शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

पार्कों और स्मारकों की राजनीति - एस. आर. दारापुरी

पार्कों और स्मारकों की राजनीति
- एस. आर. दारापुरी

हाल में कुछ अंग्रेजी समाचार पत्रों में यह खबर छपी है कि उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने कहा है कि वह मायावती दुआरा बनाये गए पार्कों और समार्कों में खाली पड़ी ज़मीन में हस्पताल अथवा स्कूल बनवायेंगे. यह मुद्दा उनके घोषणा पत्र में भी शामिल है. यद्यपि उन की यह बात कुछ हद तक तो राजनीति से प्रेरित हो सकती है परन्तु फिर भी इस में जनहित की कुछ चिंता दिखाई देती है. यह एक सच्च है कि मायावती ने अपने कार्यकाल में अकेले लखनऊ शहर में लगभग ५०० एकड़ और नोएडा में १५० एकड़ भूमि पर स्मारकों और पार्कों का निर्माण किया है. इस पर उसने लगभग ३००० करोड़ से अधिक धनराशी खर्च की है. इस के अतिरिक्त मायावती ने अपने पैतृक गाँव बादलपुर में अपने मकान, जिसे महल कहना अधिक सही होगा, के इर्द गिर्द ३०० एकड़ का पार्क भी बनवाया है जिस पर भारी धनराशी खर्च की गयी है. मायावती ने इन पार्कों और स्मारकों से दलितों में गर्व की भावना पैदा करने और दलित महापुरुषों को सम्मान देने के नाम पर उनकी और कांशी राम की मूर्तियाँ तो स्थापित की हीं परन्तु उस के साथ साथ अपनी मूर्तियाँ भी लगवाई हैं. मायावती का यह कृत्य अपने आप को अमर करने की अभिलाषा की पूर्ती का प्रयास तो है ही और इस के साथ ही उस में इस डर का भी परिचायक है कि शायद उस के मरने के बाद उसके अनुयायी उस की मूर्तियाँ नहीं लगायेंगे. अपनी मूर्तियाँ लगाने के लिए मायावती ने कांशी राम की वसीहत का भी सहारा लिया जिस में लिखा है कि उसके साथ मायावती की मूर्तियाँ भी लगाई जाएँ. खैर मूर्तियाँ लगाने में मायावती का व्यवहार पुराने राजे और रानियों जैसा ही रहा है क्योकि वे बहुत भव्य हैं और इन में से कई स्मारक कई बार तुडवाये गए और बदले गए जिस में भारी धन राशी का दुरूपयोग हुआ. सबसे मज़ेदार बात तो यह रही कि मायावती ने गोमती नदी के किनारे कांशी राम के साथ अपनी मूर्ति किसी दुआरा यह कहने पर बदलवा दी कि उस में वह कांशी राम से ज्यादा छोटी दिख रही थीं.

मायावती का यह मूर्तिकर्ण दलितहित अथवा जनहित की अपेक्षा राजनीति से अधिक प्रेरित था क्योंकि मायावती दलितों का कोई भी वास्तविक सशक्तिकर्ण न करके उनका केवल भावनात्मक शोषण करके ही वोट लेती रही है. उस ने न तो कभी कोई दलित एजेंडा बनाया और न ही विकास की कोई नीति ही बनायीं. मायावती ने यह सब डॉ. आंबेडकर के नाम पर किया जो कि स्वयं मूर्तिकर्ण के विरोधी थे. यह सही है कि महापुरषों को सम्मान देने और उनकी समृति बनाये रखने के लिए कुछ स्मारकों की आवश्यकता होती है परन्तु यह सब एक सीमा के अन्दर ही होना चाहिए. उत्तर प्रदेश जो कि विकास की दृष्टि से अति पिछड़ा प्रदेश है और जहाँ पर दलित भी बहुत पिछड़े हुए हैं वहां पर मूर्तियों की कम विकास की अधिक ज़रूरत है परन्तु मायावती ने दलितों और प्रदेश की बुनियादी आवश्क्यतों की पूर्ती की बजाए अपनी सनक पूरी करने को अधिक तरजीह दी. एक अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश के दलित देश के अन्य राज्यों के दलितों की अपेक्षा बिहार, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के दलितों को छोड़ कर विकास की दृष्टि से सब से पिछड़े हुए हैं. ऐसी परिस्थिति में दलितों को मूर्तियों की कम और विकास , रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधायों की अधिक आवश्कता थी.

अब आइये अखिलेश यादव दुआरा इन पार्कों /स्मारकों में फालतू और खाली पड़ी ज़मीन पर हस्पताल और स्कूल बनाने के प्रस्ताव पर चर्चा की जाये. यद्यपि उसका यह प्रस्ताव कुछ हद तक तो राजनीति से प्रेरित होना कहा जा सकता है परन्तु इस में जनहित की बात भी दिखाई देती है. यदि नागरिकों की बुनियादी अवश्क्तायों की पूर्ती की दृष्टि से देखा जाये तो इस में कोई खास गलत बात दिखाई नहीं देती है. जाँच उपरांत यदि यह पाया जाता है कि इन स्मारकों में वास्तव में कुछ फालतू ज़मीन खाली पड़ी है तो स्मारकों के स्वरूप से कोई छेड़ छाड़ किये बिना उस का सदुपयोग सार्वजानिक हित में ज़रूरी स्कूल और हस्पताल आदि बनवाने के लिए करना गलत नहीं होगा. हमें यह ध्यान में रखना होगा के शहरों की आबादी बराबर बढ़ रही है और ज़मीन बराबर घट रही है. ऐसी दशा में हमें वर्तमान में उपलब्ध भूमि का उपयोग बहुत ही बुधिमत्ता से करना चाहिए ताकि हम अपनी बुनियादी सुविधायों की आपूर्ति कर सकें.
यह भी उल्लेखनीय है कि मायावती का मूर्तिकर्ण तो केवल एक छोटी सी उदाहरन है. इस के पूर्व कांग्रेस, सपा और भाजपा ने भी उत्तर प्रदेश में इसी प्रकार के पार्क और स्मारक बनवाये थे. मुलायम सिंह ने अपने गाँव सैफई में जनता के पैसे से बहुत कुछ बनवाया था जिस का अनुकरण मायावती ने भी किया है. भाजपा ने भी उत्तर प्रदेश में खूब मूर्तिकर्ण किया था. इस से स्पष्ट है कि पार्क और स्मारक बनवाना लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों की प्रतीकों की राजनीति का हिस्सा हैं. इस में केवल वामपंथी ही अपवाद स्वरूप हैं.

अगार देखा जाये तो इस प्रकार का मूर्तिकर्ण तो बहुत दिनों से चला आ रहा है. आप दिल्ली सहित भारत के किसी भी शहर को देख लीजिये तो पाएंगे कि वहां पर समय समय पर रहे शासकों ने अपनी अपनी पार्टी के महापुरुषों के नाम पर मूर्तियाँ लगवाई हैं और पार्क बनवाये हैं जिन के साथ भारी मात्रा में ज़मीन जोड़ी गयी है. ऐसी स्थिति में जब मायावती के पार्कों और स्मारकों की ज़मीन का मुद्दा उठा है तो इस मामले पर एक राष्ट्रीय बहस चलायी जानी चाहिए. इस में स्मारकों के औचित्य और सीमा पर धर्मनिरपेक्ष और निष्पक्ष भाव से विचार किया जाना चाहिए.

इस बहस के अंतर्गत सब से पहले अब तक बने सभी पार्कों और खास करके स्मारकों का सर्वेक्षण किया जाये कि क्या इन में कोई फालतू/ खाली ज़मीन पड़ी है जिस का इन स्मारकों के स्वरुप को बिगाड़े बिना जनहित में सदुपयोग किया जा सकता है. यदि हाँ तो उसे निकाल कर इस पर जनहित में स्कूल, हॉस्पिटल अथवा अन्य सुविधाएँ बनायीं जानी चाहियें. इस के साथ ही सार्वजनिक भूमि पर धार्मिक स्थलों के नाम पर किये गए कब्जों को भी हटाया जाना चाहिए. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा देश एक धर्म निर्पेक्ष राज्य है. यदि सरकार धार्मिक स्थलों के नाम पर सार्वजनिक भूमि पर एक वर्ग को कब्जा करने देती है तो यह राज्य के धर्मनिरपेक्ष कर्तव्य की अवहेलना है जिस के गंभीर दुष्परिणाम हो रहे हैं.

इस के साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर बहस चला कर स्मारकों और पार्कों के बनाने के सम्बन्ध में दिशा निर्देश तय किये जाने चाहिए ताकि इन का निर्माण नियंत्रित ढंग से सुनिश्चित हो सके. वरना वर्तमान की तरह कोई भी शासक पार्टी अपनी अपनी इच्छा और सनक के अनुसार जनता के पैसे से जनता की भूमि पर स्मारकों तथा पार्कों का निर्माण करवाती रहेगी और लोग जन सुविधायों से वंचित होते रहेंगे. यह भी ध्यान में रखा जाये कि भूमि एक सीमित संसाधन है और हमारी आबादी निरंतर बढ़ रही है. इस लिए भूमि और जनता के धन का उपयोग बहुत बुद्धिमत्ता से किया जाना चाहिए. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में लोक तंत्र है और मुख्य मंत्री और प्रधान मंत्री जन सेवक हैं न कि पुराने राजे महाराजे और महारानियाँ जो कि जनता के हित की चिंता किये बिना कोई भी स्मारक, मकबरा और पार्क बनाने के लिए स्वतंत्र थे. लोक तंत्र में जनहित सर्वोपरी होना चाहिए न कि व्यक्तिगत आस्था और इच्छा. अतः मेरे विचार में वर्तमान शासकों के शाही तौर तरीकों और जनहित की उपेक्षा के परिपेक्ष्य में यह आवश्यक है कि इस दिशा में राष्ट्रीय स्तर पर बहस चला कर आवश्यक दिशा निर्देश तथा राष्ट्रीय नीति का निर्धारण किया जाये.

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