रविवार, 13 मार्च 2022

क्या बसपा में नेतृत्व परिवर्तन संभव है?

 

क्या बसपा में नेतृत्व परिवर्तन संभव है?

एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट

हाल के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव ने एक बार फिर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के निरंतर पतन को उजागर किया है। इसमें बसपा को केवल एक सीट मिली है और उसका बुरी तरह से सफाया हो गया है जबकि मायावती का पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने का दावा था। इसमें बसपा का वोट प्रतिशत 2017 में 22.3% से घट कर केवल 12.7% रह गया है। इस की 2017 में 19 सीटें घट कर केवल एक रह गई है और वह भी प्रत्याशी ने अपने बल पर जीती है। इस प्रकार वोट प्रतिशत में लगभग 10 प्रतिशत की गिरावट आई है। यह भी विदित है कि 2007 में बसपा ने 206 सीटें जीती थीं और इसका वोट प्रतिशत 30.43% था। 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने 21 सीटें जीती थीं और इसका वोट प्रतिशत 6.1% था। 2012 के विधान सभा चुनाव में बसपा का वोट शेयर 26% था और उसने 80 सीटें जीती थी। 2014 में बसपा को लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली थी पर उसका वोट शेयर 4.1% था। 2019 लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन से बसपा को 10 सीटें मिली थीं और उसका वोट शेयर 4.2 % था।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में 2007 के बाद लोकसभा तथा विधान सभा चुनाव में बसपा की सीटें तथा वोट प्रतिशत निरंतर गिरता रहा है और 2022 के चुनाव में निम्नतम स्तर पर पहुँच गया है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों हुआ और इसके लिए कौन जिम्मेदार है? क्या इसके लिए इसका नेतृत्व जिम्मेदार है या इसकी नीतियाँ जिम्मेदार हैं अथवा दोनों? क्या ऐसी परिस्थिति में पार्टी के नेतृत्व तथा नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है? यदि है तो क्या यह संभव है और इसके लिए किन  उपायों की आवश्यकता है?

आइए सबसे पहले बसपा में नेतृत्व की स्थिति देखें। जैसाकि सभी अवगत हैं कि 2006 में कांशी राम के जीवित रहते ही मायावती बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गई थी। तब से लगभग 16 वर्ष से वह बसपा की सर्वेसर्वा रही है। यह भी ज्ञातव्य है कि कांशी राम के रहते तथा उसके बाद बसपा में मायावती के इलावा कोई भी दूसरा नेतृत्व उभरने नहीं दिया गया। यह भी सर्वविदित है कि कांशी राम के रहते ही मायावती ने पार्टी में कांशी राम के नजदीकियों को एक एक करके पार्टी के बाहर कर दिया था और अपने विश्वासपात्रों को पार्टी में पद दे दिए थे। कांशी राम ने कहा था कि मेरे परिवार का कोई भी सदस्य पार्टी में पदाधिकारी नहीं बनेगा। परंतु मायावती ने सबसे पहले अपने भतीजे आकाश आनंद को 2021 में पार्टी में नेशनल को-आर्डिनेटर का उच्च पद दिया और अब उसके मायावती के उतराधिकारी बनने की भी चर्चा है। इधर 9 फरवरी, 2022 को उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के परिणाम घोषित होने के एक दिन पहले मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा अपने भतीजे आकाश आनंद को नेशनल को-आर्डिनेटर घोषित कर दिया। ऐसा इस लिए किया गया क्योंकि मायावती को चुनाव नतीजों के खराब होने का पूर्वानुमान था और परिणाम घोषित होने के बाद ऐसा करने को लेकर हो-हल्ला होने का डर था। पार्टी में इनके इलावा सबसे प्रभावशाली नेता सतीश चंद्र मिश्र महासचिव के पद पर है जोकि मायावती के सबसे बड़े विश्वास पात्र हैं।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि चुनावों में बसपा के पतन के लिए पार्टी नेतृत्व खास करके मायावती जिम्मेदार है जिसकी पार्टी पर बहुत मजबूत पकड़ है। ऐसे में क्या यह संभव है कि पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठाने की हिम्मत कोई अन्य पदाधिकारी कर सकता है। क्या बसपा के समर्थक पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन की माँग उठाने की जुर्रत दिखा सकते हैं? यह भी एक सच है कि बसपा के अंदर मायावती के अंध भक्तों और चाटुकारों की एक बड़ी फौज है जो मायावती के नेतृत्व पर सवाल उठाने वालों के विरुद्ध लामबंद हो जाते हैं। वे मायावती के नेतृत्व में कोई भी कमी देखने तथा उस पत्र उंगली उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान परिस्थितियों में बसपा में नेतृत्व परिवर्तन की कोई संभावना दिखाई नहीं देती है।

अब अगर बसपा की  नीतियों, एजंडा एवं कार्यप्रणाली को देखा जाए तो वह किसी भी तरह से दलित पक्षीय नहीं रही है। आज तक मायावती का कोई भी दलित एजंडा सामने नहीं आया है। उसका मुख्य एजंडा केवल सत्ता प्राप्ति और उसका अपने हित में उपभोग करना ही रहा है। मायावती ने कभी भी दलितों के प्रमुख मुद्दे जैसे भूमिहीनता, बेरोजगारी, उत्पीड़न, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाएं आदि को अपना राजनीतिक एजंडा नहीं बनाया है। इसी का  दुष्परिणाम है कि उसके चार वार के मुख्यमंत्री काल में दलितों की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है सिवाए भावनात्मक संतुष्टि के। इसके विपरीत मायावती के कई कार्य ऐसे रहे हैं जो घोर दलित विरोधी थे। उदाहरण के लिए मायावती ने 1997 में एससी/एसटी एक्ट को यह कह कर लागू करने पर रोक लगा दी थी कि इसका दुरुपयोग हो सकता है, इससे न तो दलित उत्पीड़न करने वालों को सजा ही मिली और न ही दलितों को देय मुआवजा ही मिला। बाद में 2002 में दलित संगठनों द्वारा उक्त आदेश को हाई कोर्ट के आदेश से रद्द करवाया गया। मायावती का यह कृत्य घोर दलित विरोधी एवं अहितकारी रहा। इसी प्रकार 2008 में भी मायावती द्वारा वनाधिकार कानून को लागू करने में घोर दलित/आदिवासी विरोधी रवैया अपनाया गया। उनके भूमि के 81% दावे रद्द कर दिए गए जिसके कारण आज भी उनके ऊपर बेदखली की तलवार लटक रही है। इसी प्रकार 2007 में मायावती ने कुछ स्कूलों में दलित रसोइयों द्वारा मध्यान्ह भोजन बनाने का विरोध करने पर दलित रसोइयों की नियुक्ति के आदेश को ही वापस ले लिया था। इसके बाद भी आज तक मायावती की  नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं आया है और न ही उसमें किसी परिवर्तन की आशा ही दिखाई देती है। आज भी उसका ध्येय येन-केन-प्रकारेण सत्ता प्राप्त करना ही है। इससे स्पष्ट है कि दलित एजंडाविहीनता एवं दलित विरोधी नीतियों के लिए मायावती ही सीधे तौर पर जिम्मेदार है।

यह भी सर्वविदित है कि पूर्ववर्ती सरकारों की तरह मायावती के शासन काल में भ्रष्टाचार न  केवल जारी रहा बल्कि बढ़ा भी। मायावती का व्यक्तिगत भ्रष्टाचार भी किसी से छुपा हुआ नहीं है। दलित विरोधियों तथा अपराधियों को विधानसभा तथा लोकसभा के टिकट बोली लगा कर बेचना और दलितों का वोट दिला कर उन्हें जिताना किसी से छुपा नहीं हैं। मायावती ने दलितों को उन्हीं गुंडों/बदमाशों को वोट देने के लिए कहा जिनसे उनकी लड़ाई थी। इस प्रकार दलितों में अपने दोस्त और दुश्मन का भेद मिट गया और वे आँख बंद करके मायावती के आदेश का पालन करते रहे। इस प्रकार दलितों का मुक्ति संघर्ष अपने रास्ते से हट गया और वे मायावती के खरीदे हुए गुलाम बन कर रह गए। यह भी सर्वविदित है कि वर्तमान में मायावती मूर्तियों/स्मारकों में पत्थर घोटाला, एनआरएचएम घोटाला तथा 21 गन्ना  मिलें बेचने का घोटाला आदि में बुरी तरह से फंसी हुई है जिसकी जांच सीबीआई तथा ईडी कर रही है। इसके अतिरिक्त मायावती का अपना भाई काले धन का फर्जी कंपनियों में निवेश तथा मनी- लांडरिंग के मामले में फंसा हुआ है। ईडी मायावती के भाई का 400 करोड़ जब्त भी कर चुकी है।  सीबीआई तथा ईडी के डर से मायावती भाजपा के दबाव में रहती है तथा उसे स्वतंत्र तौर पर चुनाव न लड़के भाजपा के फायदे के लिए ही लड़ना पड़ता है जैसाकि हाल के विधान सभा चुनाव में हुआ भी है। ऐसी परिस्थिति में मायावती का ईमानदार राजनीति जिसकी दलितों को बहुत जरूरत है, करना बिल्कुल संभव नहीं है।

उपरोक्त संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट है कि वर्तमान परिस्थितियों में बसपा के नेतृत्व को बदलना बिल्कुल संभव नहीं है क्योंकि यह मायावती की जेबी पार्टी बन चुकी है। इस समय न तो पार्टी के अंदर और न ही बाहर से ही मायावती के नेतृत्व को कोई चुनौती दी जा सकती है। पार्टी के अब तक के कार्यकलाप से यह भी स्पष्ट है कि पार्टी की नीतियों में भी किसी प्रकार के परिवर्तन की कोई संभावना भी दिखाई नहीं देती है। ऐसे में एक ही विकल्प बचता है और वह है मायावती की  राजनीतिक गुलामी से मुक्त हो कर नए राजनीतिक विकल्प का निर्माण करना। वह विकल्प ग्लोबल फ़ाईनेन्स विरोधी, कार्पोरेटीकरण विरोधी, कृषि विकास, रोजगार को मौलिक अधिकार बनाने, मजदूर हितैषी, लोकतंत्र का रक्षक, समान गुणवत्ता वाली शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं तथा शांति एवं पड़ोसी देशों से मित्रतापूर्ण संबंध बनाने वाला होना चाहिए। हम लोगों ने पिछले 10 साल से आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट के रूप में इस प्रकार का विकल्प खड़ा किया है। आप इसके बारे में नेट पर aipfr.org पर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।                     

 

  

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

आरक्षण योग्यता के विपरीत नहीं'

आरक्षण योग्यता के विपरीत नहीं': सुप्रीम कोर्ट ने नीट में 27% ओबीसी कोटा बरकरार रखा

पीठ ने कहा कि प्रतियोगी परीक्षाएं समय के साथ कुछ वर्गों को अर्जित आर्थिक सामाजिक लाभ को नहीं दर्शाती हैं और उस योग्यता को सामाजिक रूप से प्रासंगिक बनाया जाना चाहिए।

अनंतकृष्णन जी द्वारा लिखित | नई दिल्ली |

21 जनवरी, 2022

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट)

 यह रेखांकित करते हुए कि "आरक्षण योग्यता के विपरीत नहीं है, लेकिन इसके वितरण परिणामों को आगे बढ़ाता है", सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि "खुली प्रतियोगी परीक्षा में प्रदर्शन की संकीर्ण परिभाषाओं में योग्यता को कम नहीं किया जा सकता है" और "एक परीक्षा में योग्यता के लिएउच्च अंक प्रॉक्सी नहीं हैं" । इसने कहा कि योग्यता को "सामाजिक रूप से प्रासंगिक और एक ऐसे उपकरण के रूप में पुनर्संकल्पित किया जाना चाहिए जो समानता जैसी सामाजिक वस्तुओं को आगे बढ़ाता है जिसे हम एक समाज के रूप में महत्व देते हैं"।

न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना की पीठ ने अपने 7 जनवरी के फैसले के कारण बताते हुए एक विस्तृत आदेश में यह कहा था, जिसमें राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा के लिए अखिल भारतीय कोटा में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा गया था। (NEET) स्नातक और स्नातकोत्तर चिकित्सा प्रवेश के लिए।

पीठ ने कहा कि "प्रतियोगी परीक्षाएं शैक्षिक संसाधनों को आवंटित करने के लिए बुनियादी वर्तमान क्षमता का आकलन करती हैं, लेकिन किसी व्यक्ति की उत्कृष्टता, क्षमताओं और क्षमता को प्रतिबिंबित नहीं करती हैं, जो कि जीवित अनुभवों, बाद के प्रशिक्षण और व्यक्तिगत चरित्र से भी आकार लेती हैं", वे "सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक लाभ जो कुछ वर्गों को प्राप्त होता है को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं और ऐसी परीक्षाओं में उनकी सफलता में योगदान देता है।"

यह बताते हुए कि कैसे आरक्षण का न्यायशास्त्र वास्तविक समानता को मान्यता देता है, न कि केवल औपचारिक समानता   पीठ ने कहा, "अनुच्छेद 15 (4) और 15 (5) अनुच्छेद 15 (1) के अपवाद नहीं हैं, जो वास्तविक समानता (मौजूदा असमानताओं की मान्यता सहित स्वयं के सिद्धांत को निर्धारित करता है। इस प्रकार, अनुच्छेद 15 (4) और 15 (5) वास्तविक समानता के नियम के एक विशेष पहलू का पुनर्कथन बन जाता है जिसे अनुच्छेद 15 (1) में निर्धारित किया गया है।

 

संविधान का अनुच्छेद 15 (4) राज्य को एससी और एसटी के लिए आरक्षण करने में सक्षम बनाता है जबकि अनुच्छेद 15 (5) इसे शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण करने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 15 (1) कहता है कि राज्य किसी भी नागरिक के साथ केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।

पीठ ने कहा कि "अनुच्छेद 15 (4) और 15 (5) समूह की पहचान को एक ऐसे तरीके के रूप में नियोजित करते हैं जिसके माध्यम से वास्तविक समानता प्राप्त की जा सकती है" और कहा "इससे एक असंगति हो सकती है जहां एक पहचाने गए समूह के कुछ व्यक्तिगत सदस्य जिसे आरक्षण दिया गया पिछड़ा नहीं हो सकता है या गैर-पहचाने गए समूह से संबंधित व्यक्ति जिसे किसी पहचाने गए समूह के सदस्यों के साथ पिछड़ेपन की कुछ विशेषताओं को साझा कर सकते हैं।“ ," यह कहा कि "व्यक्तिगत अंतर विशेषाधिकार, भाग्य या परिस्थितियों का परिणाम हो सकता है, लेकिन इसका उपयोग कुछ समूहों को होने वाले संरचनात्मक नुकसान को दूर करने में आरक्षण की भूमिका को नकारने के लिए नहीं किया जा सकता है।

योग्यता बनाम कोटा की अवधारणा पर चर्चा करते हुए, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पीठ के लिए लिखते हुए कहा, "एक खुली प्रतियोगी परीक्षा औपचारिक समानता सुनिश्चित कर सकती है जहां सभी को भाग लेने का समान अवसर मिलता है। हालांकि, शैक्षिक सुविधाओं की उपलब्धता और पहुंच में व्यापक असमानताओं के परिणामस्वरूप कुछ वर्ग के लोग वंचित हो जाएंगे जो इस तरह की प्रणाली में प्रभावी रूप से प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ होंगे। विशेष प्रावधान (जैसे आरक्षण) ऐसे वंचित वर्गों को आगे बढ़े वर्गों के साथ प्रभावी रूप से प्रतिस्पर्धा करने और इस प्रकार वास्तविक समानता सुनिश्चित करने में आने वाली बाधाओं को दूर करने में सक्षम बनाता है।

पीठ ने आगे बढ़े वर्गों के लिए उपलब्ध "विशेषाधिकारों" का उल्लेख किया और कहा कि ये "प्रतिस्पर्धी परीक्षा की तैयारी के लिए गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा और ट्यूटोरियल और कोचिंग केंद्रों तक पहुंच तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनके सामाजिक नेटवर्क और सांस्कृतिक पूंजी भी शामिल हैं। (संचार कौशल, उच्चारण, किताबें या अकादमिक उपलब्धियां) जो उन्हें अपने परिवार से विरासत में मिलती है।"

"सांस्कृतिक पूंजी यह सुनिश्चित करती है कि एक बच्चे को पारिवारिक वातावरण से अनजाने में उच्च शिक्षा या अपने परिवार की स्थिति के अनुरूप उच्च पद लेने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। यह उन व्यक्तियों के नुकसान के लिए काम करता है जो पहली पीढ़ी के शिक्षार्थी हैं और ऐसे समुदायों से आते हैं जिनके पारंपरिक व्यवसायों के परिणामस्वरूप खुली परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन करने के लिए आवश्यक कौशल का संचार नहीं होता है। उन्हें आगे बढ़े समुदायों के अपने साथियों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। दूसरी ओर, सामाजिक नेटवर्क (सामुदायिक संबंधों के आधार पर) तब उपयोगी हो जाते हैं जब व्यक्ति परीक्षा की तैयारी के लिए मार्गदर्शन और सलाह लेते हैं और अपने करियर में आगे बढ़ते हैं, भले ही उनके तत्काल परिवार के पास आवश्यक अनुभव न हो। इस प्रकार, पारिवारिक स्थिति, सामुदायिक जुड़ाव और विरासत में मिले कौशल का एक संयोजन कुछ वर्गों से संबंधित व्यक्तियों के लाभ के लिए काम करता है, जिसे तब 'योग्यता' के रूप में वर्गीकृत किया जाता है जो सामाजिक पदानुक्रमों को पुन: प्रस्तुत और पुष्टि करता है," यह कहा।

इसने 'बी के पवित्र बनाम भारत संघ' मामले में अदालत के फैसले का उल्लेख किया, जहां दो-न्यायाधीशों की खंडपीठ जिसमें न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ शामिल थे, ने देखा था कि "परीक्षा की तटस्थ प्रणाली सामाजिक असमानताओं को कैसे कायम रखती है"।

अदालत ने स्पष्ट किया कि "यह कहना नहीं है कि प्रतियोगी परीक्षा में प्रदर्शन या उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए बहुत अधिक मेहनत और समर्पण की आवश्यकता नहीं होती है, लेकिन यह समझना आवश्यक है कि 'योग्यता' केवल किसी की अपनी बनाई हुई नहीं है।"

"योग्यता के इर्द-गिर्द बयानबाजी परिवार, स्कूली शिक्षा, भाग्य और प्रतिभाओं के उपहार को अस्पष्ट करती है जिसे समाज वर्तमान में किसी की उन्नति में सहायता करता है। इस प्रकार, योग्यता का बहिष्करण मानक उन लोगों की गरिमा को कम करने का कार्य करता है जो अपनी उन्नति में बाधाओं का सामना करते हैं जो उनके स्वयं द्वारा निर्मित नहीं हैं। लेकिन एक परीक्षा में अंकों के आधार पर योग्यता के विचार की गहन जांच की आवश्यकता है,” पीठ ने कहा।

"हालांकि परीक्षाएं शैक्षिक अवसरों को बांटने का एक आवश्यक और सुविधाजनक तरीका है, लेकिन अंक हमेशा व्यक्तिगत योग्यता का सबसे अच्छा पैमाना नहीं हो सकता है। फिर भी अंक अक्सर योग्यता के लिए प्रॉक्सी के रूप में उपयोग किए जाते हैं। व्यक्तिगत क्षमता एक परीक्षा में प्रदर्शन से आगे निकल जाती है,” यह कहा।

"सर्वोत्तम रूप से, एक परीक्षा केवल एक व्यक्ति की वर्तमान क्षमता को प्रतिबिंबित कर सकती है, लेकिन उनकी क्षमता, क्षमताओं या उत्कृष्टता के सरगम ​​​​को नहीं, जो कि जीवित अनुभवों, बाद के प्रशिक्षण और व्यक्तिगत चरित्र से भी आकार लेते हैं। शैक्षिक संसाधनों के वितरण का एक सुविधाजनक तरीका होने पर भी योग्यता के अर्थ को अंकों तक कम नहीं किया जा सकता है।”

"कार्यों के औचित्य और सार्वजनिक सेवा के प्रति समर्पण को योग्यता के मार्कर के रूप में भी देखा जाना चाहिए, जिसका मूल्यांकन किसी प्रतियोगी परीक्षा में नहीं किया जा सकता है। समान रूप से, अभाव की स्थितियों से खुद को ऊपर उठाने के लिए आवश्यक धैर्य और लचीलापन व्यक्तिगत क्षमता को दर्शाता है,” यह कहा।

यह इंगित करते हुए कि आरक्षण सुनिश्चित करता है कि "अवसरों को इस तरह से वितरित किया जाता है कि पिछड़े वर्ग ऐसे अवसरों से समान रूप से लाभ उठाने में सक्षम होते हैं जो आमतौर पर संरचनात्मक बाधाओं के कारण उनसे वंचित रह जाते हैं", उन्होंने कहा, "यह एकमात्र तरीका है जिसमें योग्यता एक लोकतांत्रिक शक्ति हो सकती है" जो विरासत में मिली कमियों और विशेषाधिकारों की बराबरी करता है। अन्यथा, व्यक्तिगत योग्यता के दावे और कुछ नहीं बल्कि विरासत को छिपाने के उपकरण हैं जो उपलब्धियों का आधार हैं।

"हम योग्यता का आकलन कैसे करते हैं, अगर यह असमानताओं को कम करता है या बढ़ाता है," यह भी कहा गया है।

साभार: इंडियन एक्सप्रेस

 

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