गुरुवार, 11 अगस्त 2016

गुजरात में दलित अस्मिता यात्रा : दलित आन्दोलन का नया माडल



गुजरात में दलित अस्मिता यात्रा : दलित आन्दोलन का नया माडल
एस.आर.दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
गुजरात में दलित आन्दोलन की शुरुआत ऊना में चार दलितों की गोहत्या के नाम पर की गयी निर्मम पिटाई के प्रतिरोध के तौर पर हुयी थी. इसका प्रारंभ दलितों द्वारा धरना, जुलुस और सुरेन्द्र नगर कलेक्ट्र के कार्यालय के बाहर मरी गाय फेंक कर हुआ था. इसी सम्बन्ध में 31 अगस्त को अहमदाबाद में एक महासम्मेलन किया गया था. इस सम्मलेन में जो मांगें रखी गयीं उन में मुख्य मांग तो ऊना काण्ड के दोषियों को दण्डित करने की थी. परन्तु इस के साथ ही जो अन्य मांगें रखी गयीं वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं. इनमे सब से महत्वपूर्ण मांग है दलितों को भूमि वितरण. इस के साथ अन्य मांगें हैं प्रत्येक जिले में दलित उत्पीड़न के मामलों के लिए विशेष अदालतों की स्थापना और 2012 में धनगढ़ में पुलिस फायरिंग में मारे गए तीन दलितों के मामले में दोषी पुलिस वालों को सजा. इसके साथ ही दलितों ने जो घोषणाएं की हैं वे भी बहुत क्रांतिकारी प्रकृति की हैं. इनमें एक बड़ी घोषणा है मरे जानवरों को न उठाना और चमड़ा न उतारना. दूसरी बड़ी घोषणा है हाथ से मल सफाई का काम न करना और गटर और सैप्टिक टैंक की मानव द्वारा सफाई का बहिष्कार. इन दोनों मुद्दों को लेकर दलितों ने इन कामों को न करने की शपथ भी ग्रहण की है.
अब गुजरात के दलितों ने उपरोक्त मुद्दों को लेकर 5 अगस्त से “दलित अस्मिता यात्रा” नाम से अहमदाबाद से ऊना तक मार्च शुरू की है. यह मार्च 15 अगस्त को ऊना पहुंचेगी और उस दिन दलित अपनी आज़ादी का जश्न मनाएंगे. इस मार्च का मुख्य उद्देश्य दलितों में उनकी दुर्दशा और उत्पीड़न के बारे में जागृति पैदा करना और इसके प्रतिरोध के लिए उन्हें लामबंद करना. अब तक देखा गया है कि इस मार्च को हरेक जगह पर बड़ा जन समर्थन मिल रहा है लोग उपरोक्त शपथ भी ग्रहण कर रहे हैं. वहां पर स्थानीय उत्पीड़न और समस्यायों पर चर्चा भी हो रही है. इस यात्रा में भाग लेने वाले लोगों का मनोबल बहुत ऊँचा है. इस मार्च को अलग अलग राज्यों में दलित मीटिंगे, धरने और प्रदर्शन करके अपना समर्थन व्यक्त कर रहे हैं. गुजरात के दलितों को विदेशों से भी दलित संगठनों का समर्थन मिल रहा है.
उक्त दलित अस्मिता यात्रा में जो मुद्दे उठाये गए हैं वे दलितों के बहुत बुनियादी मुद्दे हैं. जाति आधारित भेदभाव और उत्पीड़न को रोकने के लिए सरकार से सख्त कार्रवाही की मांग बहुत महत्वपूर्ण है. यह देखा गया है कि गुजरात पूरे देश में दलित उत्पीड़न के मामले में सबसे अधिक उत्पीड़न वाले पांच राज्यों में से एक है. गृह मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि 2014 में देश भर में दलितों के उत्पीड़न के 47,000 मामले दर्ज हुए थे जबकि 2015 में 54,000 के क़रीब मामले दर्ज हुए हैं. यानी एक साल में 7000 घटनाएं बढ़ीं हैं. इसी प्रकार 2014 में गुजरात में 1100 अत्याचार के मामले दर्ज किये गये थे, जो कि 2015 में बढ़कर 6655 हो गये. इस प्रकार अकेले गुजरात में पिछले साल में दलित उत्पीडन में पांच गुना वृद्धि हुयी है. न्यायालय में इन मुकदमों के निस्तारण की सबसे खराब स्थिति गुजरात की ही है जहां दोषसिद्धि की दर 2.9 फीसदी है जबकि देश में  दोषसिद्धि की दर 22 फीसदी है. इस प्रकार गुजरात में जहाँ एक तरफ दलित उत्पीड़न में भारी वृद्धि हो रही है, वहीँ दूसरी तरफ उत्पीड़न के मामलों में सजा की दर बहुत निम्न है. इन कारणों से गुजरात के दलितों की स्थिति बहुत खराब है. इसके लिए गुजरात की जातिवादी सामाजिक व्यवस्था और सरकार की निष्क्रियता जुम्मेदार है. अतः सरकार पर दलित उत्पीड़न को रोकने का दबाव बनाना, कानून को प्रभावी ढंग से लागू कराने और सभी जिलों में विशेष अदालतों के गठन की मांग बहुत उचित है.
 उक्त यात्रा की सबसे महत्वपूर्ण मांग भूमि वितरण की है. गुजरात में दलितों की कुल आबादी लगभग 7% है परन्तु बहुत ही कम दलितों के पास ज़मीन है. इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि ऊना में 57 दलित परिवारों में से केवल 3 परिवारों के पास ही थोड़ी सी ज़मीन है. यह बताया जाता है कि गुजरात में पहले से बहुत सारी ज़मीन उपलब्ध है जिस का आबंटन भूमिहीनों को किया जाना था परन्तु वह नहीं किया गया. भारत एक कृषि प्रधान देश है. इस की आबादी का सामाजिक और आर्थिक जनगणना 2011 से यह उभर कर आया है कि देहात क्षेत्र में 56% परिवार भूमिहीन हैं और 30% परिवार केवल शारीरिक श्रम ही कर सकते हैं. जनगणना ने इन दोनों वंचनाओं को इन लोगों की बड़ी कमजोरियां होना बताया है. इस श्रेणी में अगर दलितों का प्रतिश्त देखा जाये तो यह 70 से 80 प्रतिश्त हो सकता है. इस प्रकार  ग्रामीण दलितों की बहुसंख्या आज भी भूमिधारी जातियों पर आश्रित है. इस पराश्रिता के कारण चाहे मजदूरी का सवाल हो या उत्पीड़न का मामला हो दलित इन के खिलाफ मजबूती से लड़ नहीं पाते हैं क्योंकि सवर्ण  जातियों के पास सामाजिक बहिष्कार एक बहुत बड़ा हथियार है. अतः उत्पादन के सार्वजानिक संसाधनों के पुनर्वितरण के बिना दलितों की पराश्रिता समाप्त करना संभव नहीं है. इसके लिए भूमि सुधार और भूमिहीनों को भूमि वितरण आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि सौ वर्ष पहले था. इसी लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि गुजरात आन्दोलन में दलितों ने प्रत्येक दलित परिवार को 5 एकड़ भूमि देने की मांग उठाई गयी है. वास्तव में भूमि की मांग पूरे भारत के दलितों के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण मांग है जो कि पूरे देश में दलित आन्दोलन का हिस्सा बननी चाहिए.
गुजरात के दलितों ने हाथ से मैला उठाने और मानव द्वारा गटर और नाले साफ़ करने के काम का बहिष्कार करने की जो घोषणा की है वह बहुत कारगर और क्रान्तिकारी है. यह दोनों काम बहुत कठिन और खतरनाक हैं. वास्तव में यह पेशा दलित जातियों पर ज़बरदस्ती थोपा गया प्रतीत होता है क्योंकि कोई भी सामान्य व्यक्ति इसे आसानी से करने के लिए राजी नहीं हो सकता. इसी लिए डॉ. आंबेडकर ने “भंगी झाड़ू छोडो” का नारा दिया था. यह एक सच्चाई है सदियों से इन पेशों को सुधारने अथवा इन के आधुनिकीकरण के लिए कुछ भी नहीं किया गया है. इसका मुख्य कारण यह है कि वर्तमान में यह पेशा केवल दलित जातियों तक ही सीमित है और सवर्ण जातियों को इनके सुधारने अथवा इनके आधुनिकीकरण की ज़रुरत महसूस नहीं हुयी है. अब अगर दलित इन पेशों का बहिष्कार कर देते हैं जैसा कि गुजरात में स्थिति पैदा हो रही है तो सामान्य जातियों को मजबूर होकर यह काम करना पड़ेगा और मोदी जी के कथनानुसार इसका आध्यात्मिक लाभ भी उठाने का अवसर प्राप्त होगा. जब यह स्थिति आएगी तो सवर्ण जातियों को इन पेशों का आधुनिकीकरण करना पड़ेगा जो सब के हित में होगा. अगर गुजरात के दलितों से शेष भारत के दलित भी प्रेरणा लेकर इन पेशों का बहिष्कार करना शुरू कर देते हैं तो देश में सफाई कर्मियों के पेशे में क्रांतिकारी परिवर्तन हो जायेगा.
गुजरात के दलितों ने मरे पशु न उठाने और चमड़ा न उतारने के काम का बहिष्कार करके एक क्रांतिकारी  कदम उठाया है. एक तो यह काम केवल दलितों पर ही थोपा गया है और दूसरे इस काम को घृणा की दृष्टि से  देखा जाता है. इस पर इधर दलितों को गोरक्षकों की गुंडागर्दी और प्रताड़ना भी झेलनी पड़ रही है. इस काम को दलितों द्वारा ही किये जाने के कारण इस में न तो कोई सुधार हुआ है और न ही इसका आधुनिकीकरण ही हुआ है. सवर्णों द्वारा इस काम को घृणा की दृष्टि से देखे जाने और इसके लिए दलितों को नीच समझे जाने के कारण ही डॉ. आंबेडकर ने 1929 में इसे छोड़ देने का आवाहन किया था. यह बात निश्चित है कि जब तक सवर्ण भी इस काम को करने के लिए बाध्य नहीं होंगे तब तक इसका न तो कोई सुधार होगा और न ही आधुनिकीकरण. इस पेशे के प्रति धारणा भी तभी बदलेगी जब सवर्ण भी इसे करने लगेंगे.
गुजरात के दलित आन्दोलन से यह बात भी स्पष्ट हुयी है कि जब तक दलितों के वास्तविक मुद्दे जैसे जातिगत उत्पीड़न, भूमि आबंटन, रोज़गार, दलितों से जुड़े पेशों में सुधार और उनका आधुनिकीकरण, संसाधनों का पुनर्वितरण, निजीकरण का विरोध और सामाजिक सम्मान दलित आन्दोलन और दलित राजनीति के केंद्र में नहीं आते तब तक दलितों का न तो सशक्तिकरण होगा और न ही उनका उत्पीड़न रुकेगा. गुजरात दलित आन्दोलन की यह भी विशेषता है कि यह वर्तमान अस्मिता की राजनीति से प्रेरित न होकर जनता का स्वत स्फूर्त आन्दोलन है. इसके केंद्र में केवल दलित सम्मान ही नहीं बल्कि उस सम्मान को मूर्तरूप देने के लिए व्यवस्था परिवर्तन और सार्वजानिक संसाधनों में हिस्सेदारी जैसे भूमि तथा रोज़गार आदि मुद्दे भी हैं. यह भी सर्वविदित है कि वर्तमान दलित राजनीति केवल अस्मिता और सम्मान की बात करती रही है परन्तु इसे प्राप्त करने हेतु सार्वजानिक संसाधनों जैसे भूमि जो सवर्ण जातियों के कब्जे में है, के पुनर्वितरण तथा व्यापार एवं उद्योग में हिस्सेदारी आदि मुद्दों से भागती रही है. इन कारणों से वर्तमान दलित राजनीति व्यक्तिवाद, जातिवाद, स्वार्थपरता, सौदेबाजी और मुद्दाविहिनता का शिकार हो गयी है जिसका लाभ केवल कुछ व्यक्तियों को ही हुआ है व्यापक दलित समुदाय को नहीं. वर्तमान गुजरात दलित आन्दोलन ने दलित संघर्ष और दलित राजनीति को नयी दिशा दी है और दलितों से जुड़े मुद्दों को उछाला है. इस आन्दोलन के संचालक व्यक्ति कम दलित सरोकार ज्यादा हैं. इससे एक आशा जगती है कि दलित राजनीति और दलित आन्दोलन जाति और व्यक्तियों की पकड़ से मुक्त होकर दलित मुद्दों पर आधारित होगा जिस से दलितों का वास्तविक सशक्तिकरण और उत्थान होगा और बाबासाहेब का जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज की स्थापना का सपना साकार हो सकेगा.   

राह दिखाता गुजरात: आनंद तेलतुंबड़े

राह दिखाता गुजरात: आनंद तेलतुंबड़े

गुजरात में दलितः असमानता और हिंसा के शिकार



 -नेहा दाभाड़े
गत 11 जुलाई को गुजरात के ऊना शहर में मानव भक्षकोंव ज़बरिया वसूली करने वालों के गिरोह ने-जो स्वयं को गौरक्षक बता रहे थे-एक दलित परिवार के सात सदस्यों की क्रूरतापूर्वक पिटाई की। उन्हें मोटा समधियाला गांव में एक मरी हुई गाय की खाल उतारने के लिए लोहे की छड़ों, लाठियों और चाकू से मारा गया। उसके बाद उनके कपड़े उतारकर उन्हें सार्वजनिक रूप से मारते हुए थाने ले जाया गया। इस भयावह व दिल हिला देने वाली हिंसा से दलितों के प्रति गुजरात में व्याप्त पूर्वाग्रहों और घृणा का पता चलता है। इस बर्बर घटना पर उतनी ही तीव्र प्रतिक्रिया हुई। दलित लेखक अमृतलाल मकवाना ने उन्हें मिला जीवन श्रेष्ठ साहित्य कृतिपुरस्कार लौटा दिया। गुजरात के दलित युवा सड़कों पर उतर आए और उन्होंने अपना विरोध व्यक्त करने के लिए कई बसों को आग के हवाले कर दिया और सड़कों व राजमार्गों को जाम किया। बनासकांठा जिले के करीब एक हजार दलितों ने बौद्ध धर्म अपनाने की इच्छा व्यक्त की। सुरेन्द्र नगर में दलितों ने मृत गायों को ठिकाने लगाने से इंकार कर दिया।
पुलिस का रवैया ढीलाढाला था। पुलिस आसानी से दलितों की सार्वजनिक रूप से पिटाई को रोक सकती थी। पुलिस ने एफआईआर कायम करने में बहुत देरी लगाई। इससे भी बुरी बात यह थी कि एफआईआर, पीड़ितों के खिलाफ ही दर्ज की गई- जैसा कि मोहम्मद अख़लाक के मामले में हुआ था। मानव भक्षकों के खिलाफ एफआईआर तभी दर्ज की गई जब दलितों की पिटाई का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया और दलितों ने विरोध प्रदर्षन किए। पुलिस की लेतलाली सामने आने के बाद, ऊना थाने के पुलिस इंस्पेक्टर और एक असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर को निलंबित कर दिया गया। घटना के नौ दिन बाद गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल पीड़ितों से मिलने के लिए समय निकाल सकीं और वह भी तब, जब इस घटना से पूरा देश आहत हो चुका था और दलितों के विरोध प्रदर्षनों से कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ रही थी। उत्तरप्रदेश चुनाव में भाजपा को इस घटना का खामियाजा न भुगतना पड़े, यह भी आनंदी बेन की यात्रा का एक उद्देश्य था।
भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का दलितों के प्रति दृष्टिकोण जगजाहिर है। सन 2015 में फरीदाबाद में दलित बच्चों की हत्याओं के बारे मंे पूछे जाने पर केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह ने दलितों की तुलना कुत्तों से करते हुए कहा था, ‘‘अगर कोई एक कुत्ते को पत्थर मार दे तो क्या उसके लिए सरकार ज़िम्मेदार है?’’ हाल में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने दलितों पर हमले कोसामाजिक बुराईबताया। स्पष्टतः वे दलितों पर अत्याचार को रोकने में राज्य की असफलता का बचाव कर रहे थे। राजनाथ सिंह ने यह भी कहा कि ‘‘गुजरात में कांग्रेस शासन के दौरान दलितों पर अत्याचार की घटनाओं की संख्या कहीं ज़्यादा थी। भाजपा के सत्ता में आने के बाद से इन घटनाओं में तेज़ी से कमी आई है।’’ आंकड़े राजनाथ सिंह के इस दावे से मेल नहीं खाते। मई 2015 के बाद से दलितों पर अत्याचार की घटनाओं में 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
इस संदर्भ में भाजपा के नेता केवल प्रतीकात्मक बातों और खोखले दावों से दलितों को संतुष्ट करना चाहते हैं। भाजपा के मुखिया अमित शाह ने कुम्भ में दलित साधुओं के साथ क्षिप्रा नदी में डुबकी लगाई। इस अवसर पर उन्होंने कहा ‘‘भाजपा एकमात्र ऐसी पार्टी है जो भारतीय संस्कृति को मज़बूत करने में विश्वास रखती है और यह मानती है कि पूरा विश्व एक परिवार है।’’ हम उनकी बातों पर कैसे भरोसा करें, जबकि उनके गृह राज्य गुजरात में छुआछूत की अमानवीय प्रथा का व्यापक प्रचलन है। गुजरात के दलित, भेदभाव और छुआछूत का दंश झेलने को मजबूर हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार, 98.4 प्रतिशत गांवों में अंतर्जातीय विवाहों पर प्रतिबंध है और ऐसे विवाह करने वाले लोगों के खिलाफ हिंसा हुई और उन्हें अपने गांव छोड़कर जाना पड़ा है। 98.1 प्रतिशत गांवों में किसी दलित व्यक्ति को गैर-दलितों के मोहल्लों में मकान किराए से नहीं दिया जाता है और 97.6 प्रतिशत गांवों में यदि दलित, गैर-दलितों के पानी के पात्रों या अन्य बर्तनों को छू लें तो इससे वे बर्तन अपवित्र माने जाते हैं, 97.2 प्रतिशत गांवों में किसी दलित को गैर-दलित क्षेत्र में कोई धार्मिक अनुष्ठान आयोजित करने की इजाज़त नहीं है। ये सर्वेक्षण नवसर्जन संस्था ने गुजरात के 1,589 गांवों में किया था। क्या राज्य सरकार ने छुआछूत की इस क्रूर व अमानवीय प्रथा के खिलाफ कोई कार्यवाही की? उत्तर है, नहीं। दलितों को 77 गांवों में सामाजिक बहिष्कार के कारण अपने घर छोड़कर जाना पड़ा। इस मामले की जांच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने की और यह पाया कि इसके पीछे दलितों की शिकायतों का पुलिस द्वारा संज्ञान न लिया जाना, ऐसे मामलों में पुलिस द्वारा सही जांच और उपयुक्त कार्यवाही न की जाना और दलितों पर अत्याचार के प्रकरणों में दोष सिद्धी की दर अत्यंत कम होना है। राज्य ने इस मामले में उपयुक्त कार्यवाही करने की बजाए, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के निष्कर्षों को गलत ठहरा दिया। 
भाजपा के दलितों के प्रति दृष्टिकोण और ऊना जैसी घटनाओं के पीछे, दरअसल, हिन्दुत्व की विचारधारा है। हिन्दुत्व की विचारधारा, ऊँचनीच की अवधारणा पर आधारित है और इसमें दलित, सामाजिक पदक्रम के सबसे निचले पायदान पर हैं। सामाजिक असमानता और ब्राह्मणों का प्रभुत्व, हिन्दुत्व की मूल अवधारणाओं में षामिल है। हिन्दुत्व की विचारधारा, भाजपा की नीतियों का आधार है और यही कारण है कि ये नीतियां, दलितों को सांस्कृतिक, राजनैतिक व आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर करने वाली हैं। दलितों को कमज़ोर करने के लिए कई तरीके अपनाए जाते हैं। इनमें से एक है राष्ट्रवाद के प्रतीकों का निर्माण। इन प्रतीकों को पूरे समाज पर लादने की कोशिश की जाती है। ये प्रतीक ऊँची जातियों के विशेषाधिकारों को स्वीकृति देते हैं और जातिगत पदक्रम को औचित्यपूर्ण ठहराते हैं। गाय, सरस्वती वंदना और योग, धार्मिकता और राष्ट्रवाद के प्रतीक बना दिए गए हैं। हिन्दुत्व की विचारधारा, उन परंपराओं और नियमों को मान्यता देती है जो मूलतः ऊँची जातियों के हैं और दलितों सहित अन्य समुदायों की परंपराओं और आचरण को निचला दर्जा देती है। स्वयं को राष्ट्रवादी साबित करने के लिए हर व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह उच्च जातियों को स्वीकार्य परंपराओं और नियमों का पालन करे।
उदाहरणार्थ, हमेशा से दलितों को मृत मवेशियों को ठिकाने लगाने और उनके मांस को खाने के लिए मजबूर किया जाता रहा है। किसी मृत जानवर को छूना, ऊँची जातियों के सदस्यों को मंजूर नहीं था और यह काम केवल दलितों के लिए उचित माना जाता था। आज भी दलित मृत जानवरों को ठिकाने लगाने का काम करते हैं।
गुजरात में निजी निवेश, अधोसंरचनात्मक विकास और खेती के निगमीकरण पर ज़ोर ने सांठगांठ पर
आधारित पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटालिज्म) को बढ़ावा दिया जा रहा है। सार्वजनिक संसाधनों, जो सबाल्टर्न समुदायों की आजीविका के आधार हैं, को उनसे छीनकर अदानी व अंबानी जैसे उद्योग समूहों के हवाले किया जा रहा है। इससे दलित आदिवासी, मछुआरे आदि बेरोज़गार हो रहे हैं और आर्थिक असमानता बढ़ रही है। राज्य सरकार द्वारा भले ही कुछ भी दावे किए जा रहे हों, सच यह है कि गुजरात में 2005 से 2010 के बीच निर्माण और सेवा क्षेत्रों में रोज़गार में वृद्धि की दर नकारात्मक रही है। इससे दलितों की असंगठित क्षेत्र पर निर्भरता बढ़ी है। शहरी क्षेत्रों में असमानता में वृद्धि की दर अपेक्षाकृत तेज़ है और दलित आदिवासी पहले से अधिक गरीब हुए हैं। यद्यपि अनुसूचित जाति उपयोजना के तहत हर राज्य को इस उपयोजना के लिए राज्य की अनुसूचित जातियों की आबादी के अनुपात में धनराषि आवंटित करनी चाहिए परंतु गुजरात सरकार ने पिछले दस वर्षों में एक बार भी इस उपयोजना के लिए राज्य के बजट का 7.09 प्रतिशत- जो कि गुजरात की आबादी में अनुसूचित जातियों का हिस्सा है-आवंटित नहीं किया। जुलाई 2015 की अपनी एक रपट में सरकार ने एक बहुत अजीब सा तर्क दिया, जो कि अनुसूचित जाति उपयोजना के दिशा निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन था। सरकार ने कहा कि ‘‘केवल अनुसूचित जातियों के लिए क्षेत्र-आधारित विकास की परियोजनाएं लागू करना बहुत कठिन है’’! मनरेगा-जो कि ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को रोज़गार उपलब्ध करवाने का एक महत्वपूर्ण उपकरण है-के लिए बजट आवंटन में लगातार कमी की जा रही है और जिन ज़िलों में यह योजना लागू है, उनकी संख्या में लगातार कमी की जा रही है। इससे अनुसूचित जातियों और जनजातियों को बहुत नुकसान हुआ है। सन 2013-14 में मनरेगा के अंतर्गत 18 लाख अनुसूचित जाति व जनजाति के परिवारों को साल में 100 दिन का रोज़गार उपलब्ध हुआ। सन 2014-15 में यह आंकड़ा 7 लाख रह गया।
अहमदाबाद के ह्यूमन डेव्लपमेंट रिसर्च सेंटर (एचडीआरसी) ने अपने नोटिस बोर्ड पर सफाईकर्मियों के रूप में कार्य करने के लिए आवेदन पत्र आमंत्रित करते हुए एक विज्ञापन लगाया। इसमें कहा गया था कि सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों को नियुक्ति में प्राथमिकता दी जाएगी। इस विज्ञापन से हिन्दुत्व संगठन भड़क उठे। राजपूत शौर्य फाउंडेशन और युवा शक्ति संगठन के कार्यकर्ताओं ने एचडीआरसी के कार्यालय में जमकर तोड़फोड़ की। उन्होंने यह आरोप लगाया कि एचडीआरसी, समाज को विभाजित कर रही है और लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचा रही है। इस घटना से हिन्दुत्व संगठनों का दलितों के प्रति दृष्टिकोण ज़ाहिर होता है। उनका यह ख्याल है कि हाथ से मैला साफ करने और अन्य सफाई के कार्य केवल दलितों को ही करने चाहिए। यह विडंबनापूर्ण ही है कि जहां संयुक्त राष्ट्र संघ व अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं, हाथ से मैला साफ करने की प्रथा के उन्मूलन की बात कर रही हैं वहीं गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सन 2007 में प्रकाशित अपनी पुस्तक कर्मयोगमें यह लिखा था कि “वाल्मीकि समुदाय के सदस्य हाथ से मैला साफ करने का काम अपनी आजीविका कमाने के लिए नहीं वरन इसलिए करते हैं क्योंकि वह उनके लिए एक आध्यात्मिक अनुभव है।“ हम चकित हैं कि अगर हाथ से मैला साफ करने से व्यक्ति आध्यात्म की ओर प्रवृत्त होता है तो ऊँची जातियां इस मौके को क्यों खो रही हैं और क्यों सरकार सभी जातियों के लोगों को यह काम करने के लिए प्रोत्साहित नहीं कर रही?
जो दलित युवक भेदभाव के इस दुष्चक्र को तोड़ना चाहते हैं, वे बेहतर जिंदगी के लिए शिक्षा प्राप्त करने के मौके तलाश रहे हैं। परंतु उच्च शैक्षणिक संस्थानों में दलित विद्यार्थियों के साथ एबीव्हीपी जैसे दक्षिणपंथी विद्यार्थी संगठनों और प्रशसन द्वारा भेदभाव किया जाता है। और अगर वे इसका विरोध करते हैं तो उन्हें प्रताड़ित किया जाता है जैसा कि अंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल और रोहित वेमूला के मामलों से साफ है। इससे दलितों की आवाज़ और कमज़ोर हो रही है और दलित युवक अपने आप को असहाय अनुभव कर रहे हैं। असहमति की आवाज़ों को देशद्रोह बताकर क्रूरतापूर्वक कुचल दिया जाता है। इसी तरह, योग-जिसे राष्ट्रवाद का प्रतीक बना दिया गया है-से भी दलित स्वयं को नहीं जोड़ पा रहे हैं। इसके कारण ऐतिहासिक और सांस्कृतिक हैं। पहले से भूख और गरीबी से पीड़ित दलित, जो दिनभर कमरतोड़ शारीरिक श्रम करते हैं, में योग करने की ऊर्जा कहां से बची रहेगी। इसी तरह, दलितों से सरस्वती वंदना करने की अपेक्षा करना एक क्रूर मज़ाक है क्योंकि दलितों को कभी सहीक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं दिया गया। आज भी गुजरात के स्कूलों में दलित बच्चों के साथ भेदभाव किया जाता है। इंडिया एक्सक्लूज़न रिपोर्ट 2014 के अनुसार राज्य के 32.4 प्रतिशत दलित बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं।
हिन्दू के रूप में स्वयं को स्वीकार्य बनाने के लिए और हिंदुत्व संगठनों से जुड़ने के लिए दलितों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे मुसलमानों के खिलाफ हिंदुत्ववादी युद्ध में शिरकत करें। उनके मन में यह भ्रम पैदा किया जाता है कि वे हिन्दू समुदाय का हिस्सा बन गए हैं और उन्हें मुसलमानों से श्रेष्ठ बताकर, हिन्दू राष्ट्रवादी समूह मुसलमानों के खिलाफ हिंसा करने के लिए दलितों का इस्तेमाल कर रहे हैं। मुसलमानों को राष्ट्रविरोधी और सभी हिन्दुओं का शत्रु बताकर दलितों को उनके खिलाफ भड़काया जा रहा है। दलित सड़कों पर हिंसा करते हैं और बाद में आपराधिक न्याय प्रणाली की गिरफ्त में आसानी से आ जाते हैं।
दलितों को स्वयं को राष्ट्रवादी साबित करने के लिए सभी हिन्दुत्ववादी नियमों का पालन व उसके प्रतीकों का सम्मान करना होता है ताकि उन्हें सत्ता और अवसरों के वे चंद टुकड़े मिल सकें, जिन्हें ऊँची जातियां उनकी और फेकेंगी। जहां तक चुनावों का सवाल है दलितों के सामने इसके सिवा कोई विकल्प नहीं है कि वे भाजपा का साथ दें क्योंकि भाजपा उन्हें कुछ हद तक सुरक्षा उपलब्ध करवा सकती है। अगर दलित इन हिन्दुत्ववादियों की अपेक्षा के अनुरूप आचरण नहीं करते तो उनके साथ वही होता है जो ऊना में हुआ। दलितों के साथ हिंसा कर उन्हें दबाने का काम धर्म के स्वनियुक्त ठेकेदारों के समूह करते हैं जिन्हें राज्य का संरक्षण प्राप्त होता है। इस कारण वे बिना किसी डर के खुलेआम हिंसा करते रहते हैं।
सन 2000 की शुरूआत में गुजरात की विभिन्न अदालतों में अनुसूचित जाति, जनजाति अधिनियम के तहत 13,293 प्रकरण लंबित थे। साल के अंत तक वे सभी प्रकरण लंबित बने हुए थे अर्थात एक भी प्रकरण में निर्णय नहीं हुआ था। इस साल अप्रैल तक प्रदेश में दलितों पर अत्याचार के 409 मामले दर्ज किए गए। राज्य अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार, गुजरात में सन 2001 से लेकर अब तक दलितों पर हमले के 14,500 मामले दर्ज किए गए अर्थात औसतन 1,000 प्रति वर्ष या तीन प्रतिदिन। दलित अधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि दलितों पर अत्याचार करने वाले इसलिए बेखौफ रहते हैं क्योंकि इस तरह के प्रकरणों में दोषसिद्धि की दर मात्र तीन से पांच प्रतिशत के बीच है।
क्या राज्य तंत्र द्वारा दलितों पर अत्याचारों को रोकने और दोषियों को सज़ा दिलवाने की ज़िम्मेदारी पूरी न करना स्वीकार्य हो सकता है? दलित समुदाय की बेहतरी और उसकी सुरक्षा की ओर जानबूझकर ध्यान नहीं दिया जाना हिन्दुत्व के असली चरित्र को दर्शाता है और भाजपा के इरादों का पर्दाफाश करता है। हिन्दुत्ववादी, दलितों का अपनी घृणा की राजनीति  में इस्तेमाल तो करना चाहते हैं परंतु उन्हें बराबरी का दर्जा देना नहीं चाहते। दलितों को अपने निचले दर्जे को चुपचाप स्वीकार करना होगा ताकि स्थापित सामाजिक पदक्रम को कोई खतरा न हो। दलितों के साथ यदि भेदभाव होता है और उनके साथ हिंसा की जाती है तो इसके लिए जातिप्रथा ज़िम्मेदार नहीं है। यह तो एक सामाजिक बुराईहै।
भारत को आज एक शक्तिशाली दलित आंदोलन की आवश्यकता है। यह सही है कि धर्म के स्वनियुक्त ठेकेदारों के समूह और सरकार व शासक दल का रवैया दलितों के सशक्तिकरण की राह में बड़ी बाधा है परंतु नागरिक समाज संगठनों को आगे बढ़कर दलितों को एक करना होगा और उन्हें उनके अधिकारों के लिए लड़ना सिखाना होगा। अछूत प्रथा के खिलाफ लगातार अभियान चलाए जाने की ज़रूरत है और विकास का एक नया माडल बनाने की भी।
 साभार : लोक संघर्ष

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

गुजरात में दलित प्रतिरोध और दलित राजनीति की नयी दिशा



गुजरात में दलित प्रतिरोध और दलित राजनीति की नयी दिशा  
-एस. आर. दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
पिछले दिनों गुजरात के ऊना में मरी गाय का चमड़ा उतारने पर गाय को मारने के आरोप में गोरक्षा समिति के गुंडों द्वारा चार दलितों की बुरी तरह से पिटाई की गयी थी जिस पर दलितों ने विरोध स्वरूप मरी गाय को उठाने का बहिष्कार कर दिया है तथा इस के अतिरिक्त गुजरात में बहुत से स्थानों पर विरोध प्रदर्शन तथा सड़क जाम आदि भी किया गया है. दलितों ने इसकी शुरुआत 18 जुलाई को सुरेन्द्र नगर जिले के कलेक्टर के दफ्तर के बाहर मरी गायें फेंक कर की थी. इसके साथ ही दलितों ने 31 जुलाई को अहमदाबाद में एक बड़ा दलित सम्मलेन करके मरे जानवर न उठाने, गटर साफ़ न करने, भूमिहीन दलितों को 5 एकड़ ज़मीन देने,सफाई कर्मचारियों को 7वें वेतन आयोग के अनुसार वेतन देने तथा सफाई के काम में ठेकेदारी प्रथा समाप्त करने की मांग भी उठाई है.  
यह सर्वविदित है कि जाति व्यवस्था के कारण दलितों के साथ जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न किया जाता है. जाति विधानों का अनुपालन करना हरेक हिन्दू का धार्मिक कर्तव्य है. हिन्दू धर्म- शास्त्रों में जाति के विधानों का उलंघन दंडनीय अपराध है. इसलिए जब कभी भी दलित जाति के लोग जाति विधानों को तोड़ने का साहस दिखाते हैं तो हिन्दू धर्म के रक्षक उनका उत्पीड़न करते हैं जिस का मुख्य उद्देश्य दलितों को वर्णव्यवस्था में अपना जाति स्थान दिखाना और यथास्थिति को बनाये रखना है. दरअसल दलित उत्पीडन केवल घटना नहीं बल्कि उत्पीड़न की विचारधारा है जिसे हिन्दू धर्म की स्वीकृति है.  
पूरे देश में दलित उत्पीड़न का लगातार शिकार होते हैं. दलितों को समानता का जो संवैधानिक अधिकार मिला है, दलित जब भी उस अधिकार का प्रयोग करने की कोशिश करते हैं तो उन पर अत्याचार होता है. दलितों में जैसे जैसे संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता फ़ैल रही है और वे अधिक मात्रा में अपने अधिकारों का प्रयोग करने लगे हैं वैसे वैसे दलित उत्पीड़न की घटनाएँ भी बढ़ रही हैं. सरकारी आंकड़े भी यही दर्शाते हैं कि देश में दलितों के विरुद्ध हिंसा की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं. गृह मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि 2014 में देश भर में दलितों के उत्पीड़न के 47,000 मामले दर्ज हुए जबकि 2015 में 54,000 के क़रीब मामले दर्ज हुए हैं. यानी एक साल में 7000 घटनाएं बढ़ीं हैं. इसी प्रकार 2014 में गुजरात में 1100 अत्याचार के मामले रजिस्टर किये गये थे, जो 2015 में बढ़कर 6655 हो गये. इस प्रकार अकेले गुजरात में पिछले साल में दलित उत्पीडन में पांच गुना वृद्धि हुयी है. न्यायालय में सबसे खराब स्थिति गुजरात की है जहां दोष सिद्धि की दर 2.9 फीसदी है जबकि देश में दलितों के खिलाफ होने वाले अत्‍याचार से जुड़े मामलों में दोष सिद्धि की दर 22 फीसदी रिकॉर्ड की गयी है. इस प्रकार गुजरात में जहाँ एक तरफ दलित उत्पीडन में भारी वृद्धि हो रही है, वहीँ दूसरी तरफ उत्पीडन के मामलों में सजा की दर बहुत निम्न है. इस प्रकार गुजरात के दलितों की स्थिति बहुत खराब है. इसके लिए गुजरात की जातिवादी सामाजिक व्यवस्था और सरकार की निष्क्रियता जुम्मेदार है.
गुजरात के दलितों ने दलित उत्पीड़न के विरोध का जो तरीका अपनाया है वह बिलकुल नायाब है. इसने हिन्दुओं की गाय के नाम पर चल रही राजनीति और गुंडागर्दी को जबरदस्त चुनौती दी है. अब तक गाय के नाम पर मुसलामानों को निशाना बनाया जा रहा था परन्तु दलितों का गाय के नाम पर उत्पीड़न हिन्दुओं को बहुत महंगा पड़ा है क्योंकि गाय के नाम पर मुसलामानों को दबाया जा सकता है परन्तु दलितों को दबाना उतना आसान नहीं है. गुजरात के दलितों का प्रतिरोध यह भी दर्शाता है कि अब दलित सवर्णों द्वारा उत्पीड़न को खामोश रह कर सहने वाले नहीं हैं बल्कि अब वे इसका सभी प्रकार से प्रतिरोध करने के लिए तैयार हैं. यह परिघटना स्वागत योग्य है. दरअसल दलित अभी तक ख़ामोशी का शिकार रहे हैं परन्तु गुजरात की परिघटना यह दर्शाती है कि अब वे भी प्रतिकार करने की स्थिति में आ गए हैं.
गुजरात में दलितों का प्रतिरोध स्वत स्फूर्त है. इसमें कोई भी दलित राजनेता फ्रंट पर नहीं है. हाँ, कुछ दलित संगठन ज़रूर सक्रिय हैं. इससे से यह भी परिलक्षित होता है कि दलित अब राजनेताओं पर निर्भर न रह कर स्वयं जनांदोलन में उतरे हैं. इसका मुख्य कारण यह है कि अधिकतर दलित नेता केवल जाति के नाम पर राजनीति करते आये हैं. उन्होंने दलित समस्यायों और दलित मुद्दों को अपनी राजनीति का आधार नहीं बनाया है. अतः गुजरात प्रतिरोध में दलितों ने लगभग सभी दलित राजनेताओं को नज़रंदाज़ किया है.       
डॉ. आंबेडकर ने हिन्दू जाति व्यवस्था का विश्लेषण करते हुए कहा है कि यह केवल सामाजिक व्यवस्था ही नहीं है बल्कि आर्थिक व्यवस्था भी है. यह एक स्पष्ट सत्य है कि हिन्दू समाज में पेशों का निर्धारण जाति के आधार पर किया गया है और इन में बहुत कम गतिशीलता है. यह भी सच्चाई है कि गंदे और कम आमदन वाले पेशे दलितों पर थोपे गए हैं. यह भी विचारणीय है कि दलितों ने यह पेशे स्वेच्छा से नहीं अपनाये होंगे बल्कि उन्हें इन पेशों को करने के लिए बाध्य किया गया होगा. इस सम्बन्ध में मनुस्मृति में स्पष्ट विधान किये गए हैं.
संविधान के लागू होने के 65 वर्ष बाद भी दलितों के पेशों में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया है. हाँ, आरक्षण के कारण दलितों की राजनीति, सरकारी सेवाएं और शिक्षा के क्षेत्र में कुछ हिस्सेदारी हुयी है परन्तु वह भी बहुत कम और निम्न स्तर की ही है. परिणामस्वरूप दलितों के जीवन स्तर में बहुत थोडा अंतर आया है. इसका लाभ कुछ पढ़े लिखे नौकरी पेशा और राजनीति में सक्रिय दलितों को ही मिला है. इस का अंदाज़ा गाँव में रहने वाले बहुसंख्यक दलितों के जीवन स्तर से लगाया जा सकता है. यह भी देखा गया है कि उत्पादन के संसाधनों  जैसे ज़मींन, उद्योग और व्यापार आदि में दलितों की भागीदारी में कोई इजाफा नहीं हुयी है. कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत की अधिकतर आबादी कृषि से जुड़ी हुयी है. दलितों की बहुसंख्या कृषि मजदूर हैं परन्तु बहुत कम दलितों के पास बहुत थोड़ी ज़मीन है. इस प्रकार गाँव में दलित भूमिधारी जातियों पर न केवल रोज़गार के लिए बल्कि नैतिक क्रियाकलापों जैसे शौच तथा जानवरों के लिए घास पट्ठा आदि लाने के लिए भी आश्रित हैं.
सामाजिक और आर्थिक जनगणना 2011 से यह उभर कर आया है कि देहात क्षेत्र में 42% लोग भूमिहीन हैं और वे केवल शारीरिक श्रम ही कर सकते हैं. जनगणना ने इन दोनों को इन लोगों की बड़ी कमजोरियां होना बताया है. इस श्रेणी में अगर दलितों का प्रतिश्त देखा जाये तो यह 70 से 80 प्रतिश्त हो सकता है. इस प्रकार  ग्रामीण दलितों की बहुसंख्या आज भी भूमिधारी जातियों पर आश्रित है. इस पराश्रिता के कारण चाहे मजदूरी का सवाल हो या उत्पीड़न का मामला हो दलित इन के खिलाफ मजबूती से लड़ नहीं पाते हैं क्योंकि सवर्ण  जातियों के पास सामाजिक बहिष्कार एक बहुत बड़ा हथियार है. अतः उत्पादन के संसाधनों के पुनर्वितरण के बिना दलितों की पराश्रिता समाप्त करना संभव नहीं है. इसके लिए भूमिसुधार और भूमिहीनों को भूमि वितरण आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि सौ वर्ष पहले था. यह अच्छी बात है कि गुजरात आन्दोलन में भी दलितों को 5 एकड़ भूमि देने की मांग उठाई गयी है.
दलितों के विकास में दलित राजनीति की एक प्रभावशाली भूमिका हो सकती थी. शुरू में डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ने इसे मजबूती के साथ उठाया भी था. इसी पार्टी ने भूमि वितरण, न्यूनतम मजदूरी, समान वेतन आदि मुद्दों को लेकर 6 दिसंबर 1964 से “जेल भरो” आन्दोलन भी चलाया था जिस में 3 लाख से अधिक दलित जेल गए थे और तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादर शास्त्री को यह सभी मांगे माननी पड़ी थीं. इस के बाद ही कांग्रेस सरकार ने भूमिहीन दलितों को भूमि आबंटन शुरू किया था. परन्तु रिपब्लिकन पार्टी के विघटन के बाद किसी भी दलित पार्टी ने इन मांगों को नहीं उठाया जिस कारण एक तो भूमि सुधार सही ढंग से लागू नहीं किये गए, दूसरे सीलिंग से जो ज़मीन उपलब्ध भी हुयी थी उस का आबंटन नहीं हुआ. केवल बंगाल और केरल की कम्युनिस्ट सरकारों को छोड़ कर किसी भी अन्य राज्य में न तो भूमि सुधार सही ढंग से लागू हुए और न ही कोई भूमि आबंटन हुआ. इसी का दुष्परिणाम है कि पूरे देश में 10% लोगों के पास 80% भूमि केद्रित है. दलितों में भूमिहीनता का प्रतिश्त बहुत अधिक है जो उनकी कमज़ोर स्थिति का सबसे बड़ा कारण है. इसी लिए भूमि आबंटन दलितों के सशक्तिकरण की सब से बड़ी आवश्यकता है. इसके लिए भूमि आबंटन दलित राजनीति का प्रमुख मुद्दा होना चाहिए.
दलितों की दूसरी सब से बड़ी कमजोरी उनके पास केवल शारीरिक श्रम का ही होना है. उनके पास तकनीकि योग्यता तथा रोज़गार के अवसरों की कमी है. अतः बेरोज़गारी दलितों की सबसे बड़ी समस्या है. इसके लिए ज़रूरी है कि दलितों को शिक्षा और तकनीकि शिक्षा देकर प्रगति के अवसर उपलब्ध कराए जाएँ परन्तु किसी भी सरकार ने इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाये हैं. इधर सरकार द्वारा अपनाई गयी निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीति ने आरक्षण के माध्यम से सरकारी उपक्रमों में मिलने वाले रोज़गार के अवसरों को भी कम कर दिया है जिस कारण अन्य वर्गों सहित दलितों में भी बेरोज़गारी निरंतर बढ़ रही है. मोदी सरकार द्वारा रोज़गार पैदा करने के वादे बिलकुल झूठे साबित हुए हैं. अतः रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने की मांग और भी अधिक प्रासंगिक हो गयी है. जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक सरकारें संसाधनों की कमी का रोना रो कर निजी क्षेत्र का पेट भरती रहेंगी.
जैसा कि सर्वविदित है कि ग्रामीण दलितों का बड़ा हिस्सा छोटे किसानों और कृषि मजदूरों के रूप में खेती से जुड़ा हुआ है. इधर सरकारों की किसान विरोधी नीतियों के कारण खेती घाटे का सौदा हो गया है जिस के कारण बड़ी संख्या में किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और खेती छोड़ रहे हैं. इसके इलावा सभी सरकारें कृषि भूमि अधिग्रहण करके कृषि भूमि क्षेत्र को कम करने में लगी हुयी हैं. खेती की दुर्दशा का कुप्रभाव केवल किसान पर ही नहीं पड़ता बल्कि उससे जुड़े कृषि मजदूरों पर भी पड़ता है जिस में अधिकतर दलित हैं. अतः दलित कृषि मजदूरों की दशा सुधारने के लिए कृषि में सरकारी निवेश बढ़ाने, किसान को उपज का उचित मूल्य दिलवाने और मजदूरी की दर बढ़ाने की सखत ज़रुरत है.
अब तक की दलित राजनीति केवल दलितों को सम्मान दिलाने और आरक्षण के नारों को लेकर ही चलती रही है. यह अधिकतर अस्मिता की राजनीति है जिस का दलितों के बुनियादी मुद्दों जैसे भूमि सुधार, भूमि आबंटन, गरीबी उन्मूलन, उत्पीड़न और बेरोज़गारी आदि से कुछ लेना देना नहीं है. दरअसल अस्मिता की राजनीति बहुत आसान राजनीति है क्योंकि इसमें किसी मुद्दे के लिए कोई संघर्ष या जनांदोलन करने की ज़रुरत नहीं पड़ती. केवल अस्मिता से जुड़े कुछ नारों से काम चल जाता है. अतः इस बात की ज़रुरत है कि दलित मुद्दों जैसे भूमि सुधार, भूमि आबंटन, रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने, कृषि का विकास करने आदि को दलित राजनीति के केंद्र में लाया जाये. इसके साथ ही दलितों को दलित नेताओं और दलित राजनीतिक पार्टियों को भी मजबूर करना होगा कि वे अस्मिता की राजनीति छोड़ कर मुद्दों की राजनीति अपनाएं और अपना राजनीतिक एजंडा घोषित करें. यह भी देखा गया है राजनीति में दलितों की महत्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद भी दलित मुद्दे गैर दलित राजनैतिक पार्टियों के एजंडे में भी कोई स्थान नहीं पाते हैं क्योंकि वे भी आरक्षित सीटों पर दलितों को खड़ा करके जाति के नाम पर वोट मांग कर काम चला लेते हैं. अतः यह ज़रूरी है कि दलितों को केवल जाति के नाम पर वोट न देकर दलित मुद्दों के आधार पर वोट देनी चाहिए और सभी पार्टियों को दलित मुद्दों को अपने एजंडे में शामिल करने का दबाव बनाना चाहिए. 
 दरअसल दलित राजनीतिक पार्टियों को डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन के समय बनाये गए संविधान और एजेंडा से सीखना होगा. यह सही है कि एक तो वर्तमान में रिपब्लिकन पार्टी इतनी खंडित हो चुकी है कि उसका एकीकरण तो संभव दिखाई नहीं देता है. दूसरे बसपा का प्रयोग भी लगभग असफल हो चुका है. इससे भारत में दलित राजनीति व्यक्तिवाद, जातिवाद, दिशाहीनता, अवसरवादिता, मुद्दाविहीनता और भ्रष्टाचार का शिकार हो गयी है और अब यह अपने पतन के अंतिम चरण में है. ऐसी दशा में हम लोगों ने आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) नाम के नए दल की स्थापना की है जो सही अर्थों में एक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष दल है तथा समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आधार पर सभी लोगों का उत्थान करना चाहता है और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर डॉ. आंबेडकर की विचारधारा और आदर्शों का इमानदारी से अनुसरण कर रहा है. आइपीएफ जाति-धर्म की राजनीति न करके दलितों, आदिवासियों के लिए सामाजिक न्याय के साथ साथ  अल्पसंख्यकों, किसानों, मजदूरों, महिलायों और समाज के अन्य कमज़ोर वर्गों के मुद्दों की राजनीति का पक्षधर है और समान विचारधारा वाली धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील पार्टियों के साथ गठबंधन करने के पक्ष में भी है.

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