बुधवार, 30 नवंबर 2011

मायावती का सत्ता खेल और दलित मुद्दे
राम पुनियानी
अनुवादक : एस. आर. दारापुरी
उत्तर प्रदेश में निकट भविष्य में होने वाले चुनाव के परिपेक्ष्य में हाल में मायावती ने घोषणा की है कि उसके मंत्रिमंडल ने उत्तर प्रदेश को चार छोटे राज्यों में बाँटने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है. उसने यह भी घोषणा की कि केवल दलित और पिछड़े वर्ग का मुख्या मंत्री ही दलितों और पिछड़ों की समस्याओं को हल कर सकता है. मुसलमानों को भी आरक्षण देने की चर्चा है. इस सभी ने राजनितिक हलकों में काफी उथल पुथल मचा दी है. पिछले दो दशकों में जिन नेताओं ने बहुत तेज़ी से तरक्की की है कांशी राम की सहयोगी के रूप में मायावती उनमे सब से अगर्गनी है. जब कि उसे कांशी राम का चलाया आन्दोलन विरासत में मिला, उसने भी राजनीतिक चुनौती के माहौल में सत्ता की सीट पर कब्ज़ा करने का धैर्य और हिम्मत दिखाई. वर्तमान में उसकी प्रधान मंत्री बनने की अभिलाषा उतनी मुखिर नहीं है जबकि पूर्व असेम्बली चुनाव को बहुमत से जितने के बाद वह " दलित की बेटी प्रधान मंत्री" का राग अलाप रही थी.
वह कई बार गलत कारणों से चर्चा में रही है. ताज कोरिडोर, उसकी आंबेडकर पार्क और पूर्व दलित पर्तीकों जैसे आंबेडकर और कांशी राम की कई मूर्तियों पर बहुत अधिक खर्च करने तथा अपनी मूर्तियाँ लगवाने के कारण वह मीडिया की आलोचना में रहीं. उसका अपना तर्क है कि वह यह सब दलितों के लिए कर रही है. दलितों को इस समय किस चीज़ की औ़र किस अनुपात में ज़रूरत है यह एक गंभीर चिंतन का विषय है. इधर कुछ समय से मायावती जाति के स्थान प़र आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत कर रही है और चुनाव के गणित के हिसाब से दलित ब्राह्मन भाईचारा के माध्यम से ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश भी कर रही है.
उसका सब से बड़ा सलाहकार सतीश चंद मिश्र है जो अपने कई रिश्तेदारों को बढ़िया जगह (मंत्री पद ) दिलाने और अपनी मां के नाम प़र एक विश्वविध्यालय बनवाने में सफल रहा है. मायावती अपने बहुजन के पूर्व नारे से सर्वजन के नारे की ओर और ब्राह्मण और उच्च जातियों को दूर भगाने की बजाय ब्राह्मणों को पटाने की ओर पलट गयी है. यद्यपि उत्तर प्रदेश में दलितों पर अत्याचारों के आंकड़ों में कमी आयी है परन्तु उस की बहुमत की सरकार होने के बावजूद भी दलितों को न्याय और आर्थिक सशक्तिकर्ण आज भी बहिस के मुद्दे हैं. दलितों का समता और सम्मान का एक लम्बा संघर्ष रहा है. आंबेडकर जो कि एक गंभीर विद्वान् भी थे ने दलितों के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में योगदान दिया.वे दलितों के अधिकारों के लिए लड़े जो कि उस समय तक शिक्षा से वंचित, भूमिहीन गुलाम और मंदिर के पुजारियों के चंगुल में फंसे और समाज के हाशिये पर रह रहे थे. उनकी इंडीपेंडेंट लेबर पार्टी, श्दुल्ड कास्ट्स फेडरशन तथा बाद में रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना दलितों को संघटित करने की दिशा में मील के पत्थर थे. उन के मूल्यों ने उनके भारतीय संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष बनने के माध्यम से ठोस रूप धारण किया. उन्होंने कई जटिल प्रशनों खास करके जाति के सामाजिक परिवर्तन के सभी प्रयासों को बड़ी दक्षता के साथ हाल किया. उन का मुख्य जोर दलित अधिकारों के लिए " शिक्षित हो, संघर्ष करो और संघठित हो" पर था.
बाद के समय में कुछ आन्दोलन और अधिक राजनीतिक सरगर्मी रही. इन में से दादा साहेब गायकवाड का भूमि सुधार आन्दोलन और दलित युवकों दुआरा अमेरिका के ब्लैक पैंथर्स की तर्ज पर दलित पैंथर्स का बनाना था. इन में से अधिकतर आन्दोलन टूट गए और दलित राजनीति अन्य सत्ताधारी पार्टियों दुआरा एक या दूसरे दलित नेता को पटाने के कारण कमज़ोर हो गयी. उन के गठजोड़ का एक दूसरा पहलू राजनीतिक अस्पष्टता था. उनमे से कुछ कांग्रेस की तरफ झुके जबकि कुछ उन हिन्दुत्ववादी पार्टियों की तरफ गए जो कि हिन्दू राष्ट्र की खुली समर्थक थीं और मनुसमृति और हिन्दू कौम की पक्षधर थीं. मायावती ने एक समय पर उत्तर प्रदेश में न केवल भाजपा से गठजोड़ ही किया बलिक गोधरा नरसंहार के बाद नरेंदर मोदी के पक्ष में चुनावी प्रचार करने भी गयीं.
जिस समय दलित पैंथर्स सड़कों पर आन्दोलन कर रहे थे उसी समय कांशी राम ने अपनी राजनीतिक यात्रा एक अलग तरीके से शुरू की. उस के तौर तरीके ऐसे थे कि दलित राजनीति का विघटन न हो सके. असहमति रखने वालों को बाहर कर दिया गया और मुख्य नेता कांशी राम और बाद में मायावती का ही सिक्का चला. कांशी राम ने पहले बामसेफ बनाई जो कि पड़े लिखे दलितों का संघठन था और जो समाज को वापस देने में विश्वास रखते थे. उन का मत था कि वे दलितों को मिले आरक्षण दुआरा ही आगे बढ़ सके हैं. बाद में कांशी राम ने बहुजन समाज पार्टी बनायीं और कांशी राम के बीमार हो जाने पर उसकी सबसे नजदीक सहयोगी मायावती उसकी मुखिया बन गयीं. कांशी राम और बाद में मायावती का दूसरा जोर इस बात पर था कि किसी भी तरह से सत्ता में आया जाये और अपने अजेंडा लागु करने की कोशिश की जाये.
बसपा के राजनीतिक सफ़र में मायावती चुनाव की सीडियां चढ़ती गयीं. उसने आर एस एस की उपज भाजपा से गठजोड़ किया. यहाँ पर दो विरोधी शक्तियां एक दूसरे के सामने खड़ी थीं: मायावती दलितों के अधिकारों के लिए और भाजपा ब्राह्मणवाद पर आधारित हिन्दू राष्ट्र के दूरगामी लक्ष्य पर. मायावती का यह गठजोड़ डॉ. आंबेडकर के मनुसमृति जलाने को पलट देने और मनु के खुले अनुयायिओं के साथ गठजोड़ करने का था. बसपा की शुरू की मीटिंगों में "तिलक, तराजू और तलवार इन को मारो जूते चार" का नारा लगता था जो कि अब " ब्राह्मन शंख बजाएगा हाथी बढता जायेगा " में बदल गया है.
अब बसपा का चुनाव चिन्ह हाथी " हाथी नहीं गणेश है ब्रह्मा , विष्णु, महेश है" में बदल गया है. राजनीतिक महत्व आकांक्षा के अजीब तर्क हैं. मायावती हाथियों और अपनी मूर्तियों पर करोड़ों खर्च कर रही है. इस से पहचान की राजनीति को फूहड़पन की सीमा तक ले जाने की बू आती है. यह मानना पड़ेगा कि दलितों को सामाजिक क्षेत्र में स्थान की ज़रूरत है और यह मूर्तियाँ शायद उन्हें सम्मान और धरोहर की भावना पेश करती हैं. प्रशन यह है कि जनता का कितना पैसा मूर्तियों पर और कितना पैसा दलितों के सामजिक कल्याण सम्बन्धी योजनाओं पर खर्च किया जाना चाहिए. इस समय दलित राजनीति एक नए चौराहे पर आ गयी है. दलितों के मुख्य मुद्दे ठोस तरीके से हाल होने से बहुत दूर हैं. यदि हल करना है तो गरीबी, स्वास्थ्य और रोज़गार की समस्याओं के लिए गंभीर संघर्ष करने की ज़रूरत है. क्या इस तरीके से सत्ता में आने से दलितों की समस्याएँ हल हो सकेंगी? डॉ. आंबेडकर के " शिक्षित हो, संघर्ष करो और संघठित हो" नारे का क्या होगा. दलित आन्दोलन को अलग अलग स्तरों पर चला रहे दलितों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. प्रशन यह है कि क्या सिर्फ सत्ता में आ जाना ही अपने आप में काफी है?

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