शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

मोदी सरकार का ‘जनजातीय गौरव दिवस’ मनाने का सच

मोदी सरकार का ‘जनजातीय गौरव दिवस’ मनाने का सच

-    एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट

आज मोदी सरकार ‘विरसा मुंडा जयंती’ के बहाने पूरे देश में ‘जनजातीय गौरव दिवस’ मना रही है।  एक समाचार पत्र में केन्द्रीय जनजातीय कार्य मंत्री अर्जुन मुंडा के छपे लेख के अनुसार यह प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का आदिवासी समाज और उसकी संस्कृति के प्रति सम्मान और अटूट प्रेम ही है कि उन्होंने भगवान विरसा मुंडा की जयंती को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के नाम से मनाने की घोषणा करके आदिवासी समाज का पूरे देश में मान बढ़ाया है। आज यह तीसरा वर्ष है जब हमारा देश पूरे आदर, सम्मान व उत्साह के साथ ‘जनजातीय गौरव दिवस’ मना रहा है। लेख में आगे लिखा गया है कि ‘जनजातीय गौरव दिवस’ हाशिये पर मौजूद इन समूहों के कल्याण और सशक्तिकरण के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता का प्रमाण है। विभिन्न नीतियों, कार्यक्रमों एवं कानूनों के माध्यम से केन्द्रीय सरकार का लक्ष्य आदिवासी समाज का उत्थान करना और ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना है। लेख में वन अधिकार अधिनियम, पेसा और अन्य कानूनों द्वारा आदिवासी समुदाय के अधिकारों को और मजबूत करने की बात भी कही गई है।

आइए देखें कि मोदी सरकार के आदिवासी लोगों के संबंध में उपरोक्त किए गए दावों का सच क्या है? खास करके जब मोदी सरकार ने आदिवासियों को प्रभावित करने के लिए एक आदिवासी महिला श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को भारत का राष्ट्रपति भी बनाया है। इसे निम्नलिखित संक्षिप्त विवेचन से देखा जा सकता है:-

1.   आदिवासियों में भूमिहीनता, नौकरी एवं गरीबी :

2011 की जनगणना के अनुसार देश में 35.65% आदिवासी भूमिहीन हैं तथा इनमें से केवल 8% लोग ही सरकारी तथा निजी क्षेत्र में नौकरी में हैं। आदिवासियों में 44.7% परिवार गरीबी की रेखा के नीचे हैं जिनकी मासिक आय मात्र 816 रु है। आदिवासी परिवारों का 79% हिस्सा अति वंचित श्रेणी में आता है। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि देश में आदिवासी समाज कितना भूमिहीन, बेरोजगार और गरीबी का शिकार है। यह भी उल्लेखनीय है कि केंद्र में 2014 से मोदी सरकार के आने के बाद भी आदिवासियों की हालत में कोई सुधार नहीं आया है क्योंकि इस सरकार द्वारा आदिवासियों के कल्याण तथा सशक्तिकरण हेतु कोई भी ठोस प्रयास नहीं किए गए हैं। बल्कि इसके विपरीत उनका भूमि से वंचितीकरण ही किया गया है।  

2.   आदिवासियों को भूमि का अधिकार देने हेतु बने वनाधिकार कानून को विफल करना:

 2006 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने आदिवासियों को भूमि का अधिकार देने हेतु वनाधिकार कानून बनाया था जो 2008 में लागू हुआ था। इस कानून का मुख्य ध्येय आदिवासियों तथा वनवासियों को अपने कब्जे की जमीन के स्वामित्व का अधिकार देना था ताकि वे एक जगह पर स्थायी तौर पर रह सकें तथा इस कानून के अंतर्गत मिली जमीन पर खेती करके अपना जीवन यापन कर सकें। दुर्भाग्यवश सरकारी मशीनरी की आदिवासी एवं दलित विरोधी मानसिकता के कारण इस कानून को ईमानदारी से लागू नहीं किया गया जिस कारण आदिवासियों/वनवासियों को जमीन का मालिकाना अधिकार नहीं मिल सका। राज्य सरकारों ने इस में वांछित स्तर की इच्छा शक्ति एवं दिलचस्पी नहीं दिखाई। परिणामस्वरूप पूरे देश में केवल त्रिपुरा, केरल तथा ओडिसा ही तीन राज्य थे जहां आदिवासियों को इस कानून के अंतर्गत भूमि आवंटन किया गया। इसका श्रेय त्रिपुरा तथा केरल की कम्युनिस्ट सरकार तथा ओडिसा में आदिवासी संगठनों तथा पटनायक सरकार की सक्रियता को जाता है।

2014 में केंद्र में बनी मोदी सरकार ने वनाधिकार कानून को कड़ाई से लागू करने की बजाए उसे विफल करने का ही काम किया है क्योंकि यह तो आदिवासी क्षेत्र की जमीन को खनन  हेतु कार्पोरेट्स को देने के लिए कटिबद्ध है। यही कारण है कि  2019 में जब वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट संस्था द्वारा सुप्रीम कोर्ट में जंगल की जमीन पर अवैध कब्जे हटाने तथा उसे खाली कराकर वन विभाग को देने की जनहित याचिका की सुनवाई शुरू हुई तो मोदी सरकार की तरफ से आदिवासियों का पक्ष रखने हेतु कोई भी सरकार वकील पेश नहीं हुआ। इस याचिका में यह भी कहा गया था कि जंगल की जमीन पर अवैध कब्जों के इलावा वनाधिकार कानून के अन्तर्गत रद्द हो चुके दावों की जमीन को भी खाली कराया जाना चाहिए क्योंकि कानून की नजर में वह भी अवैध कब्जे ही हैं। इस का परिणाम यह हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने एक तरफा  आदेश पारित कर दिया जिसमें सभी राज्यों को आदेशित किया गया कि वे 24 जुलाई, 2019 तक वनाधिकार कानून के अंतर्गत रद्द हो चुके सभी दावों वाली जमीन को खाली कराकर वन विभाग को सौंपने की अनुपालन आख्या प्रेषित करें। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से पूरे देश में प्रभावित होने वाले आदिवासी परिवारों की संख्या लगभग 20 लाख है जिनमें उत्तर प्रदेश के भी 74,700 परिवार हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के विरुद्ध हमारी पार्टी आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट ने कुछ अन्य संगठनों के साथ मिल कर सुप्रीम कोर्ट के उक्त आदेश के विरुद्ध अपील दायर की जिसमें हम लोगों ने सुप्रीम कोर्ट से वनाधिकार के रद्द हुए दावों वाली जमीन से बेदखली के आदेश पर रोक लगाने तथा सभी राज्यों को सभी दावों का पुनर्परीक्षण करने का अनुरोध किया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार कर लिया। वर्तमान में उसी आदेश के कारण  आदिवासियों तथा वनवासियों की बेदखली रुकी हुई है। यह अत्यंत खेदजनक है भाजपा शासित राज्यों में इन  दावों के पुनर्परीक्षण का कार्य अत्यंत धीमी गति से चल रहा है जो मोदी सरकार के आदिवासी प्रेम के दावों की पोल खोलता है।

3.    वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम् -2023 द्वारा आदिवासियों के वनाधिकारों का हनन:

 इस संशोधन द्वारा कई प्रकार की भूमि को वन संरक्षण कानून 1980 के दायरे से बाहर कर दिया गया है। इससे वन भूमि में चिड़िया घर, मनोरंजन स्थल  तथा सफारी बनाना संभव हो जाएगा। इसी प्रकार चीन तथा पाकिस्तान की सरहद के पास 100 किलोमीटर तक रक्षा कार्यों के लिए भूमि का अधिग्रहण किया जा सकेगा। इसी प्रकार वन भूमि को गैर वनभूमि प्रयोजन में बदलने के लिए ग्राम सभा की पूर्व अनुमति लेने की शर्त को हटा दिया गया है। इससे वन भूमि के क्षेत्र फल में भारी कमी आएगी जो कि आदिवासियों के हित में नहीं है। नए संशोधन द्वारा दोबारा वन उगाने का कार्य निजी व्यक्तियों तथा संगठनों जिन में करपोरेटस भी शामिल हैं, को भी दिया जा सकता है। इससे आदिवासियों तथा वन वासियों को वन पर मिलने वाले सामुदायिक अधिकारों का हनन होगा। मोदी सरकार द्वारा लाया गया यह संशोधन आदिवासियों/ वन वासियों के हितों पर कुठाराघात है।

4.   आदिवासी अस्तित्व संकट में:

आरएसएस तथा भाजपा आदिवासियों को आदिवासी न कह कर वनवासी कहती है और वनवासी नाम से अपना संगठन भी चलाती है। इसके पीछे आरएसएस की गहरी चाल है। यह सभी जानते हैं कि हमारे देश में भिन्न-भिन्न समुदाय रहते हैं जिनकी अपने-अपने धर्म तथा अलग-अलग पहचान हैं। अदिवासी जिन्हें संविधान में अनुसूचित जनजाति कहा जाता है, भी एक अलग समुदाय है, जिसका अपना धर्म, अपने देवी देवता तथा एक विशिष्ट संस्कृति है। इनके अलग भौगोलिक क्षेत्र हैं और इनकी अलग पहचान है।

हमारे संविधान में भी इन भौगोलिक क्षेत्रों को जनजाति क्षेत्र कहा गया है और उनके के लिए अलग प्रशासनिक व्यवस्था का भी प्रावधान है। इस व्यवस्था के अंतर्गत इन क्षेत्रों की प्रशासनिक व्यवस्था राज्य के मुख्यमंत्री के अधीन न हो कर सीधे राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधीन होती है जिसकी सहायता के लिए एक ट्राइबल एरिया काउंसिल होती है जिसकी अलग संरचना होती है। इन के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए संविधान की अनुसूची 5 6 भी है।

इन क्षेत्रों में ग्राम स्तर पर सामान्य पंचायत राज व्यवस्था के स्थान पर विशेष ग्राम पंचायत व्यवस्था जिसे Panchayats (Extension to Scheduled Areas Act, 1996) अर्थात PESA कहा जाता है तथा यह ग्राम स्वराज के लिए परंपरागत ग्राम पंचायत व्यवस्था है। इसमें पंचायत में सभी प्राकृतिक संसाधनों/खनिजों पर पंचायत का ही अधिकार होता है और उनसे होने वाला लाभ ग्राम के विकास पर ही खर्च किया जा सकता है। परंतु यह विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की सरकारों का ही षड्यंत्र है जिसके अंतर्गत केवल कुछ ही जनजाति क्षेत्रों में इस व्यवस्था को लागू किया गया है।

इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेखनीय है कि हमारे संविधान में दलित और आदिवासियों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के तौर पर सूचीबद्ध किया गया है। उन्हें राजनीतिक आरक्षण के अलावा सरकारी सेवाओं तथा शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण दिया गया है। हमारी जनगणना में भी उनकी उपजातिवार अलग गणना की जाती है।

इसके अतिरिक्त आदिवासियों पर हिन्दू मैरेज एक्ट तथा हिन्दू उत्तराधिकार कानून भी लागू नहीं होता है। इन कारणों से स्पष्ट है कि आदिवासी समुदाय का अपना अलग धर्म, अलग देवी- देवता, अलग रस्मो-रिवाज़ और अलग संस्कृति है।

उपरोक्त वर्णित कारणों से आरएसएस आदिवासियों को आदिवासी न कह कर वनवासी (वन में रहने वाले) कहता है क्योंकि इन्हें आदिवासी कहने से उन्हें स्वयम् को आर्य और आदिवासियों को अनार्य (मूलनिवासी) मानने की बाध्यता खड़ी हो जाएगी। इससे आरएसएस का हिंदुत्व का मॉडल ध्वस्त हो जाएगा जो कि एकात्मवाद की बात करता है। इसी लिए आरएसएस आदिवासियों का लगातार हिन्दुकरण करने में लगा हुआ है। इसमें उसे कुछ क्षेत्रों में सफलता भी मिली है जिसका इस्तेमाल गैर हिंदुओं पर आक्रमण एवं उत्पीड़न करने में किया जाता है। यह भी एक सच्चाई है कि ईसाई मिशनरियों ने भी कुछ आदिवासियों का मसीहीकरण किया है, परंतु उन्होंने उनका इस्तेमाल गैर मसीही लोगों पर हमले करने के लिए नहीं किया है।

आरएसएस का मुख्य ध्येय आदिवासियों को आदिवासी की जगह वनवासी कह कर तथा उनका हिन्दुकरण करके हिंदुत्व के माडल में खींच लाना है और उनका इस्तेमाल गैर- हिंदुओं को दबाने में करना है। इसके साथ ही उनके धर्म परिवर्तन को रोकने हेतु गलत कानून बना कर रोकना है जबकि हमारा संविधान सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है।

बहुत से राज्यों में ईसाई हुए आदिवासियों की जबरदस्ती घर वापसी करवा कर उन्हें हिन्दू बनाया जा रहा है। इधर आरएसएस ने आदिवासी क्षेत्रों में एकल स्कूलों की स्थापना करके आदिवासी बच्चों का हिन्दुकरण (जय श्रीराम का नारा तथा राम की देवता के रूप में स्थापना) करना शुरू किया है। इसके इलावा आरएसएस पहले ही बहुत सारे वनवासी आश्रम चला कर आदिवासी बच्चों का हिन्दुकरण करती आ रही है। देश के अधिकतर राज्यों में भाजपा की सरकारें स्थापित हो जाने से यह प्रक्रिया और भी तेज हो गयी है।

इस प्रकार आरएसएस आदिवासियों को वनवासी घोषित करके उनके अस्तित्व को ही नकारने का प्रयास कर रहा है। यह न केवल आदिवासियों बल्कि पूरे देश की विविधता के लिए खतरा है। अतः आदिवासियों को आरएसएस की इस चाल को समझना होगा तथा उनकी अस्मिता को मिटाने के षड्यंत्र को विफल करना होगा।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मोदी सरकार का आदिवासी प्रेम एक छलावा मात्र है और उसकी आदिवासियों के कल्याण तथा सशक्तिकरण में कोई दिलचस्पी नहीं है। वह केवल उनका वोट लेने हेतु तरह तरह के हथकंडे अपनाती है जैसाकि जनजातीय गौरव दिवस का मनाया जाना। 

                    


 

 

 

रविवार, 1 अक्टूबर 2023

हमारा अपना महिषासुर - गौरी लंकेश

हमारा अपना महिषासुर

-          गौरी लंकेश

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(शहीद गौरी लंकेश महिषासुर को महान राजा और अपना नायक मानती थीं)

एक दैत्य अथवा महान उदार द्रविड़ शासक, जिसने अपने लोगों की लुटेरे-हत्यारे आर्यो से रक्षा की।)

महिषासुर ऐसे व्यक्तित्व का नाम है, जो सहज ही अपनी ओर लोगों को खींच लेता है। उन्हीं के नाम पर मैसूर नाम पड़ा है। यद्यपि कि हिंदू मिथक उन्हें दैत्य के रूप में चित्रित करते हैं, चामुंड़ी द्वारा उनकी हत्या को जायज ठहराते हैं, लेकिन लोकगाथाएं इसके बिल्कुल भिन्न कहानी कहती हैं। यहां तक कि बी. आर. आंबेडकर और जोती राव फूले जैसे क्रांतिकारी चिन्तक भी महिषासुर को एक महान उदार द्रविडियन शासक के रूप में देखते हैं, जिसने लुटेरे-हत्यारे आर्यों (सुरों) से अपने लोगों की रक्षा की।

इतिहासकार विजय महेश कहते हैं कि ‘माही’ शब्द का अर्थ एक ऐसा व्यक्ति होता है, जो दुनिया में ‘शांति कायम करे। अधिकांश देशज राजाओं की तरह महिषासुर न केवल विद्वान और शक्तिशाली राजा थे, बल्कि उनके पास 177 बुद्धिमान सलाहकार थे। उनका राज्य प्राकृतिक संसाधनों से भरभूर था। उनके राज्य में होम या यज्ञ जैसे विध्वंसक धार्मिक अनुष्ठानों के लिए कोई जगह नहीं थी। कोई भी अपने भोजन, आनंद या धार्मिक अनुष्ठान के लिए मनमाने तरीके से अंधाधुंध जानवरों को मार नहीं सकता था। सबसे बड़ी बात यह थी कि उनके राज्य में किसी को भी निकम्मे तरीके से जीवन काटने की इजाजत नहीं थी। उनके राज्य में मनमाने तरीके से कोई पेड़ नहीं काट सकता था। पेडों को काटने से रोकने के लिए उन्होंने बहुत सारे लोगों को नियुक्त कर रखा था।

विजय दावा करते हैं कि महिषासुर के लोग धातु की ढलाई की तकनीक के विशेषज्ञ थे। इसी तरह की राय एक अन्य इतिहासकार एम.एल. शेंदज प्रकट करती हैं, उनका कहना है कि “इतिहासकार विंसेन्ट ए स्मिथ अपने इतिहास ग्रंथ में कहते हैं कि भारत में ताम्र-युग और प्राग ऐतिहासिक कांस्य युग में औजारों का प्रयोग होता था। महिषासुर के समय में पूरे देश से लोग, उनके राज्य में हथियार खरीदने आते थे। ये हथियार बहुत उच्च गुणवत्ता की धातुओं से बने होते थे। लोककथाओं के अनुसार महिषासुर विभिन्न वनस्पतियों और पेड़ों के औषधि गुणों को जानते थे और वे व्यक्तिगत तौर पर इसका इस्तेमाल अपने लोगों की स्वास्थ्य के लिए करते थे।

क्यों और कैसे इतने अच्छे और शानदार राजा को खलनायक बना दिया गया? इस संदर्भ में सबल्टर्न संस्कृति के लेखक और शोधकर्ता योगेश मास्टर कहते हैं कि “इस बात को समझने के लिए सुरों और असुरों की संस्कृतियों के बीच के संघर्ष को समझना पडेगा”। वे कहते हैं कि “ जैसा कि हर कोई जानता है कि असुरों के महिषा राज्य में बहुत भारी संख्या में भैंसे थीं। आर्यों की चामुंडी का संबंध उस संस्कृति से था, जिसका मूल धन गाएं थीं। जब इन दो संस्कृतियों में संघर्ष हुआ, तो महिषासुर की पराजय हुई और उनके लोगों को इस क्षेत्र से भगा दिया गया”।

कर्नाटक में न केवल महिषासुर का शासन था, बल्कि इस राज्य में अन्य अनेक असुर शासक भी थे। इसकी व्याख्या करते हुए विजय कहते हैं कि “1926 में मैसूर विश्वविद्यालय ने इंडियन इकोनामिक कांफ्रेंस के लिए एक पुस्तिका प्रकाशित की थी, जिसमें कहा गया था कि कर्नाटक राज्य में असुर मुखिया लोगों के बहुत सारे गढ़ थे। उदाहरण के लिए गुहासुर अपनी राजधानी हरिहर पर राज्य करते थे। हिडिम्बासुर चित्रदुर्ग और उसके आसपास के क्षेत्रों पर शासन करते थे। बकासुर रामानगर के राजा थे। यह तो सबको पता है कि महिषासुर मैसूर के राजा थे। यह सारे तथ्य यह बताते हैं कि आर्यों के आगमन से पहले इस परे क्षेत्र पर देशज असुरों का राज था। आर्यों ने उनके राज्य पर कब्जा कर लिया”।

आंबेडकर ने भी ब्राह्मणवादी मिथकों के इस चित्रण का पुरजोर खण्डन किया है कि असुर दैत्य थे। आंबेडकर ने अपने एक निबंध में इस बात पर जोर देते हैं कि “महाभारत और रामायण में असुरों को इस प्रकार चित्रित करना पूरी तरह गलत है कि वे मानव-समाज के सदस्य नहीं थे। असुर मानव समाज के ही सदस्य थे”। आंबेडकर ब्राह्मणों का इस बात के लिए उपहास उड़ाते हैं कि उन्होंने अपने देवताओं को दयनीय कायरों के एक समूह के रूप में प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि हिंदुओं के सारे मिथक यही बताते हैं कि असुरों की हत्या विष्णु या शिव द्वारा नहीं की गई है, बल्कि देवियों ने किया है। यदि दुर्गा (या कर्नाटक के संदर्भ में चामुंडी) ने महिषासुर की हत्या की, तो काली ने नरकासुर को मारा। जबकि शुंब और निशुंब असुर भाईयों की हत्या दुर्गा के हाथों हुई। वाणासुर को कन्याकुमारी ने मारा। एक अन्य असुर रक्तबीज की हत्या देवी शक्ति ने की। आंबेडकर तिरस्कार के साथ कहते हैं कि “ऐसा लगता है कि भगवान लोग असुरों के हाथों से अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते थे, तो उन्होंने अपनी पत्नियों को, अपने आप को बचाने के लिए भेज दिया”।

आखिर क्या कारण था कि सुरों (देवताओं) ने हमेशा अपनी महिलाओं को असुरों राजाओं की हत्या करने के लिए भेजा। इसके कारणों की व्याख्या करते हुए विजय बताते हैं कि “देवता यह अच्छी तरह जानते थे कि असुर राजा कभी भी महिलाओं के खिलाफ अपने हथियार नहीं उठायेंगे। इनमें से अधिकांश महिलाओं ने असुर राजाओं की हत्या कपटपूर्ण तरीके से की है। अपने शर्म को छिपाने के लिए भगवानों की इन हत्यारी बीवियों के दस हाथों, अदभुत हथियारों इत्यादि की कहानी गढ़ी गई। नाटक-नौटंकी के लिए अच्छी, लेकिन अंसभव सी लगने वाली इन कहानियों, से हट कर हम इस सच्चाई को देख सकते हैं कि कैसे ब्राह्मणवादी वर्ग ने देशज लोगों के इतिहास को तोड़ा मरोड़ा। इतिहास को इस प्रकार तोड़ने मरोड़ने का उनका उद्देश्य अपने स्वार्थों की पूर्ति करना था।

केवल बंगाल या झारखण्ड में ही नहीं, बल्कि मैसूर के आस-पास भी कुछ ऐसे समुदाय रहते हैं, जो चामुंडी को उनके महान उदार राजा की हत्या के लिए दोषी ठहराते हैं। उनमें से कुछ दशहरे के दौरान महिषासुर की आत्मा के लिए प्रार्थना करते हैं। जैसा कि चामुंडेश्वरी मंदिर के मुख्य पुजारी श्रीनिवास ने मुझसे कहा कि “तमिलनाडु से कुछ लोग साल में दो बार आते हैं और महिषासुर की मूर्ति की अाराधना करते हैं”।

पिछले दो वर्षों से असुर पूरे देश में आक्रोश का मुद्दा बन रहे हैं। यदि पश्चिम बंगाल के आदिवासी लोग असुर संस्कृति पर विचार-विमर्श के लिए विशाल बैठकें कर रहे हैं, तो देश के विभिन्न विश्विद्यालयों के कैम्पसों में असुर विषय-वस्तु के इर्द-गिर्द उत्सव आयोजित किए जा रहे हैं। बीते साल उस्मानिया विश्विद्यालय और काकाटिया विश्वविद्यालय के छात्रों ने ‘नरकासुर दिवस’ मनाया था। चूंकि जेएनयू के छात्रों के महिषासुर उत्सव को मानव संसाधन मंत्री (तत्कालीन) ने इतनी देशव्यापी लोकप्रियता प्रदान कर दी थी कि, मैं उसके विस्तार में नहीं जा रही हूं।

महिषासुर और अन्य असुरों के प्रति लोगों के बढ़ते आकर्षण की क्या व्याख्या की जाए? क्या केवल इतना कह करके पिंड छुडा लिया जाए कि, मिथक इतिहास नहीं होता, लोकगाथाएं भी हमारे अतीत का दस्तावेज नहीं हो सकती हैं। विजय इसकी सटीक व्याख्या करते हुए कहते हैं कि “मनुवादियों ने बहुजनों के समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास को अपने हिसाब से तोड़ा मरोड़ा। हमें इस इतिहास पर पड़े धूल-धक्कड़ को झाडंना पडेगा, पौराणिक झूठों का पर्दाफाश करना पड़ेगा और अपने लोगों तथा अपने बच्चों को सच्चाई बतानी पडेगी। यही एकमात्र रास्ता है, जिस पर चल कर हम अपने सच्चे इतिहास के दावेदार बन सकते हैं। महिषासुर और अन्य असुरों के प्रति लोगों का बढता आकर्षण बताता है कि वास्तव में यही काम हो रहा है।

(गौरी लंकेश ने यह रिपोर्ट मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी थी, जो वेब पोर्टल बैंगलोर मिरर में 29 फरवरी, 2016 को प्रकाशित हुई थी, अनुवाद- सिद्धार्थ , फारवर्ड प्रेस में प्रकाशित )

 

 

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