सोमवार, 22 मार्च 2021

क्या धार्मिक शिक्षा हमारी शिक्षा संस्थाओं द्वारा दी जानी चाहिए? - आचार्य नरेन्द्रदेव

क्या धार्मिक शिक्षा हमारी शिक्षा संस्थाओं द्वारा दी जानी चाहिए?

- आचार्य नरेन्द्रदेव

(1 मार्च 1948 को लखनऊ रेडियो से राष्ट्र को संबोधन)

May be an image of text that says "क्या धार्मिक शिक्षा हमारी शिक्षा संस्थानों द्वारा दी जानी चाहिए? उत्तर: दिनांक 1 मार्च 1948 को लखनऊ रेडियो से राष्ट्र के नाम संबोधन। जिसे लोकतंत्र के हर सिपाही को जरूर जानना चाहिए| आचार्य नरेन्द्रदेव स्वतंत्रता सेनानी, काशी विश्वविद्यालय के कुलपति और प्रसिद्ध समाजवादी"

 

पुरानी दुनिया में धार्मिक शिक्षा बच्चों की शिक्षा का एक अविच्छिन्न अंग मानी जाती है। देवमंदिर या गिरजाघर समाज के जीवन का केंद्र हुआ करता था और जिस धर्म के मानने वाले जो लोग होते उसी धर्म के द्वारा उनके मन, बुद्धि और हृदयों का नियमन होता था। सत्तत्व का स्वरूप तथा पदार्थों के मूल्य का मान इत्यादि सभी बातें धार्मिक विश्वास से ही निर्धारित होती थी। पारलौकिक जीवन की आशा और मोक्ष पाने का आश्वासन होने से मनुष्य एहिक जीवन का भाग प्रसन्न और धीर होकर वहन करते थे। पर धीरे-धीरे विज्ञान ने आकर यह सारा ढंग बदल डाला और धर्म के स्थान में बुद्धि का युग प्रवर्तित हुआ। विज्ञान और उसकी कार्य- प्रणाली के प्रगमन के साथ मनुष्य का एहिक जीवन सुखी और समृद्ध बना सकने की एक विशेष आशा संचालित हुई। यही कारण है कि विज्ञान और प्रगति एक चीज समझे जाने लगे। विज्ञान के भरोसे स्वर्ग तक को दखल कर देख लेने की बात लोग सोचने लगे इस से ए आश्वासन मिला। इससे एक नया आश्वासन मिला, एक नया विश्वास जाग उठा। फलतः धीरे-धीरे धार्मिक विश्वास क्षीण होने लगे और मठ-मंदिरों या गिरजाघरों का पहले का सा प्रभाव मनुष्य के हृदयों पर नहीं रह गया। विज्ञान के प्रभाव के अतिरिक्त और  कई महत्वपूर्ण बातें ऐसी जुट गई जिससे ऐसी स्थिति बन गई। नए सामाजिक वाद निकल पड़े और नए राजनीतिक सिद्धांतों के मनों को अपने वश में कर लिया। साधारण मनुष्य ने अपनी दीर्घकालीन निंद्रा और उदासीनता त्याग दी और नया जीवन पाकर वह सर्वत्र चलने - फिरने लगा। धीरे-धीरे कर्मक्षेत्र के केंद्र पर उसने अपना प्रभाव डाला। इन सबसे एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गई जिसमें उसकी कोई उपेक्षा नहीं कर सकता था। वह अब पारलौकिक जीवन की अपेक्षा इसी अपने एहिक जीवन की बात अधिक सोचने लगा। स्वाभिमान और मानव गौरव की एक नवीन बुद्धि उसमें जागी और अपने अंदर ऐसी शक्ति अनुभव करने लगा जिससे इस दुनिया में वह अपना जीवन अधिक सुखी बना सकता है। पर अनुभव से उसने यह सीखा कि धार्मिक संस्थाएं शोषितों और दलितों (महिलाओं और दलितों) का पक्ष करने की बजाय यथावत स्थिति का ही समर्थन किया करती हैं और जनता की आर्थिक तथा सामाजिक दुःस्थिति के अमूल परिवर्तन का सदा विरोध ही करती हैं। उसने यह भी देखा कि धर्माचार्य की पीठ सरकार के महज पुछल्ले बन गये हैं और राष्ट्रों के पारस्परिक युद्धों में ये अपनी-अपनी सरकार का ही पक्ष लेकर अपने अनुयायियों को दूसरे राष्ट्रवालों की हत्या करने का उपदेश किया करते हैं। इसके अतिरिक्त, पढ़े लिख लोग भी धार्मिक अनुष्ठान और पूजा-पाठ आदि धर्म के बाह्य अंगों को अनावश्यक समझने लग गए। ये लोग अज्ञेयवादी बने और इलहाम अथवा ईसा की ऐतिहासिकता जैसे प्रश्नों की चर्चा होती थी।  श्रद्धा विरहित तर्क की कसौटी पर कसने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता था। ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में धार्मिक विश्वास का नष्ट होना ही अनिवार्य था। जिस किसी भी देश में पाश्चात्य संस्कृति और विचार पद्धति घुसी, वहां एक नया संशयवाद उठ खड़ा हुआ और पुराने विश्वास उखड़ने लगे।

हिंदुस्तान में जब ब्रिटिशों का राज्य हुआ तब यहां सार्वजनिक शिक्षा की एक ऐसी पद्धति चलाई गई जिससे धार्मिक शिक्षा पहले-पहल अलग कर दी गई। शिक्षा अंग्रेजी की दी जाए या प्राचीन संस्कृति की? इसके वाद-विवाद ने अंग्रेजों की जीत हुई और ईस्ट इंडिया कंपनी ने अंग्रेजी शिक्षा और पाश्चात्य विज्ञान से हिंदुस्तान के लोगों को लाभांवित करने का संकल्प लिया। सार्वजनिक शिक्षाल्यों में धार्मिक शिक्षा देने की कोई व्यवस्था नहीं की जा सकती थी क्योंकि विभिन्न धर्म संप्रदायों के लड़के इन विद्यालय में पढ़ने आते थे। अतः इन दुस्तर कठिनाइयों के कारण विदेशी सरकार ने सार्वजनिक विद्यालयों में केवल धर्म-निरपेक्ष शिक्षा की ही व्यवस्था की। इस नीति के कारण मुसलमान समाज बहुत काल तक इस नवीन शिक्षा पद्धति से कोई लाभ नहीं उठा सका। कारण, वह अपने धार्मिक विश्वासों और सिद्धांतो का विशेष कायल था और इस सिद्धांत को मानने वाला था कि धार्मिक शिक्षा, शिक्षा का अविच्छिन्न अंग है। नवीन शिक्षा ने पूर्वी और पश्चिमी संस्कृतियों के बीच संघर्ष उत्पन्न कर दिया और इसके फलस्वरुप नए सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन चल पड़े। हिंदुस्तान की बुद्धि बहुत अस्थिर हो गई और हमारे सामाजिक तथा धार्मिक विश्वासों का मूल्यांकन होने लगा। पुरातन धार्मिक पद्धतियों से शिक्षित लोगों का विश्वास उठ चला और पश्चिम के नए राजनैतिक सामाजिक और सामाजिक तत्त्वज्ञान हमारे आदर और मान के पात्र हुए।

मुस्लिम समाज में धीरे-धीरे अपने आपको इस नवीन शिक्षा पद्धति के अनुकूल बहुत कुछ बना लिया, पर वह बार-बार सरकार से आग्रह करता रहा कि मुस्लिम विद्यार्थियों के लिए धार्मिक शिक्षा का कुछ प्रबंध अवश्य होना चाहिए। सरकार ने इस हद तक यह बात मान ली कि उसने ऐसे सांप्रदायिक विद्यालय पृथक रूप से स्थापित करने को प्रोत्साहन देना स्वीकार किया जहां धार्मिक शिक्षा दी जा सके। पर सार्वजनिक विद्यालयों का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप ज्यों का त्यों बना रहा। लोकमत के साथ थोड़ी रियायत अवश्य ही की गई और अब जो नियम प्रचलित है वह यह है कि सरकारी स्कूलों कालेजों में धर्मनिरपेक्ष शिक्षा में बंधे हुए समय को छोड़कर अन्य समय में निम्नलिखित शर्तों पर धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है: -

1. स्कूल या कालेज का कोई अध्यापक धार्मिक शिक्षा का काम नहीं कर सकता, पर धार्मिक शिक्षक जो कोई होगा, संस्था के मुख्य चालक के अधीन रहेगा।

2. जिस संप्रदाय की बात हो उसी संप्रदाय को इसकी समुचित व्यवस्था करनी होगी और शिक्षा के लिए होने वाला खर्च चलाना होगा।

3.अपने बच्चों को धार्मिक शिक्षा दिलाना या न दिलाना बच्चों के माता-पिता की मर्जी पर होगा ।

4. सहायता प्राप्त शिक्षा संस्थाएं चाहें तो अपने यहां पर शर्त पर धार्मिक शिक्षा दे सकती हैं कि विवेक-बुद्धि के सर्वमान्य अधिकारों का आदर बना रहे।

स्कूलों में धार्मिक शिक्षा के प्रश्न पर समय समय पर सरकार द्वारा नियुक्त कमेटी से बार-बार विचार किया गया है, पर इस विषय में कोई साग्रह और सर्वाधिक मांग नहीं दिख पड़ती थी।

सन् 1938 में युक्त प्रदेश की सरकार ने प्रारंभिक और उच्च शिक्षा के पुनर संघटन का विचार करने के लिए जो कमेटी नियुक्त की थी, उसने इस प्रश्न का विचार किया था। उसकी मुख्यतः यही राय रही कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। पर मतैक्य के लिए उसने इसका निर्णय सरकार पर छोड़ दिया क्योंकि राज्य की नीति के साथ यह प्रश्न संबद्ध है।

जब से राष्ट्रीय सरकार स्थापित हुई है तब से इस प्रश्न का फिर से विचार होने लगा है और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद जैसे महान व्यक्ति जो न केवल हमारे शिक्षा मंत्री हैं, प्रयुक्त उदार भाव और प्रगतिशील विचार के पूर्ण और गतिमान विद्वान हैं, उनका भी समर्थन हाल ही में इसे प्राप्त हुआ है।

नए जमाने की बुराइयों को दूर करने के लिए आमतौर धार्मिक शिक्षा का ही उपाय बतलाया जाता है। पाश्चात्य देशों में लोगों का विश्वास विज्ञान पर से और इसलिए इस उन्नति से भी उठ चला है क्योंकि विज्ञान का दुरुपयोग हो रहा है और कुपथ में उसकी प्रवृत्ति है। उन देशों में आजकल धर्म और गुप्त विद्या की ओर लोगों की रूचि फिर से हो रही है। लोग कोई ऐसी चीज चाहते हैं जिस पर वें अपना विश्वास टिका सकें, पर पुराने धर्म - संप्रदायों से उन्हें संतोष नहीं होता। वह कोई नया धर्म, नया इलहाम ढूंढ रहे हैं, पर यह धर्म या इलहाम उन्हें मिले, इससे पहले वे निराशावादी तत्वज्ञानों से घिर गए हैं कुछ जीवन की कठिन वस्तुस्थितियों से भागकर गुप्त विद्या और पुराने धार्मिक विश्वास का आश्रय ढूंढते हैं, कुछ जीवन को दुख में देख निराश होकर बैठ जाते हैं। किसी में वह जीवन विश्वास ही नहीं रह गया जिसकी जीवन के लिए सबसे अधिक आवश्यकता है। मनुष्य केवल तर्क से नहीं जी सकता उसे धारण करने और प्रेरणा पाने के लिए विश्वास की आवश्यकता होती है। पर यह विश्वास धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए और उससे भविष्य के लिए आध्यात्मिक आश्वासन मिलना चाहिए।

परंतु हमारे देश की हालत अभी इस दर्जे तक नहीं पहुंची है। हम अभी अभी स्वाधीन हुए हैं और अभी हमने अपनी यात्रा का आरंभ किया है। हमें कई नवीन प्रश्न हल करने हैं और निर्माण का काम हमारे सामने है। हमें स्वाधीनता का और प्रगति पर विश्वास है। निराशा और संशय से हम ग्रस्त नहीं हैं पर एक भिन्न प्रकार के सांस्कृतिक संकट ने हमें घेरा है। हमारी समाज नीति के पुराने रोग पहले से बहुत ही अधिक उग्र रूप में उभर रहे हैं और हमें नष्ट करना चाहते हैं। ये रोग हैं दलवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद और प्रांतवाद। गैरसरकारी सेनाओं को गैर - कानूनी करार देने और संप्रदाय मूलक राजनीतिक संगठनों पर रोक लगाने मात्र से यह बुराई समूल नष्ट होने वाली नहीं है। बीमारी अस्थि-मज्जा के अंदर घुसी बैठी है। हमें अपने बच्चों को नवीन शिक्षा देनी होगी और समस्त जनता का मन भी बदलना होगा। तभी कोई महान कार्य बन सकता है। अपने नवयुवकों को हमें ऐसा बनाना होगा कि धार्मिक द्वेष और शत्रुता का संप्रदाय उन पर अपना कोई असर नहीं डाल सके। उन्हें लोकतंत्र और अखंड मानवता के आदर्शों की शिक्षा देनी होगी, तभी हम सांप्रदायिक सामंजस्य और सद्भाव, चिरंतन आधार पर स्थापित कर सकेंगे।

सांप्रदायिक मेल उत्पन्न करने की सदिच्छा से ही कदाचित स्कूलों के पाठ्यक्रम में धार्मिक शिक्षा के समावेश की बात कही जाती है। पर लोग क्षमा करें मुझे कहना ही पड़ता है कि यह दवा बीमारी से भी अधिक घातक सिद्ध होगी। धार्मिक शिक्षा के समर्थन में यह कहा जा सकता है कि सभी धर्म मूलतः एक ही हैं और सही दृष्टि से देखा जाए तो ऐसा धर्म एकत्व-साधन की ही एक शक्ति है। मैं मानता हूं कि कुछ सर्वव्यापक तत्व ऐसे हैं जो सब धर्मों में समान हैं। पर ऐसे भी कुछ तत्त्व हैं जो एक-एक संप्रदाय में अपने-अपने विशेष हैं। जनता जिस धर्म को समझती है और पालन करती है वह तो विशिष्ट विधियुक्त कर्म और पूजा पाठ ही है और ये सब संप्रदायों में अलग-अलग है। सीधी और सच्ची बात यही है कि धर्म, समाज की एक घातक शक्ति है।

राष्ट्रीय सरकार का काम है कि वह इन विभिन्नताओं को पीछे कर दे और सबके लिए समान चीजों को आगे करे जो सबको मिलाती और विभिन्न प्रकार के लोगों को एकत्व में बांधती है। स्कूलों के पाठ्यक्रम में धार्मिक शिक्षा का समावेश करने से ये सांप्रदायिक भेद विशेष रुप से उन बच्चों के सामने आएंगे जिन्हें इन भेदों का अभी कोई ज्ञान नहीं है। यह कहा जा सकता है कि धार्मिक शिक्षा का एक स्वास्थ्यकर प्रभाव होता है और धर्मध्यापक यदि योग्य हुए तो धार्मिक शिक्षा का कोई वैसा अनर्थकारी परिणाम नहीं हो सकता। पर यह कहते हुए लोग इस बात को भूल जाते हैं कि ऐसे धर्मध्यापक जो धर्म के बाह्यांग की अपेक्षा, मूल तत्व के अधिक विश्वासी हैं, बहुत ही कम हैं। कुछ लोगों का यह बौद्धिक विश्वास हो सकता है कि सब धर्म मूलतः एक है, पर इनके हृदयों में भी अपने ही वैयक्तिक धर्म की श्रेष्ठता का विश्वास जमा हुआ होता है। आज के शिक्षित लोग जो धर्म शब्द के वास्तविक अर्थ में धार्मिक रह ही नहीं गए हैं, यद्यपि अपने राजनीतिक स्वार्थों के साधन में इन धार्मिक विश्वासों और भावों से काम लेते उन्हें कोई संकोच नहीं होता।  

फिर यह बात भी हमें ध्यान में रखनी चाहिए कि कोई बच्चा धर्म और चरित्र की बातें मौखिक शिक्षा से नहीं सीखा करता। उसके चारों ओर जो परिस्थिति होती है उसी से उसे प्रेरणा मिलती है। दर्जे दर्जे में बैठकर जो मौखिक शिक्षा वह कान से सुनता है उससे उसका चरित्र उतना प्रभावित नहीं होता बल्कि उसके अध्यापकों, माता पिता और पड़ोसियों के चरित्र उस पर अपना पूरा प्रभाव डालते हैं।  अतः उदाहरणार्थ, यदि हम अपने बच्चों को सेवा भाव सिखाना चाहें तो सेवाभाव के गुणों की प्रशंसा करने से बच्चों के वैसे भाव नहीं बनेंगे, बल्कि उन्हें सेवा करने के अवसर देने से दूसरों की सेवा करने में जो सुख और आनंद है, वह उन्हें प्राप्त होगा

सांप्रदायिकता को दूर करने का एकमात्र उपाय सबका जीवन ध्येय एक-सा बनाना है और सबके लिए सहयोगयुक्त प्रयास के अवसर निर्माण करना है। पथभ्रष्ट युवक को उसकी भूल दिखा कर सही रास्ते पर ले आने का तरीका यही है कि कर्ममय जीवन की उसकी सहज इच्छा को नष्ट करें और राष्ट्र के हितार्थ और शिष्टता के साथ अपने जीवन-निर्वाहार्थ उसे कोई उपयोगी काम सौंपें। हिंदुस्तान का इतिहास एक नवीन कार्य को लेकर पुनः लिखना होगा और हमारी समान सांस्कृतिक परंपरा एक एक बच्चे तक पहुंचानी होगी। सामाजिक लोकतंत्र हमें यह विश्वास प्रदान करता है जिससे हम जी सकते हैं विश्वास के बल पर मानव अखंडता साध सकते हैं और अंत में उन कृत्रिम दीवारों को ढाह सकते हैं जो हम लोगों ने एक दूसरे से अलग करने के लिए धर्म और जात-पात ने खड़ी की हैं। हमें अपनी समान राष्ट्रीयता को सिद्ध करने के लिए किसी इलहाम से कोई सांत्वना पाने की आवश्यकता नहीं है। इलहामों के दिन लद गए। उनकी परख हो चुकी है वे खरे नहीं उतरे। हमारा यह नवीन युग हमसे वह नया कार्य कराना चाहता है जो वर्तमान धर्म संप्रदायों द्वारा पूरा नहीं हो सकता। किसी समन्वययुक्त धर्म से भी काम नहीं चलेगा चाहे वह कितना ही प्रबुद्ध और वैज्ञानिक क्यों न हो। धर्म और विज्ञान का कोई युक्तिसंगत मेल बैठाना भी संभव नहीं प्रतीत होता।

लोकतंत्र और मानव तथा सामाजिक मान से मूल्यांकन, इन दो बातों पर विश्वास ही हमारे लिए बस है। यदि यह विश्वास है तो विज्ञान के बल से हम मानव अस्तित्व के उद्देश्यों को सिद्ध कर सकते हैं।

शिक्षा देने वाले का काम है कि शिक्षा पद्धति में नया सुधार करें और पाठ्यक्रम के अतिरिक्त ऐसे काम निकाले जिससे बच्चों को स्कूल के अंदर की परिस्थिति से ही उन सामाजिक आदर्शों और चारित्रिक दृष्टांतों की शिक्षा मिले जो राष्ट्र को उत्तम बनाने में साधक होते हैं। हमारी शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे विचार और भावों की एकता परिपुष्ट हो ताकि मन, बुद्धि और हृदय की एकता साधित हो सकें।

धार्मिक शिक्षा से लोग और भी अधिक हठधर्मी और सांप्रदायिक बनेंगे, वह उदार और व्यापक दृष्टि उनकी न होगी जो राष्ट्रीय एकता के लिए इतनी आवश्यक है। सांप्रदायिकता से हमारे राष्ट्र को जो खतरा है उसे जो लोग समझते और उसकी तीव्र वेदना अनुभव करते हैं, उन्हें चाहिए कि वे एकत्र होकर इस दैत्य से जूझने के साधन और उपाय करें। दूरदर्शी और विश्वासी नेता ही इस सांस्कृतिक संकट से तारने में हमारी मदद कर सकेंगे।

 

 

मंगलवार, 9 मार्च 2021

आज का अधिनायकवादी शासन लोकतंत्र के लिए बहुत अधिक हानिकारक है

 

आज का अधिनायकवादी शासन लोकतंत्र के लिए बहुत अधिक हानिकारक है

-    लेखक ज्ञान प्रकाश

(अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: एस आर दारपुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट)

 

“ यह कि प्रधानमंत्री ने जिस देश में अवतार लिया है, वह इंदिरा गांधी के तहत 1975-77 के आपातकाल और नरेंद्र मोदी के तहत भारत में समकालीन मामलों के बीच समानता को बताता है; पूर्व के विपरीत, मोदी का "अधिनायकवादी शासन" "कार्यकारी द्वारा आपातकालीन शक्तियों की धारणा" पर आधारित नहीं है”- ज्ञान प्रकाश, प्रिंसटन विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर और कई उच्च प्रशंसित पुस्तकों के लेखक, "मुंबई दंतकथाएं" कहते हैं, जिसे फिल्म "बॉम्बे वेलवेट" के लिए अनुकूलित किया गया था, और हाल ही में रिलीज़ हुई “Emergency Chronicles, Indira Gandhi and Democracy’s Turning Point”  "आपातकालीन इतिहास: इंदिरा गांधी और लोकतंत्र में बदलाव का बिन्दु"।

अपनी नवीनतम पुस्तक में, जिसने सुनील खिलनानी और प्रताप भानु मेहता, जो 2006 में अपने विघटन तक प्रभावशाली सबाल्टर्न स्टडीज कलेक्टिव के सदस्य थे, प्रकाश चौधरी ने जोरदार समर्थन दिया है। इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी के शासन के बीच तुलना करना। उन्होंने कहा कि "हिंदुत्व मूल रूप से लोकतांत्रिक विरोधी है" पुस्तक में कहा गया है कि "हिंदुत्व विचारधाराएं अपने विभिन्न विचार को राष्ट्र विरोधी के रूप में नापसंद करती हैं"।

यह पूछे जाने पर कि इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए उन्होंने क्या किया और भारतीय लोकतंत्र पर इसका क्या प्रभाव पड़ा, प्रकाश ने कहा कि दोनों स्थितियां बिल्कुल समान नहीं हैं, लेकिन दोनों समानताएं और अंतर को प्रकट कर रहे हैं।

मोदी का सत्तावादी शासन, प्रकाश ने कहा, दो कारकों के संयोजन से है।

पहले, भाजपा सरकार राज्य की केंद्रीकृत शक्तियों का उपयोग और दुरुपयोग करती है ताकि संस्थानों को कमजोर किया जा सके और इसे राष्ट्र-विरोधी करार दिया जा सके। दूसरा, इंदिरा गांधी के आपातकाल के विपरीत, जिसे कभी भी लोकप्रिय समर्थन नहीं मिला, नरेंद्र मोदी की सरकार विपक्ष को डराने के लिए हिंदुत्ववादी ताकतों को जमीन पर तैनात करने में सक्षम है। इसके अलावा, इसे कॉर्पोरेट मीडिया, विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से समर्थन प्राप्त है, "प्रकाश ने न्यूजर्सी के एक ईमेल में आईएएनएस को बताया, यह याद करते हुए कि आपातकाल के दौरान कोई निजी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं था, और सरकार द्वारा नियंत्रित मीडिया की कभी भी पहुंच और प्रभाव इतना नहीं था जो आज है।

"इन कारणों से, सत्तावादी सत्ता आज लोकतंत्र के लिए कहीं अधिक अशुभ है," उन्होंने कहा।

उन्होंने कहा कि लोकतंत्र के द्वारपाल इसके संस्थान हैं - राजनीतिक दल, कानून का शासन, एक स्वतंत्र प्रेस और असंतोष व्यक्त करने के लिए रास्ते।

"आप अपने संस्थानों के बिना समानता के लोकतंत्र के वादे को पूरा नहीं कर सकते।" एक व्यक्ति या एक कार्यालय में सत्ता का केंद्रीकरण इन संस्थानों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता है। भारत में कुछ लोग ऐसे थे जिन्होंने 2014 में भाजपा की जीत का स्वागत किया, भले ही वे इसकी हिंदुत्व विचारधारा से सहमत नहीं थे। उन्होंने सोचा कि क्योंकि भाजपा अनुभवी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नेताओं के साथ एक उचित राजनीतिक पार्टी थी, और कांग्रेस जैसे एक परिवार के प्रति निष्ठा नहीं थी, इसलिए यह लोकतांत्रिक संस्थानों का सम्मान और मजबूत करेगी। लेकिन एक बड़े व्यक्तित्व के लिए अपने नेतृत्व की तेजस्वी कमी का मतलब है कि पार्टी में कई और अलग-अलग विचारों की अभिव्यक्ति के लिए जगह लगभग रातोंरात अनुबंधित हो गई है। इसलिए, भाजपा ने एक राजनीतिक दल के रूप में, लोकतंत्र के द्वारपाल के रूप में अपनी भूमिका निभाने की संभावना व्यक्त की है।

पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया द्वारा प्रकाशित पुस्तक में, प्रकाश का तर्क है कि हिंदू राष्ट्रवाद के उभार ने नरेंद्र मोदी को उस तरह की स्थिति में पहुंचा दिया है जिस तरह इंदिरा ने केवल आपातकाल पर कब्जा कर लिया था। यह पूछे जाने पर कि क्या उनका सुझाव है कि समकालीन भारत में एक अघोषित आपातकालीन है, उन्होंने कहा कि यह शब्द एक गलत और भ्रामक समानता को दर्शाता है।

आपातकाल एक बहुत ही विशिष्ट राज्य कार्रवाई थी, कानून का एक कानूनी निलंबन। लेकिन इंदिरा के कठोर कानूनों और अधिकारों के दुरुपयोग ने कभी भी सड़क पर अपने समर्थकों को नहीं बुलाया। यह तथ्य कि उसे औपचारिक रूप से प्रेस, न्यायपालिका के साथ मध्यस्थता, और जेल में एक लाख से अधिक लोगों को जगह देने के संकेत थे, यह संकेत था कि उसकी शक्ति में लोकप्रिय समर्थन की कमी थी। 20 सूत्री कार्यक्रम, नसबंदी ड्राइव, झुग्गी निकासी अभियान और नियंत्रित अर्थव्यवस्था के माध्यम से तोड़ने के प्रयासों को लागू करने के लिए जबरदस्ती की तैनाती ने संकेत दिया कि जमीनी स्तर पर उसके शासन के साथ सब कुछ ठीक नहीं था। यही कारण है कि उसने अपने शासन और उसके नीतिगत एजेंडे को उबारने के लिए आपातकाल का सहारा लिया।

उन्होंने कहा कि आज की स्थिति बहुत अलग है।

आज हम विकास और राष्ट्र के नाम पर राज्य शक्ति और लोकलुभावन लामबंदी के एक अभूतपूर्व संयोजन का गवाह हैं। हां, सत्ता का बढ़ता केंद्रीकरण है, और संस्थानों पर हमले, अधिकार का दुरुपयोग, आदि, लेकिन जो वर्तमान संदर्भ को मौलिक रूप से अलग बनाता है वह यह है कि शीर्ष पर ले जाने वाले नीचे से जुटते हैं। राज्य और समाज के बीच यह समन्वय - जानबूझकर या नहीं - एक मौलिक तरीके से लोकतंत्र को धमकी देता है, एक जिसे अघोषित आपातकाल ’शब्द द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता है, प्रकाश ने आगे कहा।

उन्होंने कहा कि कांग्रेस 1975-77 की विरासत के बारे में कभी समझौता नहीं कर पाई है, और इसे आधे माफी और आधे के औचित्य के साथ नहीं, बल्कि इसे स्पष्ट रूप से संबोधित करने की जरूरत है।

उन्होंने कहा, "लेकिन माफी और स्वीकारोक्ति से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि लोकतंत्र की प्रतिज्ञा को साकार करने के लिए भारतीय राजनीतिक प्रणाली की गहरी और निरंतर विफलता को पहचानना है," उन्होंने कहा, "आपातकाल के इतिहास" में कई अध्यायों की ओर इशारा करते हुए जो कमियों के साथ लोकप्रिय असंतोष का वर्णन करने के लिए समर्पित हैं। इसे जेपी आंदोलन में अभिव्यक्ति मिली।

उन्होंने कहा, "यह आवश्यक है कि उस आसान मिथक को ध्वस्त किया जाए, जो हमें यह विश्वास दिलाता है कि लोकतंत्र के साथ भारत के अनुभव में मौलिक रूप से कुछ भी नहीं है, और यह कि सभी समस्याएं इंदिरा के साथ शुरू और समाप्त हुईं," उन्होंने कहा।

साभार: आयूटलुक

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