मंगलवार, 20 नवंबर 2018

आरएसएस/भाजपा आदिवासी विरोधी एवं कार्पोरेटपरस्त


आरएसएस/भाजपा आदिवासी विरोधी एवं कार्पोरेटपरस्त
-एस.आर.दारापुरी आई.पी.एस (से.नि.) एवं संयोजक जन मंच



हाल में छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में चुनावी सभाओं में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दावा किया है कि भाजपा ही आदिवासियों  की सबसे बड़ी शुभ चिन्तक है और कांग्रेस ने अपने शासनकाल में इनके उत्थान के लिए कुछ भी नहीं किया है. उन्होंने इसमें आगे कहा  है कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भाजपा के लम्बे शासन ने आदिवासियों का बहुत सशक्तिकरण किया है और उसने ही आदिवासियों के महापुरुषों की मूर्तियाँ लगवा कर उन्हें सम्मानित किया है. उन्होंने आगे कहा है कि पहले जहाँ आदिवासियों के पास साईकल भी मुश्किल से होता था वहीं अब वह मोटर साईकल पर चलते हैं. उसका दावा है कांग्रेस के समय आदिवासियों के विकास का पैसा उन तक नहीं पहुंचता था. परन्तु अब उसके पूरे का पूरा पहुंचने के कारण उनका आश्चर्यजनक विकास हुआ है. भाजपा उक्त बातें कह कर आदिवासियों का वोट प्राप्त करके पुनः सत्ता में आने का प्रयास कर रही है.
आइये भाजपा के इस दावे का तथ्य परीक्षण करें:
यह सर्विदित है कि आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदायों का सदियों से जंगल पर अधिकार रहा है. परन्तु ब्रिटिश काल से लेकर देश के आज़ाद होने के बाद तक भी उन्हें हमेशा जल, जंगल और ज़मीन से बेदखल किया गया. यह करने के लिए अलग-अलग सरकारी कानूनों व नीतियों का प्रयोग होता रहा है. 1856 में अंग्रेजों ने मोटे पेड़ों के जंगलों पर कब्ज़ा करने का आदेश दिया. 1865 में पहला वन कानून लागू हुआ जिसने सामुदायिक वन संसाधनों को सरकारी संपत्ति में बदल दिया. 1878 में दूसरा वन कानून आया, जिसने आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदायों को जंगलों के हकदार नहीं बल्कि सुविधाभोगी माना. 1927 के वन कानून ने सरकार का जंगलों पर नियंत्रण और कड़ा कर दिया. इसके कारण हजारों वनवासियों को अपराधी घोषित किया गया और उन्हें जेल में कैद भी होना पड़ा. 1980 के वन संरक्षण कानून ने जंगलवासियों को जंगल में अतिक्रमणकारी घोषित कर दिया. 1988 की राष्ट्रीय वन नीति में वनवासियों की जंगल के संरक्षण व प्रबंधन में भागीदारी बढ़ाने के लिए संयुक्त वन प्रबंधन की रणनीति बनाई गयी. परन्तु वन विभाग ने इसमें गठित होने वाली वन सुरक्षा समितियों में सरकारी अधिकारियों को शामिल कर इस रणनीति को सफल नहीं होने दिया. परन्तु आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदाय ऐसे वन विरोधी कानूनों व नीतियों का विरोध करते रहे. इसको लेकर वनवासी वनक्षेत्रों में दूसरे के शासन का विरोध करते रहे, आज भी वनों पर अधिकार पाने के लिए आन्दोलन जारी है. इन्हीं संघर्षों का परिणाम है कि भारत सरकार को अनुसूचित जनजाति व् अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 (वनाधिकार कानून) बना कर उसे  2008 में लागू करना पड़ा.
वनाधिकार कानून दो तरह के अधिकारों को मान्यता देता है. 1. खेती के लिए वनभूमि का उपयोग करने का व्यक्तिगत या सामुदायिक अधिकार और 2, गाँव के अधिकार क्षेत्र के वन संसाधनों का उपयोग करने का अधिकार जिसमें लघु वन उपजों पर मालिकाना हक़ और वनों का संवर्धन, संरक्षण तथा प्रबंधन का सामुदायिक अधिकार शामिल है. इस कानून के अनुसार आदिवासी व अनन्य परम्परागत वन निवासी जो 13 दिसंबर 2005 के पहले से वन भूमि पर निवास या खेती करते आ रहे हैं और अपने और अपने परिवार की आजीविका के लिए उस वन भूमि पर निर्भर हैं, उनको वन भूमि का व्यक्तिगत पट्टा पाने का अधिकार है. इस प्रावधान के अंतर्गत जितनी वन भूमि पर दखल है, उतने पर ही अधिकार मिलेगा. यह अधिकार अधिकतम चार हेक्टेयर (10 एकड़) ज़मीन पर होगा. इस कानून के अंतर्गत वन अधिकार वन में निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी भूमि प्राप्त कर सकते हैं. वन में निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति का मतलब ऐसे सदस्य या समुदाय जो प्राथमिक रूप से वन में निवास करते हैं और अपनी आजीविका के लिए वनों पर या वनभूमि पर निर्भर करते हैं. अन्य परम्परागत वन निवासी का मतलब ऐसा कोई व्यक्ति या समुदाय जो 13 दिसंबर 2005 के पूर्व कम से कम 75 सालों से प्राथमिक रूप से वन या वन भूमि पर निवास करता रहा है और जो अपनी आजीविका की आवश्यकताओं के लिए वनों या वन भूमि पर निर्भर है.
अब अगर देखा जाये कि विभिन्न राज्यों में इस कानून का क्रियान्वयन किस तरह से किया गया है तो बहुत डरावनी स्थिति सामने आती है. इस कानून का आशय तो यह था कि आदिवासियों और वनवासियों को उनके कब्ज़े की ज़मीन का कानूनी तौर पर मालिक बना दिया जाये परन्तु व्यवहार में यह उनके विस्थापन का कानून सिद्ध हुआ है.  सदियों से वनभूमि पर रहने वाले लोग भूमि के मालिक बनने  की बजाये अवैध कब्जेदार घोषित हो गये हैं और कई राज्यों में तो उनको उजाड़ने की कार्रवाही भी शुरू हो गयी है. अब अगर अमित शाह के दावे के अनुसार झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र  और गुजरात राज्यों, जिनमे पिछले काफी लम्बे समय से भाजपा का शासन रहा है, में इस कानून को लागू करने की स्थिति को देखा जाये तो यह बहुत निराशाजनक दिखाई देती है. उदाहरण के लिए झारखंड जिसकी स्थापना से लेकर अब तक अधिकतर भाजपा का ही शासन रहा है, में आदिवासियों की आबादी 86.45 लाख है जो कुल आबादी का 26.2% है. इसमें आदिवासियों के कुल 16.99 लाख परिवार हैं. इस राज्य में वनाधिकार कानून के अंतर्गत मात्र 1.08 लाख दावे तैयार किये गये जिनमें से कुल 60,000 दावे स्वीकृत किये गये. इसी प्रकार छत्तीसगढ़ राज्य,  यहाँ पर पिछले 15 वर्ष से भाजपा का शासन रहा है,  में आदिवासियों की कुल आबादी 78.22 लाख है जो कुल आबादी का 30.6% है. इस राज्य में आदिवासियों के 17.43 लाख परिवार हैं . यहाँ वनाधिकार कानून के अंतर्गत कुल 8.88 लाख दावे तैयार किये गये जिनमें मात्र 4.16 लाख दावे ही स्वीकार किये गये. अब अगर मध्य प्रदेश जिसमें पिछले 10 साल से भाजपा का शासन रहा है, में आदिवासियों की आबादी 1.53 करोड़ है जो कुल आबादी का 21.1% है, में आदिवासियों के 31.22 लाख परिवार रहते हैं. इस राज्य में इस कानून के अंतर्गत कुल 6.17 लाख दावे तैयार किये गये जिनमें से केवल 2.52 लाख दावे ही स्वीकृत किये गये.
अब यदि मोदीजी के अपने राज्य जिस में वह स्वयम 15 साल मुख्य मंत्री रहे तथा अब भी भाजपा की ही सरकार है, को देखा जाये तो स्थिति बहुत ही खराब है. इस राज्य में अदिवासियों की कुल आबादी 89.17 लाख है जो कुल आबादी का 14.8% है. यहाँ पर उनके 17 लाख परिवार हैं जबकि वनाधिकार कानून के अंतर्गत केवल 1.90 लाख दावे तैयार किये गये जिनमें से केवल 87,215 दावे ही स्वीकार किये गये. अब अगर महाराष्ट्र जो कि पिछले कई सालों से भाजपा अथवा उसके सहयोगियों द्वारा शासित रहा है, को देखा जाये तो इस राज्य में आदिवासियों की कुल आबादी 1.05 करोड़ है जो कुल आबादी का 9.4% है और यहाँ पर उनके 21.56 लाख परिवार रहते हैं.  यहाँ पर वनाधिकार कानून के अंतर्गत केवल 3.72 लाख तैयार किये गये जिनमें से मात्र 1.21 लाख दावे ही स्वीकार किये गये. वनाधिकार कानून को लागू करने के मामले में इन भाजपा शासित राज्यों के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश ही ऐसा राज्य है जिसमें मायावती के शासनकाल में केवल 20% दावे जो कि पूरे देश में सबसे कम है, ही स्वीकार किये गये जो कि मायावती के दलित हितैषी होने के दावे की पोल खोल देता है. पूरे देश में गैर भाजपा शासित राज्य उड़ीसा और त्रिपुरा ही ऐसे दो राज्य हैं जहाँ पर स्वीकृत दावों का प्रतिशत 68.50 तथा 63.34% क्रमश रहा है. 
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि अमित शाह का भाजपा के आदिवासियों का सबसे बड़ा हितैषी होना का दावा बिलकुल झूठा है क्योंकि वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों को भूमि अधिकार दिलाने वाले कानून को भाजपा शासित राज्यों में बिलकुल विफल कर दिया गया है. इतना ही नहीं भाजपा को चलाने वाली आरएसएस तो इससे भी अधिक आदिवासी विरोधी है. उसके एक अनुषांगिक संगठन “वाईल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया” ने तो सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल करके यह मांग कर रखी है कि सुरक्षित वन की भूमि राष्ट्रपति महोदय के सीधे नियंत्रण में होती है और इस सम्बन्ध में संसद को कोई भी कानून बनाने का अधिकार नहीं है. अतः संसद द्वारा बनाया गया वनाधिकार कानून-2006 अवैधानिक घोषित किया जाये तथा अदिवासियों /वनवासियों  के कब्जे से मुक्त हुयी भूमि को तुरंत वनभूमि दर्ज करके वन विभाग को सौंपी जाये. इससे स्पष्ट हो जाता है की आरएसएस/ भाजपा का आदिवासी हितैषी होने का दावा निरा धोखा है. इस जनहित याचिका में फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून की वैधता के सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं दिया है परन्तु अवैध कब्जों की भूमि मुक्त कराकर वन विभाग को देने का आदेश पारित कर दिया है जिसके अनुपालन में कई राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश में आदिवासियों/वनवासियों की बेदखली शुरू हो गयी है. इससे स्पष्ट है कि एक तरफ भाजपा आदिवासी हितैषी होने का दावा करती है, दूसरी तरफ उसको चलाने वाली आरएसएस सुप्रीम कोर्ट से वनाधिकार कानून को ख़त्म करने का अनुरोध करती है. यह आरएसएस/भाजपा के दोगलेपन को पूरी तरह से नंगा कर देता है.
भाजपा शासित राज्यों सहित कुछ अन्य राज्यों में भी वनाधिकार कानून को जानबूझ कर विफल किया गया है क्योंकि वाम पंथियों को छोड़ कर सभी राजनितिक पार्टियाँ कार्पोरेट परस्त हैं. आरएसएस तो पूरी तरह से कार्पोरेट द्वारा पोषित है. अतः उसका कार्पोरेटपरस्त होना भी लाजिमी है. वर्तमान में जिस भूमि पर आदिवासी/वनवासी रहते हैं वह भूमि बहुत से खनिज पदार्थों  से भरी पड़ी है जिन पर कार्पोरेट्स की निगाह लगी हुयी है. अब अगर वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों/वनवासियों को उक्त भूमि का मालिकाना हक़ दे दिया जायेगा तो फिर उस भूमि को खाली कराने के लिए पुनर्वास और मुयाव्ज़े की मांग उठेगी. इस लिए वनाधिकार कानून को लागू न करके उन्हें अवैध कब्जाधारी घोषित करके उजाड़ना अधिक आसान होगा. इसी लिए खास करके भाजपा शासित राज्यों में जानबूझ कर वनाधिकार कानून लागू नहीं किया गया है जोकि आरएसएस/ भाजपा के आदिवासी/वनवासी विरोधी होने का सबसे बड़ा प्रमाण है.
यह भी विचारणीय है कि भाजपा आदिवासियों को आदिवासी न कह कर वनवासी क्यों कहती है? यह जानबूझ कर एक साजिश के अंतर्गत किया जा रहा है क्योंकि आरएसएस/ भाजपा को पता है कि आदिवासी कहने का मतलब होगा कि वे लोग जो यहाँ के मूल निवासी हैं यानिकी आदिवासी के इलावा बाकी लोग बाहर से आकर बसे हैं. इसका सीधा मतलब होगा कि आर्य लोग बाहर से आये हैं और वे यहाँ के मूल निवासी नहीं हैं. ऐसे में आरएसएस के लोग फिर किस मुंह से कहेंगे कि मुसलमान बाहरी हैं और हिन्दू यहां के मूल निवासी हैं. इसीलिए ये आदिवासियों को वनवासी कहते हैं. आरएसएस आदिवासियों को गुमराह करने का काम वनवासी कल्याण परिषद के माध्यम से करती है. बीबीसी को दिए साक्षात्कार में वनवासी कल्याण परिषद के एक पदाधिकारी ने कहा है,”वन में रहने वाले सारे लोग वनवासी हैं. ये सब भगवान राम के वंशज हैं. हम सब आदिवासी हैं. सबरी माता ने भगवान राम को जूठा बेर खिलवाया था और राम खाए थे. हमारे भगवान राम के साथ सबरी माता भी पूजनीय है.” इस ब्यान से स्पष्ट है कि किस तरह आदिवासियों को वनवासी बता कर उन्हें राम से जोड़ा जा रहा है. कौन नहीं जानता कि राम सूर्यवंशी क्षत्री थे. फिर भी आदिवासियों को जबरदस्ती भगवन राम के वंशज बता कर गुमराह किया जा रहा है. वास्तव में अदिवासियों को आदिवासी कहने से मूलनिवासी और विदेशी आर्यों का प्रशन खड़ा हो जाता है जिससे  हिंदुत्व की राजनीति का माडल भी ध्वस्त हो जाता है. इसके अतिरिक्त आरएसएस आदिवासियों का धर्म, संस्कृति, देवी देवता और रस्मो-रिवाज़ बदल कर उनकी पहचान नष्ट करना चाहती है जबकि संविधान में उन्हें जनजातियों की पहचान दी गयी है और उन्हें आरक्षण एवं आदिवासी क्षेत्रों में विशेष प्रशासन व्यवस्था दी गयी है. आरएसएस उनकी आदिवासी की पहचान नष्ट करके उन्हें अपने विरोधियों के खिलाफ सैनिकों के तौर पर इस्तेमाल करती है. आदिवासियों को उनकी इस चाल को समझ कर उससे बच कर रहना होगा.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि लगभग सभी आदिवासी क्षेत्र विकास में बुरी तरह से पिछड़े हुए हैं. यद्यपि आदिवासियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिला हुआ है परन्तु सरकारी नौकरियों में केवल 4.36% परिवार ही नौकरी पा सके हैं. सामाजिक आर्थिक जनगणना-2011 के अनुसार 86.53% आदिवासी परिवारों की मासिक आमदन 5,000 से कम है. केवल 8.95% परिवारों की मासिक आय 5,000 से 10,000 तक है और 4.48% परिवारों की मासिक आय 10,000 से अधिक है. इससे स्पष्ट है कि अधिकतर आदिवासी परिवार गरीबी की रेखा के निचे हैं. यद्यपि अधिकतर आदिवासी जंगल और पहाड़ वाले क्षेत्रों  में रहते हैं परन्तु उन में से 56% परिवार भूमिहीन हैं. इनमे से 51% परिवार केवल हाथ का श्रम कर सकते हैं और 90% परिवार नियमित तनखाह वाली नौकरियों के बिना हैं. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि अमित शाह का आदिवासियों का अप्रत्याशित विकास करने का दावा एक दम झूठा है  
इतना ही नहीं आरएसएस आदिवासियों का जबरदस्ती हिन्दुकरण करके उन्हें ईसाई बने आदिवासियों के खिलाफ भड़काती और लड़ाती है. इसके साथ ही नक्सल प्रभावित राज्यों जैसे छत्तीसगढ़ में उनके एक तबके को सरकारी तौर पर हथियार देकर सलवा जुड़म जैसे संगठनों के माध्यम से अपने ही लोगों को मरवाती है. लगभग सभी भाजपा शासित राज्यों में आदिवासियों का धर्म परिवर्तन रोकने के लिए क़ानून बने हैं. इससे उनका ईसाईकरण तो रुक गया है परन्तु आरएसएस द्वारा उनका हिन्दुकरण खुले आम किया जा रहा है. यह अधिकतर भाजपा शासित राज्यों में हो रहा है.
उपरोक्त संक्षिप्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि आरएसएस/भाजपा का आदिवासी हितैषी होने का दावा बिलकुल खोखला है . इसके विपरीत उसके कार्यकलाप आदिवासी विरोधी तथा कार्पोरेट परस्त हैं. आरएसएस तो उनकी आदिवासी की पहचान ख़त्म करके उनके धर्म, संस्कृति और अस्तित्व को ही समाप्त करने पर तुली है. जैसाकि ऊपर दर्शाया गया है कि उनके सशक्तिकरण हेतु बनाये गये वनाधिकार कानून को भाजपा शासित राज्यों में जानबूझ कर लागू नहीं किया गया है. आरएसएस तो सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से इस कानून को ही ख़त्म कराने के प्रयास में लगी है. भाजपा सरकारें नक्सल प्रभावित राज्यों में आदिवासियों की जल, जंगल और ज़मीन सम्बन्धी समस्यायों को हल करने की बजाये उन्हें नक्सलवादी कह कर मार रही हैं और उन्हें  जंगल से उजाड़ने में लगी हैं. अतः आदिवासियों को आरएसएस/भाजपा से बहुत सतर्क रहने की ज़रुरत है क्योंकि वह आदिवासी विरोधी और कार्पोरेट परस्त है.
  





बुधवार, 7 नवंबर 2018

''मै भंगी हूं`` आज भी प्रासंगिक है।


''मै भंगी हूं`` आज भी प्रासंगिक है
-       संजीव खुदशाह
सन् १९८३-८४ के आस-पास जब मैं छठवीं क्लास में था। समाज के सक्रीय कार्यकर्ताओं की बैठक मेंमै भी शामिल हो जाया करता था। वहीं पर पहली दफा यह तथ्य सामने आया कि हमारे बीच के एक सुप्रीम कोर्ट के जज (वकील है ये जानकारी बाद में हुई) है,जो समाज के लिए भी काम कर रहे है। मुझे इस जज के बारे में और जानने की उत्सुकता हुईकिन्तु ज्यादा जानकारी नही मिल सकी । इस दौरान मैने डा. अम्बेडकर की आत्मकथा पढ़ी। दलित समाज के बारे में और जानने पढ़ने की इच्छा जोर मार रही थी। रिश्ते के मामाजी जो वकालत की पढ़ाई कर रहे थेमुझे किताबे लाकर देते थे और मै उन्हे पढ़कर वापिस कर देता था । उन्हेाने अमृतलाल नागर की 'नाच्यो बहुत गोपालाउपन्यास लाकर दी परिक्षाएं नजदीक होने के कारण उसे मै पूरा न पढ़ सका । पढ़ाई को लेकर बहुत टेन्शन रहता था। माता-पिता को मुझसे बड़ी अपेक्षाऐ थी जैसा कि सभी माता-पिता को अपने बच्चों से रहती है। चूंकि मै मेघावी छात्र था इसलिए कक्षा में अपना स्थान बनाए रखने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ती थी। इस समय मेरे मन में समाज के लिए कुछ करने हेतु इच्छा जाग चुकी थी इसलिए कम उम्र का होने पर भी मै सभी सामाजिक गतिविघियों में भाग लेने लगा। इसी दौरान मामाजी ने मुझे यह किताब लाकर दी ''मै भंगी हूं`` इसे मैने दो-तीन दिनों में ही पढ़  डाली। मन झकझोर देनेवाली शैली में लिखी इस किताब ने मुझे बहुत अंदर तक प्रभावित किया। चूंकि मेरी आर्थिक हालत अच्छी नही थीइसलिए इस किताब को मै खरीद नही पाया। पिताजी की छोटी सी नौकरी के साथ घर का खर्च बड़ी कठिनाई से चल पाता था।
मैं भंगी हूं किताब पढ़ते समय भी मुझे यह जानकारी नही थी। कि ये वही सुप्रीम कोर्ट के जज हैजिनके बारे मे मैने सुना था। बाद में मुझे अन्य बुद्धि जीवियों से मुलाकात के दौरान ज्ञात हुआ कि वे जज नही बल्कि सुप्रीम कोर्ट के वकील हैजिन्होने मै भंगी हूं किताब की रचना की है। मैने एक चिट्ठी एड. भगवानदास जी के नाम लिखीजिसमें मै भंगी हूं की प्रशंसा की थी।
अत्यधिक सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के कारण तथा चिन्तन के कारण मै स्कूल की पढ़ाई की ओर ध्यान नही दे पा रहा था। माता-पिता चिन्तित रहने लगे। मां ने अपने पिता यानी मेरे नानाजी को यह बात बताई । नानाजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के साथ-साथ समाज-सेवक भी थे। मै उनसे बहुत प्रभावित था। मै नानाजी की हर बात को बड़े ध्यान से सुनता था। वे रिलैक्स होकर बहुत रूक-रूक कर बाते करते थे। उन्होने मुझे एक दिन अपने पास बिठाकर  पूछा कि -
''तुम क्या करना चाहते हो..?``
''मैं अपने समाज को ऊपर उठाना चाहता हूं।`` मैंने गर्व से अपना जवाब दिया। यह सोचते हुए कि नानाजी मेरा पीठ थपथपायेगें। मेरा उत्साहवर्धन करेगें।
''जब तुम खुद ऊपर उठोगे तथा ऐसी मजबूत स्थिति में पहुँच जाओगे कि तुम्हारे नीचे आने का भय नही होगातभी तो तुम दूसरों को ऊपर उठा सकोगे। ये तो बड़े दुख की बात है कि तुम तो खुद नीचे हो और दूसरों को उपर उठाना चाहते हो। ऐसी उल्टी धारा तो मैं ने कही नही देखी।``-उन्होने कहा उनकी इस बात का मेरे जेहन में बहुत असर हुआ और सामाजिक गतिविधियों पर से ध्यान हटाते हुए मैने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना प्रारंभ किया । १९९८ में मुझे शासकीय नौकरी मिलीइसी बीच मैं सुदर्शन समाजवाल्मीकि समाज के कार्य-क्रमों में एक दर्शक की भंाति जाता था। मुझे सुदर्शन ऋषि का इतिहास जानने की इच्छा होती मै इस समाज के नेताओं से इस बाबत पूछताछ करता तो सब अपनी बगले झाकनें लगते। मैने इसका इतिहास विकास उत्पत्ति हेतु सामग्री इकट्ठी करनी शुरू की। मैं जैसे-जैसे किताबों का अध्ययन करता गया , मेरी आंखो से धुंध छॅटती गई। अब सुदर्शन ऋषिवाल्मीकि ऋषि एवं उनके नाम पर समाज का नामाकरण मुझे गौण लगने लगा। डा. अम्बेडकर की शूद्र कौन और कैसे ? तथा अछूत कौन हैपढ़ी तो पूरी स्थिति स्पष्ट हो गई। दलित आन्दोलन से ही समाज ऊपर उठ सकता हैमुझे विश्वास हो गया। मैने अपनी चर्चित पुस्तक ''सफाई कामगार समुदाय`` पर काम करना प्रारंभ किया । कई किताबोंलाइब्रेरियों की खाक छानी बुद्धिजीवियों के इन्टरव्यू लिये। इसी परिप्रेक्ष्य में मेरा दिल्ली आना हुआ और मेरी मुलाकात एड. भगवान दास जी से हुई। मैने पहले उनसे फोन पर बात कीउन्होने शाम को मिलने हेतु समय दिया। जब शाम को फ्लैट में उनसे मुलाकात हुई तो देखा सफेद बाल वालेउची कद के बुजुर्ग कक्ष मे किताबों से घिरे बैठे है। मैंने उन्हे बताया कि मैं उनकी किताब से बहुत प्रभावित हूं तथा उन्हे एक चिट्ठी भी लिखी थी । अभी मैं  इस विषय पर रिसर्च कर रहा हूं। उन्होने कहा चिट्ठी इस नाम से मुझे मिली थी । मैने सफाई मुद्दे पर कई प्रश्न पूछे उन्होने बड़ी ही संजीदगी के साथ मेरे प्रश्नों का उत्तर दिया । उन्हे यकीन नही हो रहा था कि मै ऐसा कोई गंभीर काम करने जा रहा हूं। वे इसे मेरा लड़कपन समझ रहे थे । उनका व्यवहारउनके मन की बात मुझे अनायास ही एहसास करा रही थी। वे कह रहे थे लिखने-विखने मे मत पड़ो और खूब पढ़ो । उन्होने अंग्रेजी की कई किताबे मुझे सुझाई । मैंने उनको नोट किया। ये किताबे मुझे उपलब्ध नही हो पाई। शायद आउट आफ प्रिन्ट थी । उन्होने अपनी लिखी कुछ किताबे मुझे दी और अपने पुत्र से कहने लगेइनसे किताब के पैसे जमा करा लो । मैने एक किताब ली और शेष किताबे पैसे की कमी होने के कारण नही ले सका । यही मेरी उनसे पहली मुलाकात थी । उनसे मैने उनकी जाति सम्बन्धी प्रश्न पूछालेकिन वे टाल गये । शायद वे मुझे सवर्ण समझ रहे होगें। मै लौट आया ।
इस समय राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक श्री अशोक महेश्वरी जी ने इस किताब को प्रकाशित करने हेतु सहमति दे दी थी। २००५ को यह किताब प्रकाशित होकर बाजार में उपलब्ध हो गई। नेकडोर ने सन २००७ को दलितों का द्वितीय अधिवेशन आयोजित किया। उन्होने मुझे सफाई कामगार सेशन के प्रतिनिधित्व हेतु आमंत्रित किया। दिल्ली में हुए इस कार्यक्रम में एड. भगवानदास जी भी आये थे। मैने उनसे मुलाकात की एवं हालचाल पूछा लेकिन वे मुझे पहचान नही पा रहे थे। शायद उनकी स्मरण-शक्ति कुछ कम हो गई थी। कुछ लोग विभिन्न भाषा में ''मै भंगी हूं`` किताब के अनुवाद प्रकाशित होने पर बधाई दे रहे थे। मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ अनुवाद के बारे मे उन्होने अनभिज्ञता जाहिर की। वे बधाई सुनकर बिल्कुल नार्मल थे। कोई घमंण्ड का भाव नही था। सबसे साधारण ढंग से मुलाकात कर रहे थे।
जब सफाई कामगारों पर सेशन प्रारंभ हुआ तो वे स्टेज में मेरी बगल में बैठे थे। मुझे अपने बचपन के वे दिन याद आने लगे,जब सामाजिक गतिविधियों में इनके बारे में चर्चा सुना करता था। बड़े ही गर्व से लोग इनके कार्यो की प्रसंशा करते थे। आज मै अपने-आपको सबसे बड़ा सौभाग्यशाली समझता हूं कि उनके साथ मुझे वक्तव्य देने का मौका मिला। स्टेज पर ही उन्होने मुझसे पूछा-
''संजीव खुदशाहजीआप ही हैं न..?``
''जी हां`` -मैने कहां ।
''मैने आपकी किताब देखीबहुत ही अच्छी लिखी है आपने । इस विषय पर इस तरह की ये पहली किताब है।`` - उन्होने कहा ।
इतना सुन कर मेरी आंखे नम हो गई। मैने उनको धन्यवाद दिया और कहा - ''आदरणीय इस किताब में आपका भी जिक्र है। मैने शोध के दौरान आपका इन्टरव्यू भी लिया था।``
वे मेरी ओर देखते हुए अपनी भृकुटियों में जोर डाल रहे थेसाथ ही सहमति में सिर भी हिला रहे थे।
आज उनकी जितनी भी किताबे उपलब्ध हैवह भंगी विषय पर पहले पहल किये गये काम का उदाहरण है। वे ये कहते हुए बिल्कुल भी नही शर्माते है कि उन्हे हिन्दी नही आती (आशय संस्कृत निष्ठ हिन्दी से है।)। फिर भी साधारण भाषा में लोकप्रिय साहित्य की रचना उन्होने की है। अपनी शैली के बारे में वे लिखते हैं कि मैं भागवतशरण उपध्याय की ''खून के छीटे इतिहास के पन्ने पर`` पुस्तक की शैली से प्रभावित हूं। अंग्रेजी और उर्दू भाषा पर वे अपना समान अधिकार समझते है। बावजूद इसके हिन्दी में उनकी कृति ''मैं भंगी हूं``आज भी प्रासंगिक है।



मंगलवार, 6 नवंबर 2018

उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को विफल कराने के गुनाहगार


उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को विफल कराने के गुनाहगार
-एस.आर.दारापुरी पूर्व आई. जी. एवं संयोजक जन मंच

यह सर्विदित है कि आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदायों का सदियों से जंगल पर अधिकार रहा है. परन्तु ब्रिटिश काल से लेकर देश के आज़ाद होने के बाद तक भी उन्हें हमेशा जल, जंगल और ज़मीन से बेदखल किया गया. यह करने के लिए अलग-अलग सरकारी कानूनों व नीतियों का प्रयोग होता रहा है. 1856 में अंग्रेजों ने मोटे पेड़ों के जंगलों पर कब्ज़ा करने का आदेश दिया. 1865 में पहला वन कानून लागू हुआ जिसने सामुदायिक वन संसाधनों को सरकारी संपत्ति में बदल दिया. 1878 में दूसरा वन कानून आया, जिसने आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदायों को जंगलों के हकदार नहीं बल्कि सुविधाभोगी माना. 1927 के वन कानून ने सरकार का जंगलों पर नियंत्रण और कड़ा कर दिया. इसके कारण हजारों वनवासियों को अपराधी घोषित किया गया और उन्हें जेल में कैद भी होना पड़ा. 1980 के वन संरक्षण कानून ने जंगलवासियों को जंगल में अतिक्रमणकारी घोषित कर दिया. 1988 की राष्ट्रीय वन नीति में वनवासियों की जंगल के संरक्षण व प्रबंधन में भागीदारी बढ़ाने के लिए संयुक्त वन प्रबंधन की रणनीति बनाई गयी. परन्तु वन विभाग ने इसमें गठित होने वाली वन सुरक्षा समितियों में सरकारी अधिकारियों को शामिल कर इस रणनीति को सफल नहीं होने दिया. परन्तु आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदाय ऐसे वन विरोधी कानूनों व नीतियों का विरोध करते रहे. इसको लेकर वनवासी वनक्षेत्रों में दूसरे के शासन का विरोध करते रहे, आज भी वनों पर अधिकार पाने के लिए आन्दोलन जारी है. इन्हीं संघर्षों का परिणाम है कि भारत सरकार को वनाधिकार कानून-2006 को 2008 को लागू करना पड़ा.
वनाधिकार कानून दो तरह के अधिकारों को मान्यता देता है. 1. खेती के लिए वनभूमि का उपयोग करने का व्यक्तिगत या सामुदायिक अधिकार और 2, गाँव के अधिकार क्षेत्र के वन संसाधनों का उपयोग करने का अधिकार जिसमें लघु वन उपजों पर मालिकाना हक़ और वनों का संवर्धन, संरक्षण तथा प्रबंधन का सामुदायिक अधिकार शामिल है. इस कानून के अनुसार आदिवासी व अनन्य परम्परागत वन निवासी जो 13 दिसंबर 2005 के पहले से वन भूमि पर निवास या खेती करते आ रहे हैं और अपने और अपने परिवार की आजीविका के लिए उस वन भूमि पर निर्भर हैं, उनको वन भूमि का व्यक्तिगत पट्टा पाने का अधिकार है. इस प्रावधान के अंतर्गत जितनी वन भूमि पर दखल है, उतने पर ही अधिकार मिलेगा. यह अधिकार अधिकतम चार हेक्टेयर (10 एकड़) ज़मीन  पर होगा. इस कानून के अंतर्गत वन अधिकार वन में निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी भूमि प्राप्त कर सकते हैं. वन में निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति का मतलब ऐसे सदस्य या समुदाय जो प्राथमिक रूप से वन में निवास करते हैं और अपनी आजीविका के लिए वनों पर या वनभूमि पर निर्भर करते हैं. अन्य परम्परागत वन निवासी का मतलब ऐसा कोई व्यक्ति या समुदाय जो 13 दिसंबर 2005 के पूर्व कम से कम 75 सालों से प्राथमिक रूप से वन या वन भूमि पर निवास करता रहा है और जो अपनी आजीविका की आवश्यकताओं के लिए वनों या वन भूमि पर निर्भर है.
वन अधिकार दिलाने में ग्रामसभा की वनाधिकार समिति, तहसील स्तरीय वनाधिकार समिति और जिलास्तरीय वनाधिकार समिति की महत्वपूर्ण भूमिका है. वनाधिकार कानून में ग्रामसभा को अपने अधिकार क्षेत्र में वनों पर व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों की प्रकृति तथा सीमा तय करने की प्रक्रिया आरम्भ करने, दावा स्वीकार करने, दावों का भौतिक सत्यापन करके दावित भूमि का नक्शा तैयार करवाने तथा तहसील स्तरीय वनाधिकार समिति के पास अनुशंसा करने का अधिकार है. तहसील स्तरीय वनाधिकार समिति का काम इन दावों का परीक्षण कर उसे स्वीकृति हेतु जिलास्तरीय वनाधिकार समिति के पास भेजने का है.  जिलास्तरीय वनाधिकार समिति इस दावे को अंतिम रूप से स्वीकार करने के लिए अधिकृत है. इस कानून में यदि कोई भी समिति किसी दावे को निरस्त करती है तो उसे दावेदार को कारण सहित नोटिस भेजना  होगा जिस पर दावेदार उस समिति से ऊपर वाली समिति के पास अपील कर सकता है. इस एक्ट में यह भी कहा गया है की कोई भी दावा तकनीकी कारणों से रद्द नहीं किया जायेगा तथा इसमें अधिक से अधिक दावेदारों को भूमि का पट्टा दिया जाना चाहिए. परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं किया गया. दावेदारों के दावे आँख बंद करके निरस्त कर दिए गये या उन्हें अब तक लंबित रखा गया है. दावेदारों को आज तक उनके दावे निरस्त करने सम्बन्धी कोई भी सूचना नहीं दी गयी. इसके परिणामस्वरूप बहुत कम लोगों को भूमि के पट्टे दिए गये और इसमें जो भूमि दी भी गयी है वह दावों की अपेक्षा बहुत कम दी गयी है.
आइये अब ज़रा उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को लागू करने का जायजा लिया जाये. उत्तर प्रदेश में आदिवासी(अनुसूचित जनजाति) की आबादी 1 लाख 7 हजार है और यह उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का लगभग o.1% है. आदिवासियों की अधिकतर आबादी सोनभद्र, मिर्ज़ापुर, चंदौली, बलरामपुर,बहरायच और इलाहाबाद में है. आदिवासियों की अधिकतर आबादी जंगल क्षेत्र में रहती है और उन क्षेत्रों में वनाधिकार कानून लागू होता है.
आदिवासियों के सशक्तिकरण हेतु वनाधिकार कानून- 2006 तथा नियमावली 2008 में लागू हुयी थी. इस कानून के अंतर्गत सुरक्षित जंगल क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों तथा गैर आदिवासियों को उनके कब्ज़े की आवासीय तथा कृषि भूमि का पट्टा दिया जाना था. इस सम्बन्ध में आदिवासियों द्वारा अपने दावे प्रस्तुत किये जाने थे. उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी परन्तु उसकी सरकार ने इस दिशा में कोई भी प्रभावी कार्रवाही नहीं की जिस का नतीजा यह हुआ कि 30.1.2012 को उत्तर प्रदेश में आदिवासियों द्वारा प्रस्तुत कुल 92,433 दावों में से 73,416 दावे अर्थात 80% दावे रद्द कर दिए गए और केवल 17,705 अर्थात केवल 20% दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1,39,777 एकड़ भूमि आवंटित की गयी. मायावती सरकार की आदिवासियों को भूमि आवंटन में लापरवाही और दलित/आदिवासी विरोधी मानसिकता को देख कर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के घटक आदिवासी-वनवासी महासभा ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की थी जिस पर उच्च न्यायालय ने अगस्त, 2013 में राज्य सरकार को वनाधिकार कानून के अंतर्गत दावों को पुनः सुन कर तेज़ी से निस्तारित करने के आदेश दिए थे परन्तु उस पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया. इस प्रकार मायावती तथा मुलायम सरकार की लापरवाही तथा दलित /आदिवासी विरोधी मानसिकता के कारण 80% दावे रद्द कर दिए गए. उत्तर प्रदेश सरकार ने यह भी दिखाया है कि सरकारी स्तर पर कोई भी दावा लंबित नहीं है.
इसी प्रकार दिनांक 30.04.2016 तक राष्ट्रीय स्तर पर कुल 44,23,464 दावों में से 38,57,379 दावों का निस्तारण किया गया जिन में केवल 17,44,274 दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1.03,58,376 एकड़ भूमि आवंटित की गयी जो कि प्रति दावा लगभग 5 एकड़ बैठती है. राष्ट्रीय स्तर पर अस्वीकृत दावों की औसत 53.8 % है जब कि उत्तर प्त्देश में यह 80.0% है. इससे स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को लागू करने में घोर लापरवाही बरती गयी है जिस के लिए मायावती तथा मुलायम सरकार बराबर के ज़िम्मेदार हैं. दलितों को भूमि आवंटन तथा आदिवासियों के मामले में वनाधिकार कानून को लागू करने में राज्यों तथा केन्द्रीय सरकार द्वारा जो लापरवाही एवं उदासीनता दिखाई गयी है उससे स्पष्ट है सत्ताधारी पार्टियाँ तथा दलित एवं गैर दलित पार्टियाँ नहीं चाहतीं कि दलितों/आदिवासियों का सशक्तिकरण हो.
अब जब 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की बहुमत की सरकार आई तो उन्होंने सबसे पहले यह आदेश दिया कि सरकारी भूमि पर जितने भी अवैध कब्जे हैं उन्हें तुरंत हटाया जाये. इस कार्य को सख्ती से लागू करवाने हेतु एंटी भूमाफिया टास्क फ़ोर्स का गठन भी किया गया. इस आदेश पर वन विभाग, राजस्व विभाग तथा पुलिस विभाग द्वारा तुरंत कार्रवाही शुरू कर दी गयी. अब चूँकि संरक्षित वन क्षेत्र में वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों/वन निवासियों के 80% दावे रद्द कर दिए गये थे अतः उन सबके पास भूमि को अवैध कब्जे वाली मान कर बेदखली की कार्रवाही शुरू कर दी गयी. इससे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र नौगढ़ (चंदौली) तथा सोनभद्र जिलों में हाहाकार मच गयी और आदिवासियों के ऊपर भूमाफिया कह कर मुकदमे तथा बेदखली शुरू हो गयी. बहुत सी गिरफ्तारियां की गयीं तथा अभी भी की जा रही हैं. तहसील दुद्धी में एक 90 वर्ष के आदिवासी पर पेड़ काट कर कब्ज़ा करने का मुकदमा दर्ज किया गया जबकि उसके पास ज़मीन का पट्टा भी है.
सरकार की आदिवासियों के विरुद्ध दमन की कार्रवाही को रुकवाने तथा उनके दावों का पुनर्परीक्षण करवाने को लेकर आदिवासी-वनवासी महासभा द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गयी जिस पर उच्च न्यायालय द्वारा दिनांक 24/11/2017 को स्थगन आदेश जारी किया गया  जिससे आदिवासियों की बेदखली रुक सकी.  इसके बाद हाई कोर्ट ने 11 अक्तूबर, 2008 को यह आदेश दिया है कि 6 हफ्ते में सभी आदिवासी अपने नये दावे अथवा पुराने दावों की अपील दाखिल कर सकते हैं. प्रशासन इनका 12 हफ्ते में परीक्षण करके निस्तारण करेगा. परन्तु यह बड़े खेद की बात है भाजपा निर्देशित प्रशासन आदिवासियों के दावे नहीं ले रहा है. लगता है इस सम्बन्ध में फिर हमें उच्च न्यायालय की शरण में जाना पड़ेगा.
इस जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान ही यह पता चला कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का अवैध कब्जों को हटवाने का आदेश वाईल्ड  लाईफ ट्रस्ट आफ इंडिया द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल जनहित याचिका में दिए गये आदेश के अनुपालन में था. इस संस्था द्वारा दायर जनहित याचिका में यह कहा गया है कि संरक्षित वन की ज़मीन राष्ट्रपति महोदय के सीधे नियंत्रण में होती है और इस सम्बन्ध में संसद अथवा कार्यपालिका को कोई भी कानून बनाने का अधिकार नहीं है. अतः इस भूमि को आदिवासियों/वन निवासियों को देने सम्बन्धी बनाया गया कानून असंवैधानिक है जिसे तुरंत रद्द किया जाना चाहिए. इसके साथ ही यह भी अनुरोध किया गया था की इस कानून के अंतर्गत पट्टे के दावों से मुक्त भूमि को तुरंत खाली कराकर वन विभाग को दिया जाये. फिलहाल सुप्रीम कोर्ट वनाधिकार कानून की वैधता को देख रही है परन्तु भूमि को मुक्त कराकर वन विभाग को देने का आदेश लागू हो गया है.
गहराई से जांच करने पर पता चला है कि सुप्रीम कोर्ट में उपरोक्त जनहित याचिका दायर करने वाली संस्था का सम्बन्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से है. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो आरएसएस आदिवासी क्षेत्रों में घुस कर आदिवासी हितैषी होने का दावा करती है वह वास्तव में आदिवासियों को जमीन देने के पक्ष में नहीं है.इसका मुख्य कारण  यह है कि आरएसएस वास्तव में कार्पोरेटपरस्त है क्योंकि कार्पोरेटस ही उसके हिंदुत्व के एजंडे को आगे बढ़ा रहे हैं. चूँकि पूरे देश में जहाँ जहाँ आदिवासी रहते हैं वहां पर ज़मीन के नीचे कोयला, लोहा, अल्म्युनिय्म तथा अन्य कीमती खनिज हैं जिन पर कार्पोरेट्स की नजर है. अब अगर वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों को ज़मीन का पट्टा दे दिया जायेगा तो इन्हें कार्पोरेट्स के लिए खाली  कराने में परेशानी होगी.  इसी लिए सबसे आसान रास्ता यही है कि उन्हें ज़मीन के पट्टे ही न दिए जाएँ ताकि भविष्य में उन्हें आसानी से खाली कराया जा सके. यह बात इससे से भी स्पष्ट हो जाती है की वर्तमान में जिन जिन राज्यों में आदिवासी रह रहे हैं उनमे भाजपा की सरकारें हैं जिन्होंने वनाधिकार कानून को जानबूझ कर लागू नहीं किया है. इसकी सबसे बड़ी उदाहरण झारखण्ड है जहाँ पर राज्य के बनने से लेकर अब तक अधिकतर भाजपा की सरकार रही है. झारखण्ड में आदिवासियों  की कुल आबादी लगभग 87 लाख है परन्तु वहां पर वनाधिकार के अंतर्गत केवल 1 लाख 30 हजार दावे तैयार किये गये जिनमें  से 64 हजार दावे रद्द कर दिए गये. यही स्थिति मध्य प्रदेश, गुजरात तथा महाराष्ट्र में है. इससे से स्पष्ट है कि आरएसएस घोर आदिवासी विरोधी है. उड़ीसा में भी ऐसा ही बुरा हाल है. यह भी सही है कि पूर्व में कांग्रेस शासित राज्यों में भी इसको विफल किया गया था.
 आरएसएस के आदिवासी विरोधी होने का एक और पहलू यह है कि आरएसएस उन्हें आदिवासी न कह कर वनवासी कहती है. इसके पीछे उसका मकसद आदिवासियों की अलग पहचान को ख़त्म करके उन्हें हिंदुत्व की छत्रछाया में लाना है. यह सर्वविदित है कि आदिवासियों का अपना धर्म, अपनी संस्कृति और अपने देवी देवता हैं तथा उनको कुछ विशेष संवैधानिक अधिकार भी मिले हुए हैं और आदिवासी क्षेत्रों की अलग प्रशासनिक व्यवस्था है. परन्तु आरएसएस उनकी इस अलग पहचान को ख़त्म करके एकात्मवाद को लागू करना चाहती है. इसी लिए आरएसएस या तो आदिवासियों का हिन्दुकरण करके उन्हें अपने हिन्दुत्ववादी एजंडे में शामिल करना चाहती है या फिर उनका दमन करके उनके प्रतिरोध को कुचलना चाहती है. आरएसएस को पता है कि यदि पृथक आदिवासी पहचान को यथावत बना रहने दिया गया तो यह यह उनकी हिंदुत्व की राजनीति के लिए बड़ा खतरा बना रहेगा. अतः वह  उन्हें आदिवासी न कह कर वनवासी कहती है जोकि उसकी सोची समझी चाल है.
अतः उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि वनाधिकार कानून को विफल करने के गुनाहगार सबसे पहले मायावती, उसके बाद समाजवादी पार्टी तथा अब आरएसएस/भाजपा हैं. यदि 2008 में मायावती सरकार द्वारा वनाधिकार कानून को सख्ती से लागू करके ज़मीन के पट्टे दे दिए गये होते तो आदिवासियों का कितना कल्याण हो गया होता. इसके बाद यदि अखिलेश की समाजवादी सरकार ने ही हाई कोर्ट के आदेश का अनुपालन करा दिया होता तो अब भाजपा सरकार द्वारा उन्हें अवैध कब्जाधारी कह कर बेदखल करने का मौका नहीं मिलता. वनाधिकार कानून को लागू कराने के दौरान आरएसएस/भाजपा का आदिवासी विरोधी चेहरा भी पूरी तरह से उभर कर आया है.  लगता है वह इसे लागू न कराकर आदिवासी क्षेत्रों को अशांत बना कर रखना चाहती है ताकि उनका आसानी से दमन किया जा सके और उनके पास ज़मीन को आसानी से कार्पोरेट्स को हस्तगत कराया जा सके.
 यह सिद्ध हो चुका है कि सभी राजनीतिक पार्टियाँ दलितों/आदिवासियों को निर्धन एवं अशक्त रख कर उनका जाति के नाम पर वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करना चाहती हैं. अतः जब सरकारों और राजनीतिक पार्टियों का दलितों और आदिवासियों के सशक्तिकरण की बुनियादी ज़रुरत भूमि सुधार तथा भूमि आवंटन के प्रति घोर लापरवाही तथा जानबूझ कर उपेक्षा का रवैया है तो फिर इन वर्गों के सामने जनांदोलन के सिवाय कौन सा चारा बचता है. इतिहास गवाह है दलितों और आदिवासियों ने इससे पहले भी कई वार भूमि आन्दोलन का रास्ता अपनाया है. 1953 में डॉ. आंबेडकर के निर्देशन में हैदराबाद स्टेट के मराठवाड़ा क्षेत्र में तथा 1958 में महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में दलितों द्वारा भूमि आन्दोलन चलाया गया था. दलितों का सब से बड़ा अखिल भारतीय भूमि आन्दोलन रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआई) के आवाहन पर 6 दिसंबर, 1964 से 10 फरवरी, 1965 तक चलाया गया था जिस में लगभग 3 लाख सत्याग्रही जेल गए थे. यह आन्दोलन इतना ज़बरदस्त था कि तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादर शास्त्री को दलितों की भूमि आवंटन तथा अन्य सभी मांगे माननी पड़ीं थीं. इसके फलस्वरूप ही कांग्रेस सरकारों को भूमिहीन दलितों को कुछ भूमि आवंटन करना पड़ा था. परन्तु इसके बाद आज तक कोई भी बड़ा भूमि आन्दोलन नहीं हुआ. इतना ज़रूर है कि सत्ता में आने से पहले कांशी राम जी  ने जो ज़मीन सरकारी है, वो ज़मीन हमारी हैका नारा तो दिया था परन्तु मायावती के कुर्सी पर बैठने पर उसे सर्वजन के चक्कर में पूरी तरह से भुला दिया गया.
दलितों के लिए भूमि के महत्त्व पर डॉ. आंबेडकर ने 23 मार्च, 1956 को आगरा के भाषण में कहा था, ”मैं गाँव में रहने वाले भूमिहीन मजदूरों के लिए काफी चिंतित हूँ. मैं उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाया हूँ. मैं उनके दुःख और तकलीफें सहन नहीं कर पा रहा हूँ. उनकी तबाहियों का मुख्य कारण यह है कि उनके पास ज़मीन नहीं है. इसी लिए वे अत्याचार और अपमान का शिकार होते हैं. वे अपना उत्थान नहीं कर पाएंगे. मैं इनके लिए संघर्ष करूँगा. यदि सरकार इस कार्य में कोई बाधा उत्पन्न करती है तो मैं इन लोगों का नेतृत्व करूँगा और इन की वैधानिक लड़ाई लड़ूंगा. लेकिन किसी भी हालत में भूमिहीन लोगों को  ज़मीन दिलवाने का प्रयास करूँगा.इस से स्पष्ट है कि बाबासाहेब दलितों के उत्थान के लिए भूमि के महत्व को जानते थे और इसे प्राप्त करने के लिए वे कानून तथा जनांदोलन के रास्ते को अपनाने वाले थे परन्तु वे इसे मूर्त रूप देने के लिए अधिक दिन तक जीवित नहीं रहे. इस बीच देश के विभिन्न हिस्सों में आदिवासियों द्वारा भूमि अधिकार आन्दोलनचलाया जाता रहा है परन्तु दलितों द्वारा कोई भी बड़ा भूमि आन्दोलन नहीं चलाया गया है जिस कारण उन्हें कहीं भी भूमि आवंटित नहीं हुयी है. नाक्सालबाड़ी आन्दोलन का मुख्य एजंडा दलितों/आदिवासियों को भूमि दिलाना ही था. दक्षिण भारत के राज्यों जैसे तमिलनाडू तथा आन्ध्र प्रदेश में पांच एकड़भूमि का नारा दिया गया है. पिछले दिनों गुजरात दलित आन्दोलन के दौरान भी दलितों को पांच एकड़ भूमि तथा आदिवासियों को वनाधिकार कानून के अंतर्गत ज़मीन देने की मांग उठाई गयी थी जो कि दलित राजनीति को जाति के मक्कड़जाल से बाहर निकालने का काम कर सकती है. यदि इस मांग को अन्य राज्यों में भी अपना कर इसे दलित आन्दोलन और दलित राजनीति के एजंडे में प्रमुख स्थान दिया जाता है तो यह दलितों और आदिवासियों के वास्तविक सशक्तिकरण में बहुत कारगर सिद्ध हो सकता है. अब तो जिन राज्यों में दलितों/आदिवासियों को आवंटन के लिए सरकारी भूमि उपलब्ध नहीं है उसे अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति सब प्लान के बजट से खरीद कर दिया जा सकता है. अतः अगर दलितों और आदिवासियों का वास्तविक सशक्तिकरण करना है तो वह भूमि सुधारों को कड़ाई से लागू करके तथा भूमिहीनों को भूमि आवंटित करके ही किया जा सकता है. इसके लिए वांछित स्तर की राजनीतिक इच्छा शक्ति की ज़रुरत है जिस का वर्तमान में सर्वथा अभाव है. अतः भूमि सुधारों को लागू कराने तथा भूमिहीन दलितों/आदिवासियों को भूमि आवंटन कराने के लिए एक मज़बूत भूमि आन्दोलन चलाये जाने की आवश्यकता है. इस आन्दोलन को बसपा जैसी अवसरवादी और केवल जाति की राजनीति करने वाली पार्टी नहीं चला सकती है क्योंकि इसे सभी प्रकार के आंदोलनों से परहेज़ है. आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने भूमि सुधार और भूमि आवंटन को अपने एजंडे में प्रमुख स्थान दिया हैऔर इसके लिए अदालत में तथा ज़मीनि स्तर पर लड़ाई भी लड़ी है. इसी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को ईमानदारी से लागू कराने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर करके आदेश भी प्राप्त किया था जिसे मायवती और मुलायम की सरकार ने विफल कर दिया. आइपीएफ़ अब स्वराज अभियान के साथ मिल कर पुनः उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में वनाधिकार कानून को लागू कराने का भूमि आन्दोलन चला रहा है. अत स्वराज अभियान /आइपीएफ सभी दलित/आदिवासी हितैषी संगठनों और दलित राजनीतिक पार्टियों का आवाहन करता है कि अगर वे सहमत हों तो हमारे द्वारा पूर्वांचल में चलाये जा रहे भूमि अधिकार अभियान में सहयोग दें.





उत्तर प्रदेश में दलित-आदिवासी और भूमि का प्रश्न

  उत्तर प्रदेश में दलित - आदिवासी और भूमि का प्रश्न -     एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट 2011 की जनगणना ...