बुधवार, 29 जुलाई 2020

कोरोना संकट की आड़ में कठोर कानून और तानाशाही का खतरा


कोरोना संकट की आड़ में कठोर कानून और तानाशाही का खतरा
-एस आर दारापुरी आईपीएस (से.नि.) राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
वर्तमान में जनता और सरकारें कोरोना संकट से गुज़र रही हैं. इसके विरुद्ध जनता एवं सरकारें पूरी तरह से जुटी हुयी हैं. कोरोना से लड़ने के लिए सरकारों को कुछ विशेष व्यवस्थाएं एवं नियम कानून लागू करने पड़ते हैं ताकि इस में किसी प्रकार की अनावश्यक बाधा उत्पन्न न हो. पूर्वकाल में भी जब जब इस प्रकार की महामारियां फैली हैं तो उनको रोकने हेतु सरकारों को विशेष अधिकार दिए गए हैं. हमारे देश में भी इसी प्रकार का एक कानून अंग्रेजों के समय से चला आ रहा है जिसे The Epidemic Disease Act 1897 अर्थात महामारी रोग  अधिनियम 1897 के नाम से जाना जाता है और पूर्व में इसका इस्तेमाल भी किया जाता रहा है. इस एक्ट का मुख्य ध्येय बीमारी पर सुचारू रूप से नियंत्रण पाना है.
इस एक्ट में कुल 4 सेक्शन हैं और संभवत यह सबसे छोटा एक्ट है. इस एक्ट के सेक्शन 2 में इसे लागू करने के लिए राज्य सरकार और  केंद्र सरकार को किसी महामारी को दूर करने या कंट्रोल करने के लिए कुछ शक्तियां दी गयी हैं. एपीडेमिक डिजीज एक्ट, 1897 की धारा-3 मे के अनुसार महामारी के संबंध में सरकारी आदेश न मानना अपराध होगा और इस अपराध के लिए भारतीय दंड संहिता यानी इंडियन पीनल कोड की धारा188 के तहत सज़ा मिल सकती है. यह अपराध संगेय और जमानती है. इस अपराध का दोष सिद्ध होने पर 1 महीने की साधारण जेल और 200 रुo जुर्माना या दोनों हो सकते हैं.
हाल में केन्द्रीय सरकार ने महामारी रोग अधिनियम 1897 (Amendments in Epidemic Disease Act, 1987)  की धारा 3 में निम्नलिखित संशोधन करके इसे अति कठोर बना दिया है. इसके अनुसार यदि कोई व्यक्ति, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के खिलाफ किसी भी तरह की हिंसा करता है और उसे साधारण चोट पहुंचता है तो दोषी पाए जाने वाले को 3 महीने से लेकर 5 साल तक की जेल की सजा सुनाई जाएगी और 50,000 से 2 लाख रुपये तक का जुर्माना भी लगेगा. यदि कोई व्यक्ति, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के खिलाफ किसी भी तरह की हिंसा करता है और उसे गंभीर  चोट पहुंचता है तो दोषी पाए जाने वाले को 6 महीने से लेकर 7 साल तक की जेल की सजा  और 1 लाख  से 5 लाख रुपये तक का जुर्माना भी लगेगा.इस सजा के अतिरिक्त उसे किसी भी प्रकार की संपत्ति की क्षति की पूर्ती हेतु क्षति के बाज़ार पर मूल्य का दुगना हर्जाना भी देना होगा.
इस प्रकार ऊपर दिए गए विवरण से यह स्पष्ट है कि भारत सरकार ने कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के नाम पर एक्ट में संशोधन करके उसे अंग्रेजी राज के मुकाबले बहुत कठोर बना दिया है. सरकार इसको यह कह कर औचित्यपूर्ण बता रही है कि कोरोना संकट से निबटने के लिए ऐसा किया जाना जनहित तथा राष्ट्रहित में है और इससे कोरोना को फैलने से रोकने में मदद मिलेगी. 
प्रथम दृष्टया तो सरकार द्वारा हाल में किये गये संशोधन साधारण एवं जनहित में लगते हैं परन्तु इनके पीछे कोरोना को रोकने की आड़ में तानाशाही को स्थापित करने का सजग प्रयास नज़र आ रहा  है. हम यह भी जानते हैं कि इस दौर में पुलिस को बर्बरता करने की खुली छूट  दे रखी  है जोकि खुल कर सामने आई है. यह भी विचारणीय है कि अगर अंग्रेजी सरकार इस कानून के साथ 50 साल तक प्लेग आदि महामारियों से निपट सकती है तो हमारी लोकतान्त्रिक सरकार इससे क्यों नहीं निपट सकती थी. इसके लिए संकट काल में सरकारों के अपनी पकड़ को मज़बूत करने तथा अपने अधिकारों को बढ़ने के प्रयास को समझना होगा.
उपरोक्त घटना को समझने के लिए हाल में बीबीसी हिंदी की वेब साईट पर “कोरोना: मोदी सरकार ने बिना प्लान के लागू किया लाक डाउन-नजरिया” लेख को पढना ज़रूरी है.इस लेख में स्टीव हैंकी  अम्रीका के जान्स हापकिंस विश्वविद्यालय में एप्लाइड अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर ने जुबेर अहमद को दिए गए साक्षात्कार में कहा है कि “भारत सरकार कोरोना संकट से लड़ने के लिए पहले से तैयार नहीं थी, उन्होंने कहा,”मोदी पहले से तैयार नहीं थे और भारत के पास पर्याप्त उपकरण नहीं हैं.” वे आगे कहते हैं,”मोदी  के लाक डाउन के साथ समस्या यह है कि इसे बिना पहले से प्लान के लागू कर दिया गया. वास्तव में मोदी जानते ही नहीं हैं कि “योजना का मतलब क्या होता है.” इसी साक्षात्कार में प्रो. हैंकी कहते हैं कि कड़े उपाय से कमज़ोर तबके का अधिक नुक्सान हुआ है. वे आगे कहते हैं कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या सरकार की नीतियों या क़दमों के चलते कोई संकट पैदा हुआ है या फिर सरकार किसी संकट के दौरान हुए नुक्सान को रोकने और संकट को टालने में नाकाम साबित हुयी है.”
साक्षात्कार में प्रो. हैंकी आगे कहते हैं,दोनों मामलों में प्रतिक्रिया एक ही होती है. हमें सरकार के स्कोप और स्केल को बढ़ाने की ज़रुरत होती है. इसके कई रूप हो सकते हैं, लेकिन इन सभी का नतीजा समाज और अर्थव्यवस्था पर सरकार की ताकत के ज्यादा इस्तेमाल के तौर पर दिखाई देता है. सत्ता पर यह पकड़ संकट के गुज़र जाने के बाद भी लम्बे वक्त तक जारी रहती है.” उनके मुताबिक पहले विश्व युद्ध के बाद आये हर संकट में हमने देखा है कि कैसे हमारे जीवन में राजनीतिकरण का ज़बदस्त इजाफा हुआ है. इनमें हर तरह के सवालों को राजनितिक सवाल में तब्दील करने का रुझान होता है. सभी मसले राजनितिक मसले माने जाते हैं. सभी वैल्यूज़ राजनितिक वैल्यूज़ माने जाते हैं और सभी फैसले राजनितिक फैसले होते हैं.
प्रो. हैंकी आगे कहते हैं कि नोबेल पुरूस्कार हासिल कर चुके इकनामिस्ट फ्रेडरिक हायेक नयी विश्व व्यवस्था के साथ आने वाली लम्बे वक्त की समस्यायों की ओर इशारा करते हैं. हायेक के मुताबिक आकस्मिक सठियान हमेशा से व्यक्तिगत आज़ादी को सुनिश्चित करने वाले उपायों को कमज़ोर करने की वजह रही हैं. इसी प्रकार के खतरे पर विचार व्यक्त करते हुए विश्वविख्यात विचारक नाम चोमस्की ने भी कहा  है की उत्तर कोरोना दुनिया में या तो अधिनायिक्वाद पूरी तरह से स्थापित हो जायेगा या समाजवाद की वापसी होगी. इसका सबसे बड़ा उदहारण हंगरी है जहाँ कोरोना संकट से निपटने के नाम पर हंगरी संसद ने ओर्बान को असाधारण शक्तियां देकर  लोकतंत्र को हटा कर अधिनायिक्वाद स्थापित कर दिया है. इसी प्रकार का प्रयास तुर्की में पूर्व स्थापित तानाशाह रेचेप तैयप अर्दोआन द्वारा भी अपनी पकड को अधिक मज़बूत करने के लिए किया जा रहा है. वहां पर तुर्की की सरकार संकट के वकत पर नैरेटिव कंट्रोल करने की हर मुमकिन कोशिश कर रही है. सोशल मीडिया पर कोविड-19 को लेकर डाली गयी ‘भड़काऊ पोस्ट्स’के लिए सैंकड़े लोगों को अरेस्ट किया जा चुका है.   
22 अप्रैल, 2020 को UNCHR (यूनाइटेड नेशंस कमिश्नर फॉर ह्युमन राइट्स) फिलिपो ग्रैंडी ने कोरोना संकट काल में मानवाधिकारों  और शरणार्थी अधिकारों को होने वाली दीर्घकालीन हानि से सावधान रहने के लिए कहा है. इसमें उसने कहा है,”यह शरणार्थी लोगों के संरक्षण के सिद्धांतों के परीक्षण की घडी है. परन्तु युद्ध अथवा उत्पीडन के कारण देश छोड़ कर भागने वाले लोगों की सुरक्षा एवं संरक्षण का कोरोना के नाम पर नकार नहीं किया जाना चाहिये.” उसने आगे कहा है,”स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना और शरणार्थियों को संरक्षण देना एकान्तिक नहीं है. इस में कोई संशय नहीं है. हमें दोनों करना है. सरकारें स्वास्थ्य जन सुरक्षा तथा सीमा सुरक्षा के साथ साथ लम्बे समय से मान्यता प्राप्त शरणार्थी कानूनों  का सम्मान भी कर सकती हैं.”
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि दुनियां के कई अन्य देशों की सरकारों की तरह हमारे यहाँ सरकार कोरोना संकट का इस्तेमाल अति कठोर कानून बना कर तथा पुलिस को खुली छूट देकर तानाशाही को स्थापित करने के लिए कर रही है.  इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश में योगी ने तो मोदी सरकार द्वारा महामारी अधिनियम 1897 में किये गये संशोधन जिसमें केवल स्वास्थ्य कर्मियों के विरुद्ध हिंसा करने वालों को दण्डित करने का प्रावधान है को विस्तार देकर कोरोना संकट के निवारण में लगे सभी कर्मचारियों जैसे सैनिटेशन वर्कर्ज़, पुलिस अधिकारी, सुरक्षा कर्मी, सरकारी अधिकारी और अन्य कोई भी अधिकारी जिसे सरकार कोरोना महामारी को रोकने के काम के लिए नियुक्त करे भी शामिल होंगे. इतना ही नहीं ऐसे आरोपियों के विरुद्ध राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, गैंग्स्टर एक्ट और आपदा प्रबंधन एक्ट भी लगाये जायेंगे.यह शायद इसी लिए किया जा रहा है क्योंकि गुजरात के बाद उत्तर प्रदेश हिंदुत्व की दूसरी बड़ी प्रयोगशाला है. क्या लाक डाउन को बिना किसी तैयारी तथा विचार विमर्श एवं उसके परिणामों का बिना कोई आकलन किये अचानक लगा देना भी इसी प्रवृति का द्योतक भी नहीं है?
कोरोना संकट काल में जगह जगह पर सोशल मीडिया पर पोस्ट तथा लाक डाउन का उलंघन करने को लेकर बहुत बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां की जा रही हैं. लाक डाउन में ही दिल्ली पुलिस दंगा पीड़ितों को ही दंगे का आरोपी बना कर गिरफ्तार कर रही है.  इसी दंगे की साजिश का आरोप लगा कर सीएए तथा एनआरसी के विरोध में धरनों में सक्रिय रहे बुद्धिजीविओं, छात्रों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं को बड़ी संख्या में गिरफ्तार किया जा रहा है और उन पर यूएपीए लगाया जा रहा है. इसी दौर में प्रख्यात अम्बेडकरवादी बुद्धिजीवी आनंद तेल्तुम्ब्डे तथा लेखक गौतम नवलखा को अग्रिम जमानत रद्द करके जेल भेजा गया है. पूरे देश में कोरोना रोकने के नाम पर इतनी ज्यादा सख्ती और डर का माहौल तो इंदिरा गाँधी द्वारा लगायी गयी इमरजेंसी में भी नहीं था. यह मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ क्योंकि उस समय मैं पुलिस सेवा में था और इमरजेंसी लागू करने का काम मैंने स्वयम किया था.
हाल में कोरोना संकट नाम पर मोदी सरकार द्वारा तानाशाही को बढाने के प्रयासों के बारे में विख्यात इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपने लेख में लिखा है कि इ”कोविड-19 के दौर में यह फिर साबित हुआ है कि नरेंद्र मोदी की तुलना किसी अन्य नेता से हो सकती है, तो वह 1971-77 के दौर की इंदिरा गाँधी से  सकती है, जो अपनी पार्टी, सरकार, प्रशासन और देश को अपने व्यक्तित्व के विस्तार जैसा बनाना चाहते हें. इसी लेख के अंत में वे लिखते हैं किइस महामारी ने मोदी सरकार को भारतीय संघवाद को आक्रामक तरीके से कमज़ोर करने का अवसर दिया है. उन्हें इसमें सफल होने की इज़ाज़त नहीं दी जनि चाहिए. राज्यों को उन्हें जितना संभव हो सके रोकना चाहिए. इमरजेंसी ने हमें कोई सबक दिया है, तो यही कि एक पार्टी, एक विचारधारा और एक नेता को हमारे शानदार विविधतापूर्ण गन्तार पर फिर कभी अपनी इच्छा थोपने की इज़ाज़त नहीं दी जा सकती.” इसी खतरे से आगाह करते हुए डा. आंबेडकर ने भी कहा था कि “राजनीति में व्यक्ति पूजा पतन और अंतत तानाशाही का रास्ता है. “
अतः उपरोक्त वर्णित परिस्थियों में तानाशाही के आसन्न खतरे  के सम्मुख हम लोगों को सतर्क हो जाना चाहिए. यह बात सही है कि कोरोना के संकट से निपटने के लिए हमें सरकार द्वारा पारित आदेशों का अनुपालन करना चाहिए परन्तु इसकी आड़ में हमें लोकतंत्र की बलि देकर तानाशाही को स्थापित नहीं होने देना चाहिए जैसा कि सरकार कठोर कानून बना कर तथा पुलिस राज स्थापित करने का प्रयास कर रही है. कोरोना संकट काल लोकतंत्र की परीक्षा की भी घड़ी है. .  
 

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