गुरुवार, 11 अगस्त 2016

गुजरात में दलित अस्मिता यात्रा : दलित आन्दोलन का नया माडल



गुजरात में दलित अस्मिता यात्रा : दलित आन्दोलन का नया माडल
एस.आर.दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
गुजरात में दलित आन्दोलन की शुरुआत ऊना में चार दलितों की गोहत्या के नाम पर की गयी निर्मम पिटाई के प्रतिरोध के तौर पर हुयी थी. इसका प्रारंभ दलितों द्वारा धरना, जुलुस और सुरेन्द्र नगर कलेक्ट्र के कार्यालय के बाहर मरी गाय फेंक कर हुआ था. इसी सम्बन्ध में 31 अगस्त को अहमदाबाद में एक महासम्मेलन किया गया था. इस सम्मलेन में जो मांगें रखी गयीं उन में मुख्य मांग तो ऊना काण्ड के दोषियों को दण्डित करने की थी. परन्तु इस के साथ ही जो अन्य मांगें रखी गयीं वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं. इनमे सब से महत्वपूर्ण मांग है दलितों को भूमि वितरण. इस के साथ अन्य मांगें हैं प्रत्येक जिले में दलित उत्पीड़न के मामलों के लिए विशेष अदालतों की स्थापना और 2012 में धनगढ़ में पुलिस फायरिंग में मारे गए तीन दलितों के मामले में दोषी पुलिस वालों को सजा. इसके साथ ही दलितों ने जो घोषणाएं की हैं वे भी बहुत क्रांतिकारी प्रकृति की हैं. इनमें एक बड़ी घोषणा है मरे जानवरों को न उठाना और चमड़ा न उतारना. दूसरी बड़ी घोषणा है हाथ से मल सफाई का काम न करना और गटर और सैप्टिक टैंक की मानव द्वारा सफाई का बहिष्कार. इन दोनों मुद्दों को लेकर दलितों ने इन कामों को न करने की शपथ भी ग्रहण की है.
अब गुजरात के दलितों ने उपरोक्त मुद्दों को लेकर 5 अगस्त से “दलित अस्मिता यात्रा” नाम से अहमदाबाद से ऊना तक मार्च शुरू की है. यह मार्च 15 अगस्त को ऊना पहुंचेगी और उस दिन दलित अपनी आज़ादी का जश्न मनाएंगे. इस मार्च का मुख्य उद्देश्य दलितों में उनकी दुर्दशा और उत्पीड़न के बारे में जागृति पैदा करना और इसके प्रतिरोध के लिए उन्हें लामबंद करना. अब तक देखा गया है कि इस मार्च को हरेक जगह पर बड़ा जन समर्थन मिल रहा है लोग उपरोक्त शपथ भी ग्रहण कर रहे हैं. वहां पर स्थानीय उत्पीड़न और समस्यायों पर चर्चा भी हो रही है. इस यात्रा में भाग लेने वाले लोगों का मनोबल बहुत ऊँचा है. इस मार्च को अलग अलग राज्यों में दलित मीटिंगे, धरने और प्रदर्शन करके अपना समर्थन व्यक्त कर रहे हैं. गुजरात के दलितों को विदेशों से भी दलित संगठनों का समर्थन मिल रहा है.
उक्त दलित अस्मिता यात्रा में जो मुद्दे उठाये गए हैं वे दलितों के बहुत बुनियादी मुद्दे हैं. जाति आधारित भेदभाव और उत्पीड़न को रोकने के लिए सरकार से सख्त कार्रवाही की मांग बहुत महत्वपूर्ण है. यह देखा गया है कि गुजरात पूरे देश में दलित उत्पीड़न के मामले में सबसे अधिक उत्पीड़न वाले पांच राज्यों में से एक है. गृह मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि 2014 में देश भर में दलितों के उत्पीड़न के 47,000 मामले दर्ज हुए थे जबकि 2015 में 54,000 के क़रीब मामले दर्ज हुए हैं. यानी एक साल में 7000 घटनाएं बढ़ीं हैं. इसी प्रकार 2014 में गुजरात में 1100 अत्याचार के मामले दर्ज किये गये थे, जो कि 2015 में बढ़कर 6655 हो गये. इस प्रकार अकेले गुजरात में पिछले साल में दलित उत्पीडन में पांच गुना वृद्धि हुयी है. न्यायालय में इन मुकदमों के निस्तारण की सबसे खराब स्थिति गुजरात की ही है जहां दोषसिद्धि की दर 2.9 फीसदी है जबकि देश में  दोषसिद्धि की दर 22 फीसदी है. इस प्रकार गुजरात में जहाँ एक तरफ दलित उत्पीड़न में भारी वृद्धि हो रही है, वहीँ दूसरी तरफ उत्पीड़न के मामलों में सजा की दर बहुत निम्न है. इन कारणों से गुजरात के दलितों की स्थिति बहुत खराब है. इसके लिए गुजरात की जातिवादी सामाजिक व्यवस्था और सरकार की निष्क्रियता जुम्मेदार है. अतः सरकार पर दलित उत्पीड़न को रोकने का दबाव बनाना, कानून को प्रभावी ढंग से लागू कराने और सभी जिलों में विशेष अदालतों के गठन की मांग बहुत उचित है.
 उक्त यात्रा की सबसे महत्वपूर्ण मांग भूमि वितरण की है. गुजरात में दलितों की कुल आबादी लगभग 7% है परन्तु बहुत ही कम दलितों के पास ज़मीन है. इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि ऊना में 57 दलित परिवारों में से केवल 3 परिवारों के पास ही थोड़ी सी ज़मीन है. यह बताया जाता है कि गुजरात में पहले से बहुत सारी ज़मीन उपलब्ध है जिस का आबंटन भूमिहीनों को किया जाना था परन्तु वह नहीं किया गया. भारत एक कृषि प्रधान देश है. इस की आबादी का सामाजिक और आर्थिक जनगणना 2011 से यह उभर कर आया है कि देहात क्षेत्र में 56% परिवार भूमिहीन हैं और 30% परिवार केवल शारीरिक श्रम ही कर सकते हैं. जनगणना ने इन दोनों वंचनाओं को इन लोगों की बड़ी कमजोरियां होना बताया है. इस श्रेणी में अगर दलितों का प्रतिश्त देखा जाये तो यह 70 से 80 प्रतिश्त हो सकता है. इस प्रकार  ग्रामीण दलितों की बहुसंख्या आज भी भूमिधारी जातियों पर आश्रित है. इस पराश्रिता के कारण चाहे मजदूरी का सवाल हो या उत्पीड़न का मामला हो दलित इन के खिलाफ मजबूती से लड़ नहीं पाते हैं क्योंकि सवर्ण  जातियों के पास सामाजिक बहिष्कार एक बहुत बड़ा हथियार है. अतः उत्पादन के सार्वजानिक संसाधनों के पुनर्वितरण के बिना दलितों की पराश्रिता समाप्त करना संभव नहीं है. इसके लिए भूमि सुधार और भूमिहीनों को भूमि वितरण आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि सौ वर्ष पहले था. इसी लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि गुजरात आन्दोलन में दलितों ने प्रत्येक दलित परिवार को 5 एकड़ भूमि देने की मांग उठाई गयी है. वास्तव में भूमि की मांग पूरे भारत के दलितों के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण मांग है जो कि पूरे देश में दलित आन्दोलन का हिस्सा बननी चाहिए.
गुजरात के दलितों ने हाथ से मैला उठाने और मानव द्वारा गटर और नाले साफ़ करने के काम का बहिष्कार करने की जो घोषणा की है वह बहुत कारगर और क्रान्तिकारी है. यह दोनों काम बहुत कठिन और खतरनाक हैं. वास्तव में यह पेशा दलित जातियों पर ज़बरदस्ती थोपा गया प्रतीत होता है क्योंकि कोई भी सामान्य व्यक्ति इसे आसानी से करने के लिए राजी नहीं हो सकता. इसी लिए डॉ. आंबेडकर ने “भंगी झाड़ू छोडो” का नारा दिया था. यह एक सच्चाई है सदियों से इन पेशों को सुधारने अथवा इन के आधुनिकीकरण के लिए कुछ भी नहीं किया गया है. इसका मुख्य कारण यह है कि वर्तमान में यह पेशा केवल दलित जातियों तक ही सीमित है और सवर्ण जातियों को इनके सुधारने अथवा इनके आधुनिकीकरण की ज़रुरत महसूस नहीं हुयी है. अब अगर दलित इन पेशों का बहिष्कार कर देते हैं जैसा कि गुजरात में स्थिति पैदा हो रही है तो सामान्य जातियों को मजबूर होकर यह काम करना पड़ेगा और मोदी जी के कथनानुसार इसका आध्यात्मिक लाभ भी उठाने का अवसर प्राप्त होगा. जब यह स्थिति आएगी तो सवर्ण जातियों को इन पेशों का आधुनिकीकरण करना पड़ेगा जो सब के हित में होगा. अगर गुजरात के दलितों से शेष भारत के दलित भी प्रेरणा लेकर इन पेशों का बहिष्कार करना शुरू कर देते हैं तो देश में सफाई कर्मियों के पेशे में क्रांतिकारी परिवर्तन हो जायेगा.
गुजरात के दलितों ने मरे पशु न उठाने और चमड़ा न उतारने के काम का बहिष्कार करके एक क्रांतिकारी  कदम उठाया है. एक तो यह काम केवल दलितों पर ही थोपा गया है और दूसरे इस काम को घृणा की दृष्टि से  देखा जाता है. इस पर इधर दलितों को गोरक्षकों की गुंडागर्दी और प्रताड़ना भी झेलनी पड़ रही है. इस काम को दलितों द्वारा ही किये जाने के कारण इस में न तो कोई सुधार हुआ है और न ही इसका आधुनिकीकरण ही हुआ है. सवर्णों द्वारा इस काम को घृणा की दृष्टि से देखे जाने और इसके लिए दलितों को नीच समझे जाने के कारण ही डॉ. आंबेडकर ने 1929 में इसे छोड़ देने का आवाहन किया था. यह बात निश्चित है कि जब तक सवर्ण भी इस काम को करने के लिए बाध्य नहीं होंगे तब तक इसका न तो कोई सुधार होगा और न ही आधुनिकीकरण. इस पेशे के प्रति धारणा भी तभी बदलेगी जब सवर्ण भी इसे करने लगेंगे.
गुजरात के दलित आन्दोलन से यह बात भी स्पष्ट हुयी है कि जब तक दलितों के वास्तविक मुद्दे जैसे जातिगत उत्पीड़न, भूमि आबंटन, रोज़गार, दलितों से जुड़े पेशों में सुधार और उनका आधुनिकीकरण, संसाधनों का पुनर्वितरण, निजीकरण का विरोध और सामाजिक सम्मान दलित आन्दोलन और दलित राजनीति के केंद्र में नहीं आते तब तक दलितों का न तो सशक्तिकरण होगा और न ही उनका उत्पीड़न रुकेगा. गुजरात दलित आन्दोलन की यह भी विशेषता है कि यह वर्तमान अस्मिता की राजनीति से प्रेरित न होकर जनता का स्वत स्फूर्त आन्दोलन है. इसके केंद्र में केवल दलित सम्मान ही नहीं बल्कि उस सम्मान को मूर्तरूप देने के लिए व्यवस्था परिवर्तन और सार्वजानिक संसाधनों में हिस्सेदारी जैसे भूमि तथा रोज़गार आदि मुद्दे भी हैं. यह भी सर्वविदित है कि वर्तमान दलित राजनीति केवल अस्मिता और सम्मान की बात करती रही है परन्तु इसे प्राप्त करने हेतु सार्वजानिक संसाधनों जैसे भूमि जो सवर्ण जातियों के कब्जे में है, के पुनर्वितरण तथा व्यापार एवं उद्योग में हिस्सेदारी आदि मुद्दों से भागती रही है. इन कारणों से वर्तमान दलित राजनीति व्यक्तिवाद, जातिवाद, स्वार्थपरता, सौदेबाजी और मुद्दाविहिनता का शिकार हो गयी है जिसका लाभ केवल कुछ व्यक्तियों को ही हुआ है व्यापक दलित समुदाय को नहीं. वर्तमान गुजरात दलित आन्दोलन ने दलित संघर्ष और दलित राजनीति को नयी दिशा दी है और दलितों से जुड़े मुद्दों को उछाला है. इस आन्दोलन के संचालक व्यक्ति कम दलित सरोकार ज्यादा हैं. इससे एक आशा जगती है कि दलित राजनीति और दलित आन्दोलन जाति और व्यक्तियों की पकड़ से मुक्त होकर दलित मुद्दों पर आधारित होगा जिस से दलितों का वास्तविक सशक्तिकरण और उत्थान होगा और बाबासाहेब का जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज की स्थापना का सपना साकार हो सकेगा.   

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