रविवार, 29 जनवरी 2017

दलित राजनीति उलटी दिशा में बढ़ चली है-- प्रो. तुलसी राम, जे.एन.यू

दलित राजनीति उलटी दिशा में बढ़ चली है-    प्रो. तुलसी राम, जे.एन.यू




(जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में प्रोफेसर रहे तुलसीराम का इसी साल फरवरी में निधन हो गया. जीवन के अंतिम छह-सात साल उन्होंने असाध्य पीड़ा में गुजारे. हर हफ्ते उनका दो बार डायलिसिस होता था. पीड़ा के इस दौर में ही उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ लिखी. जीवन के आखिरी दिनों में स्वतंत्र मिश्र ने उनसे आंबेडकर की राजनीति और दर्शन के आईने में दलित राजनीति पर बातचीत की)
देश में दलितों की स्थिति में क्या कोई सुधार आया है?
दलितों से छुआछूत का मामला हो या मंदिर में प्रवेश को लेकर टकराहट या उनसे व्यभिचार की घटनाएं- लगभग हर रोज देश के किसी न किसी कोने से देखने-सुनने को मिल जाती हैं. मंदिर में प्रवेश के मसले पर दलितों की हत्या तक कर दी जाती है. थोड़ी पुरानी बात है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी सरकार के आने के बाद बरेली के पास ही एक गांव में मंदिर में दलितों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया गया था. अखबार और टेलीविजन चैनलों ने इस घटना को छापा-दिखाया. पुजारी मंदिर में ताला लगाकर गांव छोड़कर भाग गया लेकिन पुलिस प्रशासन और सरकारी तंत्र में इसे लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखी.
देश में इस तरह की घटनाओं पर नियंत्रण पाने के लिए बहुत सख्त कानून मौजूद हैं. ‘दलित एक्ट’ के तहत सजा के कठोर प्रावधान किए गए हैं. दलित उत्पीड़न के संदर्भ में उन्हें उचित ढंग से लागू किया जाए तो उसके भय से ही बहुत हद तक ऐसी घटनाओं पर नियंत्रण पाया जा सकेगा. दलित, सवर्णों के रास्ते से गुजर कर न जाएं इसलिए महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में कई जगहों पर बहुत ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी कर दी गईं. अफ्रीका में ‘रंगभेद’ की बातें जब थीं तब वहां काले लोगों के लिए चलने के लिए सड़कों पर अलग लेन होती थीं. उनके लिए दुकानें अलग होती थीं. वे गोरों की दुकानों से अपनी जरूरत का समान नहीं खरीद सकते थे. वे रेलगाडि़यों के सामान्य डिब्बों में यात्रा नहीं कर सकते थे. उनके लिए ट्रेनों में अलग डिब्बे होते थे. पर भारत में यह सब तो आज भी घट रहा है. ‘रंगभेद’ व्यवस्था के खिलाफ पूरी दुनिया एक हो गई थी. भारत भी ‘रंगभेद’ के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था. उस जमाने में अफ्रीका के लिए ‘वीजा’ नहीं मिलता था. मुझे याद है कि उन दिनों मुझे भारत सरकार ने 1980 के आसपास किसी साल में पासपोर्ट जारी किया तो उसपर साफ-साफ लिखा था कि आप दो देशों (अफ्रीका और इजरायल) की यात्रा नहीं कर सकते थे. लेकिन यह सोचकर भी शर्म आती है कि आज 21वीं सदी के भारत में भी ऐसी घटनाएं घट रही हैं! ‘रंगभेद’ के खिलाफ जो माहौल पूरी दुनिया में बना वैसा भारत में ‘जाति-व्यवस्था’ के खिलाफ कभी बन नहीं पाया. ‘रंगभेद’ की जो विशेषताएं थीं, वे सब इस जाति व्यवस्था में पाई जाती हैं. यहां जाति-व्यवस्था के बने रहने की मूल वजह ‘हिन्दू धर्म’ है. धार्मिक व्यवस्था में बदलाव लाए बगैर आप सिर्फ कानून के सहारे सामाजिक या धार्मिक स्तर पर दलित उत्पीड़न खत्म नहीं कर सकते. चाहे इस देश में लेनिन ही क्यों न पैदा हो लें.
मतलब आप यह कहना चाह रहे हैं कि जाति-व्यवस्था या दलित उत्पीड़न को खत्म करने के प्रयास अपने देश में ईमानदारी से नहीं हुए?
मैं आपको थोड़ा पीछे स्वतंत्रता संग्राम में ले जाना चाहूंगा. 1929-30 के आसपास गांधी जी की बाबा साहब अांबेडकर की पहली मुलाकात हुई थी तब उन्होंने आंबेडकर से कहा कि मैंने देश की आजादी का आंदोलन छेड़ रखा है. अांबेडकर ने बहुत दिलचस्प जवाब दिया, ‘मैं सारे देश की आजादी की लड़ाई के साथ उन एक चौथाई जनता के लिए भी लड़ना चाहता हूं जिस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है. आजादी की लड़ाई में सारा देश एक है और मैं जो लड़ाई लड़ रहा हूं, वह सारे देश के खिलाफ है. मेरी लड़ाई बहुत कठिन है.’ औपनिवेशिक सत्ता (अंग्रेजों) के खिलाफ तो सारा देश खड़ा था इसलिए उनका जाना तय था लेकिन देश के लोग अपने ही लोगों के साथ जो भेदभाव बरत रहे हैं तो मेरी लड़ाई तो उनसे भी है. दलितों, पिछड़ों को न तो जमीन रखने का अधिकार था, न ही उन्हें शिक्षा पाने का अधिकार था. वे सदियों से जमींदारों और सामंतों के खेतों और कारखानों में मजदूरी करते चले आ रहे थे. हिंदू धर्म, वर्ण व्यवस्था और जातिगत व्यवस्था की खुलकर वकालत करते हैं. डॉ. अांबेडकर ने सोचा कि यहां जातिगत व्यवस्था का मूल आधार धार्मिक व्यवस्था से ही लड़ना पड़ेगा. संकेत के तौर पर 1927 में डॉ. अांबेडकर ने ‘मनुस्मृति’ को जलाया. यह यहां दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस हिंदू धर्म-ग्रंथ में शूद्रों के बारे में क्या-क्या लिखा गया है. मनुस्मृति के जलाए जाने से हिंदू घबरा उठे.
धार्मिक व्यवस्था में बदलाव लाए बगैर आप सिर्फ कानून के सहारे सामाजिक या धार्मिक स्तर पर दलित उत्पीड़न खत्म नहीं कर सकते. चाहे इस देश में लेनिन ही क्यों न पैदा हो लें.
एक उदाहरण और देना चाहूंगा. अपने देश में दलितों को कुएं और तालाब से पानी नहीं लेने दिया जाता था. महाराष्ट्र में इस भेदभाव से लड़ने के लिए बाबा साहब ने ‘महाड़’ आंदोलन चलाया. जलगांव में एक तालाब के किनारे लाखों की संख्या में दलित जुटे और उन्होंने प्रकृति के पानी पर अपना हक जताया था. बाद में कोंकणी ब्राह्मणों ने उस तालाब के शुद्धिकरण के लिए मंत्रोच्चारण और पूजा-पाठ आयोजित करवाया. इसके विरोध में अांबेडकर ने 12 दलितों का चयन किया और कहा कि तुम इस्लाम स्वीकार कर लो. देश में सनसनी फैल गई. तत्काल ब्राह्मणों ने दलितों के लिए गांव के दो कुएं पानी लेने के लिए खोल दिए. ब्राह्मणों ने इस दबाव में कुएं का पानी लेने की आजादी दलितों को दे दी क्योंकि उन्हें लगा कि उनका धर्म खतरे में पड़ जाएगा. अांबेडकर ने पूना-पैक्ट के समय यह बयान दिया कि वे बौद्ध धर्म अपना लेंगे तो तुरंत पैक्ट पर समझौता हो गया. पूना पैक्ट की वजह से दलितों का बहुत लाभ हुआ. उनका सबलीकरण इस पैक्ट की वजह से ही संभव हो पाया. इसी पैक्ट की वजह से दलितों को आरक्षण आधा-अधूरा ही सही मिल पाया. इसी पैक्ट के नतीजे के चलते दलित समुदाय के लोग मंत्री, मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति भी बन पाए. इसी पैक्ट की वजह से लाखों की संख्या में दलितों के लिए शिक्षा के दरवाजे खुले. इस बारे में प्रसिद्ध कहानीकार चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ का एक लेख है ‘कछुआ धर्म’. वे पंडित थे. हर रोज पूजा-अर्चना करते थे. टीका लगाते थे. उन्होंने अपने लेख में  हिंदू धर्म की बहुत अच्छी व्याख्या की थी. उन्होंने लिखा है, ‘हिंदू धर्म को जब अपने ऊपर खतरा नजर आता है तब वह कछुए की तरह अपनी गर्दन और मुंह अंदर समेट कर मृत के समान निष्क्रिय होने का प्रदर्शन करता है लेकिन जब कोई संकट नहीं दिखता है तब वह गर्दन उठाकर आक्रामक मुद्रा में ऐसे चलता है मानो पूरी दुनिया जीतने निकला हो.’
प्राचीन काल से एक उदाहरण पेश करना चाहूंगा. गौतम बुद्ध ने अपनी शिक्षा और उपदेशों के बल पर जाति-व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा लिया और धर्म-परिवर्तन किया.  बड़ी संख्या में ब्राह्मण ही बौद्धभिक्षु बने. कई राजाओं ने भिक्षुओं के खिलाफ अभियान चलाया. पुष्यमित्र आदि राजाओं ने छोटे-मोटे अभियान चलाए. सबसे जोरदार अभियान बौद्ध-धर्म के खिलाफ 9वीं शताब्दी में शंकराचार्य के समर्थकों ने चलाए. शंकराचार्य और उसके समर्थकों को हिंदू राजाओं का समर्थन था, उन्हें किसी का डर नहीं था तो वे बौद्ध मठों को तोड़ने और भिक्षुओं पर हमले करने लगे. दरअसल, बुद्ध वर्ण व्यवस्था पर चोट कर रहे थे. वे मानव-मानव के बीच वर्ण के आधार पर भेद करने की बात को झुठला रहे थे. वर्ण व्यवस्था की रक्षा और शंकराचार्य का समर्थन पाकर तीसरी सदी में व्यापक स्तर पर हिंदू धर्म-ग्रंथ रचे गए. उससे पूर्व सिर्फ वेदों की रचनाएं ही हुई थीं, जिनका जिक्र बौद्ध ग्रंथों में भी मिलता है. बौद्ध-ग्रंथों में रामायण और महाभारत की चर्चा नहीं मिलती है. बुद्ध के आसपास ही चार्वाक भी हुए जिन्होंने तीन वेद होने की ही बात की है. मतलब साफ है कि सिर्फ तीन वेद ही बुद्ध-चार्वाक के समय तक रचे गए थे. आप गौर करें तो पाएंगे, शंकराचार्य के बाद जिस भी धर्म ग्रंथ की रचना की गई, उनमें वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया गया है.
आप पूना पैक्ट के जरिए दलितों के जीवन में बदलाव आने की बात कर रहे हैं, लेकिन अक्सर यह सुनने को मिलता है किसी भी सरकार ने दलितों के लिए कुछ नहीं किया है. उत्तर प्रदेश के संदर्भ में आपका जबाव चाहूंगा?
हां, सरकारों द्वारा दलितों के विकास के लिए उठाए गए कदम संतोषजनक नहीं कहे जा सकते हैं लेकिन यह कहना कि दलितों के लिए किसी भी सरकार ने कुछ नहीं किया है, एक उग्रवादी किस्म की सोच है. उत्तर प्रदेश हिंदुत्ववादियों का सबसे बड़ा केंद्र रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि बहुत सारी धार्मिक नदियां उत्तर प्रदेश से होकर गुजरती हैं इसलिए इस प्रदेश का सबसे ज्यादा सांप्रदायीकरण हुआ है. गंगा का सबसे बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश में है. कुंभ का आयोजन इलाहाबाद में होता है. ज्योतिर्लिंग बनारस में है. मेरे कहने का मतलब यह है कि उत्तर प्रदेश हिंदुत्व को उर्वर भूमि प्रदान करने का काम करती रही है. यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश में कुछ भी घटित होता है तो उसका असर दूसरे राज्यों पर जरूर पड़ता है. इसलिए मेरा मानना है कि अगर उत्तर प्रदेश में जाति-व्यवस्था को कमजोर कर दिया जाए तो उसका असर पूरे देश पर पड़ेगा.
मायावती या कोई दलित हजार बार भी मुख्यमंत्री बन जाए, उससे दलितों के जीवन में परिवर्तन नहीं आनेवाला. परिवर्तन सामाजिक आंदोलन के दबाव के फलस्वरूप ही आ पाएगा
कांशीराम -मायावती का आंदोलन और खासकर मायावती का उत्तर प्रदेश की सत्ता में आसीन होने का असर दलितों की जिंदगी बदलने में कितना हो पाया है?
जाति-व्यवस्था के खिलाफ सामाजिक आंदोलन चलाए गए थे. वह बुद्ध, ज्योतिबा फुले से लेकर आंबेडकर तक चलता चला आ रहा है. आंबेडकर के बाद जो भी दलित आंदोलन हुए उसकी सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि सभी दलित नेतृत्व अपनी-अपनी अलग-अलग डफली पीटते चले गए. खुद आंबेडकर द्वारा खड़ी की गई रिपब्लिकन पार्टी भी बाद के दिनों में चार भागों में बंट गई. उसका एक भाग रामदास अठावले के नेतृत्व में पहले शिवसेना और बाद में भाजपा में शामिल हो चुका है. आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में शामिल हो गए. एक भाग में योगेंद्र कबाड़े थे, वे अब भाजपा में हैं. रिपब्लिकन पार्टी के एक भाग के नेता आरएस गंवई थे जो कांग्रेस में शामिल हो गए. कुछ दिनों तक वे केरल के राज्यपाल भी रहे. आंबेडकर के बाद उनकी पार्टी विखंडित हुई और उसका अधिकांश हिस्सा दक्षिणपंथी पार्टियों में शामिल होता चला गया. निश्चित तौर पर इससे सामाजिक न्याय की लड़ाई कमजोर हुई. दलित राजनीति में निर्वात-सा बन गया. उसका फायदा निश्चित तौर पर कांशीराम को मिला.
कांशीराम ने शुरू में यह तय किया कि दलितों को सबसे पहले सामाजिक तौर पर चेतना संपन्न किया जाए. 1960-80 तक उन्होंने चुनाव लड़ने की बात नहीं की थी. इस दलित राजनीति का मूलाधार बामसेफ पार्टी रही. कांशीराम ने सामाजिक जागृति के लिए बहुत मेहनत की. वे गली-गली साइकिल पर घूमते थे. उत्तर प्रदेश में इस आंदोलन का असर बहुत पड़ा. उन्होंने दलितों को अपने आंदोलन से बड़ी संख्या में जोड़ा. दलितों को संगठित करने के बाद उन्होंने राजनीति में उतरने की बात की जिसके चलते बामसेफ भी कई भागों में बंट गया. कांशीराम से अलग हुए दूसरे दल सामाजिक जागृति फलाने की बात पर जोर देने की बात कर रहे थे. आंबेडकर ने सामाजिक बदलाव कोई मंत्री पद पर रहते हुए नहीं किया था. सामाजिक आंदोलनों के जरिए जो परिवर्तन समाज में आता है, वह स्थायी भाववाला होता है.
मतलब आप यह कह रहे हैं कि सामाजिक परिवर्तन की बात मायावती तक आते-आते पीछे छूट गई?
सामाजिक परिवर्तन पीछे ही नहीं छूटा बल्कि उलटी दिशा में चल पड़ा. कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की नींव रखी और राजनीति में पूरी तरह उतर गए. सामाजिक आंदोलन से जो दबाव समाज में बनता था, वह दबाव बनना खत्म हो गया और जिसके चलते दलित उत्पीड़न की घटनाओं में लगातार इजाफा हुआ, इसे साफ-साफ महसूस किया जा सकता है. गांधी और आंबेडकर की जब बातचीत हो रही थी तब उन्होंने  साफ-साफ कहा था कि सामाजिक आंदोलनों का राजनीतिक आंदोलनों पर वर्चस्व होना चाहिए. राजनीतिक आंदोलन के चलते सत्ता तो मिल जाएगी लेकिन समाज में बदलाव नहीं आ पाएगा इसलिए यदि समाज बदलना है तो सामाजिक आंदोलन बहुत जरूरी हैं.
क्या आप यह कहना चाह रहे हैं कि कांशीराम और मायावती द्वारा सामाजिक आंदोलन को अचानक बंद करके राजनीति शुरू कर देने से समाज में बदलाव की दिशा में निर्वात की स्थिति बन गई?
जी हां, बहुत बड़ा निर्वात बन गया और अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो आज दलितों की स्थिति कई गुणा ज्यादा बेहतर होती. मैं यह कतई नहीं कह रहा हूं कि दलितों को राजनीति में नहीं आना चाहिए. मैं यह कहना चाह रहा हूं कि सामाजिक आंदोलन से मानस में बदलाव आता है और इसका असर दलित ही नहीं बल्कि गैर-दलितों पर भी देखा जा सकता है. कांशीराम के राजनीति में आने के फैसले से दलितों की सामाजिक स्थिति में जो सुधार दर्ज किया जा रहा था,  वह उलटी दिशा में चल पड़ा.
क्या इस परिस्थिति से जो सामाजिक दबाव बनने लगा था वह अब नहीं बन पा रहा है. क्या इसकी वजह से भी दलितों के उत्पीड़न के मामलों में बढ़ोतरी हो रही है?
देखिए, कांशीराम-मायावती ने जब तक सामाजिक आंदोलन छेड़े रखा था तब तक हर राजनीतिक पार्टी इस दबाव में काम करती थी कि बिना दलित को साथ लिए चुनाव जीतना मुश्किल होगा. लेकिन मायावती के राजनीति में आते ही ब्राह्मण सत्ता के केंद्र में आ गए. ब्राह्मणों के बारे में यह गुणगान होने लगा कि वे हाशिये पर चले गए हैं. उनकी स्थिति खराब हो गई है. मैं यहां किसी खास व्यक्ति के बारे में बात नहीं कर रहा हूं. ब्राह्मण का मतलब व्यवस्था से मानता हूं. कांशीराम पहले ‘तिलक, तराजू और तलवार…’ का नारा लगाते थे लेकिन राजनीति में आते ही वे ‘हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ के नारे लगाने लगे. ब्रह्मा, विष्णु और महेश के खिलाफ अांबेडकर पूरा जीवन लड़ते रहे. कांशीराम और मायावती ने इसे उलट दिया.
कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी के निर्माण के बाद एक और खतरनाक कदम उठाया था. उन्होंने कहा कि अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो और इसी से कल्याण होगा. इसके बाद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों की अलग-अलग जातियों के सम्मेलन होने लगे. लेकिन कांशीराम और मायावती भूल गए कि जातियों के मजबूत होने से जाति-व्यवस्था कैसे टूटेगी? इससे हरेक जाति का गौरव भड़क उठा और सामाजिक बदलाव और जाति-व्यवस्था के खिलाफ चल रहे आंदोलन को जोरदार झटका लगा. राजनीति में जातीय धुव्रीकरण बड़े पैमाने पर होने लगा. जातियों के नाम पर अलग-अलग जाति के गुंडे ध्रुवीकरण की वजह से जीतकर नगरपालिका से लेकर विधानसभा और संसद तक में पहुंचने लगे. आज राजनीति का चेहरा जातीय ध्रुवीकरण की वजह से ज्यादा विद्रूप हो गया है. इसकी वजह से देश में लोकतंत्र नहीं जातियां फल-फूल रही हैं. अब पार्टियां नहीं जातियां सत्ता में आने लगी हैं. कांशीराम-मायावती ने सभी जातियों के लोगों से मंत्री पद देने का वायदा किया. सत्ता में आने के बाद मायावती ने ऐसा किया भी लेकिन सभी सुख-सुविधा पाने के बाद भी उन जातियों के लोगों ने पांच साल के भीतर ही इन्हें लात मारकर किनारा कर लिया. मतलब यह है कि आप जाति-व्यवस्था खत्म करने की लड़ाई को मजबूत नहीं करेंगे और जातियों को मजबूत करने की बात करेंगे तो इससे दलित विरोधी शक्तियां ही मजबूत होंगी. बसपा के शासनकाल में तमाम जातियां दलित विरोधी शक्तियों के रूप में खड़ी हो गईं.
कांशीराम पहले ‘तिलक, तराजू और तलवार’ का नारा लगाते थे लेकिन राजनीति में आते ही वे ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु और महेश है’ के नारे लगाने लगे.
यह अक्सर आरोप लगाया जाता है कि दलित चिंतक, दलित नेतृत्व ही दलित महिलाओं की उपेक्षा करते हैं.वे ही उन्हें आगे नहीं आने देना चाहते हैं.
जी, आप बिल्कुल सही कह रहे हैं. बाबा साहेब ने अपने आंदोलन के जरिए यह कोशिश की थी कि दलित महिलाएं आगे आएं. वे दलित महिलाओं के साथ हिंदू महिलाओं को भी आगे लाने की बात कर रहे थे. इसलिए 1951 में वह हिंदू कोड बिल लेकर आए. हिंदू कोड बिल, सवर्ण महिलाओं को पिता की संपत्ति में अधिकार देने और दहेज प्रथा आदि जैसी कुरीतियों के खिलाफ लाया गया. लेकिन उस समय बनारस, इलाहाबाद और देश के दूसरे हिस्सों के साधू-संन्यासी गोलबंद होकर बिल के विरोध में उठ खड़े हो गए. बिल को स्वीकृति नहीं मिल पाई. दलित पुरुष नेता तो कई उभरे लेकिन महिला नेतृत्व नहीं उभर पाया. बाबा साहब की मृत्यु आजादी के चंद वर्षों बाद ही हो गई. उसके बाद जगजीवन राम आए तो उन्होंने भी दलित महिलाओं को नेतृत्व दिलाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया. उनकी मृत्यु के बाद उनकी बेटी मीरा कुमार राजनीति में आईं जरूर लेकिन उन्हें यह विरासत में मिली. उन्हें राजनीति संघर्ष के रास्ते से नहीं मिली है. रिपब्लिकन पार्टी के चारों धड़े जिसका मैंने पहले जिक्र किया उसमें से कोई महिला नेतृत्व सामने नहीं आया. मायावती ने तो हद ही कर दी. उसके नेतृत्व में कोई दलित पुरुष तो छोडि़ए, कोई दलित महिला भी आगे नहीं आ पाई. दलित राजनीति में मायावती को छोड़कर कोई दूसरी महिला नजर नहीं आती हैं. मायावती खुद चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं लेकिन किसी दूसरी दलित महिला को उन्होंने आगे नहीं आने दिया. मायावती की सामंती सोच देखिए कि उन्होंने पांच-छह वर्ष पहले अपना उत्तराधिकारी घोषित करने की बात की थी. उन्होंने यह भी कहा था, ‘मैं अपने उत्तराधिकारी का नाम एक लिफाफे में बंद करके जाऊंगी. मेरे मरने के बाद लिफाफा खोला जाएगा.’ मैं इस बात का जिक्र सिर्फ इसलिए कर रहा हूं ताकि आनेवाली पीढ़ी दलित राजनीति में महिलाओं की स्थिति को समझ सके और उसे दुरुस्त करने की कवायद में लगे. दलित राजनीति में सफल पुरुष ने अपनी पत्नी को गृहणी बनाकर रखना पसंद किया. यह स्त्रीविरोधी मानसिकता है और यह भी उसी धर्म व्यवस्था की देन है. इसकी शिकार दूसरी पार्टियां भी रही हैं. महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का मामला दसियों साल से लटका पड़ा है. स्त्री विरोधी मानसिकता को मीडिया और सिनेमा भी बढ़ावा दे रहे हैं. पतियों की पूजा कीजिए और यह इच्छा कीजिए कि वह आपको बराबरी का दर्जा देगा, परस्पर विरोधी बातें हैं. कर्मकांडी व्यवस्था को खत्म किए बगैर स्त्रियों का कभी भी भला नहीं हो सकता है.
साभार: तहलका हिंदी

वोट किसे दें ?- डॉ. आंबेडकर

 वोट किसे दें ?- डॉ. आंबेडकर 
 एक नौजवान  ने डॉ. आंबेडकर से यह पूछा कि जब सभी राजनीतिक पार्टियों का चरित्र और नीतियाँ एक जैसी ही हैं  तो वोट किसे देना चाहिए? इस पर डॉ. आंबेडकर ने कहा कि आप को पार्टी को भूल कर केवल अच्छे उम्मीदवार को वोट देना चाहिए। 
मेरे विचार में वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में डॉ. आंबेडकर की यह नसीहत बहुत कारगर सिद्ध हो सकती है। यदि यह सफल होता है तो सभी राजनितिक पार्टियाँ अच्छे लोगों को टिकट देने के लिए बाध्य हो जाएँगी। 

शनिवार, 7 जनवरी 2017

कितनी मुस्लिम हितैषी है मायावती?

कितनी मुस्लिम हितैषी है मायावती?
-एस.आर. दारापुरी, भूतपूर्व पुलिस महानिरीक्षक एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
माह फरवरी, 2017 में होने वाले विधान सभा चुनाव में मायावती ने मुसलामानों का वोट प्राप्त करने के लिए उन्हें 97 टिकट दिए हैं. इस वार मायावती दलित-मुस्लिम कार्ड खेलने की कोशिश कर रही है. अतः यह देखना ज़रूरी है कि मायावती ने अपने चार वार के मुख्य मंत्री काल में मुसलमानों का कितना कल्याण किया था. यह भी ज्ञातव्य है कि मायावती इससे पहले तीन वार मुसलमानों की धुरविरोधी पार्टी भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन करके सरकार बना चुकी है. आगे भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ज़रुरत पड़ने पर वह भाजपा से फिर हाथ नहीं मिलाएगी. इतना ही नहीं 2002 में मायावती ने गुजरात जा कर मोदी के पक्ष मे चुनाव प्रचार किया था और मोदी को 2000 से अधिक मुसलमानों की हत्याएं करवाने के मामले में क्लीन चिट भी दी थी.
 पिछले दिनों आजमगढ़ रैली में मुसलमानों को फुसलाने के लिए मायावती ने कहा था कि “ निर्दोष मुसलमानों को आतंक के मामलों में झूठा फंसाया जाता है.” मायावती के मुसलमानों के बारे में पूर्व रिकार्ड को देखते हुए मायावती का यह कथन केवल चुनावी जुमला ही है. यह सर्वविदित है कि मायावती के 2007 वाले मुख्य मंत्री काल में ही सब से अधिक निर्दोष मुसलमान निम्नलिखित बम बिस्फोटों के मामलों में फंसाए गए थे: (1) तीन बम  विस्फोट, गोरखपुर. 22 मई, 2007, (2) वाराणसी कचेहरी विस्फोट, 23 नवम्बर, 2007,  (3) फैजाबाद कचेहरी विस्फोट, 23 नवम्बर, 2007 तथा (4) लखनऊ कचेहरी विस्फोट, 23 नवम्बर, 2007.
इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि 2008 में जब आतंक के मामलों में इंडियन मुजाहिदीन ग्रुप के कुछ लोग अन्य राज्यों में पकड़े गए थे तो उन्होंने ने यह स्वीकार किया था कि उत्तर प्रदेश में उक्त बम बिस्फोट उन्होंने किये थे. इस की सूचना उत्तर प्रदेश पुलिस को भी प्राप्त हो गयी थी परन्तु उस से पहले उत्तर प्रदेश पुलिस इन मामलों में दूसरे लोगों को पकड़ कर जेल भेज चुकी थी. होना तो यह चाहिए था कि उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा इन निर्दोष लोगों को जमानत पर छुड़वा देना चाहिए था और सही मुजरिमों को पकड़ना चाहिए था. परन्तु ऐसा नहीं किया गया. इन्हीं निर्दोष लोगों में खालिद मुजाहिद भी था जिस की बाद में फैजाबाद से बाराबंकी अदालत में पेशी पर लाते समय हत्या कर दी गयी थी. इन आरोपों में बंद किये गए कुछ लोग हाल में छूट गए हैं और अधिकतर अभी भी जेलों में सड़ रहें हैं. अतः आजमगढ़ रैली में मायावती का कथन अगर सही है तो इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेवार मायावती ही है.
इसी तरह जब 2007 में मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री बनी थी तो उसी काल में दिल्ली में बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ हुयी थी जिस में आजमगढ़ के तीन लड़के मारे गए थे और आजमगढ़ को आतंक की नर्सरी घोषित किया गया था. इस पर जब उत्तर प्रदेश पुलिस के बारे में यह कहा जाने लगा कि दूसरे राज्यों की पुलिस उत्तर प्रदेश से आतंकियों को गिरफ्तार करके ले जा रही है परन्तु उत्तर प्रदेश पुलिस कुछ नहीं कर रही है तो इस पर उत्तर पुलिस ने भी बाटला हाउस जैसी फर्जी मुठभेड़ करने की योजना बनाई. इसमें 4/5 अक्तूबर, 2007 की रात में सेना और पुलिस द्वारा मिल कर सेना के कार्यालय पर लखनऊ छावनी में फर्जी आतंकी हमला दिखाने की योजना बनाई गयी. इस मुठभेड़ में सेना और पुलिस को शामिल होना था और दो कश्मीरी आतंकवादियों को मार गिराया जाना था. किसी तरह इस षड्यंत्र की खबर सामाजिक कार्यकर्त्ता संदीप पांडे को मिल गयी जिस पर उन्होंने एक सेवा निवृत पुलिस महानिदेशक से इसे रुकवाने का अनुरोध किया जिन्होंने  इस बारे में तत्कालीन पुलिस महानिदेशक से बातचीत की और उक्त फर्जी मुठभेड़ को रुकवाने के लिए कहा. इस पर उक्त फर्जी मुठभेड़ रुक गयी क्योंकि संदीप पांडे जी ने इसके बारे में रात में ही प्रेस को भी सूचित कर दिया था. बाद में इस बारे में पूछताछ करने के लिए संदीप पांडे को एटीएस मुख्यालय में बुलाया गया तो मैं भी उनके साथ गया था. इस प्रकार उस समय लखनऊ में भी संदीप पांडे के उद्यम से आतंक के नाम पर दो कश्मीरी लड़कों को फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने की घटना टल गयी और उत्तर प्रदेश का माहौल बिगड़ने से बच गया. यह बहुत खेद की बात है कि जिन दो कश्मीरी लड़कों को लखनऊ में फर्जी मुठभेड़ में मारा जाना था बाद में उन्हे 25 जनवरी, 2008 को दिल्ली गाज़ियाबाद बार्डर पर फर्जी मुठभेड़ कर मार गिराया गया. इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मुख्य मंत्री के रूप में मायावती ने मुसलमानों को कितनी सुरक्षा और न्याय दिया था. क्या मायावती के सख्त प्रशासन की यही परिभाषा है?
मायावती के मुख्य मंत्री काल में ही 6 फरवरी, 2010 को सीमा आज़ाद और उसके पति को इलाहाबाद में माओवादी होने के आरोप में गिरफतार किया गया और उन पर अन्य आरोपों के साथ साथ देश द्रोह का आरोप भी लगाया गया. सीमा आज़ाद एक पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्त्ता भी है. सीमा आज़ाद पीयूसीएल उत्तर प्रदेश की संगठन सचिव भी है. उसने इलाहाबाद में बालू का अवैध खनन करने वाले माफिया के खिलाफ जंग छेड़ रखी थी. सीमा ने मायावती के प्रिय प्रोजेक्ट गंगा-एक्सप्रेस के लिए जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण का भी कड़ा विरोध करवाया था. इस कारण तथा रेत माफिया के इशारे पर सीमा आज़ाद को माओवादी कह कर गिरफ्तार किया गया. उसे कई साल तक जेल में रहना पड़ा और जिला न्यायालय ने सीमा आजाद और उसके पति को उम्र कैद की सजा सुना दी है जिस के विरुद्ध हाई कोर्ट में अपील चल रही है. इस घटना से भी आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मायावती ने मुसलामानों के साथ साथ खनन माफिया के इशारे पर किस तरह सामाजिक कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित किया है. सीमा आज़ाद के मामले में जब पीयूसीएल के एक प्रतिनिधि मंडल जिस में मैं भी शामिल था ने मायावती के उस समय के चहेते अपर पुलिस महानिदेशक (अपराध) जो अब उसे छोड़ कर दूसरे खेमे में चले गए हैं, से मिलने के लिए समय माँगा तो उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि आप लोग तो माओवादियों की हिमायत करते हैं.
आतंकवाद के मामले में मायावती की हिन्दू आतंकवादियों से सहानुभूति की सब से बड़ी मिसाल कानपुर में बम विस्फोट की घटना है. इस घटना में बजरंग दल के दो कार्यकर्त्ता बम बनाते समय मारे गए थे.  यह घटना 23 अगस्त, 2008 की है जब पियूष मिश्रा और भूपिंदर सिंह कानपुर के कल्यानपुर क्षेत्र स्थित एक होस्टल में बम्ब बनाते समय मारे गए थे. मौके से बम बनाने का बहुत सा सामान भी मिला था. इस मामले में पुलिस ने इसे केवल एकल घटना मान कर इस के पीछे के गिरोह का पता लगाने का कोई प्रयास नहीं किया. बाद में जब मैं ने संदीप पांडे के साथ कानपुर जाकर इस मामले की जांच की तो पाया कि उक्त विस्फोट के एक दो दिन बाद ही जन्माष्टमी का त्यौहार था और मृतकों का इरादा उक्त अवसर पर कानपुर के सबसे बड़े हिन्दू मंदिर में बम विस्फोट करके मुसलामानों के विरुद्ध माहौल पैदा करना था. यह सर्वविदित है कि कानपुर हिन्दू आतंकवादियों का गढ़ रहा है. कानपुर के ही दयानंद पांडे मालेगांव बम ब्लास्ट के मुख्य आरोपी हैं. इस घटना से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ एक तरफ मायावती के मुख्य मंत्री काल में बहुत बड़ी संख्या में निर्दोष मुसलामानों को आतंकी घटनाओं में फर्जी फंसाया गया वहीँ उसी काल में हिन्दू आतंकवादियों के प्रति कितनी नरमी दिखाई गयी.
अतः उपरोक्त संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट है कि अब जो मायावती यह कह रही है कि निर्दोष मुसलमानों को आतंक के मामलों में झूठा फंसाया जाता है उसके लिए वह स्वयं सब से अधिक दोषी है क्योंकि उस के समय में ही उत्तर प्रदेश में सब से अधिक निर्दोष मुसलमान युवक आतंक के मामलों में फंसाए गए थे. उन में से खालिद मुजाहिद की तो पुलिस कस्टडी में हत्या भी कर दी गयी थी. मायावती के शासन काल में केवल मुसलमान ही नहीं बल्कि जनता के हित में लड़ने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी मायोवादी कह कर जेलों में डाला गया था. इस समय मायावती जो कह रही है है अगर वह सही है तो मायावती को इसका अपने समय का हिसाब भी देना होगा.    


मायावती कितनी दलित हितैषी?

      मायावती कितनी दलित हितैषी?
      - एस.आर. दारापुरी, आई.पी.एस.(से.नि) एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
मायावती जी ! पिछले दिनों आप ने दलितों को मोदी जी के जुमलों से सावधान रहने की हिदायत की थी. मोदी जी के जुमलों से तो दलित सावधान हैं ही पर उन्हें आप के दलित प्रेम से भी बहुत सावधान रहने की ज़रुरत है. क्योंकि....
* आप भी तो आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की वकालत करती हैं जिस से दलितों और पिछड़ों के जाति आधारित आरक्षण पर उँगलियाँ उठती हैं.
* आप भी पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने की वकालत करती रही हैं. आप पूर्व में इस सम्बन्ध में विधान सभा से बिल पारित करा कर केंद्र सरकार को भेज चुकी हैं. यह अलग बात है कि केंद्र सरकार ने उसे रद्द कर दिया था.
* आप ने पांच साल (2007-12) में मुख्य मंत्री रहते हुए अनुसूचित जातियों के पदोन्नति में आरक्षण की बहाली हेतु इलाहबाद हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट में मामले की उचित पैरवी नहीं की जिस के फलस्वरूप हजारों दलित अधिकारियों को पदावनत होना पड़ा.
* आप ने ही 2001 में मुख्य मंत्री के रूप में उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति/ जन जाति अत्याचार निवारण अधिनियम के लागू करने पर रोक लगा दी थी जिससे दलितों का भारी नुक्सान हुआ. आपके इस आदेश के कारण दलितों के उत्पीडन के मामले इस एक्ट के अंतर्गत दर्ज नहीं हुए जिस के फलस्वरूप न तो उन्हें कोई मुयाव्ज़ा मिल सका और न ही दोषियों को दण्डित किया जा सका.
* आप ने ही कांशी राम जी के प्रयासों से बनायीं गयी फिल्म "तीसरी आज़ादी" तथा रामास्वामी नायकर द्वारा लिखी पुस्तक "सच्ची रामायण" पर रोक लगा दी थी.
* आप ने ही स्पोर्ट्स कालेज में दलितों के आरक्षण का कुछ सवर्णों द्वारा विरोध करने पर उसे रद्द कर दिया था.
* आप ने ही सरकारी विद्यालयों में कुछ विद्यार्थियों द्वारा मध्यान्ह भोजन में कुछ दलित रसोईयों द्वारा बनाये गए भोजन का बहिष्कार करने पर दोषियों को दण्डित करने की बजाये दलितों रसोईयों  की नियुक्ति सम्बन्धी आदेश को ही रद्द कर दिया था जो कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना थी. इससे विद्यालयों में दलित रसोईयों की नियुक्तियां बंद हो गयीं और सरकारी सकूलों में छुआछूत को बढ़ावा मिला.
* आप ने ही दलितों के आवास की भूमि को उनके पक्ष में नियमित किये जाने के आदेश का सवर्णों द्वारा विरोध करने पर यह कह कर रद्द कर दिया था कि सम्बंधित अधिकारी ने आप से धोखे से दस्तखत करवा लिए थे।
* आप ने ही 2007 में उत्तर प्रदेश में आंबेडकर महासभा को कार्यालय हेतु 1991 में आंबेडकर रोड, लखनऊ में आवंटित सरकारी भवन का आवंटन रद्द करके उसे अपने मंत्री को आवास हेतु आवंटित कर दिया था जिस के विरुद्ध आंबेडकर महासभा को इलाहबाद हाई कोर्ट, लखनऊ में जनहित याचिका दायर करके स्टे लेना पड़ा था. इस प्रकार आप ने उत्तर प्रदेश में दलितों की मात्र एक संस्था को ही ख़त्म करने की कोशिश की.
* आप ने ही 2008 में लागू हुए वनाधिकार कानून के अंतर्गत वनवासियों और आदिवासियों को भूमि का मालिकाना अधिकार देने की बजाए उनके 81% दावों को रद्द कर दिया था जिस कारण उन्हें अपने कब्ज़े की ज़मीन का मालिकाना हक नहीं मिल सका। विवश हो कर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट को इलाहाबाद हाई कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर आदेश प्राप्त करना पड़ा था.
* आप ने ही उत्तर प्रदेश के 2% आदिवासियों के लिए विधान सभा की दो सीटें आरक्षित करने संबंधी बिल का विरोध किया था जिस कारण उन्हें 2012 के विधान सभा चुनाव में कोई भी सीट नहीं मिल सकी थी. अब आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट की सुप्रीम कोर्ट में पैरवी के कारण  इस चुनाव में उनके लिए दो सीटें आरक्षित हो सकी हैं.

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शनिवार, 22 अक्टूबर 2016

नास्तिकता का अर्थ - संजय जोठे

नास्तिकता  का अर्थ - संजय जोठे
भाग्य से आजकल भारत में नास्तिकता चर्चा में है. यह अच्छा लक्षण है और इसके साथ एक चिंता भी जुडी हुई है. यह अच्छा लक्षण इस अर्थ में है कि जब-जब कोई समाज नास्तिक होने का दुस्साहस दिखाता है तब-तब वहां संस्कृति सभ्यता और ज्ञान विज्ञान का तेजी से विकास होता है. या कहें कि ज्ञान विज्ञान के विकास और नास्तिकता में एक समानुपातिक संबंध है. भारत जब अतीत में बौद्धों और जैनों (और कुछ हद तक लोकायतों सहित आजीवकों) के साथ नास्तिक था - तब भारत की सभ्यता अपने शिखर पर थी और दार्शनिक ज्ञान में ही नहीं बल्कि भौतिक ज्ञान में भी भारत अपने ज्ञात शिखर पर था इसी दौर में गणित, खगोल, भेषज,धातुविज्ञान और शल्य चिकित्सा तक पर भारी काम हुआ था आजकल के हिन्दू ज्ञान विज्ञान का जो दावा करते हैं वह सब ज्ञान विज्ञान न तो वेदों से संबंधित है न आस्तिकों से. इसी दौर में भारत सोने की चिड़िया था जिस पर हमला करने के लिए पहले यवन फिर हूँण, तातार, शक इत्यादि योजना बना रहे थे. बाद में आस्तिक और वेदवादी धर्मों के उभार के बाद भारत पा पतन आरंभ हुआ जो कई अर्थों में आज तक जारी है.
आज नास्तिकता के इस दुस्साहस से जुड़े अवसर के साथ एक चिंता भी जुडी हुई है. वह चिंता इस बात की है कि नास्तिकता चर्चा में जिस ढंग से आई है वह ढंग खतरनाक है. नास्तिकता को एक संगठित आन्दोलन न बनने देने के प्रयासों ने यह खबर बनाई है, न कि नास्तिकता ने स्वयं मुखर होकर कुछ कहना आरंभ किया है. इस अंतर को समझना होगा. नास्तिकता अगर अपने शिक्षण के कंटेंट और उस कंटेंट को डिलीवर करने की सफलता के कारण चर्चा में आये तो यह शुभ है लेकिन नास्तिकता पर हमले के कारण यह चर्चा में आई है यह बात गलत हुई जा रही है.
भारत में नास्तिकता हमेशा ही एक बिखरी हुई प्रवृत्ति रही है. ऊपर-ऊपर प्रगतिशील नजर आने वाले लोग भी घर के अंदर न सिर्फ आस्तिक हो जाते हैं बल्कि कर्मकांडी और पाखंडी तक हो जाते हैं. वे अपने बच्चों को घर में समुद्र लांघ जाने वाले देवता सिखाते हैं और स्कूल में न्यूटन का गुर्त्वाकर्षण और सौर मंडल का माडल सिखाते हैं, इसी कारण उनके बच्चे कुछ भी तय नहीं कर पाते और विज्ञान तो कभी सीख ही नहीं पाते हैं. इन दो मुंहे प्रगतिशीलों को छोड़ें तो भी बिखरे हुए रूप में सच्चे नास्तिक भारत भर में फैले रहे हैं लेकिन उनमे बड़े पैमाने पर आपस में कोई सम्बन्ध नहीं निर्मित हुआ है. अब फेसबुक और सोशल मीडिया ने उन्हें भी सम्बन्धित होने के लिए मंच दे दिया है. इन नास्तिकों ने पहली बार हिम्मत करके एक सामूहिक कदम उठाया है और वृन्दावन के दुस्साहसिक बुद्धिजीवी बालेन्दु स्वामी जी के नेतृत्व में यह एक आन्दोलन की शक्ल लेने को तैयार हुआ जा रहा है. इस सब पर हमला होना ही था. अगर हमला न होता तो मानना पड़ता कि यह पहल ईमानदार या धारदार नहीं है. हर अच्छी और इमानदार पहल पर हमला होना ही है. यही उस पहल के वैध, शुभ और शक्तिशाली होने का पहला प्रमाण है.
नास्तिकता की यह पहल क्यों हुई है और इसका विरोध क्यों हो रहा है इसको समझने के लिए पहले आस्तिकता और नास्तिकता को ही समझना होगा. दुनिया के अन्य देशों में ईश्वर,उसकी किताब और धर्मादेशों में आस्था रखने को आस्तिकता कहा जाता है और इन्हें नकारने वालों को नास्तिक कहा जाता है. हालाँकि यह बहुत मोटा मोटा विभाजन है इसमें अन्दर बहुत सारे जाल हैं लेकिन हमारी चर्चा के लिए इतना विस्तार पर्याप्त है. एक अदृश्य से ‘करुणावान’ (इसाइयत और इस्लाम) या ‘भयानक’ (यहूदी) ईश्वर और उसकी किताबों में भरोसा करना ईमान का या विश्वास का चिन्ह है जिसे आस्तिकता माना जा सकता है. लेकिन भारत में या स्पष्ट रूप से कहें तो भारतीय दर्शन में आस्तिक का अर्थ ईश्वर में विश्वास करना नहीं होता है. भारतीय दर्शन में आस्तिक का अर्थ वेदों में आस्था रखने से है, वेद अपौरुषेय हैं और उनके ज्ञान को चुनौती नहीं दी जा सकती – ऐसा मानने वाले दर्शन आस्तिक दर्शन कहलाते हैं और वेदों के ज्ञान और उस ज्ञान की अपौरुषेयता को नकारने वाले दर्शन नास्तिक दर्शन कहलाते हैं.
ईश्वर को लेकर इस विभाजन का भी कोई अर्थ नहीं है क्योंकि सांख्य और योग दोनों ही दर्शन आते तो आस्तिक दर्शन की श्रेणी में हैं, लेकिन ईश्वर को क्रमशः या तो सीधे सीधे अस्वीकार करते हैं या फिर धारणा का विषय मात्र मानते हैं. सरल शब्दों में कहें तो सांख्य दर्शन ईश्वर को मानता ही नहीं और योग दर्शन के लिए ईश्वर सिर्फ धारणा का विषय है जिससे किन्ही ख़ास मनोवैज्ञानिक रुझान के लोगों को साधना में सुविधा होती है. योग इस तरह ईश्वर का“इस्तेमाल” किसी ख़ास मकसद से कर रहा है,शायद यह दुनिया का एकमात्र दर्शन है जो किसी अन्य “ईश्वर से भी बड़े साध्य” के लिए ईश्वर को साधन बनाकर “उपयोग” करने का साहस रखता है. लेकिन आजकल के बाबा लोग ही नहीं बल्कि ओशो जैसे तथाकथित क्रांतिकारी भी पतंजलीसे विश्वासघात करते हुए वेदान्तिक ब्रह्म को योग के ईश्वर से मिलाकर लोगों को कन्फ्यूज करते हैं. खैर, तो अंतिम रूप से योग भी जिस कैवल्य में फलित होता है वहां ईश्वर या आत्मा इत्यादि कुछ नहीं है, वह फलित जैनों के कैवल्य से मिलता जुलता है और जैन न सिर्फ नास्तिक हैं बल्कि श्रमण है. इसके बावजूद चूँकि योगदर्शन वैदिक प्रतीकों और भाषा का इस्तेमाल करते हुए वेदों की सत्ता को स्वीकार करता है इसलिए वह आस्तिक दर्शन कहलाता है.
इस छोटी सी भूमिका के बाद अब हम स्वामी बालेन्दु जी के नेतृत्व में उठ खड़े हुए इस आन्दोलन के प्रति वेद वेदान्त और योग के रसिकों के मन की उभर रही असुरक्षा को समझ सकते हैं. यहाँ यह भी ध्यान देना होगा कि स्वामी बालेन्दु न सिर्फ भारतीय अर्थ की आस्तिकता पर प्रश्न उठा रहे हैं बल्कि सेमेटिक धर्म मानने वाले देशों की आस्तिकता (बिलीफ, फैथ या ईमान) को भी निशाने पर ले रहे हैं. इस प्रकार स्वामी बालेन्दु जी की नास्तिकता की प्रस्तावना दोहरा वार कर रही है. इसीलिये वे हिन्दुओं सहित ईसाईयों और मुसलमानों कि निंदा के पात्र भी बन गये हैं. भारतीय हिन्दुओं के मन में बसी वेदों / भगवान के प्रति निष्ठा और भारतीय मुसलमानों ईसाईयों आदि के मन में बसी अल्लाह या गॉड के प्रति निष्ठा – दोनों को वे एकसाथ कठघरे में खड़ा कर रहे हैं और बहुत तार्किक रूप से आस्तिकता या विश्वास के इन माँडलों पर वैध प्रश्न उठा रहे हैं. उनके प्रश्नों कि भूमि प्राकृतिक नैतिकता, कामन सेन्स, नागरिकता बोध और वैज्ञानिक रुझान से मिलकर बनी है, इसीलिये उनकी प्रस्तावनाओं में विकसित और मुखर सामाजिक सरोकारों की गूंज होती है जिसे उनकी हर टिप्पणी, वक्तव्य और लेख में सुना जा सकता है.
लेकिन इतने अच्छे संकल्प से की जा रही इतनी सुन्दर पहल से किसी को क्या समस्या हो सकती है? क्या काल्पनिक ईश्वर और हजारों वर्ष पुरानी तिथिबाह्य हो चुकी किताबों को चुनौती देते हुए वैज्ञानिक चेतना के साथ जीने का आग्रह करने में किसको खतरा हो सकता है? असल में यही प्रश्न विचारणीय है. आस्तिकता या नास्तिकता में क्या ठीक और हितकर है यह कोई चर्चा का मुद्दा नहीं है, सभी लोग जो थोड़े से शिक्षित या जागरूक हैं वे नास्तिकता और वैज्ञानिक रुझान के फायदों को बखूबी समझते हैं. इसलिए असल मुद्दा यह है कि आस्तिकता की रक्षा में लट्ठ भांजने वालों के मन की असुरक्षा का विश्लेषण कैसे किया जाए.
इसे एक दुसरे मुद्दे से जोड़कर देखते हैं तब आसानी होगी. क्योंकि नास्तिकता (बे-ईमान या नॉन-बिलीवर या वेद-विरोधी होने के अर्थ में) जिस तरह पहले खतरनाक समझी गयी है वैसा ही और उतना ही खतरा उससे आज नहीं है. आज उससे जो और जितना खतरा है वह संपूर्ण और निर्णायक खतरा है. आज पूरे विश्व में आस्तिकता और धर्म को एक बहुत नए ढंग की चुनौती मिल रही है जो पहले कभी नहीं मिली है. यह चुनौती क्या है और इसकी प्रष्ठभूमि क्या है इसे समझना जरुरी है, आइये इसमें प्रवेश करते हैं.
असल में पश्चिमी समाज में वैज्ञानिक विकास ने जिस पुनर्जागरण को संभव बनाया है और उसके नतीजे में जो औद्योगिक और सामाजिक विकास हुआ उसने ईश्वर को एक सृष्टा और नियामक के रूप में अपने पद से सदियों पहले हटा दिया है. वहां अब ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है बल्कि ईश्वर का स्थान विज्ञान ने ले लिया और चर्च का स्थान विश्वविद्यालयों ने ले लिया है. लेकिन पूर्वी समाजों का दुर्भाग्य ये रहा कि यहाँ धर्म सत्ता इतनी शक्तिशाली और सर्वव्यापी रही कि यहाँ धर्म, दर्शन और विज्ञान में विभाजन ही पैदा नहीं होने दिया. यहाँ धर्म ही दर्शन और विज्ञान तक का स्त्रोत बन बैठा और इसी क्रम में आस्था और तर्क में असंभव मेल बैठाते बैठाते खुद पाखंडी हो गया. पश्चिम में कम से कम धर्म, दर्शनशास्त्र और विज्ञान अपने अपने क्षेत्रों में दावे से कुछ इमानदार घोषणा करते रहे हैं. वहां भारत जैसा गोल मोल पाखण्ड नहीं जन्मा क्योंकि इन तीनों के विभाजन और उनके विषयों के संगत विस्तारों का अंतर स्पष्ट रहा है.
लेकिन भारत में शुरू से ही धर्म ने सारा कार्यभार अपने कन्धों पर उठा रखा है और तीन मुंह वाले ब्रह्मा की तरह एक मुंह से धर्म, दुसरे से दर्शन और तीसरे से विज्ञान कहना पड़ता है. इसीलिये भारतीय लोग न धर्म सीख पाते हैं न दर्शन न ही विज्ञान, भारतीय समाज में एक आम आदमी के जीवन में ये तीनों ही गायब हैं. भारतीय लोग इन तीन मुंहों को देखकर बस कन्फ्यूज ही होते रहते हैं कुछ भी निर्णय नहीं ले पाते. इसीलिये भारत धार्मिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक रूप से जहां का तहां बना रहता है. इसी से कुछ लोगों को ग़लतफ़हमी हो जाती है कि ‘हम कभी मिटाए नहीं जा सके’, वे कहते हैं कि “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी” लेकिन गौर से देखें तो असल में यह ऐतिहासिक जड़ता भर है,अजर अमर हस्ती जैसा कुछ नहीं है. इसी को अधिकाँश लोग सनातन होना कहते हैं – हजारों साल से जो थे वही आज भी हैं. इसपर भी तुर्रा ये कि इस बात पर जिन्हें शोक मनाना चाहिए वही इसमें गर्व का अनुभव करते हैं.
अब आगे बढ़ते हुए विज्ञान और औद्योगीकरण सहित भूमंडलीकरण पर सवार होकर सब तरह के अच्छे बुरे विचारों – गीत संगीत, वेशभूषा,भोजन, शिक्षा, चिकित्सा इत्यादि - ने अब दुनिया भर में हमला बोल दिया है. ऐसे में आत्मरक्षण और अस्मिता का प्रश्न भयानक रूप से पीडादायी हो गया है. आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता ने जिस तरह से सर्वसमावेशवाद,बहुसंस्कृतिवाद और अन्तः संस्कृतिवाद आदि को जन्म दिया है उसकी प्रतिक्रिया ने प्राचीन धर्मों और संस्कृतियों में अस्मिता की खोज और अस्मिता के परिभाषण सहित अतीत में मनचाही अस्मिताओं को प्रक्षेपित और आरोपित करने तक के आन्दोलन छेड़ दिए हैं. यह आवश्यकता एक विराट गर्भ बन गयी है जिसमे से दुनिया की हर प्रमुख संस्कृति में सांस्कृतिक पुनर्परिभाषण,सांस्कृतिक पुनरुत्थान और अपने धर्म की खोज के वैश्विक और स्थानीय आन्दोलन पैदा हो गये हैं.
इसी गर्भ से कई रंग के आतंकवाद और राष्ट्रवाद जुडवा भाइयों की तरह एकसाथ निकल रहे हैं. यह वैश्विक स्तर पर पहले कभी इतने बड़े पैमाने पर नहीं हुआ है. इसीलिये आज की आस्तिकता और नास्तिकता प्राचीन अर्थ की आस्तिकता या नास्तिकता की स्वाभाविक संगिनी की तरह नहीं देखी जानी चाहिए. आज की आस्तिकता और नास्तिकता – दोनों ही एक कई अर्थों में वैश्विक और निर्णायक बन गयीं हैं. अब सभी तरह की धार्मिक और सांस्कृतिक अस्मिताएं –अवश्यंभावी हो चुके वैश्विक संस्कृति में विलय के पूर्व - आत्मरक्षण की अपनी अंतिम लड़ाई लड़ रही हैं. और जैसा कि अमर्त्य सेन ने अपनी किताब “अस्मिता और हिंसा” में नोट किया है, “यह अस्मिता केवल गर्व और ख़ुशी का ही स्त्रोत नहीं है बल्कि ताकत और आत्मविश्वास का स्त्रोत भी हो सकती है”यही ताकत और आत्मविश्वास न सिर्फ एक आरोपित महानता को अपने धार्मिक-सांस्कृतिक अतीत (इतिहास नहीं) में प्रक्षेपित कर रहा है बल्कि इस आरोपित महानता पर प्रश्न उठाने वालों पर आक्रामक होकर हमले भी कर रहा है. भारत में आज तर्कवादियों या नास्तिकों पर जो हमला हो रहा है वह यही हमला है.
अब हम आते हैं नास्तिकता पर हो रहे हमले के विश्लेषण पर. भारत में पिछले कुछ दशकों में धर्म के निर्माण और रक्षा की एक ख़ास प्रवृत्ति उभरती रही है. असल में देखा जाए तो यह प्रवृत्ति अंग्रेजी शासन के समय जन्मी थी जबकि भारतीय बुद्धिजीवियों को पश्चिम के सभ्य समाज से संबंधित होने का पहला मौक़ा मिला था. निश्चित ही उपनिवेशी नियंत्रण और दमन खतरनाक था और निंदनीय है, लेकिन उसने भारत के पुरातनपंथी और अन्धविश्वासी समाज को पश्चिमी ज्ञान विज्ञान और विकसित सामाजिक रचना का पाठ भी पढ़ाया था. इसी कारण तिलक, पाल, और राममोहन रॉयसहित अनेक तत्कालीन बुद्धिजीवियों ने आर्य आक्रमण थ्योरी को लपक लिया था और अंग्रेजी आक्रमण को भारत को सभ्य बनाने वाली ईश्वरीय योजना का एक भाग मान लिया था,राममोहन रॉय ने तो ब्रिटेन में घोषणा भी की थी कि भारतीय आर्य अपने पुराने यूरोपीय आर्य भाइयों से अरसे बाद दुबारा मिल रहे हैं. इस ऐतिहासिक भरत मिलाप का उन्होंने खासा उत्सव मनाया था.
यहाँ एक और दिशा से गौर करें तो इसाइयत के सेवाभावी और मिशनरी स्वरूप और पश्चिमी समाज की विकसित और तुलनात्मक रूप से नैतिक संरचना ने भारतीय बुद्धिजीवियों को खासा प्रभावित किया था. विशेष रूप से स्वामी विवेकानन्द ने अपनी अमेरिका और यूरोप यात्राओं से जिस तरह का इसाई धर्म और सेवाभाव सीखा उसी के आधार पर इस नियो-हिन्दुइज्म या नियो-वेदांता की नींव रखी गयी,याद कीजिये स्वामी विवेकानंद ने भारत लौटते ही सिस्टर निवेदिता के साथ रामकृष्ण “मिशन”आरम्भ किया था. मिशनरी इसाइयत से प्रेरित इस नये “मिशन” के आगे या पीछे राममोहन रॉय, केशवचंद्र, देवेन्द्रनाथ, रानाडे, दयानन्द सरस्वती जैसे अन्य सुधारक भी हुए. इस दौर के भारतीय सिद्धान्तकारों ने जिस एक नियो-हिन्दुइज्म को पैदा किया वही आजकल भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को संचालित कर रहा है.
यह नियो हिन्दुइज्म या नियो वेदांत संभवतः दुनिया का सबसे नया और सबसे असुरक्षित धर्म है जिसके पास एक भगवान् एक किताब या एक महापुरुष नहीं है और जो अपने रक्षण या विकास के लिए एक फ्रेम या एक मार्ग परिभाषित करने में भयानक रूप से असमर्थ है. इसीलिये इसकी असुरक्षाएं अजीबो गरीब ढंग से काम करती हैं. एक तरफ यह अपनी ही बड़ी आबादी को अपने धर्मग्रंथों और धर्मस्थलों का उपयोग करने से रोकता है और दुसरी तरफ इन ग्रंथों और स्थलों से दूर जाने पर दंड भी देता है. अपनी ही स्त्रियों को धर्म कि खोल में बांधे रखता है और उन्ही स्त्रियों द्वारा देवता या मंदिर के स्पर्श से डर भी जाता है. यह भयानक रूप से विरोधाभासी और दिशाहीन स्थिति है जिसे सिर्फ अन्धविश्वासी सम्मोहनों और हिंसा के भय से ही नियन्त्रण में रखा जा सकता है. यह भय और दंड ही असल में इस नवीन रचना का प्राण है. इस भय को तार्किक विश्लेषण से उजागर करना इस रचना के लिए बहुत पीडादायी है. इस आंतरिक भय और इस पीड़ा को न केवल आधुनिक सिर्फ धर्माधीश और बुद्धिजीवी जानते समझते रहे हैं बल्कि आधुनिक सांस्कृतिक और राजनीतिक संगठन भी इसी पीड़ा के गर्भ से जन्मे हैं. इसीलिये अब इनकी सम्मिलित शक्ति ने एक राजनीतिक आन्दोलन को गठित किया है जो अनजाने अतीत में मनचाही श्रेष्ठताओं का प्रक्षेपण करते हुए इस प्रक्षेपण पर उठने वाले सवालों का दमन कर रहा है. गौर से देखा जाए तो स्वामी बालेन्दु के नास्तिक आन्दोलन पर जो आक्रमण हो रहा है या अन्य तार्किकों,अन्धविश्वास विरोधियों, पाखंड-विरोधियों का जो दमन हो रहा वह इसी दमन का जीता जागता उदाहरण है.

गुरुवार, 22 सितंबर 2016

देखिये यह होता है जन आन्दोलन का असर !

देखिये यह होता है जन आन्दोलन का असर !
समाचार मिल रहा है कि गुजरात में चल रहे दलित आन्दोलन के प्रभाव से गुजरात के १६ जिलों में एस सी /एस टी एक्ट के मामलों के लिए विशेष अदालतों का गठन किया जा रहा है. इससे पहले ससौदा गाँव के २०० से अधिक दलित परिवारों को दो दिन पहले भूमि का कब्ज़ा देना शुरू कर दिया गया है जब कि इसके लिए दलित २००६ से आन्दोलन तथा न्यायालय से गुहार लगा रहे थे.
परन्तु दुर्भाग्य से दलित राजनीतिक पार्टियों के नेता जनांदोलन से डरते हैं क्योंकि जनांदोलन से नये नेता पैदा होते हैं जिन से इन नेताओं को खतरा महसूस होता है. दूसरा जनांदोलन का रास्ता संघर्ष का रास्ता होता है जिस में पुलिस की लाठी, गोली झेलना तथा जेल जाना पड़ता है. परन्तु दलित नेता जाति की राजनीति का आसान रास्ता अपनाते हैं.
१९९५ में जब मैंने कांशी राम जी से यह सवाल पूछा कि आप की पार्टी किसी दलित मुद्दे को लेकर जनांदोलन क्यों नहीं करती जिसमें आन्दोलनकारी पुलिस की लाठी गोली खा कर तथा जेल जा कर मज़बूत होते हैं और उनकी उस मुद्दे के प्रति प्रतिबद्धता बढ़ती है तो उन्होंने कहा था कि दलित बहुत कमज़ोर लोग हैं और वे पुलिस का डंडा नहीं झेल पायेंगे. इस पर मैंने कहा था कि मैं पुलिस वाला हूँ और जनता हूँ कि जब तक वे जनांदोलन में पुलिस का लाठी डंडा नहीं खायेंगे कमज़ोर ही बने रहेंगे. इसी लिए इस कमजोरी का असर उक्त पार्टी पर स्पष्ट दिखाई देता है.
दरअसल जनांदोलन से परहेज़ के पीछे दलित नेताओं का एक तो अपने आप को संघर्ष के कठिन रास्ते से बचाना है दूसरे इसमें किसी नेतृत्व को न उभरने देना है. इसके इलावा उनका इरादा दलितों को कमज़ोर और डरपोक बना कर केवल अपने ऊपर आश्रित रखना होता है जैसा कि दूसरी पार्टियों के नेता भी करते आये हैं.
परन्तु गुजरात के वर्तमान दलित आन्दोलन ने दलित नेताओं की इन नीतियों और अवधारणाओं को गलत सिद्ध कर दिया है. इसने यह दिखा दिया है कि जनांदोलन की ताकत ही सरकार को दलित समस्यायों का समाधान निकालने के लिए बाध्य कर सकती है. दूसरे जन आन्दोलन से कार्यकर्त्ता मज़बूत होते हैं और नया नेतृत्व उभरता है. इसने यह भी दिखा दिया है कि दलित न तो कमज़ोर और बुजदिल हैं और न ही नेताओं पर ही निर्भर हैं. वे अपनी लड़ाई खुद भी लड़ सकते हैं.
बाबासाहेब ने तो बहुत स्पष्ट तौर पर कहा था, "सदियों से छिने हुए अधिकार जालिमों की सदिच्छा को अपील करने से नहीं मिला करते. उन्हें तो सतत संघर्ष करके छीनना पड़ता है."
बाबासाहेब के सर्वप्रिय नारे "शिक्षित करो , संघर्ष करो और संघठित करो" में तो जनांदोलन के माध्यम से ही संगठित करने का आदेश है. मेरे विचार में अब दलितों को नेताओं का मुंह ताकना छोड़ कर अपने उद्दों के लिए स्वयम जनांदोलन का रास्ता अपनाना चाहिए जैसा कि गुजरात के दलितों ने अपनाया है.
इसके साथ ही हमें लेनिन की यह बात भी याद रखनी चाहिए कि "क्रांतिकारी विचार के बिना कभी क्रांति नहीं हो सकती." इसी लिए दलितों को क्रांति करने के लिए, जिसके बिना उनका उद्धार नहीं हो सकता, क्रांतिकारी विचार ग्रहण करना चाहिए. बाबासाहेब ने हमें व्यवस्था परिवर्तन और संघर्ष का क्रांतिकारी विचार दिया है. इसके इलावा दलितों को अन्य क्रन्तिकारियों से भी क्रांतिकारी विचार ग्रहण करने चाहिए. मेरा यह भी सुझाव है कि हरेक दलित को भगत सिंह का "अछूत समस्या" पर लेख http://dalitmukti.blogspot.in/…/achoot-samasya-bhagat-singh… ज़रूर पढ़ना चाहिए.

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