शनिवार, 25 अप्रैल 2015

भगवान दास जी का योगिंदर सिकंद द्वारा लिया गया साक्षात्कार




भगवान दास जी का योगिंदर सिकंद द्वारा लिया गया साक्षात्कार
(भगवान दास (23 अप्रैल, 1927- 18 नवम्बर, 2010) जी का यह साक्षात्कार उनके परिनिर्वाण से काफी पहले लिया गया था. इस साक्षात्कार में भगवान दास जी ने दलित आन्दोलन से अपने जुड़ने, दलित आन्दोलन की कमजोरियों, जातिभेद के विनाश के लिए बाबा साहेब के बौद्ध धर्म आन्दोलन की प्रासंगिकता, भंगी जातियों के बाल्मिकीकरण और दलित आन्दोलन के भविष्य की संभावनाएं एवं उसकी सही दिशा के बारे में काफी सारगर्भित तथा बेबाक टिप्पणियाँ की हैं. सब से पहले यह साक्षात्कार अंग्रेजी में इन्टरनेट पर छपा था जिसे बाद में सिकंद जी ने “धर्म और राजनीति” नामिक पुस्तिका में हिंदी में भी प्रकाशित किया था. यह साक्षात्कार आज 23 अप्रैल को उनके जन्म दिन के अवसर पर स्मृति के तौर पर प्रकाशित किया जा रहा है.)
प्र०: आप दलित आन्दोलन में किस प्रकार आये?
उ०: मेरा जन्म हिमाचल प्रदेश में एक अछूत परिवार में हुआ. मेरे पिता एक पोस्ट आफिस में सफाई-कर्मचारी थे. मेरी माँ अर्द्ध-मुस्लिम परिवार से थी. मुझे डॉ. आंबेडकर से मिलने का अनुभव कुछ अवसरों पर हुआ. सब से पहले मैं उन को बम्बई में1943 में मिला. वायु सेना नौकरी करते समय मेरी पोस्टिंग हुयी तो उनको मिलने के लिए हफ्ते में तीन बार ज़रूर जाता था, मैं कुछ पेपर वर्क करता था जैसे पेपर क्लिपिंग इत्यादि जो वह मुझे देते थे, टाइपिंग और अन्य कार्य जो मुझे सूचना के तौर पर इकठ्ठा करने होते थे. इस प्रकार मैं दलित आन्दोलन में आया. डॉ. आंबेडकर ने 1956 में बौद्ध धर्म अपनाया, मैंने भी 1957 में अपने परिवार सहित बौद्ध धर्म अपना लिया.
प्र०: आंबेडकर ने बौद्ध धर्म क्यों अपनाया?
उ०: अवर्ण होने के कारण दलित कभी भी हिन्दू नहीं रहे थे, वे चार वर्णों से बाहर थे. डॉ. आंबेडकर के अनुसार बौद्ध धर्म दलितों का मूल धर्म था. यह आज़ादी और मुक्ति का धर्म है. डॉ. आंबेडकर मानते थे कि सभी राजनैतिक क्रांतियों से पहले सामाजिकऔर धार्मिक क्रांतियाँ हुयीं, अतः धर्मपरिवर्तन दलित संघर्ष की मूलभूत आवश्यकता थी.
हम दलित कभी भी हिन्दू नहीं थे. असल में ब्राह्मणवादी परम्पराओं और विश्वासों से अलग हमारी अपनी मान्यताएं थीं. मेरी अपनी भंगी जाति को ही ले लीजिये. वे न हिन्दू थे, न मुसलमान. हमें इनमें कहीं भी रखना मुश्किल था क्योंकि हम किसी हिन्दू भगवान की पूजा नहीं करते थे, न ही हम मस्जिद में नमाज़ पढ़ने जाते थे. हमारे अपने महापुरुष थे जिन की हम पूजा करते थे लेकिन वो रीति रिवाज़ अब भुला दिए गए हैं क्योंकि हिन्दू संस्थाएं हमें हिंदू बनाने पर तुली हुई हैं.
हम भंगियों के अपने महात्मा हुए हैं जिनका नाम लालबेग था लेकिन बाद के आर्यसमाजियों ने हमें हिन्दू बना दिया कि हम बाल्मीकि के शिष्य हैं जिन्होंने बाल्मीकि रामायण लिखी. मैंने इस मिथ को कभी नहीं स्वीकारा.
प्र०: लालबेग कौन था?
उ०: कुछ लोग कहते हैं कि लालबेग वास्तव में भिक्षु था जो एक बौद्ध संत हो सकता है. यदि उत्तर भारत की भंगी जातियों की लालबेग को समर्पित प्रार्थनाएं सुनेंगे तो आप को कुछ मज़ेदार बातें पता चलेंगी. इन प्रार्थनाओं को कुर्सीनामा कहते हैं. यंगस्टन ने इन्हें इकठ्ठा किया और अपनी पुस्तक एंटीक्वेरीज़ आफ इंडिया में प्रकाशित किया. ये ओल्ड टेस्टामेंट के जेनेसिस की तरह हैं. कुर्सीनामा बताती है कि हम न हिन्दू हैं न मुसलमान. कहीं पर हिन्दू भगवान राम और कृष्ण का ज़िक्र नहीं है. लेकिन मज़ेदार बात यह है कि कुर्सीनामा की शुरुआत “बिस्मिल्लाह-इरर्रह्मान इर्ररहीम” से होती है जो कि कुरआन की आयत है जिसे शुरुआत में पढ़ा जाता है और अंत में वे सभी चिल्लाते हैं “बोलो मोमिनों वोही एक है.” ( ओ! भक्तो वो ही एकमात्र सत्य है). कुर्सीनामा में कई जगह पर बालाशाह और लालबेग का नाम एक दुसरे के लिए इस्तेमाल किया गया है. बलाशाह एक प्रसिद्ध पंजाबी संत थे. पंजाबी साहित्य में अपने समय की महान रचना “हीर” में पंजाबी सूफी कवि वारिसशाह कहते हैं कि बलाशाह दो निम्न जातियों चूहड़े और पासियों के पीर थे.
प्र०: क्या भंगी अभी भी इस बात से परिचित हैं?
उ०: दुर्भाग्यवश बहुत कम लोग इस बारे में जानते हैं. वह परम्परा लुप्त होती जा रही है. एक कारण तो यह है कि हिन्दू संस्थाएं अपनी संख्या बढ़ाने के चक्कर में भंगियों को हिन्दू बना रही हैं क्योंकि उन्हें खतरा है कि भंगी अगर ईसाई बन जायेंगे जैसा कि 1873 में हुआ और 1931 तक चलता रहा. अतः उन्होंने धर्मान्तरण  रोकने के लिए सभी हथकंडे अपनाये. दूसरी ओर उन्होंने यह कहानी बेचनी शुरू कर दी कि भंगी वास्तव में वाल्मीकि के वंशज हैं. उन का यह भी कहना है कि बालाशाह जो कि लालबेग का दूसरा नाम था, वाल्मीकि का अपभ्रंश रूप था.
प्र०: लेकिन यह कैसे संभव है जब बाल्मीकि रामायण में जाति व्यवस्था को उचित ठहराते हैं? वह हमें बताते हैं कि राम ने शम्बूक की गर्दन इसलिए उड़ा दी थी क्योंकि वह स्वर्ग जाने लिए समाधि (ध्यान) लगा रहा था.
उ०: यह एक मिथ है. समस्या यह है कि वे किस बाल्मीकि की बात कर रहे हैं: वो ब्राह्मणवादी बाल्मीकि जो ब्राह्मण है और वरुण के दसवें पुत्र होने का दावा करता है? या वह बाल्मीकि जिसे पुरानों में डाकू बताया गया है? जिस बाल्मीकि ने रामायण लिखी वह जाति व्यवस्था का समर्थन करता है. अतः वह भंगी कैसे हो सकता है. वह वास्तव में ब्राह्मण था. बाल्मीकि और भंगी जाति के संबंधों में एक समस्या है कि जब चमार रविदास को अपना मानते हैं तो दोनों के मध्य एक सम्बन्ध बनता है, जैसे जुलाहा और बुनकर कबीर को अपना कहते हैं लेकिन रामायण के बाल्मीकि और भंगियों में कोई सम्बन्ध नहीं है.
प्र०: क्या भंगियों के इस संस्कृतिकरण से उनकी सामाजिक स्थिति में कोई सुधार आया है?
उ०: नहीं, बिलकुल नहीं. मैं इसे संस्कृतिकरण नहीं कहूँगा. वास्तव में यह ब्राह्मणी रीती रिवाजों का सस्ता  अनुकरण है. संस्कृतिकरण के कारण भंगियों की सामाजिक गतिशीलता नहीं बढ़ी है. जाति के मामले में मुश्किल यह है कि अगर आप इसे दरवाजे से बाहर फेंकना चाहें तो वह पिछले दर्वाज़े या खिड़की से फिर अन्दर आ जाती है. दलितों के ईसाई धर्म, सिख धर्म और इस्लाम में धर्मांतरण का यही हाल हुआ है जबकि ये धर्म सिद्धांत रूप में समतावादी हैं परन्तु हिन्दू धर्म में ऐसा नहीं हैं. जहाँ तक मैं समझाता हूँ संस्कृतिकरण के नाम पर रीति-रिवाजों में कुछ बाहरी परिवर्तन तो हो सकते हैं लेकिन इससे दलितों के प्रति ऊँची जाति वालों का रवैया नहीं बदलता. भंगियों का यही तजुर्बा रहा है जो बाल्मीकि होने का दावा करते हैं. इसलिए अगर एक भंगी अपने आप को बाल्मीकि या चमार या रविदासी या आधर्मी या बढ़ई कहने लगता है, इससे दलितों के प्रति हिंदुयों के रवैये में कोई बदलाव नहीं आता.
प्र०: आपके हिसाब से दलित मुक्ति संघर्ष में संस्कृतिकरण का क्या प्रभाव पड़ेगा?
उ०: मेरे हिसाब से दलितों को हिन्दू बनाने का ही दूसरा नाम संस्कृतिकरण है. दलित मुक्ति पर इस का बुरा असर पड़ा है. यह दलितों को बांटता है. चमारों में जो उत्तर भारत में संख्या में सबसे ज्यादा हैं संस्कृतिकरण की वजह से वे 67 उप-जातियों में बंट गए हैं. इनमें से कोई भी दूसरी जाति में शादी नहीं करता है. उत्तर प्रदेश में भंगी 7 सजातीय समूहों में बंटे हैं. संस्कृतिकरण से उन लोगों के रूख  में कोई परिवर्तन नहीं आया है जो सदियों से दलितों के प्रति छुआछूत कर रहे थे. तौर तारीके बदल सकते हैं लेकिन नफरत बरक़रार है.
दलितों के हिन्दुकरण से उनके अन्दर चेतना का आना बहुत मुश्किल हो जाता है क्योंकि हिन्दू बन गयी दलित जातियां उन समूहों से नफरत करने लगती हैं जो कम हिन्दू हैं. यदि आप एक बाल्मीकि पुरुष से एक धानुक या बांसफोड़ महिला से शादी करने को कहें तो वह साफ़ तौर पर इनकार कर देगा क्योंकि धानुक और बांसफोड़  बाल्मिकियों के मुकाबले कम हिन्दू हैं.
प्र०: दलित जातियों और उनके मुक्ति संघर्ष पर हिंदुत्व के एजंडा का क्या असर है?
उ०: मेरी दृष्टि में हिंदुत्व संगठन दलितों को जो हिन्दू नहीं हैं हिन्दू धर्म में लाना चाहते हैं और सब से नीचे रखना चाहेंगे. ऐसा गाँधी जी ने भी किया. वे दलितों को बताते थे कि भगवान ने दलितों को सिर्फ इसलिए बनाया है कि वे सवर्णों की सेवा कर सकें और उन्हें इस उम्मीद से अपने जातीय धंधे करते रहना चाहिए ताकि अगले जन्म में उन का जन्म ऊँची जाति में हो सके. हिंदुत्व का पूरा प्रोजेक्ट यही है. इसलिए हिंदुत्व का बढ़ना दलितों के विचार से बहुत खतरनाक है. यदि आप इस जातीय ढांचे में मूलभूत परिवर्तन लाने के विषय में गंभीर हैं तो आप को जातीय व्यवस्था और उसे पैदा करने वाली धार्मिक विचारधारा पर जम कर हमला करना होगा. लेकिन हिंदुत्व के संगठन न तो ऐसा करेंगे और न ही वे ऐसा कर सकते हैं.
प्र०: हिंदुत्व की आदर्श व्यवस्था की क्या स्थिति होगी?
उ०: हिंदुत्व की योजनाओं के अनुसार सबसे आदर्श युग जिसे स्वर्णिम युग कहते हैं, वह युग वेदों, रामायण, गीता और मनुस्मृति का युग है. तब उस समय दलितों और शूद्रों की क्या स्थिति थी? हम लोगों के साथ गुलामों से भी बदतर व्यवहार किया जाता था और उसे इन ब्राह्मणवादी शास्त्रों में धार्मिक मान्यता प्रदान की गयी थी जिसे हिंदुत्व के प्रहरी आज प्रचारित कर रहे हैं. हिंदुत्व के संगठन वर्ण-व्यवस्था को अलग अलग तरीकों से लागू करना चाहते हैं और यह हमारे लिए सबसे खतरनाक प्रभाव है. अभी मैं आर.एस.एस. के प्रमुख गोलवलकर की पुस्तक पढ़ रहा था जिसमे उन्होंने कहा है कि जाति-व्यवस्था ने कोई नुक्सान नहीं पहुँचाया है. जाति-व्यवस्था का गुणगान उनके लिए अच्छा हो सकता है परन्तु हमारे लिए कदापि नहीं. हमारी दृष्टि से हिंदुत्व का बढ़ना किसी भी कीमत पर बढ़ती दलित-चेतना को रोकना है जो दलित मुक्ति का एक मात्र रास्ता है और इसके लिए हिंदुत्व की शक्तियां उनका ध्यान बांटने के लिए मुसलामानों और ईसाईयों को अपना निशाना बना रही हैं.
प्र०: धर्म का विस्तृत संघर्ष में क्या रोल है?
ऊ०: मैं समझाता हूँ कि एक समाज के चलाने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं: पहला विवाह, दूसरा सरकार और तीसरा धर्म जो को एक नैतिक आधार देता है और जोड़ता है. इस सवाल ने डॉ. अम्बेडकर को उस वक्त बहुत उद्देलित किया था जब उन्होंने हिन्दू धर्म छोड़ा,जिस के साथ ऐतहासिक रूप से बहुत कम लोग जुड़े थे. अतः उन्होंने बौद्ध धर्म की नयी परिभाषा दी जो दक्षिणी अमेरिका के कैथोलिकों की लिबरेशन थियोलोजी से मिलती जुलती थी. उनका पहला सवाल होता था कि धर्म का समाज में क्या रोल है? उन्होंने जोर देकर कहा कि धर्म एक अछी नर्स है परंतु खराब रखैल है क्योंकि धर्म ने बहुत अच्छा और तोड़क रोल भी खेलें हैं.
प्र०: बहुत से महायानी और हीनयानी बौद्ध कहते हैं कि आंबेडकर की बौद्ध धर्म की परिभाषा बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है?
उ०: यह बात सही है कि आंबेडकर द्वारा दी गयी बौद्ध धर्म की परिभाषा महायान और हीनयान दोनों से कई महत्वपूर्ण मामलों में भिन्न है. लेकिन शुरू से ही बुद्ध की मौत तक बौद्ध धर्म में आन्तरिक विविधताएँ रही हैं. उदाहरणार्थ जापान में 1260 विभिन्न समुदाय हैं.
प्र०: क्या दलित बौद्ध आन्दोलन और आजकल के ईसाई समुदय में दृश्य दलित ईसाई दह्र्म में कोई सम्बन्ध है?
उ०: दलित क्रिश्चियन थिओलोजी पिछले दस साल में उभर कर आई है जो कि दलितों की चेतना में आ रही वृद्धि के फलस्वरूप है. मेरा यह व्यक्तिगत विचार है कि यह चर्च के भीतर वर्णवाद और सवर्ण प्रभुत्ववाद के विरुद्ध एक चुनौती है. मैंने दलित क्रिश्चियन थिओलाजी का असर अन्य गैर-ईसाई दलितों पर पड़ते नहीं देखा. कई गैर ईसाई चर्च के अचानक दलित सवाल को उठाने को संशय की दृष्टि से देखते हैं. मैं समझता हूँ कि चर्च के लोग इस बात से परेशान हैं कि ईसाईयों की संख्या घट रही है क्योंकि कई दलित ईसाई आरक्षण का फायदा उठाने के लिए चर्च छोड़ रहे हैं. कानून के अनुसार आरक्षण क्रिश्चियन दलितों को नहीं है. शायद दलित क्रिश्चियन थिओलाजी इसे रोकने का ही एक हिस्सा है.
प्र०: क्या आप यह कहेंगे कि दलितों में आज धर्मान्तरण मुख्यत: बौद्ध धर्म की और है न कि ईसाई धर्म की ओर?
उ०: हाँ मुझे तो ऐसा ही दिखता है. बौद्ध धर्म से उन्हें गर्व और पहचान का अनुभव होता है और यह उन्हें पुराने स्वार्णिम काल से जोड़ता है. लेकिन बौद्ध धर्म आन्दोलन उतनी तेजी से नहीं चल रहा है जितना कि हम चाहते हैं. एक कारण तो यह है कि भिक्खुओं की ट्रेनिंग की कोई व्यवस्था नहीं है, हालाँकि डॉ. अम्बेडकर ने इस के लिए कहा था. उन्होंने कहा था कि भिक्खुओं के प्रशिक्षण के लिए स्कूल होने चाहिए जैसे प्राचीन बौद्धों  ने बनाए थे. नालंदा और तक्षिला के विश्वविद्यालय इस का एक उदाहरण हैं. शुरुआत के लिए हम ने कोशिश की. अपने भिक्खुओं को प्रशिक्षण के लिए थाईलैंड भेजा. उनमें से कई लोग प्रशिक्षण पूरा करने के बाद पच्छिम की ओर चले गए और वे भारत में सेवा करने के लिए वापस नहीं आये. यह हमारे लिए एक बड़ी समस्या है. लेकिन इस साल हम इस समस्या को हल करने के लिए कोशिश कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में भिक्षुओं के प्रशिक्षण के लिए एक शिक्षणालय खोलने की योजना है जिस में बौद्ध धर्म-शास्त्रों की शिक्षा दी जाएगी. आंबेडकर के दर्शन और अन्य समकालीन धर्मों के बारे में भी पढ़ाया जायेगा.
प्र०: बौद्ध धर्म में धर्म-परिवर्तन से महाराष्ट्र के महारों पर, जिस जाति से डॉ. अम्बेडकर थे, क्या प्रभाव पड़ा है?
उ०: मेरे हिसाब से धर्म बदलने से केवल रीति-रिवाजों में परिवर्तन आया है. सामाजिक स्तर पर कोई खास बदलाव नहीं आया है. लेकिन धर्म बदलने से कई लोगों ने शराब पीना छोड़ दिया और हिन्दू देवी देवताओं जैसे राम और कृष्ण की पूजा करना भी छोड़ दी है. आज महाराष्ट्र में बौद्ध धर्म मुख्यतः महारों तक ही सीमित है और उनके प्रति दूसरों का रवैया हकीकत में नहीं बदला है. लेकिन कम से कम धर्म बदलने से उनको एक नयी पहचान तो मिली है और उनके अन्दर आत्म-सम्मान की भावना आई है.
प्र०: क्या बौद्ध धर्म की मदद से जाति-व्यवस्था कमज़ोर पड़ सकती है?
उ०: आज ऐसा  ही हो रहा है हालाँकि इस की रफ़्तार धीमी है. मिसाल के तौर पर आंबेडकर मिशन सोसाइटी जिस से मैं जुड़ा हूँ के सभी सदस्य बौद्ध हैं. हम इस बात पर जोर दे रहे हैं कि परिवार का एक सदस्य अपनी जाति से बाहर शादी करे. जाति-व्यवस्था को ख़त्म करने का यही एक तरीका है. यदि अलग-अलग जातियों वाले दलित बौद्ध धर्म में आ जाएँ और अंतरजातीय विवाह शुरू करें तो ऐतहासिक तौर रूप से दलितों को कमज़ोर करने के लिए इन के बीच जो मतभेद पैदा किये गए हैं वह धीरे धीरे समाप्त हो जायेंगे. उन्हें इकट्ठा होने का अवसर मिलेगा.  इससे उनको एक पहचान मिलेगी और वे गर्व महसूस करेंगे. अगर वे धर्म परिवर्तन नहीं करते तो वे कई सौ जाति-समूहों में बंटे रहेंगे और उनकी कोई पहचान भी नहीं बन पायेगी.        

शनिवार, 28 मार्च 2015

कैपिटल-असामनता का अर्थशास्त्र | कस्बा

कैपिटल-असामनता का अर्थशास्त्र | कस्बा

डॉ. आंबेडकर : आधुनिक भारत के निर्माता



डॉ. आंबेडकर : आधुनिक भारत के निर्माता
-एस.आर. दारापुरी आई.पी.एस.(से.नि.)

डॉ. बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर एक अछूत परिवार में पैदा हुए थे जो सभी प्रकार के सामाजिक, शैक्षिक, धार्मिक व राजनीतिक अधिकारों से वंचित वर्ग था. इसके बावजूद भी उनकी गिनती दुनिया के सबसे अधिक शिक्षित लोगों में की जाती है. उनके पास अमेरिका, इंग्लैण्ड तथा जर्मनी की उच्च डिग्रियां थीं. इतना शिक्षित होते हुए भी उन्हें समाज में घोर अपमान का सामना करना पड़ा. जब वे महाराजा बड़ोदा के दरबार में सैनिक सलाहकार के उच्च पद पर नियुक्त हुए तो उन्हें इतना अपमानित होना पड़ा कि उन्हें यह नौकरी छोड़नी पड़ी. जाति अपमान से तंग आ कर उन्होंने कभी भी नौकरी न करने का निर्णय लिया तथा इंग्लैण्ड से वकालत पास कर स्वतंत्र रूप से बम्बई में वकालत शुरू कर दी.
डॉ. आंबेडकर  इस्राईल के लोगों के मुक्तिदाता मोजिज़ की तरह अपने लोगों को जगाने, संगठित करने, अपनी शक्ति से परिचित कराने तथा अपने अधिकारों का प्रयोग सम्मानसहित करने के लिए प्रेरित कर रहे थे. उन्होंने दलितों को “शिक्षित हो, संघर्ष करो और संगठित हो” का नारा देकर मुक्ति का रास्ता दिखाया.
उन्होंने चालू शिक्षा पद्धति के बारे में महात्मा गणाधी, सी. राजगोपालचारी, रविन्द्रनाथ टैगोर, डॉ. जाकिर हुसैन तथा अन्य की तरह मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा की आलोचना नहीं की और न ही वे नए सिदधान्त गढ़ने में लगे रहे. इस के विपरीत डॉ. आंबेडकर ने अपने बच्चों को स्कूल तथा कालेज भेज कर पढ़ाने की प्रेरणा दी. उनका शिक्षा प्रचार का कार्यक्रम केवल दलितों तक ही सीमित नहीं था बल्कि उन्होंने सभी वर्गों के लिए उच्च शिक्षा उपलब्ध कराने का प्रयास किया. डॉ. आंबेडकर ने इस हेतु “पीपल्ज़ एजुकेशन सोसायटी” के माध्यम से बबई में कालेज स्थापित किये जिनमें बिना किसी भेदभाव के सभी को शिक्षा उपलब्ध करायी और जनसाधारण की समस्यायों को सामने रख कर उनमें प्रातः तथा सायंकाल पढ़ाई की व्यवस्था की. इससे हजारों नवयुकों और महिलायों ने लाभ उठाया. बाबा साहेब ने दलित वर्ग के पढ़े लिखे युवकों के लिए सरकारी नौकरियों में मुसलामानों तथा अन्य अल्पसंख्यक वर्गों की तरह आरक्षण की मांग उठाई.
बाबा साहेब ने केवल अछूतों की मुक्ति के लिए ही संघर्ष नहीं किय बल्कि उन्होंने राष्ट्र के निर्माण एवं भारतीय समाज के पुनरनिर्माण में कई तरीकों से महत्वपूर्ण योगदान दिया. वे अपने देश के लोगों को बहुत प्यार करते थे तथा उन्होंने उनकी मुक्ति और खुशहाली के लिए बहुत काम किया.
भारत के भावी संविधान के निर्माण के सम्बन्ध में 1930 तथा 1932 में इंग्लैण्ड में गोलमेज़ कांफ्रेंस बुलाई गयी जिसमें उन्हें डिप्रेस्ड क्लासेज़ के प्रतिनिधि के रूप में आमंत्रित किया गया तो इसका गांधी जी ने बहुत विरोध किया. डॉ. आंबेडकर ने अपने भाषण में अँग्रेज़ सरकार की तीखी आलोचना करते हुए कहा, “अँग्रेज़ सरकार ने हमारे उद्धार के लिए कुछ भी नहीं किया है. हम इस से पहले भी अछूत थे और अब भी अछूत हैं. यह सरकार दलित हितों की विरोधी है तथा उनकी मुक्ति और अपेक्षायों के प्रति उदासीन है. यह सरकार  ऐसा जानबूझ कर कर रही है. केवल लोगों की सरकार, लोगों के लिए सरकार और लोगों द्वारा सरकार स्थापित होने पर ही उनका भला हो सकता है. अतः हमारी पहली मांग है – स्वराज.” इस संक्षिप्त उद्धरण से बाबा साहेब की देश प्रेम और स्वंत्रता की चाह का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
बाबा साहेब को केवल दलित हितों को बढ़ाने तथा शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए ही याद नहीं किया जाता है बल्कि उन्हें राष्ट्र निर्माण एवं उसके आधुनिकीकरण में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए भी याद किया जाता है. इसके कुछ प्रमुख पहलू निम्नलिखित हैं:-
1.       भारत सरकार अधिनियम 1935 लागू होने पर प्रान्तों में विधान सभाएं स्थापित करने एवं स्वराज की पद्धति लागू करने का निर्णय लिया गया तो बाबा साहेब ने राजनीतिक क्षेत्र में दलितों की हिस्सेदारी करने के ध्येय से स्वतंत्र मजदूर पार्टी (Independent Labour Party) की स्थापना की तथा उसके झंडे तले 1937 का पहला चुनाव लड़ा. इसमें उन्हें बहुत अच्छी सफलता मिली. इस पार्टी में दलितों के हितों के साथ साथ मजदूर हितों की वकालत भी की गयी थी तथा कई प्रस्ताव रखे गए थे. बाबा साहेब चाहते थे कि मजदूरों को केवल बेहतर कार्य स्थिति से ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए बल्कि उन्हें राजनीति में भाग लेकर राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त करनी चाहिए.
2.       बाबा साहेब जानते थे कि भारत की निरंतर बढ़ती आबादी भी उस के पिछड़ेपन का कारण है. इसी लिए उन्होंने 1940 में बम्बई एसेम्बली में परिवार नियोजन योजना लागू करने का बिल प्रस्तुत किया था. इससे भी उनके देश प्रेम की झलक मिलती है.
3.       उन्होंने 1942 में स्वतंत्र मजदूर पार्टी भंग करके “शैड्युल्ड कास्ट्स फेडरेशन” नाम की पार्टी की स्थापना की तथा दलित वर्ग की अखिल भारतीय स्तर की कांफ्रेंस की. उन्होंने दलित महिलायों का भी सम्मलेन किया. वे चाहते थे कि महिलायों को अपनी मुक्ति और अधिकारों के लिए स्वयं लड़ना चाहिए. उन्होंने महिलायों को शराब बंदी लागू करने के लिए संघर्ष करने के लिए भी प्रेरित किया. उन्होंने महिलायों को सलाह दी कि यदि उनका पति शराब पीकर घर आये तो वे उसे खाना न दें. इस से बाबा साहेब की महिलायों की मुक्ति सम्बन्धी चिंता का आभास मिलता है.
4.       सन 1932 में साम्प्रदायिक पंचाट के अनुसार दलितों को सरकारी नौकरियों में एवं विधान सभायों  में आरक्षण की सुविधा मिली थी जिस का महात्मा गाँधी द्वारा मरण व्रत रख कर विरोध किया गया.  अंत में बाबा साहेब को गाँधी जी की जान बचाने के लिए दलितों के पूना पैकट करके राजनीतिक अधिकारों की बलि देनी पड़ी तथा अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने के अधिकार को छोड़ना पड़ा जिस का खमियाज़ा दलित वर्ग आज तक भुगत रहा है.
5.       यह देखा गया था कि कांग्रेस के लोग दलित वर्ग की मीटिंगों में गड़बड़ी फैलाकर अशांति फैला देते थे. अतः इसे रोकने के लिए बाबा साहेब ने स्वयं सेवक संघ की तरज पर दलित नवयुवकों का “समता सैनिक दल’ बनाया. सन 1942 में उन्होंने इस का बड़ा सम्मलेन भी किया. बाबा साहेब इस के माध्यम से दलित नवयुवकों में अनुशासन, आत्म रक्षा एवं अपने नेताओं की रक्षा करने तथा अत्याचार का विरोध करने की भावना पैदा करना चाहते थे.
6.       यह सर्वविदित है कि स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण में बाबा साहेब का महत्वपूर्ण योगदान है. परन्तु फिर भी कुछ लोग इस को बहुत कम करके दिखाने की कोशिश करते रहते हैं. इस से कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि आज भारत में यदि लोकतंत्र जीवित है तो वह इस संविधान के कारण ही है. भारत में संसदीय लोकतंत्र और सरकारी समाजवाद की स्थापना में बाबा साहेब का अद्वितीय योगदान है.
7.       बाबा साहेब अछूतों के साथ-साथ महिलायों के भी शुद्र होने की स्थिति के कारण व्याप्त दुर्दशा एवं अधोगति से बहुत दुखी थे. अतः वे महिलायों को भी कानूनी अधिकार दिलाना चाहते थे. 1952 में जब वे भारत के कानून मंत्री बने तो उन्होंने अथक परिश्रम करके हिन्दू कोड बिल तैयार किया और उसे पास करने हेतु संसद में पेश किया. परन्तु जब कट्टरपंथी हिंदुयों द्वारा उस बिल का विरोध किया गया और तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु भी कमजोरी दिखाने लगे तो डॉ. आंबेडकर ने खिन्न हो कर विरोध स्वरूप अपने पद से इस्तीफा दे दिया. बाद में वही बिल हिन्दू विवाह एक्ट, हिन्दू उतराधिकार एक्ट, हिन्दु स्पेशल मैरेज एक्ट आदि के रूप में 1956 में पास हुआ. इससे स्पष्ट है कि भारतीय, खास करके हिन्दू नारी के उत्थान में डॉ. आंबेडकर का महान योगदान है. इतना ही नहीं डॉ. आंबेडकर समान नागरिक संहिता ( Common Civil Code) के भी पक्षधर थे.
उपरोक्त के अतिरिकित डॉ. आंबेडकर का बहुत बड़ा योगदान भारत के औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण की नींव डालने का रहा है. दुर्भाग्यवश  उनके इस क्षेत्र में दिए गए योगदान को लोगों के सामने प्रकट नहीं किया गया. इस क्षेत्र में उन का प्रमुख योगदान मजदूर वर्ग का कल्याण, बाढ़ नियंत्रण, बिजली उत्पादन, कृषि सिंचाई एवं जल यातायात सम्बंधी योजनाएं तैयार करना था. इसके फलस्वरूप ही बाद में भारत में औद्योगीकरण एवं बहुउद्देशीय नदी जल योजनायें बन सकीं.
सन 1942 में जब बाबा साहेब वायसराय की कार्यकारिणी समिति के सदस्य बने थे तो उन के पास श्रम विभाग था जिस में श्रम, श्रम कानून, कोयले की खदानें, प्रकाशन एवं लोक निर्माण विभाग थे.
बाबा साहेब लम्बे अरसे तक मजदूरों की बस्ती में रहे थे. अतः वे मजदूरों की समस्यायों से पूरी तरह परिचित थे. अतः श्रम मंत्री के रूप में उन्होंने मजदूरों के कल्याण के लिए बहुत से कानून बनाये जिन में प्रमुख इंडियन ट्रेड यूनियन एक्ट, औद्योगिक विवाद अधिनियम, मुयावज़ा, काम के घंटे तथा प्रसूतिलाभ आदि प्रमुख हैं. अंग्रेजों के विरोध के बावजूद भी उन्होंने महिलायों के गहरी खदानों में काम करने पर प्रतिबंध लगाया. उन्होंने मजदूरों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त करने हेतु भी प्रेरित किया. वास्तव में वर्तमान में जितने भी श्रम कानून हैं उनमें से अधिकतर बाबा साहेब के ही बनाये हुए हैं जिस के भारत का मजदूर वर्ग उनका सदैव ऋणी रहेगा.
बाबा साहेब सफाई मजदूरों का कल्याण और उन्हें संगठित करने के लिए भी बहुत प्रयासरत थे जबकि गाँधी जी उन्हें भंगी बने रहने की शिक्षा देते थे तथा उन की हड़ताल को अनैतिक कार्य मानते थे. बाबा साहेब ने सर्वप्रथम बम्बई नगर महापालिका के सफाई मजदूरों को संगठित करके उनकी ट्रेड यूनियन बनवाई. वे इसी प्रकार के संगठन की स्थापना देश के अन्य भागों में भी करना चाहते थे और उसे अखिल भारतीय स्वरूप देना चाहते थे. उन्होंने इसी उद्देश्य से दो सदस्यी समिति भी बनायी तथा उसे विभिन्न प्रान्तों में जाकर सफाई मजदूरों की स्थिति एवं लागू कानूनों का अध्ययन कर रिपोर्ट देने को कहा. इस से स्पष्ट है कि बाबा साहेब सफाई मजदूरों को न्याय दिलाने तथा उन्हें अन्य ट्रेड यूनियनों की तर्ज़ पर संगठित करने में कितने प्रयासरत थे.
बाबा साहेब भारत की बढ़ती आबादी के कारण उपजी गरीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी आदि समस्यायों के बारे में बहुत चिंतित थे. अतः वे खेती को अधिक उन्नत करना चाहते थे. वास्तव में वे इसे उद्योग का दर्जा देना चाहते थे. अतः उन्होंने सम्पूर्ण कृषि भूमि का राष्ट्रीयकरण करके रूस की भांति सामूहिक खेती का प्रस्ताव रखा ताकि कृषि का मशीनीकरण हो सके. इस के लिए वे नदी सिंचाई की  योजनाओं को लागू करना चाहते थे. उन्होंने नदियों पर बाँध बना कर उनसे नहरें निकलने तथा बिजली पैदा करने की योजनायें बनायीं थीं. इस प्रकार वे नदियों की बाढ़ से होने वाली तबाही को खुशहाली के साधन बनाना चाहते थे. इसी उद्देश्य से उन्होंने भारत में सर्वप्रथम “दामोदर नदी घाटी” की योजना बनायी जो अमेरिका की “टेनिस वेली अथारिटी” की तरह की थी. इसी प्रकार उन्होंने भारत की अन्य नदियों के जल का उपयोग करने की योजनायें भी बनायीं. बाबा साहेब कृषि की छोटी जोतों को ख़त्म  करके उसे लाभकारी बनाना चाहते थे. वे खेती से बेशी मजदूरों को अधिक औद्योगीकरण करके उत्पादिक श्रम में बदलना चाहते थे.  
बाबा साहेब नदी यातायात को भी बहुत बढ़ावा देना चाहते थे क्योंकि यह काफी सस्ता है. इसी उद्देश्य से उन्होंने सेंट्रल वाटरवेज़, इर्रीगेशन एंड नेवीगेशन कमीशन (CWINC)की स्थापना भी की थी. वर्तमान मोदी सरकार इसी का अनुसरण कर रही है. बाबा साहेब नदियों में मिटटी भराव के कारण आने वाली बाढ़ को रोकने हेतु अधिक गहरा करने के लिए छोटी एटमी शक्ति का प्रयोग करने के भी पक्षधर थे. इस से हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि कृषि, सिंचाई तथा नदी जल के सदुपयोग के बारे में बाबा साहेब की सोच कितनी आधुनिक एवं प्रगतिशील थी.
बाबा साहेब का यह निश्चित मत था कि औद्योगीकरण के बिना भारत की बेरोज़गारी, गरीबी एवं उपभोक्ता वस्तुओं की कमी दूर नहीं की जा सकती. इसके विपरीत गांधी जी मशीनों के प्रयोग और औद्योगीकरण के कट्टर विरोधी थे. बाबा साहेब यह भी जानते थे कि बिजली के बिना औद्योगीकरण संभव नहीं है. अतः उनका विचार था कि हमें सस्ती बिजली बनानी चाहिए. बाबा साहेब नदियों पर बांध बांधकर बिजली पैदा करना चाहते थे. इसी उद्देश्य से उन्होंने दामोदर घाटी योजना बनायी तथा सेंट्रल वाटरवेज़, इर्रीगेशन एंड नेवीगेशन कमीशन की स्थापना की. इसका तथा कमीशन का मुख्य काम प्रान्तों को कृषि, सिंचाई एवं बिजली उत्पादन सम्बन्धी परामर्श देना था. इनके सहयोग से बाद में कई बड़ी बहुउद्देशीय नदी योजनायें बनायीं गयीं जिनसे बिजली के उत्पादन के साथ साथ कृषि सिंचाई एवं बाढ़ नियंतरण में सहायता मिली. बाबा साहेब ने ही बिजली के उत्पादन एवं सुचारू वितरण के लिए केन्द्रीय तथा राज्य बिजली बोर्डों की स्थापना भी की थी. वास्तव में बाबा साहेब ने बिजली उत्पादन, बाढ़ नियंतरण, कृषि सिंचाई एवं बहुद्देशीय नदी योजनायें बनाकर भारत के औद्योगीकरण की नींव रखी थी.
उपरोक्त संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट है कि बाबा साहेब भारत के नव निर्माण,औद्योगीकरण, कृषि विकास एवं सिंचाई, बाढ़ नियंतरण, नदी यातायात तथा बिजली उत्पादन बढ़ाने के लिए विशेष तौर पर प्रयासरत थे जिससे उन्होंने भारत के आधुनिकीकरण की नींव रखी. उन्होंने वायसराय की कार्यकारिणी के श्रम सदस्य के रूप में भारत के औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण में जो महान योगदान दिया है उस के लिए भारत उनका हमेशा ऋणी रहेगा.                             

मंगलवार, 17 मार्च 2015

अस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना आसान, लेकिन बाबासाहेब इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।– आनंद तिल्तुम्बडे



अस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना आसान, लेकिन बाबासाहेब  इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।– आनंद तिल्तुम्बडे
आनंद ने कहा कि हमें यह समझ लेना चाहिए कि सत्ता वर्ग और राज्यतंत्र ने वर्गीय ध्रुवीकरण के सारे रास्ते बंद कर दिये हैं, जिन्हें खोलने के लिए सबसे पहले बहुजनों को धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद और अस्मिता के मुक्ताबाजारी तिलिस्म से रिहा करना जरूरी है। हमारे प्रतिबद्ध जनपक्षधर लोग इसकी जरुरत जितनी तेजी से महसूस करेंगे और इसे वास्तव बनाने की दिशा में सक्रिय होंगे, उतना हम जनमोर्चा बनाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे। विरोध और प्रतिरोध की हालत तो फिलहाल है ही नहीं।
रात को आनंद ने खुलकर आराम से बात की। मैंने जो लिखा है कि बाबासाहेब संगठक नहीं थे, उस पर ऐतराज जताते हुए उन्होंने साफ तौर पर कहा कि बाबा साहेब चाहते तो राष्ट्रव्यापी संगठन वे बना सकते थे और सत्ता हासिल करना उनका मकसद होता तो वे उसके रास्ते भी निकाल सकते थे।
बाबासाहेब की सर्वोच्च प्राथमिकता जाति उन्मूलन की रही है।
आनंद के मुताबिक बाबासाहेब के विचार, बाबा साहेब के वक्तव्य और बाबासाहेब के कामकाज सबकुछ हम भूल जायें तो चलेगा लेकिन हमें उनके जाति उन्मूलन के एजेंडे को भूलना नहीं चाहिए। उनकी जाति उन्मूलन की परिकल्पना रही है या नहीं रही है, इसका कोई मतलब नहीं है। क्योंकि जाति उन्मूलन के बिना भारत में वर्गीय ध्रुवीकरण के रास्ते खुलेंगे नहीं।
वर्गीय ध्रुवीकरण न हुआ तो यह देश उपनिवेश ही बना रहेगा और वध संस्कृति जारी रहेगी।
अर्थव्यवस्था के बाहर ही रहेंगे बहुसंख्य बहुजन।
मुक्त बाजार का तिलिस्म और पूंजी का वर्चस्व जीवनयापन असंभव बना देगा।
नागरिक कोई नहीं रहेगा। सिर्फ उपभोक्ता रहेंगे। उपभोक्ता न विरोध करते हैं और न प्रतिरोध। उपभोग भोग के लिए हर समझौता मंजूर है। देश बेचना भी राष्ट्रवादी उत्सव है।
आनंद के इस वक्तव्य से हिंदू साम्राज्यवाद और अमेरिका इजराइल नीत साम्राज्यवादी पारमानविक रेडियोएक्टिव मुक्तबाजारी विश्वव्यवस्था के चोली दामन रिश्ते की चीरफाड़ जरुरी है। जिस उत्पादन प्रणाली और उत्पादन संबंधों के साथ साथ उत्पादक वर्ग के सफाये की नींव पर बनी है मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था, धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद एकदम उसीके माफिक है। फासीवाद उसका आधार है।
गौर तलब है कि संघ परिवार का केसरिया कारपोरेट बिजनेस फ्रेंडली सरकार न सिर्फ मेड इन खारिज करके मेकिंग इन गुजरात और मेकिंग इन अमेरिका के पीपीपी माडल को गुजरात नरसंहार की तर्ज पर धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के दंगाई राजीनीति के तहत अमल में ला रही है, बल्कि पूरी हुकूमत अब मुकम्मल मनसैंटो और डाउ कैमिकल्स है।
पूरा देश ड्रोन की निगरानी में है। नागरिकता अब सिर्फ आधार नंबर है। हालत यह है कि संघ परिवार के ही प्राचीन वकील राम जेठमलानी तक को देश के वित्तमंत्री अरुण जेटली को ट्रेटर कहना पड़ रहा है।
हालत यह है कि तमाम सरकारी उपक्रमों की हत्या की तैयारी है गयी है। सरकार ने अगले वित्त वर्ष के लिए करीब 70, 000 करोड़ रुपये का विनिवेश लक्ष्य तय किया है।
बाबासाहेब का अंतिम लक्ष्य लेकिन समता और सामाजिक न्याय है, जिसके लिए बाबासाहेब ने राजनीति कामयाबी कुर्बान कर दी।
सत्ता हासिल करना चूंकि उनका अंतिम लक्ष्य नहीं था, इसलिए संगठन बनाने में उनकी खास दिलचस्पी नहीं थी।
समता और सामाजिक न्याय के लिए जो कमसकम वे कर सकते थे, उन्होंने सारा फोकस उसी पर केंद्रित किया।
तेलतुंबड़े का कहना हैअस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना आसान, लेकिन बाबासाहेब इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।
उन्होंने कहा कि जाति पहचान और अस्मिता के आधार पर भाववादी मुद्दों पर केंद्रित जो बहुजन समाज का संगठन बनाया कांशीराम जी ने, जो बामसेफ और बाद में बहुजन समाजवादी पार्टी बनायी कंशीराम जी ने, बाबा साहेब चाहते तो वे भी बना सकते थे।
क्योंकि जाति और पहचान, भावनाओं के आधार पर जनता को मोबिलाइज करना सबसे आसान होता है और यही सत्ता तक बहुंचने की चाबी है। जिस व्यक्ति का एजेंडा जाति उन्मूलन का रहा हो, जिनने जति व्यवस्था तोड़ने के लिए भारत को फिर बौद्धमय बानाने का संकल्प लियावे जाति और पहचान के आदार पर भाववादी मुद्दों पर संगठन कैसे बना सकते थे, हमें इस पर जरूर गौर करना चाहिए।
आनंद ने जो कहा, उसका आशय मुझे तो यह समझ आया कि बाबासाहेब के जीवन और उनके विचार, उनकी अखंड प्रतिबद्धता पर गौर करें तो वे सही मायने में राजनेता थे भी नहीं। उन्होंने बड़ी राजनीतिक कामयाबी हासिल करने की गरज से कुछ भी नहीं किया।
बाबासाहेब राजनीति में वे जरूर थे, लेकिन उनका मकसद उनका भारत के वंचित वर्ग के लिएसिर्फ वंचित जातियों या अछूत जातियों के लिए नहीं, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और महिलाओंकामगारों और कर्मचारियों के हक हकूक सुनिश्चित करना था।
इसमें उन्हें कितनी कामयबी मिली या उनकी परिकल्पनाओं में या उनके विचारों में क्या कमियां रहीं, इस पर हम समीक्षा और बहस कर सकते हैं और चाहे तो बाबासाहेब के व्यक्तित्व और कृतित्व का पुनर्मूल्यांकन कर सकते हैं, लेकिन उनकी प्रतिबद्धता में खोट नहीं निकाल सकते हैं।
जो लोग बाबासाहेब को भारत में जात पांत की राजनीति का जनक मानते हैंवे इस ऐतिहासिक सच को नजरअंदाज करते हैं कि जाति व्यवस्था का खात्मा ही बाबासाहेब की जिंदगी का मकसद था और यही उनकी कुल जमा राजनीति थी।
ऐतिहासिक सच है कि बहुजनों को जाति के आधार पर संगठित करने की कोई कोशिश बाबासाहेब ने नहीं की और वे उन्हें वर्गीय नजरिेये से देखते रहे हैं।
विडंबना यह है कि हर साल बाबासाहेब के जन्मदिन, उलके दीक्षादिवस और उनके निर्वाण दिवस और संविधान दिवस धूमधाम से मनाने वाले उनके करोड़ों अंध अनुयायियों को इस ऐतिहासिक सच से कोई लेना देना नहीं है कि बाबासाहेब बहुजनों को डीप्रेस्ड क्लास मानते थे, जाति अस्मिताओं का इंद्र धनुष नहीं।
मान्यवर कांशीराम की कामयाबी बड़ी है, लेकिन वे बाबासाहेब की परंपरा का निर्वाह नही कर रहे थे और न उनका संगठन और न उनकी राजनीति बाबासाहेब के विचारों के मुताबिक है।
मान्यवर कांशीराम ने उस जाति पहचान के आधार पर बहुजनों को संगठित किया, जिसे सिरे से मिटाने के लिए बाबासाहेब जिये और मरे।
तेलतुंबड़े का कहना हैअस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना आसान, लेकिन बाबासाहेब  इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।
पलाश विश्वास

200 साल का विशेषाधिकार 'उच्च जातियों' की सफलता का राज है - जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -

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