रविवार, 26 अक्टूबर 2014

दलित बनाम बहुजन राजनीति





                                                दलित बनाम बहुजन राजनीति
                                               -एस.आर. दारापुरी राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
            पिछले काफी समय से राजनीति में दलित की जगह बहुजन शब्द का इस्तेमाल हो रहा है. बहुजन अवधारणा  के प्रवर्तकों के अनुसार बहुजन में दलित और पिछड़ा वर्ग शामिल हैं. कांशी राम के अनुसार इस में मुसलमान भी शामिल हैं और इन की सख्या 85% है. उन की थ्योरी के अनुसार बहुजनों को एक जुट हो कर 15% सवर्णों से सत्ता छीन लेनी चाहिए. वैसे सुनने में तो यह सूत्र बहुत अच्छा लगता है और इस में बड़ी संभावनाएं भी लगती हैं. परन्तु देखने की बात यह है कि बहुजन को एकता  में बाँधने का सूत्र क्या है. क्या यह दलितों और पिछड़ों के अछूत और शुद्र होने का सूत्र है या कुछ और अछूत और शुद्र असंख्य जातियों में बटे हुए हैं और वे अलग दर्जे के जाति अभिमान से ग्रस्त हैं. वे ब्राह्मणवाद (श्रेष्ठतावाद) से उतने ही ग्रस्त है जितना कि वे सवर्णों को आरोपित करते हैं. उन के अन्दर कई तीव्र अंतर्विरोध हैं. पिछड़ी जातियां आपने आप को दलितों से ऊँचा मानती हैं और वैसा ही व्यवहार भी करती हैं. वर्तमान में दलितों पर अधिकतर अत्याचार उच्च जातियों की बजाये पिछड़ी संपन्न (कुलक) जातियों द्वारा ही  किये जा रहे हैं. अधिकतर दलित मजदूर हैं और इन नव धनाडय जातियों का आर्थिक हित मजदूरों से टकराता है. इसी लिए मजदूरी और बेगार को लेकर यह जातियां दलितों पर अत्याचार करती हैं. ऐसी स्थिति में दलितों और पिछड़ी जातियों में एकता किस आधार पर स्थापित  हो सकती है? एक ओर सामाजिक दूरी है तो दूसरी ओर आर्थिक हित का टकराव. अतः दलित और पिछड़ा या अछूत और शूद्र होना मात्र एकता का सूत्र नहीं हो सकता. यदि राजनीतिक स्वार्थ को लेकर कोई एकता बनती भी है तो वह स्थायी नहीं हो सकती जैसा कि व्यवहार में भी देखा गया है.
           अब अगर दलित और पिछड़ा  का वर्ग विश्लेषण किया जाये तो यह पाया जाता है कि  दलितों के अन्दर भी संपन्न औए गरीब वर्ग का निर्माण हुआ है. पिछड़ों के अन्दर तो अगड़ा पिछड़ा वर्ग  और अति पिछड़ा वर्ग का विभेद तो बहुत स्पष्ट है. पिछले  कुछ समय से  दलित और पिछड़े वर्ग के संपन्न वर्ग ने ही आर्थिक विकास का लाभ उठाया है और राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी ही प्राप्त की है. इस के विपरीत दलित और पिछड़ा वर्ग का बहुसंख्यक हिस्सा आज भी बुरी तरह से पिछड़ा हुआ है. इसी विभाजन को लेकर अति-दलित और अति-पिछड़ा वर्ग की बात उठ रही है. इस से भी स्पष्ट है कि बहुजन की अवधारणा केवल हवाई अवधारणा है. इसी प्रकार मुसलमानों के अन्दर भी अशरफ, अज्लाफ़ और अरजाल का विभाजन है जो कि पसमांदा मुहाज (पिछड़े मुसलमान) के रूप में सामने आ रहा है.
            अब प्रश्न पैदा होता है इन वर्गों के अन्दर एकता का वास्तविक सूत्र क्या हो सकता है? उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों के अन्दर अगड़े पिछड़े दो वर्ग हैं जिन के अलग अलग आर्थिक और राजनीतिक हित हैं और इन में तीखे अन्तर्विरोध तथा टकराव भी है. अब तक इन वर्गों का प्रभुत्वशाली तबका जाति और धर्म के नाम पर पूरी जाति/वर्ग और सम्प्रदाय का नेतृत्व करता आ रहा है और इसी तबके ने ही  विकास का जो भी आर्थिक और राजनीतिक लाभ हुआ है उसे  उठाया है. इस से इन के अन्दर जाति/वर्ग विभाजन और टकराव तेज हुआ है. विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इस जाति/वर्ग विभाजन का लाभ उठाती रही हैं परन्तु किसी भी पार्टी ने न तो इन के वास्तविक मुद्दों को चिन्हित किया है और न ही इन के उत्थान के लिए कुछ किया है. हाल में भाजपा ने इन्हें हिन्दू के नाम पर इकट्ठा करके इन का वोट बटोरा है. अगर देखा जाये तो यह वर्ग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर पिछड़ा हुआ है. इन वर्गों का वास्तविक उत्थान उन के पिछड़ेपन से जुड़े हुए मुद्दों को उठाकर और उन को हल करने की नीतियाँ बना कर ही किया जा सकता है. अतः इन की वास्तविक एकता इन मुद्दों को लेकर ही बन सकती है न कि जाति और मज़हब को लेकर. यदि आर्थिक और राजनीतिक हितों की दृष्टि से देखा जाये तो यह वर्ग प्राकृतिक दोस्त हैं क्योंकि इन की समस्यायें एक समान हैं और उन की मुक्ति का संघर्ष भी एक समान ही है. बहुजन के छाते के नीचे अति पिछड़े तबके के मुद्दे और हित दब जाते हैं.
           अतः इन अति पिछडे तबकों की मजबूत एकता स्थापित करने के लिए जाति/मज़हब पर आधारित बहुजन की कृत्रिम अवधारणा के स्थान पर इन के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पिछड़ेपन से जुड़े मुद्दे उठाये जाने चाहिए. जाती और धर्म की राजनीति हिंदुत्व को ही मज़बूत करती है. इसी ध्येय से आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ़) ने अपने एजंडे में सामाजिक न्याय के अंतर्गत:
          (1) पिछड़े मुसलमानों का कोटा अन्य पिछड़े वर्ग से अलग किए जाने, धारा 341 में संशोधन कर दलित मुसलमानों व ईसाइयों को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने. सच्चर कमेटी व रंगनाथ मिश्रा कमेटी की सिफारिशों को लागू किए जाने; (2) अति पिछड़ी जातियों को अन्य पिछड़े वर्ग में से अलग आरक्षण कोटा दिए जाने; (3) पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को जल्दी से जल्दी बहाल किए जाने ; (4) एससी/एसटी के कोटे के रिक्त सरकारी पदों को विशेष अभियान चला कर भरे जाने; (5) निजी क्षेत्र में भी दलितों, आदिवासियों, अन्य पिछड़ा वर्ग व अति पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिए जाने; (6) उ0 प्र0 की कोल जैसी आदिवासी जातियों को जनजाति का दर्जा दिए जाने; (7) वनाधिकार कानून को सख्ती से लागू करने तथा (8) रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने आदि के मुद्दे शामिल किये हैं. इसके अतिरिक्त  साम्प्रदायिकता पर रोक लगाने के लिए कड़ा कानून बनाकर कड़ी कार्रवाई किये जाने और आतंकवाद/ साम्प्रदायिकता के मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा किये जाने की मांग भी उठाई है. इन तबकों को प्रतिनिधित्व देने के ध्येय से  पार्टी ने अपने संविधान में दलित,पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलायों के लिए 75% पद आरक्षित किये हैं.
           आइपीएफ बहुजन की जाति आधारित राजनीति के स्थान पर मुद्दा आधारित राजनीति को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील है जैसा कि बाबा साहेब का भी निर्देश था.
          नोट: कृपया आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए www.aipfr.org पर देखें.
 


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शनिवार, 30 अगस्त 2014

हमारा गणराज्य कितना धर्म निरपेक्ष?



(इतिहास के झरोखे से)
हमारा गणराज्य कितना धर्म  निरपेक्ष?
एस. आर. दारापुरी आई. पी. एस. (से.नि.)
हम लोग अवगत हैं कि हमारे देश के संविधान के अनुसार हमारा गणराज्य धर्म निरपेक्ष गणराज्य है जिस का अर्थ है कि राज्य का कोई भी धर्म नहीं है. इस कारण राज्य के काम काज में धर्म का कोई दखल नहीं होगा. इस  से अपेक्षा की जाति है कि राज्य का काम करने वाली विधायका, कार्यपालिका और न्याय पालिका भी धर्म निरपेक्ष होगी और इन में कार्यरत्त व्यक्ति भी पूर्णतया धर्म निरपेक्ष आचरण करेगे.  परन्तु अब तक गणराज्य के व्यवहार से ऐसा होना नहीं पाया गया है. इस के कुछ ऐतहासिक उदहारण निम्न हैं:-
1.       14 अगस्त, 1947 की रात को 12 बजे जब आज़ादी का झंडा फहराया गया था उस से तीन घंटा पहले नेहरु और उन के साथी दिल्ली में एक पवित्र अग्नि के इर्द गिर्द बैठे थे और इस कर्मकांड के लिए तंजौर से खास तौर पर बुलाये गए पुजारियों ने मन्त्र पढ़े थे और उन के ऊपर पवित्र जल छिड़का था. महिलाओं के माथे पर संधूर का तिलक लगाया गया था. इस के तीन घंटे बाद हिन्दू ज्योतिशियों द्वारा निर्धारित दिन और समय पर मध्य रात्रि में नेहरु ने राष्ट्र ध्वज फहरा कर ब्रोडकास्ट द्वारा देशवासियों को बताया था कि उन की भाग्य के साथ पूर्व निश्चित भेंट हो गयी है और भारत गणराज्य का जन्म हो गया है. ( सन्दर्भ: दा इंडियन आइडियोलॉजी – पैरी एंडरसन , पृष्ठ 103)
2.       भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद बहुत धर्म भीरु हिन्दू थे. दुर्भाग्य से कायस्थ होने के कारण वे शूद्र वर्ग में आते थे. इस कारण उन का सामाजिक दर्जा निम्न था जिस के उच्चीकरण के लिए उन्हें काशी की विद्वत जन सभा से आशीर्वाद प्राप्त करना ज़रूरी था. अतः 1950 में राष्ट्रपति बनने के तुरंत बाद वे काशी गए. वहां पर उन्होंने विद्वत जनसभा के 200 ब्राह्मण सदस्यों के चरण धोये और उन्हें दक्षिणा दी.
डॉ. राजेद्र प्रसाद के इस कृत्य से दुखी हो कर डॉ. राम मनोहर लोहिया ने अपनी पुस्तक “ डा कास्ट सिस्टम “ के प्रारंभ में ही लिखा था, “भारतीय लोग इस पृथ्वी के सब से अधिक उदास लोग हैं........भारत गणराज्य के राष्ट्रपति ने बनारस शहर में शरेआम दो सौ ब्राह्मणों के चरण धोये. शरेआम दुसरे  के चरण धोना भोंडापन है, इसे केवल ब्राह्मणों तक ही सीमित रखना एक दंडनीय अपराध होना चाहिए. इस विशेषाधिकार प्राप्त जाति में केवल ब्राह्मणों को बिना विद्वता और चरित्र का भेदभाव किये शामिल करना पूरी तरह से विवेकहीनता है और यह जाति व्यवस्था और पागलपन का पोषक है.
राष्ट्रपति का ऐसे भद्दे प्रदर्शन में शामिल होना मेरे जैसे लोगों के लिए निर्मम अभ्यारोपण है जो केवल दांत पीसने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते.” ( The Caste System- Lohia, page 1 & 2)
3. ( )    डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने जब राष्ट्रपति के रूप में राष्ट्रपति में प्रवेश किया तो उन्होंने सब से पहले राष्ट्रपति भवन में कार्यरत सभी मुस्लिन खानसामों (रसोईयों) को हटा दिया. नेहरु इस से बहुत नाराज़ हुए.  इस पर उन्होंने आदेश दिया कि सभी मुस्लिम खानसामों को हिन्दू खानसामों की जगह प्रधान मंत्री के निवास पर लगा दिया जाये जब कि इस से सुरक्षा अधिकारी नाखुश थे.
3.(ख) डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की एक अन्य हरकत से नेहरु बहुत नाराज़ थे जब वह राष्ट्रपति के रूप में सोमनाथ मंदिर जिस का जीर्णोद्धार किया गया था में शिवलिंग की स्थापना समारोह में भाग लेने गए थे. नेहरु को यह पता चला था कि खाद्य और कृषि मंत्री ने सरदार पटेल से मिल कर चीनी का मूल्य बढाया था और उस बढ़ी कीमत में से आधा पैसा चीनी मिल वालों ने रख लिया था और आधा पैसा सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार में लगाया गया था. नेहरु को यह सूचना काफी देर से मिली थी जबकि इस सम्बन्ध में कुछ भी करना संभव नहीं था. यह भी ज्ञातव्य है कि नेहरु ने राजेन्द्र प्रसाद जी को वहां पर जाने से लिखित रूप में जाने से मना किया था परन्तु वह नहीं माने. (सन्दर्भ: Reminiscences of the Nehru Age – M.O.Mathai , p- 71))

4.डॉ. राजेन्द्र प्रसाद हनुमान भक्त थे. इसी लिए जब वे राष्ट्रपति भवन पहुंचे तो उन्होंने राष्ट्रपति भवन में कई लंगूर रख लिए जिन्हें वे अपने हाथ से खिलाते थे. जल्दी ही इन लंगूरों की जन संख्या में काफी वृद्धि हो गयी. ये लंगूर आस पास के रिहाइशी इलाकों के घरों में घुस कर सामान उठा लाते थे और नार्थ ब्लाक तथा सायूथ बलाक  में घुस कर पत्रावलियां  तथा टिफिन आदि उठा लाते थे परन्तु इन के उत्पात के विरुद्ध कुछ भी करना संभव नहीं था. राष्ट्रपति भवन के पास रहने वाले लोगों तथा सचिवालय के कर्मचारियों को तब राहत मिली जब राजेन्द्र प्रसाद जी राष्ट्रपति के पद से मुक्त हो गए और वे सभी लंगूर पकड़ कर दिल्ली के चिड़िया घर में पहुंचा दिए गए.
5. पंडित मदन मोहन मालवीय एक कट्टर सनातनी हिन्दू थे जो मुसलमानों, ईसाईयों और विदेशियों को अछूत मानते थे. वह जब भी इंगलैंड जाते थे तो अपने गंगा जल के कई लोटे ले जाते थे. वहां पर जब भी कोई अँगरेज़ या निम्न जाति का हिन्दू उन के कमरे में मिलने के लिए आता था तो वह उस के जाने के बाद कमरे को गंगा जल छिड़क कर पवित्र करते थे. कट्टर हिन्दू आज भी पञ्च गव्या; गाय का पेशाब, गोबर, मक्खन और दूध का मिश्रण बना कर मंदिर और तालाब का शुद्धिकरण करते हैं. (सन्दर्भ: Thus Spoke Ambedkar Vol. IV pages 101 & 102)
6. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद कट्टर सनातनी हिन्दू थे. जब डॉ. आंबेडकर ने कानून मंत्री के रूप में नेहरु जी की सहमती से लोक सभा हिन्दू कोड बिल पेश किया था तो डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने हिन्दू कोड बिल का विरोध किया था जैसा कि अन्य कट्टर हिन्दू सदस्य और संगठन कर रहे थे. परिणाम स्वरूप हिन्दू कोड बिल पास नहीं हो सका और इस से नाराज़ हो कर डॉ. आंबेडकर ने नेहरु मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था.

...........जारी है   










200 साल का विशेषाधिकार 'उच्च जातियों' की सफलता का राज है - जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -

    200 साल का विशेषाधिकार ' उच्च जातियों ' की सफलता का राज है-  जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -   कुणाल कामरा ...