शनिवार, 18 जनवरी 2025

मैं चाहता हूँ कि मनुस्मृति लागू होनी चाहिए

 

मैं चाहता हूँ कि मनुस्मृति लागू होनी चाहिए

(कँवल भारती)

 



मैंने अख़बार में पढ़ा था कि गत दिनों बनारस में कुछ दलित छात्रों ने मनुस्मृति को जलाने का कार्यक्रम किया था, और वे सब जेल में बंद हैं। समझ में नहीं आता कि दलित ऐसी बेवकूफियां क्यों करते हैं? वे डा. आंबेडकर का अनुसरण करते हैं, पर भूल जाते हैं कि उस दौर की परिस्थितियां अलग थीं। डा. आंबेडकर ने मनुस्मृति को हिन्दू अलगाववाद के रूप में देखा था। आज दलित उसे किस रूप में देख रहे हैं? अगर वे अपने आप को हिन्दू समझ रहे हैं तो मनुस्मृति का विरोध क्यों कर रहे हैं? दलितों को मालूम चाहिए कि मनुस्मृति में दलित जातियों अर्थात अछूतों के बारे में कुछ नहीं लिखा है। मनु ने जो प्रतिबंध लगाए हैं, वे शूद्रों और स्त्रियों पर लगाए हैं, वह भी सवर्ण स्त्रियों पर। दलित क्यों बिलबिला रहे हैं।

दलितों को मालूम होना चाहिए कि मनुस्मृति का विधान हिन्दुओं के लिए है, और हिन्दुओं में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आते हैं। मनु ने कहा है कि पांचवां कोई वर्ण नहीं है। इसलिए, इस फोल्ड में अछूत नहीं आते, जो आज अनुसूचित जातियों के लोग हैं। फिर दलित क्यों मनुस्मृति को लेकर आपे से बाहर हो जाते हैं? मनुस्मृति के खिलाफ विद्रोह शूद्रों को करना चाहिए, जो आज ओबीसी में हैं, और वे ही आज हिन्दू राष्ट्र के सबसे बड़े समर्थक बने हुए हैं।

दलितों को तो मनुस्मृति को लागू कराने का आन्दोलन चलाना चाहिए। मनुस्मृति को एक बार लागू तो हो जाने दो, जो कभी नहीं होगी, क्योंकि आरएसएस जानता है कि मनुस्मृति को ब्राह्मण खुद स्वीकार नहीं करेंगे।

जिस मनुस्मृति की निन्दा करने पर आज हिन्दुओं की भावनाएँ आहत हो जाती हैं, और निन्दकों को जेल में डाल दिया जाता है, वह मनुस्मृति अगर हिन्दूराष्ट्र बनने के बाद फिर से लागू हो जाए, तो क्या होगा? दो बातें ज़रूर होंगी। एक, उच्च वर्ण की स्त्रियाँ और पुरुष दोनों ही इसके ख़िलाफ़ बग़ावत कर देंगे; और दूसरी, अगर बग़ावत को कुचल दिया गया, और मनु के विधान को बलपूर्वक लागू कर दिया गया, तो हिन्दू समाज रसातल में चला जायेगा।

इसलिए मुझे नहीं लगता कि हिन्दूराष्ट्र की सरकार कभी मनुस्मृति को लागू कर सकेगी। वह इसलिए कि मुसलमानों के खिलाफ जहर फैलाना एक अलग बात है, और मनुस्मृति के अनुसार हिन्दुओं को, खास तौर से द्विजों को हजार साल पीछे ले जाना दूसरी बात है। अगर मनुस्मृति के कानून लागू हुए तो कैथरीन मेयो की किताब ‘देवताओं के गुलाम’ के सारे पात्र जिन्दा हो जायेंगे। कोई भी हिन्दू स्त्री फिर पढ़ नहीं पायेगी। उसे 12-13 साल की उम्र में विवाह करना होगा। वह चौका-बर्तन, और बच्चे पैदा करने के सिवा कोई और काम नहीं कर सकेगी। अगर वह कम उम्र में विधवा होती है, तो उसे या तो सती होना पड़ेगा, या सिर घुटाकर आजीवन सफेद वस्त्रों में जीवन गुजारना होगा। हिन्दू धर्म के सनातन विधान में स्त्री की यही नियति है। क्या आधुनिक भारत की सवर्ण महिलाएं, जो आज पायलट हैं, जज हैं, प्रोफ़ेसर हैं, राजनेता हैं, राजनयिक हैं, कलेक्टर, पुलिस अफसर, कलाकार और पत्रकार हैं, इस नियति को स्वीकार करेंगीं? आरएसएस और भाजपा के लोग एक बार मनुस्मृति का विधान लागू करके तो देखें, सवर्ण हिन्दू तो छोड़िए, देश के ब्राह्मण ही सबसे पहले उसके ख़िलाफ़ विद्रोह करेंगे, क्योंकि कोई भी ब्राह्मण स्त्री अब अशिक्षित बनकर प्रतिबंधों की जंजीरों में बंधकर रहना नहीं चाहेगी। सनातन की आवाज़ उठाने वाले और हिन्दू-हिन्दू चिल्लाने वाले उन सवर्णों की भी, चाहें, वे जज हों, नेता हों, प्रोफ़ेसर हों, वकील हों, अक्ल ठिकाने लग जाएगी, जब लोकतंत्र के स्थान पर मनुस्मृति के विधान के साथ हिन्दू राज्य अस्तित्व में आएगा।

आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत संविधान का विरोध यह कहकर करते हैं कि यह विदेशी विचारों पर बनाया गया है, इसमें भारतीय संस्कृति का कुछ भी अंश नहीं है। वह भारतीय संस्कृति की आड़ में हिन्दू संस्कृति, ख़ास तौर से ब्राह्मण-संस्कृति की बात करते हैं। लेकिन आरएसएस का सौ सालों का इतिहास बताता है कि उसने कभी भारतीय संस्कृति की बात नहीं की, हमेशा ब्राह्मण संस्कृति का ही गुणगान किया है। वह हर क्षेत्र में ब्राह्मण प्रभुत्व और ब्राह्मण-वर्चस्व को ही भारतीय संस्कृति कहता आया हैं। उसकी इस संस्कृति के आदर्श नायक श्रीराम हैं, जिन्होंने ब्राह्मण-रक्षा और ब्राह्मण-राज्य स्थापित करने लिए अवतार लिया था। उन्होंने निम्न वर्गों में फूट, विभाजन और भेदभाव पैदा करके, उन्हीं की सेना बनाकर, उन्हीं के साम्राज्य को नष्ट करके ब्राह्मण-राज्य की विजय-पताका फहराई थी। आरएसएस और भाजपा के नेता श्रीराम के ही पदचिन्हों पर चलते हुए, आज दलित-पिछड़े और आदिवासी समुदायों में फूट, विभाजन और भेदभाव पैदा करके, उनकी शिक्षा बर्बाद करके, और उन बेरोजगारों की रामभक्त सेना बनाकर, उन्हीं के हाथों में हिन्दू राष्ट्र के नाम पर, हर क्षेत्र में ब्राह्मण-प्रभुत्व और वर्चस्व कायम कर रहे हैं। यही उनका एकमात्र एजेंडा है। यही उनका सनातन धर्म है, जिसके केंद्र में मनुस्मृति है।

सनातन धर्म के केंद्र में मनुस्मृति ज़रूर है, परन्तु आरएसएस और भाजपा के नेता सिर्फ सनातन की फ़िज़ा बनाए रखने के लिए उसका समर्थन करते हैं, वे उसे लागू कभी नहीं करेंगे। इसका कारण मनु के वे विधान हैं, जिन्हें अब कोई भी हिन्दू, खास तौर से खुद ब्राह्मण स्वीकार नहीं करेंगे। उनमें से कुछ विधान यहाँ उल्लेखनीय हैं।

मनुस्मृति के तीसरे अध्याय में मनु का विधान है कि ‘गुरु के आश्रम में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए 36 वर्ष तक, या 18 वर्ष तक या 19 वर्ष तक तीनों वेद, या दो वेद या एक वेद पढ़े, उसके बाद ही गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे।’ कितने हिन्दू इस नियम का पालन करने को तैयार होंगे? क्या आज यह संभव है कि कोई हिन्दू, ख़ास तौर से द्विज वर्ण का व्यक्ति 36, 18 या 19 वर्ष तक सिर्फ वेद पढ़े, और कुछ न पढ़े? क्या सिर्फ वेद पढ़ने भर से वह योग्य हो जायेगा? क्या कोई भी दर्शन, विज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र, वकालत और अंग्रेज़ी पढ़े बिना राष्ट्र और समाज के विकास में योगदान दे पायेगा? आदमी को ज्ञान-विज्ञान से वंचित करने वाला यह विधान आज कौन हिन्दू स्वीकार करेगा?

मनुस्मृति के नवें अध्याय में व्यवस्था दी गई है कि ‘30 वर्ष का पुरुष 12 वर्ष की कन्या से, और 24 वर्ष का पुरुष 8 की कन्या से विवाह करे।’ यदि मनु का क़ानून लागू हो गया, तो कितने हिन्दू अपनी 8 और 12 वर्ष की कन्याओं का विवाह करने को तैयार होंगे? क्या 8 और 12 वर्ष की यौवन-पूर्व आयु में कन्याओं का विवाह उचित है? यह तो बाल-विवाह की ओर लौटना है, और उस युग की ओर लौटना है, जब लड़कियों का पढ़ना वर्जित था, और आठ साल की उम्र में उनकी शादी कर दी जाती थी। ऐसी लड़कियां कई बीमारियों से ग्रस्त होकर समय-पूर्व ही मर जाती थीं। आज स्त्रियाँ हर क्षेत्र में काम कर रही हैं। क्या अपने दमन का यह विधान सवर्ण स्त्रियाँ स्वीकार करेंगी?

मनुस्मृति के पांचवें अध्याय में कहा गया है कि ‘विधवा स्त्री मरते दम तक पुनर्विवाह नहीं करे।’ मनुस्मृति में ‘करे’ शब्द राजा के लिए आदेश है, यानी यह राज्य का दायित्व है कि उसे इस व्यवस्था में समाज को रखना ही है। मनु के ये कानून अगर लागू हो गए, तो हिन्दू समाज उसी अवस्था में पहुँच जायेगा, जहाँ से वह इन तमाम कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष करके यहाँ तक आया है।

गुरुवार, 16 जनवरी 2025

क्या नारायण गुरु सनातन धर्म का हिस्सा हैं?

 

            क्या नारायण गुरु सनातन धर्म का हिस्सा हैं?

                राम पुनियानी


 

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट)

हाल ही में (31 दिसंबर 2024) शिवगिरी तीर्थयात्रा के एक हिस्से के रूप में सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए, पिनाराई विजयन ने स्वामी सच्चिदानंद के इस प्रस्ताव का समर्थन किया कि मंदिरों में प्रवेश करते समय धड़ को खुला रखा जाने के लिए शर्ट उतारने की प्रथा को बंद किया जाए ऐसा माना जाता है कि यह प्रथा पवित्र जनेऊ पहनने वालों की पहचान करने के लिए अस्तित्व में आई, जो केवल उच्च जाति के थे, जिन्हें इसे पहनने का विशेषाधिकार था। कुछ लोगों को इस पर संदेह है, लेकिन यह असंभव है कि किसी के धड़ को खुला रखने का कोई और कारण था। जिसके पास जनेऊ नहीं था, उसे मंदिर में प्रवेश करने से मना किया जाना था।

विजयन ने यह भी कहा कि यह प्रचार करने का प्रयास किया जा रहा है कि गुरु सनातन परंपरा का हिस्सा थे। वे इससे बहुत दूर हैं क्योंकि गुरु ने 'एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर' का प्रचार किया था। जाति और धर्म के बावजूद यह समानता सनातन धर्म के मूल से बहुत दूर है। विजयन ने यह भी कहा कि गुरु का जीवन और कार्य आज भी बहुत प्रासंगिक है, क्योंकि धार्मिक भावनाओं को भड़काकर हिंसा फैलाई जा रही है। गुरु केवल धार्मिक नेता नहीं थे, वे एक महान मानवतावादी थे। उनके आलोचक विजयन की इस बात के लिए भी आलोचना कर रहे हैं कि उनके मुख्यमंत्री रहने के दौरान हिंदुओं को परेशान किया जा रहा है। वे सबरीमाला का उदाहरण देते हैं, जहां सत्तारूढ़ पार्टी ने पवित्र मंदिर में मासिक धर्म की आयु वाली महिलाओं के प्रवेश के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन करने का फैसला किया।

 भाजपा प्रवक्ता इस मामले में भी सनातन धर्म का अपमान करने के लिए विजयन पर हमला कर रहे हैं। सनातन को लेकर बहस दूसरी बार सामने आई है। सबसे पहले यह तब सामने आई जब दयानिधि स्टालिन ने सनातन के खिलाफ बात की। भाजपा-आरएसएस कह रहा है कि सनातन को केवल जाति और चातुर्वर्ण्य तक सीमित नहीं किया जा सकता। संयोग से 2022 में केरल ने गणतंत्र दिवस परेड के लिए एक झांकी पेश की थी। इसमें नारायण गुरु को दिखाया गया था। रक्षा मंत्रालय की जूरी ने कहा कि केरल की झांकी में गुरु के बजाय कलाडी के शंकराचार्य को दिखाया जाना चाहिए। झांकी को खारिज करने का यह एक बड़ा कारण था।

 इस प्रकार सनातन का अर्थ शाश्वत है और इसका प्रयोग बौद्ध, जैन और हिंदू धर्म के लिए किया जाता है। हिंदू एक ऐसा धर्म है, जिसका कोई एक पैगम्बर या कोई एक पवित्र पुस्तक नहीं है। इसके पवित्र ग्रंथों में हिंदू शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है। इसकी दो प्रमुख धाराएँ हैं, ब्राह्मणवाद और श्रमणवाद। ब्राह्मणवाद क्रमिक असमानता और पितृसत्तात्मक मूल्यों पर आधारित है। अंबेडकर ने इस हिंदू धर्म को त्याग दिया क्योंकि उन्हें लगा कि हिंदू धर्म में ब्राह्मणवादी मूल्यों का बोलबाला है। श्रमणिक परंपराओं में नाथ, आजीविक, तंत्र, भक्ति परंपराएँ शामिल हैं जो असमानता के मूल्यों से दूर हैं।

आज आम बोलचाल में सनातन धर्म और हिंदू धर्म एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। कुछ विचारकों का दावा है कि हिंदू धर्म कोई धर्म नहीं बल्कि धर्म पर आधारित जीवन शैली है। उनके अनुसार धर्म और मजहब एक ही नहीं हैं। इस प्रकार सनातन धर्म मुख्य रूप से वर्ण व्यवस्था, जाति असमानता और इन परंपराओं से जुड़े रहने के लिए खड़ा है। धर्म को धार्मिक रूप से निर्धारित कर्तव्यों के रूप में सबसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। समाज सुधारकों द्वारा जिस बात का विरोध किया जा रहा है, वह असमानता पर आधारित धर्म को अस्वीकार करना है।

अगर हम अंबेडकर का ही उदाहरण लें, तो वे बुद्ध, कबीर और जोतिराव फुले को अपना गुरु मानते थे। उनके लिए जाति और लिंग की असमानता को नकारना महत्वपूर्ण है। मध्यकालीन भारत में संत कबीर, तुकाराम, नामदेव, नरसी मेहता और उनके जैसे लोगों ने जाति व्यवस्था के विरोध पर जोर दिया और उनमें से कुछ को उच्च जाति के शासकों के हमलों का सामना करना पड़ा। इस तरह नारायण गुरु जाति व्यवस्था के खिलाफ एक महान समाज सुधारक के रूप में सामने आते हैं और धार्मिक विभाजन को पार करते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म से प्रेरित वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार केरल से नारायण गुरु को दिखाने वाली झांकी को स्वीकार नहीं कर सकती।

नारायण गुरु एक बहुत ही मानवीय व्यक्ति थे। बड़े होने के दौरान वे अध्यात्म और योग के अभ्यास में गहरे रूप से शामिल हो गए। 1888 में अपनी दार्शनिक यात्रा के दौरान, वे अरुविप्पुरम गए जहाँ उन्होंने ध्यान लगाया। वहाँ रहने के दौरान, उन्होंने नदी से एक चट्टान ली, उसे पवित्र किया और उसे शिव की मूर्ति कहा। तब से इस स्थान को अरुविप्पुरम शिव मंदिर के नाम से जाना जाता है। बाद में इस कार्य को अरुविप्पुरम प्रतिष्ठा के नाम से जाना जाने लगा। इसने बहुत सारे सामाजिक विरोध और विरोध को जन्म दिया, खासकर उच्च जाति के ब्राह्मणों के बीच।

उन्होंने मूर्ति को पवित्र करने के गुरु के अधिकार को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने उन्हें उत्तर दिया "यह ब्राह्मण शिव नहीं बल्कि एझावा शिव है"। उनका यह कथन बाद में बहुत प्रसिद्ध हुआ और जातिवाद के खिलाफ इस्तेमाल किया गया। जातिवाद के खिलाफ लड़ने के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। उनके कदम गहरी जाति व्यवस्था को चुनौती देने का एक बड़ा व्यावहारिक साधन थे। गुरु की क्रांतिकारी समझ 'एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर' थी। वे जाति और धर्म के विभाजन से बहुत आगे जाकर एक ही मानवता की घोषणा करते हैं। बाद में उन्होंने स्कूल खोले, जो निम्न जातियों के लिए भी खुले थे, ठीक उसी तरह जैसे महाराष्ट्र में जोति राव फुले ने किया था। अंबेडकर के कालाराम मंदिर आंदोलन के सिद्धांतों की तरह उन्होंने ऐसे मंदिर बनवाए जो सभी जातियों के लिए खुले थे।

 पिनाराई विज्ञान द्वारा समर्थित स्वामी सच्चिदानंद के हालिया सुझाव में भी तर्क दिया गया है कि नंगे धड़ का होना चिकित्सकीय रूप से बुरा हो सकता है क्योंकि इससे बीमारियाँ फैल सकती हैं। कई प्रथाएँ हैं जिन्हें समय के साथ बदलने की ज़रूरत है। याद कीजिए कि महिलाओं को अपने स्तनों को ढकने का अधिकार नहीं था। अगर महिलाएँ अपने ऊपर का हिस्सा ढकती थीं तो उन पर स्तन कर लगाया जाता था। जब टीपू सुल्तान ने केरल पर कब्ज़ा किया, तो उन्होंने स्तन कर को समाप्त कर दिया और महिलाओं को अपनी गरिमा वापस मिली क्योंकि उन्हें अपने स्तनों को ढकने की अनुमति थी।

 मंदिर हमारे सामुदायिक जीवन का एक हिस्सा हैं। ड्रेस कोड में इस तरह के बदलावों को सामाजिक प्रतिमानों में बदलाव के साथ-साथ होना चाहिए। इसका विरोध घड़ी को पीछे ले जाने जैसा है। धर्म के नाम पर अधिकांश स्थानों पर राजनीति सामाजिक परिवर्तन और राजनीतिक मूल्यों में परिवर्तन के विरुद्ध है। केरल में विविध क्षेत्रों में अनेक विरोधाभास भी देखने को मिलते हैं। यहीं पर एक ओर कालडी के आचार्य शंकर ने बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ किया। बौद्धों ने भौतिकवादी आधार पर इस दुनिया के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने का तर्क दिया, जबकि मोटे तौर पर शंकर ने आदर्शवादी दर्शन का समर्थन करते हुए यह तर्क देने की कोशिश की कि दुनिया एक भ्रम (माया) है। वर्तमान समय में भारत में, केरल सहित, हमें नारायण गुरु और कबीर जैसे संतों के मार्ग पर चलने की जरूरत है, जिनके मानवीय मूल्यों ने समाज को सौहार्द की दिशा दी। अधिकांश मामलों में रूढ़िवादी ‘यथास्थिति’ सामाजिक प्रगति को बाधित करती है।

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