गुरुवार, 12 मार्च 2015

दलित और गोमांस पर प्रतिबंध


दलित और गोमांस पर प्रतिबंध
एस.आर. दारापुरी आईपीएस (से. नि.)  

(भोपाल में गोमांस पर प्रतिबंध के खिलाफ धरना)
हाल में महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने एक कानून बनाया है जिस के अनुसार उस राज्य में कोई भी व्यक्ति गोमांस खाने के लिए किसी भी गोवंशीय पशु जैसेबैल और बछड़ा का न तो वध कर सकता है, न ही उस का मांस बेच सकता, न ही उसे अपने पास रख सकता और न ही खा सकता है. यह ज्ञातव्य है कि महाराष्ट्र में अन्य कई राज्यों की तरह पहले से ही गो हत्या पर प्रतिबंध लगा है. इस से पहले इन सभी जानवरों डाक्टर के प्रमाण पर देने पर काटा जा सकता था. परन्तु अब यह सब पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है. इसी प्रकार की मांग की हिन्दू राष्ट्र के पैरोकारों द्वारा भाजपा द्वारा शासित अन्य राज्यों तथा इस भाजपा की केन्द्रीय सरकार द्वारा केन्द्रीय कानून बनाने की जा रही है. ज्ञात हुआ है कि हरियाणा की भाजपा सरकार भी इसी प्रकार का कानून बनाने जा रही है. वास्तव में यह हिंदुत्व के सांस्कृतिक फासीवाद का ही विस्तार है जिस का मुख्य उद्देश्य भारत को जल्दी से जल्दी हिन्दू राष्ट्र बनाना है.
यद्यपि महाराष्ट्र में यह कानून गोवंश की रक्षा के नाम पर बनाया गया है परन्तु वास्तव में यहं हिन्दू राष्ट्रवादियों की गो माता को पवित्र मानने और मनवाने के लिए सत्ता का दुरूपयोग है. यह सभी जानते हैं कि गाय के इलावा अन्य जानवरों का मांस दलितों, आदिवासियो, ईसाईयों और मुसलामानों द्वारा खाया जाता रहा है और वह भी अधिकतर इन वर्गों के गरीब तबकों द्वारा. इतना ही नहीं दलित तो सदियों से मरे पशुयों का मांस खाने के लिए बाध्य थे क्योंकि उन्हें तो केवल गधे और कुत्ते पालने का ही अधिकार दिया गया था. अतः न तो वे इन जानवरों को मार कर मांस खा सकते थे और न ही इन का दूध पी सकते थे. उन के लिए स्वादिष्ट अथवा अच्छा भोजन खाने की मनाही थी क्योंकि उन्हें केवल दूसरे वर्णों की जूठन खाने का ही अधिकार था. इस लिए जीवित रहने के लिए वे मरे पशुयों जिन्हें उठाना उन का कर्तव्य था का मांस खा कर ही जीवित रहने के लिए बाध्य थे. भगवान दास जी इस में भी अछूतों की अकलमंदी समझाते थे क्योंकि उन्होंने मरे पशुयों का मांस खा कर अपने आप को जीवित तो रखा. यह बात अलग है कि बाद में डॉ. आंबेडकर ने उन्हें मरे पशुयों का मांस खाने की मनाही की और काफी दलितों ने इसे खाना छोड़ भी दिया है.
अब सवाल पैदा होता कि ब्राह्मण और अन्य सवर्ण जातियां जो आज दूसरों को गोमांस खाने से रोकने के लिए कानून बना रही हैं क्या उन्होंने कभी गोमांस नहीं खाया. इस का उत्तर हिंदुयों को ऋग्वेद, सत्पथ ब्राह्मण, आपस्तम्ब धर्म सूत्र, बुद्ध के कुतादंत सुत्त, संयुक्त निकाय तथा अन्य कई हिन्दू ग्रंथों में विस्तार से मिल जाता है. ऋग्वेद में दूध न देने वाली गाय का मांस खाने की मनाही नहीं है. वाल्मीकि रामायण में भी सीता स्वयंबर के लिए जाते समय विश्वामित्र के आश्रम में उन के पसंद के बछड़े का मांस खिलाने का उल्लेख है. वैसे भी जब राम, लक्ष्मण और सीता जंगल में रहे तो उन्होंने अपने भोजन की पूर्ती कैसे की होगी इस पर अधिक कुछ कहने की ज़रुरत नहीं है. क्या मरिचक हिरन को केवल उस की सुन्दर खाल के लिए ही मारा गया था या किसी अन्य प्रयोजन के लिए भी. इस विषय में अगर कोई अधिक विस्तार से जानने का इच्छुक है तो वह डॉ. आंबेडकर की पुस्तक “ अछूत कौन और कैसे” का “क्या हिन्दुओं ने कभी गोमांस खाया?” खंड पढ़ सकता है.( http://whowereuntouchables.blogspot.in/2007/07/blog-post_9602.html) वैसे ब्राह्मणों और सवर्णों को यह भी नहीं भूलना चाहिए आज भी अधिकतर ब्राह्मण और सवर्ण शाकाहारी नहीं बल्कि मांसाहारी हैं. मैं हिन्दुत्ववादियों का ध्यान स्वामी विवेकानंद के 2 फरवरी, 1900 को शैक्स्पेयर क्लब, पेसिडिना, कैलेफोर्निया में “बौद्धकालीन  भारत’ विषय पर दिए गए भाषण के इस अंश की ओर आकृष्ट कराना चाहूँगा जिस में उन्होंने कहा था,” आप हैरान हो जायेंगे अगर मैं आप को बताऊँ कि पुराने हिन्दू कर्मकांड के अनुसार गोमांस न खाने वाला अच्छा हिन्दू नहीं है. कुछ अवसरों पर उसे बैल की बलि अवश्य देनी होती है. “(स्वामी विव्वेकानंद सम्पूर्ण वांग्मय, जिल्द 3, अद्वैत आश्रम, कलकत्ता, 1997, पृष्ट 536).
अब अगर देखा जाये तो महाराष्ट्र सरकार का यह कानून भारत के नागरिकों के जीने के मौलिक अधिकार का खुला उलंघन है. भारत का संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को सम्मान सहित जीने का अधिकार देता है और जीवित रहने के लिए उचित भोजन ज़रूरी है. अब अगर आप के भोजन पर प्रतिबंध लगा दिया जाये तो फिर आप सम्मानजनक जीवन कैसे जी सकते है. इस लिए मेरे विचार में इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जानी चाहिए क्योंकि महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगाने से मना कर दिया है. यह भी उल्लेखनीय है कि बहुत सारे बेचारे न्यायमूर्ति भी ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त रहते हैं. अतः उनसे निरपेक्ष निर्णयों की अपेक्षा नहीं की जा सकती. फिलहाल हम लोग सुप्रीम कोर्ट पर कुछ भरोसा कर सकते हैं.  
यह भी ज्ञातव्य है कि हमारे देश में सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 42% बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और ऐसी ही दयनीय स्थिति महिलायों की भी है. दलित और आदिवासी बच्चों और महिलायों की कुपोषण की स्थिति तो और भी भयाव्य है. करायी (CRY) संस्था द्वारा वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश जिस में एक दलित महिला चार बार मुख्य मंत्री रही है  के सर्वेक्षण से तो कुछ ब्लाकों में 70% दलित बच्चे कुपोषित पाए गए थे. कुपोषण की इस भयावह स्थिति को देखते हुए ही  हमारे पूर्व प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी ने इसे “राष्ट्रीय शर्म” की संज्ञा दी थी. परन्तु हमारी वर्तमान हिन्दुत्ववादी सरकार  से ऐसी संवेदना की उम्मीद नहीं की जा सकती. यह सर्व विदित है कि दलित, आदिवासी और मुसलामानों का अधिकतर गरीब तबका पशुयों का मांस खा कर कुपोषण से कुछ हद तक बच जाता है परन्तु अब गोमांस पर उक्त प्रतिबंध द्वारा उन का प्रोटीन का यह सस्ता श्रोत भी छीन लिया गया है. अब तो उन्हें मरना ही है चाहे वे कुपोषण से मरें या बीमारी से मरें.
अब अगर देश में पशुधन की स्थिति देखी जाये तो यह बहुत शोचनीय है. हमारे देश में पशुयों की संख्या तो बहुत है परन्तु उन से मिलने वाला दूध और मांस बहुत कम है. इस का मुख्य कारण हमारे पशुधन की घटिया नस्ल, उन का कुपोषित होना और बूढ़े तथा अलाभकारी पशुयों का बने रहना है. हमारे बहुत से राज्यों में पशु चारे का बराबर अकाल रहता है जिस के सम्मुख बूढ़े और अलाभकारी पशुयों का बने रहना दुधारू पशुयों के लिए बहुत शोषणकारी है. अब अगर बूढ़े और दूध न देने वाले पशुयों को मारने और उन का मांस खाने पर यह प्रतिबंध प्रभावी हो जाता है तो यह पशु पालकों द्वारा आत्म हत्या का एक और कारण बनेगा. इस के इलावा हमारे देश से भारी  मात्रा में गोमांस विदेशों को निर्यात किया जाता है और गुजरात इस मामले में सब से अगरगणी है. अब सोचा जा सकता है कि इस कानून का मांस के निर्यात और उस से होने वाली आय पर क्या असर पड़ेगा. इस के इलावा इस काम में लगे लाखों लोगों के रोज़गार का क्या होगा? लगता है हिन्दू राष्ट्र बनाने की धुन में लगे हिन्दुत्ववादियों को भारत के गरीबों के इन सरोकारों से कोई मतलब नहीं हैं. वे शायद इस कार्य को बहुत जल्दी जल्दी पूरा करने में लगे हैं. वैसे उपलब्ध सूचना के अनुसार अमेरिका में गोमांस का धंधा अधिकतर हिन्दू ही करते हैं.
डॉ. आंबेडकर अक्सर कहा करते थे कि भारत में हमेशा से “बहुसंख्यकों का आतंक” रहा है. वे आज़ादी के बाद इस आतंक के बढ़ जाने के खतरे की आशंका भी व्यक्त करते रहते थे. उनका यह भी निश्चित मत था कि भारत के विभाजन के लिए भी “बहुसंख्यकों का आतंक” ही एक प्रमुख कारण बना था. लगता है कि केंद्र में हिंदुत्ववादियों की सरकार बन जाने से यह आतंक एक अति उग्र रूप धारण करता जा रहा है जो दलितों, आदिवासियों, मुसलामानों और ईसाईयों के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गया है. इस अंधरे में आशा की जो एक किरन दिखाई दे रही है वह है इस का जन विरोध. हाल में केरल में लोगों ने “ पशु मांस” की एक खुली दावत की है. इसी प्रकार भोपाल में भी हिन्दू साधु संतों ने इस कानून के खिलाफ धरना दिया है. अतः मेरे विचार में इस कानून के विरुद्ध पूरे देश में सभी वर्गों के लोगों, मजदूरों और किसानों को लामबंद हो कर विरोध करना चाहिए और इस को रद्द कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में भी याचिकाएं दायर करनी चाहिए. यह कानून दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों और ईसाईयों, मजदूरों और किसानों के हितों पर कुठाराघात है क्योंकि यह जीवन के मौलिक अधिकार, पेशे के मौलिक अधिकार और भोजन के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है तथा किसानों और पशुपालकों के आर्थिक हितों के भी विपरीत है.    
             

शनिवार, 7 मार्च 2015

कैथर कलां की औरतें - गोरख पाण्डेय

 

कैथर कलां की औरतें - गोरख पाण्डेय

तीज - ब्रत रखती
 धान  पिसान करती थीं
गरीब की बीवी
गाँव भर की भाभी होती थीं
कैथर कला की औरतें

गाली - मार खून पीकर सहती थीं
काला अक्षर
भैंस बराबर समझती थीं
लाल पगड़ी देखकर घर में
छिप जाती थीं
चूड़ियाँ पहनती थीं
होंठ सी कर रहती थीं
कैथर कला की औरतें .

जुल्म बढ़ रहा थागरीब - गुरबा एकजुट हो रहे थे
बगावत की लहर आ गई थी
इसी बीच एक दिन
नक्सलियों की धर- पकड़ करने आई
पुलिस से भिड़ गईं
कैथर कला की औरतें

अरे , क्या हुआ ? क्या हुआ ? 
इतनी सीधी थीं गऊ जैसी
इस कदर अबला थीं
कैसे बंदूकें छीन लीं
पुलिस को भगा दिया कैसे ?क्या से क्या हो गईं
कैथर कला की औरतें ?

 यह तो बगावत है
राम - राम , घोर कलिजुग आ गया
औरत और लड़ाई ? 
उसी देश में जहाँ भरी सभा में
द्रौपदी का चीर खींच लिया गया
सारे महारथी चुप रहे
उसी देश में
मर्द की शान के खिलाफ यह जुर्रत ?
 खैर , यह जो अभी - अभी
कैथर कला में छोटा सा महाभारत
लड़ा गया और जिसमे
गरीब मर्दों के कंधे से कन्धा
मिला कर
लड़ी थीं कैथर कला की औरतें.

इसे याद रखें
वे जो इतिहास को बदलना चाहते हैं
और वे भी
जो इसे पीछे मोड़ना चाहते हों
इसे याद रखें
क्योंकि आने वाले समय में
जब किसी पर जोर - जबरदस्ती नहीं
की जा सकेगी
और जब सब लोग आज़ाद होंगे
और खुशहाल होंगेतब सम्मानित
किया जायेगा जिन्हें
स्वतंत्रता की ओर से
उनकी पहली कतार में होंगी
कैथर कला की औरतें |

बुधवार, 14 जनवरी 2015

आइये हम फ़्रांस की जनता से कुछ सीखें!



आइये हम फ़्रांस की जनता से कुछ सीखें!
एस.आर. दारापुरी, आई.पी.एस.(से.नि.) एवं  राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
दो दिन पहले फ़्रांस में 14 लाख लोगों  ने चार्ली हेबड़ो के जनसंहार के विरोध में जिस तरह शांति पूर्ण ढंग से प्रदर्शन किया है वह हम सब के लिए एक अनुकरणीय है. इस विरोध प्रदर्शन में न तो कोई मस्जिद तोड़ी गयी और न ही किसी मुसलमान पर हमला किया गया. सभी लोगों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा और धार्मिक कट्टर पंथ के विरुद्ध एकजुट होकर लड़ने का आह्वान किया.
इस के विपरीत जब हम अपने देश में ऐसे मौकों पर हुयी प्रतिक्रिया पर नज़र डालते हैं तो हमारा सिर सारी दुनिया के सामने शर्म से झुक जाता है. ऐसे मौकों पर हमारे राजनेताओं द्वारा दी गयी प्रतिक्रिया भी उतनी ही शर्मसार करने वाली थी. 1984 में इंदिरा गाँधी की उस के ही सिक्ख सुरक्षा गार्डों द्वारा हत्या किये जाने पर पूरी सिक्ख कौम को दोषी मान कर अकेले दिल्ली में ही 2000 सिखों की हत्या कर दी गयी थी जिस में तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की मुख्य भूमिका थी जिस के लिए आज तक न तो किसी नेता को सजा मिली और न ही कांग्रेस पार्टी  ने कोई खेद ही व्यक्त किया. इस के विपरीत उस  साम्प्रदायिक हिंसा को तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गाँधी ने यह कह कर उचित ठहराया था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो ज़मींन में कम्पन ज़रूर होती है. इस के साथ ही कांग्रेस ने बड़ी बेशर्मी से इंदिरा गाँधी की लाश को हफ़्तों  दूरदर्शन पर दिखा कर जनता की सहानुभूति बटोरी थी और चुनाव में अभूतपूर्व बहुमत प्राप्त किया था. 
इसी तरह की अमानवीय प्रतिक्रिया गोधरा काण्ड के बाद  सामने आई थी. इस में दो हज़ार से ज्यादा निर्दोष औरतों, बच्चों और पुरुषों का कत्ले आम किया गया था जिस के लिए मुख्य रूप से जिम्मेवार व्यक्ति को न तो किसी तरह से दण्डित किया गया और न ही उसे उस के पद से हटाया गया. इस के विपरीत वह व्यक्ति अब देश का प्रधान मंत्री बन गया है. उस ने भी गुजरात में मुसलामानों के नरसंहार को क्रिया की प्रतिक्रिया कह कर उचित ठहराया था. इस पर अब भारत रत्न प्राप्त तत्कालीन प्रधान मंत्री ने केवल राज धर्म न निभाने की बात कह कर इतिश्री कर ली थी.
इसी तरह जब 1992 में राम मंदिर के नाम पर बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी थी जो कि स्वतंत्र भारत में सब से पहली और सब से बड़ी आतंकवादी घटना थी और हमारे देश की धर्मनिरपेक्ष छवि पर सब से बड़ा धब्बा था जिस से पूरी दुनियां में भारत की नाक कटी थी. इस की प्रतिक्रिया में बांग्लादेश और पाकिस्तान में काफी हिन्दू मंदिर गिरा दिए गए थे. इस के बाद पूरे देश में साम्प्रदायिक हिंसा भड़का कर हज़ारों निर्दोषों को मार डाला गया था. बाबरी मस्जिद के विद्ध्वंस के बाद ही हमारे देश में तथाकथित आतंकवादी घटनाओं की शुरुआत हुयी थी जो कि आज तक चल रही है.
हमारे देश में आये दिन दलितों, ईसाईयों और मुसलामानों के विरुद्ध होने वाली हिंसा हमारे देश की धर्मनिरपेक्ष छवि को हर रोज़ दुनिया की नज़रों में धूमिल करती है. सब से बड़ी चिंता और शर्म की बात यह है कि हमारे देश की सरकार दोषियों के विरुद्ध कोई कार्रवाही नहीं करती और उलटे जाति एवं सम्प्रदाय के नाम पर उन्हें संरक्षण देती है. हमारा प्रशासन और यहाँ तक कि न्यायपालिका भी साम्प्रदायिक मानसिकता से बुरी तरह से ग्रस्त दिखाई देती है. 
फ़्रांस की उदाहरण से हम यह भी सीख सकते हैं कि सरकार और जनता द्वारा वहां पर भारी संख्या में बसे मुसलामानों को पूर्ण संरक्षण दिया गया. वहां पर न तो उन के विरुद्ध किसी प्रकार की हिंसा हुयी और न ही हमारे देश की तरह कोई मस्जिद ही गिराई गयी. इस के विपरीत वहां पर बसे मुसलामानों ने उक्त प्रदर्शन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया. काश हमारे देश में भी धर्म के ठेकेदारों में इस प्रकार की संवेदना का थोड़ा बहुत संचार  हो पाता. वैसे तो हम सारी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ाने की शेखी बघारते नहीं थकते परन्तु हम अपने देश में अपने ही देशवासियों पर क्रूरतम और निकृष्ट हिंसा करते हैं. अतः यह अवसर है जब हम फ़्रांस में लोगों द्वारा व्यक्त की गयी प्रतिक्रिया से कुछ सबक सीख सकते हैं और अपने देश की धर्म निरपेक्षता की छवि पुनर स्थापित कर सकते हैं. 





रविवार, 21 दिसंबर 2014

धर्म परिवर्तन पर रोक क्यों?

धर्म परिवर्तन पर रोक क्यों?
एस.आर. दारापुरी आई.पी.एस. (से.नि.)
वर्तमान में आर.एस.एस. धर्म परिवर्तित हिन्दुओ को घर वापसी के बहाने जबरन हिन्दू बनाने पर तुली हुयी है. पर वे कभी भी ईमानदारी से इस सच्च को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं कि इन लोगों ने हिन्दू धर्म उन के जातिगत अत्याचारों और भेदभाव के कारण ही छोड़ा था और आगे भी छोड़ते रहेंगे. हमारे देश में प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है. वह कोई भी धर्म छोड़ने या धारण करने के लिए पूर्णतया स्वतंत्र है. डॉ. आंबेडकर के अनुसारे धर्म एक कपड़े की तरह है जिसे कभी भी बदला जा सकता है, फैंका जा सकता है. उनकी यह अवधारणा भी बहुत सही है कि धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए. डॉ. आंबेडकर का यह भी कहना था कि जो धर्म व्यक्ति को जन्म से नीच बना कर रखे वह धर्म नहीं बलिक गुलाम बनाए कर रखने का षड्यंत्र है.
आर.एस.एस. कानून बना कर धर्म परिवर्तन को इस लिए रोकना चाह रही है क्योकि दलित और निचली जातियों के लोग हिंदुयों के अत्याचार से दुखी होकर हिन्दू धर्म छोड़ रहे हैं जिस से हिंदुयों की आबादी लगातार कम हो रही है. विदेशों में बसे हिंदुयों की बड़ी संख्या भी हिन्दू धर्म छोड़ रही है. हिंदुयों की असली चिंता हिन्दू धर्म नहीं बल्कि उन के धर्म से तेजी से हो रहा पलायन है. वैसे भी इस नरक में कौन नीच बन कर रहना चाहेगा? हिंदुयों की असली चिंता हिन्दू धर्म नहीं बल्कि जाति व्यवस्था से दुखी हो कर इसे छोड़ने के कारण निरंतर घट रही आबादी है.
पिछले 60 वर्षों में डॉ. आंबेडकर के आवाहन पर लाखों लाखों दलितों ने हिन्दू धर्म को छोड़ कर बौद्ध धम्म में अपनी वापसी की है क्योंकि डॉ. आंबेडकर के अनुसार वर्तमान अछूत पूर्व में बौद्ध थे और हिंदुयों ने उन्हें जबरदस्ती  अछूत बनाया था और उन्हें निकृष्ट पेशे करने के लिए बाध्य किया था. अब दलित हिंदुयों द्वारा अपने ऊपर किये गए अत्याचारों से पूरी तरह अवगत हो चुके हैं और वे पुनः हिन्दू धर्म के नरक में जाने के लिए तैयार नहीं हैं. बाबा साहेब ने उन्हें बौद्ध धम्म का मुक्ति मार्ग दिखा दिया है जिस पर वे तेजी से अग्रसर हो रहे हैं.
यह देखा गया है कि जिन जिन राज्यों जैसे अरुणाचल प्रदेश, गुजरात, गोवा, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में धर्म परिवर्तन सम्बन्धी कानून बना है उस का हिन्दुत्ववादी खुल कर दुरूपयोग करते हैं और उस में उन्हें हिंदुत्व मानसिकता से ग्रस्त प्रशासन का पूरा सहयोग रहता है. इस का सब से ताजा उदाहारण गुजरात है जहाँ कुछ समय पहले मोदी राज में दलितों द्वारा धर्म परिवर्तन समारोह आयोजित करने में प्रशासन द्वारा कितनी बाधाएं पैदा की गयी थीं. अतः धर्म परिवर्तन पर रोक लगाने सम्बन्धी यदि कोई कानून बनता है तो उसका सब से बड़ा खामियाजा दलितों को भुगतना पड़ेगा क्योंकि उन के बौद्ध धम्म आन्दोलन पर भी रोक लग जायेगी. यह भी एक ऐतहासिक सत्य है कि शायद कुछ लोग ही होंगें जिन्होंने दबाव अथवा लालच में धर्म परिवर्तन किया हो. वर्ना सभी लोगों ने स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन किया है. यदि यह सत्य भी है तो हिन्दू भी इस का अपवाद नहीं हैं. कौन नहीं जानता कि हिंदुयों ने बौद्धों का कितना कत्ले आम किया है और उन्हें जबरन हिन्दू बनाया है. उन्होंने कितने बौद्ध मंदिरों को जबरन हिन्दू मंदिरों में बदला है जिस के प्रमाण आज भी मौजूद हैं. क्या बद्री नाथ मंदिर, जगन्नाथ मंदिर, तिरुपति मंदिर बुद्ध मंदिर नहीं हैं? दूसरों पर आरोप लगाने से पहले हिदुयों को अपने गिरेवान में झाँक कर देखना चाहिए. बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी.
अतः यह आवश्यक है कि आर.एस.एस. की धर्म परिवर्तन पर कानून बना कर रोक लगाने की मांग का सभी को कड़ा विरोध करना चाहिए और सड़कों पर उतरना चाहिए ताकि धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा हो सके. भारत कोई हिन्दू राष्ट्र नहीं बलिक एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्रं है. हमें यह भी याद रखना चाहिए कि यदि हिन्दू बहुसंख्यक गैर-हिंदुयों पर इसी तरह  से आतंक फैलायेंगे तो इस के गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं.

बुधवार, 26 नवंबर 2014

कानून और पूर्वाग्रह



कानून और पूर्वाग्रह
एस. आर. दारापुरी आई.पी.एस. (से.नि.)एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
भारत की जेलों में आधे से अधिक बंदी कमज़ोर वर्ग की जातियों के हैं जब किअमीर लोग कानून को धत्ता बता कर बच निकलते हैं.
हरेक देश  आधुनिकता और प्रगति का दावा बढ़ा  चढ़ा  कर करता है. फिर भी हरेक देश वर्गों का भद्दा ध्रुवीकरण, समाज के पायदान पर पड़े लोगों का शोषण, धन संपत्ति से वन्चितिकरण, सत्ता और विशेषधिकार की व्यवस्था को मज़बूत करता है. भारत में भी इसी प्रक्रिया के सुदृढ़ीकरण की उदाहरण दी जा रही है. इसी महीने जेलों पर जारी  की गयी सरकारी रिपोर्ट यह दर्शाती है कि दलित, आदिवासी और मुसलमान जो कि समाज का अति पिछड़ा वर्ग हैं  की जेलों में  बंद कैदियों की संख्या आधे  से अधिक है. सब से बड़ी हैरानी की बात यह है कि इन वर्गों की जनसँख्या देश की कुल जनसंख्या  का केवल 39% है जबकि जेलों में इन की जनसंख्या 53% है.
हाल में ही जेलों के बारे में जारी की गयी रिपोर्ट यह दर्शाती है कि हमारी व्यवस्था किस प्रकार विषमतावादी, अमीरों की पक्षधर और गरीबों के विरोध में खड़ी है. उदहारण के लिए 2013 में भारत की  जेलों में 4.2 लाख बंदी थे. इन में से 20% मुसलमान थे जब कि 2001 की जनगणना के अनुसार इन की आबादी देश की कुल आबादी का केवल 13% थी. दलितों की 17% आबादी के विरुद्ध जेलों में उन की संख्या 22% और आदिवासियों की 9% आबादी के विरुद्ध 11% थी.
अब तक हम सब लोग भली भांति अवगत हो चुके  हैं कि मुसलामानों को आतंक के मामलों में कैसे झूठा फंसाया जाता है. इन लोगों को बहुत देर के बाद न्याय मिल पाता है. जेल में लम्बे समय तक बंद रह कर छूटने और जीवन भर के लिए कलंकित हो जाने के कारण बीती ज़िन्दगी  को वापस लाना असंभव हो जाता है. हमारे वर्ग विभाजित समाज में गरीब लोगों को शिकार बनाना बहुत आसान है. इस भेदभाव वाली संस्कृति की व्ययस्था में अमीर और प्रभावशाली लोगों के लिए कानून से बच निकलना बहुत आसान है चाहे उन का अपराध कितना भी संगीन क्यों न हो. दागी मंत्री (केन्द्रीय मंत्री निहाल चाँद मेघवाल और राज्य सभा के उपसभापति कुरियन) संगीन आपराध के आरोपी होने के बावजूद भी अपने सत्ता के पदों पर विराजमान हैं. इसी प्रकार की नर्मी फंड का भारी अपव्यय करने और बड़े बड़े घोटालों के आरोपियों के मामलों में भी देखी जा सकती है. अक्सर सत्ता और विशेषाधिकार कानून के राज से ऊपर दिखाई देते  हैं जब कि यह केवल गरीबों पर ही लागू होता दिखाई देता है.
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जेलों के बारे में 1995 से और 1999 से जातिवार जारी किये जा रहे आंकड़ों से यह देखा जा सकता है कि पिछले पंद्रह साल से दलित, मुस्लिम और आदिवासी कैदियों  की संख्या में कोई कमी नहीं आई है. साफ़ तौर पर यह हमारी व्यवस्था में जाति, साम्प्रदाय और वर्ग आधारित पूर्वाग्रह का ही परिणाम है. वे कानून को सामान रूप से लागू  करने में बहुत बड़ी बाधा हैं.
 इस बात में ही कुछ सांत्वना मिलती है कि केवल भारत ही ऐसा देश नहीं है जहाँ पर कानून व्यवस्था जाति, वर्ग और धर्म के पूर्वाग्रहों से प्रभावित होती है. अमेरिका जैसे विकसित देश की जेलों में भी रंगभेद का पूर्वाग्रह  काले और गोरे कैदियों की संख्या के अनुपात में स्पष्ट दिखाई देता है. नैशनल असोसिएशन फार प्रोटेक्शन आफ दी कलर्ड पीपुल्स द्वारा जारी  आंकड़े बताते हैं कि जेलों में बंद कुल 20.30 लाख लोगों में 10 लाख अफ्रीकन-अमेरिकन हैं जो कि गोरों की अपेक्षा 6 गुना अधिक हैं. इतना ही नहीं है. कहा जाता है कि अमेरिका में लगभग 1.40 करोड़ गोरे  और 2.60 करोड़ काले अवैध ड्रग्स का सेवन करते हैं. दूसरे शब्दों में काले लोगों के मुकाबले में 5 गुणा अधिक गोरे ड्रग्स का इस्तेमाल करते हैं परन्तु अवैध ड्रग इस्तेमाल करने के अपराध में जेल भेजे जाने वाले काले लोगों की दर गोरे  लोगों की दर से 10 गुना अधिक है.     

200 साल का विशेषाधिकार 'उच्च जातियों' की सफलता का राज है - जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -

    200 साल का विशेषाधिकार ' उच्च जातियों ' की सफलता का राज है-  जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -   कुणाल कामरा ...