अंबेडकर का नव-बौद्ध धर्म पारंपरिक
बौद्ध धर्म से किस तरह अलग है?
एस आर दारापुरी आईपीएस
(से. नि.)
अंबेडकर का नव-बौद्ध धर्म,
जिसे
नवयान या अंबेडकरवादी बौद्ध धर्म के रूप में भी जाना जाता है,
20वीं सदी में भारतीय समाज सुधारक और भारतीय संविधान के निर्माता
डॉ. बी.आर. अंबेडकर द्वारा विकसित बौद्ध धर्म की पुनर्व्याख्या है। यह अपने फोकस,
उद्देश्य
और दार्शनिक अभिविन्यास में पारंपरिक बौद्ध धर्म (थेरवाद,
महायान
और वज्रयान) से काफी अलग है, क्योंकि इसे भारत में
सामाजिक अन्याय, विशेष रूप से जाति उत्पीड़न को संबोधित
करने के लिए आकार दिया गया था। नीचे मुख्य अंतरों को उजागर करते हुए एक संक्षिप्त
तुलना दी गई है:
1. उद्देश्य
और सामाजिक फोकस
- पारंपरिक बौद्ध धर्म: मुख्य रूप से
ध्यान,
नैतिक
आचरण और ज्ञान जैसी आध्यात्मिक प्रथाओं के माध्यम से जन्म और मृत्यु (संसार) के
चक्र से व्यक्तिगत मुक्ति (निर्वाण) पर ध्यान केंद्रित करता है। सामाजिक मुद्दे
गौण हैं,
जिसमें
व्यक्तिगत ज्ञान पर जोर दिया जाता है।
- नव-बौद्ध धर्म: स्पष्ट रूप से
सामाजिक-राजनीतिक, जिसका उद्देश्य उत्पीड़ित समुदायों,
विशेष
रूप से दलितों (पूर्व में "अछूत") को जाति-आधारित भेदभाव से मुक्त करना
था। अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को सामाजिक समानता, न्याय और सशक्तिकरण
के साधन के रूप में देखा, हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था को खारिज
कर दिया।
2. धार्मिक
ग्रंथों का दृष्टिकोण
- पारंपरिक
बौद्ध धर्म: पाली कैनन (थेरवाद), महायान सूत्र या
तिब्बती ग्रंथों जैसे विहित ग्रंथों पर निर्भर करता है,
जो
तत्वमीमांसा, ध्यान और नैतिकता पर बुद्ध की शिक्षाओं
का विस्तार से वर्णन करते हैं।
- नव-बौद्ध
धर्म: अंबेडकर ने बौद्ध ग्रंथों की चुनिंदा रूप से पुनर्व्याख्या
की,
जिसमें
तत्वमीमांसा तत्वों पर तर्कसंगतता और नैतिकता पर जोर दिया गया। उनकी पुस्तक,
*बुद्ध और उनका धम्म* (1956), प्राथमिक
पाठ के रूप में कार्य करती है, जिसमें पुनर्जन्म और
कर्म जैसी अवधारणाओं को छोड़ दिया गया है या उनकी पुनर्व्याख्या की गई है,
जिन्हें
उन्होंने सामाजिक सुधार के लिए अवैज्ञानिक या अप्रासंगिक माना।
3. आध्यात्मिक
विश्वास
- पारंपरिक
बौद्ध धर्म: कर्म, पुनर्जन्म और संसार चक्र जैसी अवधारणाओं
को दुख और मुक्ति को समझने के लिए केंद्रीय मानता है। ये अक्सर आध्यात्मिक होते
हैं और अनुभवजन्य सत्यापन से परे होते हैं।
- नव-बौद्ध
धर्म: आध्यात्मिक सिद्धांतों को अस्वीकार करता है या उनकी
पुनर्व्याख्या करता है। अंबेडकर ने कर्म को इस जीवन में किए गए कार्यों के सामाजिक
परिणामों के रूप में देखा, न कि जीवन के पार में,
और
पुनर्जन्म को अप्रमाणिक के रूप में खारिज कर दिया। सामाजिक और नैतिक कार्रवाई के
माध्यम से वर्तमान दुनिया में दुख को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
4. चार
आर्य सत्यों की भूमिका
- पारंपरिक
बौद्ध धर्म: चार आर्य सत्य (दुख, इसका कारण,
इसका
निवारण और निवारण का मार्ग) केंद्रीय हैं, जिसमें निर्वाण
प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक मार्गदर्शक के रूप में अष्टांगिक मार्ग है।
- नव-बौद्ध
धर्म: अंबेडकर ने असमानता और उत्पीड़न के कारण होने वाले सामाजिक
दुख पर जोर देने के लिए चार आर्य सत्यों को फिर से तैयार किया। अष्टांगिक मार्ग की
व्याख्या नैतिक जीवन और सामाजिक सुधार के लिए एक व्यावहारिक मार्गदर्शक के रूप में
की जाती है, न कि केवल आध्यात्मिक मुक्ति के लिए।
5. जाति
और सामाजिक पदानुक्रम के प्रति दृष्टिकोण
- पारंपरिक
बौद्ध धर्म: जबकि बुद्ध ने आध्यात्मिक अभ्यास में जाति भेद को अस्वीकार
कर दिया (उदाहरण के लिए, सभी को ज्ञान प्राप्त हो सकता है),
पारंपरिक
बौद्ध समाज (उदाहरण के लिए, भारत, श्रीलंका
में) अक्सर जाति व्यवस्था के साथ सह-अस्तित्व में थे,
उन्हें
खत्म करने पर सीमित ध्यान दिया।
- नव-बौद्ध
धर्म: स्पष्ट रूप से जाति-विरोधी, जाति
व्यवस्था को समानता के बौद्ध सिद्धांतों के साथ असंगत सामाजिक बुराई के रूप में
देखते हुए। 1956 में अंबेडकर द्वारा दलितों का बौद्ध
धर्म में सामूहिक धर्मांतरण हिंदू धर्म की जाति पदानुक्रम की प्रत्यक्ष अस्वीकृति
थी।
6. अनुष्ठान
और प्रथाएँ
- पारंपरिक
बौद्ध धर्म: इसमें अनुष्ठान, ध्यान,
मठवाद
और जप या प्रसाद जैसी प्रथाएँ शामिल हैं, जो संप्रदाय के
अनुसार अलग-अलग होती हैं (उदाहरण के लिए, थेरवाद की विपश्यना,
महायान
की भक्ति प्रथाएँ)।
- नव-बौद्ध
धर्म: अनुष्ठान और रहस्यवाद को कम करता है,
नैतिक
आचरण और सामुदायिक संगठन पर ध्यान केंद्रित करता है। प्रथाओं को सरल बनाया गया है
(जैसे,
अंबेडकर
द्वारा निर्धारित 22 प्रतिज्ञाओं को लेना),
तथा
मठवासी एकांतवास की तुलना में तर्कसंगतता और सामाजिक सक्रियता पर जोर दिया गया है।
7. मठवाद
की भूमिका
- पारंपरिक
बौद्ध धर्म: मठवाद (संघ) केंद्रीय है, जिसमें भिक्षु और
भिक्षुणियाँ अपना जीवन आध्यात्मिक अभ्यास और धर्म की शिक्षा के लिए समर्पित करते
हैं।
- नव-बौद्ध
धर्म: मठवाद पर जोर नहीं देता, आम लोगों की भागीदारी
को प्रोत्साहित करता है। अंबेडकर ने बौद्धों को समानता के लिए काम करने वाले
सामाजिक रूप से जुड़े व्यक्तियों के रूप में देखा, न
कि मठों में वापस जाने वाले लोगों के रूप में।
8. दार्शनिक
अभिविन्यास
- पारंपरिक
बौद्ध धर्म: अक्सर आध्यात्मिक, वास्तविकता की
प्रकृति पर जटिल सिद्धांतों के साथ (उदाहरण के लिए, महायान
में शून्यता, आश्रित उत्पत्ति) ।
- नव-बौद्ध
धर्म: व्यावहारिक और तर्कवादी, आधुनिक वैज्ञानिक
विचारों के साथ संरेखित। अंबेडकर ने वर्ग संघर्ष और सामाजिक परिवर्तन पर अपने
ध्यान में बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद के बीच समानताएं खींचीं,
हालांकि
उन्होंने मार्क्सवाद के भौतिकवाद को अस्वीकार कर दिया।
ऐतिहासिक संदर्भ:
- पारंपरिक
बौद्ध धर्म: एशिया भर में सदियों से विकसित,
स्थानीय
संस्कृतियों के अनुकूल होते हुए मूल आध्यात्मिक लक्ष्यों को बनाए रखते हुए।
- नव-बौद्ध
धर्म: 1956 में उभरा जब अंबेडकर
और उनके 500,000
से
अधिक अनुयायियों ने जाति उत्पीड़न के खिलाफ विरोध के रूप में भारत के नागपुर में
बौद्ध धर्म अपना लिया। यह काफी हद तक दलित आंदोलन बना हुआ है,
जिसके
भारत में लाखों अनुयायी हैं।
सारांश:
अंबेडकर का नव-बौद्ध धर्म पारंपरिक बौद्ध धर्म
को सामाजिक रूप से जुड़े, तर्कवादी और जाति-विरोधी विचारधारा में
बदल देता है। जबकि पारंपरिक बौद्ध धर्म आध्यात्मिक साधनों के माध्यम से व्यक्तिगत
मुक्ति चाहता है, नव-बौद्ध धर्म इस जीवन में सामाजिक
असमानताओं से सामूहिक मुक्ति को प्राथमिकता देता है, आधुनिक
समतावादी और वैज्ञानिक मूल्यों के साथ संरेखित करने के लिए बौद्ध सिद्धांतों की
पुनर्व्याख्या करता है।
साभार
:Grok. com