँद कर पुलिस द्वारा एफआईआर में बनाई गयी कहानी पर विश्वास करके पुलिस रिमांड/ जेल रिमांड दे देती है जबकि मैजिस्ट्रेट का कर्तव्य होता है कि वह रिमांड हेतु पेश किये गए व्यक्ति का ब्यान ले और सन्तुष्ट हो कि उसकी पुलिस दुर्व्यवहार की कोई शिकायत तो नहीं है परन्तु प्रायः ऐसा नहीं होता है. इससे पुलिस दुर्व्यवहार पूरी तरह से नजरदांज हो जाता है और वह जारी रहता है. पुलिस दुर्व्यवहार निचले अधिकारियों द्वारा किया जाता है जिसमें उच्च अधिकारियों की पूरी सहमति होती है. इसी कारण जब कोई व्यक्ति उच्च पुलिस अधिकारियों से दुर्व्यवहार की शिकायत भी करता है तो उस पर कोई कार्रवाही नहीं होती और पुलिस दुर्व्यवहार बेरोकटोक जारी रहता है.
    कहा जाता है कि जैसी जनता होती है वैसी ही सरकार होती है. इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि जैसी सरकार होती है वैसी ही पुलिस होती है. वर्तमान में अधिकतर सरकारों का रूख अधिनायकवादी हैं जो नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन एवं दमन करने में विश्वास रखती हैं. उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जहाँ पर मुख्यमंत्री ने विधानसभा में पुलिस को कहा कि ठोक दोऔर उन्होंने सबक सिखाने के आदेश दे रखे हैं जिसके परिणामस्वरूप प्रदेश में पुलिस मुठभेड़ के माध्यम से कई लोगों को मारा जा चुका है और उससे कई गुना ज्यादा को टांग और पैरों में गोली लग चुकी है. मुठभेड़ों के फर्जी होने की सैंकड़ों शिकायतें मानवाधिकार आयोग में पहुँच चुकी हैं तथा एक जनहित याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. यह सर्वविदित है कि पुलिस सरकार का डंडा होती है जिसका खुला दुरूपयोग सरकार अपने विरोधियों तथा आम लोगों के खिलाफ करती है. यद्यपि पुलिस कागज पर तो कानून के प्रति उत्तरदायी है परन्तु व्यवहार में वह कानून नहीं बल्कि सता में बैठे लोगों के प्रति जवाबदेह रहती है. दुर्भाग्य से हमारी न्यायपालिका भी पुलिस के गैर कानूनी कामों को नजरंदाज करती है और कई बार तो उसे स्वीकार करती भी दिखती है. ऐसी परिस्थिति में कानून का राज और कानून के सामने समानता का कोई मतलब नहीं रह जाता.
   वर्तमान में पुलिस दुर्व्यवहार की शिकायतों की जांच करने की कोई स्वतंत्र व्यवस्था नहीं है जबकि राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने इसके लिए विशेष स्वतंत्र व्यवस्था करने की संस्तुति की थी. इस सम्बन्ध में इस समय जो राष्ट्रीय एवं राज्य मानवाधिकार आयोग बने भी हैं वे भी किसी प्रकार से प्रभावी नहीं हैं. एक तो उनमें शीर्ष पद पर नियुक्तियां भी राजनीतिक प्रभाव से होती है और दूसरे वे इतने पंगु होते हैं कि उनसे शिकायतकर्ताओं को कोई भी राहत नहीं मिलती. कई मामलों में तो शिकायतकर्ताओं द्वारा शिकायत करने पर पुलिस उत्पीड़न बढ़ जाता है क्योंकि शिकायत घूम फिर कर पुलिस के पास ही आ जाती है. हालत इतनी बुरी है कि सुप्रीम कोर्ट के पुलिस सुधार पर दिए आदेश का अनुपालन किसी भी सरकार ने नहीं किया है. हद यह है कि किसी राजनीतिक दल ने इसे राजनीतिक सवाल तक नहीं बनाया है.
    यह भी सर्वविदित है कि हमारा समाज लोकतान्त्रिक नहीं बल्कि एक ब्राह्मणवादी-सामंती समाज है जिसमें घोर सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक विषमतायें एवं पूर्वाग्रह हैं. हमारे समाज में समानता और नागरिकता की अवधारणा का पूर्णतया अभाव है जिस कारण हमारे समाज में एक वर्ग व जाति अथवा एक व्यक्ति के विरुद्ध हो रहे अन्याय हिंसा के विरुद्ध पूरे समाज का प्रतिरोध नहीं उभरता है. यही कारण है कि जब एक तबके के व्यक्ति के साथ दूसरे तबके के लोग कोई ज्यादती करते हैं तो बाकी लोग इसके खिलाफ विरोध में खड़े नहीं होते. इसी प्रकार जब पुलिस किसी व्यक्ति के ऊपर अत्याचार करती है तो उसके विरुद्ध व्यापक जनाक्रोश दिखाई नहीं देता जिससे उक्त गैर कानूनी कृत्य को आम स्वीकृति मिल जाती है. यही कारण है कि हमारे जहाँ आये दिन होने वाली पुलिस उत्पीडन अथवा माब लिंचिंग से होने वाली मौतों पर व्यापक प्रतिरोध अथवा अस्वीकृति प्रदर्शित नहीं होती और यह अबाध चलता रहता है. यह एक सच्चाई है कि हमारे समाज में हिंसा को व्यापक स्वीकृति मिली हुयी है जो समय-समय पर जातिगत, साम्प्रदायिक एवं लैगिक हिंसा के रूप में दिखाई देती रहती है. 
    इस सम्बंध में मेरा पुलिस में 32 साल की नौकरी का अनुभव है कि हमारी पुलिस हमारे समाज को ही प्रतिबिम्बित करती है. मैंने निम्नस्तर छोडिये उच्च एवं उच्चतम स्तर पर ऐसे पूर्वाग्रह देखे हैं. निरंकुश व फासीवादी विचार वाली सत्ता पा कर यह पूर्वाग्रह अधिक प्रबल हो जाते हैं और वे उनके कार्यकलाप को पूरी तरह से प्रभावित करते हैं. मैंने यह भी देखा है कि निचले स्तर के अधिकारियों के व्यक्तिगत आचरण एवं व्यवहार पर उच्च अधिकारीयों के आचरण एवं व्यवहार का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है. मैंने इसका प्रयोग वाराणसी में पीएसी बटालियन के सेनानायक के पद पर रहते हुए किया था. मैं अपने मासिक सैनिक सम्मलेन में कर्मचारियों को वर्दी पहनने के बाद पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष एवं जाति निरपेक्ष रहने पर बल देता था. जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव मैंने 1991 में वाराणसी में एक हिन्दू-मुस्लिम झगडे के दौरान देखा जिसमें मेरे कर्मचारियों पर पक्षपात एवं साम्प्रदायिक होने का कोई भी आरोप नहीं लगा जबकि वहां पर तैनात बीएसएफ के कर्मचारियों पर लगा था. इसके अलावा सरकार के नजरिये एवं व्यवहार का बहुत बड़ा असर पुलिस के आचरण एवं व्यवहार पर पड़ता है. अगर सरकार ही साम्प्रदायिक एजेंडे को ले कर चल रही हो तो इसका प्रभाव उसके डंडे (पुलिस) पर पड़ना जरूरी है.
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हमारी पुलिस बहुत क्रूर, निरंकुश एवं कानून विरोधी है जिसके कुछ कारणों का ऊपर वर्णन किया गया है. अतः इस पुलिस के चरित्र को बदलने के लिए समाज व राज का लोकतांत्रिक होना जरूरी है. यदि समाज चाहता है कि उसे मानवीय,  संवेदनशील एवं कानून का सम्मान करने वाली पुलिस मिले तो पुलिस में मूलभूत  सुधारों की जरुरत होगी, जिसे कोई भी सरकार या मौजूदा पूंजीवादी दल नहीं करना चाहते है. इसके लिए नई जन राजनीति को खड़ा करना होगा जो एक जनवादी समाज और राज के निर्माण के लिए काम करे और यूएपीए, एनएसए, स्पेशल आर्मड फोर्ससेस एक्ट जैसे तमाम काले कानूनों का खात्मा, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं की फर्जी मुकदमों में गिरफ्तारी व उत्पीड़न को राजनीतिक सवाल बनाए उस पर व्यापक जनांदोलन और जनदबाव पैदा करे। इसके लिए आगे आना वक्त की जरूरत है ताकि देश में टूटीकोरेन बार-बार दोहराया न जाए.  




रविवार, 14 जून 2020

मोदी सरकार की कोई भी दुस्साहसिक कार्यवाही अलगाववादियों को मदद करेगी-अखिलेन्द्र

मोदी सरकार की कोई भी दुस्साहसिक कार्यवाही अलगाववादियों को मदद करेगी-अखिलेन्द्र

 सुरक्षा चूक और राजनैतिक असफलता की जिम्मेदारी ले मोदी सरकार
 कश्मीर समस्या का राजनैतिक-कूटनीतिक हल करें सरकार
पुलवामा में मारे गये सीआरपीएफ के शहीदों के परिवारों के दुःख के साथ हम पूरी तौर पर शरीक हैं और अपनी एकजुटता सेना और सुरक्षा बलों के साथ व्यक्त करते हैं। पुलवामा की घटना भारी सुरक्षा चूक और मुख्य तौर पर मोदी सरकार की लगभग पिछले 5 वर्षों से चल रही कश्मीर नीति व पाकिस्तान नीति की असफलता का परिणाम है और मोदी सरकार को इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। यह बातें आज ओबरा कार्यालय में सोनभद्र, मिर्जापुर व चंदौली के अगुवा साथियो के साथ बातचीत करते हुए स्वराज अभियान के राष्ट्रीय कार्यसमिति सदस्य अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने कहीं।
उन्होंने कहा कि भाजपा कश्मीर समस्या को हल करने में कम और कश्मीर घाटी में अपना जनाधार बढ़ाने में ज्यादा दिलचस्पी ले रही थी। इसी के तहत जिस पीडीपी के बारे में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा आतंकियों के सहयोगी दल होने की बात करते थे उसके साथ उन्होंने मिलकर जम्मू कश्मीर में सरकार बनाई और पार्टी स्वार्थ में ही सरकार को गिरा भी दिया। घाटी में शांति बहाली और लोगों के अलगाव को दूर करने की कोई राजनीतिक समझ मोदी सरकार में नहीं दिखी। उनके कार्यकाल में केंद्र सरकार व राज्य सरकार से कश्मीरी अवाम का अलगाव बढ़ता गया और आज हालत यह हो गई कि कश्मीरी नौजवान आत्मघाती दस्ते में तब्दील होते जा रहे हैं। पूरे देश को अपने रंग में रंगने की आरएसएस की जो आत्मघाती व वैचारिक कट्टरपन की नीति है, उसी का परिणाम है कि उत्तर पूर्व में भी अलगाव बढ़ रहा है और नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में उत्तर पूर्व भारत में ‘हैलो चाईना बाॅय बाॅय इंडिया‘ के नारे लग रहे हैं ।
कश्मीर की समस्या इजराइल के विरूद्ध फिलीस्तीन के पैटर्न पर बढ़ती जा रही है जो पूरी तौर पर चिंताजनक है। पाकिस्तान के बारे में भी कोई ठोस नीति मोदी सरकार की नहीं दिखती है। कभी दोस्ती कभी युद्ध का माहौल बनाया जाता है। दरअसल पूरी विदेश नीति ही दिशाहीन हो गई है और सभी पड़ोसी मुल्कों के साथ सम्बंध खराब होते गए हैं यहां तक कि भूटान से भी पहले वाले सहज सम्बंध नहीं रह गया है। इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तान के विरूद्ध लिया गया कोई भी दुस्साहिक कदम अलगाववादियों का मनोबल बढायेगा, कश्मीर की समस्या को और जटिल करेगा और विदेशी ताकतों को भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप का मौका देगा। इराक और अफगानिस्तान में अमरीकी दमन के बावजूद आतंकी घटनाएं खत्म नहीं हुई हैं।
भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके संगठनों द्वारा पैदा किया जा रहा युद्धोन्माद व सांप्रदायिकता चिंताजनक है, इससे देश को बचने की जरूरत है। जो लोग ‘खून का बदला खून‘, ‘युद्ध करो-युद्ध करो‘ का नारा लगा रहे हैं वह लोग बेरोजगारी, दरिद्रता व भयावह गरीबी में फंसे आम जनजीवन की जिंदगी को तबाही की तरफ ले जाना चाहते हैं और युद्ध से मालामाल होने वाले हथियार के सौदागरों को मदद पहुंचा रहे हैं। 1971 में पाकिस्तान के विरूद्ध इन्दिरा की जीत की नसीहत का आज कोई मायने मतलब नहीं है, क्योंकि उस समय उनकी जीत के पीछे अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के संतुलन के साथ-साथ बंगलादेश की मुक्ति का राष्ट्रीय आंदोलन भी था। इसलिए ऐसे नाजुक वक्त में देश को नफरत व उन्माद में ढकेलने की जगह ठण्डे दिमाग से प्रभावशाली राजनैतिक-कूटनीतिक पहल लेने की जरूरत है जिससे पाकिस्तान पर दबाब बनाया जा सके और कश्मीर की आवाम का विश्वास भी जीता जा सके। हमें यह याद रखना होगा कि राजनीतिक खालीपन में ही अलगाव और आतंकी घटनाएं बढ़ती हैं । इसलिए हिंसा और युद्धोन्माद नहीं कश्मीर के सभी हिस्सेदारों (स्टेक होल्डरों) से वार्ता की जरूरत अब भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी चार साल पहले थी। इस तरह की कार्यवाही यदि चार साल पहले हुई होती तो सम्भवतः उरी, पठानकोट और अब पुलवामा जैसी आतंकी घटनाओं से देश बच गया होता और किसानों, मजदूरों और गरीबों के सैनिक बेटों की जिदंगी बच गयी होती।
दिनकर कपूर
राज्य कार्यसमिति सदस्य
स्वराज अभियान, उo प्रo द्वारा जारी।

कोरोना संकट के दौर में दलित-एस आर दारापुरी


कोरोना संकट के दौर में दलित
-एस आर दारापुरी आईपीएस (से.नि.), राष्ट्रीय  प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट 

 
2011 की आर्थिक एवं जाति जनगणना के अनुसार भारत के कुल परिवारों में से 4.42 करोड़ परिवार अनुसूचित जाति (दलित) से सम्बन्ध रखते हैं. इन परिवारों में से केवल 23% अच्छे मकानों में, 2% रहने योग्य मकानों में और 12% जीर्ण शीर्ण मकानों में रहते हैं. इन परिवारों में से 24% परिवार घास फूस, पालीथीन और मिटटी के मकानों में रहते हैं. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि अधिकतर दलितों के पास रहने योग्य घर भी नहीं है. काफी दलितों के घरों की ज़मीन भी उनकी अपनी नहीं है. यह भी सर्विदित है कि शहरों की मलिन बस्तियों तथा झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वाले अधिकतर दलित एवं आदिवासी ही हैं. यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इतने छोटे मकानों और झोंपड़ियों में कई कई लोगों के एक साथ रहने से कोरोना की रोकथाम के लिए फिज़िकल डिस्टेंसिंग कैसे संभव है. महाराष्ट्र का धार्वी स्लम इसकी सबसे बड़ी उदाहरण है जहाँ बड़ी तेजी से संक्रमण के मामले आ रहे हैं. ऐसी परिस्थिति में यदि ऐसी ही परिस्थिति रही तो इससे मरने वालों की संख्या का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.
उपरोक्त जनगणना के अनुसार केवल 3.95% दलित परिवारों के पास सरकारी नौकरी है. केवल 0.93% के पास राजकीय क्षेत्र तथा केवल 2.47% के पास निजी क्षेत्र का रोज़गार है. इससे स्पष्ट है कि दलित परिवार बेरोज़गारी का सबसे बड़ा शिकार हैं. वास्तव में आरक्षण के 70 साल लागू रहने पर भी सरकारी नौकरियों में दलित परिवारों का प्रतिनिधित्व केवल 3.95% ही क्यों है? क्या आरक्षण को लागू करने में हद दर्जे की बेईमानी नहीं बरती गयी है? क्या मेरिट के नाम पर दलित वर्गों के साथ खुला धोखा नहीं किया गया है और दलितों को उनके संवैधानिक अधिकार (हिस्सेदारी) से वंचित नहीं किया गया है? यदि  दलितों में मेरिट की कमी वाले वाले झूठे तर्क को मान भी लिया जाए तो फिर दलितों  में इतने वर्षों में मेरिट पैदा न होने देने के लिए कौन ज़िम्मेदार है
इसी जनगणना में यह उभर कर आया है कि देश में दलित परिवारों में से केवल 83.55% परिवारों की मासिक आय 5,000 से अधिक है.  केवल 11.74% परिवारों  की मासिक आय 5,000 से 10,000 के बीच है और केवल 4.67% परिवारों की आय 10,000 से अधिक है. सरकारी नौकरी से केवल 3.56% परिवारों की मासिक आय 5,000 से अधिक है. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि गरीबी की रेखा के नीचे दलितों  का प्रतिश्त बहुत अधिक है जिस कारण दलित ही कुपोषण का सबसे अधिक शिकार हैं. 
इसी प्रकार उपरोक्त जनगणना के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में 56% परिवार भूमिहीन हैं. इन में से भूमिहीन दलितों का प्रतिशत 70 से 80% से भी अधिक हो सकता है. दलितों की भूमिहीनता की दशा उन की सबसे बड़ी कमज़ोरी है जिस कारण वे भूमिधारी जातियों पर पूरी तरह से आश्रित रहते हैं. इसी प्रकार देहात क्षेत्र में 51% परिवार हाथ का श्रम करने वाले हैं जिन में से दलितों का प्रतिशत 70 से 80% से अधिक हो सकता है. जनगणना के अनुसार  दलित परिवारों में से केवल 18.45% के पास असिंचित, 17.41% के पास सिंचित तथा 6.98% के पास अन्य भूमि है. इससे स्पष्ट है की दलितों की भूमिहीनता लगभग 91% है. दलित मजदूरों की कृषि मजदूरी पर सब से अधिक निर्भरता है. जनगणना के अनुसार देहात क्षेत्र में केवल 30% परिवारों को ही कृषि में रोज़गार मिल पाता है जिससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन में कितने दलितों को कृषि से रोज़गार मिल पाता  होगा. यही कारण है कि गाँव से शहरों को ओर पलायन करने वालों में सबसे अधिक दलित ही हैं. हाल में कोरोना संकट के समय शहरों से गाँव की ओर उल्टा पलायन करने वालों में भी बहुसंख्यक दलित ही हैं.
दलितों की भूमिहीनता और हाथ की मजदूरी की विवशता उनकी सब से बड़ी कमज़ोरी है. इसी कारण वे न तो कृषि मजदूरी की ऊँची दर की मांग कर सकते हैं और न ही अपने ऊपर प्रतिदिन होने वाले अत्याचार और उत्पीड़न का मजबूती से विरोध ही कर पाते हैं. अतः दलितों के लिए ज़मीन और रोज़गार उन की सब से बड़ी ज़रुरत है परन्तु इस के लिए मोदी सरकार का कोई भी एजेंडा नहीं है. इस के विपरीत मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण करके दलितों को भूमिहीन बना रही है और कृषि क्षेत्र में कोई भी निवेश न करके इस क्षेत्र में रोज़गार के अवसरों को कम कर रही है. अन्य क्षेत्रों में भी सरकार रोज़गार पैदा करने में बुरी तरह से विफल रही है.
सरकारी उपक्रमों के निजीकरण के कारण दलितों को आरक्षण के माध्यम से मिलने वाले रोज़गार के अवसर भी लगातार कम हो रहे हैं. इसके विपरीत ठेकेदारी प्रथा से दलितों एवं अन्य मज़दूरों का खुला शोषण हो रहा है. मोदी सरकार ने श्रम कानूनों का शिथिलीकरण करके मजदूरों को श्रम कनूनों से मिलने वाली सुरक्षा को ख़त्म कर दिया है. इससे मजदूरों का खुला शोषण हो रहा है जिसका सबसे बड़ा शिकार दलित परिवार हैं. 
अमेरिका में वर्तमान कोरोना महामारी के अध्ययन से पाया गया है कि वहां पर संक्रमित/मृतक व्यक्तियों में गोरे लोगों की अपेक्षा काले लोगों की संख्या अधिक है. इसके चार मुख्य कारण बताये गए हैं: अधिक खराब सेहत और कम स्वास्थ्य सुविधाओं की उप्लब्धता एवं भेदभाव, अधिकतर काले अमरीकन लोगों का आवश्यक सेवाओं में लगे होना, अपर्याप्त जानकारी एवं छोटे घर. भारत में दलितों के मामले में तो इन सभी कारकों के इलावा सबसे बड़ा कारक सामाजिक भेदभाव है. इसी लिए यह स्वाभाविक है कि हमारे देश में भी काले अमरीकनों की तरह समाज के सबसे निचले पायदान पर दलित एवं आदिवासी ही कोरोना से सबसे अधिक प्रभावित होने की सम्भावना है. .  
वर्तमान कोरोना संकट से जो रोज़गार बंद हो गए हैं उसकी सबसे अधिक मार दलितों/ आदिवासियों पर ही पड़ने वाली है. हाल के अनुमान के अनुसार कोरोना की मार के फलस्वरूप भारत में लगभग 40 करोड़ लोगों के बेरोज़गारी का शिकार होने की सम्भावना है जिनमें अधिकतर दलित ही होंगे. इसके साथ ही आगे आने वाली जो मंदी है उसका भी सबसे बुरा प्रभाव दलितों एवं अन्य गरीब तबकों पर ही पड़ने वाला है. यह भी देखा गया है कि वर्तमान संकट के दौरान सरकार द्वारा राहत सम्बन्धी जो घोषणाएं की भी गयी हैं वे बिलकुल अपर्याप्त हैं और ऊंट के मुंह में जीरा के सामान ही हैं. इन योजनाओं में पात्रता को लेकर इतनी शर्तें लगा दी जाती हैं कि उनका लाभ आम आदमी को मिलना असंभव हो जा रहा है.
उत्तर कोरोना काल में दलितों की दुर्दशा और भी बिगड़ने वाली है क्योंकि उसमें भयानक आर्थिक मंदी के कारण रोज़गार बिलकुल घट जाने वाले हैं. चूँकि दलितों के पास उत्पादन का अपना कोई साधन जैसे ज़मीन तथा व्यापर कारोबार आदि नहीं है, अतः मंदी के दुष्परिणामों का सबसे अधिक प्रभाव दलितों पर ही पड़ने वाला है. इसके लिए ज़रूरी है कि भोजन तथा शिक्षा के अधिकार की तरह रोज़गार को भी मौलिक अधिकार बनाया जाये और बेरोज़गारी भत्ते की व्यवस्था लागू की जाये. इसके साथ ही स्वास्थ्य सुरक्षा को भी मौलिक अधिकार बनाया जाये ताकि गरीब लोगों को भी स्वास्थ्य सुरक्षा मिल सके. इसके लिए ज़रूरी है कि हमारे विकास के वर्तमान पूंजीवादी माडल के स्थान पर जनवादी समाजवादी कल्याणकारी राज्य के माडल को अपनाया जाये. 
यह उल्लेखनीय है कि डा. आंबेडकर राजकीय समाजवाद (जनवादी समाजवाद) के प्रबल समर्थक और पूंजीवाद के कट्टर विरोधी थे. उन्होंने तो दलित रेलवे मजदूरों के सम्मलेन को संबोधित करते हुए कहा था कि “दलितों के दो बड़े दुश्मन हैं, एक ब्राह्मणवाद और दूसरा पूँजीवाद.वे मजदूर वर्ग की राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी के बहुत बड़े पक्षधर थे. डॉ आंबेडकर के मस्तिष्क में समाजवाद की रूप-रेखा बहुत स्पष्ट थी। भारत के सामाजिक रूपान्तरण और आर्थिक विकास के लिए वे इसे अपरिहार्य मानते थे। उन्होंने भारत के भावी संविधान के अपने प्रारूप में इस रूप-रेखा को राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत भी किया था जो कि "स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज अर्थात राज्य एवं अल्पसंख्यकनामक पुस्तक के रूप में उपलब्ध है। वे सभी प्रमुख एवं आधारभूत उद्योगों, बीमा, कृषि भूमि का राष्ट्रीयकरण एवं सामूहिक खेती के पक्षधर थे. वे कृषि को राजकीय उद्योग का दर्जा दिए जाने के पक्ष में थे. डा. आंबेडकर तो संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार नहीं बनाना चाहते थे परन्तु यह उनके वश में नहीं था. 
वर्तमान कोरोना संकट ने यह सिद्ध कर दिया है कि अब तक भारत सहित अधिकतर देशों में विकास का जो पूँजीवाद माडल रहा है उसने शोषण एवं असमानता को ही बढ़ावा दिया है. यह आम जन की बुनियादी समस्यायों को हल करने में बुरी तरह से विफल रहा है. जबसे राजनीति का कारपोरेटीकरण एवं फाइनेंस कैपिटल का महत्त्व बढ़ा है, तब से लोकतंत्र की जगह अधिनायिकवाद और दक्षिणपंथ का पलड़ा भारी हुआ है. इस संकट से यह तथ्य भी उभर कर आया है कि इस संकट का सामना  केवल समाजवादी देश जैसे क्यूबा, चीन एवं वियतनाम आदि ही कर सके हैं. उनकी ही व्यवस्था मानव जाति के जीवन की रक्षा करने में सक्षम है। वरना आपने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को तो सुना ही होगा जिसमें वह कहते हैं कि लगभग ढाई लाख अमरीकनों को तो कोरोना से मरना ही होगा और इसमें वह कुछ नहीं कर सकते। पूंजीवाद के सर्वोच्च माडल की यह त्रासद पुकार है जो दिखा रही है कि मुनाफे पर पलने वाली पूंजीवादी व्यवस्था पूर्णतया खोखली है। इसलिए दलितों के हितों की रक्षा भी जनवादी समाजवादी राज्य व्यवस्था में ही सम्भव है। बाबा साहब की परिकल्पना तभी साकार होगी जब दलित, पूंजीपतियों की सेवा में लगे बसपा, अठवाले, रामविलास जैसे लोगों से अलग होकर, रेडिकल एजेंडा (भूमि आवंटन, रोज़गार, स्वास्थ्य सुरक्षा, शिक्षा, एवं सामाजिक सम्मान आदि) पर आधारित जन राजनीति के साथ जुड़ेंगे। यही राजनीति एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करेगी जिसमें उत्तर कोरोना काल की चुनौतियों का जवाब होगा। आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट इसी दिशा में जनवादी समाजवादी राजनीति का एक प्रयास है।


बुधवार, 10 जून 2020

दिल्ली केवल दिल्ली वालों के लिए: केजरीवाल का अनुचित फरमान


दिल्ली केवल दिल्ली वालों के लिए: केजरीवाल का अनुचित फरमान
-एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट


कोविड-19 महामारी भयावह रफ्तार से देश में बढ़ती जा रही है और इससे निपटने की कोई कारगर तैयारी नहीं दिखती है। अब यह सभी लोग मानने लगे हैं कि बिना तैयारी के लाकडाउन किया गया और बिना किसी तैयारी के ही लाकडाउन को हटाया गया है। अब लोगों को उनकी नियति पर ही छोड़ दिया गया है। जब गंभीर सवाल महामारी और चौपट होती अर्थव्यवस्था से निपटने का था, उस समय भाजपा और उसकी सरकार चुनाव प्रचार में उतर गई और बिहार, उड़ीसा और बंगाल में अपनी वर्चुअल रैली की। जनता ने इसे अच्छा नहीं माना, इसे चुनावी राजनीतिक रैली मान कर ही जैसा कि सोशल मीडिया में दिख रहा है अपने गुस्से का इजहार कर रही है।
   इसी प्रष्ठभूमि में सुशासन (गुड गवर्नेंस) के नये राजनीतिक प्रवक्ता दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के मुखिया महाशय अरविंद केजरीवाल ने यह फरमान जारी किया कि दिल्ली के अस्पतालों में दिल्ली के ही लोगों का ईलाज होगा। गनीमत है कि जन भावना और जन दबाव को देखते हुए दिल्ली के उपराज्यपाल ने उनके फैसले को पलट दिया। आइये अरविंद केजरीवाल की राजनीति को थोडा समझ लें। अन्ना हजारे का आंदोलन चला। कांग्रेस शासन में जो भ्रष्टाचार था उसके विरूद्ध चला। अन्ना हजारे आंदोलन में आरएसएस की भी बड़ी भूमिका रही है, अब यह बताने की जरूरत नहीं है। अन्ना हजारे आंदोलन का क्या हश्र हुआ इसे भी देश के लोग जानते हैं। उसमें से आम आदमी पार्टी निकली। आम आदमी पार्टी की क्या राजनीति रही? यह विचारधारा के विरूद्ध राजनीति करने की बात करती रही। इस आम आदमी पार्टी ने पश्चिम के विचारधारा विहीन विचार को स्वीकार किया। देश के अंदर जो लोग चाहते थे कि अच्छा गवर्नेंस हो उन्होंने समर्थन किया, देश के अंदर निहित स्वार्थ की कुछ ताकतों ने समर्थन किया और विदेश की भी ताकतों ने समर्थन किया है। विदेश की बहुत सारी ताकतें ऐसी हैं जो विचारधारा विहीन राजनीति का समर्थन करती हैं। बहुत सारे लोगों का मानना है कि इनका फोर्ड फाउंडेशन से गहरा संबंध रहा है। फोर्ड फाउंडेशन की वैचारिकी क्या है और यह किसके लिए काम करती है यह भी स्पष्ट है।
इनके गुड गवर्नेंस के नाम पर मोहल्ला क्लीनिक, स्कूल, बिजली, पानी आदि का खूब प्रोपैगंडा किया गया। इसी तरह जब लाकडाउन हुआ तो बढ़ चढ़ कर प्रचार किया गया कि लाखों लोगों को प्रतिदिन सरकार भोजन करा रही है, सभी जरूरतमंदों को राशन और पैसा दिया जा रहा है, मजदूरों के लिए कैंपों की व्यवस्था की गई है न जाने कितनी घोषणायें की गई। जमीनी हकीकत क्या थी कि भोजन के स्टालों पर दो-दो किमी लम्बी लाईनें लग रही थीं, 5-5 घण्टे लाईनों में लगने के बाद बहुतेरे लोगों को बिना भोजन के ही वापस लौटना पड़ रहा था और लोगों को बमुश्किल एक वक्त का ही भोजन मिल पा रहा है। यमुना तट से लेकर जगह-जगह लोग जैसे तैसे भटक रहे थे, कहीं कोई सरकारी इंतजाम नहीं दिखा। इनकी घोषणाओं पर शुरू से ही लोगों को भरोसा नहीं था, इसी वजह से लोग वहां रूकने को तैयार नहीं थे।
 अब जब इनको सब का ईलाज करना था, स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाना था, तब दिल्ली से बाहर के लोगों का ईलाज नहीं करने का फरमान जारी कर रहे हैं। दिल्ली की संरचना ही देखिये, आसपास के जिले दिल्ली से वैसे ही जुड़े हैं जैसे दिल्ली के अंदर के हिस्से। इन जिलों को मिलाकर ही राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र बनता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि दिल्ली में जो बाहर से आकर मजदूर रहते हैं इसमे बड़े पैमाने पर दलित-आदिवासी और बैकवर्ड हैं, उनके पास तो दिल्ली का किसी तरह का पहचानपत्र ही नहीं है। अगर इन्हें कोरोना हो जायेगा तो वह क्या बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश में आकर ईलाज करायेंगे। जबकि संविधान में हर आदमी को कहीं पर रहने, आने-जाने, स्वास्थ्य सुविधाओं आदि का पूरा अधिकार दिया हुआ है।
जन विरोधी होने का ऐसा साहस भाजपा नहीं कर सकती, और लोग भी नहीं कर पाये, पर केजरीवाल सरकार उससे भी आगे जा रही है। केजरीवाल बढ़ चढ़ कर भाजपा से दोस्ती करने और मोदी की नकल करने में आगे रहते हैं। कुछ लोग इनको “छोटा मोदी” भी कहते हैं। बहरहाल अभी की परिस्थिति में जो कोरोना के विरूद्ध लड़ाई है और अर्थव्यवस्था के पुर्नउत्थान का सवाल है यह आज का राजनीतिक प्रश्न है और मोदी सरकार हो, केजरीवाल सरकार हो या अन्य कोई क्षेत्रीय सरकार हो के ऊपर जनता को अपना दबाव बनाये रखना है और जीने का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, शिक्षा का अधिकार आदि,  जो संविधान प्रदत्त अधिकार हैं, उन्हें हासिल करने के लिए मुहिम चलाये रखने की जरूरत है।

उत्तर प्रदेश में दलित-आदिवासी और भूमि का प्रश्न

  उत्तर प्रदेश में दलित - आदिवासी और भूमि का प्रश्न -     एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट 2011 की जनगणना ...