शनिवार, 28 मई 2022

बौद्ध विहार हिन्दू मंदिरों में बदले गए

 

बौद्ध विहार हिन्दू मंदिरों में बदले गए

                    -(भगवान स्वरूप कटियार)

*आज के ज्यादात्तर नामी-गिरामी हिंदू मंदिर, मूलतः: बौद्ध स्थल थे, जिन्हें ब्राह्मणवादियों ने तोड़कर हिंदू मंदिर बनाया। इसमें बद्रीनाथ का मंदिर भी शामिल हैं,।क्यों न बौद्ध धर्मावलंबी इन हिंदू मंदिरों पर कब्जा का अभियान चलाएं?*

*प्रमाण राहुल सांकृत्यायन और डी एन झा ने प्रस्तुत किया है:-

बदरीनाथ की मूर्ति पद्मासन भूमिस्पर्श मुद्रायुक्त बुद्ध की है, इसमें कोई संदेह नही है.”

@राहुल सांकृत्यायन

(स्रोत-उद्धृत गुणाकर मुले, महापंडित राहुल सांकृत्यायन (जीवन और कृतित्व) नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, पृ. 136)

बदरीनाथ, हिंदुओं के चारधामों में से एक है. यहां की बुद्ध मूर्ति को आदि विष्णु का रूप दे दिया गया. यहां का मुख्य पुजारी सिर्फ केरल का नंबूदरी ब्राह्मण हो सकता है.

सैकड़ों नहीं, हजारों नहीं, बल्कि लाखों बुद्ध की मूर्तियों को, हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों में तब्दील कर दिया गया है यानि बौद्ध स्थलों पर ब्राह्मण धर्मालंबियों (जिसे आजकल "हिंदू धर्म" कहा जाता है) ने कब्जा जमा लिया, इसके पुरातात्विक साक्ष्य निरंतर मिलते रहे हैं और अभी भी मिल रहे हैं!

यहां तक कि बोधगया के महाबोधि मंदिर पर भी, ब्राह्मणों ने कब्जा कर लिया था. किन्तु दुनिया भर के बौद्ध अनुयायियों के लंबे संघर्ष के बाद, वह पवित्र स्थान बौद्ध अनुयायियों (14 जनवरी 1953) को मिल पाया!

सच यह है कि भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा, बहुजन-श्रमण संस्कृति रही है, जिसे नष्ट व घालमेल कर ब्राह्मणी संस्कृति (=हिंदू संस्कृति) स्थापित की गई.

इस तथ्य को डी. एन. झा इन शब्दों में व्यक्त करते हैं:-

"ब्राह्मणवादियों ने बड़े पैमाने पर बौद्ध मठों, स्तूपों और ग्रंथों को नष्ट किया और बौद्ध भिक्षुओं की बड़े पैमाने पर हत्या की. नालंदा विश्वविद्यालय और पुस्तकालय को जलाया जाना भी इस प्रक्रिया का हिस्सा था."

ब्राह्मणों और श्रमणों के बीच संघर्ष का क्या रूप था. इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध वैयाकरण पतंजलि (द्वितीय शताब्दी) लिखते हैं कि

श्रमण और ब्राह्मण एक दूसरे के शाश्वत शत्रु (विरोध: शाश्वतिक:) हैं, उनका विरोध वैसे ही है, जैसे सांप और नेवले के बीच. (संदर्भ- डी. एन. झा, पृ. 34, "हिंदू पहचान की खोज")

 

हिंदुओं ने बड़े पैमाने पर बौद्ध स्थलों को नष्ट किया, उन्होंने ही नालंदा के विश्वविद्यालय को भी जलाया-

प्रमाण इतिहासकार डी एन झा ने प्रस्तुत किया है.

डी.एन. झा पूर्व मध्यकालीन इतिहास के संदर्भ में भी फैलाए गए अन्य झूठे मिथकों को समुचित साक्ष्यों के आधार खारिज करते हैं. इन झूठे मिथकों में आम तौर स्वीकृत एक मिथक है यह है कि "नालंदा विश्वविद्यालय और उसके पुस्तकालय को बख्तियार खिलजी ने जलाया और नष्ट किया था."

डी. एन. झा ने तिब्बती बौद्ध धर्मग्रंथ ‘परासम-जोन-संग’ को उद्धृत करते हुए बताया है कि "हिंदू अंध श्रद्धालुओं द्वारा, नालंदा को पुस्तकालय जलाया गया था!" (स्रोत- "हिंदू पहचान की खोज", पृ.38, डी. एन. झा)

उनके इस मत की पुष्टि इतिहासकार बी. एन. एस. यादव भी करते हैं, उन्होंने लिखा है कि “आमतौर पर यह माना जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार खिलजी ने नष्ट किया था, जबकि उसे हिंदुओं ने नष्ट किया था.”

इतिहासकार डी. आर. पाटिल को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं कि “उसे (नालंदा विश्वविद्याल) शैवों (हिंदुओं) ने बर्बाद किया.”

(स्रोत: एंटीक्वेरियन रिमेंन्स ऑफ बिहार, 1963, पृ.304)

इस संदर्भ में आर. एस. शर्मा और के. एम. श्रीमाली ने भी विस्तार से विचार किया है. (ए कम्प्रिहेंसिव हिस्ट्री ऑफ इंडिया, खंड, भाग-2 (ए. डी.985-1206) आगामी अध्याय XXX ( b) बुद्धिज्म फुटनोट्स 79 से 82 तक

असल में डी. एन. झा प्राचीनकालीन और पूर्व मध्यकालीन इतिहास को ब्राह्मण-श्रमण विचारों-परंपराओं के संघर्ष के रूप में देखते हैं और साक्ष्यों के आधार पर यह स्थापित करते हैं कि ब्राह्मणवादियों ने बड़े पैमाने पर बौद्ध मठों, स्तूपों और ग्रंथों को नष्ट किया और बौद्ध भिक्षुओं की बड़े पैमाने पर हत्या की. नालंदा विश्वविद्यालय और पुस्तकालय को जलाया जाना भी इस प्रक्रिया का हिस्सा था.

ब्राह्मणों और श्रमणों के बीच संघर्ष का क्या रूप था; इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध वैयाकरण पतंजलि (द्वितीय शताब्दी) लिखते हैं कि “श्रमण और ब्राह्मण एक दूसरे के शाश्वत शत्रु (विरोध: शाश्वतिक:) हैं, उनका विरोध वैसे ही है, जैसे सांप और नेवले के बीच. (उद्धृत डी. एन. झा, पृ. 34, हिंदू पहचान की खोज)

यह शत्रुता लंबे समय तक जारी रही है और बड़े पैमाने पर बौद्धों- जैनों और श्रमण पंरपरा के अन्य वाहकों के खिलाफ ब्राह्मणवादियों द्वारा हिंसा जारी रही.

हिंसा के इस स्वरूप का साक्ष्यों द्वारा उद्घाटन करते हुए डी. एन. झा यह स्थापित करते है कि, "हिंदू धर्म का इतिहास, सहिष्णुता और अहिंसा का इतिहास रहा है, यह गढ़ा गया झूठा मिथक हैं. हिंदू धर्म का इतिहास हिंसा और असहिष्णुता से भरा पड़ा है. यह हिंसा न केवल श्रमण विचारों के वाहकों के खिलाफ हुई, इसके साथ वैदिक-ब्राह्मणवादी परंपरा के विभिन्न संप्रदायों के बीच भी व्यापक हिंसा हुई, जिसमें वैष्णवों और शैवों के बीच हिंसा भी शामिल है."

अपनी किताब ‘हिंदू पहचान की खोज’ में डी. एन. झा श्रमणों के खिलाफ ब्राह्मणवादियों की व्यापक हिंसा के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं. वे लिखते है कि

बौद्ध रचना 'दिव्यावदान' (तीसरी शताब्दी) में पुष्यमित्र शुंग को बौद्धों का बहुत बड़ा उत्पीड़क बताया गया है: वह चार गुना सेना के साथ बौद्धों के विरुद्ध निकल पड़ता है, स्तूपों को नष्ट करता है, बौद्ध विहारों को जला देता है और शाकल (सियालकोट) तक भिक्षुओं की हत्या करता जाता है और जहां वह प्रत्येक श्रमण के सिर लिए, एक सौ दीनार के इनाम की घोषणा करता है.” ('दिव्यावदान', सं. ई. बी. कोवेल और आर.ए. मील, कैम्ब्रिज, 1886, पृ.433-34)

डी. एन. झा लिखते हैं कि-

"बौद्ध एवं जैन संप्रदायों और ब्राह्मणवादियों के बीच शत्रुता मध्ययुग के आरंभ में तीखी होती जाती है. यह हमें धर्मशास्त्रीय वैमनस्व संबंधी पाठों तथा उन्हें मानने वालों के बीच उत्पीड़न से पता चलता है. कहा जाता है कि उद्योत्कर (सातवीं शताब्दी) ने बौद्ध तर्कशास्त्रियों-नागार्जुन और दिगनाग-के तर्कों का खंड़न किया था और उनके तर्कों को वाचस्पति मिश्र ने अधिक दृढ़ बनाया."

"सनातनी-ब्राह्मणवादी दार्शनिक- कुमारिल भट्ट (आठवीं शताब्दी) ने सभी गैर-परंपरावादी आंदोलनों (खासकर बौद्ध और जैन) के दर्शनों को मानने से इंकार कर दिया."

बौद्धों-जैनों के बारे में कुमारिल कहता है कि “वे उन अकृतज्ञ और अलग हो गए बच्चों के समान हैं जो अपने अभिभावकों द्वारा की गई भलाई स्वीकार करने से इंकार करते हैं, क्योंकि वे वेद-विरोधी प्रचार के लिए ‘अहिंसा’ के विचार का प्रयोग एक औजार के रूप में करते हैं."

बुद्ध के संदर्भ में शंकर (आदि शंकराचार्य) कहते हैं कि

वे (बुद्ध) असंबद्ध प्रलाप (असंबद्ध-प्रलापित्वा) करते हैं, यहां तक कि वे जानबूझकर और घृणापूर्वक मानवता को विचारों की गड़बड़ी की ओर ले जाते हैं.”

सोलहवीं बंगाल के भगवद्गीता के टिप्पणीकार-मधुसूदन सरस्वती- यहां तक कहते हैं कि

"भौतिकवादियों, बौद्धों तथा अन्य के विचार, म्लेच्छों के विचारों के समान हैं. ब्राह्मणवादी दार्शनिकों को अनुकरण करते हुए पुराण (सौर पुराण) यह मत प्रकट करता है कि “चार्वाकों, बौद्धों और जैनियों को साम्राज्य में रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.” ( सौर पुराण, 64.44, 38.54)

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डी.एन. झा लिखते हैं कि बौद्धों और जैनियों के विरुद्ध शैव तथा वैष्णव अभियान सिर्फ जहरीले शब्दों तक सामित नहीं थे. उन्हें प्रथम सहस्राब्दी के मध्य से प्रताड़ित किया जाने लगा, जिसकी पुष्टि आरंभिक मध्ययुगीन स्रोतों से होती है."

ह्यूआन सांग को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं कि -

हर्षवर्धन के समकालीन गौड़ राजा शशांक ने बुद्ध की मूर्ति हटाई थी."

यह भी बताते हैं कि "शिवभक्त हूण शासक मिहिरकुल ने 1600 बौद्ध स्तूपों और मठों को नष्ट किया तथा हजारों बौद्ध भिक्षुओं तथा सामान्य जनों की हत्या की.” (सैमुअल बील, सी-यू: बुद्धिस्ट रेकॉर्डस ऑफ द वेस्टर्न वर्ल्ड, दिल्ली, 1969, पृ. 171-72, उद्धृत डी. एन. झा)

कश्मीर में बौद्धों के दमन का महत्वपूर्ण प्रमाण राजा क्षेमगुप्त ( 950-58) के शासन में मिलता है. उन्होंने श्रीनगर में स्थित बौद्ध विहार-जयेंन्द्र विहार-नष्ट करके उसकी सामग्री का प्रयोग श्रेमगौरीश्वर के निर्माण के लिए किया. (राजतरंगिणी ऑफ कल्हण, 1.140-144, उद्धृत डी. एन. झा)

उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले में नष्ट किए गए सैंतालिस किलेबंद नगर के अवशेष मिले हैं, जो वास्तव में बौद्ध नगर थे और जिन्हें ब्राह्मणवादियों ने बौद्धवाद पर अपनी जीत की खुशी में आग लगाकर बर्बाद किया था.”

(उद्धृत, डी. एन. झा, सोसायटी एंड कल्चर इन नादर्न इंडिया इन द टवेल्फ्थ सेंचुरी, इलाहाबाद, 1973, पृ.436)

बौद्धों के प्रति ब्राह्मणवादियों में किस कदर नफरत थी, इसका एक बड़ा उदाहरण देते हुए डी. एन. झा लिखते हैं कि-

"दक्षिण भारत में मिलता है. तेरहवीं शताब्दी के एक अल्वार ग्रंथ के अनुसार वैष्णव कवि-संत तिरुमण्कई ने नागपट्टिनम में एक स्तूप से बुद्ध की एक बड़ी सोने की मूर्ति चुराई और उसे पिघलाकर एक अन्य मंदिर में प्रयुक्त किया, कहा गया कि वह मंदिर बनाने का आदेश स्वयं भगवान विष्णु ने उन्हें दिया था. (रिचर्ड एव. डेविस, लाइव्स ऑफ इमेजेज, प्रथम संस्करण, दिल्ली, 1999, पृ.83)

डी. एन. झा प्रमाणों के साथ यह प्रस्तुत करते हैं कि "ब्राह्मणवादियों ने बौद्धों से कहीं अधिक ज्यादा जैनियों का दमन किया है."

निष्कर्ष रूप में डी. एन. झा लिखते हैं कि ब्राह्मणवाद निहित रूप से असहिष्णु था...अक्सर ही हिंसा का रूप धारण करने वाली असहिष्णुता सैन्य-प्रशिक्षण प्राप्त ब्राह्मणों से काफी सहायता पाती रही होगी. इसलिए यह दावा (हिंदुओं का दावा) पचाना कठिन है कि हिंदूवाद तिरस्कार करने के बजाय समावेश करता है.

यह भी मानना असंभव है कि हिंदूवाद के रूप में हिंदूवाद का सार ही सहिष्णुता है!

इसी तरह यह कहना कि इस्लाम ने ही इस देश में हिंसा लाई है, जिसे इसका पता नहीं ही नहीं था, ऐसा कहना प्रमाणों की उपेक्षा करना है.

भारत में इस्लाम के आगमन से काफी पहले, सन्यासी-योद्धाओं और साधु फौजियों के दल बन चुके थे और वे आपस में खूब मारा-मारी करते थे.

-डेविड एन. लोरेन्जेन, (वॉरियर एसोटिक्स इन इंडियन हिस्ट्री, जर्नल ऑफ द अमेरिकन सोसायटी, पृ.61-75, उद्धृत डी.एन. झा, पृ.42)

शनिवार, 21 मई 2022

बहुजन राजनीति को चाहिए एक नया रेडिकल विकल्प

 

बहुजन राजनीति को चाहिए एक नया रेडिकल विकल्प

   - एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट

डा. अंबेडकर दलित राजनीति के जनक माने जाते हैं। उन्होंने ने ही गोलमेज कांफ्रेंसों में दलितों को राजनीतिक अधिकार दिए जाने की मांग उठाई थी तथा गांधी जी के कड़े विरोध के बावजूद दलितों को हिंदुओं से अलग अल्पसंख्यक वर्ग का दर्जा तथा राजनीतिक अधिकार प्राप्त किए जिनकी घोषणा कम्यूनल अवार्ड के रूप में हुई। इसमें दलितों को दूसरे अल्पसंख्यकों जैसे सिख तथा मुसलमानों की तरह अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने के लिए अलग मताधिकार का अधिकार प्राप्त हुआ। गांधी जी ने इसे हिन्दू समाज के विभाजन की साजिश बता कर इसका आमरण अनशन द्वारा विरोध किया तथा आखिर में गांधी जी की जान बचाने के लिए उन्हें पूना पैकट करना पड़ा। इससे दलितों को अलग मताधिकार के स्थान पर संयुक्त मताधिकार द्वारा विधायिका में आरक्षित सीटें, सरकारी नौकरियों तथा स्थानीय निकायों में आरक्षण तथा शिक्षा के लिए विशेष प्रोत्साहन की सुविधा प्राप्त हुई परंतु दलितों का स्वतंत्र राजनीति का अधिकार छिन्न गया।  

डा. अंबेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (स्वतंत्र मजदूर पार्टी) बना कर 1937 के प्रथम चुनाव में बंबई प्रेसीडेंसी में भाग लिया। इस चुनाव में उनका मुख्य जोर मजदूर वर्ग के मुद्दों पर था। इसमें उन्होंने 15 सीटें जीतीं जिनमें 3 सामान्य सीटें भी थीं। इसके बाद उन्होंने 1942 में आल इंडिया शैडयूलड कास्ट्स फेडरेशन बनाई जिसकी सदस्यता केवल दलितों तक सीमित थी। इससे उन्होंने 1946 तथा 1952 में चुनाव लड़े परंतु उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। अंत में उन्होंने 14 अक्तूबर, 1956 को फेडरेशन को भंग करके रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआई) की स्थापना की। इसका संविधान भी उन्होंने ही बनाया।

अब यह देखने की बात है कि इन पार्टियों को बनाने के पीछे बाबासाहेब का मुख्य नजरिया क्या था। आइए सब से पहले बाबा साहेब की स्वतंत्र मजदूर पार्टी को देखें। डॉ. आंबेडकर ने अपने ब्यान में पार्टी के बनाने के कारणों और उसके काम के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए कहा था- “इस बात को ध्यान में रखते हुए कि आज पार्टियों को सम्प्रदाय के आधार पर संगठित करने का समय नहीं है, मैंने अपने मित्रों की इच्छायों से सहमति रखते हुए पार्टी का नाम तथा इस के प्रोग्राम को विशाल बना दिया है ताकि अन्य वर्ग के लोगों के साथ राजनीतिक सहयोग संभव हो सके। पार्टी का मुख्य केंद्रबिंदु तो दलित जातियों के 15 सदस्य ही रहेंगे परन्तु अन्य वर्ग के लोग भी पार्टी में शामिल हो सकेंगे।” इस पार्टी की राजनीति जातिवादी न होकर वर्ग और मुद्दा आधारित थी और इस के केंद्र में मुख्यतया दलित थे।

बाबा साहेब द्वारा 1942 में स्थापित आल इंडिया शैडयूल्ड कास्टस फेडरेशन के उद्देश्य और एजंडा को देखा जाये तो पाया जाता है कि डॉ. आंबेडकर ने इसे सत्ताधारी कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों के बीच संतुलन बनाने के लिए तीसरी पार्टी के रूप में स्थापित करने की बात कही थी। इसकी सदस्यता केवल दलित वर्गों तक सीमित थी क्योंकि उस समय दलित वर्ग के हितों को प्रोजेक्ट करने के लिए ऐसा करना जरूरी था।

बाबासाहेब ने 14 अक्तूबर, 1956 को आरपीआई बनाई जिसका मुख्य उद्देश्य एक ऐसी पार्टी बनाना था जो संविधान में किये गए वादों के अनुसार हो और उन्हें पूरा करना उस का उद्देश्य हो। वे इसे केवल अछूतों की पार्टी नहीं बनाना चाहते थे क्योंकि एक जाति या वर्ग के नाम पर बनायी गयी पार्टी सत्ता प्राप्त नहीं कर सकती। वह केवल दबाव डालने वाला ग्रुप ही बन सकती है। आरपीआई की स्थापना के पीछे मुख्य ध्येय थे: (1) समाज व्यवस्था से विषमतायें हटाई जाएँ ताकि कोई विशेषाधिकार प्राप्त तथा वंचित वर्ग न रहे, (2) दो पार्टी सिस्टम हो: एक सत्ता में दूसरा विरोधी पक्ष, (3) कानून के सामने समानता और सब के लिए एक जैसा कानून हो, (4) समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना, (5) अल्पसंख्यक लोगों के साथ सामान व्यवहार, (6) मानवता की भावना जिसका भारतीय समाज में अभाव रहा है।  

“पार्टी के संविधान की प्रस्तावना में पार्टी का मुख्य लक्ष्य व उद्देश्य “न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुता” को प्राप्त करना था। पार्टी का कार्यक्रम बहुत व्यापक था। पार्टी की स्थापना के पीछे बाबा साहेब का उद्देश्य था कि अल्पसंख्यक लोग, गरीब मुस्लिम, गरीब ईसाई, गरीब तथा निचली जाति के सिक्ख तथा कमज़ोर वर्ग के अछूत, पिछड़ी जातियों के लोग, आदिम जातियों के लोग, शोषण का अंत, न्याय और प्रगति चाहने वाले सभी लोग एक झंडे के तल्ले संगठित हो सकें और पूंजीपतियों के मुकाबले में खड़े होकर संविधान तथा अपने अधिकारों की रक्षा कर सकें।“ -  (दलित राजनीति और संगठन - भगवान दास)

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि बाबासाहेब द्वारा स्थापित राजनीतिक पार्टियों का उद्देश्य एक बहुवर्गीय पार्टी बनाना था जिसमें दलित, पिछड़े, मुसलमान, मजदूर तथा किसान शामिल हो सकते थे। पार्टी का एजंडा भी इन वर्गों के मुद्दों को लेकर ही बना था। उनकी पार्टियों का एजंडा जातिवादी बिल्कुल नहीं था।

अब अगर वर्तमान दलित राजनीति को देखा जाए तो इसमें बहुजन के नाम पर राजनीति सामने आती है। इसके मुख्य जनक कांशी राम कहे जाते हैं। कांशी रामजी की बहुजन की अवधारणा दलित, मुस्लिम तथा अन्य पिछड़ी जातियों के गठबंधन से थी जिन्हें वे भारत की कुल आबादी का 85% मानते थे तथा शेष 15% सवर्ण। अतः उनकी बहुजन राजनीति 15 बनाम 85 के नाम से भी जानी जाती है। उनका मुख्य एजंडा 15% सवर्णों से राजनीतिक सत्ता छीनना था। सुनने में यह फार्मूला बहुत अच्छा लगता है परंतु व्यवहार में यह ऐसा नहीं है। कांशी राम जी की बहुजन राजनीति में नेतृत्व दलितों, पिछड़ों तथा मुसलमानों के संभ्रांत लोगों के हाथ में ही था। वे ही पहुँच/पैसे के बल पर टिकट पाते थे और जीत कर मंत्री, विधायक तथा सांसद बनते थे। सरकार बनने पर वे ही उसका सबसे अधिक फायदा उठाते थे। आम दलित, ओबीसी तथा मुसलमान वोटर मात्र थे जो सरकार बनने पर अपनी समस्याओं के हल होने की अपेक्षा में जोरशोर से वोट देते थे। परंतु चार वार बसपा की सरकार बनने पर भी उनकी भौतिक स्थितियों में कोई सुधार नहीं हुआ।  

बहुजन राजनीति का मुख्य उद्देश्य या तो राजनीतिक सत्ता को हथियाना या उसमें हिस्सेदारी करना था। उसकी नीतियाँ या एजंडा वर्तमान शोषक वर्ग की राजनीति की नीतियों या एजंडे को बदलना नहीं था। यद्यपि कांशी राम जी ने व्यवस्था परिवर्तन का नारा तो दिया था परंतु सत्ता में आने पर इसके लिए कुछ किया नहीं। वास्तव में उनकी अपनी कोई वैकल्पिक नीतियाँ या एजंडा नहीं था जिससे आम आदमी (दलित, पिछड़ा या अल्पसंख्यक या अन्य) का उत्थान हो। बहुजन राजनीति की धुरी दलित वर्ग का सरकारी नौकरियों में आया तबका था जिसका सबसे बड़ा मुद्दा आरक्षण था। अतः बहुजन राजनीति का मुख्य एजंडा भी आरक्षण, पदोन्नति तथा अच्छी पोस्टिंग आदि ही रहा। उसके एजंडे में आम दलित के लिए भूमि आवंटन, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं उत्पीड़न से मुक्ति नहीं रहा। मायावती के चार वार मुख्यमंत्री बनने से उसका भावनात्मक तुष्टीकरण तो हुआ और उत्पीड़न में भी कुछ कमी जरूर आई परंतु उसकी हालत में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया। वास्तव में बहुजन राजनीति में हिन्दुत्व तथा कार्पोरेटपरस्त राजनीति से लड़ने की कोई क्षमता ही नहीं थी तथा इसका पतन होना लाजमी  था।  

कांशी राम जी की बहुजन राजनीति के मुकाबले में यदि डा. अंबेडकर की राजनीति को देखा जाए तो उसके केंद्र में गरीब दलित, गरीब पिछड़ा, गरीब मुसलमान, मजदूर तथा गरीब किसान थे। बाबासाहेब ने अपने आगरा के भाषण में दलितों की भूमिहीनता पर गहरी चिंता जिताई  थी तथा उनको जमीन दिलाने के लिए संघर्ष करने की बात कही थी। उनका उद्देश्य इन लोगों को एक पार्टी के झंडे के तले एकत्र करके पूंजीपतियों तथा ब्राह्मणवाद के विरुद्ध खड़ा करके अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ना था। कांशी राम जी का मुख्य ध्येय किसी भी तरह से सत्ता प्राप्त करना था जिसके लिए उन्होंने घोर दलित विरोधी भाजपा से तीन वार समर्थन भी लिया जिससे बहुजन राजनीति दिशा भ्रमित हो कर पतन की ओर अग्रसर हो गई।

बाबासाहेब ने रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया को एक बड़े प्लेटफार्म के तौर पर बनाया था जिसमें दलितों के इलावा दूसरे वर्गों के लोग भी शामिल हो सकते थे। इसके माध्यम से बाबासाहेब एक वैकल्पिक राजनीति खड़ी कर रहे थे जिसके केंद्र में आम आदमी था। पार्टी का मुख्य उद्देश्य एक ऐसी पार्टी बनाना था जो संविधान में किये गए वादों के अनुसार हो और उन्हें पूरा करना उस का उद्देश्य हो. शुरू में जब पार्टी ने इन उद्देश्यों और एजंडे को लेकर काम किया तो उसे 1962 और 1967 के चुनावों में बहुत अच्छी सफलता भी मिली। 1964-65 में इसने बहुत बड़ा भूमि आंदोलन भी किया जिससे दलितों को भूमि आवंटन हुआ। बाद में यह पार्टी कुछ नेताओं के व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण विभाजित हो गई जिसके पीछे कांग्रेस का बड़ा हाथ था। कांग्रेस ने पद का लालच देकर इसके नेताओं को तोड़ लिया और अब यह कई टुकड़ों में बटी हुई है और बेअसर है। आजकल दलित पार्टियों के नेता भी व्यक्तिगत लाभ के लिए इसी तरह पार्टियां बदलते रहते हैं।

वर्तमान में बहुजन राजनीति की मुख्य प्रतिनिधि बहुजन समाज पार्टी मानी जाती है। इसके इलावा महाराष्ट्र में रामदास आठवले की आरपीआई (ए) तथा बिहार में रामविलास पासवान वाली लोक जनशक्ति पार्टी है जिसका भाजपा के साथ गठजोड़ है। इन सभी पार्टियों का एजंडा सत्ता प्राप्त करना या सत्ता में हिस्सेदारी करना मात्र है। इनका सत्ताधारी पार्टी भाजपा या कांग्रेस से भिन्न कोई  नीति  या एजंडा नहीं है। इसी लिए वे भाजपा की हिन्दुत्व तथा कारपोरेटपरस्त राजनीति का मुकाबला नहीं कर सकते। इन पार्टियों में लोकतंत्र की जगह अधिनायकवाद है और नेतृत्व एक व्यक्ति के हाथ में है। इसमें आम आदमी का कोई दखल नहीं है। इसी लिए इनके नेता व्यक्तिगत लाभ के लिए किसी से भी गठजोड़ कर लेते हैं जिससे आम आदमी को कोई लाभ नहीं होता। डा. अंबेडकर ने कहा था कि राजनीतिक सत्ता सब समस्याओं की चाबी है। उन्होंने आगे कहा था कि राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल समाज के विकास के लिए किया जाना चाहिए परंतु बहुजन राजनीति के नेताओं का आचरण इसके बिल्कुल विपरीत है।

अतः उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए वर्तमान बहुजन राजनीति के स्थान पर दलितों, पिछड़ों एवं अल्पसंख्यकों की नई राजनीति विकसित करने की जरूरत है जिसकी नीतियाँ  एवं एजंडा भाजपा की हिन्दुत्व एवं कारपोरेटपरस्त राजनीति एवं वैश्विक पूंजी के हमले के विरोध में हो। इसके लिए वैकल्पिक नीतियाँ जैसे रोजगार को मौलिक अधिकार बनाना, शिक्षा को सर्वसुलभ बनाना, स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर बनाना, निजीकरण पर रोक, कृषि को लाभकारी बनाना, भूमिहीनों को भूमि आवंटन, कारपोरेट के एकाधिकार को खत्म करना, लोकतंत्र की बहाली, काले कानूनों का खात्मा तथा धर्म निरपेक्षता आदि की जरूरत है। इसके साथ ही समाज के जनतन्त्रीकरण जिसमें जाति का विनाश प्रमुख है, को भी लागू करने की जरूरत है। जाति की वर्तमान राजनीति हिन्दुत्व की ही पोशाक है। अतः इसके स्थान पर जनमुद्दों की राजनीति अपनाई जानी चाहिए।

बहुजन राजनीति की इसी आवश्यकता को सामने रख कर हम लोगों ने 2013 में आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट का गठन किया था। इस पार्टी के नेतृत्व में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों, अति पिछड़ों एवं महिलायों को प्रमुखता दी गई है। इसका मुख्य ध्येय संत रविदास की बेगमपुरा की अवधारणा को मूर्तरूप देना है। यह पार्टी धर्म निरपेक्षता एवं लोकतंत्र की पक्षधर है। हमारा प्रयास एक बहुवर्गीय पार्टी बनाने का है ताकि इसमें विभिन्न विचारधारा के बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पार्टियां शामिल हो सकें और वर्तमान में भाजपा/ आरएसएस के हिन्दुत्व एवं कारपोरेट के सहयोग से वित्तीय पूंजी के अधिनायकवाद को रोका जा सके। यह स्मरण रहे कि वैकल्पिक नीतियों एवं एजंडा के अभाव में वर्तमान बहुजन राजनीति इसमें बुरी तरह से विफल रही है। अतः अब बहुजन राजनीति को एक नए रेडिकल विकल्प की जरूरत है।  

आइए हम लोग मिल कर ईमानदारी से एक बहुवर्गीय राजनीति को खड़ा करें जो भाजपा की  हिन्दुत्व एवं कार्पोरेटपरस्त राजनीति एवं वैश्विक पूंजी के हमले का सामना कर सके और डा. अंबेडकर के जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज की स्थापना के सपने को साकार कर सके।

उत्तर प्रदेश में दलित-आदिवासी और भूमि का प्रश्न

  उत्तर प्रदेश में दलित - आदिवासी और भूमि का प्रश्न -     एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट 2011 की जनगणना ...