मंगलवार, 17 मार्च 2015

अस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना आसान, लेकिन बाबासाहेब इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।– आनंद तिल्तुम्बडे



अस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना आसान, लेकिन बाबासाहेब  इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।– आनंद तिल्तुम्बडे
आनंद ने कहा कि हमें यह समझ लेना चाहिए कि सत्ता वर्ग और राज्यतंत्र ने वर्गीय ध्रुवीकरण के सारे रास्ते बंद कर दिये हैं, जिन्हें खोलने के लिए सबसे पहले बहुजनों को धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद और अस्मिता के मुक्ताबाजारी तिलिस्म से रिहा करना जरूरी है। हमारे प्रतिबद्ध जनपक्षधर लोग इसकी जरुरत जितनी तेजी से महसूस करेंगे और इसे वास्तव बनाने की दिशा में सक्रिय होंगे, उतना हम जनमोर्चा बनाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे। विरोध और प्रतिरोध की हालत तो फिलहाल है ही नहीं।
रात को आनंद ने खुलकर आराम से बात की। मैंने जो लिखा है कि बाबासाहेब संगठक नहीं थे, उस पर ऐतराज जताते हुए उन्होंने साफ तौर पर कहा कि बाबा साहेब चाहते तो राष्ट्रव्यापी संगठन वे बना सकते थे और सत्ता हासिल करना उनका मकसद होता तो वे उसके रास्ते भी निकाल सकते थे।
बाबासाहेब की सर्वोच्च प्राथमिकता जाति उन्मूलन की रही है।
आनंद के मुताबिक बाबासाहेब के विचार, बाबा साहेब के वक्तव्य और बाबासाहेब के कामकाज सबकुछ हम भूल जायें तो चलेगा लेकिन हमें उनके जाति उन्मूलन के एजेंडे को भूलना नहीं चाहिए। उनकी जाति उन्मूलन की परिकल्पना रही है या नहीं रही है, इसका कोई मतलब नहीं है। क्योंकि जाति उन्मूलन के बिना भारत में वर्गीय ध्रुवीकरण के रास्ते खुलेंगे नहीं।
वर्गीय ध्रुवीकरण न हुआ तो यह देश उपनिवेश ही बना रहेगा और वध संस्कृति जारी रहेगी।
अर्थव्यवस्था के बाहर ही रहेंगे बहुसंख्य बहुजन।
मुक्त बाजार का तिलिस्म और पूंजी का वर्चस्व जीवनयापन असंभव बना देगा।
नागरिक कोई नहीं रहेगा। सिर्फ उपभोक्ता रहेंगे। उपभोक्ता न विरोध करते हैं और न प्रतिरोध। उपभोग भोग के लिए हर समझौता मंजूर है। देश बेचना भी राष्ट्रवादी उत्सव है।
आनंद के इस वक्तव्य से हिंदू साम्राज्यवाद और अमेरिका इजराइल नीत साम्राज्यवादी पारमानविक रेडियोएक्टिव मुक्तबाजारी विश्वव्यवस्था के चोली दामन रिश्ते की चीरफाड़ जरुरी है। जिस उत्पादन प्रणाली और उत्पादन संबंधों के साथ साथ उत्पादक वर्ग के सफाये की नींव पर बनी है मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था, धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद एकदम उसीके माफिक है। फासीवाद उसका आधार है।
गौर तलब है कि संघ परिवार का केसरिया कारपोरेट बिजनेस फ्रेंडली सरकार न सिर्फ मेड इन खारिज करके मेकिंग इन गुजरात और मेकिंग इन अमेरिका के पीपीपी माडल को गुजरात नरसंहार की तर्ज पर धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के दंगाई राजीनीति के तहत अमल में ला रही है, बल्कि पूरी हुकूमत अब मुकम्मल मनसैंटो और डाउ कैमिकल्स है।
पूरा देश ड्रोन की निगरानी में है। नागरिकता अब सिर्फ आधार नंबर है। हालत यह है कि संघ परिवार के ही प्राचीन वकील राम जेठमलानी तक को देश के वित्तमंत्री अरुण जेटली को ट्रेटर कहना पड़ रहा है।
हालत यह है कि तमाम सरकारी उपक्रमों की हत्या की तैयारी है गयी है। सरकार ने अगले वित्त वर्ष के लिए करीब 70, 000 करोड़ रुपये का विनिवेश लक्ष्य तय किया है।
बाबासाहेब का अंतिम लक्ष्य लेकिन समता और सामाजिक न्याय है, जिसके लिए बाबासाहेब ने राजनीति कामयाबी कुर्बान कर दी।
सत्ता हासिल करना चूंकि उनका अंतिम लक्ष्य नहीं था, इसलिए संगठन बनाने में उनकी खास दिलचस्पी नहीं थी।
समता और सामाजिक न्याय के लिए जो कमसकम वे कर सकते थे, उन्होंने सारा फोकस उसी पर केंद्रित किया।
तेलतुंबड़े का कहना हैअस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना आसान, लेकिन बाबासाहेब इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।
उन्होंने कहा कि जाति पहचान और अस्मिता के आधार पर भाववादी मुद्दों पर केंद्रित जो बहुजन समाज का संगठन बनाया कांशीराम जी ने, जो बामसेफ और बाद में बहुजन समाजवादी पार्टी बनायी कंशीराम जी ने, बाबा साहेब चाहते तो वे भी बना सकते थे।
क्योंकि जाति और पहचान, भावनाओं के आधार पर जनता को मोबिलाइज करना सबसे आसान होता है और यही सत्ता तक बहुंचने की चाबी है। जिस व्यक्ति का एजेंडा जाति उन्मूलन का रहा हो, जिनने जति व्यवस्था तोड़ने के लिए भारत को फिर बौद्धमय बानाने का संकल्प लियावे जाति और पहचान के आदार पर भाववादी मुद्दों पर संगठन कैसे बना सकते थे, हमें इस पर जरूर गौर करना चाहिए।
आनंद ने जो कहा, उसका आशय मुझे तो यह समझ आया कि बाबासाहेब के जीवन और उनके विचार, उनकी अखंड प्रतिबद्धता पर गौर करें तो वे सही मायने में राजनेता थे भी नहीं। उन्होंने बड़ी राजनीतिक कामयाबी हासिल करने की गरज से कुछ भी नहीं किया।
बाबासाहेब राजनीति में वे जरूर थे, लेकिन उनका मकसद उनका भारत के वंचित वर्ग के लिएसिर्फ वंचित जातियों या अछूत जातियों के लिए नहीं, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और महिलाओंकामगारों और कर्मचारियों के हक हकूक सुनिश्चित करना था।
इसमें उन्हें कितनी कामयबी मिली या उनकी परिकल्पनाओं में या उनके विचारों में क्या कमियां रहीं, इस पर हम समीक्षा और बहस कर सकते हैं और चाहे तो बाबासाहेब के व्यक्तित्व और कृतित्व का पुनर्मूल्यांकन कर सकते हैं, लेकिन उनकी प्रतिबद्धता में खोट नहीं निकाल सकते हैं।
जो लोग बाबासाहेब को भारत में जात पांत की राजनीति का जनक मानते हैंवे इस ऐतिहासिक सच को नजरअंदाज करते हैं कि जाति व्यवस्था का खात्मा ही बाबासाहेब की जिंदगी का मकसद था और यही उनकी कुल जमा राजनीति थी।
ऐतिहासिक सच है कि बहुजनों को जाति के आधार पर संगठित करने की कोई कोशिश बाबासाहेब ने नहीं की और वे उन्हें वर्गीय नजरिेये से देखते रहे हैं।
विडंबना यह है कि हर साल बाबासाहेब के जन्मदिन, उलके दीक्षादिवस और उनके निर्वाण दिवस और संविधान दिवस धूमधाम से मनाने वाले उनके करोड़ों अंध अनुयायियों को इस ऐतिहासिक सच से कोई लेना देना नहीं है कि बाबासाहेब बहुजनों को डीप्रेस्ड क्लास मानते थे, जाति अस्मिताओं का इंद्र धनुष नहीं।
मान्यवर कांशीराम की कामयाबी बड़ी है, लेकिन वे बाबासाहेब की परंपरा का निर्वाह नही कर रहे थे और न उनका संगठन और न उनकी राजनीति बाबासाहेब के विचारों के मुताबिक है।
मान्यवर कांशीराम ने उस जाति पहचान के आधार पर बहुजनों को संगठित किया, जिसे सिरे से मिटाने के लिए बाबासाहेब जिये और मरे।
तेलतुंबड़े का कहना हैअस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना आसान, लेकिन बाबासाहेब  इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।
पलाश विश्वास

गुरुवार, 12 मार्च 2015

दलित और गोमांस पर प्रतिबंध


दलित और गोमांस पर प्रतिबंध
एस.आर. दारापुरी आईपीएस (से. नि.)  

(भोपाल में गोमांस पर प्रतिबंध के खिलाफ धरना)
हाल में महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने एक कानून बनाया है जिस के अनुसार उस राज्य में कोई भी व्यक्ति गोमांस खाने के लिए किसी भी गोवंशीय पशु जैसेबैल और बछड़ा का न तो वध कर सकता है, न ही उस का मांस बेच सकता, न ही उसे अपने पास रख सकता और न ही खा सकता है. यह ज्ञातव्य है कि महाराष्ट्र में अन्य कई राज्यों की तरह पहले से ही गो हत्या पर प्रतिबंध लगा है. इस से पहले इन सभी जानवरों डाक्टर के प्रमाण पर देने पर काटा जा सकता था. परन्तु अब यह सब पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है. इसी प्रकार की मांग की हिन्दू राष्ट्र के पैरोकारों द्वारा भाजपा द्वारा शासित अन्य राज्यों तथा इस भाजपा की केन्द्रीय सरकार द्वारा केन्द्रीय कानून बनाने की जा रही है. ज्ञात हुआ है कि हरियाणा की भाजपा सरकार भी इसी प्रकार का कानून बनाने जा रही है. वास्तव में यह हिंदुत्व के सांस्कृतिक फासीवाद का ही विस्तार है जिस का मुख्य उद्देश्य भारत को जल्दी से जल्दी हिन्दू राष्ट्र बनाना है.
यद्यपि महाराष्ट्र में यह कानून गोवंश की रक्षा के नाम पर बनाया गया है परन्तु वास्तव में यहं हिन्दू राष्ट्रवादियों की गो माता को पवित्र मानने और मनवाने के लिए सत्ता का दुरूपयोग है. यह सभी जानते हैं कि गाय के इलावा अन्य जानवरों का मांस दलितों, आदिवासियो, ईसाईयों और मुसलामानों द्वारा खाया जाता रहा है और वह भी अधिकतर इन वर्गों के गरीब तबकों द्वारा. इतना ही नहीं दलित तो सदियों से मरे पशुयों का मांस खाने के लिए बाध्य थे क्योंकि उन्हें तो केवल गधे और कुत्ते पालने का ही अधिकार दिया गया था. अतः न तो वे इन जानवरों को मार कर मांस खा सकते थे और न ही इन का दूध पी सकते थे. उन के लिए स्वादिष्ट अथवा अच्छा भोजन खाने की मनाही थी क्योंकि उन्हें केवल दूसरे वर्णों की जूठन खाने का ही अधिकार था. इस लिए जीवित रहने के लिए वे मरे पशुयों जिन्हें उठाना उन का कर्तव्य था का मांस खा कर ही जीवित रहने के लिए बाध्य थे. भगवान दास जी इस में भी अछूतों की अकलमंदी समझाते थे क्योंकि उन्होंने मरे पशुयों का मांस खा कर अपने आप को जीवित तो रखा. यह बात अलग है कि बाद में डॉ. आंबेडकर ने उन्हें मरे पशुयों का मांस खाने की मनाही की और काफी दलितों ने इसे खाना छोड़ भी दिया है.
अब सवाल पैदा होता कि ब्राह्मण और अन्य सवर्ण जातियां जो आज दूसरों को गोमांस खाने से रोकने के लिए कानून बना रही हैं क्या उन्होंने कभी गोमांस नहीं खाया. इस का उत्तर हिंदुयों को ऋग्वेद, सत्पथ ब्राह्मण, आपस्तम्ब धर्म सूत्र, बुद्ध के कुतादंत सुत्त, संयुक्त निकाय तथा अन्य कई हिन्दू ग्रंथों में विस्तार से मिल जाता है. ऋग्वेद में दूध न देने वाली गाय का मांस खाने की मनाही नहीं है. वाल्मीकि रामायण में भी सीता स्वयंबर के लिए जाते समय विश्वामित्र के आश्रम में उन के पसंद के बछड़े का मांस खिलाने का उल्लेख है. वैसे भी जब राम, लक्ष्मण और सीता जंगल में रहे तो उन्होंने अपने भोजन की पूर्ती कैसे की होगी इस पर अधिक कुछ कहने की ज़रुरत नहीं है. क्या मरिचक हिरन को केवल उस की सुन्दर खाल के लिए ही मारा गया था या किसी अन्य प्रयोजन के लिए भी. इस विषय में अगर कोई अधिक विस्तार से जानने का इच्छुक है तो वह डॉ. आंबेडकर की पुस्तक “ अछूत कौन और कैसे” का “क्या हिन्दुओं ने कभी गोमांस खाया?” खंड पढ़ सकता है.( http://whowereuntouchables.blogspot.in/2007/07/blog-post_9602.html) वैसे ब्राह्मणों और सवर्णों को यह भी नहीं भूलना चाहिए आज भी अधिकतर ब्राह्मण और सवर्ण शाकाहारी नहीं बल्कि मांसाहारी हैं. मैं हिन्दुत्ववादियों का ध्यान स्वामी विवेकानंद के 2 फरवरी, 1900 को शैक्स्पेयर क्लब, पेसिडिना, कैलेफोर्निया में “बौद्धकालीन  भारत’ विषय पर दिए गए भाषण के इस अंश की ओर आकृष्ट कराना चाहूँगा जिस में उन्होंने कहा था,” आप हैरान हो जायेंगे अगर मैं आप को बताऊँ कि पुराने हिन्दू कर्मकांड के अनुसार गोमांस न खाने वाला अच्छा हिन्दू नहीं है. कुछ अवसरों पर उसे बैल की बलि अवश्य देनी होती है. “(स्वामी विव्वेकानंद सम्पूर्ण वांग्मय, जिल्द 3, अद्वैत आश्रम, कलकत्ता, 1997, पृष्ट 536).
अब अगर देखा जाये तो महाराष्ट्र सरकार का यह कानून भारत के नागरिकों के जीने के मौलिक अधिकार का खुला उलंघन है. भारत का संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को सम्मान सहित जीने का अधिकार देता है और जीवित रहने के लिए उचित भोजन ज़रूरी है. अब अगर आप के भोजन पर प्रतिबंध लगा दिया जाये तो फिर आप सम्मानजनक जीवन कैसे जी सकते है. इस लिए मेरे विचार में इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जानी चाहिए क्योंकि महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगाने से मना कर दिया है. यह भी उल्लेखनीय है कि बहुत सारे बेचारे न्यायमूर्ति भी ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त रहते हैं. अतः उनसे निरपेक्ष निर्णयों की अपेक्षा नहीं की जा सकती. फिलहाल हम लोग सुप्रीम कोर्ट पर कुछ भरोसा कर सकते हैं.  
यह भी ज्ञातव्य है कि हमारे देश में सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 42% बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और ऐसी ही दयनीय स्थिति महिलायों की भी है. दलित और आदिवासी बच्चों और महिलायों की कुपोषण की स्थिति तो और भी भयाव्य है. करायी (CRY) संस्था द्वारा वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश जिस में एक दलित महिला चार बार मुख्य मंत्री रही है  के सर्वेक्षण से तो कुछ ब्लाकों में 70% दलित बच्चे कुपोषित पाए गए थे. कुपोषण की इस भयावह स्थिति को देखते हुए ही  हमारे पूर्व प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी ने इसे “राष्ट्रीय शर्म” की संज्ञा दी थी. परन्तु हमारी वर्तमान हिन्दुत्ववादी सरकार  से ऐसी संवेदना की उम्मीद नहीं की जा सकती. यह सर्व विदित है कि दलित, आदिवासी और मुसलामानों का अधिकतर गरीब तबका पशुयों का मांस खा कर कुपोषण से कुछ हद तक बच जाता है परन्तु अब गोमांस पर उक्त प्रतिबंध द्वारा उन का प्रोटीन का यह सस्ता श्रोत भी छीन लिया गया है. अब तो उन्हें मरना ही है चाहे वे कुपोषण से मरें या बीमारी से मरें.
अब अगर देश में पशुधन की स्थिति देखी जाये तो यह बहुत शोचनीय है. हमारे देश में पशुयों की संख्या तो बहुत है परन्तु उन से मिलने वाला दूध और मांस बहुत कम है. इस का मुख्य कारण हमारे पशुधन की घटिया नस्ल, उन का कुपोषित होना और बूढ़े तथा अलाभकारी पशुयों का बने रहना है. हमारे बहुत से राज्यों में पशु चारे का बराबर अकाल रहता है जिस के सम्मुख बूढ़े और अलाभकारी पशुयों का बने रहना दुधारू पशुयों के लिए बहुत शोषणकारी है. अब अगर बूढ़े और दूध न देने वाले पशुयों को मारने और उन का मांस खाने पर यह प्रतिबंध प्रभावी हो जाता है तो यह पशु पालकों द्वारा आत्म हत्या का एक और कारण बनेगा. इस के इलावा हमारे देश से भारी  मात्रा में गोमांस विदेशों को निर्यात किया जाता है और गुजरात इस मामले में सब से अगरगणी है. अब सोचा जा सकता है कि इस कानून का मांस के निर्यात और उस से होने वाली आय पर क्या असर पड़ेगा. इस के इलावा इस काम में लगे लाखों लोगों के रोज़गार का क्या होगा? लगता है हिन्दू राष्ट्र बनाने की धुन में लगे हिन्दुत्ववादियों को भारत के गरीबों के इन सरोकारों से कोई मतलब नहीं हैं. वे शायद इस कार्य को बहुत जल्दी जल्दी पूरा करने में लगे हैं. वैसे उपलब्ध सूचना के अनुसार अमेरिका में गोमांस का धंधा अधिकतर हिन्दू ही करते हैं.
डॉ. आंबेडकर अक्सर कहा करते थे कि भारत में हमेशा से “बहुसंख्यकों का आतंक” रहा है. वे आज़ादी के बाद इस आतंक के बढ़ जाने के खतरे की आशंका भी व्यक्त करते रहते थे. उनका यह भी निश्चित मत था कि भारत के विभाजन के लिए भी “बहुसंख्यकों का आतंक” ही एक प्रमुख कारण बना था. लगता है कि केंद्र में हिंदुत्ववादियों की सरकार बन जाने से यह आतंक एक अति उग्र रूप धारण करता जा रहा है जो दलितों, आदिवासियों, मुसलामानों और ईसाईयों के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गया है. इस अंधरे में आशा की जो एक किरन दिखाई दे रही है वह है इस का जन विरोध. हाल में केरल में लोगों ने “ पशु मांस” की एक खुली दावत की है. इसी प्रकार भोपाल में भी हिन्दू साधु संतों ने इस कानून के खिलाफ धरना दिया है. अतः मेरे विचार में इस कानून के विरुद्ध पूरे देश में सभी वर्गों के लोगों, मजदूरों और किसानों को लामबंद हो कर विरोध करना चाहिए और इस को रद्द कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में भी याचिकाएं दायर करनी चाहिए. यह कानून दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों और ईसाईयों, मजदूरों और किसानों के हितों पर कुठाराघात है क्योंकि यह जीवन के मौलिक अधिकार, पेशे के मौलिक अधिकार और भोजन के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है तथा किसानों और पशुपालकों के आर्थिक हितों के भी विपरीत है.    
             

शनिवार, 7 मार्च 2015

कैथर कलां की औरतें - गोरख पाण्डेय

 

कैथर कलां की औरतें - गोरख पाण्डेय

तीज - ब्रत रखती
 धान  पिसान करती थीं
गरीब की बीवी
गाँव भर की भाभी होती थीं
कैथर कला की औरतें

गाली - मार खून पीकर सहती थीं
काला अक्षर
भैंस बराबर समझती थीं
लाल पगड़ी देखकर घर में
छिप जाती थीं
चूड़ियाँ पहनती थीं
होंठ सी कर रहती थीं
कैथर कला की औरतें .

जुल्म बढ़ रहा थागरीब - गुरबा एकजुट हो रहे थे
बगावत की लहर आ गई थी
इसी बीच एक दिन
नक्सलियों की धर- पकड़ करने आई
पुलिस से भिड़ गईं
कैथर कला की औरतें

अरे , क्या हुआ ? क्या हुआ ? 
इतनी सीधी थीं गऊ जैसी
इस कदर अबला थीं
कैसे बंदूकें छीन लीं
पुलिस को भगा दिया कैसे ?क्या से क्या हो गईं
कैथर कला की औरतें ?

 यह तो बगावत है
राम - राम , घोर कलिजुग आ गया
औरत और लड़ाई ? 
उसी देश में जहाँ भरी सभा में
द्रौपदी का चीर खींच लिया गया
सारे महारथी चुप रहे
उसी देश में
मर्द की शान के खिलाफ यह जुर्रत ?
 खैर , यह जो अभी - अभी
कैथर कला में छोटा सा महाभारत
लड़ा गया और जिसमे
गरीब मर्दों के कंधे से कन्धा
मिला कर
लड़ी थीं कैथर कला की औरतें.

इसे याद रखें
वे जो इतिहास को बदलना चाहते हैं
और वे भी
जो इसे पीछे मोड़ना चाहते हों
इसे याद रखें
क्योंकि आने वाले समय में
जब किसी पर जोर - जबरदस्ती नहीं
की जा सकेगी
और जब सब लोग आज़ाद होंगे
और खुशहाल होंगेतब सम्मानित
किया जायेगा जिन्हें
स्वतंत्रता की ओर से
उनकी पहली कतार में होंगी
कैथर कला की औरतें |

बुधवार, 14 जनवरी 2015

आइये हम फ़्रांस की जनता से कुछ सीखें!



आइये हम फ़्रांस की जनता से कुछ सीखें!
एस.आर. दारापुरी, आई.पी.एस.(से.नि.) एवं  राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
दो दिन पहले फ़्रांस में 14 लाख लोगों  ने चार्ली हेबड़ो के जनसंहार के विरोध में जिस तरह शांति पूर्ण ढंग से प्रदर्शन किया है वह हम सब के लिए एक अनुकरणीय है. इस विरोध प्रदर्शन में न तो कोई मस्जिद तोड़ी गयी और न ही किसी मुसलमान पर हमला किया गया. सभी लोगों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा और धार्मिक कट्टर पंथ के विरुद्ध एकजुट होकर लड़ने का आह्वान किया.
इस के विपरीत जब हम अपने देश में ऐसे मौकों पर हुयी प्रतिक्रिया पर नज़र डालते हैं तो हमारा सिर सारी दुनिया के सामने शर्म से झुक जाता है. ऐसे मौकों पर हमारे राजनेताओं द्वारा दी गयी प्रतिक्रिया भी उतनी ही शर्मसार करने वाली थी. 1984 में इंदिरा गाँधी की उस के ही सिक्ख सुरक्षा गार्डों द्वारा हत्या किये जाने पर पूरी सिक्ख कौम को दोषी मान कर अकेले दिल्ली में ही 2000 सिखों की हत्या कर दी गयी थी जिस में तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की मुख्य भूमिका थी जिस के लिए आज तक न तो किसी नेता को सजा मिली और न ही कांग्रेस पार्टी  ने कोई खेद ही व्यक्त किया. इस के विपरीत उस  साम्प्रदायिक हिंसा को तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गाँधी ने यह कह कर उचित ठहराया था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो ज़मींन में कम्पन ज़रूर होती है. इस के साथ ही कांग्रेस ने बड़ी बेशर्मी से इंदिरा गाँधी की लाश को हफ़्तों  दूरदर्शन पर दिखा कर जनता की सहानुभूति बटोरी थी और चुनाव में अभूतपूर्व बहुमत प्राप्त किया था. 
इसी तरह की अमानवीय प्रतिक्रिया गोधरा काण्ड के बाद  सामने आई थी. इस में दो हज़ार से ज्यादा निर्दोष औरतों, बच्चों और पुरुषों का कत्ले आम किया गया था जिस के लिए मुख्य रूप से जिम्मेवार व्यक्ति को न तो किसी तरह से दण्डित किया गया और न ही उसे उस के पद से हटाया गया. इस के विपरीत वह व्यक्ति अब देश का प्रधान मंत्री बन गया है. उस ने भी गुजरात में मुसलामानों के नरसंहार को क्रिया की प्रतिक्रिया कह कर उचित ठहराया था. इस पर अब भारत रत्न प्राप्त तत्कालीन प्रधान मंत्री ने केवल राज धर्म न निभाने की बात कह कर इतिश्री कर ली थी.
इसी तरह जब 1992 में राम मंदिर के नाम पर बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी थी जो कि स्वतंत्र भारत में सब से पहली और सब से बड़ी आतंकवादी घटना थी और हमारे देश की धर्मनिरपेक्ष छवि पर सब से बड़ा धब्बा था जिस से पूरी दुनियां में भारत की नाक कटी थी. इस की प्रतिक्रिया में बांग्लादेश और पाकिस्तान में काफी हिन्दू मंदिर गिरा दिए गए थे. इस के बाद पूरे देश में साम्प्रदायिक हिंसा भड़का कर हज़ारों निर्दोषों को मार डाला गया था. बाबरी मस्जिद के विद्ध्वंस के बाद ही हमारे देश में तथाकथित आतंकवादी घटनाओं की शुरुआत हुयी थी जो कि आज तक चल रही है.
हमारे देश में आये दिन दलितों, ईसाईयों और मुसलामानों के विरुद्ध होने वाली हिंसा हमारे देश की धर्मनिरपेक्ष छवि को हर रोज़ दुनिया की नज़रों में धूमिल करती है. सब से बड़ी चिंता और शर्म की बात यह है कि हमारे देश की सरकार दोषियों के विरुद्ध कोई कार्रवाही नहीं करती और उलटे जाति एवं सम्प्रदाय के नाम पर उन्हें संरक्षण देती है. हमारा प्रशासन और यहाँ तक कि न्यायपालिका भी साम्प्रदायिक मानसिकता से बुरी तरह से ग्रस्त दिखाई देती है. 
फ़्रांस की उदाहरण से हम यह भी सीख सकते हैं कि सरकार और जनता द्वारा वहां पर भारी संख्या में बसे मुसलामानों को पूर्ण संरक्षण दिया गया. वहां पर न तो उन के विरुद्ध किसी प्रकार की हिंसा हुयी और न ही हमारे देश की तरह कोई मस्जिद ही गिराई गयी. इस के विपरीत वहां पर बसे मुसलामानों ने उक्त प्रदर्शन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया. काश हमारे देश में भी धर्म के ठेकेदारों में इस प्रकार की संवेदना का थोड़ा बहुत संचार  हो पाता. वैसे तो हम सारी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ाने की शेखी बघारते नहीं थकते परन्तु हम अपने देश में अपने ही देशवासियों पर क्रूरतम और निकृष्ट हिंसा करते हैं. अतः यह अवसर है जब हम फ़्रांस में लोगों द्वारा व्यक्त की गयी प्रतिक्रिया से कुछ सबक सीख सकते हैं और अपने देश की धर्म निरपेक्षता की छवि पुनर स्थापित कर सकते हैं. 





रविवार, 21 दिसंबर 2014

धर्म परिवर्तन पर रोक क्यों?

धर्म परिवर्तन पर रोक क्यों?
एस.आर. दारापुरी आई.पी.एस. (से.नि.)
वर्तमान में आर.एस.एस. धर्म परिवर्तित हिन्दुओ को घर वापसी के बहाने जबरन हिन्दू बनाने पर तुली हुयी है. पर वे कभी भी ईमानदारी से इस सच्च को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं कि इन लोगों ने हिन्दू धर्म उन के जातिगत अत्याचारों और भेदभाव के कारण ही छोड़ा था और आगे भी छोड़ते रहेंगे. हमारे देश में प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है. वह कोई भी धर्म छोड़ने या धारण करने के लिए पूर्णतया स्वतंत्र है. डॉ. आंबेडकर के अनुसारे धर्म एक कपड़े की तरह है जिसे कभी भी बदला जा सकता है, फैंका जा सकता है. उनकी यह अवधारणा भी बहुत सही है कि धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए. डॉ. आंबेडकर का यह भी कहना था कि जो धर्म व्यक्ति को जन्म से नीच बना कर रखे वह धर्म नहीं बलिक गुलाम बनाए कर रखने का षड्यंत्र है.
आर.एस.एस. कानून बना कर धर्म परिवर्तन को इस लिए रोकना चाह रही है क्योकि दलित और निचली जातियों के लोग हिंदुयों के अत्याचार से दुखी होकर हिन्दू धर्म छोड़ रहे हैं जिस से हिंदुयों की आबादी लगातार कम हो रही है. विदेशों में बसे हिंदुयों की बड़ी संख्या भी हिन्दू धर्म छोड़ रही है. हिंदुयों की असली चिंता हिन्दू धर्म नहीं बल्कि उन के धर्म से तेजी से हो रहा पलायन है. वैसे भी इस नरक में कौन नीच बन कर रहना चाहेगा? हिंदुयों की असली चिंता हिन्दू धर्म नहीं बल्कि जाति व्यवस्था से दुखी हो कर इसे छोड़ने के कारण निरंतर घट रही आबादी है.
पिछले 60 वर्षों में डॉ. आंबेडकर के आवाहन पर लाखों लाखों दलितों ने हिन्दू धर्म को छोड़ कर बौद्ध धम्म में अपनी वापसी की है क्योंकि डॉ. आंबेडकर के अनुसार वर्तमान अछूत पूर्व में बौद्ध थे और हिंदुयों ने उन्हें जबरदस्ती  अछूत बनाया था और उन्हें निकृष्ट पेशे करने के लिए बाध्य किया था. अब दलित हिंदुयों द्वारा अपने ऊपर किये गए अत्याचारों से पूरी तरह अवगत हो चुके हैं और वे पुनः हिन्दू धर्म के नरक में जाने के लिए तैयार नहीं हैं. बाबा साहेब ने उन्हें बौद्ध धम्म का मुक्ति मार्ग दिखा दिया है जिस पर वे तेजी से अग्रसर हो रहे हैं.
यह देखा गया है कि जिन जिन राज्यों जैसे अरुणाचल प्रदेश, गुजरात, गोवा, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में धर्म परिवर्तन सम्बन्धी कानून बना है उस का हिन्दुत्ववादी खुल कर दुरूपयोग करते हैं और उस में उन्हें हिंदुत्व मानसिकता से ग्रस्त प्रशासन का पूरा सहयोग रहता है. इस का सब से ताजा उदाहारण गुजरात है जहाँ कुछ समय पहले मोदी राज में दलितों द्वारा धर्म परिवर्तन समारोह आयोजित करने में प्रशासन द्वारा कितनी बाधाएं पैदा की गयी थीं. अतः धर्म परिवर्तन पर रोक लगाने सम्बन्धी यदि कोई कानून बनता है तो उसका सब से बड़ा खामियाजा दलितों को भुगतना पड़ेगा क्योंकि उन के बौद्ध धम्म आन्दोलन पर भी रोक लग जायेगी. यह भी एक ऐतहासिक सत्य है कि शायद कुछ लोग ही होंगें जिन्होंने दबाव अथवा लालच में धर्म परिवर्तन किया हो. वर्ना सभी लोगों ने स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन किया है. यदि यह सत्य भी है तो हिन्दू भी इस का अपवाद नहीं हैं. कौन नहीं जानता कि हिंदुयों ने बौद्धों का कितना कत्ले आम किया है और उन्हें जबरन हिन्दू बनाया है. उन्होंने कितने बौद्ध मंदिरों को जबरन हिन्दू मंदिरों में बदला है जिस के प्रमाण आज भी मौजूद हैं. क्या बद्री नाथ मंदिर, जगन्नाथ मंदिर, तिरुपति मंदिर बुद्ध मंदिर नहीं हैं? दूसरों पर आरोप लगाने से पहले हिदुयों को अपने गिरेवान में झाँक कर देखना चाहिए. बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी.
अतः यह आवश्यक है कि आर.एस.एस. की धर्म परिवर्तन पर कानून बना कर रोक लगाने की मांग का सभी को कड़ा विरोध करना चाहिए और सड़कों पर उतरना चाहिए ताकि धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा हो सके. भारत कोई हिन्दू राष्ट्र नहीं बलिक एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्रं है. हमें यह भी याद रखना चाहिए कि यदि हिन्दू बहुसंख्यक गैर-हिंदुयों पर इसी तरह  से आतंक फैलायेंगे तो इस के गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं.

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