मंगलवार, 16 मई 2023

नेहरू और बौद्ध धर्म

 

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"उनकी मृत्यु के ठीक एक महीने पहले मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य मिला था। 'स्ट्रोक' के तुरंत बाद मैंने उन्हें बहुत ही चिंतित मूड में पाया। मैंने उनसे एक प्रश्न किया - क्या आप बौद्ध हैं?" वे मेरी ओर देखकर मुस्कराए और बड़े शांत स्वर में मुझसे कहा कि अपनी 'आत्मकथा' और 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में उन्होंने बुद्ध का उल्लेख किया है। उन्होंने मुझे बताया कि एक भारतीय के रूप में वे दो ऐतिहासिक व्यक्तित्वों का सम्मान करते हैं और उन्हें अपने स्वयं के मार्गदर्शन' के लिए इस्तेमाल करते हैं। वे बुद्ध और सम्राट अशोक थे। उन्होंने कहा, "दुनिया में इन दो महान शख्सियतों ने अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में कई अन्य नेताओं को बौना बना दिया। फिर उन्होंने भारतीय गणराज्य के ध्वज में चरखा को बदलने के लिए 'धर्मचक्र' की सराहना करने में अपनी पसंद का गवाह बनने के लिए मेरी खुद की स्मृति को पुनर्जीवित किया।" उन्होंने टिप्पणी की कि उन्होंने भारत गणराज्य के आधिकारिक प्रतीक के रूप में 'सारनाथ के शेरों' को चुना। गहरी श्रद्धा और उत्साह के साथ, उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने 2500वें बुद्ध जयंती समारोह को एक महान सफलता बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने बौद्ध तीर्थयात्रियों के लिए बुद्ध की कथा से जुड़े पवित्र स्थानों की यात्रा करना संभव बनाने के लिए पहल की। फिर वह अचानक एक मुस्कान के साथ मेरी ओर मुड़े और एक प्रश्न किया। "ठीक है, तुम मुझे क्या समझते हो? क्या मुझे यह कहने का अधिकार है कि मैं एक बौद्ध हूं?" यह अंतिम बैठक उनके द्वारा एक वादे के साथ समाप्त हुई कि वह सारनाथ में संग्रहालय को निर्देश देंगे कि वे सारनाथ बुद्ध की छवि की दो सटीक प्रतिकृतियां बनाएं और उन्हें उपहार के रूप में उन्हें भेजें। सिंगापुर में श्री लंकार्णया और कौला लुम्पुर में ब्रिकफील्ड्स मंदिर भी। ये उपहार उनकी मृत्यु के बाद आए थे।" सिंगापुर के आदरणीय आनंद मंगला थेरा के ‘छिटपुट विचार और यादें' से उद्धृत।

साभार-'द यंग बुद्धिसट  सिंगापुर

(समता सैनिक संदेश- सितंबर, 1984 भगवान दास द्वारा)

मंगलवार, 2 मई 2023

हिंदू से बौद्ध बनने के बाद क्या ख़त्म हो गया ऊना के दलितों से भेदभाव

2 मई 2023

  हिंदू से बौद्ध बनने के बाद क्या ख़त्म हो गया ऊना के दलितों से भेदभाव

  • रॉक्सी गागडेकर छारा
  • बीबीसी गुजराती


ऊना के मोटा समधियाला के साठ वर्षीय बालूभाई सरवैया पैदा होने के बाद से ही मरे हुए मवेशियों की खाल उतार कर बेचते थे. उन्हें याद है कि उनके पिता भी मरे हुए मवेशियों को गांव से बाहर घसीटते हुए ले जाते थे, बदबू के बीच खाल निकालते थे और उनसे ऐसा ही करवाते थे.

लेकिन इन्हीं बालूभैया के बेटों वशराम, मुकेश और रमेश और उनके भाई के बेटे को 2016 में कथित गौरक्षकों ने बुरी तरह पीटा था. इन पर ज़िंदा गायों को मारने का आरोप लगाया गया हालांकि बाद में ये दावे ग़लत निकले.

इस घटना की गूंज पूरे देश में फैली. उस घटना के क़रीब दो साल बाद 26 अप्रैल 2018 को परिवार ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया.

गुजरात में हर साल बड़ी संख्या में लोग बौद्ध धर्म अपना रहे हैं. हाल ही में गांधीनगर में एक धर्मांतरण कार्यक्रम आयोजित किया गया था. जिसमें क़रीब 14 हज़ार लोगों ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाया.

कितना फ़र्क़ आया?

साल 2018 में वशरामभाई के परिवार के साथ हुई घटना को हाल ही में पांच साल हो गए हैं. बीबीसी ने यह पता लगाने की कोशिश की कि उनके परिवार और उनके साथ बौद्ध धर्म ग्रहण करने वाले अन्य दलितों के जीवन में क्या बदलाव आया.

मोटा समधियाला गांव में एक समय था जब सरवैया परिवार सहित अन्य दलितों के साथ किसी न किसी तरह का भेदभाव किया जाता था. जैसे कभी-कभी कोई आंगनबाड़ी बहन बच्चों को अपने केंद्र में लेने नहीं आती थी. सवर्णों के बीच परिवार के लोग नहीं बैठ सकते थे, उन्हें दुकान पर अलग खड़ा होना पड़ता था.

हालांकि अब इन परिवारों का मानना है कि ये सारी चीज़ें बदल गई हैं.

'हम बदले, हमारा गांव बदला'

बीबीसी गुजराती से बात करते हुए वशराम सरवैया कहते हैं, "सबसे पहले तो हमारे परिवार के हर सदस्य की मानसिकता बदली है. अब हम और अधिक तार्किक हैं. हम मंदिर आदि नहीं जाते, हम कोई कर्मकांड आदि नहीं करते, इसलिए हमारे ख़र्चे कम हो जाते हैं."

कभी फटे-पुराने कपड़े पहनने वाले वशरामभाई अब अच्छे कपड़े पहनते हैं और ख़ुद को साफ़ रखते हैं. वे कहते हैं, "2016 में हुई घटना के बाद गांव में भेदभाव कम हुआ था, लेकिन बौद्ध धर्म अपनाने के बाद बहुत फ़र्क़ देखने को मिल रहा है."

उन्होंने यह भी बताया, "मैं जब भी दुकान जाता था तो वे हमारे पैसे पर पानी के छींटे मारकर ही हाथ लगाते थे. हमें दूर से ही किराने का सामान दिया जाता था. अब इसमें बदलाव आया है. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सभी ने इस तरह की प्रथा को छोड़ दिया है, लेकिन अधिकांश लोगों में इस तरह की प्रथा के प्रति बदलाव आया है."

वशरामभाई यह भी कहते हैं कि इन ग्रामीणों के व्यवहार में यह परिवर्तन केवल उनके धर्मांतरण के कारण नहीं है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि 2016 में उनके साथ हुई घटना के बाद आनंदी बेन पटेल, राहुल गांधी, मायावती और शरद पवार जैसे बड़े नेता उनसे मिलने पहुंचे थे और इसका असर गांव के लोगों पर भी पड़ा.

गंगाड़ गांव वशरामभाई के गांव मोटा समधियाला से क़रीब चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित है.

इस गांव के जयंतीभाई राजमिस्त्री हैं. उन्होंने अपनी मां, पत्नी और चार बच्चों के साथ वर्ष 2018 में वशराम के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया था.

जब उनसे पूछा गया कि बौद्ध धर्म अपनाने के बाद उनके जीवन में क्या बदलाव आया? तो उनके अनुभव वशरामभाई के अनुभवों से बिलकुल अलग निकले.

जयंतीभाई ने बताया, "हम धर्मांतरण करके थोड़े ही बदलेंगे? ग्रामीणों के लिए हम एक समान हैं. आज भी हमें गांव के सवर्ण अपने यहां बैठने नहीं देते. वे हमारे घर भी नहीं आते. यहां तक कि सामाजिक आयोजनों में भी हमें दूसरों से अलग रखा जाता है और हमें लगातार याद दिलाया जाता है कि हम दलित हैं."

गुजराती और बौद्ध

2011 की जनगणना के अनुसार गुजरात में लगभग 30 हज़ार बौद्ध रहते हैं. बौद्ध भारत की आबादी का एक प्रतिशत से भी कम हैं.

अंतरराष्ट्रीय संस्था प्यू रिसर्च सेंटर की 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत में रहने वाले कुल बौद्धों में 89 फ़ीसद अनुसूचित जाति, पांच फ़ीसद अनुसूचित जनजाति, चार फ़ीसदी ओबीसी से हैं, जबकि सिर्फ़ दो फ़ीसद सामान्य वर्ग में आते हैं.

हालांकि, जयंतीभाई का मानना है कि बौद्ध धर्म अपनाने के बाद से उनका आत्मविश्वास बढ़ा है. 2014 से, वह बाबासाहेब अम्बेडकर के विचारों को फैलाने के लिए वे प्रोजेक्टर पर आम लोगों को फ़िल्में दिखा रहे हैं. 2018 के बाद उन्होंने अपने काम की रफ़्तार और बढ़ा दी है.

वे कहते हैं, "मेरे पास तो कुल चार किताबें हैं, लेकिन मेरी तीन बेटियां अब मेडिकल, पैरा-मेडिकल, इंजीनियरिंग जैसे कोर्स कर रही हैं. मेरा पूरा परिवार शिक्षा की ओर मुड़ गया है, जिसकी आशा आंबेडकर ने हमसे की थी."

अमरेली ज़िले के धारी नगर में रहने वाले और पुलिस विभाग में काम करने वाले नवलभाई के अनुभव भी जयंतीभाई की तरह ही हैं. नवलभाई ने भी साल 2018 में बौद्ध धर्म अपना लिया था.

वे कहते हैं, ''बौद्ध धर्म अपनाने के बाद भी हमारे प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में कोई बदलाव नहीं आया है. सरकारी नौकरी में भी हमारे साथ जातिवाद होता दिख रहा है. इसलिए, यह मानना सही नहीं है कि बौद्ध धर्म को स्वीकार करना भेदभाव का समाधान है."

'अगर बौद्ध धर्म नहीं अपनाया होता तो शायद यहां तक ​​नहीं पहुंच पाते'

जूनागढ़ के रेकरिया गांव में रहने वाले मनीषभाई परमार ने 2013 में बौद्ध धर्म अपना लिया था. एक दशक बाद अपने जीवन में आए बदलावों के बारे में उन्होंने बताया, "मैं सामाजिक पहलू के बारे में बात नहीं करूंगा, लेकिन अगर मैं अपने परिवार के बारे में बात करता हूं, तो हम जीवन का आनंद ले रहे हैं. लगभग हर महीने त्योहार आते हैं और उन पर ख़र्च नहीं होता है, मेरी कमाई का अधिकांश हिस्सा अब मेरे बच्चों की पढ़ाई में चला जाता है."

मनीषभाई के चार बच्चों में एक बेटे ने एमएससी किया है. एक बेटा राजकोट में डॉक्टर के रूप में प्रैक्टिस कर रहा है, एक बेटे की इंजीनियर के रूप में अच्छी नौकरी है और चौथा बेटा अभी कॉलेज में पढ़ रहा है.

वे कहते हैं, "बौद्ध धर्म अपनाने के बाद हमारे परिवार का सारा ध्यान बच्चों की पढ़ाई और उनके बेहतर भविष्य पर था. बच्चों ने भी शिक्षा के महत्व को समझा, जिसके कारण आज हमने यह परिणाम देखा है."

उनका मानना है कि अगर उन्होंने बौद्ध धर्म नहीं अपनाया होता तो शायद आज वह इस मुक़ाम तक नहीं पहुंच पाते.

मिली नई पहचान

भीमराव आंबेडकर ने कहा था, "अगर जातिवाद को ख़त्म करना है तो दलितों को गांवों से शहरों की ओर जाना होगा. वह पलायन उन्हें एक नई पहचान देगा."

31 मई, 1936 को बाबासाहेब ने 'महार सम्मेलन' में प्रवास पर बोलते हुए कहा था, "यदि केवल नाम के लिए हिंदू धर्म बदल दिया जाए तो दलित की पहचान नहीं बदलेगी. यदि वह अपनी पहचान बदलना चाहता है, तो उसे अपने पुराने उपनाम जैसे महार, चोकमेला आदि को छोड़कर एक नया उपनाम अपनाना होगा. बदलाव तभी आएगा."

सूरत में रहने वाले 40 वर्षीय चंद्रमणि ने बौद्ध इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है और वर्तमान में कोचिंग क्लास चलाते हैं. उनके दादाजी ने 1956 में बाबासाहेब आंबेडकर के साथ बौद्ध धर्म में दीक्षा ली.

बीबीसी गुजराती से बातचीत में वे कहते हैं, "बाबासाहेब ने कहा था पहले धर्मांतरण और फिर पलायन. हमारा परिवार उसी पर अड़ा रहा. मेरे दादा ने धर्म परिवर्तन किया और अपना नाम बदल लिया, परिवार का उपनाम बदल दिया और फिर मेरे दादाजी का परिवार नागपुर से मुंबई आ गया."

उन्होंने बताया, "मेरे पिता रेलवे में गार्ड के रूप में काम करते थे और हम एक रेलवे कॉलोनी में रहते थे. जातिवाद वहां कभी रहा ही नहीं. इसी तरह मेरे पिता का परिवार सूरत में आकर रहने लगा. वर्तमान में मेरे बड़े भाई एक डॉक्टर हैं, मेरी बहन एक वकील है और मैं एक इंजीनियर हूँ. बौद्ध धर्म अपनाने से हमें बहुत लाभ हुआ है."

क्या जातिवाद का जवाब धर्मांतरण है?

बहुत से लोग इस बात से सहमत हैं और मानते हैं कि आंबेडकर के कहे मुताबिक़, धर्मांतरण निश्चित रूप से जातिवाद का जवाब है, लेकिन धर्मांतरण समस्या का समाधान नहीं है.

इस बारे में बात करते हुए दलित एक्टिविस्ट मार्टिन मैकइवान कहते हैं, "बौद्ध धर्म अपनाने के बाद भी कई ऐसे लोग हैं जिन्हें जातिवाद का सामना करना पड़ता है. जो लोग धर्मांतरण के बाद अपने गांव में रहते हैं, उनकी पहचान पहले जैसी ही रहती है. इसलिए आज भी कई लोगों को बौद्ध धर्म अपनाने के बावजूद भेदभाव का सामना करना पड़ता है."

दलित लेखक और कार्यकर्ता चंदूभाई महरिया एक उदाहरण देते हुए बताते हैं, "आंबेडकर ने बौद्ध धर्म को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया था. उन्होंने 22 प्रतिज्ञाएं लीं. मेरे हिसाब से वह एक राजनीतिक एजेंडा था. हालांकि,आजकल जो धर्मांतरण हो रहा है, वह एक धार्मिक एजेंडा है और वह भी बहुत कम संख्या में लोग बौद्ध धर्म में परिवर्तित होते हैं. इसलिए किसी बड़े बदलाव होने की संभावना नहीं होती है."

महरिया यह भी बताते हैं, "दलित समुदाय के पास अभी भी अपनी जाति व्यवस्था या उप-जाति व्यवस्था है, जिसे अभी तक बौद्ध भी चुनौती नहीं दे पाए हैं. इसलिए बौद्ध धर्म वर्तमान में जातिवाद का जवाब नहीं लगता है."

इसी तरह, दलित नेता प्रीति बहन वाघेला ने बीबीसी गुजराती से कहा, "बौद्ध धर्म कुछ लोगों के बीच एक नए प्रकार का कट्टरवाद ला रहा है, क्योंकि ऐसे कई उदाहरण हैं जब कोई भावनात्मक रूप से अपने माता-पिता को उनकी इच्छा के विरुद्ध बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने के लिए मजबूर करता है. कई लोगों के लिए बौद्ध धर्म को अपनाना केवल एक सनक है, मैंने देखा है कि वे इसका पालन नहीं कर सकते."

'धर्म बदलने से वर्ग नहीं बदलता'

बौद्ध आनंद शाक्य बीबीसी गुजराती से कहते हैं, "हिंदू धर्म से बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने वालों के लिए सामाजिक संपर्क में कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं होता है. लेकिन व्यक्ति या परिवार में बहुत बड़ा अंतर आता है. समय के साथ आने वाली पीढ़ी को लाभ मिलता है."

इस बारे में समाजशास्त्री और लेखक विद्युत जोशी कहते हैं, "जाति व्यवस्था का संबंध धर्म से नहीं, समाज के वर्ग से है, इसलिए धर्म बदलने से वर्ग नहीं बदलता."

जोशी आगे कहते हैं, "अगर हम राजा राममोहन राय की ब्रह्म समाज की क्रांति को याद करें, जाति व्यवस्था से तंग आकर लोगों ने ब्रह्म समाज को स्वीकार किया, तो उन्होंने अपना एक अलग वर्ग बनाया, अब वे भी दलितों के साथ नहीं घुलते. जब तक 'व्यक्तिगत समाज' नहीं बनता और लोग जब तक जन्म से नहीं बल्कि कर्म से पहचाने जाते हैं, बौद्ध धर्म से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा."

वहीं गुजरात बौद्ध अकादमी के महासचिव रमेश बैंकर की राय थोड़ी अलग है. बीबीसी गुजराती से बातचीत में वे कहते हैं, "बौद्ध धर्म अपनाने का मुख्य लक्ष्य ख़ुद को बदलना है, आत्मविश्वास विकसित करना है और यह हो रहा है. दूसरे लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं, इससे उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है."

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