उत्तर प्रदेश में सपा सरकार और दलित अपेक्षाएं
एस. आर. दारापुरी
उत्तर प्रदेश में हाल में असेम्बली चुनाव के परिणाम स्वरुप मायावती सरकार का पतन हुआ है और उसके स्थान पर समाजवादी पार्टी (सपा) की सरकार बनी है. सपा सरकार बनने की सफलता में दलित वोटों का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है. इस बार सपा को कुल ८५ आरक्षित सीटों में से ५५ सीटें प्राप्त हुयी हैं जबकि पिछली बार २००७ में उसे केवल १३ सीटें ही मिली थीं. इस से स्पष्ट है कि इस बार उसे भारी गिनती में दलित वोट मिले हैं जब कि पिछली बार यह वोट बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को मिले थे. सामान्य सीटों पर भी सपा को दलित वोटों के कारण ही इतनी अधिक सीटें मिल सकीं हैं. इस से स्पष्ट है कि इस बार दलितों ने सपा को भारी गिनती में वोट दे कर २२४ सीटें दिलाई हैं.
इस से पहले यह सोचना संभव ही नहीं था की सपा को इतने दलित वोट मिल सकते हैं क्योंकि मायावती की हमेशा यह कोशिश रही है कि मुलायम सिंह को दलितों के दुश्मन के रूप में प्रचारित किया जाये ताकि दलित उसे कभी भी वोट देने की बात न सोचें. इस में एक तो मायावती की मुलायम सिंह से व्यक्तिगत दुश्मनी की रही है थी और दूसरे दलितों की उस से दुरी बनाये रखने की चाल भी थी ताकि दलित उस के पास न जाएँ. इसी कारण से मायावती ने इस बार भी चुनाव हारने के बाद मुसलमानों , पिछड़ी जातियों और सामान्य जातियों का वोट खिसकने की बात तो कही परन्तु दलित वोट के उसके पक्ष में ही बरक़रार रहने का दावा किया जो कि चुनाव के नतीजों से झूठा सिद्ध होता है. पिछली बार २००७ में जहाँ मायावती को आरक्षित सीटों में ६२ सीटें मिली थीं वहीँ इस बार उसे केवल १५ सीटें ही मिली हैं वह भी अधिकतर पच्छिमी उ.प्र. के जाटव बाहुल्य क्षेत्र से ही. इस बार मायावती का चमार, पासी, खटीक, बाल्मीकि और धोबी वोट भारी मात्रा में खिसक गया है.
दरअसल अब तक मायावती दलितों के बारे में कांग्रेस की मुसलमानों के प्रति बहुत दिनों तक अपनाई गयी नीति पर ही चलती रही है. कांग्रेस मुसलमानों को हिन्दुत्ववादियों का भय दिखा कर अपने कब्जे में रखती रही है ताकि वे किसी दूसरी पार्टी की तरफ न जा सकें. मायावती भी इसी प्रकार दलितों का भय दोहन करती रही है ताकि वे किसी दूसरी पार्टी की तरफ न जाएँ. इस के साथ वे उन्हें यह भी समझाती रही है कि अगर वे किसी दूसरी पार्टी को वोट दे भी देंगें तो वह गिना नहीं जायेगा. अतः उन्हें हर हालत में बसपा को ही वोट देना चाहिए और इसी धारणा के अंतर्गत दलित पिछले कई सालों से मायावती को ही वोट देते रहे हैं. मायावती दलितों वोटों पर अपने कब्जे के प्रति इतनी आश्वस्त थी कि पिछले दिल्ली के चुनाव में मायावती ने यहाँ तक कह दिया था कि " जो दलित मुझे वोट नहीं देगा मैं समझूंगी कि उसने अपनी मां बहिन की इज्ज़त बेच दी है." यह मायावती का दलित वोटों पर एकाधिकार होने के अहंकार का ही नतीजा था कि वह दलितों को इस प्रकार की शर्मनाक चुनौती दे सकी और उस पर कोई विशेष प्रतिक्रिया भी नहीं आई. मायावती इसी एकाधिकार के कारण अपने दलित वोट बैंक के हस्तान्त्र्नीय होने और किसी को भी टिकेट दे कर जिताने का दावा करती रही है. इसी लिए उस पर पैसा लेकर टिकेट बेचने और दलित वोटों का सौदा करने के आरोप भी लगते रहे हैं. पर इस बार दलितों ने मायावती के आदेशों को न मान कर सपा को भारी मात्रा में वोट दिया और मायावती को बुरी तरह से नकार दिया है.
दलितों ने मायावती को नकार क़र मुलायम सिंह को इस उम्मीद के साथ वोट दिया है कि शायद मुलायम सिंह उन्हें वह सब दें जो मायावती ने उन्हें नहीं दिया. ऐसी परिस्थितिं में मुलायम सिंह से दलितों की बड़ी अपेक्षाएं होना स्वभाविक है. सबसे पहले तो दलितों की सपा से यह अपेक्षा है कि मुलायम सिंह उनके योगदान को पूरी तरह से स्वीकार करें और मायावती दुआरा उनके बीच पैदा की गयी दूरी को मिटायें.
दूसरे दलित यह भी अपेक्षा करते हैं की सपा सरकार उनके प्रति मायावती के कारण किसी भी प्रकार की राजनीतिक दुर्भावना नहीं रखेगी और उनपर कोई प्रतिघात नहीं होगा. चुनाव के तुरंत बाद कुछ जगहों पर दलितों पर जो हमले हुए हैं उनसे दलितों का भयभीत होना स्वाभाविक है. अतः सपा सरकार से यह अपेक्षा है कि वह इन छुटपुट घटनाओं पर सख्ती से क़ानूनी कार्रवाही करे और भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृति रोके. सरकार की तरफ से यह स्पष्ट सन्देश जाना चाहिए कि कानून तोड़ने वालों से सख्ती से निपटा जायेगा. इस से दलितों में इस सरकार के प्रति विश्वास पैदा होगा और वे मायावती दुआरा पैदा किया गए भय से मुक्त हो सकेंगे. अतः दलितों का विश्वास जीतना सपा सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए. पूर्व में यह देखा गया है कि मायावती के दुष्प्रचार के कारण सपा चमारों और जाटवों के प्रति अपरोक्ष रूप से एक वैर भाव रखती रही है और सत्ता में आने पर उन्हें हाशिये पर डालने की कोशिश करती रही है. परन्तु इस बार सपा को यह समझ लेना चाहिए कि उसकी सफलता में चमार वोट की एक बहुत बड़ी भूमिका रही है. अतः इस बार सपा को दलितों में सबसे बड़ी चमार/ जाटव उपजाति के प्रति कोई वैर भाव प्रदर्शित करने की बजाए उन्हें उचित सम्मान और उचित भागीदारी देनी चाहिए. अन्यथा यह उपजातियां प्रतिक्रिया में पुनः मायावती की तरफ जा सकती हैं जिसके लिए मायावती हमेशा लालायित रहती है.
तीसरे उत्तर पदेश दलित उत्पीडन में पूरे देश में प्रथम स्थान रखता है. यहाँ पर सामन्ती व्यवस्था आज भी अपने विकराल रूप में व्याप्त है. देहाती क्षेत्रों में आज भी छुआ- छूत भयानक रूप धारण किये हुए है. एक ओर यहाँ दलितों में आत्म सम्मान की भावना जागृत हुई है और वे अपने मानवीय अधिकारों के प्रति सचेत हुए हैं और उनका प्रयोग करने की हिम्मत दिखा रहे हैं. वहीँ दूसरी ओर सामन्ती ताकतें उन्हें दबा कर पुराने स्थान पर ही रखना चाहती हैं. ऐसी परिस्थिति में दलित उत्पीडन की घटनाएँ होना स्वाभाविक है. दलित उत्पीडन के मामलों में पुलिस की भूमिका अति महत्वपूर्ण होती है. एक ओर जहाँ दलित उत्पीडन के मामलों में प्रथम सूचना तुरंत दर्ज होनी चाहिए वहीँ दूसरी ओर उसकी विवेचना भी तत्परता से की जानी चाहिए. ऐसा देखा गया है कि दलित उत्पीडन के मामलों में पुलिस सामान्यतया टालमटोल करती है और प्रथम सूचना आसानी से दर्ज नहीं होती. बलात्कार के मामलों में तो प्रथम सूचना दर्ज करने में विलम्ब घातक होता है क्योंकि इस में तुरंत डॉक्टरी परीक्षण ज़रूरी होता है. इस मामले में बलात्कार के २४ घंटे के अन्दर ही डॉक्टरी परीक्षण सबूत जुटाने के लिए ज़रूरी होता है. मायावती की सरकार ने तो दलित उत्पीडन सम्बन्धी अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम को इस का दुरूपयोग होने का बहाना लेकर निष्प्रभावी कर दिया था और इसे बलात्कार और हत्या के अपराध को छोड़ कर शेष मामलों में लागू न करने के आदेश पारित कर दिए थे. इस में यह भी आदेशित किया गया था कि बलत्कार के मामले में भी डॉक्टरी परीक्षण के बाद ही यह एक्ट लगाया जाये. दलित उत्पीडन के शेष सभी प्रकार के मामलों को सामान्य कानून के अंतर्गत दर्ज करने और उन्हें दर्ज करने से पहले जाँच करने के आदेश भी पारित किये गए थे. इस के पीछे मायावती का मंशा एक तो दलित उत्पीडन के आंकड़ों को कम कर के रखना था और दूसरी ओर सर्वजन को खुश रखने की बात भी थी. इस से दलितों का दोहरा नुकसान हुआ. एक ओर जहाँ उनके मुकदमे नहीं लिखे गए और दोषी दण्डित होने से बचते रहे वहीँ दूसरी ओर वे दलित उत्पीडन के मामले में मिलने वाले मुआवज़े से भी वंचित रह गए. इस से दलित उत्पीडन बराबर बढता रहा जबकि सरकारी आंकड़े उन में कमी दर्शाते रहे. यह भी उल्लेखनीय है कि मुलायम सिंह इस से पहले भी दलित एक्ट के दुरूपयोग की बात करते रहे हैं. परन्तु इस बार उन्हें उस मानसिकता से उबरना चाहिए और दलित उत्पीडन के मामलों में कोई भी ढिलाई नहीं दिखानी चाहिए. हाँ जहाँ पर भी दलित एक्ट का दुरूपयोग पाया जाये वहां पर कानून के अंतर्गत दुरूपयोग करने वालों के विरुद्ध मामले दर्ज करके सख्त कार्रवाही करनी चाहिए. परन्तु किसी भी हालत में दलित एक्ट को लागू करने कें कोई भी ढिलाई नहीं बरती जानी चाहिए.
दलितों की सपा सरकार से पांचवी अपेक्षा यह है कि गरीबों के कल्याण सम्बन्धी योजनाओं जैसे मनरेगा, राशन वितरण, इंदिरा आवास योजना, विभिन्न पेंशन सम्बन्धी योजनाओं तथा अन्य कल्याणकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोका जाये ताकि दलितों तथा अन्य गरीब लोगों को उनका पूरा पूरा लाभ मिल सके. मायावती सरकार में तो व्यापक भ्रष्टाचार के कारण सभी लोग इन योजनाओं के लाभ से वंचित रह गए थे जिसकी नाराज़गी मायावती की हार का एक बड़ा कारण बनी.
दलितों की सपा सरकार से छठी अपेक्षा यह है कि यह सरकार कृषि क्षेत्र को बढावा दे क्योंकि ७०% दलित कृषक अथवा कृषि मजदूर के रूप में कृषि से जुड़े हुए हैं. अतः अगर कृषि को बढावा मिलता है तो इस से एक तो किसान को कृषि से लाभ होगा और दूसरे उस से जुड़े दलितों को भी लाभ होगा. वर्तमान में कृषि एक अलाभकारी पेशा बन चुकी है जिस कारण किसान खेती छोड़ने और अपनी ज़मीन बेचने के लिए मजबूर हो रहे हैं. यह बहुत चिंता की बात है कि पिछले दशक (१९९१-२००१) के दौरान उत्तर पदेश के १३% दलित अपनी ज़मीन बेच कर भूमिहीन मजदूरों की श्रेणी में आ चुके हैं. अतः उत्तर प्रदेश में खेती को बढावा दिया जाना अति आवश्यक है.
मायावती सरकार के दौरान एक मामला सरकारी स्कूलों में मध्यान्ह भोजन में छुआछूत का आया था जिसमे सरकार ने दलित रसोइयों की नियुक्ति सम्बन्धी शासनादेश को लागू कराने की बजाए उसे निरस्त ही कर दिया था. यह मायावती सरकार का दलितों के साथ बहुत बड़ा धोखा था जिससे सरकारी स्कूलों में छुआछुत को बढावा मिला. अब अगर सपा सरकार उक्त शासनादेश को पुनः लागू करने की हिम्मत दिखाती है तो यह उत्तर प्रदेश में छुआछुत को मिटाने की दिशा में एक बहुत प्रभावी कदम होगा.
उपरोक्त संक्षिप्त विवेचन से स्पष्ट है कि इस बार सपा सरकार को दलितों ने भारी मात्रा में वोट दे कर सफल बनाया है जिसे सपा को साफ़ मन से स्वीकार करना चाहिए. यह सही है कि मायावती की यह पूरी कोशिश रही है कि दलित सपा से पूरी तरह से अलगाव में रहें और उसे ही वोट देते रहें. परन्तु इस बार दलितों ने मायावती की इस कोशिश को नाकाम कर दिया है और सपा को इस अपेक्षा के साथ वोट दिया है कि सपा उन्हें वह सब कुछ दे जो मायावती ने नहीं दिया है. सपा के लिए दलितों का विश्वास जीतने का यह सुनहरी मौका है. यदि सपा ने इस मौके का फायदा नहीं उठाया तो यह उस के लिए एक खोया हुआ अवसर होगा और दलित फिर मायावती की तरफ जाने की बात सोचने लगेगा.
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