रविवार, 13 जून 2021

भारत की पहली संविधान सभा का समापन भाषण

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"मैं भंगी हूं" आज भी प्रासंगिक - भगवान दास

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सोमवार, 7 जून 2021

दलित राजनीति को डॉ. आंबेडकर से सीखना चाहिए

 

 दलित राजनीति को डॉ. आंबेडकर से सीखना चाहिए

-एस. आर. दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट  

 

डा. अंबेडकर ने कहा था, “राजनीतिक सत्ता सब समस्यायों की चाबी है और दलित संगठित होकर सत्ता पर कब्ज़ा करके अपनी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।  राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल समाज के विकास के लिए करना चाहिए।“ अतः उन्होंने दलितों का राजनीतिक सत्ता जीतने का आवाहन भी किया था। इसी लिए डा. अंबेडकर ने गोलमेज़ कांफ्रेंसों में दलितों के लिए अल्पसंख्यक का दर्जा तथा अन्य  अल्पसंख्यकों की तरह राजनीतिक अधिकारों की माँग उठाई थी और उन्हें कम्यूनल अवार्ड के रूप में प्राप्त भी किया था. इस पर गाँधी जी ने उस के विरोध में यह कहते हुए कि इस से हिन्दू समाज टूट जायेगा, आमरण अनशन की धमकी दे डाली थी जबकि उन्हें अन्य अल्पसंख्यकों को यह अधिकार दिए जाने में कोई आपत्ति नहीं थी. अंत में अनुचित दबाव में मजबूर होकर डॉ. आंबेडकर को गांधी जी की जान बचाने के लिए “पूना पैकट” करना पड़ा और दलितों के राजनैतिक स्वतंत्रता के अधिकार की बलि देनी पड़ी तथा संयुक्त चुनाव क्षेत्र और आरक्षित सीटें स्वीकार करनी पड़ीं।  

 डा. आंबेडकर को दलित राजनीति का जनक माना जाता है। 1937 में चुनाव में भाग लेने के लिए डॉ. आंबेडकर ने अगस्त 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (स्वतंत्र मजदूर पार्टी) की स्थापना की और बम्बई प्रेज़ीडैन्सी में 17 सीटों पर चुनाव लड़ा और 15 सीटें जीतीं जिनमें 3 सीटें सामान्य थीं।  इसके बाद उन्होंने 19 जुलाई, 1942 को आल इंडिया शैडयूल्ड कास्टस फेडरेशन (एससीएफ) बनायी. इस पार्टी से उन्होंने 1946 और 1952 में चुनाव लड़े परन्तु इस में पूना पैकट के दुष्प्रभाव के कारण उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली. फलस्वरूप 1952 और 1954 के चुनाव में डॉ. आंबेडकर स्वयं भी चुनाव हार गए. अंत में उन्होंने 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में आल इंडिया शैडयूल्ड कास्टस फेडरेशन को भंग करके रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआई) नाम से नयी पार्टी बनाने की घोषणा की. इस के लिए उन्होंने इस पार्टी का संविधान भी बनाया. वास्तव में यह पार्टी उन के परिनिर्वाण के बाद 3 अक्तूबर, 1957 को अस्तित्व में आई. इस विवरण के अनुसार बाबा साहेब ने अपने जीवन काल में तीन राजनैतिक पार्टियाँ बनायीं. इन में से वर्तमान में आरपीआई अलग अलग गुटों के रूप में मौजूद है.

वर्तमान संदर्भ में यह देखना ज़रूरी है कि बाबा साहेब ने जिन राजनैतिक पार्टियों के माध्यम से राजनीति की क्या वह जाति की राजनीति थी या विभिन्न वर्गों के मुद्दों की राजनीति थी. इस के लिए उन द्वारा स्थापित पार्टियों के एजंडा का विश्लेषण ज़रूरी है.

आइए सब से पहले बाबा साहेब की स्वतंत्र मजदूर पार्टी को देखें. डॉ. आंबेडकर ने अपने ब्यान में पार्टी के बनाने के कारणों और उसके काम के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए कहा था- “इस बात को ध्यान में रखते हुए कि आज पार्टियों को सम्प्रदाय के आधार पर संगठित करने का समय नहीं है, मैंने अपने मित्रों की इच्छायों से सहमति रखते हुए पार्टी का नाम तथा इस के प्रोग्राम को विशाल बना दिया है ताकि अन्य वर्ग के लोगों के साथ राजनीतिक सहयोग संभव हो सके. पार्टी का मुख्य केंद्रबिंदु तो दलित जातियों के 15 सदस्य ही रहेंगे परन्तु अन्य वर्ग के लोग भी पार्टी में शामिल हो सकेंगे.” पार्टी के मैनीफिस्टो में भूमिहीन, गरीब किसानों और पट्टेदारों और मजदूरों की ज़रूरतों और समस्यायों का निवारण, पुराने उद्योगों की पुनर्स्थापना और नए उद्योगों की स्थापना, छोटी जोतों की चकबंदी, तकनीकी शिक्षा का विस्तार, उद्योगों पर राज्य का नियंत्रण, भूमि के पट्टेदारों का ज़मीदारों द्वारा शोषण और बेदखली, औद्योगिक मजदूरों के संरक्षण के लिए कानून आदि प्रमुख मुद्दे थे।

पार्टी ने मुख्यतया किसानों और गरीब मजदूरों के कल्याण पर बल दिया था. पार्टी की कोशिश लोगों को लोकतंत्र के तरीकों से शिक्षित करना, उन के सामने सही विचारधारा रखना और उन्हें कानून द्वारा राजनीतिक कार्रवाही के लिए संगठित करना आदि थी. इस से स्पष्ट है इस पार्टी की राजनीति जातिवादी न होकर वर्ग और मुद्दा आधारित थी और इस के केंद्र में मुख्यतया दलित थे. यह पार्टी बम्बई विधान सभा में सत्ताधारी कांग्रेस की विपक्षी पार्टी थी. इस पार्टी ने अपने कार्यकाल में बहुत जनोपयोगी कानून बनवाये थे. इस पार्टी के विरोध के कारण ही फैक्टरियों में हड़ताल पर रोक लगाने सम्बन्धी औद्योगिक विवाद बिल पास नहीं हो सका था.

अब बाबा साहेब द्वारा 1942 में स्थापित आल इंडिया शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के उद्देश्य और एजंडा को देखा जाये. पार्टी के मैनीफिस्टो में कुछ मुख्य मुद्दे थे: सभी भारतीय समानता के अधिकारी हैं, सभी भारतीयों के लिए धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक समानता की पक्षधरता; सभी भारतीयों को अभाव और भय से मुक्त रखना राज्य की जिम्मेवारी हैस्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का संरक्षण; आदमी का आदमी द्वारा, वर्ग का वर्ग द्वारा तथा राष्ट्र का राष्ट्र द्वारा उत्पीड़न और शोषण से मुक्ति और सरकार की संसदीय व्यवस्था का संरक्षण, आर्थिक प्रोग्राम के अंतर्गत बीमा का राष्ट्रीयकरण और सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए अनिवार्य बीमा योजना और नशाबंदी का निषेध था. यद्यपि यह पार्टी पूना पैक्ट के कारण शक्तिशाली कांग्रेस के सामने चुनाव में कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं कर सकी परन्तु पार्टी के एजंडे और जन आंदोलन जैसे भूमि आन्दोलन आदि के कारण अछूत एक राजनीतिक झंडे के तल्ले जमा होने लगे जिससे उन में आत्मविश्वास बढ़ने लगा. फेडरेशन के प्रोग्राम से स्पष्ट है कि यदपि इस पार्टी के केंद्र में दलित थे परन्तु पार्टी जाति की राजनीति की जगह मुद्दों पर राजनीति करती थी और उसका फलक व्यापक था.

जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि बाबा साहेब ने बदलती परिस्थितियों और लोगों की ज़रूरत को ध्यान में रख कर एक नयी राजनीतिक पार्टी “रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया” (आरपीआई) की स्थापना की घोषणा 14 अक्तूबर, 1956 को की थी और इस का संविधान भी उन्होंने ही बनाया था. इस पार्टी को बनाने के पीछे उन का मुख्य उद्देश्य एक ऐसी पार्टी बनाना था जो संविधान में किये गए वादों के अनुसार हो और उन्हें पूरा करना उस का उद्देश्य हो. वे इसे केवल अछूतों की पार्टी नहीं बनाना चाहते थे क्योंकि एक जाति या वर्ग के नाम पर बनायी गयी पार्टी सत्ता प्राप्त नहीं कर सकती. वह केवल दबाव डालने वाला ग्रुप ही बन सकती है. आरपीआई की स्थापना के पीछे मुख्य ध्येय थे: (1) समाज व्यवस्था से विषमतायें हटाई जाएँ ताकि कोई विशेषाधिकार प्राप्त तथा वंचित वर्ग न रहे, (2) दो पार्टी सिस्टम हो: एक सत्ता में दूसरा विरोधी पक्ष, (3) कानून के सामने समानता और सब के लिए एक जैसा कानून हो, (4) समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना, (5) अल्पसंख्यक लोगों के साथ सामान व्यवहार, (6) मानवता की भावना जिस का भारतीय समाज में अभाव रहा है.

पार्टी के संविधान की प्रस्तावना में पार्टी का मुख्य लक्ष्य व उद्देश्य “न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुता” को प्राप्त करना था. पार्टी का कार्यक्रम बहुत व्यापक था. पार्टी की स्थापना के पीछे बाबा साहेब का उद्देश्य था कि अल्पसंख्यक लोग, गरीब मुस्लिम, गरीब ईसाई, गरीब तथा निचली जाति के सिक्ख तथा कमज़ोर वर्ग के अछूत, पिछड़ी जातियों के लोग, आदिम जातियों के लोग, शोषण का अंत, न्याय और प्रगति चाहने वाले सभी लोग एक झंडे के तल्ले संगठित हो सकें और पूंजीपतियों के मुकाबले में खड़े होकर संविधान तथा अपने अधिकारों की रक्षा कर सकें. (दलित राजनीति और संगठन - भगवान दास)

आरपीआई की विधिवत स्थापना बाबा साहेब के परिनिर्वाण के बाद 1957 में हुई  और पार्टी ने नए एजंडे के साथ 1957, 1962 तथा 1967 का चुनाव लड़ा. पार्टी को महाराष्ट्र के इलावा देश के अन्य हिस्सों में भी अच्छी सफलता मिली. 1957 में इस पार्टी के 12 सांसद तथा 29 विधायक जीते थे।1962 में पार्टी के 3 सांसद जो सभी उत्तर प्रदेश से थे तथा 20 विधायक जिनमें 10 विधायक उत्तर प्रदेश से थे, जीते थे। 1967 में 1 सांसद जो उत्तर प्रदेश से थे तथा 22 विधायक जिनमें से 8 उत्तर प्रदेश के थे, जीते थे। शुरू में पार्टी ने ज़मीन के बंटवारे, नौकरियों में आरक्षण, न्यूनतम मजदूरी, दलितों से बौद्ध बने लोगों के लिए आरक्षण  आदि के लिए संघर्ष किया. पार्टी में मुसलमान, सिक्ख और जैन आदि धर्मों के लोग शामिल हुए.

6 दिसंबर,1964 को आरपीआई ने भूमि के लिए एक देशव्यापी सत्याग्रह का आयोजन किया था। इसमें 3,70,000 से अधिक सत्याग्रहियों को सरकार द्वारा गिरफ्तार किया गया और 13 की मौत हो गई। इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस सरकार को भूमिहीन लोगों को 2,00,000 एकड़ भूमि वितरित करने के लिए मजबूर होना पड़ा। 1972 में, आरपीआई के सांसद बैरिस्टर राजा भाऊ खोबरागड़े ने लोकसभा में कृषि भूमि पर 20 एकड़ की सीलिंग लगाकर भूमिहीनों को भूमि के वितरण की मांग की थी। नतीजतन, इंदिरा गांधी ने संसद में सीलिंग एक्ट पारित किया और भूमिहीनों को सीलिंग सीमा से अधिक भूमि वितरित की गई।

इस दौर में आरपीआई दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की एक मज़बूत पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई. परन्तु 1962 के बाद यह पार्टी टूटने लगी. इस का मुख्य कारण था कि इस पार्टी से उस समय की सब से मज़बूत राजनैतिक पार्टी कांग्रेस को महाराष्ट्र में खतरा पैदा हो रहा था. इस पार्टी की एक बड़ी कमजोरी थी कि इसकी सदस्यता केवल महारों तक ही सीमित थी. कांग्रेस के नेताओं ने इस पार्टी के नेताओं की कमजोरियों का फायदा उठा कर पार्टी में तोड़फोड़ शुरू कर दी. सब से पहले उन्होंने पार्टी के सब से शक्तिशाली नेता दादा साहेब गायकवाड़ को पटाया और उन्हें राज्य सभा का सदस्य बना दिया. इस पर पार्टी दो गुटों में बंट गयी: गायकवाड़ का एक गुट कांग्रेस के साथ और दूसरा बी.डी. खोब्रागडे गुट विरोध में. इस के बाद अलग नेताओं के नाम पर अलग गुट बनते गए और वर्तमान में यह कई गुटों में बंट कर बेअसर हो चुकी है. इन गुटों के नेता रिपब्लिकन नाम का इस्तेमाल तो करते हैं परन्तु उन का इस पार्टी के मूल एजंडे से कुछ भी लेना देना नहीं है. वे अपने अपने फायदे के लिए अलग पार्टियों से समझौते करते हैं और यदाकदा व्यक्तिगत लाभ भी उठाते हैं. 

आरपीआई के पतन के बाद उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के नाम से 1984 में एक पार्टी उभरी जिस ने बाबा साहेब के मिशन को पूरा करने का वादा किया. शुरू में इस पार्टी को कोई ख़ास सफलता नहीं मिली. बाद में 1993 में उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों की समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ मिल कर चुनाव लड़ने से इस पार्टी को अच्छी सीटें (67) मिलीं और एक सम्मिलित सरकार बनी. परन्तु कुछ व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण जल्दी ही इसका पतन हो गया. इस पार्टी के नेता कांशीराम ने सत्ता पाने के लालच में दलितों की घोर विरोधी पार्टी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से समझौता करके मुख्य मंत्री की कुर्सी हथिया ली परन्तु बाबा साहेब के मिशन और सिद्धांतों को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी. इस के बाद पार्टी ने दो बार फिर भाजपा से गठबंधन किया और सत्ता सुख भोगा और अब अपने पतन की ओर अग्रसर है. इस पार्टी ने अवसरवादी, ब्राह्मणवादी, माफियायों और पूंजीपति तत्वों को पार्टी में शामिल करके दलितों को मायूस किया और उन्हें राज्य से मिलने वाले कल्याणकारी लाभों से वंचित कर दिया. इस के नेतृत्व के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार, तानाशाही और अदूरदर्शिता से बाबा साहेब के नाम पर दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की बनी एकता छिन्न-भिन्न हो गयी है. आज दलितों का एक बड़ा हिस्सा इस पार्टी से टूट कर हिन्दुत्ववादी भाजपा के साथ चला गया है. दलितों की एक प्रमुख जाति चमार/जाटव को छोड़ कर दलितों की शेष उपजातियां अधिकतर भाजपा की तरफ चली गयी हैं. भाजपा इन जातियों का इस्तेमाल दलितों और मुसलामानों के बीच टकराव करवाने के लिए कर रही है. इस से हिंदुत्व मज़बूत हो रहा है और बहुसंख्यकवाद उग्र होता जा रहा है.

उपरोक्त विवेचन से एक बात बहुत स्पष्ट है कि डॉ. आंबेडकर जाति की राजनीति के कतई पक्षधर नहीं थे क्योंकि इस से जाति व्यवस्था मजबूत होती है. इस से हिंदुत्व मजबूत होता है जो कि जाति व्यवस्था की उपज है. डॉ. आंबेडकर का लक्ष्य तो जाति का विनाश करके भारत में जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना करना था. डॉ. आंबेडकर ने जो भी राजनैतिक पार्टियाँ बनायीं वे जातिगत पार्टियाँ नहीं थीं क्योंकि उन के लक्ष्य और उद्देश्य व्यापक थे. यह बात सही है कि उनके केंद्र में दलित थे परन्तु उन के कार्यक्रम व्यापक और जाति निरपेक्ष थे. वे सभी कमज़ोर वर्गों के उत्थान के लिए थे. इसी लिए जब तक उन द्वारा स्थापित की गयी पार्टी आरपीआई उन के सिद्धांतों और एजंडा पर चलती रही तब तक वह दलितों, मजदूरों और अल्पसंख्यकों को एकजुट करने में सफल रही. जब तक उन में आन्तरिक लोकतंत्र रहा और वे जन मुद्दों को लेकर संघर्ष करती रही तब तक वह फलती फूलती रही. जैसे ही वह व्यक्तिवादी, अवसरवादी और जातिवादी राजनीति के चंगुल में पड़ी उसका पतन हो गया.

अतः यदि वर्तमान में विघटित दलित राजनीति को पुनर्जीवित करना है तो दलितों को जातिवादी राजनीति से निकल कर व्यापक मुद्दों की राजनीति को अपनाना होगा. जाति के नाम पर राजनीति करके व्यक्तिगत स्वार्थसिद्धि करने वाले नेताओं से मुक्त होना होगा. उन्हें यह जानना चाहिए कि जाति की राजनीति जाति के नायकों की व्यक्ति पूजा को मान्यता देती है और तानाशाही को बढ़ावा देती है. जाति की राजनीति में नेता प्रमुख हो जाते हैं और मुद्दे गौण. अब तक के अनुभव से यह सिद्ध हो चुका है कि जाति की राजनीति से जाति टकराव और जाति स्पर्धा बढ़ती है जो कि जातियों की एकता में बाधक है. इसी के परिणामस्वरूप दलितों की कई छोटी उपजातियां बड़ी उपजातियों से प्रतिक्रिया स्वरूप अपनी दुश्मन हिन्दुत्ववादी पार्टी से जा मिली हैं जो कि दलित एकता के लिए बहुत बड़ा खतरा है. अतः इस खतरे के सम्मुख यह आवश्यक है कि दलित वर्ग अपनी राजनैतिक पार्टियों और राजनेताओं का पुनरमूल्यांकन करे और जाति की विघटनकारी राजनीति को नकार कर जनवादी, प्रगतिशील और मुद्दा आधारित राजनीति का अनुसरण करे जैसा कि डॉ. आंबेडकर की अपेक्षा थी. दरअसल अब देश को जातिवादी पार्टियों की ज़रूरत नहीं बल्कि सब के सहयोग से जाति-व्यवस्था विरोधी एक मोर्चे की ज़रूरत है, अन्यथा जातियां मज़बूत होती रहेंगी जिस से जाति और धर्म की राजनीति को पोषण मिलता रहेगा जो वर्तमान में लोकतंत्र के लिए सब से बड़ा खतरा है. 

दलित राजनीति की इसी आवश्यकता को सामने रख कर हम लोगों ने 2013 में आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट का गठन किया था। इस पार्टी के नेतृत्व में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों, अति पिछड़ों एवं महिलायों को प्रमुखता दी गई है। इसका मुख्य ध्येय संत रविदास की बेगमपुरा की अवधारणा को मूर्तरूप देना है। यह पार्टी धर्म निरपेक्षता एवं लोकतंत्र की पक्षधर है। हमारा प्रयास एक बहुवर्गीय पार्टी बनाने का है ताकि इसमें विभिन्न विचारधारा के बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पार्टियां शामिल हो सकें और वर्तमान में भाजपा/ आरएसएस के हिन्दुत्व एवं कारपोरेट के सहयोग से वित्तीय पूंजी के अधिनायकवाद को रोका जा सके।

    

 

गुरुवार, 3 जून 2021

बीआर अंबेडकर एक सिद्धांतकार थे': कांशीराम का अभिमान और बसपा सिर्फ उत्तर भारत की पार्टी क्यों बनी रही

बीआर अंबेडकर एक सिद्धांतकार थे': कांशीराम का अभिमान और बसपा सिर्फ उत्तर भारत की पार्टी क्यों बनी रही

इस तुलना, जिसने किसी को संदेह नहीं किया कि वह दलितों का बड़ा नेता कौन था, ने उत्तर भारत में उदासीनता पैदा की, लेकिन आंध्र प्रदेश से गंभीर शत्रुता का सामना करना पड़ा।

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अ जय सिंह 14 अप्रैल, 2017 11:24:19 IST

(अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद- एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट। इस घटना ने कांशीराम के दक्षिण भारत में बसपा के विस्तार को रोक दिया क्योंकि वहाँ के दलित कांशीराम के अंबेडकर से बड़ा होने के दावे न केवल नाराज हुए बल्कि उन्होंने कांशी राम को ही नकार दिया। )

(संपादक का नोट: यह लेख पहली बार 25 जनवरी, 2016 को हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या से उठाए गए राजनीतिक तूफान के मद्देनजर प्रकाशित हुआ था। रोहित वेमुला की दलित विरासत को हथियाने के लिए सभी राजनीतिक दलों ने विश्वविद्यालय के लिए एक लाइन की, बिना इस बात की परवाह किए कि रोहित जैसे अम्बेडकरवादी क्या खड़े हैं और इसके लिए लड़ते हैं। अम्बेडकर की १२६वीं जयंती पर यह लेख एक और महत्वपूर्ण कारण की याद दिलाता है। बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम दलित-अधिकार क्षेत्र में सबसे सफल राजनीतिक रणनीतिकार हैं। वह एक अखिल भारतीय दलित नेता बनने के लिए तैयार लग रहा था। लेकिन एक गंभीर गलती की। उसे लगा कि वह अंबेडकर से बड़ा हो गया है।

"अम्बेडकर के बारे में बकवास बात करना बंद करो"।

1994 के अंत की बात है जब बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम को हैदराबाद में अपने पार्टी कैडर से यह गुस्सा और कड़ा तार मिला।

वे कांशीराम के लिए प्रमुख दिन थे। पिछले साल ही उन्होंने उत्तर प्रदेश के चुनावी क्रूसिबल में अपने सोशल-इंजीनियरिंग मॉडल का परीक्षण किया था और भारत की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया था। विधानसभा में 67 सीटों के साथ, भाजपा और सपा के बाद तीसरी सबसे बड़ी पार्टी, उन्होंने उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी (109 सीटों) के साथ वरिष्ठ गठबंधन सहयोगी और मुख्यमंत्री के रूप में सरकार बनाई। देश के राजनीतिक इतिहास में पहली बार दलितों की एक पार्टी राज्य सरकार में सत्ता साझा कर रही थी।

कांशीराम को अम्बेडकर के बाद सबसे बड़े दलित नेता के रूप में बताया जा रहा था और, जाहिर है, बसपा को राष्ट्रीय बनाने के लिए उनकी निगाहें थीं। वह विंध्य में विशेष रूप से दक्षिणी भारत में प्रवेश करना चाहता था। उस वर्ष दिसंबर (1994) में आंध्र प्रदेश में चुनाव होने के साथ, उन्होंने तुरंत एक अवसर देखा। ऐसा लगता है कि राज्य में कट्टरपंथी अंबेडकरियों का एक 'तैयार' कैडर भी था, जिन्होंने वामपंथी चरमपंथियों (माओवादियों) के साथ अपने वैचारिक बंधन को तोड़ दिया था।

इस राजनीतिक प्रयोग को लेकर कांशीराम काफी रोमांचित थे। “उन्हें (मुलायम) उत्तर प्रदेश को संभालने दें। मैं दक्षिण भारत पर ध्यान केंद्रित करूंगा, ”लखनऊ की उनकी लगातार यात्राओं पर उनके साथ हुई कई बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे बताया। लेकिन हैदराबाद के उस संक्षिप्त तार ने कांशीराम को स्पष्ट कर दिया कि वह दलितों के एक बहुत ही अलग झुंड के साथ काम कर रहे थे, जो यूपी के बसपा कैडर के बिल्कुल विपरीत था।

जो हुआ वह सरल था। उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतने के बाद, कांशीराम ने खुद को "अनुसूचित जातियों के व्यावहारिक और एकमात्र जन नेता" के रूप में वर्णित किया और अम्बेडकर को "महारों” के नेता होने तक सीमित एक सिद्धांतवादी" के रूप में वर्णित किया।

यह तुलना, जिसने किसी को संदेह नहीं किया कि वह दलितों का बड़ा नेता कौन था, ने उत्तर भारत में उदासीनता पैदा की, लेकिन आंध्र प्रदेश से गंभीर शत्रुता का सामना करना पड़ा। कांशीराम इस बुरे समय के घमंड को समझाने के लिए अपनी बुद्धि के अंत में थे। उन्होंने यह कहकर इसे दूर करने की कोशिश की कि उनका मतलब अम्बेडकर के कद को कम करना नहीं था और यहां तक ​​​​कि मुझ पर साक्षात्कार की रिपोर्ट करने के लिए, उनके आंदोलन को कमजोर करने के लिए एक उच्च जाति की साजिश को अंजाम देने का आरोप लगाया।

लेकिन यह धुला नहीं। चुनाव के लिए बसपा के लिए एक बड़ा निर्माण जैसा लग रहा था - कांशी राम को 235 से कम उम्मीदवारों (294 निर्वाचन क्षेत्रों में से) को मैदान में उतारने के लिए प्रोत्साहित करना - एक बहुत ही जल्दी मृत्यु हो गई। न केवल बसपा ने एक भी सीट नहीं जीती, उसने सभी सीटों पर अपनी जमानत खो दी, बल्कि एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि कांशीराम के विंध्य में बसपा का झंडा फहराने का सपना बहुत ही अकाल मृत्यु हो गया।

आंध्र की राजनीति पर कांशीराम के रुके हुए छापे की यह पृष्ठभूमि हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के एक शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या पर उग्र विवाद को देखते हुए याद दिलाती है।

रोहित अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन (एएसए) के सदस्य थे, जो बड़े पैमाने पर अपने कैडर को दलित छात्रों से आकर्षित करता है, जो शुरू में कट्टरपंथी मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे, जो वर्ग शत्रुओं और अज्ञेयवाद का सफाया करने के लिए एक उपकरण के रूप में हिंसा की वकालत करता है। कट्टरपंथी वामपंथ से मोहभंग होने के बाद भी रोहित अंबेडकरवादी बन गए। (रोहित के दोस्त जसवंत जेसी का यह लेख देखें।)

अलग-थलग पड़े कट्टरपंथी मार्क्सवादियों का यह कैडर, अम्बेडकर के "जातियों के विनाश" सिद्धांत से प्रेरित दलित संघों में शामिल होने पर वैचारिक और भावनात्मक बोझ ढोता है। हालांकि अम्बेडकर ने कभी भी राजनीतिक उद्देश्य के लिए हिंसा को एक उपकरण के रूप में बढ़ावा नहीं दिया, आंध्र प्रदेश के अम्बेडकरवादियों को अति-वामपंथ के चतुराई से छिपे हुए विस्तार के रूप में देखा जाता है।

नतीजतन, आंध्र प्रदेश की कैंपस राजनीति में, एएसए का हमेशा भाजपा समर्थित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और कांग्रेस प्रायोजित भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ (एनएसयूआई) के साथ एक विरोधी संबंध रहा है। यही कारण है कि हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में इस समूह के लिए, रोहित के लिए राहुल गांधी की भावनात्मक उच्छृंखलता को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के "भारत माँ ने एक बेटा खो दिया" के विलाप के रूप में देखा जाएगा। रोहित के प्रति सहानुभूति उस उद्देश्य के प्रति एकजुटता से अधिक पाखंड की अभिव्यक्ति है जिसके लिए वह खड़ा था।

 

आंध्र प्रदेश के अम्बेडकरवादियों और सभी प्रकार के मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के बीच शायद ही कोई मिलन स्थल हो। पारंपरिक मार्क्सवादियों को अम्बेडकरवादी उतना ही तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं जितना कि भाजपा या कांग्रेस। हिंदी हृदय भूमि या महाराष्ट्र के अम्बेडकरवादियों के विपरीत, जो मुख्यधारा की राजनीतिक विचारधाराओं के लिए उत्तरदायी हैं, आंध्र प्रदेश के अम्बेडकरवादी अपनी जमीन पर खड़े होने के लिए जाने जाते हैं, भले ही वे अभी भी उत्तर प्रदेश में बसपा जैसे सुसंगत राजनीतिक समूह के रूप में विकसित नहीं हुए हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि रोहित की आत्महत्या ने एक शक्तिशाली प्रतीकवाद को जन्म दिया है जिसे केवल एक महत्वपूर्ण राजनीतिक कीमत पर नजरअंदाज किया जा सकता है। संघ परिवार जो दशकों से दलितों को अपने पाले में पूरी तरह से सहयोजित करता रहा है, वह दलित राजनीति के किसी भी कट्टरपंथ के खिलाफ है, जो उसकी हिंदू एकता के अनुरूप नहीं है। वे (संघ परिवार) उस राजनीति का कड़ा विरोध करेंगे, जिसे रोहित ने प्रतिपादित किया था, लेकिन वे उस प्रतीकवाद को सह-चुनना पसंद करेंगे जो उनकी मृत्यु के बाद यहां प्रतिनिधित्व करता है। चूँकि वह एक संख्यात्मक रूप से शक्तिशाली अल्प-विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में उभरा, जो सभी बाधाओं के खिलाफ अपने दम पर उठने की इच्छा रखता है, उसकी असामयिक मृत्यु राजनीतिक नेताओं के लिए सहानुभूति रखने के लिए एक आकर्षक कहानी बनाती है। रोहित की आत्महत्या के इर्द-गिर्द की कहानी ग्लैमरस और प्रतीकात्मकता से भरी है, कुछ ऐसा जो अन्य दलितों की नियमित मौतों का कहना है, पूरे भारत में गटर में सीवेज क्लीनर का दम घुटना, कुछ ऐसा नहीं जगाता।

यह संभावना नहीं है कि रोहित की आत्महत्या आंध्र प्रदेश के अम्बेडकरवादियों के प्रति मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के दृष्टिकोण में आमूल-चूल परिवर्तन लाएगी। जब तक वे अति-वामपंथ के समान वैचारिक रूप से अपने स्वयं के विश्वासों पर टिके रहेंगे, तब तक उन्हें न केवल भाजपा या कांग्रेस बल्कि क्षेत्रीय दलों और पारंपरिक वामपंथ से भी प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। लेकिन गठबंधनों के माध्यम से उनके धीरे-धीरे आत्मसात होने की गुंजाइश एक चुनावी आकर्षण है जो राजनीतिक दलों को रोहित के प्रतीकवाद में आनंद लेने के लिए एक-दूसरे को पछाड़ने की कोशिश में पागल हो रहा है।

हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय को एक राजनीतिक पिकनिक स्थल बनाना बहुत अच्छा है, लेकिन यह संभावना नहीं है कि आंध्र के अम्बेडकरवादी, जिन्होंने कांशीराम को एक घमंडी अविवेक के लिए इतनी मजबूती से बंद कर दिया था, वे सभी से मिल रहे भव्य ध्यान से आकर्षित होने वाले हैं।  कांशीराम का 1994 का अधूरा एजेंडा अब भी ऐसा ही रहेगा।

साभार: फर्स्ट पोस्ट

 

 

200 साल का विशेषाधिकार 'उच्च जातियों' की सफलता का राज है - जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -

    200 साल का विशेषाधिकार ' उच्च जातियों ' की सफलता का राज है-  जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -   कुणाल कामरा ...