गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

अस्मिता की राजनीति असली संघर्षों से ध्यान बंटाती हैं: आनंद तेलतुंबड़े

Posted by Reyaz-ul-haque on 2/23/2013 02:26:00 PM

आनंद तेलतुंबड़े आइआइटी खड़गपुर में प्रबंधन के प्रोफेसर हैं. उन्होंने भारत में जाति, वर्ग, राजनीतिक अर्थशास्त्र और लोकतांत्रिक राजनीति पर क़रीब दो दर्जन किताबें लिखी हैं. उन्हें देश और दुनिया में मौलिक प्रस्थापनाओं के लिए जाना जाता है और काफी सम्मान के साथ पढ़ा-सुना जाता है. वे इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के महत्वपूर्ण लेखक हैं. परसिस्टेंस ऑफ़ कास्ट, ऑन इम्पेरियलिज्म एंड कास्ट और ग्लोबलाइजेसन एंड दलित उनकी कुछ चर्चित किताबें हैं. तेलतुंबड़े के व्यक्तित्व में सिद्धांत और लोकतांत्रिक आंदोलनों से जुड़ाव का एक अद्भुत सामंजस्य है. वे राजनीतिक अर्थशास्त्र की अनदेखी करने वाले अस्मिता की राजनीति की आलोचना करते हैं. अंग्रेजी और मराठी पाठकों के लिए वे जाने-पहचाने नाम हैं. समयांतर के नियमित स्तंभकार और पत्रकार भूपेन सिंह ने भारत में जाति और मार्क्सवाद से जुड़े सवालों पर बातचीत की. यह साक्षात्कार समयांतर के फरवरी, 2013 के विशेषांक में प्रकाशित हुआ है और साभार यहां पोस्ट किया जा रहा है.


जाति व्यवस्था के ऐतिहासिक कारणों को आप कैसे देखते हैं?

भारतीय जाति व्यवस्था की गुत्थी को सुलझाने की कोशिश कई विद्वानों ने की है लेकिन उनके बीच इस सिलसिले में कोई एक राय नहीं है. एक तरह का श्रेणीक्रम या स्तरीकरण हर प्राचीन समाज में रहा है, इसके आधार पर कुछ लोग भारतीय जाति व्यवस्था की विशिष्टता को नकारने की कोशिश करते हैं,लेकिन इसे उनकी अज्ञानता या जान-बूझकर बनाई गई मान्यता के तौर पर नकारा जाना चाहिए. जाति व्यवस्था की विशिष्टता इसके निरंतर अस्तित्व में बने रहने से जुड़ी है. इतिहास के एक दौर में बाक़ी समाज इस तरह के श्रेणीक्रम से ख़ुद को मुक्त करने में कामयाब हो पाए लेकिन जाति व्यवस्था का अब भी कोई समाधान नहीं निकल पाया है. लोगों को न तो इस बात का पता है कि यह बेहूदा व्यवस्था कैसे अस्तित्व में आयी और न ही वे यह जानते हैं कि कैसे इसका ख़ात्मा किया जा सकता है.

इसलिए मैं यह नहीं कहूंगा कि मेरे पास इस सवाल का कोई सीधा ज़वाब है. लेकिन मैं यह ज़रूर समझता हूं कि इस सवाल का ज़वाब भारत की विशिष्ट स्थितियों में ही तलाशा जाना चाहिए. इस तरह के सरलीकरण बिल्कुल भी ठीक नहीं कि कुछ आर्य यहां आए और उन्होंने इस विशाल महाद्वीप पर अपने विचार थोप दिए.

मैं भारत की प्राकृतिक परिस्थितियों की विशिष्टता को समझने की कोशिश करता हूं.यहां की समतल ज़मीन, बारिश की प्रचुरता, धूप और उपजाऊ मिट्टी इत्यादि ने घुमंतु जातियों के लिए बिना किसी ढांचागत बदलाव से गुजरे खेती करने की स्थितियां मुहैया कराई. दूसरी जगहों, पर दास प्रथा जैसी स्थितियों का उदय हुआ क्योंकि वहां की प्राकृतिक स्थितियों में अच्छी खेती के किए बेहतर हालात नहीं थे. जिस विशाल भूंखंड और बड़ी संख्या में दासों के अस्तित्व को वहां ज़रूरी बना दिया, निश्चित समय में काम पूरा करने के लिए ऐसा करना ज़रूरी था.

अतिरिक्त उत्पादन के विवाद से बचने के लिए उन्होंने कुछ विभाजन भी स्वीकार किए. यह प्रारम्भिक विभाजन, वक़्त बीतने के साथ राजशाही के उभार और जटिल जाति व्यवस्था के रूप में सामने आए. राजशाही के भौगोलिक विस्तार के लिए होने वाली भयानक लड़ाइयों के माध्यम से बाहरी जनजातियों की अधीनता ही बाद में अस्पृश्यता के रूप में सामने आई होगी.

जाति के समूल नाश के लिए आप गांधी, अंबेडकर और मार्क्सवाद की भूमिका को कैसे देखते हैं?

जाति और समुदायों को लेकर गांधी की चिंता मुख्य तौर पर उनके बीच सामाजिक सामन्जस्य बनाने से जुड़ी थी, उभरते हुए पूंजीपति वर्ग के विकास के लिए इस तरह के भारत का निर्माण करना ज़रूरी था. गांधी उसी वर्ग के एक प्रतिनिधि भी थे. वैसे गांधी जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ थे भी नहीं. उन्होंने एक तरह से जाति धर्म का महिमामंडन ही किया, उनका कहना था कि लोग जाति से जुड़े कामों को हीन या श्रेष्ठ मानने के बजाय अपने जाति के कर्तव्य को निभाते रहें. इस बात पर ज़ोर देने के लिए उन्होंने जातीय तौर पर भंगी के लिए निर्धारित काम करने ख़ुद ही शुरू कर दिए. उनके काम करने का तरीक़ा असली अंतर्विरोधों की अनदेखी करने वाला था, इसके लिए वे बहुत ही लचर तर्क देते हैं. जैसे, श्रमिक और पूंजी के अंतर्विरोध के लिए वे ट्रस्टीशिप,हिंदू-मुस्लिम अंतर्विरोध के लिए साम्प्रदायिक सद्भाव और अछूतों के महिमामंडन के लिए हरिजन जैसे शगूफे छोड़ते हैं. उन्होंने इनमें से किसी भी अंतर्विरोध को सुलझाने की कोशिश नहीं की.

जैसा कि हम सब जानते हैं, अंबेडकर जाति के समूल नाश (एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट) के नारे के साथ विशेष तौर पर सामने आए. वे पहले स्वप्नदृष्टा थे जिन्होंने समझा कि जाति के जिंदा रहते हुए भारत का कोई भविष्य नहीं हो सकता. लेकिन जाति संबंधी उनका विश्लेषण भी उनकी वैचारिक सीमाओं से बाहर नहीं निकल पाता. वे जाति की जड़ हिंदू धर्मशास्त्रों में देखते हैं. जिसकी वजह से वे धर्मांतरण को एक समाधान के तौर पर देखते हैं. यह पहले से विद्यमान धार्मिक समुदाय में विलय करने की एक ‘सामुदायिक रणनीति’ (कम्युनिटेरिन स्ट्रेटजी) में प्रतिविंबित हुआ. इस बात को उन्होंने 1936 में अपने कार्यकर्ताओं को ऐसे ही समझाया. अफसोस कि आगे चलकर उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकारा जिसका भारत में कोई सामाजिक अस्तित्व ही नहीं था. हम देखते हैं कि धर्मांतरण के उनके इस उपाय ने काम नहीं किया और जाति हमें आज भी पहले से ज़्यादा जटिलता के साथ मुंह चिड़ा रही है.

मार्क्स ने मानवीय दुनिया की हर बुराई द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के वैज्ञानिक तरीक़े से ख़त्म करने की कोशिश की. उनके मुताबिक़ यह दृष्टिकोण इतिहास के सभी बदलाओं को दर्ज करता है. जाति से संबंधित संदर्भ उनके पत्रकारीय लेखन और एसियाटिक मोड ऑफ़ प्रोडक्शन (एएमपी) के सैद्धांतीकरण में देखने को मिलते हैं. मार्क्स ने जातियों को एक सामंती व्यवस्था के तौर पर देखा और उनका मानना था कि पूंजीवादी विकास के हमले से इसका नाश हो जाएगा. मार्क्स को ग़लत साबित करने की कोशिश करने वाले कई लोग सोचते हैं कि जाति व्यवस्था के संदर्भ में वे पूरी तरह अप्रासंगिक हैं. मैं समझता हूं कि यह फतवा ग़लत है. पूंजीवादी विकास ने जाति के कर्मकांड वाले पहलू को ज़रूर प्रभावित किया और जिन जातियों को हम आज देखते हैं वे शासक वर्गों की साजिश का नतीज़ा हैं जिन्हें उन्होंने आधुनिक संस्थाओं के माध्यम से नया जीवनदान दिया.

मार्क्स को बेस और सुपर स्ट्रक्चर से संबंधित उनके रूपक की वजह से ज़्यादा ग़लत तरीक़े से समझा गया, जिसे ख़ास तौर पर भारतीय मार्क्सवादियों ने ऐसा अटल सत्य(डॉग्मा) बना दिया जिसने अंबेडकर के संघर्ष समेत बाक़ी सभी गैर आर्थिक संघर्षों की अनदेखी की. इसने इस भूभाग के सर्वहारा के बीच बहुत गहरी और स्थाई दरार पैदा कर दी,यह सचमुच में बहुत दुखदायी है. मैं समझता हूं कि जाति के एक विभाजक श्रेणी होने की वजह से यह आमूल सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्ष का आधार नहीं बन सकती, इसलिए इसका समूल नाश किया जाना ज़रूरी है. इस बात को ध्यान में रखते हुए एक दूसरी श्रेणी की तरफ़ देखने की ज़रूरत हैं जो निश्चित तौर पर वर्ग है. मैं मार्क्सवादी विश्लेषण को अंबेडकर के जाति विहीन समाज के सपने को पूरा करने के लिए एक ज़रूरी हथियार के तौर पर देखता हूं.

अस्मिता की राजनीति को लेकर आपके क्या विचार हैं, ख़ास तौर पर भारतीय संदर्भ में आप इसे कैसे देखते हैं?

एक सामाजिक प्राणी होने के कारण इंसान जन्म लेते ही कई तरह की अस्मिताओं को धारण करना शुरू कर देता है जो उसके साथ लंबे अंतराल तक बनी रहती हैं. इन अस्मिताओं के कई राजनीतिक महत्व होते हैं इसलिए यह स्वाभाविक लग सकता है कि ख़ास अस्मिता से जुड़े लोग उनका इस्तेमाल अपनी राजनीति के लिए करते हैं. लेकिन मेरी राय में सभी तरह की अस्मिताओं की राजनीति विभाजनकारी, न्याय और मुक्ति के असली मुद्दे से ध्यान भटकाने वाली हैं. मेरी नज़र में सार्वभौमिक जैसी माने जाने वाली राष्ट्रीय अस्मिता भी इसका अपवाद नहीं है.

इस पर बहस हो सकती है कि मुक्ति का मुख्य मुद्दा क्या है लेकिन यदि कोई तथ्यात्मकता के साथ मानवीय स्थितियों का विश्लेषण करे तो, मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई ज़्यादा विवाद हो सकता है. मानव समाज में बुराई की मुख्य जड़ को व्यक्ति के संग्रह की प्रवृत्ति में देखा जा सकता है और अस्मिताएं इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक माध्यम का काम करती हैं. इसलिए अस्मिताओं पर लड़ाई को केंद्रित करना असली बीमारी से मुंह मोड़कर सिर्फ़ लक्षणों का इलाज़ करने की तरह है. सिर्फ़ तर्क के लिहाज़ से अगर कोई गहरे तौर पर सचेतन हो तो कुछ अस्मिताएं इतिहास के किसी ख़ास दौर में रणनीतिक तौर पर राजनीति का आधार हो सकती हैं. उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ राष्ट्रीयताओं के आंदोलन इसका उदाहरण हैं. लेकिन कुछ अस्मिताएं मूलत: बिल्कुल भी काम की नहीं हैं, मैं समझता हूं जातिगत अस्मिता इनमें से एक हैं.

कुछ लोग महिषासुर के मिथक और मैकाले का महिमामंडन करते हुए एक ख़ास तरह की अस्मितागत राजनीति कर रहे हैं, क्या आप समझते हैं कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की अनदेखी और इस तरह के प्रतीकों का इस्तेमाल कर जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ कोई लड़ाई लड़ी जा सकती है?


नहीं. मैं नहीं समझता कि महिषासुर के मिथक या मैकाले का महिमामंडन कर जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ कोई प्रभावी लड़ाई लड़ी जा सकती है. जो लोग इस तरह की कोशिश करते हैं वे इस बात को प्रदर्शित करते हैं कि जाति सिर्फ़ एक मिथक है जिसका मुक़ाबला प्रतिमिथक के आधार पर ही किया जा सकता है. ऐसा करने वाले लोग जाति व्यवस्था की विरूपता की अनदेखी करते हैं.इस तरह की स्थापनाएं सनसनी पैदा करने के साथ ही मीडिया और लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं. उन्हें काफ़ी पब्लिसिटी मिलती है.

कुछ वक़्त पहले मैंने सुना कि अंग्रेजी देवी और थॉमस बैबिंगटन मैकॉले को दलितों की मुक्ति का प्रतीक बनाने की कोशिश की जा रही है. इस तरह की विचित्र स्थापनाएं भी काफ़ी सनसनी पैदा करती हैं इसलिए इन्हें मीडिया में काफ़ी जगह मिली. ऐसी बातें पूरी तरह शासक वर्गों के हितों का पोषण करती हैं और उत्पीड़ितों का ध्यान उनके असली दोषियों से हटाती है. यह अमूर्त चीज़ों को निशाना बनाती हैं इसलिए बिना किसी चीज़ को दांव पर लगाये इस तरह के नारे उछालकर मज़ा लेने वाले मध्यवर्ग के बड़े हिस्से को अपील करती हैं.

समय-समय पर इस तरह के मिथक गढ़े जाते हैं और उन्हें जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ने वाले सांस्कृतिक हथियार के तौर पर पेश किया जाता है. लेकिन यह सिर्फ़ सत्ता में जड़ जमाये वर्गों और जातियों की व्यवस्थागत करतूतों और उनके उपकरण, भारतीय राज्य से दलितों का ध्यान हटाने का काम करते हैं.

कुछ लोग दावा करते हैं कि मार्क्सवाद जाति के मुद्दे को नहीं सुलझा सकता है.आप क्यो सोचते हैं?
 

एक ‘विज्ञान’ के तौर पर मार्क्सवाद जाति के मुद्दे को ज़रूर सुलझा सकता है और इसे ऐसा करना भी चाहिए. यह बाक़ी तमाम बुराइयों का भी ख़ात्मा कर सकता है लेकिन ध्यान देने की बात है कि इसे बरतने वालों ने जिस तरह से इसे कट्टरपंथ या डॉग्मा में बदल दिया है, उससे बाहर निकलना पड़ेगा.

मार्क्सवाद कहें या चाहे जो भी नाम इसे दें, मेरे हिसाब से यह प्राकृतिक विज्ञानों की तरह ही समाज का एक विज्ञान है, और इसे कोशिश करनी चाहिए कि यह नए सबूतों के बल पर लगातार ख़ुद को सही करता रहे. मार्क्सवाद कोई मार्क्स और एंगेल्स की तरफ़ से कहे गए विचारों की कब्र में पड़ी लाश नहीं है. दुनिया में हो रहे बदलाओं, ख़ास तौर पर विज्ञान और तकनीकी तरक्की के बाद, मार्क्स की बहुत सारी स्थापनाओं में सुधार की ज़रूरत है. अफसोस की बात यह है कि बहुत सारे मार्क्सवाद समर्थकों ने इसे आज लगभग धर्म जैसा बना दिया है. जाति के मुद्दे पर काम करते हुए मार्क्सवादी दृष्टिकोण ज़रूर उपयोगी है लेकिन ज़रूरत इस बात की है कि यह भारतीय समाज का वर्गीय विश्लेषण सही तौर पर करे और उसमें जातियों को लोगों के ‘जीवित संसार’ की तरह शामिल करे.

लेकिन शुरुआती कम्युनिस्टों ने अपनी ब्राह्मणवादी संस्कृति के मुताबिक़ भारतीय समाज को समझने के लिए रूसी मॉडल की नकल की और वर्गों के सवाल को वर्ग और जाति की मूर्खतापूर्ण बहस में उलझा दिया.

यह मार्क्सवाद नहीं है. उन्होंने लेनिन के वर्ग की परिभाषा को नहीं, उनके ढांचे को भारत के वर्ग विश्लेषण के लिए अपनाया. अगर वे उनकी परिभाषा को समझते तो भारत के वर्ग विश्लेषण में जाति, जो कि यहां का एक लाइफ़ वर्ल्ड रहा है, जो बेस से सुपरस्ट्रक्चर तक लोगों के जीवन को निर्देशित करता दिखाई देता है, को सम्मलित करते. न कि उसको किनारे रखकर वर्ग और जाति के वेवकूफी भरे द्वैत का निर्माण करते. इस तरह भारत का वर्ग संघर्ष जाति के विरुद्ध का भी संघर्ष बनता. तब यहां पर जाति से मुक्ति के आंदोलन की ज़रूरत ही न होती. सारे सर्वहारा का (आधुनिक श्रमिक वर्ग और यहां का उत्पीड़ित ऑर्गनिक सर्वहारा) का यह एकीकृत आंदोलन बनता. यहां के कम्युनिस्टों की यह अक्षम्य भूल रही है कि वे भारत की क्रांति के लिए जाति और वर्ग संघर्ष को नहीं जोड़ पाए.

आप दलित पूंजीवाद और उसके विचारकों के बारे में क्या सोचते हैं?
 

यह बिल्कुल बकवास है. यह कुछ लोगों का दिमागी फितूर है, वे इसके माध्यम से मीडिया में सनसनी और जनता के बीच अस्मितागत भ्रम फैलाते हैं. मैं सोचता हूं कि मामला सिर्फ़ इतना ही नहीं है बल्कि यह विश्व पूंजीवाद के हितों को साधने वाली सोची-समझी रणनीति है. मीडिया इसमें निहित सनसनी और नव उदारवादी पोषक होने की वजह से इसे अहमियत देता है. दलित मध्यवर्गों को इसमें काफ़ी मज़ा आता है क्योंकि वे इसे अपनी अस्मिता के उत्थान के तौर पर देखते हैं बाक़ी बची दलित जनता एक भ्रम में उनके पीछे चलती रहती है, वैसे भी इस झूठी चेतना की वजह से वे कई सालों से ऐसा ही करते रहे हैं. भारतीय राज्य अतिउत्साह में रेड कार्पेट बिछाकर इसके झंडाबरदारों का स्वागत करता है. जिससे दलितों के असली ज्वलंत सवालों पर असर पड़ता है क्योंकि भारतीय राज्य इन नवधनाढ्यों को वरीयता देता है और इन तथाकथित दलित उद्यमियों को सार्जनिक ख़रीद और ठेकों में छूट देता है.

देखिए, कुछ व्यक्ति हमेशा अमीर रहे हैं, यहां तक कि कुछ दलित उद्यमी भी रहे हैं. उद्यमिता की आधिकारिक परिभाषा के मुताबिक़ उद्यमी वह है जो स्वरोजगार को अपनाता है. इस हिसाब से सड़क किनारे जूते सिलने वाले मोची भी उद्यमी है.

सरकार की तरफ़ से 1990, 1998 और 2005 में किये गए आर्थिक सर्वेक्षण बताते हैं कि वैश्वीकरण के दौर में दलित उद्यमिता के अनुपात में गिरावट आई है, यह आंकड़े दलित पूंजीपतियों के झूठ और दुष्प्रचार की पोल खोल देते हैं. इसमें कुछ भी बुरा नहीं है कि दलित अपनी तरक्की के लिए पूंजीवादी व्यवसाय अपनाएं. लेकिन जब नब्बे फीसदी दलित मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जीने की जद्दोजहद कर रहे हों, ऐसे हालात में दलितों को पूंजीपति बन जाना चाहिए या वैश्वीकरण ने दलितों का उद्धार किया है जैसे बेवकूफ़ाना तर्क देने से बड़ा अपराध ग़रीब दलितों के ख़िलाफ़ और कुछ नहीं हो सकता.

ये सब बातें मैं पूरे दावे और अधिकार के साथ कह रहा हूं. मैंने देश के सबसे बढ़िया माने जाने वाले संस्थान से तकनीक और प्रबंधन की औपचारिक पढ़ाई की है. प्रैक्टिस्नर के तौर पर मैं एक होल्डिंग कंपनी के सीईओ का पद संभाल चुका हूं इसलिए मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूं कि आधुनिक बिजनेस और उद्यमिता क्या है. देश के जाने-माने संस्थान में अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन का प्रोफेसर होने और गरीब लोगों के पक्ष में काम करने वाले एक भरोसेमंद ऐक्टिविस्ट और सिद्धांतकार होने के नाते मेरा पक्ष बिल्कुल साफ़ है. मैं न तो किसी टुच्चे व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित होकर कोई जुमला उछाल रहा हूं और न ही फर्जी बौद्धिकों की तरह अधकचरी सैद्धांतिक लफ्फाजी कर रहा हूं.

दलित राजनीति के कुछ झंडाबरदार उपनिवेशवाद को सही ठहराते हैं, ख़ास तौर पर वे मैकाले की शिक्षा व्यवस्था की तारीफ़ करते हैं. वे अंग्रेजी भाषा और संस्कृति को ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ एक हथियार के तौर पर देखते हैं. आप इस बारे में क्या कहना चाहेंगे?
 

शायद मैंने इस मुद्दे पर अपनी बात पहले कह दी है. इसमें कोई शक नहीं है कि जाति विरोधी संघर्ष में सांस्कृतिक पहलू बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन यह राजनीतिक अर्थशास्त्र की कीमत पर नही होना चाहिए. सांस्कृतिक तर्क अगर भौतिक सच्चाई से नहीं जुड़ा है तो यह बहुत ही फिसलन भरा रास्ता हो सकता है. यह लोगों के अस्मितागत अहंकार की संतुष्टि कर सकता है लेकिन अंतिम तौर यह उनके हितों के ख़िलाफ़ ही जाएगा.

आप भारतीय राज्य की जाति आधारित आरक्षण नीति को कैसे देखते हैं? क्या यह जाति के उन्मूलन में मददगार है या सिर्फ़ शासक वर्ग के लिए सेफ्टी वॉल्व का काम करती है?
 

बाबासाहेब अंबेड़कर के लिए आरक्षण निश्चित तौर पर एक भवंरजाल रहा होगा. वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि जाति का पूरी तरह ख़ात्मा कर दिया जाए. लेकिन उन्हें इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दलितों को सक्षम भी बनाना था. दलितों के सशक्तिकरण का काम अनिवार्य रूप से जाति की अस्मिता के आधार पर ही किया जा सकता था. इस तरह देखा जाए तो जाति के समूल नाश और उसकी स्वीकारोक्ति के बीच एक अंतर्विरोध निहित है. वह दीर्घकालिक और अल्पकालिक उद्देश्यों के बीच का अंतरर्विरोध है. जहां एक मकसद था जाति का समूल नाश वहीं दूसरा मकसद यह सुनिश्चित करना था कि मौज़ूदा समाज में दलित रह पाएं इसलिए उन्होंने उनके जीवन और सशक्तीकरण के लिए आरक्षण को ज़रूरी समझा. मैं समझता हूं कि इस दुविधा का कोई आसान हल नहीं था जब तक कि वाम ताक़तें अपनी ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह करते हुए, जाति विरोधी संघर्ष को अपना ज़रूरी हिस्सा मानने वाला एक क्रांतिकारी वर्ग युद्ध न छेड़ देतीं. वामपंथी पार्टियां अपनी ब्राह्मणवादी प्रवृत्तियों की वजह से ऐसा करने में बुरी तरह नाकाम हो गईं. तब भी वहां इस बात के लिए जगह थी कि असली मक़सद की प्राप्ति के लिए आरक्षण जैसे किसी सपोर्ट सिस्टम को रचनात्मक तौर पर अपनाया जाए ताकि जाति के समूल नाश के लिए इसे एक पूरक के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके.

इसमें कोई शक नहीं कि सामाजिक व्यवहार को ध्यान में रखते हुए दलितों के लिए आरक्षण ज़रूरी था. लेकिन ऐसा करते हुए यह ज़रूर समझना चाहिए कि किसकी अक्षमता को आरक्षण जैसी दवाई की ज़रूरत है. यह भारतीय समाज की अक्षमता थी, ना कि दलितों की.

इसलिए वह समाज की ज़िम्मेदारी रहती कि वह अपने इस अक्षमता को जल्द से जल्द नष्ट करे ताकि आरक्षण की ज़रूरत ना रहे. अगर ऐसा हुआ होता तो जाति के ख़ात्मे का ज़िम्मा पूरे समाज को जाता, ऐसा होना भी चाहिए था. समाज ने अपने इस अपराध को स्वीकार कर लिया होता और अपनी इस बुराई से मुक्ति पाने के लिए तुरंत संघर्ष छेड़ दिया होता. तब दलित लड़के-लड़कियों को किसी मनोवैज्ञानिक दबाव और सामाजिक प्रताड़ना को सहना ना पड़ता. इस तरह अपवाद के तौर पर अपनाई गई आरक्षण की नीति अपने आप ख़त्म हो जाती, जैसा कि इसको होना भी चाहिए.

आरक्षण में जाति के आधार से बचा तो नहीं जा सकता था लेकिन परिवार को इसका फायदा लेने वाली इकाई बनाया जा सकता था. इस तरह उस कमज़ोरी से बचा जा सकता था जिसके तहत संपूर्ण जाति आरक्षण की कीमत चुकाती लेकिन उसका फायदा व्यक्ति विशेष को होता. इस तरह जो परिवार आरक्षण प्राप्त करता है धीरे-धीरे उसे भविष्य में आरक्षण पाने से रोका जा सकता था और उपजातियों के उभार (डायनामिक्स) से बचा जा सकता था जो उस नीति से पैदा हो रही थी. मौजूदा आरक्षण के तहत लगातार कम से कम परिवार आरक्षण का फायदा ले सकते हैं. जाति के अलावा कोई और आधार न होने की वजह से लोगों को जाति के संदर्भ में ही चीजों को देखने के लिए उकसाया जा सकता है. इस बात को अंबेडकर के जाति उल्मूलन के सपने का निषेध करने वाली दलित उपजातियों की आपसी लड़ाई में देखा जा सकता है.

वर्तमान नीति पिछड़ेपन पर ज़ोर देती हुई दलितों के पिछड़ेपन को आधार बनाती है. इस तरह यह भानुमती का ऐसा पिटारा खोल देती है जिसमें बाक़ी सभी जातियां भी पिछड़ेपन का दावा करते हुए आरक्षण की मांग करने लगती हैं. इस नीति को दलितों का बेवजह पक्ष लेने वाली माना जाता है, यह उन्हें पूरे समाज की शिकायत का केंद्र बनाती है. परिणामस्वरूप एक द्वंद्व की स्थिति बनी रहती है, दलित पूरी  भावुकता के साथ आरक्षण के विशेषाधिकार को बनाए रखने वाली नीति को जारी रखना चाहते हैं और इस तरह जाति व्यवस्था की उम्र को और बढ़ा देते हैं. आरक्षण के पीछे दूसरा तर्क प्रतिनिधित्यामक तर्क है, यह भी स्वाभावित तौर पर सबको अपील करता है कि जब तक कोई लाभकारी वर्ग में पहुंचने के लिए तैयार न हो तब तक यह व्यवस्था ज़रूरी है. लेकिन कोई अच्छी तरह से इसकी पड़ताल करे तो पता चलेगा कि इस तर्क ने काम नहीं किया. इसलिए मैं कहूंगा कि सीमाओं के बावजूद आरक्षण की नीति जाति के समूल नाश के लक्ष्य का रास्ता तलाश सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. शायद शासक वर्ग ऐसा ही चाहता था. अगर ऐसा होता तो आरक्षण के संबंध में जिन बुराइयों से हम जूझते हैं उनका ख़ात्मा हो गया होता. आपके सवाल पर वापस लौटते हुए मैं कहना चाहता हूं कि आरक्षण की वर्तमान नीति ने दलितों का भला करने के बजाय शासक वर्ग के ही हितों की पूर्ति की  है. आज के हालात को देखते हुए कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण ने आरक्षण को निरर्थक बना दिया है. सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियां 1997 की अपनी बेहतरीन स्थिति से लगातार कम हो रही हैं. इसका साफ़ मतलब है कि आरक्षण एक तरह से तभी ख़त्म हो गया था. लेकिन आम दलितों के बीच निहित स्वार्थी तत्व उन्हें यह सब नहीं जानने देते. शायद वे ख़ुद भी इसे नहीं समझते या इसे समझने की इच्छा नहीं रखते. यह वास्तव में अफसोसजनक है.

आपकी राय में जाति का नाश करने के लिए सबसे तार्किक रास्ता क्या हो सकता है?
 

आज जातियां मुख्य तौर पर एक तरफ़ तो सांस्कृतिक अवशेष के तौर पर काम करती हैं वहीं दूसरी तरफ़ ये गरीबों का शोषण करने वाली शासक वर्गों की व्यवस्था है. जातियों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए कई रणनीतियां हो सकती हैं.

एक प्रभावी और ढांचागत तरीक़ा तो यह हो सकता है कि लोगों को उत्पादन व्यवस्था से जोड़ा जाए, सहकारी मॉडल इसके लिए मददगार हो सकता है, जिससे लोगों के भौतिक हित एक-दूसरे से जुड़ जाएंगे. स्टेट्स एंड मायनॉरिटीज में अंबेडकर की तरफ़ से प्रस्तावित सहकारी खेती इसका एक अच्छा उदाहरण हो सकती है. मिथकों, सड़ी-गली परंपराओं और धार्मिक कर्मकांडों के ख़िलाफ़ लगातार लोगों को शिक्षित करने की प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए. वामपंथ और दलित मिलकर लोगों के ठोस भौतिक मुद्दों को ध्यान में रखते हुए जाति रहित आंदोलन के निर्माण में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं.

ये कुछ तरीक़े हैं जो निश्चित तौर जाति को कमज़ोर करेंगे. इस सबके बावज़ूद कुछ लोग इन सबकी अनदेखी करते हुए जातीय शोषण कर सकते हैं. उनके साथ कड़ाई से निपटने की ज़रूरत है. इसका इलाज है शॉक ट्रीटमेंट. आंदोलन को इतना मज़बूत होना चाहिए कि वह ऐसे लोगों की शारीरिक तौर पिटाई कर पाठ पढ़ा सके. यह एक भावुक जवाब नहीं है, यह ठोस वैज्ञानिक आधारों पर टिका है जिसे मैं किसी के सामने भी व्याख्यायित कर सकता हूं. यह वैज्ञानिकता पर टिके कुछ तरीक़े हैं जिन्हें मैं जाति विरोधी रणनीति के तौर पर सुझा सकता हूं.

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

‘भारतीय विचारधारा’: मिथक से यथार्थ की ओर

Posted by Reyaz-ul-haque on 1/23/2013 03:08:00 PM
सुभाष गाताडे

अपनी किताब‘ द जर्मन आइडिओलोजी’ (रचनाकाल 1845-46) मार्क्स एवं एंगेल्स इतिहास की अपने भौतिकवादी व्याख्या का निरूपण करते है। किताब की शुरूआत 19 वीं सदी के शुरूआत में जर्मनी के दार्शनिक जगत पर हावी हेगेल की आदर्शवादी परम्परा एवं उसके प्रस्तोताओं की तीखी आलोचना से होती है जिसमें यह दोनों युवा इन्कलाबी चेतना एवं अमूर्त विचारों पर फोकस करनेवाले और सामाजिक यथार्थ के उससे निःसृत होने की उनकी समझदारी पर जोरदार हमला बोलते हैं। इस ऐतिहासिक रचना से नामसादृश्य रखनेवाली पेरी एण्डरसन (थ्री एसेज़, 2012) की किताब ‘द इण्डियन आइडिओलोजी’ का फ़लक भले ही दर्शन नहीं है, मगर अपने वक्त़ के अग्रणी विचारकों द्वारा भारतीय राज्य एवं समाज की विवेचना की आलोचना के मामले में वह उतनी ही निर्मम दिखती है।

आज की तारीख में भारतीय राज्य एक स्थिर राजनीतिक जनतंत्र, एक सद्भावपूर्ण क्षेत्रीय एकता और एक सुसंगत धार्मिक पक्षपातविहीनता के मूल्यों को स्थापित करने का दावा करता है। उपनिवेशवादी गुलामी से लगभग एक ही समय मुक्त तीसरी दुनिया के तमाम अन्य मुल्कों की तुलना में – जहाँ अधिनायकवादी ताकतों ने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं एवं संस्थाओं को मज़बूत नहीं होने नहीं दिया है – विगत साठ साल से अधिक समय से यहां जारी संसदीय जनतंत्र के प्रयोग को लेकर वह आत्ममुग्ध भी दिखता है। इतना ही नहीं अक्सर यह भी देखने में आता है कि भारतीय समाज की विभिन्न गैरबराबरियों, जाति-जेण्डर-नस्ल आदि पर आधारित तमाम सोपानक्रमों के विभिन्न आलोचक भी भारतीय राज्य की  इस आत्मप्रस्तुति/आत्मप्रशंसा से सहमत हुए दिखते हैं। मगर यह बेचैन करने वाला सवाल नहीं पूछा जाता कि भारतीय राज्य के तमाम दावों एवं वास्तविक हकीकत के बीच कितना तारतम्य है ? अगर दावों एवं हकीकत के बीच अन्तराल दिखता है तो उसे हम परिस्थिति की नियति कह सकते हैं या उसकी जड़ें शासकों के आचरण में ढूंढ सकते हैं।

दरअसल भारत को अपनी इकहरी नज़र के तहत हिन्दू राष्ट्र बनाने को आमादा विचारकों/कार्यकर्ताओं की चिन्तनप्रणाली/कार्यपद्धति विगत दो दशकों से अधिक समय से लिबरल/उदारवादी एवं वाम विचारकों की चिन्ता एवं आलोचना का विषय रही है। विडम्बना यही कही जाएगी कि साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता, अधिनायकवाद बनाम जनतंत्र जैसे द्धिविध/बायनरी रूप में प्रस्तुत इस बहस में खुद लिबरल विचारकों की सीमाएँ, उनके द्वारा धर्मनिरपेक्षता/जनतंत्र/एकता आदि मसले को गैरआलोचनात्मक ढंग से देखने का मसला कभी भी एजेण्डा पर नहीं आ सका है। लन्दन रिव्यू आफ बुक्स में 2012 की गर्मियों में प्रकाशित पेरी एण्डरसन द्वारा लिखे भारत सम्बन्धी आलेखों का प्रस्तुत संकलन न केवल भारतीय संघ की वास्तविकता को पैनी नज़र से देखता है बल्कि उसे लेकर स्थापित विभिन्न ‘सच्चाइयों’ को प्रश्नांकित करता है और साथ साथ ही हमारे वक्त के तमाम अग्रणी विचारकों के रूख पर भी सवाल खड़े करता है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि (बकौल सुश्री अरून्धति राय) ‘पेरी एण्डरसन के तर्क उन तमाम विद्धानों एवं विचारकों को बेचैन कर देंगे जिन्होंने भारतीय गणतंत्र के हालात को लेकर महिमामण्डित करनेवाली सहमति कायम की है।’ पेरी एण्डरसन के मुताबिक भारतीय गणतंत्र की तमाम बीमारियों की जड़ें, ऐतिहासिक तौर पर, गहरी हैं। उनके मुताबिक भारत का आज़ादी का आन्दोलन जिस तरह लड़ा गया, जिसकी परिणति एक बंटे हुए उपमहाद्वीप में कांग्रेस के हाथों सत्ता हस्तांतरण मे हुई, उस पूरे इतिहास को नए सिरे से देखने-परखने की ज़रूरत है। इस किताब की प्रस्तावना में पेरी एण्डरसन पूछते हैं ‘‘गहराई में जाकर देखें तो भारत में जनतंत्र का सामाजिक आधार/एंकरेज कितना है और उसमें जाति की कितनी भूमिका है ? ..भारतीय संघ में धर्म का कितना स्थान है – जो घोषित तौर पर सेक्युलर है, मगर अन्तर्वस्तु में कितना है ? और अन्त में, राष्ट्र की एकता के जन्मचिन्ह क्या हैं और उसकी कितनी कीमत अदा करनी पड़ी है ?’’किताब में समूचा ज़ोर लिबरल/उदारवादी, सेक्युलर चिन्तकों पर है तथा इसमें वाम की चर्चा नहीं की गयी है। लेखक के मुताबिक एक ताकत के तौर पर वाम की ‘सापेक्ष राजनीतिक कमजोरी’ ने भारतीय विचारधारा की पकड़ को और मजबूत बनाया है।

लेखक के मुताबिक वाम की कमजोरी के कारणों की गहराई में जाकर पड़ताल ज़रूरी है, मगर उसका मानना है कि इसकी प्रमुख वजह ‘आज़ादी के आन्दोलन के साथ राष्ट्र के धर्म के साथ एकीकरण में निहित है।’ आयर्लण्ड, जहाँ लेखक पैदा हुआ, उसकी चर्चा करते हुए वह यह भी जोड़ते हैं कि जहाँ-जहाँ पर ऐसा एकीकरण हुआ, वहाँ पर वाम के लिए ज़मीन हमेशा शुरू से प्रतिकूल रही है। प्रस्तावना के अन्त में वह यह सलाह भी देते हैं कि वाम को चाहिए कि वह अपने दौर को श्रद्धाभाव से देखने के बजाय अम्बेडकर एवं पेरियार की तर्ज़ पर अधिक आलोचनात्मक ढंग से देखे।

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अपने प्रथम अध्याय ‘इण्डिपेण्डस’ की शुरूआत लेखक जवाहरलाल नेहरू की बहुचर्चित किताब ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ के उद्धरण से करते हैं जिसमें भारत के भावी प्रधानमंत्री आज़ादी के कुछ समय पहले ‘भारत की संस्कृति एवम सभ्यता की पाँच-छह हज़ार वर्षों से अधिक समय चली आ रही निरन्तरता’ को लेकर अपनी मुग्धता बयान करते हुए इस उपमहाद्वीप की प्राचीनता के अनोखेपन का जिक्र करते हैं, जो ‘सभ्यता की सुबह से ही भारत के विचार में व्याप्त एकता के सपने’ में प्रतिबिम्बित होती है। फिर अमर्त्य सेन, मेघनाद देसाई, रामचन्द्र गुहा, सुनिल खिलनानी, प्रताप भानु मेहता जैसे शीर्षस्थ विद्वानों की भारत सम्बन्धी गम्भीर रचनाओं का ज़िक्र करते हुए लेखक बताते हैं कि किस तरह भारत को समझने के लिए अनिवार्य इनकी रचनाएँ भी ‘राज्य के अपने प्रति शब्दाडम्बर (rhetoric) को सांझा करती हैं। राष्ट्रीय आन्दोलन में जिस तरह ‘भारत के प्रकृति द्वारा निर्मित एक अविभाजित धरती’ (बकौल महात्मा गाँधी) जहां ‘दुनिया के अन्य हिस्सों से बिल्कुल अलग राष्ट्रीयता की भावना प्रगट होती थी’ जैसी बातों का बोलबाला था उसी सिलसिले के आज भी जारी होने की बात को रेखांकित करते हुए किताब एक महत्वपूर्ण तथ्य की तरफ इशारा करती है। दरअसल यह उपमहाद्वीप जिसे आज हम इस रूप में जानते हैं वह पूर्वआधुनिक समय में कभी भी एक राजनीतिक या सांस्कृतिक इकाई के रूप में अस्तित्व में नहीं था, ब्रिटिशों के आगमन ने ही पहली दफा इसे एक प्रशासकीय और विचारधारात्मक हकीकत में तब्दील किया।

अगर हम अतीत के पन्नों को पलटें तो इतिहास के लम्बे कालखण्ड में उसका भूभाग मध्यम आकार के राज्यों का हिस्सा था। भारत के इतिहास में नज़र आने वाले तीन बड़े साम्राज्यों – मौर्य, गुप्त या मुगल साम्राज्यों – का दायरा कभी भी नेहरू द्वारा ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ में वर्णित भूभाग तक फैला नहीं था। जिस ‘भारत के विचार’ की बातें आज़ादी के आन्दोलन के अग्रणियों ने की, वह ‘सारतः एक यूरोपीय विचार’ था। किसी भी देशज भाषा में ऐसा शब्द वजूद में नहीं दिखता। यह अकारण नहीं था कि इस उपमहाद्वीप का बंटा हुआ समाज एवं अलग अलग राज्यों में विभक्त भूभाग पर नियंत्राण करना बर्तानवी शासकों के लिए बहुत कठिन साबित नहीं हुआ। निश्चित ही पुलिस एवं फौज से बनी दमनात्मक मशीनरी के अलावा ब्रिटिश राज के आधुनिकीकरण की ताकत कानूनी किताबों के निर्माण या रेल एवं यातायात के साधनों को विकसित करने तक सीमित नहीं थी। उन्होंने एक देशज अभिजात तबके के निर्माण के भी बीज डाले जो मेकॉले की भाषा में ‘रंग एवं वर्ण में भारतीय था, मगर रुचियों, मतों, बौद्धिकता एवं नैतिकता के मामले में ब्रिटिश’ था। ‘भारत का विचार (आयडिया आफ इण्डिया) उनका था। मगर जैसे जैसे वह नौकरशाही नियम का हिस्सा बना, फिर प्रजा अपने शासकों के खिलाफ उठ खड़ी हो सकती थी और साम्राज्य का प्रभामण्डल राष्ट्र के करिश्मे में तिरोहित होनेवाला था।’ (पेज 15)

इस अध्याय का शेष भाग गाँधी द्वारा आज़ादी के आन्दोलन की अगुआई, जातिप्रथा से लेकर मशीनरी आदि ज्वलन्त मसलों पर उनके विचार, अहिंसा की रणनीति का उनके द्वारा इस्तेमाल तथा ब्रिटिश राज के दिनों में सम्पन्न चुनावों में अलग अलग सूबों में कायम कांग्रेस सरकारों के दमनात्मक स्वरूप आदि पर केन्द्रित है। जहाँ 1857 के महासमर के बाद पहली दफा एक व्यापक जनान्दोलन खड़ा करने में गाँधी की भूमिका, कांग्रेस को एक लोकप्रिय राजनीतिक ताकत बनाने की उनकी कोशिशों की इसमें चर्चा है, वहीं वह इस बात का विशेष उल्लेख करती है कि चन्द अपवादों को छोड़ दें तो किस तरह बीसवीं सदी के राष्ट्रीय आन्दोलनों में उभरे तमाम नेताओं में से बहुत कम धार्मिक नेता थे और इस कतार में गाँधी बिल्कुल अलग ठहरते हैं। उनके लिए ‘राजनीति की तुलना में धर्म की अधिक अहमियत थी’ (पेज 19) अपने बुनियादी विश्वासों को लेकर ‘हिन्द स्वराज्य’ किताब में वह लिखते हैं कि ‘मशीनरी अधिक पाप की खान है’ , ‘रेलवे ने ब्युबानिक प्लेग को फैलाने में मदद पहुँचाई है’, और ‘अकाल की वारम्वारिता को बढ़ाया है’ ‘अस्पताल ऐसे स्थान हैं, जो पाप को बढ़ावा देते हैं;’ आदि (पेज 21)

कहीं कहीं लेखक ऐसे वक्तव्य देते हैं जिनसे सहमत होना मुश्किल दिखता है, मसलन उनके मुताबिक ‘कांग्रेस अभिजातों की बुनियादी राजनीति खालिस सेक्युलर थी। पार्टी पर गाँधी के नियंत्रण ने न केवल उसे लोकप्रिय आधार प्रदान किया, जो उसके पास नहीं था, मगर साथ ही साथ उसने – मिथक, धर्मशास्त्र आदि के रूप में धर्म के तत्वों का भी जोरदार प्रवेश सम्भव बनाया।’ (पेज 22) ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक गाँधी के आगमन के पूर्व कांग्रेस राजनीति में हावी लोकमान्य तिलक आदि की राजनीति के प्रति उतने परिचित नहीं दिखते। याद रहे कि तिलक को यह ‘श्रेय’ जाता है कि उन्होंने लोगों को लामबन्द करने के लिए सार्वजनिक गणेशोत्सव या शिवजयंती जैसे त्यौहारों का आयोजन शुरू किया, जो निश्चित ही किसी भी मायने में सेक्युलर कदम नहीं कहे जा सकते।

गाँधीजी द्वारा बार-बार हिन्दू धर्म की दुहाई देने के उदाहरणों को पेश करने के बाद लेखक यह सवाल भी उठाते हैं कि ‘इस किस्म के हिन्दू पुनरूत्थानवादी से हम ऐसी उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह मुसलमानों को भी एक साझे राष्ट्रीय संघर्ष हेतु एकताबद्ध करेगा ?’ (पेज 24) इस पहेली का समाधान एक तरह से गाँधी ने यह ढूंढा कि ‘इस्लाम के बैनर तले ही ब्रिटिश राज के खिलाफ मुसलमानों को गोलबन्द किया जाए..’ टर्की में खिलाफत की समाप्ति एक ऐसा मुद्दा था, जिसके नाम पर रूढ़िवादी मुसलमानों के बड़े हिस्से को साथ जोड़ा जा सकता था। स्पष्ट था यह ऐसा मसला था जो ‘..अधिक सेक्युलर मुसलमानों के लिए – जिनमें जिन्ना भी शामिल थे – न केवल अप्रासंगिक था, बल्कि बेहद प्रतिक्रियावादी भी था…’

(पेज 25) असहयोग आन्दोलन में चौरीचौरा की घटना में हुई हिंसा के बाद समूचे आन्दोलन को वापस लेने वाले गाँधीजी किस तरह बीस साल बाद ‘गुलामी के जोखड़ को उतार फेंकने के लिए जरूरत पड़े तो हिंसा का भी सहारा लेने की बात करते हैं’ आदि विभिन्न घटनाओं की चर्चाओं के जरिए गाँधीजी के विचारों में नज़र आनेवाली असंगतियों के मद्देनज़र लेखक गांधीजी द्वारा उसे औचित्य प्रदान किए जाने की बात को रेखांकित करते हैं। (पेज 31) असहयोग आन्दोलन एवं खिलाफत आन्दोलन - जिसमें हिन्दू  मुस्लिम दोनों ने जम कर हिस्सेदारी की थी, उस पूरे जनउभार को चौरीचौरा की घटना के बाद अचानक वापस लिए जाने के गाँधी के फैसले का लेखक के मुताबिक एक अन्य असर यह भी रहा कि ‘इसके बाद स्थूल रूप में मुसलमानों ने उन पर भरोसा नहीं किया।’ मार्च 1930 में जब गांधी अपने दूसरे व्यापक जनअभियान सविनय अवज्ञा आन्दोलन की शुरूआत दाण्डी मार्च के बहाने की तो इस बार आन्दोलन का दायरा ‘भौगोलिक तौर पर व्यापक था, लेकिन साम्प्रदायिक तौर पर संकीर्ण था – लगभग मुसलमानों ने इसमें हिस्सा नहीं लिया’ (पेज 36)

आगे लेखक ‘अस्पृश्यों को’ अलग मतदातासंघ प्रदान करने के गोलमेज सम्मेलन के फैसले के बहाने जाति के प्रश्न पर गाँधी के उहापोह एवं उनकी रूढिवादी समझदारी की चर्चा करते हें। वर्णव्यवस्था की हिमायत करनेवाले (‘अगर हिन्दू समाज आज भी खड़ा है तो उसकी वजह जातिव्यवस्था की उसकी बुनियाद है। स्वराज्य की जड़ें जाति प्रथा में देखी जा सकती हैं।’ ‘मेरा स्पष्ट मानना है कि जाति प्रथा ने हिन्दू धर्म को विघटन से बचाया है) और अस्पृश्यता को ‘मानवीय गलती’ का हिस्सा माननेवाले गाँधी के लिए ब्रिटिश सरकार का यह फैसला महज राष्ट्रीय आन्दोलन को बाँटने का मसला मात्र नहीं था, बल्कि इसका अर्थ था कि जाति व्यवस्था के चलते हिन्दू धर्म के अभिशप्त होने की बात को कूबूल करना। दलितों को अलग मतदातासंघ प्रदान करने के फैसले को पलटने के लिए गांधी द्वारा लिया गया आमरण अनशन का सहारा और अम्बेडकर पर डाला गया प्रचण्ड दबाव इसकी चर्चा करते हुए लेखक बताते हैं कि किस तरह अम्बेडकर के साथ सम्पन्न पूना करार – जिसने ‘अस्पृश्यों’ के लिए चुनावों में अधिक सीटें प्रदान करने की बात की गयी, उसने दलित समुदाय को राजनीतिक स्वायत्तता से वंचित कर दिया। ‘हिन्दू जो भी कहें, हिन्दू धर्म समानता, स्वतंत्रता एवं बन्धुता के लिए खतरा है’ इस बात को जोर से रखनेवाले अम्बेडकर ने बाद में पूना करार के वक्त अपने समर्पण – जब समूचे दलित समुदाय पर वर्णसमाज के आक्रमण का खतरा मण्डरा रहा था – पर पश्चाताप प्रगट करते हुए कहा कि ‘इस अनशन में कोई उदात्तता नहीं थी। वह एक निकृष्ट एवं निन्दनीय कदम था।’

पार्टी के अन्दर वामपंथी धारा के अगुआ सुभाषचन्द्र बोस, जो पार्टी के इतिहास में अभूतपूर्व चुनाव में उसके अध्यक्ष चुने गए थे, और जिन्हें पार्टी की अन्दरूनी बगावत के जरिए गाँधी  ने पद से बेदखल कर दिया और बाद में कांग्रेस से भी बाहर जाने को मजबूर किया, उनके द्वारा पार्टी के अन्दर रहते हुए हिन्दू-मुस्लिम एकता कायम करने के लिए ली गयी एक अद्भुत पहलकदमी की लेखक चर्चा करते हैं। कांग्रेस की युवा शाखा के अगुआ बोस ने बंगाल प्रांत में – जमींदारों के खिलाफ खड़ी- मुस्लिम किसानों की पार्टी के साथ गठजोड़ बनाने की हिमायत की थी। लेखक के मुताबिक जी एम बिड़ला, जो मारवाडी व्यापारी थे तथा कांग्रेस के लिए लाखों रूपए का चन्दा देते थे, उनका इस कदम के प्रति विरोध था (बंगाल की तत्कालीन परिस्थिति से परिचित लोग बता सकते हैं कि अधिकतर जमींदार हिन्दू थे) और उन्हीं की सलाह पर गांधी ने इस अन्तरसामुदायिक पहल में अडंगा लगा दिया।

भारत छोड़ो आन्दोलन के जरिए अपनी जिन्दगी के आखरी बड़े संघर्ष की अगुआई करनेवाले गाँधी ने किस तरह कभी हिटलर की प्रशंसा की थी, उसका उल्लेख करना लेखक नहीं भूलते। ‘उसके कोई दुर्गुण नहीं है। उसने शादी नहीं की है। उसका चरित्र भी पारदर्शी कहा जाता है।’(कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी, पेज 177,: 17 दिसम्बर 1941) यह आन्दोलन – जिसके लिए कांग्रेस ने कोई तैयारी नहीं की थी – उसकी समाप्ति के बाद, ब्रिटिश सरकार आज़ादी के मसले के समाधान को अधिक लटकाना चाहती थी। इस परिस्थिति में बुनियादी फर्क दूसरे विश्वयुद्ध में शामिल जापानी सेनाओं ने किस तरह डाला और दक्षिण पूर्व एवं दक्षिण एशिया में यूरोपीय उपनिवेशवाद को किस तरह जबरदस्त नुकसान पहुँचाया, इसके विवरण के साथ प्रथम अध्याय समाप्त होता है। (पेज 48)

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दूसरा अध्याय एक तरह से नेहरू के राजनीतिक व्यक्तित्व, गाँधी के साथ उनके विशिष्ट किस्म के रिश्ते ‘जिसमें भावनात्मक बन्धनों के साथ साथ परस्पर हितों के समीकरण भी शामिल थे’ (पेज 51) तथा आज़ादी के आन्दोलन में उन्होंने निभायी भूमिका की चर्चा करता है।

एक क्षेपक के तौर पर इस बात का भी उल्लेख करना जरूरी है कि लेखक बौद्धिक क्षमता के मामले में अम्बेडकर के साथ नेहरू की तुलना करते हैं। ‘अम्बेडकर की नेहरू के साथ तुलना करना न्यायपूर्ण नहीं होगा, जो बौद्धिक क्षमता के मामले में कांग्रेस के तमाम नेताओं से बहुत आगे थे, जिसकी एक वजह यह भी कही जा सकती है कि डा अम्बेडकर ने लन्दन स्कूल आफ इकोनोमिक्स एवं कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अधिक गम्भीर अध्ययन किया था, जिन्हें पढ़ना एक तरह से एक अलग दुनिया में प्रवेश करना है। मगर हम ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ को पढ़ें तो वह न केवल नेहरू की औपचारिक विद्वत्ता की कमी एवं रूमानी मिथकों के प्रति अत्यधिक लगाव को उजागर करता है बल्कि अधिक गहराई में जाकर देखें तो …आत्मप्रवंचना की क्षमता को भी प्रदर्शित करता है जिसके राजनीतिक परिणाम बेहद प्रतिकूल हुए।’ (पेज 53)

जातिव्यवस्था को लेकर नेहरू की एक किस्म की समाजशास्त्रीय दृष्टिहीनता की बात का भी किताब में उल्लेख है। डिस्कवरी आफ इण्डिया में नेहरू लिखते हैं कि ‘जातिप्रथा एक ऐसी व्यवस्था थी, जो सेवाओं एवं कार्यों पर आधारित थी। उसका मकसद एक साझे दृष्टांत (dogma) के बिना एक सर्वसमावेशी प्रणाली कायम करना था जिसमें हर समूह को स्थान मिले।’ (डिस्कवरी आफ इण्डिया, पेज 248-249) यह अकारण नहीं था कि जब गांधीजी अम्बेडकर का भयादोहन (ब्लैकमेल) कर रहे थे कि वह उनकी इस माँग माने कि ‘अस्पृश्य’ जाति प्रथा में शामिल एकनिष्ठ हिन्दू हैं तथा अलग मतदातासंघ की माँग छोड़ दें तो उस वक्त नेहरू ने अम्बेडकर के समर्थन में एक लफ्ज़ भी नहीं बोला। नेहरू के लिए वह एक ‘छोटा सा मामला’ (साइड इश्यू) था। अपने आप को नास्तिक कहलानेवाले नेहरू ने किस तरह धर्म को राष्ट्र के साथ जोड़ा था, इसकी चर्चा करते हुए किताब बताती है कि ‘हिन्दू धर्म राष्ट्रवाद का प्रतीक बना। वह वाकई एक राष्ट्रीय धर्म था, उसके तमाम गहरे भावों के साथ, नस्लीय और सांस्कृतिक, जो मौजूदा समय में हर जगह राष्ट्रवाद का आधार बनते हैं।’ इसके बरअक्स बौद्ध धर्म, जिसका जन्म भारत में हुआ, उसकी वहाँ हार हुई क्योंकि वह ‘सारतः अन्तरराष्ट्रीय’ था। ( उद्धरण, डिस्कवरी आफ इण्डिया, पेज 129)

अगर राष्ट्रीय धर्म एवं उसकी बुनियादी संस्थाओं के बारे में नेहरू का यह नज़रिया था तो अन्य धर्मों के अनुयायी जो जनम से ही राष्ट्रीय नहीं थे, उसके प्रति उनका रूख क्या था ? लेखक के मुताबिक इसकी पहली परीक्षा 1937 में सम्पन्न प्रांतीय चुनावों के बाद आयी, जब नेहरू खुद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे तथा गांधी ने एक तरह से 1934 से अपने आप को किनारे किया था। कई प्रांतों मे कांग्रेस को मिले बहुमत से गदगद नेहरू ने ऐलान किया कि अब भारत में दो ही ताकतें हैं: कांग्रेस एवं ब्रिटिश सरकार, जबकि हकीकत यही थी कि मुस्लिम-बहुल कुछ प्रांतों में सत्ता की बागडोर मुस्लिम लीग के हाथ में थी और जहां तक कांग्रेस की सदस्यता का सवाल है तो वह 97 फीसदी हिन्दू थी। ‘समूचे भारत में 90 फीसदी मुस्लिम मतदातासंघों में उसे प्रत्याशी तक नहीं मिले थे। नेहरू के अपने सूबे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने तमाम हिन्दू सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन उसे एकभी मुस्लिम सीट नहीं मिली थी’ (पेज 56) इस परिस्थिति के बावजूद नेहरू ने मुस्लिम लीग के इस अनुरोध को ठुकरा दिया कि वह सरकार के साथ गठजोड करना चाहती है ताकि उसे भी प्रतिनिधित्व मिले। पचहत्तर साल बाद आज भले ही हम इस मसले पर कोई निश्चयात्मक राय न बना सकें, मगर कम से कम इस बात को रेखांकित कर सकते हैं कि आजादी के संघर्ष में कांग्रेस पार्टी की अपने एकाधिकार की समझदारी के प्रतिकूल परिणाम हुए।

प्रस्तुत अध्याय में आगे एक वक्त सेक्युलर नज़रिया रखनेवाले जिन्ना का कांग्रेस में हाशिये में जाना, कांग्रेस की समाजशास्त्रीय हकीकत के बारे में – कि वह मूलतः हिन्दू पार्टी है -उनका बढ़ता एहसास,मुस्लिम समुदाय के रूढिवादी तत्वों को साथ में लेकर चलने की कांग्रेस की कोशिशों के प्रति उनका बढ़ता विरोध और बाद में मुस्लिम राष्ट्रवाद की उनकी हिमायत की चर्चा है। बर्तानवी उपनिवेशवादियों ने किस तरह कभी हिन्दुओं से या कभी मुसलमानों से नज़दीकी दिखा कर अपने आप को केन्द्र में बना कर रखा, बँटवारे के वक्त किस तरह उनके लिए हिन्दू-बहुल कांग्रेस अधिक प्रिय हो चली, इसका विवरण भी पेश किया गया है। बँटवारे के वक्त़ हुए आबादियों की अदलाबदली एवं उससे जनित हिंसा को लेकर एक बात रेखांकित की गयी है कि भले ही पंजाब एवं पूरब के बंगाल से आबादियों की अदलाबदली हुई, मगर जितने बड़े पैमाने पर पंजाब के बंटवारे के वक्त हिंसाचार देखने को मिला, उसकी तुलना में बंगाल में बहुत कम हिंसा हुई। जहाँ लगभग 45 लाख हिन्दु एवं सिखों को पश्चिमी पंजाब से बेदखल कर दिया गया, वहीं पंजाब के पूर्वी हिस्से से 55 लाख से अधिक मुसलमान अपने घरों से बेदखल हुए।किताब में कश्मीर के भारत में एकीकरण को लेकर भी कई अनछुए तथ्यों को रेखांकित किया गया है।

गौरतलब है कि बँटवारे के वक्त चली अन्तरसामुदायिक हिंसा के वातावरण में हथियारबन्द पठानों ने पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी प्रांत से कश्मीर पर हमला बोल दिया और उनकी असंगठित टीमें श्रीनगर तक पहुंची। उनके डर से कश्मीर के तत्कालीन राजा हरि सिंह ने जम्मू की तरफ पलायन किया। कश्मीर को ‘आज़ाद’ रखने की ख्वाहिश रखनेवाले राजा हरिसिंह के पास भारत में विलय के करारनामे पर दस्तखत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, मगर इसका इन्तज़ार किए बिना एक फर्ज़ी दस्तावेज पेश किया गया जिसमें महाराजा द्वारा भारत के साथ विलय पर सहमति पेश की गयी थी। यही वह फर्ज़ी दस्तावेज है जिसके आधार पर साठ साल के बाद भी भारतीय राज्य कश्मीर पर अपने नियंत्रण को जायज़ ठहराता है। (पेज 83) और जिसके आधार पर भारतीय सेनाओं ने कश्मीर पर नियंत्रण कायम करने की कार्रवाई शुरू की।

‘इसके बावजूद, यह बिल्कुल स्पष्ट था कि एक ऐसा प्रांत जो मुस्लिम-बहुल था उसे ताकत के बल पर – और जैसा कि बाद की घटनाओं ने स्पष्ट किया – फरेब के बलबूते हासिल किया गया था। यहाँ तक कि लन्दन में सत्तासीन एटली के नेतृत्व वाली लेबर पार्टी की सरकार, जिसका कांग्रेस के प्रति बेहतर रूख था, उसने इस घटनाक्रम पर बेचैनी प्रगट की। प्रधानमन्त्री एटली ने इसे ‘डर्टी बिजनेस’ की संज्ञा दी। संयुक्त राष्ट्रसंघ में भी इसके चलते समस्या खड़ी हुई।’’ (पेज 84)

कश्मीर में जनमतसंग्रह को लेकर जिसका वायदा भारत सरकार ने किया था ताकि यह दिखाया जा सके कि कश्मीरी लोग अपनी स्वेच्छा से भारत से जुड़े हैं, न कि राजा की इच्छा से, उसके बारे में भी जल्दही स्थिति स्पष्ट होती गयी। कश्मीर के भारत में ‘विलय’ के कुछ समय बाद ही गृहमंत्री पटेल ने नेहरू को लिखा: ‘‘यह दिख रहा है कि नेशनल कान्फेरेन्स एवं शेख साहब (अब्दुल्ला) घाटी की जनता पर अपनी पकड़ खो रहे हैं और अलोकप्रिय हो रहे हैं …ऐसी परिस्थितियों में मैं आप से सहमत हूं कि जनमतसंग्रह अवास्तविक होगा।’’ (पेज 86 पर उद्धृत, दुर्गा दास (सम्पा.) ‘पटेलज् कारसपान्डन्स, अहमदाबाद, 1971, वाल्यूम 1,पेज 286, 317)

मुल्क के बँटवारे की बात करना जिस वक्त कांग्रेस पार्टी में कुफ्र था, और खुद मुस्लिम लीग के लिए भी अभी इस मसले को लेकर धुंधली समझदारी थी, उस वक्त (1944) में प्रकाशित डा अम्बेडकर की रचना ‘पाकिस्तान आर पार्टिशन आफ इण्डिया’ की प्रशंसा करते हुए लेखक बताता है कि इस मुद्दे पर प्रकाशित एकमात्रा गम्भीर उपरोक्त रचना, ‘जिसके सन्दर्भ रेनन से एक्टन से कार्सन तक फैले हैं, कनाडा से आयर्लण्ड से स्वित्जर्लण्ड तक बिखरे हैं, वह कांग्रेस एवं उसके नेताओं के बौद्धिक दिवालियेपन का ठोस सबूत थी।’ (पेज 89)

अध्याय में हैदराबाद पर भारतीय सेनाओं के नियंत्रण के बाद वहाँ भारतीय सेनाओं की मदद से हिन्दुओं द्वारा किए गए स्थानीय मुस्लिम आबादी के जनसंहार के लगभग भुला दिए गए तथ्य की भी चर्चा है। ध्यान रहे कि इस जनसंहार की जाँच के लिए भेजी गयी सरकारी टीम का अनुमान था कि इस मारकाट में कुछ सप्ताह के अन्दर ही वहाँ 27 हजार से 45 हजार तक मुसलमान मार दिए गए थे। ‘भारतीय संघ के इतिहास में यह सबसे बड़ा क़त्लेआम था, जिसके सामने पठान घुसपैठियों द्वारा श्रीनगर पर नियंत्रण कायम करने की कोशिशों के दौरान की गयी हिंसा बहुत छोटी मालूम पड़ती है…(पेज 91)

अन्त में, लेखक यह सवाल रखता है कि क्या भारत का बँटवारा अनिवार्य था ? ब्रिटिश राज के खिलाफ चले संघर्ष को लेकर उपलब्ध प्रचुर साहित्य में भी इस प्रश्न पर व्याप्त मौन की भी बात इसमें की गयी है। राष्ट्रीय आन्दोलन में एक स्थापित समझदारी यही चली आ रही है कि ब्रिटिशों की ‘बाँटो एवं राज करो’ की नीति का प्रतिफलन इस उपमहाद्वीप का बँटवारा हुआ। इसके बरअक्स लेखक का स्पष्ट मानना है कि ‘इसकी अन्तिम चालक शक्तियाँ देशज थीं, न कि सामराजी।’ राष्ट्रीय आन्दोलन की शब्दावली  एवं चित्रांकन में धर्म के प्रवेश के लिए जिन्ना को जिम्मेदार ठहराये जाने की प्रवृत्ति को प्रश्नांकित करते हुए लेखक इसका जिम्मेदार गाँधी को मानते हैं। उनके मुताबिक ‘भले ही उन्होंने इस काम को संकीर्ण भावना के साथ नहीं किया, जहां मुसलमानों को खिलाफत बचाने के लिए आगे आने को कहा वहीं हिन्दुओं को रामराज्य कायम करने की अपील की, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्होंने ब्रिटिशों के खिलाफ साझा संघर्ष में अपने सहयोगी कौन हो सकते हैं इस सवाल को छोड़ दिया।’ (पेज 94)

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किताब का अन्तिम अध्याय ‘रिपब्लिक’ भारतीय गणतंत्र के निर्माण एवं विकास की यात्रा चर्चा करता है और भारतीय जनतंत्र के स्थायित्व को लेकर लिबरल विचारकों द्वारा अक्सर किए जानेवाले महिमामण्डन में दबे रहनेवाले तथ्यों को रेखांकित करता है। लेखक के मुताबिक भारतीय जनतंत्र का स्थायित्व भारत की आज़ादी की स्थितियों से सबसे पहले निर्धारित हुआ, जहाँ ब्रिटिश राज को पलटा नहीं गया बल्कि कांग्रेस को सत्ता हस्तांतरित की गयी। उपनिवेशवादियों को अलविदा कहा गया, मगर औपनिवेशिक नौकरशाही तंत्र एवं सेना को भी अक्षुण्ण रखा गया। राज की विरासत सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं थी। प्रशासन एवं दमन के तंत्र के साथ साथ कांग्रेस ने प्रतिनिधित्व की उसकी परम्परा को भी आगे बढ़ाया।

इस सन्दर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है कि जिस संविधान सभा ने देश को अपना संविधान दिया वह ब्रिटिशों द्वारा निर्मित इकाई थी (1946), जिसके लिए ब्रिटेन की तत्कालीन प्रजा के सात में से एक व्यक्ति को मताधिकार मिला था। निश्चित ही आज़ादी मिलने के बाद कांग्रेस सार्विक मताधिकार के साथ नए चुनावों का आयोजन कर सकती थी, मगर उसे इस बात का डर था कि इसका नतीजा क्या हो सकता है ? 1951-52 के पहले ऐसे चुनाव नहीं हुए। ‘इस तरह जिस निकाय ने भारतीय जनतंत्र को जन्म दिया वह उसकी अभिव्यक्ति नहीं थी बल्कि उस पर लादी गयी औपनिवेशिक बन्दिशों का प्रतीक थी। (पेज 106) बकौल सुनिल खिलनानी (द इण्डियन कान्स्टिटयूशन एण्ड डेमोक्रसी, देखें: इण्डियाज लिविंग कान्स्टिटयूशन, सम्पा. जोया हसन तथा अन्य) ‘सामाजिक संरचना के मामले में संविधान सभा एक बहुत संकीर्ण इकाई थी जिस पर कांग्रेस के ऊँची जाति वाले एवं ब्राहमणवादी अभिजातों का दबदबा था और उसने ऐसा संविधान बनाया जो सार्वजनिक जीवन को गठित करनेवाला नहीं बल्कि किसी क्लब हाउस के नियमों की तर्ज़ पर था..’

इस संविधान सभा द्वारा निर्मित भारतीय जनतंत्र की प्रातिनिधिक संस्थाओं की जड़ में ही किस तरह चुनावी विकृतियाँ थीं, इसकी चर्चा करते हुए लेखक इस बात पर ज़ोर देता है कि यहाँ आनुपातिक प्रतिनिधित्व देने की बजाय फर्स्ट पास्ट द पोस्ट अर्थात जो जीता वही सिकंदर की तर्ज़ पर प्रतिनिधित्व दिया गया जिसके चलते 1951 से 1971 के दरमियान कभी भी वोटों का बहुमत न मिलने के बावजूद (जो कभी 45 फीसदी से आगे नहीं गया) कांग्रेस पार्टी संसद में 70 फीसदी सीटों पर कब्ज़ा कर सकी। आगे भारतीय जनतंत्र के एक अन्य अपवाद की चर्चा है, भारत में जहाँ गरीब मतदाताओं की संख्या अधिक है वहीं वोट देने में भी वह आगे ही रहते हैं, इसके बरअक्स शेष दुनिया में जैसे जैसे आय एवं साक्षरता में गिरावट आती है उसी अनुपात में वोट का प्रतिशत भी गिरता है। आखिर ऐसा क्यों है ? गरीबों, वंचितों को गुस्सा उदार जनतंत्र के खिलाफ फूट न पड़ने का कारण यहाँ की ‘सामाजिक स्तरीकरण की प्रणाली’ है, जो किसी भी किस्म की सामूहिक कार्रवाई की राह में बाधा है। भारत के इस ‘जातिबद्ध’ जनतंत्र - जो धार्मिक ताकतों में भी आबद्ध है – की चर्चा के बाद आगे यहाँ व्याप्त प्रचण्ड विविधता में कायम एकता पर किताब फोकस करती है। संविधान निर्माताओं ने सचेतन तौर पर ’संघीय’ (फेडरल) शब्द के इस्तेमाल से परहेज़ किया। आज़ादी के वक्त भारत में चौदह राज्य थे और आज इनकी संख्या 28 तक पहुँची है। ‘कभी भी इस पुनर्विभाजन के लिए मतदाताओं से सलाह मशविरा नहीं लिया गया है, न पहले और न ही बाद में, ..’। भारत के हुक्मरानों ने अपनी सुविधा से इसे अंजाम दिया, इसके बावजूद एक केन्द्रीय सरकार के अधीन इन क्षेत्रीय हुकूमतों को भारतीय संविधान की एक ‘अलग किस्म की उपलब्धि’ के तौर पर रेखांकित किया जाता है और यह समझदारी ‘भारतीय विचारधारा’ का एक अहम अंग बनी है कि यह धारणा कि देश की एकता की भारतीय राज्य द्वारा रक्षा एक किस्म का करिश्मा है। ‘निश्चित तौर पर इस किस्म के हाँकने का कोई आधार नहीं है।’ (पेज 114) किसी भी यूरोपीय उपनिवेश को आज देखें तो यही नियम दिखता है।

भारतीय राज्य द्वारा ब्रिटिशकालीन भारत को ‘एकताबद्ध’ रखने की कोशिशों ने किस तरह कश्मीरी जनता की लोकप्रिय इच्छा/पापुलर विल पर कहर बरपाया है इसकी चर्चा के बाद लेखक उत्तरपूर्व को एकीकृत रखने की नवस्वाधीन मुल्क की कोशिशों पर आता है, जहाँ की जनता का बड़ा हिस्सा आज भी इस कहर को – दमनात्मक कानूनों या बड़े हिस्सों में आज भी जारी सैन्य दमन के रूप में झेल रहा है। ध्यान रहे कि यह वह इलाका है जहाँ आज़ादी के बाद से ही हथियारबन्द संघर्षों का सिलसिला जारी है, जो भारत से आत्मनिर्णय के अधिकार की माँग करते रहे हैं। इस सन्दर्भ में नागा नेशनल कौन्सिल के प्रतिनिधिमण्डल को गाँधी द्वारा दिए गए आश्वासन को अक्सर भुला दिया जाता है। आज़ादी से एक माह पहले इस  प्रतिनिधिमण्डल से गाँधीजी ने साफ कहा था कि ‘..व्यक्तिगत तौर पर, आप सभी मेरा या भारत का हिस्सा हैं। मगर अगर आप यह कहते हैं कि नहीं, तो कोई भी आप पर दबाव नहीं डाल सकता।’’ (पेज 121)

नेहरू की महानता की चर्चा करते वक्त जिस बात का अक्सर उल्लेख किया जाता है कि वह तानाशाहों से बजबजाती गैरपश्चिमी दुनिया में एक जनतांत्रिक नेता के तौर पर शासन करते रहे, उस सन्दर्भ में लेखक इस पहलू को रेखांकित करना नहीं भूलता ‘.. नेहरू सबसे पहले एक भारतीय राष्ट्रवादी थे और जहाँ आम जनइच्छा राष्ट्र के उनके तसव्वुर/कल्पना के साथ सामंजस्य बिठाती नहीं दिखी, उन्होंने बिना पश्चात्ताप के उसको दमित किया। यहाँ सरकार की प्रणाली मतदातापत्र नहीं थी, बल्कि जैसा कि उन्होंने खुद कहा है, संगीनें थीं।’ (पेज 133) ‘1961 में उन्होंने भारत की एकता पर भाषण में या लेखन में, छवि में या प्रतीक में, सवाल उठाने को अपराध घोषित किया, जिसके लिए तीन साल की सज़ा दी जा सकती थी। नागा जनता, जिस पर उन्होंने 1963 में बमबारी शुरू की, वह अभी भी लड़ रही थी, जब उनका देहान्त हुआ। तीन साल बाद बगल की मिजो जनता भी बग़ावत में उठ खड़ी हुई।’ (पेज 135)

‘भारतीय विचारधारा’ का तीसरा अहम हिस्सा धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर लेखक आगे बताता है कि किस तरह संविधान को अपनाते वक्त़ भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य कहने से बचा गया। न उसने कानून के सामने समानता के सिद्धान्त को स्थापित किया, न समान नागरिक संहिता को लागू किया: हिन्दू एवं मुसलमान दोनों अपने पारिवारिक जीवन में अपनी आस्था से जनित परम्परा/रिवाजों के अधीन रखे गए, दैनंदिन जीवन में धार्मिक सोपानक्रमों में दखल देने से इन्कार किया गया , अस्पृश्यता पर पाबन्दी लगा दी गयी, मगर जाति को अक्षुण्ण रखा गया। गौरतलब है कि संविधाननिर्माता के तौर पर अक्सर महिमामण्डित किए जानेवाले डा अम्बेडकर खुद संविधान जैसा कि वजूद में आया उससे सन्तुष्ट नहीं थे। संविधान निर्माण के बाद उनका यह वक्तव्य मशहूर है। ‘लोग अक्सर मुझे कहते हैं कि सर, आप संविधान के निर्माता हैं। मेरा जवाब होता है, मैं किराये का टट्टू था, मुझे जो करने के लिए कहा गया, मैंने किया और अधिकतर मेरी इच्छा के खिलाफ’(पेज 139) हिन्दुओं के विवाह प्रथा में व्याप्त गैरबराबरी के खिलाफ हिन्दू कोड बिल बनाने की उनकी योजना को जब पलीता लगा, तो उसके आधार पर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर हुए डा अम्बेडकर इस बात के प्रति भी सचेत थे कि संविधान के बनने से उनके अपने लोगों की स्थिति में कोई सुधार आया है: ‘वही तानाशाही, वहीं पुराने उत्पीड़न का अस्तित्व आज भी बना हुआ है, पहले से चला आ रहा भेदभाव आज भी जारी है, और आज शायद अधिक खराब रूप में।’ (अम्बेडकर,रायटिंग्ज एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम 14, पार्ट 2, बाम्बे 1995, पेज 1318-1322) यहाँ धर्मनिरपेक्षता को धर्म  के राज्य से अलगाव के तौर पर अपनाने एवं व्यवहार में लाने के बजाय सर्वधर्मसमभाव के तौर पर अपनाया गया। ‘..कांग्रेस के नेतृत्ववाले राज्य ने भी कभी भी मुस्लिम अल्पसंख्यकों की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति सुधारने के लिए गम्भीर प्रयास नहीं किए। अगर पार्टी या राज्य वाकई धर्मनिरपेक्ष होता, तो हर मामले में उसे प्राथमिकता मिलती, लेकिन यह बात उसके दिमाग में कभी नहीं आयी।’ (पेज 146)

अन्त में किताब जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता एवं एकता की यह ‘त्रिमूर्ति’ जो लेखक के मुताबिक भारतीय विचारधारा की बुनियाद है, इस पर विभिन्न अग्रणी विचारकों की समझदारी की चर्चा करती है और स्पष्टतः लिखती है कि जहाँ सामाजिक आलोचना का पक्ष इनकी रचनाओं में अहम दिखता है, वही तेवर राजनीतिक आलोचना में नज़र नहीं आता। एक उदाहरण के तौर पर वह आक्सफोर्ड कम्पैनियन टू पालिटिक्स शीर्षक से हाल में प्रकाशित एक सन्दर्भग्रंथ का उल्लेख करते हैं, जिसमें भारत जैसा कि आज अस्तित्व में है उसके बारे में इन तमाम अग्रणियों के विचारों को देखा जा सकता है। भारतीय राज्य की दमनात्मक प्रणालियों पर यह कम्पैनियन लगभग मौन है।

अपनी इस किताब का समापन करते हुए लेखक लिखते हैं कि ‘एक बार जब उपनिवेशवादविरोधी संघर्ष से किसी नवस्वाधीन राष्ट्र का निर्माण होता है, तो उसकी जागृति के लिए प्रयुक्त विमर्श उसे उन्मत्त भी कर सकता है। भारत में यह खतरा अधिक दिखता है.. आज ज़रूरत इस बात की है कि रूमानीकृत अतीत के मोह एवं वर्तमान में मौजूद उसके अवशेषों से हम मुक्त हों’।’

भारत की अवाम की बेहतरी के लिए चिन्तनरत तथा सक्रिय हर व्यक्ति के लिए पेरी एण्डरसन की यह किताब बेहद जरूरी है। ज़रूरी नहीं कि हम उसके तमाम निष्कर्षों से सहमत हों, मगर भारतीय राज्य द्वारा अपनी आत्मप्रशंसा में बनाए गए तमाम मिथकों से – जो सहजबोध का हिस्सा बने हैं – मुक्त होने के लिए यह हमें निश्चित तौर पर एक आईना प्रदान करती है। जिस तरह जर्मन आइडिओलोजी में लेखकद्वय ने अपने समकालीन चिन्तकों,लेखकों से  - जिनका जोर चेतना एवं अमूर्त विचारों पर था – ‘जिन्दगी की वास्तविक परिस्थितियों से रूबरू होने’ की अपील की थी, उसी तरह यह किताब भी भारत के यथार्थ, अतीत और वर्तमान की तमाम असहज करनेवाली सच्चाइयों का सामना करने के लिए लोगों को झकझोरती है। (समयांतर में प्रकाश्य. काफिला से साभार)

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

मनुस्मृति दहन दिवस एस आर दारापुरी

मनुस्मृति दहन दिवस
एस आर दारापुरी

आज 25 दिसम्बर है। यह दलितों के लिए " मनुस्मृति दहन दिवस" के रूप में अति महतवपूर्ण दिन है। इस दिन ही सन 1927 को " महाड़ तालाब" के महा संघर्ष के अवसर पर डॉ बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर ने खुले तौर पर मनुस्मृति जलाई थी। यह ब्राह्मणवाद के विरुद्ध दलितों के संघर्ष की अति महतवपूर्ण घटना है। अतः इसे गर्व से याद किया जाना चाहिए।
डॉ आंबेडकर के मनुस्मृति जलाने के कार्यक्रम को विफल करने के लिए सवर्णों ने यह तै किया था कि उन्हें इस के लिए कोई भी जगाह न मिले परन्तु एक फत्ते खां नाम के मुसलमान ने इस कार्य हेतु अपनी निजी ज़मीन उपलब्ध करायी थी। उन्होंने यह भी रोक लगा दी थी कि आन्दोलनकारियों को स्थानीय स्तर पर खाने पीने तथा ज़रूरत की अन्य कोई भी चीज़ न मिल सके। अतः सभी वस्तुएं बाहर से ही लानी पड़ी थीं। आन्दोलन में भाग लेने वाले स्वयं सेवकों को इस अवसर पर पांच बातों की शपथ लेनी थी:-
1. मैं जन्म आधारित चातुर्वर्ण में विशवास नहीं रखता हूँ।
2. मैं जाति भेद में विशवास नहीं रखता हूँ।
3. मेरा विश्वास है कि जातिभेद हिन्दू धर्म पर कलंक है और मैं इसे ख़तम करने की कोशिश करूँगा।
4. यह मान कर कि कोई भी उंचा - नीचा नहीं है, मैं कम से कम हिन्दुओं में आपस में खान पान में कोई प्रतिबन्ध नहीं मानूंगा।
5. मेरा विश्वास है कि दलितों का मंदिर, तालाब और दूसरी सुविधाओं में सामान अधिकार हैं।
डॉ आंबेडकर दासगाओं बंदरगाह से पद्मावती बोट द्वारा आये थे क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं बस वाले उन्हें ले जाने से इनकार न कर दें।
कुछ लोगों ने बाद में कहा कि डॉ आंबेडकर ने मनुस्मृति का निर्णय बिलकुल अंतिम समय में लिया क्योंकि कोर्ट के आदेश और कलेक्टर के मनाने पर महाड़ तालाब से पानी पीने का प्रोग्राम रद्द करना पड़ा था। यह बात सही नहीं है क्योंकि मीटिंग के पंडाल के सामने ही मनुस्मृति को जलाने के लिए पहले से ही वेदी बनायीं गयी थी। दो दिन से 6 आदमी इसे तैयार करने में लगे हुए थे। एक गड्डा जो 6 इंच गहरा और डेढ़ फुट वर्गाकार था खोद गया था जिस में चन्दन की लकड़ी रखी गई थी। इस के चार किनारों पर चार पोल गाड़े गए थे जिन पर तीन बैनर टाँगे गए थे जिन पर लिखा था:
1. मनुस्मृति दहन स्थल
2. छुआ -छुत का नाश हो और
3. ब्राह्मणवाद को दफ़न करो।
25 दिसम्बर, 1927 को 9 बजे इस पर मनुस्मृति को एक एक पन्ना फाड़ कर डॉ आंबेडकर, सहस्त्रबुद्धे और अन्य 6 दलित साधुओं द्वारा जलाया गया।
पंडाल में केवल गाँधी जी की ही एकल फोटो थी। इस से ऐसा प्रतीत होता कि डॉ आंबेडकर और दलित लीडरोँ का तब तक गाँधी जी से मोहभंग नहीं हुआ था।
मीटिंग में बाबा साहेब का ऐतहासिक भाषण हुआ था। उस भाषण के मुख्य बिंदु निम्नलिखित लिखित थे:-
हमें यह समझाना चाहिए कि हमें इस तालाब से पानी पीने से क्यों रोक गया है। उन्होंने चतुर्वर्ण की व्याख्या की और घोषणा की कि हमारा संघर्ष चातुर्वर्ण को नष्ट करने का है और यही हमारा समानता के लिए संघर्ष का पहला कदम है। उन्होंने इस मीटिंग की तुलना 24 जनवरी, 1789 से की जब लुइस 16वें ने फ्रांस के जन प्रतिनिधियों की मीटिंग बुलाई थी। इस मीटिंग में राजा और रानी मारे गए थे, उच्च वर्ग के लोगों को परेशान किया गया था और कुछ मारे भी गए थे। बाकी भाग गए और अमिर लोगों की सम्पति ज़ब्त कर ली गयी थी तथा इस से 15 वर्ष का लम्बा गृह युद्ध शुरू हो गया था। लोगों ने इस क्रांति के महत्त्व को नहीं समझा है। उन्होंने फ्रांस की क्रांति के बारे में विस्तार से बताया। यह क्रांति केवल फ्रांस के लोगों की खुशहाली का प्रारंभ ही नहीं था, इस से पूरे यूरोप और विशव में क्रांति आ गयी थी।
तत्पश्चात उन्होंने कहा कि हमारा उद्देश्य न केवल छुआ -छुत को समाप्त करना है बल्कि इस की जड़ में चातुर्वर्ण को भी समाप्त करना है। उन्होंने आगे कहा कि किस तरह पैट्रीशियनज़ ने धर्म के नाम पार प्लेबिअन्स को बेवकूफ बनाया था। उन्होंने ललकार कर कहा था कि छुअछुत का मुख्य कारण अंतरजातीय विवाहों पर प्रतिबन्ध है जिसे हमें तोडना है। उन्होंने उच्च वर्णों से इस "सामाजिक क्रांति" को शांतिपूर्ण ढंग से होने देने, शास्त्रों को नकारने और न्याय के सिद्धांत को स्वीकार करने की अपील की। उन्होंने उन्हें अपनी तरफ से पूरी तरह से शांत रहने का आश्वासन दिया। सभा में चार प्रस्ताव पारित किये गए और समानता की घोषणा की गयी। इस के बाद मनुस्मृति जलाई गयी जैसा कि ऊपर अंकित किया गया है।
ब्राह्मणवादी मीडिया में इस पर बहुत तगड़ी प्रतिक्रिया हुयी। एक अखबार ने उन्हें "भीम असुर" कहा। डॉ आंबेडकर ने कई लेखों में मनुस्मृति के जलाने को जायज़ ठहराया। उन्होंने उन लोगों का उपहास किया और कहा कि उन्होंने मनुस्मृति को पढ़ा नहीं है और कहा कि हम इसे कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने उन लोगों का ध्यान दलितों पर होने वाले अत्याचार की ओर खींचते हुए कहा कि वे लोग मनुस्मृति पर चल रहे हैं जो यह कहते हैं कि यह तो चलन में नहीं है, इसे क्यों महत्व देते हो। उन्होंने आगे पूछा कि अगर यह पुराणी हो गयी है तो फिर आप को किसी द्वारा इसे जलाने पर आपात्ति क्यों होती है? जो लोग यह कह रहे थे कि मनुस्मृति जलाने से दलितों को क्या मिलेगा इस पर उन्होंने उल्टा पूछा कि गान्धी जी को विदेशी वस्त्र जलाने से क्या मिला? "ज्ञान प्रकाश" जिसने खान और मालिनी के विवाह के बारे में छापा था को जला कर क्या मिला? न्युयार्क में मिस मेयो की " मदर इंडिया " पुस्तक जला कर क्या मिला? राजनैतिक सुधारों को लागू करने के बनाये गए "साइमन कमीशन" का बाईकाट करने से क्या मिला? यह सब विरोध दर्ज कराने के तरीके थे ऐसा ही हमारा भी मनुस्मृति के विरुद्ध था।
उन्होंने आगे घोषणा की अगर दुरभाग्य से मनुस्मृति जलाने से ब्राह्मणवाद ख़त्म नहीं होता तो हमें या तो ब्राह्मणवाद से ग्रस्त लोगों को जलाना पड़ेगा या फिर हिन्दू धर्म छोड़ना पड़ेगा। आखिरकार बाबा साहेब को हिन्दू को त्याग कर बौद्ध धम्म वाला रास्ता अपनाना पड़ा। मनुस्मृति का चलन आज भी उसी तरह से है। अतः दलितों को मनुस्मृति दहन दिवस मना कर इसे तब तक जलाना पड़ेगा जब तक चातुर्वर्ण ख़तम नहीं हो जाता।

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने की राजनीती एस आर दारापुरी

उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने की राजनीती
एस आर दारापुरी
हाल में उत्तर प्रदेश में  16 नवम्बर को समाजवादी पार्टी के  मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने के लिए कैबिनेट की एक उप समिति बनायीं है जो दो माह में राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट देगी। रिपोर्ट के आधार पर राज्य सरकार सम्बंधित पिछड़ी जातियों को अनुचित जातियों की  सूचि मे शामिल करने के लिए केंद्र सरकार से सिफारिश करेगी । इस पर  बसपा और भाजपा ने  प्रकरण में सरकार की नियत पर सवाल उठाते हुए उप समिति बनाये जाने का विरोध  करते हुए गुरुवार को विधान सभा से बहिर्गमन कर दिया। दोनों पार्टियों का कहना था कि मामले को लटकाने के लिए उपसमिति बनाये जाने की बजाए सरकार सम्बंधित प्रस्ताव को सदन के माध्यम से केंद्र सरकार को क्यों नहीं भेजती?
सरकार ने विधान सभा में एक प्रशन के उत्तर में यह बताया  था कि निषाद, बिन्द, मल्लाह,केवट, कश्यप, भर, धीवर, बाथम, मछुआरा,
प्रजापति,राजभर,कहार, कुम्हार, धीमर, मांझी, तुरहा तथा गौड़ आदि जातियों को अनुसूचित जातियों की सूचि में शामिल करने के लिए उपसमिति बनायीं गयी है जो दो माह में अपनी रिपोर्ट सरकार को देगी। रिपोर्ट के आधार पर सरकार केद्र सरकार को उक्त जातियों को एससी की सूचि में शामिल करने की सिफरिश  की जाएगी। इस पर बसपा और भाजपा के प्रतिनिधियों ने यह कहते हुए सदन से बहिर्गमन  किया कि  सरकार प्रकरण को केवल लटकाना चाहती है।
इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि इस से पहले भी वर्ष 2006 में मुलायम सिंह की सरकार ने 16 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची तथा 3 अनुसूचित जातियों को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने के लिए शासनादेश जारी  किया था जिसे आंबेडकर महासभा तथा अन्य  दलित संघठनों   द्वारा न्यायालय में चुनौती देकर रद्द करवा दिया गया था।   
वर्ष 2007 में सत्ता में आने पर मायावाती, जो कि अपने  आप को दलितों का मसीहा घोषित करती है, ने भी इसी प्रकार से 16 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूचि में शामिल करने की संस्तुति केन्द्रीय सरकार को भेजी  थी। इस पर केन्द्रीय सरकार ने इस के औचित्य के बारे में उस से सूचनाएं मांगी तो वह इस का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे सकी।और  केन्द्रीय सरकार ने उस प्रस्ताव को वापस भेज दिया।
इस विवरण से स्पष्ट है कि  समाजवादी पार्टी  और बसपा   इन पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल कराकर उन्हें  अधिक आरक्षण दिलवाने का लालच देकर  केवल उनका वोट प्राप्त करने की राजनीति कर रही हैं क्योंकि वे अच्छी  तरह जानती हैं कि न तो उन्हें स्वयम इन जातियों को अनुसूचित जातियों की सूचि में डालने का अधिकार है और न ही यह जातियां अनुसूचित जातियों के माप दंड पर पूरा ही  उतरती हैं। वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार किसी भी जाति को अनुसूचित जातियो की सूचि में शामिल करने अथवा उसे इस से निकालने  का अधिकार केवल पार्लियामेंट को ही है। राज्य सरकार  औचित्य सहित केवल अपनी संस्तुति  केन्द्रीय सरकार को भेज सकती है जो इस सम्बन्ध में केन्द्रीय सरकार ही  रजिस्ट्रार जनरल  आफ इंडिया तथा रष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग से परामर्श के बाद  पार्लियामेंट के माध्यम से ही  किसी जाति को सूचि में शामिल अथवा निकाल सकती है। संविधान की धारा 341 में राष्ट्रपति  ही राज्यपाल से परामर्श करके संसद द्वारा कानून पास करवा कर इस सूचि में किसी जाति का प्रवेश  अथवा निष्कासन कर सकता है। इस में राज्य सरकार को कोई भी शक्ति प्राप्त नहीं है। वास्तव में यह पार्टियाँ अपनी संस्तुति केन्द्रीय सरकार को  भेज कर  सारा मामला कांग्रेस  की  झोली में  डालकर यह प्रचार करती हैं कि हम तो आप को अनुसूचित जातियों की सूचि में डलवाना चाहते हैं परन्तु केंद्र सरकार उसे नहीं कर रही है। यह केवल अति पिछड़ी जातियों को गुमराह करके वोट बटोरने की राजनीति  है जिसे अब शायद ये जातियां भी बहुत अच्छी  तरह से जान गयी हैं।
इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि अखलेश यादव की सपा सरकार अथवा मायावती की बसपा सरकार द्वारा जिन अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूचि में डालने की जो संस्तुति पहले की गयी थी अथवा आगे की जाएगी वह मान्य  नहीं होगी क्योंकि यह जातियां अनुसूचित जातियों की   अस्पृश्यता की आवश्यक शर्त को पूरा नहीं करतीं। यह सर्व विदित  है कि अनुसूचित जातियां सवर्ण हिन्दुओं के लिए अछूत हैं जबकि सम्बंधित पिछड़ी जातियां उन के लिए सछूत  हैं। इस प्रकार उनका किसी भी हालत में अनुसूचित जातियों की सूचि में शामिल किया जाना संभव नहीं है।
 यदि सपा सरकार  इन पिछड़ी जातियों को आरक्षण का  वांछित लाभ वास्तव में देना चाहती हैं जोकि वार्तमान में उन्हें पिछड़ों में समृद्ध जातियों (यादव, कुर्मी तथा जाट आदि ) के  शामिल रहने से नहीं मिल पा रहा है तो  उसे इन जातियों की सूचि को दो या तीन हिस्सों में बाँट कर उनके लिए 27% के आरक्षण को उनकी आबादी के अनुपात में बाँट देना चाहिए। देश के अन्य कई राज्य बिहार, तमिलनाडु, कर्णाटक अदि में यह व्यवस्था पहले से ही लागू  है। मंडल योग में भी इस प्रकार की संस्तुति की गयी थी।
  उत्तर प्रदेश में इस सम्बन्ध में 1975 में डॉ छेदी लाल साथी की अध्यक्षता में सर्वाधिक पिछड़ा आयोग गठित किया गया था जिस ने अपनी रिपोर्ट 1977 में उत्तर प्रदेश सरकार को सौंप दी थी परन्तु उस पर आज तक कोई भी कार्रवाही नही की गयी। साथी आयोग ने पिछड़े वर्ग की जातियों को तीन श्रेणियों में निम्न प्रकार  बाँटने  तथा उन्हें 29.5 % आरक्षण देने की संस्तुति की थी:
"अ" श्रेणी में उन जातियों को रखा गया था जो पूर्ण रूपेण भूमिहीन, गैर-दस्तकार, अकुशल श्रमिक, घरेलू सेवक हैं और हर प्रकार से ऊँची जातियों पर निर्भर हैं। इनको 17% आरक्षण देने की संस्तुति की गयी थी।
"ब" श्रेणी में पिछड़े वर्ग की वह जातियां, जो कृषक या दस्तकार हैं। इनको 10% आरक्षण देने की संस्तुति की गयी थी। .
"स" श्रेणी में मुस्लिम पिछड़े वर्ग की जातियां हैं जिनको 2.5 % आरक्षण देने की संस्तुति की गयी थी।
वर्तमान में उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों के लिए 27% आरक्षण उपलब्ध है। अतः इसे डॉ छेदी लाल साथी आयोग की संस्तुतियों के अनुरूप पिछड़ी  जातियों को तीन हिस्सों में बाँट कर उपलब्ध आरक्षण को उनकी आबादी के अनुपात में बाँटना अधिक न्यायोचित होगा। इस से अति पिछड़ी जातियों को अपने हिस्से के अंतर्गत आरक्षण मिलना संभव हो सकेगा।
 इन अति पिछड़ी जातियों को यह भी समझाना होगा कि सपा सरकार इन अति पिछड़ी जातियों को इस सूचि से हटा कर अपनी समृद्ध जातियों यादव, कुर्मी और जाट के लिए आरक्षण बढ़ाना चाहती है और उन्हें अनुसूचित जातियों से लडाना चाहती है। अतः उन्हें सपा और बसपा  की इस चाल को समझाना चाहिए और उन के इस झांसे में न आ कर डॉ छेदी लाल साथी आयोग की संस्तुतियों के अनुसार अपना आरक्षण अलग कराने  की मांग उठानी चाहिए। इसी प्रकार कुछ  जातियां जो वर्तमान में अनुसूचित जातियों की सूचि में हैं परन्तु उन्हें अनुसूचित जनजातियों  की सूचि में होना चाहिए उन्हें सपा सरकार से एक आयोग बना कर उनकी स्थिति का आंकलन करवा भारत  सरकार  को संस्तुति करने की मांग  उठानी चाहिए तभी इन जातियों को भी उचित न्याय मिल सकेगा वरना वे इन पार्टियों द्वारा झूठे आश्वासन दे कर इसी तरह ठगे जाते रहेंगे। 

रविवार, 18 नवंबर 2012

भगवान दास एक परिचय : एक सन्देश

                    भगवान दास एक परिचय : एक सन्देश
                                         - एस आर दारापुरी 
                                              
मैं भगवान दास जी को 1965 से जानता था। उस समय उन्हें दिल्ली में बाबा साहेब के सबसे बड़े विद्वान् और समर्पित पैरोकारों में से एक के तौर पर जाना जाता था।
मैनें उन्हें पहली बार नई दिल्ली के लक्ष्मीबाई नगर में बौद्ध उपासक संघ की मीटिंगों में सुना था। कुछ वर्षों तक आंबेडकर भवन बौद्ध गतिविधियों का केंद्र रहा था। बुद्धिस्ट सोसाइटी आफ इंडिया द्वारा साप्ताहिक धार्मिक मीटिंगें आयोजित की जाती थीं। श्री वाई सी शंकरानंद शास्त्री तथा सोहन लाल शास्त्री जो दोनों पंजाब की एक आर्यसमाज संस्था ब्रह्म विद्यालय की उपज थे और बौद्ध आन्दोलन के अगुआ थे। आर्य समाज की मीटिंगों की तरह ये लोग साप्तहिक मीटिंगें किया करते थे। कुछ कारणों से दोनों के बीच मतभेद हो गए और वे एक दूसरे से अलग हो गए। श्री शंकरानंद शास्त्री ने अपने कुछ साथियों को लेकर बौद्ध उपासक संघ बना लिया और रिज़र्व बैंक आफ इंडिया के एक कर्मचारी श्री रामाराव बागडे के फ्लैट के सामने आंगन में साप्ताहिक मीटिंगें शुरू कर दीं। श्री भगवान दास जी इन मीटिंगों में मुख्य वक्ता के रूप में रहते थे।
उन्हें दलितों की एकता में रूचि थी और उन्होंने बहुत सी जातियों मसलन धानुक, खटीक, बाल्मीकि, हेला, कोली आदि को अम्बेडकरवादी आन्दोलन में लेने के प्रयास किये। ज़मीनी स्तर पर काम करते हुए भी उन्होंने दलितों एवं अल्पसंख्यकों के विभिन्न मुद्दों पर लेख लिखे जो पत्र पत्रिकायों में प्रकाशित होते रहे। उन्हें अंग्रेजी और उर्दू में महारत हासिल थी और सरल हिंदी तथा कुछ गुरमुखी लिपि में पंजाबी पढ़ सकते हे। बंगाल और अराकान में एयरफोर्स की नौकरी करते हुए उन्होंने बंगाली भाषा भी सीखी थी पर अब भूल गए थे ।
मुझे नौकरी में रहते हुए लगभग पूरे भारत वर्ष में घूमने और अनुसूचित जातियों से सम्बधित अधिकारियों, प्रोफेसरों, अध्यापकों और नेताओं को जानने का मौका मिला। मेरा विश्वास है कि श्री दास जी के पास पुस्तकों का सबसे बड़ा भंडार था। वह कभी न थकने वाले पाठक थे और काम के अधिकाँश घंटे पढने में बिताते थे। पुस्तकों और पत्र पत्रिकायों पर उनका काफी पैसा खर्च होता था। उनके पुस्तक संग्रह में विदेशी और भारतीय लेखकों की दुर्लभ पुस्तकें शामिल थीं। उनकी फाईलों में अलग अलग विषयों पर अच्छे लेख और पर्चे थे जिन्हें या तो वे प्रकाशित नहीं करा सके थे या फिर उनके बारे में भूल गए थे.
उनसे बातचीत के दौरान मुझे पता चला कि उनका जन्म 23 अप्रैल, 1927 को भारत की गर्मियों की राजधानी शिमला के निकट छावनी जतोग में हुआ था और उनका परिवार काफी खुशहाल था लेकिन एक अछूत परिवार में जन्म के कारण वह अपमान और भेदभाव का शिकार होते रहे। उन्हें उनके पिता पर गर्व था जिन्होंने उनके चरित्र पर गहरा प्रभाव डाला। उनके पिता डॉ आंबेडकर के वह बहुत प्रशंसक थे और समाचार पत्र पढ़ने के शौक़ीन थे। उन्हें हिन्दू, ईसाई, इस्लाम और सिख धर्म के ग्रंथों के अलावा आयुर्वेद की पुस्तकें पढ़ने का शौक था। श्री दास जी को ज्ञान से प्रेम अपने पिता जी से विरासत में मिला था।
ऐसा लगता है कि दास साहेब अपने समय के अधिकतर अछूतों की तरह इसाईयत से प्रभावित हुए। बाद में उन्होंने आर्य समाज साहित्य, कुरान और इस्लाम विचारधारा की अन्य पुस्तकें पढ़ीं। काफी समय तक उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य का अध्ययन किया और मार्क्सवाद पर लिखते भी रहे लेकिन कमियुनिस्ट नेताओं के जातिवादी चरित्र ने उनका मन खट्टा कर दिया। उन्होंने इन्गर्सेल, टामस पेन, वाल्टेयर, बर्नार्ड शा और बर्टरैंड रस्सल का अध्ययन किया। बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर से सीधे संपर्क में आने से पहले उन्होंने धर्म के बारे में अपने विचार विकसित कर लिए थे। बाबा साहेब से उनकी जान पहचान पिछड़ी जातियों के प्रसिद्ध नेता शिव दयाल सिंह चौरसिया ने करवाई थी जो कि काका कालेलकर आयोग के सदस्य थे और राज्य सभा के सदस्य भी थे।
श्री भगवान दास जी ने बाबा साहेब की रचनाओं और भाषणों का सम्पादन किया और उन पर पुस्तकें लिखीं। उनका " दस स्पोक आंबेडकर" शीर्षक से चार खण्डों में प्रकाशित ग्रन्थ देश और विदेश में अकेला दस्तावेज़ था जिनके जरिये डॉ आंबेडकर के विचार सामान्य लोगों और विद्वानों तक पहुंचे।
यह काम उन्होंने 1960 के दशक में शुरू किया था जब अभी इस की तरफ महारष्ट्र सरकार का ध्यान भी नहीं गया था। उन्होंने सफाई कर्मचारियों और भंगी जाति पर चार पुस्तकें और धोबियों पर एक छोटी पुस्तक लिखी। उनकी बहुचर्चित पुस्तक "मैं भंगी हूँ" अनेक भारतीय भाषायों में अनूदित हो चुकी है और वह दलित जातियों के इतिहास का दस्तावेज़ है।
उनकी पुस्तकें और देश विदेश के सेमीनार आदि प्रस्तुत उनके पर्चों से पता चलता है कि उनका अध्ययन कितना विस्तृत था और वह दबे कुचले लोगों के हित के प्रति कितने समर्पित थे। अगर मार्क्स ने दुनियां के मजदूरों को एक होने का आह्वान किया था तो भगवान दास जी ने भारत और एशिया के दलितों को एक होने का सन्देश दिया। मुझे नहीं लगता कि उनके अलावा कोई ऐसा व्यक्ति है जिसने एशिया के सभी दलितों को एक मंच पर लाने , उनकी मुक्ति और स्वाभिमान से उनके जीने के अधिकार के लिए इतना प्रयास किया हो। उन्होंने कुल 23 पुस्तकें लिखीं।
श्री भगवान दास जी  ने भारत में दलितों के प्रति छुआछूत और भेदभाव के मामले को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाने का ऐतहासिक काम किया। भारत, नेपाल, पाकिस्तान  और बांग्लादेश के जातिभेद के  मामले को उन्होंने 1983 में यू एन ओ ( संयुक्त राष्ट्र संघ) में पेश किया और जापान के अछूतों बुराकुमिन के मामले को भी उठाया।
डॉ आंबेडकर भी इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाना चाहते थे परन्तु कुछ कारणों से यह संभव नहीं हो पाया था। श्री दास के प्रयासों का ही यह फल है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने छुआछुत को मानवाधिकारों का हनन मान कर भारत सरकार की जवाबदेही तय की है और अपनी ओर से भारत के लिए दो रिपोर्टियर  नियुक्त किये हैं। इस के बाद वह 2001 में डरबन में नसल भेद पर संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन में भी गए थे। वास्तव में छुआछुत के मामले को अंतर्राष्टीय मंच पर पहुँचाने का सारा श्रेय श्री भगवान दास जी को ही जाता है। इस के लिए एशिया के दलित और जापान के बुराकुमिन सदैव उनके ऋणी रहेंगे।
श्री भगवान दास जी ने बहुत साधारण जीवन जिया। वह बहुत विनम्र थे और भदंत आनंद कौशल्यायन कहा करते थे, "आप में बहुत नम्रता है।" वकील के रूप में वह बहुत मेहनत करते थे। उनके ज्यादा दोस्त नहीं थे और न ही सामाजिक समारोहों में जाने में उन्हें कोई खास ख़ुशी होती थी। लायब्रेरी में या दलित शोषित लोगों की बेहतरी के लिए काम कर रहे बुद्धिजीवियों की संगत में उन्हें अधिक ख़ुशी मिलती थी।
इस महान व्यक्ति को हम लोगों ने 18 नवम्बर, 2010 को खो दिया जिससे अम्बेडकरवादी आन्दोलन की अपूर्णीय क्षति हुई है। उनके दिखाए गए मार्ग पर चलकर बाबा साहेब के मिशन को अगर हम पूरा कर सकें तो यही उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजली होगी।

बुधवार, 14 नवंबर 2012

धर्मापुरी में दलितों पर आक्रमण के निहितार्थ
एस आर दारापुरी
आई पी एस (सेवा निवृत)

दलितों के विरुद्ध 7 नवंबर को तमिलनाडु के धर्मापुरी जिले के नैकान्कोटी गाँव के तीन मजरे नाथम , अन्ना नगर और कोंदम्पति में दलितों पर हुए आक्रमण ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि हमारे समाज में जाति पूर्वाग्रह आज भी कितने मजबूत हैं और जाति सम्मान जाति पहचान से कितनी मजबूती से जुड़ा हुआ है। धर्मापुरी मे पिछड़ी जाति

के वानियार समाज के 500 लोगों ने आदिद्रवड़ जाति के दलितों के 300 घरों पर हमला करके उन्हें लूटा और बुरी तरह से तबाह किया।
समाचार पत्रों में छपी ख़बरों के अनुसार दलितों पर हमले का मुख्य कारण पिछड़ी जाति (वानियर ) की दिव्या नाम की 20 वर्ष की लड़की का दलित जाति (आदिद्रवड़ ) के 23 वर्षीय लड़के इलावर्सन के साथ एक माह पहले प्रेम विवाह था। लड़की के परिवार वाले पुलिस के पास गए और पुलिस ने दोनों पार्टियों को समझाया था कि विवाह वैध है। इस बीच 30 गाँव के वानियारों ने मीटिंग करके इस मुद्दे पर विचार किया. उन्होंने बुद्धवार को एक "कंगारू अदालत" लगायी और लड़के के घर वालों को लड़की को उसके माँ बाप को वापस करने को कहा परन्तु लड़की ने घर वापस जाने से मना कर दिया। धर्मापुरी के पुलिस कप्तान को इस की पूरी जानकारी थी। इस लिए उन्होंने उक्त अदालत में आदेश देने वालों की तलाश शुरू कर दी थी। इसे सामाजिक अपमान मानते हुए 6 नवम्बर को लड़की के पिता जी नागराजन ने आत्महत्या कर ली। इस पर 7 नवम्बर को वानियर जाति के लोगों ने बड़ी संख्या में एकत्र हो कर गाँव की तीन बस्तियों पर धावा बोल दिया। उन्होंने पेड़ काट कर सड़क पर डाल दिए ताकि पुलिस और आग बुझाने वाली गाड़ियाँ आसानी से न पहुँच सकें। दलित बस्तियों में लगभग 5-30 घंटे लूट पाट और आगजनी चलती रही और लगभग 300 दलित घर जल कर स्वाह हो गए। शुक्र है कि दलित बस्तियों पर इस हमले में कोई जान नहीं गयी क्योंकि दलित हमले से पहले ही अपने घर छोड़ कार जंगल की तरफ भाग गये थे। जले, लुटे और तबाह हुए दलित घरों की 300 की संख्या इस हमले की व्यापकता और तीव्रता को दर्शाती है। पुलिस ने अब तक 90 लोगों को गिरफ्तार किया है और 500 अन्य अज्ञात लोगों के विरुद्ध मुकदमा कायम किया है। यह उल्लेखनीय है कि घटना के समय गाँव में लगभग 300 पुलिस कर्मचारी मौजूद थे परन्तु उन्होंने हमलावरों को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। उन्होंने इस का कारण हमलावरों के मुकाबले अपनी संख्या कम होने का बहाना बनाया है।
तमिलनाडु जो कि एक उन्नत प्रदेश कहा जाता है दलितों पर इस प्रकार के हमलों और उत्पीडन के लिए कुख्यात है। यद्यपि संख्या में ये हमले कम हैं परन्तु गंभीरता और व्यापकता में ये काफी बड़े हैं।
इस से पहले भी 1968 में किलवेनमेनी गाँव में इसी प्रकार एक दलित बस्ती पर हमला हुआ था जिस में 44 दलित, जिन में अधिकतर औरतें और बच्चे, थे मौत का शिकार हो गए थे।
उपरोक्त घटना के विश्लेषण से निम्नलिखित बातें उभर कर आती हैं:-
1. हमारे समाज में आज भी जाति भेद बहुत उग्र रूप में व्याप्त है। आज भी जाति- सम्मान जाति- पहचान से बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है। जैसे ही इस को कोई ठेस पहुंचती है तो उस पर हिंसक प्रतिक्रिया देखने को मिलती है।
2. वर्तमान में दलितों का अधिकतर टकराव ऊँची जातियों के स्थान पर पिछड़ी जातियों के साथ हो रहा हैं क्योंकि यह जातियां नव ब्राह्मणवादी एवं नव धनाड्य बनी हैं। वास्तव में इन जातियों का जाति- हित और वर्ग- हित भी दलितों से टकराता है। ऐसी परिस्थिति में कुछ दलित बुद्धिजीवियों द्वारा बहु प्रचारित दलित- बहुजन (दलित और पिछड़े) एकता की अवधारणा पर भी प्रशन चिन्ह लग जाता है।
3. तमिलनाडु में रामा स्वामी नायकर पेरियार द्वारा ब्राह्मण विरोधी "आत्म सम्मान" आदोलन से आर्थिक एवं राजनितिक- सत्ता ब्राह्मणों के हाथ से निकल कर पिछड़ी जातियों के हाथ में आ गयी है जो कि एक प्रभुत्वशाली नव ब्राह्मणवादी वर्ग बन गया है और उन का दलितों के प्रति नजरिया और व्यवहार पूरी तरह से जातिवादी है।
4. खाप पंचायतें और इस मामले में कंगारू अदालतें सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के खिलाफ फतवे देकर संविधान और कानून का मजाक उड़ाती हैं परन्तु कोई भी सरकार या राजनीतिक पार्टी उन के विरुद्ध न तो कोई कार्रवाही करती है और न ही उनके फरमानों के खिलाफ कोई आवाज़ उठाती है। वर्तमान में जाति वोट बैंक की राजनीति ऐसी गैर संविधानिक संस्थायों को बढावा देती है जो कि लोकतंत्र के लिए सब से बड़ा खतरा है।
5 तमिलनाडु के ब्राह्मण विरोध आन्दोलन से यह भी स्पष्ट है कि केवल ब्राह्मण विरोध से जाति सत्ता में दलितों के पक्ष में कोई लाभकारी परिवर्तन होने की आशा नहीं की जा सकती क्योंकि इस से नव ब्राह्मणवादियों का उद्गम हो जाता है। अतः सम्पूर्ण जाति विनाश से ही जाति- भेद और जाति- उत्पीडन से निजात संभव हो सकती है। इस के लिए दलितों को ही आगे आना होगा जैसा कि डॉ आंबेडकर ने अपेक्षा की थी। वर्तमान में दलित ही जाति - भेद और जाति-उत्पीडन का सब से बड़ा शिकार हैं।
6. दलित राजनीति को भी जाति और जाति -पहचान की राजनीती से बाहर निकल कर दलितों के मूल मुद्दों पर राजनीति करनी होगी क्योंकि इस से दलित नेताओं को जाति के नाम पर दलितों के मुद्दों के समाधान के लिए कुछ भी न करके दलितों का केवल भावनात्मक शोषण करके व्यक्तिगत लाभ कमाने का मौका मिल जाता है।
7. दलित अपनी सुरक्षा के लिए सरकार अथवा पुलिस पर आश्रित रह कर उत्पीडन से नहीं बच सकते। इस मामले में भी घटना के दिन उक्त क्षेत्र में लगभग पुलिस के 300 कर्मचारी मौजूद थे परन्तु उन्होंने उपद्रवियों को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। यह सर्व विदित है पुलिस का नजरिया भी अधिकतर जातिवादी और दलित विरोधी होता है। अतः दलितों को अपनी रक्षा खुद करने के लिए आत्मरक्षा- दल बनाने पर विचार करना होगा। डॉ आंबेडकर ने इसी ध्येय से "समता सैनिक दल" की स्थापना की थी जो आज भी कमज़ोर स्थिति में मौजूद है। उसे पुनर्जीवित कर मज़बूत करने की ज़रूरत है। बाबा साहेब का "शिक्षित करो, संघर्ष करो और संघटित करो" का नारा आज और भी प्रासंगिक है। बाबा साहेब ने यह भी कहा था," सिद्धांत अहिंसा का होना चाहिए परन्तु अगर ज़रूरत हो तो हिंसा ज़रूर होनी चाहिए।" यह भी सर्वविदित है कि आत्मरक्षा में की गयी हिंसा हिंसा नहीं होती।
8. दलितों को जाति संघटनों से बाहर निकल कर वर्ग आधारित उत्पीडित वर्गों के साथ मिल कर संघटन बनाने पर विचार करना होगा क्योंकि जाति जोड़ने की नहीं तोड़ने की प्रक्रिया है। इस से जाती टूटने के स्थान पर मजबूत होती है। यह डॉ आंबेडकर के जाति एवं वर्ग विहीन समाज की स्थापना के लक्ष्य के भी प्रतिकूल है। इसी कारण से दलितों के मज़बूत संघटन नहीं बन पा रहे हैं।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों के विरुद्ध हो रहे आक्रमण और उत्पीडन की घटनाओं का विस्तार और तीव्रता लगातार बढ़ रही है जिस के परिपेक्ष्य में दलितों को आत्म रक्षा और संघटन निर्माण पर नए सिरे से सोचना होगा। दलित राजनीति को भी जाति के मकडजाल से निकाल कर वर्ग राजनीति में परिवर्तित होना होगा ताकि वे अन्य समान हित वाले वर्गों को साथ लेकर शक्तिशाली संघटन बना सकें और मुद्दा आधारित राजनीति के माध्यम से सत्ता में हिस्सेदारी पा सकें।

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