सोमवार, 11 अप्रैल 2022

आरएसएस द्वारा अंबेडकर को हिन्दुत्व का पक्षधर पेश करने का प्रयास


 

    आरएसएस द्वारा अंबेडकर को हिन्दुत्व का पक्षधर पेश करने का प्रयास

     -एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट 

         

एक समाचार-पत्र के अनुसार इस बार आरएसएस दलितों को जोड़ने के लिए एक बड़ा कार्यक्रम करने जा रहा है। इसके अनुसार पहली बार अंबेडकर जयंती पर देशभर की शाखाओं में फोटो पर पुष्प अर्पित किए जाएंगे। अंबेडकर जयंती यानी 14 अप्रैल को शाखाओं में खासतौर पर डॉ. भीमराव अंबेडकर के उन बयानों के बारे में बताया जाएगा, जिसमें राष्ट्र भक्ति के साथ हिंदुत्व को बल मिलता है। संघ 11 बिंदुओं से अंबेडकर के हिंदुत्व को समझाएगा।

अतः संघ द्वारा डा. अंबेडकर के प्रचारित/प्रसारित किए जाने वाले विचारों/बिंदुओं के सही अथवा गलत होने का विश्लेषण किया जाना जरूरी है। इसी दृष्टि से  संघ द्वारा अंबेडकर के हिन्दुत्व को समझाने हेतु चुने गए 11 बिन्दुओं पर टिप्पणी जरूरी है, जो निम्नवत हैं:

 

1.  धार्मिक आधार पर बंटवारे को लेकर अंबेडकर ने अपनी किताब थॉट्स ऑन पाकिस्तान में कांग्रेस को मुस्लिम परस्त बताते हुए आलोचना की थी।

टिप्पणी:  यह कथन  गलत है। अंबेडकर ने संदर्भित पुस्तक में कांग्रेस के मुस्लिम परस्त होने की जगह कांग्रेस द्वारा मुस्लिम लीग के साथ प्रथम चुनाव में चुनाव पूर्व वादे के अनुसार सत्ता में हिस्सेदारी न दे कर तथा अकेले सरकार बना कर मुस्लिम लीग को अलगाव में डालने की बात कही है जिससे कांग्रेस और मुस्लिम लीग में दूरी और अविश्वास बढ़ा और वह पाकिस्तान की मांग की ओर दृढ़ता से बढ़ने लगी।    

2.  समान नागरिक संहिता के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने स्पष्ट किया था कि मैं समझ नहीं पा रहा हूं, समान नागरिक संहिता का इतना विरोध क्यों हो रहा है।

टिप्पणी:  यह बात सही है कि डा. अंबेडकर समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे परंतु इसका व्यापक विरोध होने के कारण वे इस बारे में कुछ कर नहीं पाए। उस समय यह आम राय बनी थी कि इसमें जबरदस्ती करने की बजाए आम सहमति, जब भी संभव हो, बनाई जाए। क्या आरएसएस इस बात को भी बताएगी कि जब डा. अंबेडकर हिन्दू महिलाओं को अधिकार दिलाने वाला हिन्दू कोडबिल लेकर आए थे तो उन्होंने तथा हिन्दू महासभा ने इस बिल का कितना कड़ा विरोध किया था? उन्होंने डा. अंबेडकर को हिन्दू विरोधी तथा अछूत के रूप में हिन्दू परिवारों को तोड़ने वाला कहा था तथा उन्हें जान से मारने की धमकी तक दी गई थी। संविधान सभा में सभा के अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद तथा कांग्रेस के हिन्दू सदस्यों के व्यापक विरोध तथा नेहरू द्वारा 1952 के चुनाव के आसन्न होने के कारण इसको पास नहीं कराया गया जिस पर डा. अंबेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। क्या देश में ऐसी कोई उदाहरण है जब किसी मंत्री ने महिलाओं के अधिकारों के लिए इस्तीफा दिया हो? आरएसएस को अपने विरोध के इतिहास को भूल कर केवल मुसलमानों के विरोध की बात नहीं करनी चाहिए। इस संबंध में व्यापक सहमति बनाने की कोशिश की जानी चाहिए। इस बारे में मुस्लिम समाज को भी खुले दिमाग से विचार करना चाहिए।     

3.  जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 का उन्होंने जबरदस्त विरोध किया था। राष्ट्रवाद की अवधारणा में अखंड राष्ट्रवाद के पक्षधर थे।

टिप्पणी:  यह बात सही है कि डा. अंबेडकर जम्मू-कश्मीर में धारा 370 के पक्षधर नहीं थे। अतः उन्होंने संविधान में इस धारा को ड्राफ्ट नहीं किया था। परंतु डा. अंबेडकर हिंदुवादी अखंड राष्ट्रवाद के पक्षधर नहीं थे बल्कि भारत के विभाजन के खिलाफ थे। उनका यह दृढ़ मत था कि हमें प्रयास करके मुस्लिम लीग को स्वतंत्र भारत में मुसलमानों के साथ कोई भेदभाव होने के डर को निकाल कर पाकिस्तान की मांग छोड़ देने के लिए मनाने का गंभीर प्रयास करना चाहिए। आज आरएसएस मुसलमानों/ईसाइयों एवं अन्य अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभाव एवं उत्पीड़न की जो नीति अपना रही है क्या यह देश की एकता एवं अखंडता के लिए सही है?  

4.  राष्ट्रवाद की अवधारणा का हमेशा समर्थन किया, उन्होंने संपूर्ण वांग्मय के खंड-5 में लिखा है कि मैं जिऊंगा और मरूंगा हिंदुस्तान के लिए।

टिप्पणी:  डा. अंबेडकर ने कभी भी आरएसएस ब्रांड हिंदुवादी राष्ट्रवाद का समर्थन नहीं किया था। उनका राष्ट्रवाद सभी नागरिकों की स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व की अवधारणा पर आधारित था परंतु आरएसएस की विचारधारा इसके बिल्कुल विपरीत है। वे किसी भी प्रकार के नस्लीय एवं धार्मिक भेदभाव पर आधारित राष्ट्रवाद के खिलाफ थे। उन्होंने कहा था, “कुछ लोग कहते हैं कि वे पहले हिन्दू, मुसलमान या  सिख हैं और बाद में भारतीय हैं। परंतु मैं शुरू से लेकर आखिर तक भारतीय हूँ।“

5.  25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में बोलते हुए डॉ. अंबेडकर ने वामपंथी विचारधारा का जबरदस्त विरोध किया था।

टिप्पणी:  यह कथन एक दम असत्य है। उन्होंने अपने भाषण में कहीं भी वामपंथ का विरोध नहीं किया था। उन्होंने अपने भाषण में सभी प्रकार के अधिनायकवाद का विरोध किया था चाहे वह सर्वहारा का अधिनायकवाद ही क्यों न हो। डा. अंबेडकर अपने राजनीतिक चिंतन में सोशलिस्ट (समाजवादी) थे। डा. अंबेडकर वास्तव में लिबरल डेमोक्रेट (उदारवादी लोकतांतन्त्रिक) थे। वे स्टेट सोशलिस्म (राजकीय समाजवाद) के प्रबल पक्षधर थे। उनके राजकीय समाजवाद की पक्षधरता की सबसे बड़ी उदाहरण उनके अपने संविधान के मसौदे जो “राज्य एवं अल्पसंख्यक” पुस्तिका के रूप में छपी है, में मिलती है। इसमें उन्होंने सारी कृषि भूमि के राष्ट्रीयकरण तथा उस पर सामूहिक खेती की मांग की थी। इसके अतिरिक्त वे बीमा के राष्ट्रीयकरण तथा सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य बीमा के भी पक्षधर थे जबकि आज आरएसएस चालित भाजपा सरकार इन  सबके निजीकरण में जुटी हुई है।        

6.  डॉ. भीमराव अंबेडकर ने पंथ निरपेक्ष राष्ट्र पर RSS के समान विचार रखे थे।

टिप्पणी:  डा. अंबेडकर पंथ निरपेक्ष नहीं बल्कि धर्म निरपेक्ष राष्ट्र के पक्षधर थे। डा. अंबेडकर धर्म के राजनीति में प्रवेश के विरोधी थे। वे धर्म को एक निजी विश्वास मानते थे और राज्य के कार्यों से इसे दूर रखने के पक्षधर थे। आरएसएस डा. अंबेडकर को पंथ निरपेक्ष राष्ट्र का पक्षधर बता कर अपनी हिन्दुत्व की राजनीति एवं हिन्दू राष्ट्र की स्थापना को उचित ठहराना चाहती है।   

7.  हिंदू एकता का प्रबल समर्थन करते हुए बाबा साहब ने अपनी जीवनी में लिखा है कि मुझमें और सावरकर में एक केवल सहमति ही नहीं, बल्कि सहयोग भी है। हिंदू समाज को एकजुट और संगठित किया जाए।

टिप्पणी:  यह कथन बिल्कुल असत्य है। बाबासाहेब ने अपनी जीवनी में कहीं भी ऐसा नहीं लिखा है। यह भ्रम बाबासाहेब द्वारा सावरकर के निमंत्रण पत्र के उत्तर में लिखे पत्र को गलत ढंग से पेश करके पैदा किया जा रहा है। अतः पत्र पूरी तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि पाठकों को सावरकरियों की बौद्धिक बेईमानी का पता चल सके। इसमें लिखा था: "अछूतों के लिए रत्नागिरी किले पर मंदिर खोलने के लिए मुझे आमंत्रित करने के लिए आपके पत्र के लिए बहुत धन्यवाद। मुझे बहुत खेद है कि पूर्व व्यस्तता के कारण, मैं आपका निमंत्रण स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। मैं, हालांकि, सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में आप जो काम कर रहे हैं, उसकी सराहना करने के इस अवसर पर मैं आपको अवगत कराना चाहता हूं। जब मैं अछूतों की समस्या को देखता हूं, तो मुझे लगता है कि यह हिंदू समाज के पुनर्गठन के सवाल से गहराई से जुड़ा हुआ है। यदि अछूतों को हिन्दू समाज का अंग होना है तो अस्पृश्यता को दूर करना ही काफी नहीं है, उसके लिए आपको चतुर्वर्ण्य को नष्ट करना होगा। यदि उन्हें अभिन्न अंग नहीं बनना है, यदि उन्हें केवल हिंदू समाज का परिशिष्ट होना है, तो जहां तक ​​मंदिर का संबंध है, अस्पृश्यता बनी रह सकती है। मुझे यह देखकर खुशी हुई कि आप उन बहुत कम लोगों में से हैं जिन्होंने इसे महसूस किया है। यह कि आप अभी भी चतुर्वर्ण्य के शब्दजाल का उपयोग करते हैं, हालांकि आप इसे योग्यता के आधार पर उचित बताते हैं, दुर्भाग्यपूर्ण है। हालाँकि, मुझे आशा है कि समय के साथ आपमें इस अनावश्यक और शरारती शब्दजाल को छोड़ने का पर्याप्त साहस होगा।“ इससे स्पष्ट है कि इस पत्र में डा. अंबेडकर चतुर्वर्ण को समाप्त करने के बाद ही अछूतों के हिन्दू समाज में समावेश की संभावना व्यक्त करते हैं जबकि सावरकार छुआछूत समाप्त करने हेतु केवल मंदिर प्रवेश की बात करते हैं। इससे स्पष्ट है कि अछूत समस्या के बारे में दोनों के नजरिए एवं कार्यनीति में जमीन आसमान का अंतर है।     

8.  जातिगत भेदभाव मिटाने के मसले पर संघ और अंबेडकर के विचार पूरी तरह से एक है।

टिप्पणी:  यह कथन बिल्कुल गलत है क्योंकि जातिगत भेदभाव मिटाने के मसले पर संघ और अंबेडकर के विचार पूरी तरह से भिन्न हैं। बाबासाहेब जाति विनाश के पक्षधर थे जबकि संघ जातियों को नष्ट नहीं बल्कि जाति समरसता (यथास्थिति ) का पक्षधर है। संघ मनुस्मृति को हिंदुओं का पवित्र ग्रंथ मानता है जबकि बाबासाहेब इसे घोर दलित विरोधी ग्रंथ मानते थे। इसी लिए उन्होंने 25 दिसंबर, 1927 को इसका सार्वजनिक दहन भी किया था। संघ जातिव्यवस्था को कायम रखते हुए हिन्दुत्व (हिन्दू राजनीतिक विचारधारा) के माध्यम से हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में जी जान से लगा हुआ है जबकि बाबासाहेब हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के कट्टर विरोधी थे। वास्तव में, डॉ. अम्बेडकर 1940 में इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि "यदि हिंदू राज एक सच्चाई बन जाता है, तो निस्संदेह, यह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी... [यह] स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए एक खतरा है। इस हिसाब से यह लोकतंत्र के साथ असंगत है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।“

9.  बाबा साहब भारतीय संस्कृति पर पूरा विश्वास रखते थे।

टिप्पणी:  इसमें कोई संदेह नहीं कि बाबासाहेब भारतीय संस्कृति पर पूरा विश्वास रखते थे परंतु वह संस्कृति आरएसएस द्वारा परिभाषित संस्कृति से बिल्कुल भिन्न है। आरएसएस भारतीय संस्कृति को हिन्दू संस्कृति के रूप में परिभाषित करता है जबकि भारतीय संस्कृति विभिन्न संस्कृतियों का सम्मिश्रण है। इससे में हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई, पारसी आदि संस्कृतियों का समुच्चय है। आरएसएस हिन्दू संस्कृति को अन्य संस्कृतियों से श्रेष्ठ मानता है।

10. बाबा साहब इस्लाम और ईसाइयत को हमेशा विदेशी धर्म मानते रहे।

टिप्पणी:  यह सही है कि बाबासाहेब इस्लाम और इसाइयत को विदेशी धर्म मानते थे परंतु उन्होंने इन धर्मों को कभी भी हेय दृष्टि से नहीं देखा। यह अलग बात है कि उन्होंने भारत में इन धर्मों में व्याप्त बुराइयों जैसे जातिभेद आदि की आलोचना की, उसे हिन्दू धर्म की  छूत माना और उन्हें उन धर्मों को मूल भवना के अनुसार सुधार करने के लिए भी कहा। बौद्ध धर्म को अपनाने में भी उन्होंने राष्ट्रहित को ही ऊपर रखा था।

11. बाबा साहब आर्यों को भारतीय मूल का होने पर एकमत थे।

टिप्पणी:   यह बात सही है कि बाबासाहेब ने “शूद्र कौन और कैसे” पुस्तक में कहा है कि आर्य लोग भारतीय मूल के थे। उनका यह अध्ययन उस समय तक उपलब्ध जानकारी पर आधारित था। परंतु इसके बाद विभिन्न नस्लों के डीएनए के अध्ययन से पाया गया है कि आर्य जाति का डीएनए ईरान और अन्य योरपीय नस्लों से मिलता है जो निश्चित तौर पर मध्य एशिया से आए थे।

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि आरएसएस द्वारा 14 अप्रैल से चलाया जाने वाला बौद्धिक कार्यक्रम डा. अंबेडकर के विचारों को गलत ढंग से अपने पक्ष में दिखा कर उन्हें हिन्दुत्व के पक्षधर के तौर पर प्रस्तुत करने का प्रयास है जबकि डा. अंबेडकर और संघ की विचारधारा में जमीन आसमान का अंतर है।

 

 

सोमवार, 4 अप्रैल 2022

सावरकर:एक कट्टर जातिवादी के रूप में

 

                 सावरकर:एक कट्टर जातिवादी के रूप में

                   शमसुल इस्लाम

                  notoinjustice@gmail.com


(मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट) 

सावरकर पुनर्वास परियोजना नए रूप ले रही है। सावरकरियों द्वारा नवीनतम प्रयास ("कैसे सावरकर ने एक जातिविहीन समाज के लिए लड़ाई लड़ी, द इंडियन एक्सप्रेस, 28-02-2022]) यह दावा करना है कि "उन्होंने जाति क्रूरता, अस्पृश्यता, और महिलाओं के प्रति अन्याय से मुक्त सामाजिक एकता के साथ सामाजिक न्याय की धारणाओं पर आधारित एक जातिविहीन समाज की वकालत की। वह जाति व्यवस्था की विविधता को खत्म करना चाहते थे और हिंदू एकता पर आधारित एक राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे, जहां दलित सम्मान और खुशी के साथ रह सकें। यह भी दावा किया जाता है कि उन्होंने मनुस्मृति जैसे धर्मग्रंथों के निषेधाज्ञा के खिलाफ बात की, जो जाति की वकालत करते थे। सावरकर के अनुसार, “ये ग्रंथ अक्सर सत्ता में बैठे लोगों के उपकरण होते हैं, जिनका उपयोग सामाजिक संरचना को नियंत्रित करने और अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए किया जाता है। ”

आइए इन दावों की तुलना हिंदू महासभा के अभिलेखागार में दर्ज सावरकर के लेखन और कार्यों से करें। हिंदुत्व के एक भविष्यवक्ता के रूप में सावरकर और 1923 में इसी शीर्षक के साथ पुस्तक के लेखक ने हिंदू समाज में जातिवाद को एक राष्ट्र बनाने के लिए एक प्राकृतिक  आवश्यक घटक के रूप में इसका बचाव किया।

"राष्ट्रीयता के पक्ष में संस्थान" शीर्षक के तहत विषय पर काम करते हुए, उन्होंने घोषणा की कि जातिवाद की संस्था एक हिंदू राष्ट्र की पहचान का विशिष्ट चिन्ह है।

"चार वर्णों की व्यवस्था जिसे बौद्ध प्रभाव के तहत भी मिटाया नहीं जा सका था", इस हद तक लोकप्रियता में वृद्धि हुई कि राजाओं और सम्राटों ने यह महसूस किया कि उन्हें एक ऐसा व्यक्ति कहा जाता है जिसने चार वर्णों की व्यवस्था की स्थापना की है। .. इसके पक्ष में प्रतिक्रिया संस्था इतनी मजबूत हुई कि यह लगभग हमारी राष्ट्रीयता की पहचान बन  गई थी।” सावरकर ने एक हिंदू राष्ट्र के एक अविभाज्य घटक के रूप में जातिवाद का बचाव करते हुए, एक प्राधिकरण (उनके द्वारा पहचाने नहीं गए) का हवाला देते हुए कहा: "जिस भूमि पर चार वर्णों की व्यवस्था मौजूद नहीं है, उसे म्लेच्छ देश के रूप जाना जाना चाहिए: आर्यावर्त उससे दूर है।"

सावरकर का जातिवाद का बचाव वास्तव में हिंदू राष्ट्र की समझ के प्रति उनके नस्लीय दृष्टिकोण का परिणाम था। इस आलोचना का खंडन करते हुए कि जातिवाद ने हिंदू समाज में रक्त के मुक्त प्रवाह की जाँच की, उन्होंने इन्हें एक दूसरे के पूरक बनाकर एक दिलचस्प तर्क प्रस्तुत किया। उन्होंने तर्क दिया कि वास्तव में, जातिवाद के कारण ही हिंदू जाति की शुद्धता बनी रही। उसे उद्धृत करने के लिए, "जाति व्यवस्था ने जो कुछ किया है, वह अपने कुलीन खून को नियंत्रित करने के लिए किया है" और पूरी तरह से सही माना जाता है - हमारे द्वारा

संत और देशभक्त कानून-निर्माताओं और राजाओं को सबसे अधिक योगदान करने के लिए

जो कुछ भी फल-फूल रहा था और जो समृद्ध था, उसे निर्बल और खराब किए बिना, जो कुछ भी बंजर और गरीब था, उसे खाद और समृद्ध किया। ”

दिलचस्प बात यह है कि जातिवाद के बचाव में डटे रहने वाले सावरकर ने भी थोड़े समय के लिए हिंदू समाज में अछूतों की स्थिति को ऊंचा करने की वकालत की। उन्होंने अस्पृश्यता और हिंदू मंदिरों में अछूतों के प्रवेश के खिलाफ कार्यक्रम आयोजित किए। यह एक समतावादी दृष्टिकोण के कारण नहीं था, बल्कि मुख्य रूप से इस तथ्य के कारण था कि अछूतों के इस्लाम और ईसाई धर्म जिसने उन्हें सामाजिक समानता की गारंटी दी थी, में लगातार रूपांतरण के कारण हिंदू समुदाय को संख्यात्मक नुकसान का सामना करना पड़ रहा था। सावरकर ने स्वीकार किया कि उन्हें बहिष्कृत मानने के कारण, तत्कालीन 7 करोड़ [भारत में बहिष्कृत लोगों की तत्कालीन आबादी], "हिंदू जन-शक्ति" हमारे (उच्च जाति हिंदुओं) के पक्ष में नहीं थी। सावरकर जानते थे कि हिंदू राष्ट्रवादियों को इन अछूतों की शारीरिक शक्ति की बहुत आवश्यकता होगी, क्योंकि वे मुसलमानों और ईसाइयों के साथ स्कोर तय करने के लिए पैदल सैनिकों के रूप में थे। इसलिए अपने कार्यकर्ताओं को चेतावनी देते हुए कि अगर अछूत उनके दायरे में नहीं रहे, तो वे एक ऐसा कारक साबित करने जा रहे हैं जो उच्च जाति के हिंदुओं के लिए और भी भयानक संकट लाएगा। सावरकर ने इस तथ्य पर खेद व्यक्त किया कि "वे न केवल उनके लिए फायदेमंद होंगे बल्कि हमारे घर को विभाजित करने का एक आसान साधन भी बन जाएंगे और इस प्रकार हमारे असीम नुकसान के लिए जिम्मेदार साबित होगा।”

इस मुद्दे पर सावरकर के विश्वासों और कार्यों का सबसे प्रामाणिक रिकॉर्ड सावरकर के सचिव ए.एस. भिडे द्वारा "विनायक दामोदर सावरकर का प्रचंड प्रचार: उनके अध्यक्ष की डायरी से उद्धरण" के एक संकलन में उपलब्ध है: “दिसंबर 1937 से अक्टूबर 1940 तक प्रचार यात्रा तथा साक्षात्कार।“ यह हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं के लिए एक आधिकारिक गाइड-बुक है। इसके अनुसार सावरकर ने जल्द ही घोषणा की कि वह इन सुधारात्मक कार्यों को अपने व्यक्तिगत तौर पर कर रहे थे, हिंदू महासभा संगठन को "शामिल किए बिना” सामाजिक और धर्मों गतिविधियों में इसकी संवैधानिक सीमाओं की गारंटी है ..." [मूल पाठ में बोल्ड के रूप में] सावरकर ने 1939 में हिंदू मंदिरों में अछूतों के प्रवेश का विरोध करने वाले सनातनी हिंदुओं को आश्वासन दिया कि हिंदू महासभा, " पुराने मंदिरों में एक सीमा से परे गैर-हिंदुओं को आज की तरह प्रथा द्वारा जो अनुमति दी गई है, के विरुद्ध अछूतों आदि द्वारा मंदिर में प्रवेश के संबंध में अनिवार्य बिल को पेश या उसका समर्थन नहीं करेगा।“

20 जून, 1941 को उन्होंने एक बार फिर व्यक्तिगत आश्वासन के रूप में प्रतिज्ञा की कि वे मंदिरों में अछूतों के प्रवेश के मुद्दे पर सनातनी हिंदुओं की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाएंगे। इस बार उन्होंने महिला विरोधी और दलित विरोधी हिंदू व्यक्तिगत कानूनों को नहीं छूने का वादा किया: "मैं गारंटी देता हूं कि हिंदू महासभा प्राचीन मंदिरों में अछूतों के प्रवेश के संबंध में किसी भी कानून को लागू नहीं करेगी या कानून द्वारा किसी भी उन मंदिरों में पवित्र प्राचीन  प्रचलित प्रथा और नैतिक कानून को मजबूर नहीं करेगी। सामान्य तौर पर, जहां तक ​​पर्सनल लॉ का संबंध है, महासभा हमारे सनातनी भाइयों पर सुधारवादी विचारों को थोपने के लिए किसी भी कानून का समर्थन नहीं करेगी..."

सावरकर जीवन भर जातिवाद के महान नायक और मनुस्मृति के उपासक रहे। जातिवाद और अस्पृश्यता की संस्थाएँ, वास्तव में, मनु की संहिताओं का परिणाम थीं, जो सावरकर द्वारा बहुत पूजनीय थीं, जैसा कि हम उनके निम्नलिखित कथन में देखेंगे: “मनुस्मृति वह ग्रंथ है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति-रीति-रिवाजों, विचारों और व्यवहार का आधार बना हुआ है। सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र के आध्यात्मिक और दिव्य मार्च को संहिताबद्ध किया है। आज भी करोड़ों हिंदुओं द्वारा अपने जीवन और आचरण में जिन नियमों का पालन किया जाता है, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिंदू कानून है। वह मौलिक है।“

अफसोस की बात है कि सावरकर की अस्पृश्यता-विरोधी साख को स्थापित करने पर आमादा, डा. अम्बेडकर के 18 फरवरी, 1933 को सावरकर को लिखे एक पत्र के साथ भी शरारत करने में कोई संकोच नहीं किया। सावरकरियों के अनुसार उसमें लिखा है: "मैं आपको सामाजिक सुधार के क्षेत्र में आपके द्वारा किए जा रहे कार्यों की सराहना इस अवसर पर करना चाहता हूं। अगर अछूतों को हिंदू समाज का हिस्सा बनना है, तो अस्पृश्यता को दूर करना ही काफी नहीं है; उस बात के लिए आपको "चतुर्वर्ण:" को नष्ट करना चाहिए। मुझे खुशी है कि आप उन गिने-चुने नेताओं में से एक हैं जिन्होंने इस बात को महसूस किया है।” दुर्भाग्य से डॉ. अम्बेडकर के पत्र से अछूतों के लिए सावरकर के एजेंडे पर सभी आलोचनात्मक टिप्पणी को हटाते हुए वाक्यों को उठा लिया गया है।

अतः पत्र पूरी तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि पाठकों को सावरकरियों की बौद्धिक बेईमानी का पता चल सके। इसमें लिखा था: "अछूतों के लिए किले पर मंदिर खोलने के लिए मुझे रत्नागिरी में आमंत्रित करने के लिए आपके पत्र के लिए बहुत धन्यवाद। मुझे बहुत खेद है कि पूर्व व्यस्तताओं के कारण, मैं आपका निमंत्रण स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। मैं, हालांकि,

सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में आप जो काम कर रहे हैं, उसकी सराहना करने के इस अवसर पर मैं आपको अवगत कराना चाहता हूं। जब मैं अछूतों की समस्या को देखता हूं, तो मुझे लगता है कि यह हिंदू समाज के पुनर्गठन के सवाल से गहराई से जुड़ा हुआ है। यदि अछूतों को हिन्दू समाज का अंग होना है तो अस्पृश्यता को दूर करना ही काफी नहीं है, उसके लिए आपको चतुर्वर्ण्य को नष्ट करना होगा। यदि उन्हें अभिन्न अंग नहीं बनना है, यदि उन्हें केवल हिंदू समाज का परिशिष्ट होना है, तो जहां तक ​​मंदिर का संबंध है, अस्पृश्यता बनी रह सकती है। मुझे यह देखकर खुशी हुई कि आप उन बहुत कम लोगों में से हैं जिन्होंने इसे महसूस किया है। यह कि आप अभी भी चतुर्वर्ण्य के शब्दजाल का उपयोग करते हैं, हालांकि आप इसे योग्यता के आधार पर उचित बताते हैं, दुर्भाग्यपूर्ण है। हालाँकि, मुझे आशा है कि समय के साथ आपमें इस अनावश्यक और शरारती शब्दजाल को छोड़ने का पर्याप्त साहस होगा।“

वास्तव में, डॉ. अम्बेडकर 1940 में इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि "यदि हिंदू राज एक सच्चाई  बन जाता है, तो निस्संदेह, यह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी... [यह] स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए एक खतरा है।  इस हिसाब से यह लोकतंत्र के साथ असंगत है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।“

यह द इंडियन एक्सप्रेस, दिल्ली में "सावरकर और जाति के बारे में सच्चाई" शीर्षक से 23-03-2022 को छपा था।

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