बुधवार, 23 अगस्त 2023

डा. अंबेडकर ने पिछड़ी जातियों के लिए क्या किया?

डॉ. आंबेडकर और पिछड़ी जातियां

डा. अंबेडकर ने पिछड़ी जातियों के लिए क्या किया?

-     एस. आर. दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

 

 

डॉ. आंबेडकर को प्रायः दलितों के उद्धारक के रूप में पहचाना जाता है जबकि वे सभी पददलित वर्गों दलितों और पिछड़ों के अधिकारों के लिए लड़े थे. परन्तु वर्ण व्यवस्था के कारण पिछड़ी जातियां जो कि शूद्र हैं, अपने आप को अछूतों (दलितों) से सामाजिक सोपान पर ऊँचा मानती हैं. एक परिभाषा के अनुसार पिछड़ी जातियां शूद्र हैं तो दलित जातियां अति शूद्र हैं. अंतर केवल इतना है कि पिछड़ी जातियां सछूत और दलित जातियां अछूत मानी जाती हैं. यह भी एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि सछूत  होने के कारण पिछड़ी जातियों का कुछ क्षेत्रों में अछूतों से अधिक शोषण हुआ है. यह भी उल्लेखनीय है कि पिछड़ी जातियां कट्टर हिन्दूवाद के चंगुल में फंसी रही हैं जबकि दलित हिन्दू धर्म के खिलाफ निरंतर विद्रोह करते रहे हैं. सामाजिक श्रेष्ठता के भ्रम के कारण पिछड़ी जातियां डॉ. आंबेडकर को अपना नेता न मान कर दलितों का नेता ही मानती आई हैं. यह इसी लिए भी है क्योंकि अधिकतर पिछड़ी जातियां सवर्ण हिन्दुओं के प्रभाव में रही हैं और उन्हें डॉ. आंबेडकर के बारे में बराबर भ्रमित किया जाता रहा है ताकि वे डॉ. आंबेडकर की विचारधारा से प्रभावित होकर दलितों के साथ एकता स्थापित न कर लें और सवर्णों के लिए बड़ी चुनौती पैदा न कर दें. पिछड़ों और दलितों में इस दूरी के लिए दलित और पिछड़ों के नेता भी काफी हद तक जिम्मेवार हैं जो कि जाति की राजनीति करके अपनी रोटी सेंकते रहे हैं.

अब अगर ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखा जाये तो डॉ. आंबेडकर ने जहाँ पददलित जातियों के अधिकारों के लिए जीवन भर संघर्ष किया वहीँ उन्होंने पिछड़ी जातियों के अधिकारों के लिए भी निरंतर संघर्ष किया. इस तथ्य की पुष्टि निम्नलिखित तथ्यों से होती है:-

1.       डॉ. आंबेडकर की उच्च शिक्षा में बड़ौदा के महाराजा सायाजी राव गायकवाड जो कि पिछड़ी जाति के थे और उन्होंने उन्हें अमेरिका में पढ़ने के लिए छात्रवृति दी थी, का बहुत बड़ा योगदान था.

2. 1.        डॉ. आंबेडकर को सहायता और योगदान देने वाले पिछड़ी जाति के दूसरे व्यक्ति छत्रपति साहू जी महाराज थे.

3. 2.       डॉ. आंबेडकर के रामास्वामी नायकर जो दक्षिण भारत के गैर ब्राह्मण आन्दोलन के अगुवा थे, से सम्बन्ध बहुत अच्छे थे.

4. 3.       डॉ. आंबेडकर पिछड़ी जाति के समाज सुधारक ज्योति राव फुले की सामाजिक विचारधारा से बहुत प्रभावित थे. 

5.  4.     डॉ. आंबेडकर ने ट्रावनकोर (केरल) में इज़ावा जो कि पिछड़ी जाति है, के समानता के आन्दोलन का समर्थन किया था. 

6.5.   डॉ.आंबेडकर ने ही 1928 में साईमन कमीशन के सामने भारत के भावी संविधान में पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की वकालत की थी.  

7. 6.       डॉ. आंबेडकर ने संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष के रूप में सरकारी नौकरियों में आरक्षण के सम्बन्ध में संविधान की धारा 15 (4) में “बैकवर्ड” शब्द का समावेश करवाया था जो बाद में सामाजिक और शैक्षिक तौर से पिछड़ी जातियों के लिया आरक्षण का आधार बना.

8.  7.        डॉ. आंबेडकर के प्रयास से ही संविधान की धारा 340 में पिछड़ी जातियों की पहचान करने के लिए आयोग की स्थापना किये जाने का प्रावधान किया गया.

9.   8.     डॉ. आंबेडकर ने 1942 में शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन नाम से जो राजनैतिक पार्टी बनाई थी उस की नीति में यह उल्लिखित था कि पार्टी पिछड़ी जातियों और जन जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों के साथ गठजोड़ को प्राथमिकता देगी और अगर ज़रूरत पड़ी तो पार्टी अन्य पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के लिए अपना नाम बदल कर “बैकवर्ड क्लासेज़ फेडरेशन” कर लेगी. अतः पार्टी ने उस समय सोशलिस्ट पार्टी से भी चुनावी गठजोड़ किया था.

10.9.   1951 में जब डॉ. आंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल को लेकर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दिया था तो उस में उन्होंने कहा था, “मैं एक दूसरा मामला संदर्भित  करना चाहूँगा जो मेरे इस सरकार से असंतोष का कारण है. यह पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों के साथ इस सरकार द्वारा किये गए बर्ताव के बारे में है. मुझे इस बात का दुःख है की संविधान में पिछड़ी जातियों के लिए कोई भी संरक्षण नहीं किया गया है. इसे राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाने वाले आयोग की संस्तुतियों के आधार पर सरकारी आदेश पर छोड़ दिया गया है. हमें संविधान पारित किये एक वर्ष से अधिक हो गया है परन्तु सरकार ने अभी तक आयोग नियुक्त करने का सोचा भी नहीं है.” इस से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि डॉ. आंबेडकर पिछड़े वर्गों के हित के बारे में कितने चिंतित थे.

1110. .    कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देने के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करते हुए पिछड़ी जातियों की उपेक्षा के बारे में चेतावनी देते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था,” अगर वे अपने समानता का दर्जा पाने के प्रयासों में मायूस हुए तो “शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन” कम्युनिस्ट व्यवस्था को तरजीह देगी और देश का भाग्य डूब जायेगा.” इस से भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है की डॉ. आंबेडकर पिछड़े वर्गों के हित के बारे में कितने प्रयत्नशील थे.  पिछड़े वर्गों के हितों की उपेक्षा की बात उन्होंने बम्बई के नारे पार्क में एक बड़ी जन सभा में भी दोहराई थी.

1211. .    डॉ. आंबेडकर द्वारा पिछड़ी जातियों के मुद्दे को लेकर पैदा किये गए दबाव के कारण ही नेहरु सरकार को 1951 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग नियुक्त करना पड़ा. यह बात अलग है कि सरकार ने इस आयोग की संस्तुतियों को नहीं माना बल्कि आयोग के अध्यक्ष को ही आयोग की संस्तुतियों ( आरक्षण का जातिगत आधार) के विपरीत मंतव्य देने के लिए बाध्य कर दिया गया. 

13.12.     डॉ. छेदी लाल साथी जो कि सत्तर के दशक में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष थे, ने मुझे बताया था कि 1951 में मंत्री  पद से त्याग पत्र देने के बाद  बाबासाहेब बहुत मायूस थे. उस समय पिछड़े  वर्ग के नेता रामलखन चंदापुरी, एस.डी.सिंह चौरसिया और अन्य लोगों ने उन्हें कहा कि आप घबराएं  नहीं हम सब आप के साथ हैं. इसी ध्येय से उन्होंने पटना में पिछड़ा वर्ग की एक रैली का आयोजन किया था जिस में बहुत बड़ी भीड़ जुटी थी. इस से बाबासाहेब बहुत प्रभावित हुए थे और वे फिर दलितों और पिछड़ों की राजनीति में सक्रिय हुए.

1413.  .   इस सम्बन्ध में डॉ. छेदी लाल साथी ने अपनी पुस्तक " दलितों व् पिछड़ी जातियों की स्थिति" के पृष्ठ 113 पर लिखा है, पटना से वापस आने के बाद बाबासाहेब ने अपने साथियों से विचार विमर्श करके शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया को भंग करके उसके स्थान पर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन का फैसला लिया क्योंकि सन 1952 और 1954 में दो बार चुनाव हारने के बाद बाबासाहेब ने महसूस किया कि अनुसूचित जातियों की आबादी तो केवल 20% ही है और जब तक उनको 52% पिछड़े वर्ग का समर्थन नहीं मिलेगा, वह चुनाव में नहीं जीत पाएंगे. अतः; बाबासाहेब ने पिछड़े वर्ग के नेतायों, विशेष करके शिवदयाल सिंह चौरसिया आदि से मशवरा करके रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया में 20% दलित वर्ग के आलावा 52% पिछड़े वर्ग के लोगों तथा 12% आबादी वाले मुसलमान, ईसाई और सिखों को भी सम्मिलित करने का निर्णय लिया. एक साल से अधिक समय रिपब्लिकन पार्टी का संविधान बनाने और सलाह मशविरा में निकल गया."
14.   इस दृष्टि से पटना की यह रैली ऐतिहासिक थी क्योंकि इस में दलितों और पिछड़ों की एकता की नींव डली थी. बाबासाहेब ने नागपुर में 15 अक्तूबर, 1956 को शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया को भंग करके उसके स्थान पर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया की स्थापना करने की घोषणा की थी. 1957 से 1967 तक इन वर्गों की एकता पर आधारित रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया एक बड़ी राजनैतिक ताकत के रूप में उभरी थी परन्तु बाद में कांग्रेस जिस के लिए यह पार्टी सब से बड़ा खतरा बन गयी थी, ने दलित नेताओं की कमजोरियों का फायदा उठा कर उन्हें खरीद लिया और यह पार्टी कई टुकड़ों में बंट गयी. बाद में उभरी बसपा जैसी पार्टी ने भी इस गठबंधन को तहस नहस कर दिया.

15.15.    अपने जीवन के अंतिम वर्षों में बाबासाहेब ने दलितों और पिछड़ों की एकता स्थापित करने के लिए पिछड़े वर्गों के नेता राम मनोहर लोहिया आदि से संपर्क स्थापित भी किया और उन के बीच पत्राचार भी हुआ था. परन्तु दुर्भाग्य से जल्दी ही बाबासाहेब का परिनिर्वाण हो गया और वह गठबंधन नहीं बन सका.

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि डॉ. आंबेडकर ने न केवल दलितों हितों के लिए ही संघर्ष किया बल्कि वे जीवन भर पिछड़े वर्ग के हितों के लिए भी प्रयासरत रहे. उन के प्रयास से ही संविधान में पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान हो सका और उन द्वारा पैदा किये गए दबाव के कारण ही प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग गठित हुआ. बाद में मंडल आयोग गठित हुआ और पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण मिला जिस के लिए  पिछड़े वर्ग को बाबासाहेब का अहसानमंद होना चाहिए.

अतः पिछड़े वर्ग को उन के उत्थान के लिए बाबासाहेब के योगदान को स्वीकार करना चाहिए. वर्तमान की  नयी चुनौतियों के परिपेक्ष्य में इन वर्गों की एकता को पुनर स्थापित करने की ज़रूरत है. यह बात भी सही है कि दलितों और पिछड़ों में कुछ वर्गीय अन्तर्विरोध हैं जिन्हें हल किये बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता.  यह सर्विदित है कि दलित, अति पिछड़े (हिदू, ईसाई और मुसलमान) कुदरती दोस्त हैं. यह समीकरण जातिगत न होकर साझे मुद्दों पर ही आधारित हो सकता है जो कि देश में बहुसंख्यकवाद और हिन्दुत्ववादी राजनीति का सामना कर सकता है.

 

 

सोमवार, 21 अगस्त 2023

संविधान के विरोध का निहितार्थ

 

                                        संविधान के विरोध का निहितार्थ

                                         (कँवल भारती) 

          आरएसएस और भाजपा के कार्य कलाप उनके एजेंडे में पहले से ही रहते हैं। चाहे ओबीसी के आरक्षण का विरोध हो, बाबरी मस्जिद का विध्वंश हो, राम मंदिर हो, ज्ञानवापी, या मथुरा की मस्जिद हो, धारा तीन सौ सत्तर हो, या संविधान बदलने का मुद्दा हो, वो सब उनके एजेंडे में पहले से ही है। उनके कार्य करने का भी एक अलग तरीका है। उन्हें जिस काम को करना होता है, उसके बारे में वे सालों पहले से वातावरण बनाना शुरू कर देते हैं। और खासियत यह भी है कि वे अपने एजेंडे के कार्यान्वयन में पिछड़ी जातियों के नेताओं का ही ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। उनकी किसी भी विध्वंसक घटना का अध्ययन कर लीजिए, आप पाएंगे कि उसके पक्ष में उन्माद तैयार करने से लेकर उसे अंजाम तक पहुंचाने का सारा काम पिछड़ी जातियों द्वारा किया गया था। फिलहाल ज्ञानवापी और मथुरा मुद्दे भाजपा और आरएसएस के एजेंडे के मुताबिक अदालतों में चल रहे हैं, और परिणाम वही आना है, जो बाबरी मस्जिद बनाम रामलला मामले में आया था।

भारतीय संविधान का विरोध और सत्ता में आने पर उसे हटाने का मुद्दा भी आरएसएस के एजेंडे में 1949 से ही है, जब संविधान सभा द्वारा उसे पारित किया गया था। उस समय के अखबारों में छपे आरएसएस-नेताओं के बयान देखे जा सकते हैं, जिनमें कहा गया था कि “भारतीय संविधान में भारतीय जैसा कुछ भी नहीं है।“ आरएसएस के मुख पत्र ‘दि आर्गेनाइजर’ के 30 नवम्बर 1949 के अंक में संविधान के विरोध में जो सम्पादकीय छपा था, उसमें कहा गया था कि “भारत के नए संविधान के बारे में सबसे खास बात यह है कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे भारतीय कहा जाए। इसमें न भारतीय कानून हैं, न भारतीय संस्थाएं हैं, न शब्दावली और पदावली है। इसमें प्राचीन भारत के मनु के कानूनों का उल्लेख नहीं है, जिन्होंने दुनिया को प्रेरित किया है। किन्तु हमारे संवैधानिक पंडितों (आंबेडकर और नेहरू) के लिए उनका कोई अर्थ नहीं है।” यह विरोध लिखने और बोलने तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उसके विरोध में आरएसएस ने प्रदर्शन भी किये थे, और दिल्ली में आंबेडकर का पुतला भी फूंका था।

          इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि आरएसएस की मुख्य चिंता मनुस्मृति है, जिसका कोई कानून, कोई संस्था और कोई शब्दावली भारतीय संविधान में नहीं ली गई है। 1950 के बाद के दशकों में ही नहीं, बल्कि नई सदी के दशकों में भी आरएसएस और भाजपा के नेताओं के स्वर भारतीय संविधान के समर्थन में कभी नहीं रहे। उन्होंने हर अवसर पर इसका विरोध किया। दशवें दशक में जब मंदिर का उन्माद जोरों पर वातावरण में फैला हुआ था, और बाबरी मस्जिद तोड़ी जा चुकी थी, तब 29 जनवरी 1993 को भाजपा के ओबीसी नेता कल्याण सिंह ने फ़ैजाबाद में कहा था, “मैं ललकार कर कहता हूँ कि मुझे ढांचे के टूटने का कोई पछतावा नहीं है। हम केन्द्र में आयेंगे, तो संविधान भी बदलेंगे।“

          भाजपा सरकार ने संविधान और बुद्ध के प्रति अपनी सोच अपनी दो घटनाओं से प्रकट कर दी थी। वह 1992 में अयोध्या में अम्बेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर बाबरी मस्जिद गिराकर संविधान में अपनी अनास्था प्रकट कर चुकी थी और 1998 में बुद्ध जयंती के दिन  पोखरन में परमाणु विस्फोट करके यह स्पष्ट कर चुकी थी कि बुद्ध की अहिंसा में उसका विश्वास नहीं है। 

          और वास्तव में जब 1998 में केन्द्र में पहली बार भाजपा की सरकार कायम हुई, तो प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने पहला काम भारतीय संविधान को बदलने के लिए एक समीक्षा समिति बनाने का ही किया। पर साल भर पहले से आरएसएस ने अपने लोगों को संविधान के खिलाफ मुहिम चलाने पर लगा दिया था। इनमें एक थे अरुण शौरी और दूसरे थे हिंदी के गैर-ब्राह्मण लेखक शैलेश मटियानी। अरुण शौरी मुसलमानों के बरेलवी संप्रदाय के खिलाफ “The World of Fatwas” लिखकर हिंदू-मुस्लिम दंगा पहले ही करा चुके थे। उसके बाद आंबेडकर और संविधान के खिलाफ लेखमाला चलाई, जो हिंदी में दैनिक जागरण में छपी, और बाद में अंग्रेजी में “Worshipping False Gods : Ambedkar” नाम से किताब छपी। अरुण शौरी के खिलाफ दलितों का रोष-प्रदर्शन देश भर में हुआ, और पूना में विरोधियों द्वारा उनके मुंह पर कालिख भी पोती गई थी। अरुण शौरी के संविधान-विरोध की आलोचना मैं अपनी छोटी सी किताब “आंबेडकर को नकारे जाने की साजिश” में कर चुका हूँ, जो 1996 में प्रकाशित हुई थी। शैलेश मटियानी के संविधान-विरोधी विचारों का खंडन मैंने अपने नियमित स्तंभ में किया था, जो उन दिनों मैं कई पत्रों के लिए लिखा करता था। शैलेश मटियानी ने वही कहा था, जो अभी मौजूदा सरकार में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकर समिति के अध्यक्ष बिबेक देबराय ने कहा है कि “संविधान एक औपनिवेशिक रचना है।“ मटियानी संविधान को भारतीय संस्कृति, असल में हिंदू संस्कृति का विरोधी मानते थे, और उसके मौजूदा स्वरूप पर पुनर्विचार चाहते थे। और यह अद्भुत संयोग था, कि जिस दिन शैलेश मटियानी का लेख छपा, उसके ठीक पन्द्रह दिन बाद, वही बात, भाजपा नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने 22 फ़रवरी 1997 को दिल्ली में आरएसएस के पूर्वमुखिया गोलवरकर की स्मृति-व्याख्यान में बोलते हुए कहा कि “संविधान को बनाने में काफी हड़बड़ी दिखाई गई। गहराई से सोचे-समझे बगैर ब्रिटेन की नकल करके जो संसदीय प्रणाली जनता पर थोपी गई, वह  भ्रष्टाचार में मददगार साबित हो रही है।”

          अध्यक्षीय प्रणाली की वकालत वर्तमान भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई अवसरों पर कर चुके हैं। और तो और, हमारे एक अंग्रेजी दलित चिंतक और डिक्की के मेंटर चन्द्रभान प्रसाद भी इस बात को जोर देकर कह चुके हैं कि आंबेडकर भी अमेरिका की अध्यक्षीय प्रणाली के पक्ष में थे। और यह उन्हीं दिनों की बात है, जब केन्द्र में भाजपा की सरकार थी।

          अटलबिहारी वाजपेयी ने, 1998 में, प्रधानमंत्री बनने के बाद, जो संविधान-समीक्षा आयोग गठित किया था, उसमें ग्यारह सदस्य थे। और गौरतलब बात यह है कि उन ग्यारह सदस्यों में एक भी सदस्य दलित वर्ग से नहीं था। उस वक्त मैंने अपने नियमित स्तंभ में लिखा था कि यह आयोग अभिजात और सवर्ण वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है, और सरकार की ओर से रिपोर्ट को लोकतंत्र-विहीन बनाने का संकेत देता है। सरकार ने संविधान की समीक्षा के लिए आयोग को अपना जो एजेंडा सौंपा था, उसमें संविधान के मूल ढांचे “धर्मनिरपेक्षता” को ही खत्म करने का सुझाव था।  एक अवकाशप्राप्त न्यायाधीश का बयान अख़बारों में छपा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्हें भी आयोग में शामिल किया गया था, पर, वह सरकार के एजेंडे से सहमत नहीं थे, इसलिए उसमे शामिल नहीं हुए थे। आयोग के अध्यक्ष वेंकट चलैया थे, जिनके हिंदू-आग्रह सर्वविदित थे। हालाँकि उस आयोग ने क्या समीक्षा की, और क्या रिपोर्ट दी, उसका पता नहीं चल सका। शायद सरकार ने ही समय को अपने अनुकूल न समझकर उसे रोक दिया हो।  लेकिन यह उल्लेखनीय है कि आयोग का गठन होते ही, जहाँ आरएसएस ने अपने तमाम लेखकों, पत्रकारों, विश्लेषकों और संत-महात्माओं को संविधान का विरोध करने के काम पर लगा दिया था, वहाँ भाजपा ने अपने नेताओं को मैदान में उतार दिया था। उस फ़ौज के सामने अरुण शौरी और शैलेश मटियानी तो कुछ भी नहीं थे। उनकी कुछ बानगी देखिए : इलाहाबाद के माघ मेले में शंकराचार्य अखिलेश्वर नन्द ने संविधान को हिंदूविरोधी बताया और मनुस्मृति को लागू करने पर जोर दिया। इसी अवसर पर स्वामी वेदान्ती ने धर्मनिरपेक्षता का विरोध करते हुए धर्मविहीन राजनीति को विधवा के समान बताया और कहा कि भारत में धर्म का शासन होना चाहिए, जैसे रामराज्य में वशिष्ट का और चन्द्रगुप्त के राज्य में चाणक्य का था। दूसरे शब्दों में उन्होंने  ब्राह्मण-राज्य का खुलकर समर्थन किया।  पत्रकार राजीव चतुर्वेदी ने लिखा कि संविधान में मौलिक कुछ भी नहीं है।  उसमें दूसरे देशों के संविधानों से लिए गए टुकड़ों के पैबंद लगाए गए हैं। उन्होंने यह भी लिखा कि संविधान जातीय समानता की बात करता है, पर जाति के नाम पर आरक्षण देने का जातीय भेदभाव भी करता है।  संघ के हिंदूवादी लेखक बनवारी ने लिखा, ‘संविधान न अपना है, न ऊँचा है। यह एक ही व्यक्ति आंबेडकर का बनाया हुआ है, जिन्हें भारतीय समाज और भारतीय ज्ञान-परम्परा की कोई समझ नहीं थी।‘ असल में इन्हें मूल परेशानी आंबेडकर से थी।

          अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार अगर संविधान-समीक्षा के मुद्दे पर कामयाब नहीं हुई, तो उसके उसके दो कारण थे; पहला यह कि उस दौर में आज की तरह सारा प्रचार माध्यम और तंत्र सरकार के नियंत्रण में नहीं था, और सरकार फासीवाद की ओर अग्रसर तो थी, पर पूरी तरह फासीवादी नहीं हुई थी। और दूसरा कारण यह था कि दलित-पिछड़ों का आज की तरह हिंदूकरण  नहीं हुआ था, पर प्रक्रिया जारी थी।  यही कारण था कि वर्ष 2000 में देश भर में दलित संगठनों द्वारा आंबेडकर-जयंती ‘संविधान-बचाओ’ दिवस के रूप में मनाई गई थी, और इससे भाजपा के राजनीतिक अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी बज गई थी।

          लेकिन आज की परिस्थितियां एक दम भिन्न हैं। आज भारत के मुख्यधारा के प्रचार माध्यमों और तंत्र पर नरेन्द्र मोदी का नियंत्रण है; आरएसएस का आईटी सेल सरकार के पक्ष में पूरी मजबूती से सक्रिय भूमिका में है, जो पहले नहीं था; सत्ता पूरी तरह फासीवादी स्वरूप में विरोधियों को कुचलने में जिस तरह आज काम कर रही है, पहले नहीं थी; और सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि दलित-पिछड़ी जातियों का हिंदूकरण हो गया है, जो सरकार के विरोध में जाने की स्थिति में नहीं हैं।

          इसलिए आज संविधान-विरोध के मुद्दे को फिर से उभारा जा सकता है। आज आरएसएस और भाजपा दोनों ही समय को अपने अनुकूल देख रहे हैं। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष बिबेक देबराय ने कुछ नया नहीं कहा है, बल्कि वही कहा है, जो पिछले सत्तर सालों से आरएसएस और भाजपा के नेता बोलते आ रहे हैं।  देबराय का लेख “There is a case for the people to embrace a new constitution” शीर्षक से एक आर्थिक पत्रिका में छपा है।  इसका अर्थ है, लोगों को एक नए संविधान को अपनाने की जरूरत है। इस लेख को मैं नहीं देख सका हूँ। पर हिंदी ‘अमर उजाला’ में कुछ पंक्तियों में उसका जो विवरण छपा है, उसमें देबराय ने “मौजूदा संविधान को औपनिवेशिक विरासत करार दिया है।“ “यह पूछा जाना चाहिए कि संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक, न्याय, स्वतंत्रता, और समानता जैसे शब्दों का अब क्या मतलब है? हमें खुद को एक नया संविधान देना होगा।“

          यह चिंता बिबेक देबराय की नहीं है, बल्कि यह चिंता आरएसएस और भाजपा की है। समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, न्याय, स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांत आरएसएस और भाजपा की आँखों में चुभते हैं, क्योंकि उनके अनुसार इन सिद्धांतों में भारतीयता यानी हिंदुत्व नहीं है। वे सही कहते हैं, क्योंकि भारत में मुस्लिम शासन से पहले तक राजतन्त्र ही थे, जो धर्म के राज्य थे। उनमें न समाजवाद था, न समानता थी, न लोकतंत्र था, और न न्याय था। मैं शाक्य और लिच्छवियों के गणराज्य को लोकतंत्र नहीं मानता, क्योंकि उनमें समाज के सभी वर्गों और खास तौर से निम्न वर्गों को मतदान का अधिकार नहीं था। उनमें भी न्याय, स्वतंत्रता और समानता नहीं थी।  हिंदू राजतंत्रों में तो  मनु का कानून लागू ही था, जो स्वतंत्रता और समानता पर आधारित नहीं, बल्कि सामाजिक भेदभाव पर आधारित थे। भारत को पहली बार समाजवाद, न्याय, स्वतंत्रता और लोकतंत्र के सिद्धांत पश्चिम के राजनीतिक दर्शन ने ही दिए, जिन्हें भारत की हिन्दुत्ववादी सरकार अपने साम्प्रदायिक बहुमत के बल पर खत्म करना चाहती है। आरएसएस का मकसद सामाजिक  समानता को खत्म करके जाति-विभाजन पर आधारित सामाजिक समरसता का सिद्धांत लागू करना है। हमारा मौजूदा संविधान अपने मौलिक अधिकारों को पाने के लिए और सामाजिक-आर्थिक दमन के खिलाफ संघर्ष करने का जो कानूनी शक्ति देता है, वह सामाजिक समरसता के लागू होते ही खत्म हो जायेगा।

इसलिए मैं देबराय के लेख को संविधान बदलने के पक्ष में एक साम्प्रदायिक बहुमत के लिए वातावरण बनाने की एक ‘पहल’ के रूप में देख रहा हूँ। हो सकता है, मीडिया और अख़बार भी इस पर एक उन्मादी बहस चला दें।  

अंत में मैं अपने दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों से भी एक आग्रह करना चाहता हूँ कि वे संविधान-विरोध को आंबेडकर-विरोध का मुद्दा न बनायें, हालाँकि आरएसएस और भाजपा का मुख्य विरोध आंबेडकर से ही है। पर, यह राष्ट्रीय लोकतंत्र का मुद्दा है, और इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए।

(19/8/2023)

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