शनिवार, 29 अप्रैल 2017

योगी सरकार द्वारा दलित युवाओं की काउंसलिंग केवल नाटक- दारापुरी

योगी सरकार द्वारा दलित युवाओं की काउंसलिंग केवल नाटक- दारापुरी
लखनऊ, 29 अप्रैल, 2017:
“योगी सरकार द्वारा दलित युवाओं की काउंसलिंग केवल नाटक” - यह बात आज एस.आर.दारापुरी, भूतपूर्व आई.जी. एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने प्रेस को जारी बयान में कही है. उनका कहना है कि इस द्वारा योगी सरकार दलितों को उच्च शिक्षा से हटा कर उन्हें छोटे मोटे कारीगर बना कर निम्न स्तर के मजदूर बनाना चाहती है. इसके पूर्व भी भाजपा सरकार द्वारा जिन युवाओं को “कौशल विकास” कार्यक्रम के अंतर्गत प्रशिक्षण दिया गया है- एक तो उन्हें अब तक कोई रोज़गार उपलब्ध नहीं कराया गया है और दूसरे इससे उनकी आगे की पढ़ाई भी ठप हो गयी है.  यह भी उल्लेखनीय है कि पिछले दो सालों में सबसे कम रोजगारों का सृजन हुआ है जिस कारण  दलित एवं अन्य युवाओं के सामने बेरोज़गारी की समस्या बढ़ गयी है.  इसी दौरान सरकारी तथा निजी क्षेत्र में रोज़गार के अवसर बढ़ने की बजाये कम ही हुए हैं. आरक्षण का दायरा भी लगातार सिकुड़ता जा रहा है. यह ज्ञातव्य है कि पूर्व में राजीव गाँधी सरकार ने भी स्कूलों में नौवीं क्लास से रोजगारपरक प्रशिक्षण देने की योजना चलाई थी परन्तु इसका भी कोई ठोस लाभ दलित युवाओं को नहीं मिला था.
श्री दारापुरी ने आगे कहा है कि दरअसल दलित युवाओं की समस्या उनका शैक्षिक पिछड़ापन तथा बेरोज़गारी  है. उदाहरण के लिए 2001 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में केवल 3% दलित स्नातक तथा 0.1% व्यवसायिक तथा गैर व्यवसायिक डिप्लोमाधारी थे. दलितों में से 27% प्राईमरी, 18.5% मिडिल तथा केवल 13% हाई स्कूल तथा हायर सैकंडरी पास थे. शिक्षा के इस निम्न स्तर के कारण दलित उच्च तकनीकी तथा गैर तकनीकी नौकरियों में नहीं जा पाते. अतः दलितों के शिक्षा के स्तर को सुधारने की आवश्यकता है जिसके लिए सबको सरकारी अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा उपलब्ध करायी जानी चाहिए. इसके विपरीत भाजपा भी पूर्व सरकारों की तरह सरकारी शिक्षा व्यवस्था को कमज़ोर/समाप्त करके निजी महँगी शिक्षा को बढ़ावा दे रही है और इसके साथ ही शिक्षा के लिए सालाना बजट में भी निरंतर कटौती कर रही है.
अतः आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट यह मांग करता है कि सरकार दलित युवाओं की काउंसलिंग का नाटक करने की बजाये दलितों सहित सभी बच्चों के लिए सरकारी तौर पर अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा की व्यवस्था करे तथा वर्तमान दोहरी शिक्षा व्यवस्था को समाप्त कर “नेबरहुड स्कूल” व्यवस्था को लागू करे. इसके साथ ही रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने तथा बेरोज़गारी भत्ता देने की व्यवस्था भी लागू की जाये.
एस.आर. दारापुरी
राष्ट्रीय प्रवक्ता,
आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

मोब: 9415164845    

मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

भाजपा के आंबेडकर प्रेम का सच - एस.आर.दारापुरी

भाजपा के आंबेडकर प्रेम का सच  
-एस.आर. दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट







उत्तर प्रदेश में भारी बहुमत से चुनाव जीतने के बाद भातीय जनता पार्टी (भाजपा) को यह अहसास हुआ है कि इस चुनाव में उसे सबसे अधिक आरक्षित सीटें मिली हैं क्योंकि दलितों का एक बड़ा हिस्सा उसकी तरफ आ गया है. इस सफलता में उस द्वारा पिछले कुछ वर्षों से आंबेडकर के प्रति दिखाए गए प्रेम का भी काफी बड़ा हाथ है. दलितों को आकर्षित करने के लिए उसने दलित नेताओं को भाजपा में शामिल  करने के साथ साथ आंबेडकर को भी हथियाने के गंभीर प्रयास किये हैं. एक तरफ जहाँ उसने इंग्लॅण्ड में डॉ. आंबेडकर के पढ़ाई के दौरान रहने वाले मकान को खरीद कर स्मारक का रूप दिया है वहीँ दूसरी तरफ बम्बई में उनके रहने के  स्थान पर एक भव्य स्मारक बनाने हेतु भूमि का अधिग्रहण भी किया है. पिछले साल मोदीजी ने दिल्ली में बाबासाहेब के निवास स्थान पर एक भव्य स्मारक बनाने का शिलान्यास भी किया था.  
 आगामी 14 अप्रैल को आंबेडकर जयंती के अवसर पर भाजपा ने डॉ. आंबेडकर को आगे हथियाने के प्रयास में पूर्व की अपेक्षा इसे बहुत बड़े स्तर पर मनाने की घोषणा की है. इसके अनुसार उस दिन बाबासाहेब के चित्र पर माल्यार्पण एवं उनका स्तुति गान करने के साथ साथ प्रत्येक मंडल स्तर पर बृहद समुदायक सहभोज का आयोजन भी किया गया है जिसमे भाजपा के सभी नेता अधिक से अधिक संख्या में भाग लेंगे. इसके बाद वे दलितों की सेवा बस्तियों में जायेंगे और उनके साथ अपनी एकता प्रदर्शित करेंगे.
आरएसएस और बीजेपी शुरू से ही जाति-विरोधी नजरिया रखते रहे हैं और अंतरजातीय सहभोज उसका एक पहलु रहा है. आरएसएस विचारधारा के स्तर पर जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ रहा है यद्यपि वह जाति के उच्छेद की वकालत नहीं करता है परन्तु जाति के मुद्दे पर वह रोटी-बेटी के सम्बन्ध द्वारा इसे व्याखित करता रहा है. इसके इलावा वह तथा उसके अनुषांगिक संगठन अधिक से अधिक लोगों को अपने में शामिल करने के लिए  “एक मंदिर, एक शमशान घाट तथा एक कुआं” की वकालत करते रहे हैं. इसके पीछे उनका मंशा अपने संगठन में भोजन, पूजा स्थल और पानी के श्रोत सम्बन्धी भेदभाव को समाप्त करना रहा है.
आरएसएस और भाजपा द्वारा अधिक से अधिक दलितों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए जो कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं या डॉ. आंबेडकर को हथियाने के लिए जो आयोजन किये जा रहे हैं क्या उनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि वह वास्तव में वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था को समाप्त करके समतामूलक समाज की स्थापना के पक्षधर बन गए हैं. इसके साथ ही क्या यह कहा जा सकता है कि आरएसएस या भाजपा (पूर्व जनसंघ) जिसने डॉ. आंबेडकर का उनके जीते जी इतना कड़ा विरोध किया था का हृदय परिवर्तन हो गया है और उन्होंने उन्हें पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है. इसके साथ ही वे डॉ. आंबेडकर के हिन्दू राष्ट्र के प्रबल समर्थक और कट्टर मुस्लिम विरोधी होने की बात को भी जोर शोर से प्रचारित करते रहे हैं. अतः इस विषय का गहन विश्लेषण करने की ज़रुरत है.
अपने प्रसिद्ध लेख “राज्य और क्रांति” में लेनिन ने कहा है, “मार्क्स की शिक्षा के साथ आज वही हो रहा है, जो उत्पीड़ित वर्गों के मुक्ति-संघर्ष में उनके नेताओं और क्रन्तिकारी विचारकों की शिक्षाओं के साथ इतिहास में अक्सर हुआ है. उत्पीड़क वर्गों ने महान क्रांतिकारियों को उनके जीवन भर लगातार यातनाएं दीं, उनकी शिक्षा का अधिक से अधिक बर्बर द्वेष, अधिक से अधिक क्रोधोन्मत घृणा तथा झूठ बोलने और बदनाम करने की  अधिक से अधिक अंधाधुंध मुहिम द्वारा स्वागत किया. लेकिन उन की मौत के बाद उनकी क्रन्तिकारी शिक्षा को सारहीन करके, उसकी क्रन्तिकारी धार को कुंद करके, उसे भ्रष्ट करके उत्पीड़ित वर्गों को “बहलाने”, तथा धोखा देने के लिए उन्हें अहानिकर देव-प्रतिमाओं का रूप देने, या यूँ कहें, उन्हें देवत्व प्रदान करने और उनके नामों को निश्चित गौरव प्रदान करने के प्रयत्न किये जाते हैं.” क्या आज आंबेडकर के साथ भी यही नहीं किया जा रहा है?
पिछले वर्ष हमारे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी ने आंबेडकर राष्ट्रीय मेमोरियल के शिलान्यास के अवसर पर डॉ. आंबेडकर मेमोरियल लेक्चर दिया था जिस में उन्होंने डॉ. आंबेडकर के कृत्यों की प्रशंसा करते हुए अपने आप को आंबेडकर भक्त घोषित किया था. उनकी यह घोषणा भाजपा की हिंदुत्व की भक्ति के अनुरूप ही है क्योंकि भक्ति में आराध्य का केवल गुणगान करके काम चल जाता है और उस की शिक्षाओं पर आचरण करने की कोई ज़रुरत नहीं होती. तब मोदी जी ने भी डॉ. आंबेडकर का केवल गुणगान किया था जबकि उन की शिक्षाओं पर आचरण करने से उन्हें कोई मतलब नहीं है. यह गुणगान भी लेनिन द्वारा उपर्युक्त रणनीति के अंतर्गत किया जा रहा है. कौन नहीं जानता कि भाजपा की हिन्दुत्ववादी विचारधारा और आंबेडकर की समतावादी विचारधारा में छत्तीस का आंकड़ा है. आइये  इस के कुछ पह्लुयों का विवेचन करें-
अपने भाषण में मोदी जी ने कहा था- कि डॉ. आंबेडकर ने जाति के विरुद्ध लडाई लड़ी थी परन्तु कौन नहीं जानता कि भाजपा का जाति और वर्ण व्यवस्था के बारे में क्या नजरिया है. डॉ. आंबेडकर ने तो कहा था कि जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज की स्थापना हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य है परन्तु भाजपा और उसकी जननी आरएसएस तो समरसता (यथास्थिति) के नाम पर जाति और वर्ण की संरक्षक है. मोदी जी का जीभ कटने पर दांत न तोड़ने का दृष्टान्त भी इसी समरसता अर्थात यथास्थिति का ही प्रतीक है.   
मोदी जी ने अपने भाषण में बाबा साहेब की मजदूर वर्ग के संरक्षण के लिए श्रम कानून बनाने के लिए प्रशंसा की थी. परन्तु मोदी जी तो मेक-इन-इंडिया के नाम पर सारे श्रम कानूनों को समाप्त करने पर तुले हुए हैं. जिन जिन प्रदेशों में भाजपा की सरकारें हैं वहां वहां पर श्रम कानून समाप्त कर दिए गए हैं. पूरे देश में सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र में नियमित मजदूरों की जगह ठेकेदारी प्रथा लागू कर दी गयी है जिस से मजदूरों का भयंकर शोषण हो रहा है. बाबा साहेब तो मजदूरों की राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी के प्रबल पक्षधर थे. यह भी सर्वविदित है कि वर्तमान में मजदूरों के कल्याण सम्बन्धी जितने भी कानून हैं वे अधिकतर डॉ. आंबेडकर द्वारा ही बनाये गए थे जिन्हें वर्तमान सरकार एक एक करके समाप्त कर रही है या कमज़ोर बना  रही है.
बाबा साहेब के बहुचर्चित “शिक्षित करो, संघर्ष करो और संगठित करो” के नारे को बिगाड़ कर “शिक्षित हो, संगठित हो और संघर्ष करो” के रूप में प्रस्तुत करते हुए मोदी जी ने कहा था कि बाबा साहेब शिक्षा को बहुत महत्व देते थे और उन्होंने शिक्षित हो कर संगठित होने के लिए कहा था ताकि संघर्ष की ज़रुरत ही न पड़े. इस में भी मोदी जी का समरसता का फार्मूला ही दिखाई देता है जबकि बाबा साहेब ने तो शिक्षित हो कर संघर्ष के माध्यम से संगठित होने का सूत्र दिया था. बाबा साहेब तो समान, अनिवार्य और सार्वभौमिक शिक्षा के पैरोकार थे. इस के विपरीत वर्तमान सरकार शिक्षा के निजीकरण की पक्षधर है और शिक्षा के लिए बजट में निरंतर कटौती करके गुणवत्ता वाली शिक्षा को आम लोगों की पहुँच से बाहर कर रही है.
अपने भाषण में आरक्षण को खरोच भी न आने देने की बात पर मोदी जी ने बहुत बल दिया था. परन्तु उन्होंने वर्तमान में आरक्षण पर सब से बड़े संकट पदोन्नति में आरक्षण सम्बन्धी संविधान संशोधन का कोई उल्लेख नहीं किया था. इसके साथ ही दलितों की निजी क्षेत्र और न्यायपालिका में आरक्षण की मांग को बिलकुल नज़रंदाज़ कर दिया जाता रहा है. उन्होंने यह भी नहीं बताया कि निजीकरण के कारण आरक्षण के निरंतर घट रहे दायरे के परिपेक्ष्य में दलितों को रोज़गार कैसे मिलेगा. इसके अतिरिक्त आरएसएस के अलग अलग पदाधिकारी आरक्षण की समीक्षा तथा इसका आर्थिक आधार बनाये जाने की मांग करते रहे हैं.
मोदी जी ने इस बात को भी बहुत जोर शोर से कहा था कि डॉ आंबेडकर औद्योगीकरण के पक्षधर थे परन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि वे निजी या सरकारी किस औद्योगीकरण के पक्षधर थे. यह बात भी सही है कि भारत के औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण में जितना योगदान डॉ. आंबेडकर का है उतना शायद ही किसी और का हो. उन्होंने यह महान कार्य 1942 से 1946 तक वायसराय की कार्यकारिणी समिति के श्रम सदस्य के रूप में किया था परन्तु इसके लिए उन्हें कोई भी श्रेय नहीं दिया गया.. डॉ. आंबेडकर ने ही उद्योगों के लिए सस्ती बिजली, बाढ़ नियंत्रण और कृषि सिचाई के लिए ओडिसा में दामोदर घाटी परियोजना बनाई थी. बाद में इसके अनुसरण में ही देश में बहुउद्देशीय हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट्स बने थे. इस के लिए उन्होंने ही सेंट्रल वाटर एंड पावर कमीशन तथा सेंट्रल वाटरवेज़ एंड नेवीगेशन कमीशन की स्थापना की थी. हमारा वर्तमान पावर सप्लाई सिस्टम भी उनकी ही देन है.
 यह सर्विदित है कि बाबासाहेब राजकीय समाजवाद के प्रबल समर्थक थे जब कि मोदी जी तो निजी क्षेत्र और न्यूनतम गवर्नेंस के सब से बड़े पैरोकार हैं. बाबासाहेब तो पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद को दलितों के सब से बड़े दुश्मन मानते थे. मोदी जी का निजीकरण और भूमंडलीकरण बाबासाहेब की समाजवादी अर्थव्यवस्था की विचारधारा के बिलकुल विपरीत है.
मोदी जी ने डॉ. आंबेडकर की एक प्रख्यात अर्थशास्त्री के रूप में जो प्रशंसा की थी वह तो ठीक है. परन्तु बाबासाहेब का आर्थिक चितन तो समाजवादी और कल्याणकारी अर्थव्यस्था का था जिस के लिए नोबेल पुरूस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने उन्हें अपने अर्थशास्त्र का पितामह कहा है. इसके विपरीत मोदी जी का आर्थिक चिंतन और नीतियाँ पूंजीवादी और कार्पोरेटपरस्त हैं.
अपने भाषण में मोदी जी ने कहा था कि डॉ. आंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल को लेकर महिलायों के हक़ में अपने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. यह बात तो बिलकुल सही है कि भारत के इतिहास में डॉ. आंबेडकर ही एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने दलित मुक्ति के साथ साथ हिन्दू नारी की मुक्ति को भी अपना जीवन लक्ष्य बनाया था और उन के बलिदान से भारतीय नारी को वर्तमान कानूनी अधिकार मिल सके हैं. बाबासाहेब ने तो कहा था कि मैं किसी समाज की प्रगति का आंकलन उस समाज की महिलायों की प्रगति से करता हूँ. इस के विपरीत भाजपा सरकार की मार्ग दर्शक आरएसएस तो महिलायों को मनुस्मृति वाली व्यवस्था में रखने की पक्षधर है.
मोदी जी ने डॉ. आंबेडकर का लन्दन वाला घर खरीदने, बम्बई में स्मारक बनाने और दिल्ली में आंबेडकर स्मारक बनाने का श्रेय भी अपनी पार्टी को दिया था. वैसे तो मायावती ने भी दलितों के लिए कुछ ठोस न करके केवल स्मारकों और प्रतीकों की राजनीति से ही काम चलाया है. भाजपा की स्मारकों की राजनीति उसी राजनीति की पूरक है. शायद मोदी जी यह जानते होंगे कि बाबा साहेब तो अपने आप को बुत पूजक नहीं बुत तोड़क कहते थे और वे व्यक्ति पूजा के घोर विरोधी थे. बाबा साहेब तो पुस्कालयों, विद्यालयों और छात्रावासों की स्थापना के पक्षधर थे. वे राजनीति में किसी व्यक्ति की भक्ति के घोर विरोधी थे और इसे सार्वजनिक जीवन की सब से बड़ी गिरावट मानते थे. परन्तु भाजपा में तो मोदी जी को एक ईश्वरीय देन मान कर पूजा जा रहा है.
अपने भाषण में मोदी जी ने दलित उद्यमिओं को प्रोत्साहन देने का श्रेय भी लिया था. मोदी जी जानते होंगे कि इस से कुछ दलितों के पूंजीपति या उद्योगपति बन जाने से इतनी बड़ी दलित जनसँख्या का कोई कल्याण होने वाला नहीं है. दलितों के अंदर कुछ उद्यमी तो पहले से ही रहे हैं. दलितों का कल्याण तो तभी होगा जब सरकारी नीतियाँ जनपक्षीय होंगी न कि कार्पोरेटपरस्त. दलितों की बहुसंख्या आबादी भूमिहीन तथा रोज़गारविहीन है जो उनकी सब से बड़ी कमजोरी है. अतः दलितों के सशक्तिकरण के लिए भूमि-आबंटन और रोज़गार गारंटी ज़रूरी है जो कि मोदी सरकार के एजंडे में नहीं है.   
उपरोक्त संक्षिप्त विवेचन से स्पष्ट है कि अपने भाषण में मोदी जी द्वारा डॉ. आंबेडकर का किया गया गुणगान उन्हें केवल राजनीति के लिए हथियाने का प्रयास मात्र है. उन्हें डॉ. आंबेडकर की विचारधारा अथवा शिक्षाओं से कुछ भी लेना देना नहीं है. सच तो यह है कि भाजपा और उसकी मार्ग दर्शक आरएसएस की नीतियाँ तथा विचारधारा डॉ. आंबेडकर  की समतावादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक विचारधारा के बिलकुल विपरीत है. वास्तविकता यह है कि भाजपा सहित अन्य  राजनैतिक पार्टियाँ भी डॉ. आंबेडकर को हथिया कर दलित वोट प्राप्त करने की दौड़ में लगी हुयी हैं जब कि किसी भी पार्टी का दलित उत्थान का एजंडा नहीं है. अब यह दलितों को देखना है कि क्या वे इन पार्टियों के दलित प्रेम के झांसे में आते हैं या डॉ. आंबेडकर से सही प्रेरणा लेकर अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष का मार्ग अपनाते हैं.  

                     


शनिवार, 25 मार्च 2017

दलित राजनीति की विफलता और विकल्प की आवश्यकता

दलित राजनीति की विफलता और विकल्प की आवश्यकता
- एस. आर. दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

हाल में उत्तर प्रदेश के चुनाव ने दर्शाया है कि दलित राजनीति एक बार फिर बुरी तरह से विफल हुयी है. इस चुनाव में बहुमत से सरकार बनाने का दावा करने वाली दलितों की तथाकथित बहुजन समाज पार्टी (बसपा) 403 में से केवल 19 सीटें ले कर तीसरे नंबर पर रही है. यद्यपि 2009 (लोक सभा) और 2012 (विधान सभा) चुनाव में इस पार्टी का अवसान बराबर दिखाई दे रहा था परन्तु 2014 के लोक सभा चुनाव में इसका पूरी तरह से सफाया हो गया था और इसे एक भी सीट नहीं मिली थी. इसी तरह 2007 के बाद बसपा के वोट प्रतिशत में भी लगातार गिरावट आयी है जो 2007 में 30% से गिर कर 2017 में 23% पर पहुँच गया है। यद्यपि बसपा सुप्रीमो मायावती ने बड़ी चतुराई से इस विफलता  का मुख्य कारण ईवीएम मशीनों की गड़बड़ी बता कर अपनी जुम्मेदारी पर पर्दा डालने की कोशिश की है परन्तु उसकी अवसरवादिता, भ्रष्टाचार, तानाशाही, दलित हितों की अनदेखी और जोड़तोड़ की राजनीति के हथकंडे किसी से छिपे नहीं हैं. बसपा के पतन के लिए आज नहीं तो कल उसे अपने ऊपर जुम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी.
दलित राजनीति की विफलता का यह पहला अवसर नहीं है. इससे पहले भी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया इसी प्रकार की विफलता का शिकार हो चुकी है. जब तक यह पार्टी डॉ. आंबेडकर की विचारधारा का अनुसरण करती रही तब तक यह फलती फूलती रही परन्तु जैसे ही यह नेताओं के व्यक्तिवाद, अवसरवाद और मुद्दाविहिनता का शिकार हुयी इसका पतन शुरू हो गया और अब यह खंड खंड हो चुकी है. पूर्व में उत्तर प्रदेश में भी इस पार्टी की शानदार उपलब्धियां रही हैं. 1962 में उत्तर प्रदेश में इस पार्टी के 4 सांसद और 8 विधायक थे तथा 1967 में इसका एक सांसद और 10 विधायक थे. उसके बाद इसका विघटन शुरू हो गया.  उस दौरान पार्टी का एक प्रगतिशील एजंडा था और यह संघर्ष और जनांदोलन में विश्वास रखती थी. इस पार्टी ने ही 1964 में 6 दिसंबर से देशव्यापी भूमि आन्दोलन शुरू किया था. इस आन्दोलन में 3 लाख से अधिक आन्दोलनकारी गिरफ्तार हुए थे और तत्कालीन कांग्रेस सरकार को इसकी सभी मांगें माननी पड़ी थीं जिस में भूमि आवंटन मुख्य मांग थी. इसके बाद कांग्रेस ने इसके नेताओं की व्यक्तिगत कमजोरियों का लाभ उठा कर तथा उन्हें पद तथा अन्य लालच देकर तोड़ना शुरू कर दिया. परिणामस्वरूप 1970 तक आते आते यह पार्टी कई टुकड़ों में बंट गयी और आज इसके नेता व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए अलग अलग पार्टियों से समझौते करके अपना पेट पाल रहे हैं.
अब अगर उत्तर भारत ख़ास करके उत्तर प्रदेश में बसपा के उत्थान को देखा जाये तो यह एक तरीके से आरपीआई के पतन की प्रतिक्रिया का ही परिणाम था. कांशी रामजी ने आरपीआई के अवशेषों पर ही बसपा का नवनिर्माण किया था. वास्तव में शुरू में आरपीआई के अधिकतर कार्यकर्ता ही इसमें शामिल हुए थे और दलितों के मध्यवर्ग का इसे बड़ा सहयोग मिला था. 1993 में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन से इसे बड़ी सफलता मिली थी और सपा-बसपा की सरकार बनी थी. उस समय दलितों, पिछड़ों और मुसलामानों का एक शक्तिशाली गठबंधन बना था और इसका सन्देश पूरे भारत में गया था. परन्तु दुर्भाग्य से कुछ निजी स्वार्थों के कारण यह गठबंधन जल्दी ही टूट गया. इस परिघटना की सबसे घातक बात यह थी कि इसमें दलितों की घोर विरोधी पार्टी भारतीय जनता पार्टी से समर्थन लिया गया था. इसके बाद भी इसी प्रकार दो बार फिर भाजपा से गठजोड़ किया गया जोकि मायावती के व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए तो ठीक था परन्तु दलित हितों के लिए घातक था. इससे दलितों में एक दिशाहीनता का विकास हुआ और वे दोस्त और दुश्मन का भेद करना भूल गए. जिस ब्राह्मणवादी विचारधारा से उनकी लड़ाई थी उसी से उन्हें दोस्ती करने के लिए आदेशित किया गया. बाद में मायावती ने दलित राजनीति को उन्हीं गुंडों, बदमाशों, माँफियायों और दलित उत्पीड़कों के हाथों बेच दिया जिनसे उनकी लड़ाई थी.
यद्यपि बसपा चार बार सत्ता में आई परन्तु उसने कभी भी अपना दलित एजंडा घोषित नहीं किया. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि तथाकथित दलित सरकार तो बनी परन्तु दलितों के सशक्तिकरण के लिए कोई भी योजना लागू नहीं की गयी. इसके फलस्वरूप दलितों का भावनात्मक तुष्टिकरण तो हुआ और उनमें कुछ हद तक स्वाभिमान भी जागृत  हुआ परन्तु उनकी भौतिक परिस्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं आया है. सामाजिक-आर्थिक एवं जाति जनगणना-2011 के आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण भारत में 56% परिवार भूमिहीन हैं जिन में से लगभग 73% दलित तथा 79%  आदिवासी परिवार हैं. ग्रामीण दलित परिवारों में से 45% तथा आदिवासियों में से 30% परिवार केवल हाथ की मजदूरी करते हैं. इसी प्रकार ग्रामीण दलित परिवारों में से केवल 18.35% तथा आदिवासी परिवारों में से 38% खेतिहर हैं. इस जनगणना से एक यह बात भी उभर कर आई है कि हमारी जनसँख्या का केवल 40% हिस्सा ही नियमित रोज़गार में है और शेष 60% हिस्सा अनियमित रोज़गार में है जिस कारण वे अधिक समय रोज़गारविहीन रहते हैं.
सामाजिक एवं आर्थिक जनगणना से यह भी उभर कर आया है कि ग्रामीण क्षेत्र में दलितों की दो सबसे बड़ी कमजोरियां हैं: एक है भूमिहीनता और दूसरी है केवल हाथ का श्रम. यह बड़े खेद की बात है कि यद्यपि मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्य मंत्री रही है परन्तु उसने 1995 के काल को छोड़ कर दलितों को न तो भूमि आवंटन किया और न ही ज़मीनों पर कब्ज़े ही दिलवाए. इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि ग्रामीण दलित आज भी भूमि मालिकों पर मजदूरी, टट्टी पेशाब तथा जानवरों के लिए घास-पट्ठा के लिए आश्रित हैं. इस कमजोरी के कारण वे अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों का भी प्रभावी ढंग से प्रतिकार नहीं कर पाते. ऐसा लगता है कि शायद दलितों को कमज़ोर तथा आश्रित बना कर रखना मायावती की राजनीति का हिस्सा रहा है.
यह देखा गया है कि जब से देश में नवउदारवादी नीतियाँ लागू हुयी हैं तब से दलित इसका सबसे बड़ा शिकार हुए हैं. कृषि और स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश की कटौती का सबसे बुरा असर दलितों पर ही पड़ा है.  देश में रोज़गार सृजन की गति में गिरावट भी दलितों के लिए बहुत घातक सिद्ध हुयी है. निजीकरण के कारण सरकारी नौकरियों में आरक्षण भी निष्प्रभावी हो गया है. परन्तु मायावती ने दलितों पर पड़ने वाले इन दुष्प्रभावों को पूरी तरह से नज़रंदाज़ किया है. दरअसल मायावती भी दलितों के साथ उसी प्रकार की राजनीति करती रही है जैसीकि मुख्यधारा की पार्टियाँ करती आई हैं. उसने भी दलितों को स्वावलंबी बनाने तथा उनका सशक्तिकरण करने की बजाये केवल प्रतीकों की राजनीति करके उन्हें अपने वोट बैंक के तौर पर ही देखा है. मायावती के इस रवैये के कारण भी दलितों का उससे मोहभंग हुआ है.
बसपा की जाति की राजनीति ने हिंदुत्व को कमज़ोर करने की बजाये उसे मज़बूत ही किया है जिसका लाभ भाजपा ने उठाया है. इसी कारण वह दलितों की अधिकतर उपजातियों को हिंदुत्व में समाहित करने में सफल हुयी है. यह भी विदित है कि जाति जोड़ने की नहीं बल्कि तोड़ने की प्रक्रिया है.  अतः जाति की राजनीति की भी यही परिणति होना स्वाभाविक है. बसपा के साथ भी यही हुआ है. एक तरफ जब यह बात जोरशोर से प्रचारित की गयी कि बसपा मुख्यतया चमारों और जाटवों की पार्टी है तो दलितों की अन्य उपजातियों का प्रतिक्रिया में जाना स्वाभाविक था. पिछले कई चुनावों  से यही होता आया है. उत्तर प्रदेश में दलितों की अधिकतर उपजातियां बसपा से अलग हो कर भाजपा, सपा तथा कांग्रेस की तरफ चली गयी हैं. कुछ हद तक जाटव और चमार वोट भी बसपा से अलग हो गया है.
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि उत्तर भारत में बसपा की जाति की राजनीति अवसरवादिता, सिद्धान्हीनता, दलित हितों की उपेक्षा और भ्रष्टाचार का शिकार हो कर विफल हो चुकी है. अतः इस परिपेक्ष्य में दलितों को अब एक नए रैडिकल विकल्प की आवश्यकता है. यह विकल्प जातिहित से ऊपर उठकर वर्गहित पर आधारित होना चाहिए ताकि इसमें सभी वर्गों के समान परिस्थितियों वाले लोग बिना किसी जातिभेद के शामिल हो सकें. आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने इस दिशा में पहल की है. आप इसके संविधान, नीतियों एवं कार्यक्रमों के बारे में www.aipfr.org पर विस्तार से पढ़ सकते हैं. यदि आप को यह विकल्प अच्छा लगे तो इसे अवश्य अपनाएं.

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

बर्बरता के विरुद्ध: पुजारियों की पैदावार

बर्बरता के विरुद्ध: पुजारियों की पैदावार: साथी अमर के लगातार सहयोग के चलते इस बार हम फ्रंटलाइन के जुलाई 4-17, 2009 के अंक में छपे एक लेख का अनुवाद 'बर्बरता के विरुद्ध' पर दे...

मोदी के दलित या दलितों के मोदी: बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में जाति-राजनीति की भूलभलैया को कैसे पछाड़ा

मोदी के दलित या दलितों के मोदी: बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में जाति-राजनीति की भूलभलैया को कैसे पछाड़ा
-सत्याकी राय तथा पंकज सिंह
(अनुवादकीय नोट: इस लेख में बहुत अच्छी तरह से बताया गया है कि इस चुनाव में भाजपा ने किस तरह से जाति की राजनीति का इस्तेमाल अपने पक्ष में किया है. दरअसल जाति की राजनीति ने हिंदुत्व की ताकतों को ही मज़बूत किया है. इसका मुकाबला केवल जाति की राजनीति को छोड़ कर वर्गहित आधारित जनवादी राजनीति से ही किया जा सकता है.- एस.आर. दारापुरी )
उत्तर और पच्छिम भारत में अपने वर्चस्व को मज़बूत करने के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और उसके रणनीतिकार दलित जनसख्या के बड़े हिस्से को जीतना चाहते हैं. अब तक यह प्रक्रिया बहुत आसान नहीं रही है.
उत्तर प्रदेश की दलित आबादी का एक बड़ा हिस्सा बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती का नियमित वोटर रहा है जिस कारण पिछले कुछ चुनावों में उसके वोट बैंक में बहुत गिरावट नहीं आई है.
इस बीच गुजरात और महाराष्ट्र में उच्च जातियों और निचली जातियों की राजनीति का अतिवादीकरण (रैडीकलायिज़ेशन) हुआ है. इसमें जिग्नेश मवानी और हार्दिक पटेल जैसे नेताओं का उभार तथा खामोश मराठा प्रदर्शनों द्वारा आरक्षण विरोध यह दर्शाता है कि जाति पुनरुत्थान और राजनीतिक अस्थिरता कितनी क्षणभंगुर है. इस परिदृश्य में मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह साथ बनाने के लिए बहुत कुछ करने के लिए तैयार हैं और हम लोग देखेंगे कि भारत में लोकतंत्र असंभव गठजोड़ों की तरफ जाने वाला है.
परन्तु दलितों को अपने वोट आधार में शामिल करने की उनकी इच्छा नयी नहीं है. छत्तीसगढ़ में 2013 के चुनाव से पहले बीजेपी ने दलित वोटों को जोड़ने के प्रयास में बौद्ध भिक्षुओं को घुमाया था. चुनाव में उन्होंने 10 में से 9 आरक्षित सीटें जीत ली थीं. यह उत्तर प्रदेश में अप्रैल से अक्तूबर 2016 की 6 माह की धम्म चेतना यात्रा का पूर्वगामी था. इसके दौरान बौद्ध भिक्षुयों ने प्रदेश में लगभग 1000 बुद्ध तथा आंबेडकर मूर्तियों को माल्यार्पण किया. बीजेपी का दावा है इस दौरान वे 40 से 50 लाख लोगों से मिले.
मई, 2016 में सिंहस्थ कुम्भ मेला में अमित शाह ने शिप्रा नदी में दलित साधुयों के साथ स्नान किया.  2015 और 2016 के दौरान लन्दन में आंबेडकर के बंगले का अधिग्रहण किया गया तथा उसे "शिक्षा भूमि" बनाने की नींव रखी गयी.
धम्म देशना यात्रा के दौरान यह पर्चे बांटे गए कि इस शिक्षा भूमि में दलित विद्यार्थियों को मुफ्त सुविधाएँ दी जाएँगी. 2016 में डॉ. आंबेडकर की 125वीं जयंती के अवसर पर आरएसएस की साप्ताहिक पत्रिका पञ्चजन्य और इसके अंग्रेज़ी संस्करण अर्गेनाईज़र के विशेष अंक निकाले गए.
मोदी ने आंबेडकर के जन्मस्थान मऊ में रैली की और उसे एक मुख्य पर्यटन केंद्र बनाने की घोषणा की.  मोदी आंबेडकर के अंतिम संस्कार वाले स्थल "चैत्य भूमि" पर भी गए. बीजेपी ने बुद्ध से जुड़े पांच तीर्थों पर भी आयोजन किये.
इन महीनों में सबसे बड़ा अवरोध गुजरात में गौरक्ष्कों द्वारा ऊना में दलितों की पिटाई थी. रातों रत दलित इकठ्ठा हो गए और मायावती गुजरात गयी और उसने दलितों से अपील की. ऊना के बाद कहा गया कि इससे बीजेपी का चुनाव में नुकसान होगा.
परन्तु बीजेपी के गुणाभाग ने इन घटनाओं का मुकाबला किया. यह क्षेत्रिय एकजुटता के अभाव के कारण संभव हुआ. या यह हो सकता है कि गोहत्या या इस पर प्रतिबंध का चुनाव पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा. इससे यह स्पष्ट हो गया है कि बहुत सारे मतदाता गौहत्या पर प्रतिबंध या वैरभाव वाले धार्मिक मूल्यों को मुख्य चुनाव समस्या नहीं मानते.
उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा इलाहाबाद और अन्य स्थानों पर बुच्चड़खानों  की तालाबंदी इस श्रेणी में आते हैं. इसका उत्तर भारत में दलित मतदाताओं पर उतना ही असर पड़ेगा जितना चमड़े के धंधे पर परन्तु यह चुनाव पर बहुत प्रभाव डालने वाला नहीं है.
2017 के चुनाव में बीजेपी दलित वोटों को जाटवों और गैर-जाटवों में बाँटने में सफल रही. बीजेपी ने मायावती की उपजाति वाले जाटवों को जोकि राज्य की कुल दलित आबादी का 57% हैं को केवल 23 टिकट दिए. इसके मुकाबले में उसने यूपी की दूसरी बड़ी दलित उपजाति पासी को 21 टिकट दिए. उन्होंने बसपा से कम जुड़ाव रखने वाली दलित उपजातियों जैसे धोबी, खटीक, कोरी और बल्मिकियों को 36 टिकट दिए.
इस बार 85 आरक्षित सीटों में से बीजेपी ने 69 सीटें जीत ली हैं जबकि 2012 में उसे केवल 3 ही मिली थीं. उसने 403 सीटों में कुल 80 दलित खड़े किये थे जबकि मायावती ने 87 खड़े किये थे.
इस बीच अमित शाह अलग अलग निचली जातियों के समारोहों में शामिल हुए थे. उन्होंने  छोटी अतिपिछड़ी जातियों जैसे गोड, लोहार, कुम्हार और मल्लाह अदि के साथ सौदेबाज़ी की. इसके नतीजे देखने लायक हैं. मायावती का वोटबैंक थोडा कम हुआ है जबकि बीजेपी का वोट बैंक बहुत बढ़ा है. दूसरे तो डूब ही गए हैं.
अकादिमीशियन और मुख्यधरा का मीडिया बीजेपी को सवर्णों की पार्टी कहते हैं, जो शीर्ष पर है भी, बीजेपी ने जाति की राजनीति की भुलभलैया को सफलतापूर्वक समझा है और उसे खेला है. इसके कारण अब स्पष्ट हैं.
 जाति दावेदारी बीजेपी की रणनीति नहीं है जैसी कि कभी थी. सच्चाई यह है कि जहाँ वे एक तरफ जाति समूहों से मोलतोल करते रहे हैं वहीँ वे एक अकेले मजबूत नेता की छवि भी पेश करते रहे हैं. अपने नेता की छवि को आरएसएस के इतिहास से अलग करके वे रणनीतिक चालबाजी खेलने में सफल रहे हैं.
 अगर मायावती बेचैन नवयुवकों की अपेक्षाओं का अवतार बनने में असफल रही तो वहीँ मोदी ने इस भूमिका को बखूबी निभाया. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मोदी और शाह इस समय और युग में सूचना और प्रभाव कैसे काम करते हैं, को अच्छी तरह समझते हैं. उसने हाल में कहा है कि लोग खबर को टीवी चैनल और अखबार की अपेक्षा मोबाइल फोन से अधिक ग्रहण करते हैं
.मोदी इस मुख्य तथ्य को समझाते हैं कि आज कल चुनाव को व्हाट्सअप ग्रुप और यूट्यूब विडिओ से प्रभावित किया जा सकता है. विश्वस्तर पर बुद्धिजीविओं ने भी माना है ट्विटर-प्रेरित "अरब स्प्रिंग" आन्दोलन तकनीकी विकास और उदार मूल्यों के फैलने से ही संभव हुआ था.
मोदी और शाह की रणनीतियों को दो तरीकों से देखा जा सकता है: एक यह हो सकता है कि बीजेपी अब वास्तव में दलितों और देश में अन्य निचली जातियों के लिए नीतियाँ और प्रोग्राम बनाएगी. मोदी के अनुयायी इस वक्त यही विश्वास दिलाना चाहेंगे जिसमे कोई आपत्ति नहीं है. इसके इलावा बीजेपी सचमुच में एक उच्च- जातीय पार्टी होते हुए भी निचली जातियों के सशक्तिकरण के लिए काम करने वाली अलग पार्टी भी बन जाएगी. यह एतहासिक होगा. पार्टी में उच्च जातियां और संघ परिवार इसकी हिमायत करें या न करें. यदि ऐसा होता है तो इसमें संदेह है कि उनके सामने बहुत विकल्प होंगे.
दूसरा यह हो सकता है कि मोदी और शाह केवल सद्भावना प्रदर्शन और प्रेरक नेतृत्व के वादों द्वारा दलित समुदाय के कुछ हिस्सों को मना लें और उनको कुछ सीटें देने के इलावा  वास्तव में कोई सत्ता नहीं देना चाहते हैं. परन्तु अगर हम फ़्रांसिसी विद्वान् क्रित्स्टोफ जैफर्लोट द्वारा प्रदर्शित कांग्रेस की शुरू की चुनाव रणनीतियों को देखें तो बिलकुल यही किया गया था.
कांग्रेस ने निचली जातियों को कभी भी सत्ता में सही हिस्सेदारी नहीं दी बल्कि उनके नेताओं और मुद्दों को अपने एजंडे का हिस्सा बना लिया. अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि मोदी और बीजेपी का उभार उच्च जातियों की पार्टियों द्वारा पूर्व में निचली जातियों के वोट को इकठ्ठा करने हेतु अपनाये गए हत्थ्कंडों का ही परिणाम मात्र है. इसमें कुछ भी नया नहीं है. इसमें कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है कि बेहतर नेताओं ने बेहतर खेल खेला है.
(फर्स्ट पोस्ट डाट काम से साभार)

मंगलवार, 21 मार्च 2017

क्रांति से अभी कोसों दूर , मायाजी ! -- मीरा नंदा

क्रांति से अभी कोसों दूर , मायाजी ! -- मीरा नंदा



(अनुवादकीय नोट: यद्यपि मीरा नंदा ने यह लेख 2007 में मायावती के चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के समय तहलका मैगज़ीन में अंग्रेजी में लिखा था परन्तु इसमें उसने मायावती की सर्वजन की राजनीति से उपजे जिन खतरों और कमजोरियों को डॉ. आंबेडकर के माध्यम से इंगित किया था, आज वे सभी सही साबित हुयी हैं. मायावती हिंदुत्व को रोकने में सफल होने की बजाये स्वयम उसमें समा गयी है. मीरा नंदा की अम्बेडकरवाद की समझ बहुत गहरी और व्यापक है.- एस.आर. दारापुरी) 
मायावती के चुनाव अभियान में भीम राव आंबेडकर का नाम बार बार आता है . परन्तु क्या संविधान निर्माता उसकी राजनीति की तारीफ करते? मीरा नंदा ने चुनाव उपरांत इन दोनों के बीच वार्तालाप की कल्पना की है.

लखनऊ, रविवार, 13 मई, 2007
आधी रात गुजर चुकी थी, और मायावती थकी हुयी थी. उसका दिन राज्यपाल हाउस पर मुख्य मंत्री के पद की शपथ ग्रहण में गुजरा था. यह एक भव्य दृश्य था- उसके पीछे उसके 50 मंत्री बड़ी भीड़ और कैमरों की चमक. मायवती एक लम्बी दौड़ के बाद समाप्ति रेखा को छूने वाले विजेता की तरह, उत्साही परन्तु थकी हुयी थी.  वह तकिये पर सर रखते ही सो गयी. उस पर डॉ. आंबेडकर की मूर्ती जिसे उसने दिन में आंबेडकर पार्क में हार पहनाया था सजीव हो उठी और बोलना शुरू किया जैसा कि सपने में मूर्तिया बोलने लगती हैं.

आंबेडकर:  मायाजी आज आप को पार्क में अपने बहुत साथियों के साथ देख कर बहुत अच्छा लगा. अपने भारतीय भाईयों को इतने जोश, उत्साह और आशा के साथ वोट डालते देख कर  बहुत अच्छा लगा.
मायावती: पूज्य बाबासाहेब! क्या शुभ मुहूर्त है कि आप के दर्शन  मिले. ( आंबेडकर के चरण छूने के लिए झुकती है )
आंबेडकर:  (पीछे हट जाते हैं और अभिवादन में हाथ जोड़ते हैं). कृपया मेरे सामने अथवा किसी दूसरे के सामने भी अपने आप को मत झुकाइये. मुझे याद आया कि अब आप मुख्य मंत्री हैं. आप ने अपने पिछले तीन बार के मुख्यमंत्री काल में बहुत उत्साह दिखाया था. मेरी मूर्तियाँ खड़ी करने की बजाये जनता के पैसे  को बेहतर ढंग से खर्च करने के तरीके हैं.
मायावती:  आप हमारे मार्गदर्शक हैं. आप की मूर्तियों से दलित जनता में आत्मविश्वास और स्वाभिमान को प्रेरणा मिलती है.
आंबेडकर:  मैं उनके संघर्षों से द्रवित हो जाता हूँ और मुझे उनकी उपलब्धियों पर अभिमान होता है. परन्तु प्रेरणा लेने के लिए उन्हें मेरी मूर्तियों की ज़रुरत नहीं है.
.मायावती:  हम जिस तरह से आप के विचारों पर काम कर रहे हैं उस पर आप को बहुत गर्व होगा. हम ने उत्तर प्रदेश में जो क्रांति शुरू की है वह आप की विचारधारा का रूपान्तर है. जब कांशी राम जी थे हम लोगों ने बसपा में  "बाबा तेरा मिशन अधूरा, कांशी राम करेंगे  पूरा" का नारा लगाया था.
आंबेडकर:  मैं आप की इसी "सामाजिक क्रांति" के बारे में ही तो बात करने के लिए आया हूँ. मैंने सुना है कि बहुत से विद्वान लोग आप की तुलना माओ से कर रहे हैं, वामपंथी पत्रकार जाति पिरामिड को पलटने के लिए आप की तारीफ कर रहे हैं, दक्षिण पंथी हिन्दू उग्रवादी जाति समरसता को बढ़ाने के लिए आप की प्रशंसा कर रहे हैं. मैं इन प्रशंसकों में शामिल नहीं हो सकता. यह मेरे सपनों की क्रांति नहीं है. मुझे गलत मत समझना: एक चमार की बेटी के इतना ऊपर उठने पर मुझे खुशी है. मैं आपकी और कांशी राम की अपने दलित भाईयों, जिन्हें अब तक केवल वोट बैंक समझा जाता था, को लामबंद करने के लिए प्रशंसा करता हूँ. और आप ने एक जीतने वाले राजनीतिक गठजोड़ को अंजाम दिया है. मुझे विश्वास है आप एक अच्छी चेस खिलाड़ी बन सकती हैं.
मायावती:  सब आप की कृपा है, बाबासाहेब! हम आप के शिष्य हैं. हम अम्बेडकरवाद को लागू कर रहे हैं.
आंबेडकर:  परन्तु जैसा मैं कह रहा था, मैं आप के अम्बेडकरवाद के साथ असहज महसूस कर रहा हूँ. यह तो मेरी विचारधारा के साथ भद्दा मजाक है. मेरे विचार में लोकतंत्र केवल उपरी समानता और समयबद्ध चुनाव जीतने का नाम नहीं है. यह तो समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा और न्याय पर आधारित नए समाज के निर्माण की प्रक्रिया है. सच्चे लोकतंत्र का अर्थ है भाईचारा, एक साहचर्य जीवन और अपने साथियों के प्रति सम्मान. समाज में इस प्रकार के लोकतंत्र की जड़ें जमाने के लिए ज़रूरी है कि उन सभी विचारों को नष्ट किया जाये जो जाति, वर्ग एवं लिंगभेद को स्वाभाविक एवं समरस बताते हैं. मेरा जातिभेद के विनाश से यही मतलब था. इसी लिए आप अगर इसे अम्बेडकरवाद कहना चाहती हैं तो यह केवल चुनाव जीतने के लिए ही नहीं है. अगर आप को फुर्सत मिले तो मेरी पुस्तक "जातिभेद का विनाश" से धूल पोंछियेगा. उस छोटी सी पुस्तक में मेरे दर्शन का निचोड़ है. यह सही है कि मैं चाहता था कि उन्हें शासक समुदाय बनने के लिए साथी बनाने चाहिए. उदाहरण के लिए स्वतंत्र मजदूर पार्टी में हम लोगों ने सभी जातियों के मजदूरों को लिया था. बहुत से अवसरों पर जागरूक ब्राह्मणों और द्विजों ने मेरी सहायता की थी. मैंने उनको इस लिए साथ नहीं लिया था कि वे मुझे वोट दिला सकते हैं परन्तु इस लिए क्योंकि वे मेरी स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृभाव की विचारधारा में विश्वास रखते थे. परन्तु आप की पार्टी के लिए सत्ता प्राप्ति ही लक्ष्य बन गयी है. आप को इससे  कोई मतलब नहीं है कि आप किस से हाथ मिला रही हैं, आप उनको कैसे पटाती हैं और सत्ता पाने के बाद आप क्या करेंगी. बड़े परिवर्तन का एजंडा कहाँ है जो पूँजीवाद, ब्राह्मणवाद और धार्मिक अंध विश्वासों को चुनौती दे सके?
मायावती:  परन्तु बाबासाहेब समय बदल गया है. आज कल सभी राजनीतिक पार्टियाँ सौदे करती हैं  जिसे "सोशल इन्जिनीरिंग" कहते हैं. क्यों, अभी पंजाब में अकाली बीजेपी की मदद से सत्ता में आये हैं जो सिक्खों को अभी भी हिन्दू मानती है. कांग्रेस इतने दिन सत्ता में इसी लिए बनी रही क्योंकि उसने ब्राह्मणों, मुसलमानों और दलितों का बड़ा गठजोड़ बना रखा था. जैसा आप जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में दलित केवल 21% ही हैं. हम लोग जब तक बड़ा गठबंधन नहीं बनायेंगे, हम लोग सत्ता में नहीं आ सकते.
आंबेडकर:  मायाजी, आप 100% सही हैं. सभी बड़ी पार्टियाँ चुनाव जीतने के लिए सब प्रकार के सौदे करती हैं. एक पुरानी कहावत है कि राजनीति अजनबियों को भी हमबिस्तर कर देती है. क्योंकि हरेक ऐसा कर रहा है, इसी लिए यह ठीक नहीं हो जाता. इस प्रकार की खरीद-फरोख्त से लोकतंत्र की गुणवत्ता कम हो जाती है. हमारा देश जमीनी स्तर पर अभी भी कानून का देश नहीं है बल्कि यह सत्ता में बैठे लोगों के रहमो-कर्म पर आश्रित है. परन्तु इस सौदेबाजी को अम्बेडकरवाद का नाम क्यों दे रही है? अगर आप जातिगत गणित को अम्बेडकरवाद कहती हैं तो मैं अम्बेडकरवादी नहीं हूँ. आंबेडकरवाद चुनाव जीतने से बहुत कुछ आगे है. यह एक नए समतावादी, तार्किक सांस्कृतिक सोच और राजनैतिक लोकतंत्र को धर्मनिरपेक्ष सामाजिक लोकतंत्र में बदलने के लिए है. जैसा कि मैं संविधान सभा में कांग्रेस वालों को जताता रहता था कि " हमारे पास राजनैतिक लोकतंत्र हमारी सामाजिक व्यवस्था को सुधरने के लिए है जो कि बहुत असमानताओं और भेदभाव से भरा हुआ है...."
मायावती:  परन्तु हम अपनी सामाजिक व्यवस्था को सुधारने के लिए सत्ता हथियाना चाहते हैं. हम लोग बसपा में जाति के विनाश के लिए प्रतिबद्ध हैं परन्तु हम व्यवहारिक हैं. हम दलितों के नेतृत्व में उच्च जातियों, पिछड़ी जातियों और गरीब मुसलमानों को एक इन्द्रधनुष में ला रहे है.
आंबेडकर:  मत के तौर पर तो यह बहुत अच्छा लगता है. परन्तु यह एक निराशाजनक तथ्य है कि भारत में सच्ची भाईचारे की भावना मौजूद नहीं है. यद्यपि हम लोग आज कल चातुर्वर्ण का शब्द प्रयोग नहीं करते परन्तु ऊँचनीच को उचित ठहराने की मानसिकता अभी भी मौजूद है.
मायावती:  मैं सहमत हूँ कि समाज के सभी स्तरों पर जातिभेद व्यापत है. परन्तु सभी जातियों को दलितों के नेतृत्व में लाकर इसे चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं ताकि हम सब के लिए समानता के द्वार खोल सकें.
आंबेडकर:  तुम्हारे ही रिकार्ड के अनुसार जाति आधारित गठजोड़ जातिवाद को कम करने की बजाये बढ़ावा देते हैं. जब आप मुख्यमंत्री थीं तो आप ने अपने लोगों को बढ़ाया और जब मुलायम सिंह मुख्यमंत्री थे तो उसने अपने यादव लोगों को बढ़ाया. जब आप मुख्यमंत्री थीं तो आप ने दलितों पर अत्याचार रोकने के लिए कानून व्यवस्था को कड़ा किया (वास्तव में मायावती ने तो दलित एक्ट लागू करने पर रोक लगा दी थी) और जब आपकी सहयोगी बीजेपी सत्ता में आई तो उन्होंने तुरंत इन कानूनों को शिथिल कर दिया. जब आप तीसरी वार 2002 में सत्ता में आयीं तो आप ने  बीजेपी के समर्थन को कायम रखने के लिए गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के लिए मोदी को दोष मुक्त कर दिया (वास्तव में इस वर्ष मायावती ने गुजरात जा कर मोदी के पक्ष में चुनाव प्रचार भी किया था). इस सब के बाद आप समझ जाएँगी कि मुझे आप की जीत पर कोई ख़ुशी नहीं है.
मायावती:  दूसरे सभी अवसरों पर बसपा सरकार थोड़ी थोड़ी अवधि के लिए थी. इस बार हम अधिक काम करेंगे क्योंकि हमें पूरे पांच साल मिलेंगे.
आंबेडकर:  हाँ हाँ, मैं जानता हूँ कि इस बार उच्च जाति के लोग बसपा में हैं और इसे बाहर से समर्थन नहीं दे रहे हैं. परन्तु क्या आप को विश्वास है कि क्योंकि वे इस बार बसपा के टिकट पर लड़े हैं उन्होंने हिन्दू बहुलवादी और परम्परावादी सोच छोड़ दी है. आप नहीं सोचतीं कि वे आप का इस्तेमाल कर रहे हैं जैसा कि आप सोचती हैं कि आप उनका इस्तेमाल कर रही हैं.
मायावती:  ऐसा हो सकता है. क्या आप एक मुख्यमंत्री की इंजीनियरिंग का दलितों पर असर नहीं देख रहे? जब भी मैं सत्ता में होती हूँ तो दलित अधिक सुरक्षित और अधिक आत्मविश्वासी दिखाई देते हैं. क्या आप ने देखा कि किस तरह शपथ ग्रहण के समय सभी ब्राह्मण मंत्रियों और अन्यों ने मेरे चरण छुए थे.
आंबेडकर:  यह लोकतंत्र का खोखलापन है कि जब दलित मुख्यमंत्री होता है तो दलित अधिक आश्वासित होते हैं. और ब्राह्मणों का आप के चरण छूने को आप को बढ़ावा नहीं देना चाहिए. मेरी एक अच्छे समाज की अवधारणा है जहाँ पर चरण वंदना और चापलूसी नहीं होनी चाहिए.
मायावती:  आप को ये चरणवंदना और चापलूसी अच्छी न लगती हो परन्तु हमें तो रीति रिवाज़ का आदर करना है. इतनी सदियों के बाद यह कोई छोटी बात नहीं है कि बलशाली सवर्ण हमारे सामने झुक रहे हैं. इससे एक ताकत का अहसास होता है. परन्तु हमारी क्रांति संकेतों से आगे बढ़ कर है. जब भी हम सत्ता में आये हैं हम हजारों आंबेडकर- गाँव के लिए सड़क, बिजली, पानी और स्कूल का ठोस लाभ लाये हैं. दलित जानते हैं कि जब कोई उनका अपना सत्ता में होगा तो उनकी ज़रूरतें पूरी होंगी. इसी लिए हमें बार बार वोट देते हैं
आंबेडकर:  मैं मानता हूँ यह सकारात्मक कदम हैं. परन्तु दूसरी जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के गरीब लोग भी तो इसी देश के नागरिक हैं और उन्हें  भी अच्छे जीवन के लिए सुविधायों का अधिकार है. उनका कल्याण सत्ता में व्यक्तियों की जाति पर निर्भर नहीं रहना चाहिए.
मायावती:  आप का विचार विमर्श का लोकतंत्र सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है. परन्तु राजनेतायों को ज़मीनी हकीकत की चिंता करनी होती है. परन्तु एक बिंदु पर तो आप हमें पूरे अंक दीजिये कि हम धर्मनिरपेक्षता की सुरक्षा कर रहे हैं. मैं इसे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानती हूँ. बसपा ने बीजेपी से ब्राह्मण वोट छीन लिया है. एक बार हम लोग यूपी माडल पूरे देश में ले आयें तो बीजेपी ख़त्म हो जाएगी.
आंबेडकर:  यह सही है की बसपा को बीजेपी की कीमत पर लाभ हुआ है. मुझे हिन्दू राष्ट्रवादियों पर रोक  लगने पर ख़ुशी है. परन्तु दो कारणों से मैं अभी भी चिंतित हूँ. एक आप ने अपनी चुनाव अपीलों में देवताओं का आवाहन करके धर्म निरपेक्षता के पहले सिद्धांत का उलंघन किया है. मैं बसपा के हाथी के गणेश में बदलने और उसके हिन्दू त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) में बदलने पर हक्का बक्का रह गया हूँ. अगर चुनाव में बीजेपी के लिए देवताओं का प्रदर्शन गलत है तो फिर बीएसपी द्वारा भी ऐसा किया जाना गलत है. दरअसल बीएसपी द्वारा देवताओं का सम्मान करना बिलकुल ढोंग है जिससे दलित और शूद्र सदियों से वर्जित रहे हैं. आप ने फ़िलहाल बीजेपी को तो रोका है परन्तु आप जनता में धर्मनिरपेक्षता को आगे बढ़ाने में विफल रही हैं.
मायावती:  सम्मानित बाबासाहेब ! आप वर्तमान सच्चाई को उच्च आदर्शों पर माप रहे हैं.
आंबेडकर:  हमें अपने कृत्यों को उच्च आदर्शों पर ही मापना चाहिए. वर्ना आदर्श किस काम के? परन्तु मैं आप की धर्म निरपेक्षता की रक्षा करने पर खुश न होने का दूसरा कारण बताता हूँ. आप समझती हैं कि गाँव में अगर ब्राह्मण भूमिहीन दलित मजदूरों पर रोब  नहीं गान्ठेगा तो वे शूद्र भूमिधरों के विरुद्ध आप के साथी बन जायेंगे. क्योंकि ब्राह्मणों और दलितों में कोई आर्थिक टकराहट नहीं है अतः दलितों और ब्राह्मणों में कोई विचारधारा की टकराहट भी नहीं है. मुझे डर है की आप रीति रिवाज़, मिथक और मन के विश्वास को कम करके आंक रही हैं. न तो शहरी मध्य वर्ग और न ही ज़मींदारों ने ऊँचनीच और लिंगभेद की आत्मा और पुनर्जन्म की अवधारणाओं को बदला है. अगर कुछ हुआ है तो यह कि इन नव-हिन्दू गुरुओं और पुरातन पंडितों ने इस अन्धविश्वासी विश्वदृष्टि को विज्ञान के पर्दे से ढकने की कोशिश की है. इसी लिये मैं हमेशा दलितों को वैज्ञानिक सोच विकसित करने और अतार्किक विचार और व्यवहारों को सक्रिय रूप से चुनौती देने के लिए कहता रहा हूँ. मेरे "बुद्ध और उनका धम्म" का यही सन्देश है. यह संभव है कि जिन ब्राह्मणों ने एक रणनीति के अंतर्गत आप को वोट दिया है वे वास्तव में मंदिरों और वैदिक पाठशालाओं, जो आप के राज्य में बहुतायत में हैं, में रुढ़िवादी सामाजिक मूल्य और  अन्धविश्वासी धार्मिक प्रथाओं का प्रचार करके रोज़ी कमाँ रहे हैं. अब चूँकि उनका सरकार में दखल हो गया है वे शिक्षा और अन्य सांस्कृतिक परम्परागत एजंडा के लिए सरकारी मदद की अपेक्षा नहीं करेंगे? मेरी धारणा है कि हिन्दू परम्परावाद हिन्दू राष्ट्रवाद की जननी है. इसी लिए मुझे चिंता है कि क्या आप हिंदूत्व की ताकतों को रोक पाएंगी?
मायावती:  मैं समझती हूँ कि मैं हिन्दू एजंडा को विफल करने के लिए मज़बूत हूँ. हमारा एजंडा धर्म निरपेक्ष है और मैं किसी भी हिंदुत्व एजंडा को सहन नहीं करुँगी.
आंबेडकर:  मायाजी! आप मज़बूत हों. आपको और यूपी में आप के लोगों को मेरी शुभ कामनाएं. मैं लेट हो रहा हूँ और मैं आप से विदा लूँ. परन्तु मैं भावनाओं में हमेशा आप के साथ रहूँगा.
आंबेडकर की आवाज़ धीमी पड़ जाती है और मूर्ति फिर पत्थर में बदल जाती है. मायावती जाग जाती है और भोर में बैठ कर सोचने लगती है.
(मीरा नंदा एक विज्ञान दार्शनिक हैं  और जॉन टेम्प्लटन फैलो हैं.)

रविवार, 19 मार्च 2017

दलित-जातिवादी राजनीति बनाम हिंदुत्व

दलित-जातिवादी राजनीति बनाम हिंदुत्व
 -  तुलसी राम



पिछले पचीस सालों में दलितों के साथ पिछड़े वर्ग की राजनीति में जातिवाद अपनी चरम सीमा पार कर गया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि विशुद्ध हिंदुत्व की राजनीति करने वाली भाजपा ने अकेले बहुमत पाकर भारत की सत्ता प्राप्त कर ली। भारतीय जाति-व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि इसे धर्म और ईश्वर से जोड़ दिया गया। यही कारण था कि इसे ईश्वरीय देन मान लिया गया। गांधीजी जैसे व्यक्ति भी इसी अवधारणा में विश्वास करते थे। इस अवधारणा का प्रचार सारे हिंदू ग्रंथ करते हैं। इसलिए हिंदुत्व पूर्णरूपेण जाति-व्यवस्था पर आधारित दर्शन है।
विभिन्न जातियां हिंदुत्व की सबसे मजबूत स्तंभ हैं। इसलिए इन स्तंभों की रक्षा के लिए ही भारत के सभी देवी-देवताओं को हथियारबंद दिखाया गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि दलितों पर आज भी वैदिक हथियारों से हमले जारी हैं। ऐसी स्थिति में जब जाति को मजबूत किया जाता है, तो हिंदुत्व स्वत: मजबूत होता चला जाता है। पिछले पचीस वर्षों में ऐसा ही हुआ है।
नब्बे के दशक में कांशीराम ने एक अत्यंत खतरनाक नारा दिया था- 'अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो'। इसी नारे पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) खड़ी हुई। परिणामस्वरूप डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित जाति-व्यवस्था विरोधी आंदोलन की अवधारणा को मायावती ने शुद्ध जातिवादी अवधारणा में बदल दिया। इतना ही नहीं, गौतम बुद्ध द्वारा दी गई 'बहुजन हिताय' की अवधारणा को चकनाचूर करके उन्होंने 'सर्वजन हिताय' का नारा दिया, जिसका व्यावहारिक रूप सभी जातियों के गठबंधन के अलावा कुछ भी नहीं था। परिणामस्वरूप दलितों की विभिन्न जातियों के साथ-साथ ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों के अलग-अलग सम्मेलनों की बसपा ने भरमार कर दी, जिससे हर जाति का दंभी गौरव खूब पनपने लगा।
ब्राह्मण सम्मेलनों के दौरान बसपा के मंचों पर हवन कुंड खोदे जाने लगे और वैदिक मंत्रों के बीच ब्राह्मणत्व का प्रतीक परशुराम का फरसा (वह भी चांदी का) मायावती को भेंट किया जाने लगा। इस दौरान दलित बड़े गर्व के साथ नारा लगाते थे- 'हाथी नहीं, गणेश हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश हैं'। मायावती हर मंच से दावा करने लगीं कि ब्राह्मण हाशिये पर चले गए हैं, इसलिए वे उनका खोया हुआ गौरव वापस दिलाएंगी। वे इस तथ्य को जरा भी समझ नहीं पार्इं कि ब्राह्मण कभी भी हाशिये पर नहीं जाते हैं। उनका सबसे बड़ा हथियार धर्म और ईश्वर है। इन्हीं हथियारों के बल पर ब्राह्मणों ने हमेशा समाज की बागडोर अपने हाथ में रखी।
इससे पहले मायावती तीन बार भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं और गठबंधन की सरकार चलाई। इतना ही नहीं, भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए मायावती विश्व हिंदू परिषद के त्रिशूल दीक्षा समारोह में भी शामिल हुर्इं। पर जब वे मोदी का प्रचार करने गुजरात गर्इं, तो उन्होंने धार्मिक उन्माद पर खुलेआम ठप्पा लगा दिया। दलित सत्ता के नारे के साथ मायावती ने जातीय सत्ता की प्रतिस्पर्द्धा को जन्म दिया। इस जातीय सत्ता की होड़ में मंडलवादियों ने शामिल होकर धर्म के स्तंभों को और मजबूत किया।
अगर राजनीति में धर्म का इस्तेमाल धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के विरुद्ध है, तो धर्म से उत्पन्न जाति का इस्तेमाल कैसे धर्म-निरपेक्ष हो सकता है? इसलिए धर्म का राजनीति में इस्तेमाल जितना खतरनाक है, जाति का इस्तेमाल उससे कम खतरनाक नहीं है। इस तथ्य को न कभी मायावती समझ पार्इं और न ही मंडलवादी। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव और नीतीश कुमार आदि सब ने जातिवादी राजनीति के माध्यम से धर्म की राजनीति को मजबूत किया।
आज नरेंद्र मोदी जो छप्पन इंच का सीना तान कर घूम रहे हैं, उसकी पृष्ठभूमि में जातिवादी राजनीति रही है। उक्त सारे नेताओं द्वारा जाति के साथ-साथ मुसलिम वोटों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करने के प्रयास से आम हिंदू नाराज होकर पूरी तरह भाजपा की तरफ चला गया। इसलिए संघ परिवार जिसकी वकालत बरसों से कर रहा था, उसमें वह पूर्णत: सफल रहा। भाजपा ने धर्म और जाति, दोनों का इस्तेमाल बड़ी रणनीति के साथ किया, जिसके पीछे वह चालाकी से 'विकास' की बात करके जनता को भ्रमित करने में सफल रही, जबकि असली मुद्दा धार्मिक ध्रुवीकरण का ही था।
मायावती ने डॉ. आंबेडकर की मूर्तियों और पार्कों की आड़ में दलितों को उनके रास्ते से भटकाने का काम बड़ी सफलता से किया। डॉ. आंबेडकर ने दलितों को सामाजिक और धार्मिक भेदभाव से मुक्ति दिलाने के लिए एक दोहरी रणनीति अपनाई थी। एक तरफ उन्होंने जाति-व्यवस्था विरोधी आंदोलन का सूत्रपात करके 'मनुस्मृति' को जलाया था और दूसरी तरफ जातिवाद को स्थापित करने वाले वैदिक ब्राह्मण धर्म के विकल्प के रूप में बौद्ध धर्म को अपनाया था। मायावती डॉ. आंबेडकर की दोनों रणनीतियों को दरकिनार करके जातिवादी राजनीति के चंगुल में फंसती चली गर्इं।
एक बार कांशीराम ने घोषणा की थी कि वे डॉ. आंबेडकर से कहीं ज्यादा लोगों के साथ, यानी बीस लाख से अधिक लोगों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण करेंगे, पर स्वास्थ्य की समस्या के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए। बाद में मायावती ने कहा कि बौद्ध धर्म ग्रहण करने से सामाजिक सद्भावना के बिगड़ने की संभावना है, इसलिए जब वे प्रधानमंत्री बन जाएंगी, तो बौद्ध धर्म ग्रहण करेंगी। जाहिर है, जब उन्होंने उक्त बातें कहीं, उस समय मायावती भाजपा के साथ उत्तर प्रदेश की सरकार चला रही थीं।
डॉ. आंबेडकर के दर्शन के बारे में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे भारत के लिए द्वि-दलीय प्रणाली की वकालत करते थे, इसलिए वे दलित नाम से कोई पार्टी नहीं चलाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी को प्रस्तावित किया। कांग्रेस का यही विकल्प उन्होंने प्रस्तुत किया था। पर एक बात उन्होंने जोर देकर कही थी कि दलितों को आरएसएस और हिंदू महासभा (वर्तमान विश्व हिंदू परिषद) जैसे संगठनों के साथ कभी भी समझौता नहीं करना चाहिए।
संघ ने 1951 में जनसंघ की स्थापना की थी, पर आंबेडकर के समय में उसका प्रभाव नगण्य था। इसीलिए सीधे-सीधे उन्होंने संघ से किसी भी तरह का समझौता करने से दलितों को मना किया था। मायावती ने डॉ. आंबेडकर के हर कदम को नजरअंदाज करके संघ-परिवार का हाथ मजबूत किया। डॉ. आंबेडकर का जनतंत्र में अटूट विश्वास था, जिसकी झलक भारत के संविधान में साफ तौर पर मिलती है। उनका मानना था कि जाति-व्यवस्था एक तरह से तानाशाही वाली व्यवस्था थी, जिसके चलते दलित हर तरह के मानवीय अधिकारों से वंचित रहे। इसलिए जनतांत्रिक प्रणाली को वे दलितों के लिए सर्वोत्तम प्रणाली समझते थे।
पर सारी जातिवादी पार्टियां अपनी ही जाति के लोगों को हमेशा जनतांत्रिक अधिकारों से वंचित करती रही हैं। ऐसी पार्टी के नेताओं में मायावती का नाम सबसे ऊपर आता है। यहां तक कि बैठकों के दौरान न सिर्फ मायावती कुर्सी पर बैठा करती थीं और बाकी नेता जमीन पर बैठते थे; विधानसभा हो या संसद, उनके डर से कोई पार्टी विधायक या सांसद कुछ भी बोलने से डरता था। उनका व्यवहार एकदम सामंती हो गया था। उन्हें आम सभाओं में चांदी-सोने के ताज पहनाए जाते थे और उनके हर जन्म दिवस पर लाखों रुपए की भारी-भरकम माला भी पहनाई जाती थी। 1951 में मुंबई के दलितों ने बड़ी मुश्किल से दो सौ चौवन रुपए की एक थैली डॉ. आंबेडकर को उनके जन्मदिन पर भेंट की थी, जिस पर नाराज होकर उन्होंने चेतावनी दी थी कि अगर कहीं भी ऐसा दोबारा किया तो वे ऐसे समारोहों का बहिष्कार करेंगे।
पिछली दफा राज्यसभा का परचा दाखिल करते हुए मायावती ने आमदनी वाले कॉलम में एक सौ तेईस करोड़ रुपए की संपत्ति दिखाई थी। हकीकत यह थी कि मायावती के गैर-जनतांत्रिक व्यवहार के चलते बसपा में भ्रष्ट और अपराधी तत्त्वों की भरमार हो गई थी, जिसके कारण पूरा दलित समाज न सिर्फ बदनाम हुआ, बल्कि इससे दलित विरोधी भावनाएं भी समाज में खूब विकसित हुर्इं। एक तरह से मायावती दलित वोटों का व्यापार करने लगी थीं। पिछले अनेक वर्षों में चमार और जाटव समाज के लोग उत्तर प्रदेश में भेड़ की तरह मायावती के पीछे चलने लगे थे। इसलिए वे भ्रष्टाचारियों और अपराधियों को चुन कर विधानसभा और संसद में भेजने लगे थे।
बाबा साहेब आंबेडकर ने संविधानसभा में बोलते हुए एक बार कहा था, 'धर्म में नायक पूजा किसी को मुक्ति प्रदान कर सकती है, पर राजनीति में नायक पूजा निश्चित रूप से तानाशाही की ओर ले जाएगी।' मायावती के संदर्भ में यह शत-प्रतिशत सही सिद्ध हुआ। राजा-रानियों की तरह मायावती ने अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करते हुए प्रेस सम्मेलन में कहा था, 'मेरा उत्तराधिकारी चमार जाति का ही होगा, जिसका नाम मैंने एक लिफाफे में बंद कर दिया है। यह लिफाफा मेरी मृत्यु के बाद खोला जाएगा।' इससे एक बात साफ हो गई कि मायावती के रहते कोई अन्य दलित नेता नहीं बन सकता था।
उनके द्वारा बार-बार चमार जाति के उल्लेख से दलित की गैर-चमार जातियां बसपा से कटती चली गर्इं और उनमें से अधिकतर या तो भाजपा के साथ हो गर्इं या मुलायम सिंह यादव के साथ चली गर्इं। उत्तराधिकारी की घोषणा के बाद एक रोचक घटना हुई। मीडिया वालों ने अंदाजवश आजमगढ़ के राजाराम के रूप में उत्तराधिकारी की पहचान कर ली। परिणामस्वरूप मायावती ने अविलंब राजाराम को पार्टी से बर्खास्त कर दिया।
जब मायावती सामाजिक अभियांत्रिकी (सोशल इंजीनियरी) के नाम पर ब्राह्मणों को सतीश मिश्रा के माध्यम से अपनी तरफ खींचने का अभियान चला रही थीं तो दलितों के विरुद्ध उसका दूरगामी प्रभाव पड़ा। इससे पहले चुनावी राजनीति में ही सही, सारी पार्टियां दलितों को अपनी तरफ खींचने का प्रयास करती थीं और उनके लिए तरह-तरह के वादे भी किया करती थीं, जिसका परिणाम अनेक अवसरों पर काफी सकारात्मक भी हुआ करता था। इसलिए दलित हमेशा एक दबाव समूह का काम करते थे। पर मायावती उस तथाकथित सामाजिक अभियांत्रिकी के चलते हर पार्टी के लिए ब्राह्मण खुद दबाव समूह के लिए दलितों को हाशिये पर डाल दिए। परिणामस्वरूप मायावती के चक्कर में दलित हर पार्टी के लिए दुश्मन बन गए। अब उनके कल्याण के लिए कोई भी पार्टी तत्पर नहीं दिखाई पड़ती। सच ही कहा गया है, 'माया मिली न राम।'
मायावती के एक अन्य दलित-विरोधी फैसले का दूरगामी प्रभाव पड़ा। किसी गैर-दलित मुख्यमंत्री की कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि वह 'दलित अत्याचार विरोधी अधिनियम' से छेड़छाड़ करे। पर मायावती जब भाजपा के साथ संयुक्त सरकार चला रही थीन, तो उन्होंने गैर-दलितों को खुश करने के लिए उपरोक्त अधिनियम में संशोधन करके यह प्रावधान कर दिया कि दलित महिलाओं के साथ बलात्कार जैसे अपराधों को पुलिस तब तक दर्ज न करे, जब तक कि डॉक्टर प्रमाणित न कर दे कि सही मायने में बलात्कार हुआ है। मायावती के इस आदेश का परिणाम यह हुआ कि दलितों पर तरह-तरह के अत्याचार होते रहे, पर पुलिस अधिकतर मामलों में आज भी केस दर्ज नहीं करती है।
इस बार लोकसभा चुनावों में जब बसपा का सफाया हो गया, तो मायावती ने इसके लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा दिया। हकीकत तो यह है कि मायावती अपनी व्यक्तिगत सत्ता के लिए लगातार जातिवादी नीतियां अपनाती रही हैं, जिससे दलित निरंतर सबसे कटते चले गए। पिछले पचीस सालों के अनुभव से पता चलता है कि अब देश को जातिवादी पार्टियों की जरूरत नहीं है, बल्कि सबके सहयोग से जाति-व्यवस्था विरोधी एक मोर्चे की आवश्यकता है, अन्यथा जातियां मजबूत होती रहेंगी, जिससे धर्म की राजनीति को ऑक्सीजन मिलता रहेगा। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान डॉ. आंबेडकर ने गांधीजी से कहा था, 'स्वतंत्रता आंदोलन में सारा देश एक तरफ है, पर जाति-व्यवस्था विरोधी आंदोलन सारे देश के खिलाफ है, इसलिए यह काम बहुत मुश्किल है।' उम्मीद है, दलित इतिहास से कुछ सीख अवश्य लेंगे।
(जनसत्ता 25 मई, 2014 से साभार)

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