शनिवार, 8 अप्रैल 2023

मायावती कितनी दलित हितैषी?

    मायावती कितनी दलित हितैषी?

    एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट

मायावती उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनी। सामान्यतया यह अपेक्षा की जाती है कि इस दौरान उसने दलित हित में बहुत कुछ किया होगा परंतु जमीनी सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है जैसाकि निम्नलिखित कुछ उदाहरणों से स्पष्ट है:-

1.   मायावती ने अपने शासन काल में कांशीराम द्वारा बामसेफ के माध्यम से बनवाई गई फिल्म “तीसरी आज़ादी” दिखाने पर उत्तर प्रदेश में 2007 में प्रतिबंध लगा दिया था क्योंकि इसके विरुद्ध सर्वजन के कुछ लोगों ने आपत्ति की थी। यह प्रतिबंध आज भी जारी  है।

2.   मायावती ने उत्तर प्रदेश में पेरियार की पुस्तक “सच्ची रामायण’ की बिक्री पर 2007 में प्रतिबंध लगा दिया था क्योंकि  इस पर सर्वजन के कुछ लोगों ने आपत्ति की थी।

3.   मायावती ने उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक स्थल अथवा निजी जमीन पर भी जिलाधिकारी की अनुमति के बिना डा. अंबेडकर की मूर्ति लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया था जो आज भी लागू है।

4.   मायावती ने एक दलित अधिकारी (हरीश चंद्र) द्वारा मायावती के अनुमोदन से स्पोर्ट्स कालेज में दाखिले में एससी के लिए आरक्षण किए जाने पर रोक लगा दी थी क्योंकि इस पर सर्वजन लोगों ने यह कह कर आपत्ति की थी कि इससे से खेलों के स्तर में गिरावट आ जाएगी। यह उल्लेखनीय है कि यह आरक्षण किसी टीम में नहीं बल्कि स्पोर्ट्स कालेज में प्रवेश के लिए ही था। मायावती ने यह भी कहा था कि उक्त अधिकारी ने मुझ से धोखे से दस्तखत करवा लिए थे।

5.   मायावती ने उसी दलित अधिकारी द्वारा मायावती के अनुमोदन से ही किसी दलित को किसी भी जमीन (ग्राम समाज सहित) पर झोंपड़ी अथवा मकान बना कर रहने पर बेदखल न करने बल्कि उक्त भूमि उसके नाम कर देने का शासनदेश जारी कर दिया था। इस पर सर्वजन के कुछ लोगों ने यह कह कर आपत्ति की कि इससे दलितों को किसी की भी जमीन पर कब्जा करने का अधिकार मिल जाएगा तो मायावती ने उक्त आदेश को यह कह कर रद्द कर दिया कि उक्त अधिकारी ने मुझ से गलत आदेश जारी करवा दिया था और हरीश चंद्र को राजस्व सचिव के पद से हटा दिया था।

6.   1996 में कांशी राम ने लखनऊ में “पेरियार मेला” लगाने तथा परिवर्तन चौक पर पेरियार की मूर्ति लगाने की घोषणा की थी परंतु जब भाजपा ने इस का विरोध कर दिया तो न तो पेरियार मेला लगा और न ही आज तक लखनऊ में पेरियार की मूर्ति तो क्या एक पोस्टर तक भी नहीं लग पाया।

7.   मायावती का उत्तर प्रदेश के दलितों पर सबसे बड़ा कुठाराघात एससी/एसटी एक्ट को दलितों पर अत्याचार के मामले में लागू करने पर 2001 में यह कह कर कि इसका दुरुपयोग हो रहा है, रोक लगाना था। उस समय उक्त एक्ट में अत्याचार के 21 अपराध थे। मायावती द्वारा जारी शासनदेश में इसे 19 मामलों में लागू न करके केवल दो मामलों में ही लागू किया जाना था: एक हत्या और दूसरा बलात्कार। बलात्कार के मामले में भी यह शर्त थी कि पहले वह डाक्टरी मुआयने द्वारा प्रमाणित होना चाहिए। यह सर्व विदित है कि दलित औरतों के बलात्कार के मामले में डाक्टरी में कितनी हेराफेरी की जाती  है। पुलिस इसमें जानबूझ कर देरी करती है ताकि साक्ष्य नष्ट हो जाए। इससे दलितों को दोहरी मार झेलनी पड़ी। एक तो दलितों पर अत्याचार करने वालों को सखत सजा से छूट मिल गई और वे बेधड़क हो कर दलितों पर अत्याचार करते रहे। दूसरे अत्याचार के मामले में इस एक्ट के अंतर्गत दलितों को मिलने वाला मुआवजा भी बंद हो गया। जिस दलित विरोधी कृत्य करने की किसी भी गैर दलित मुख्यमंत्री की हिम्मत नहीं हुई थी मायावती ने उसे धड़ल्ले से कर दिया। यह भी उल्लेखनीय है कि एससी/एसटी एक्ट केन्द्रीय एक्ट है और किसी राज्य सरकार को इसमें कोई भी परिवर्तन करने का अधिकार नहीं है पर फिर भी मायावती ने पूरी हेंकड़ी के साथ इस पर रोक लगा दी। यह भी उल्लेखनीय है कि किसी पर झूठ मुकदमा करने वाले के विरुद्ध धारा  182 के अन्तर्गर कार्रवाही करने का पहले से ही प्रावधान है।  

मायावती के उक्त दलित विरोधी गैर कानूनी कृत्य के विरुद्ध कुछ दलित संगठनों ने इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती देकर रद्द करवाया था। परंतु मायावती ने इसके बाद जो शासनदेश जारी किया उसमें अपने पूर्व शासनदेश को रद्द करते हुए यह भी लिख दिया कि इस एक्ट का किसी भी दशा में दुरुपयोग नहीं होना चाहिए जिसका मतलब पुलिस वाले बहुत अच्छी तरह से समझते हैं।

8.   मायावती के शासनकाल में दलितों पर अत्याचार के मामले यह कह कर दर्ज नहीं किए जाते थे कि इससे मायावती सरकार की बदनामी होगी। इसका खामियाजा दलितों को भुगतना पड़ता था। इसकी सबसे अच्छी उदाहरण अमेठी में ठाकुर लोगों द्वारा दलितों के 18 घर जलाए जाने की है। इसके बारे में मुझे बसपा के विधायक ने ही बताया था। उसने बताया था कि जब वह दलितों के घर जलाए जाने पर पुलिस द्वारा केस दर्ज न करने के मामले को लेकर मायावती से मिला तो मायावती ने उसे यह कह कर डांट दिया कि इससे सरकार की बदनामी होगी।

9.   2007 में फैजाबाद (बीकापुर) बसपा के विधायक आनंद सेन पर फैजाबाद की विधि स्नातक दलित छात्रा शशि के अपहरण और हत्या का आरोप लगा था परंतु मायावती के संरक्षण के कारण वह बिल्कुल बरी हो गया था।

10.  2011 में बसपा के विधायक पुरुषोतम द्विवेदी पर एक नाबालिग पिछड़ी जाति की लड़की ने अपहरण एवं बलात्कार का आरोप लगाया था परंतु कोई कार्रवाही नहीं हुई। इसके विपरीत बलात्कार की शिकार लड़की के विरुद्ध मोबाइल चोरी का आरोप लगा कर जेल भेज दिया गया। जब मायावती सरकार के इस पक्षपात के विरुद्ध भारी हंगामा हुआ तो मामले की विवेचना सीबीसीआइडी को दी गई और विधायक की गिरफ़्तारी हुई तथा वह जेल भेजा गया। अंतत: उसे न्यायालय से सजा हुई।

11. यह सर्वविदित है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश से भोजन के अधिकार के अंतर्गत सभी सरकारी प्राइमरी तथा मिडल स्तर के विद्यालयों में मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था चल रही है जिसे पकाने हेतु दलित रसोइयों की नियुक्ति प्राथमिकता के आधार पर करने के आदेश हैं। इस आदेश के अंतर्गत कुछ दलित रसोइयों की नियुक्तियाँ उत्तर प्रदेश में की गई थीं। 2007 में जब मायावती भारी बहुमत से उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं तो लखनऊ के सरोजनी नगर ब्लाक के एक गाँव के स्कूल में एक दलित रसोइये द्वारा पकाए गए भोजन का बहिष्कार किया गया जिसकी खबर समाचार पत्रों में भी छपी। मायावती सरकार ने भोजन का बहिष्कार करने वाले छात्रों/अभिभावकों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाही करने की बजाए दलित रसोइये को ही नौकरी से निकाल दिया। हम लोगों ने अंबेडकर महासभा की तरफ से दलित रसोइये को बहाल कराने की बहुत कोशिश की परंतु कोई सफलता नहीं मिली। इतना ही नहीं मायावती सरकार ने दलित रसोइयों की भर्ती करने वाला शासनदेश ही रद्द कर दिया।

उपरोक्त कुछ उदाहरणों से स्पष्ट है कि मायावती कितनी दलित हितैषी रही है।        

  

       

 

बुधवार, 22 मार्च 2023

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत पर डा अम्बेडकर


 

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत पर डा. अम्बेडकर

जनता, 13 अप्रैल 1931/ संपादकीय

जनता, 13 अप्रैल 1931/ संपादकीय

तीन कुर्बानियाँ

                                                


भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू इन तीनों को अन्ततः फांसी पर लटका दिया गया। इन तीनों पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने सान्डर्स नामक अंग्रेजी अफसर और चमन सिंह नामक सिख पुलिस अधिकारी की लाहौर में हत्या की। इसके अलावा बनारस में किसी पुलिस अधिकारी की हत्या का आरोप, असेम्ब्ली में बम फेंकने का आरोप और मौलमिया नामक गांव में एक मकान पर डकैती डाल कर वहां लूटपाट एवं मकान मालिक की हत्या करने जैसे तीन चार आरोप भी उन पर लगे। इनमें से असेम्ब्ली में बम फेंकने का आरोप भगत सिंह ने खुद कबूल किया था और इसके लिए उसे और बटुकेश्वर दत्त नामक उनके एक सहायक दोस्त को उमर कैद के तौर पर काला पानी की सज़ा सुनायी गयी। सांडर्स की हत्या भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने की ऐसी स्वीकारोक्ति जय गोपाल नामक भगतसिंह के दूसरे सहयोगी ने भी की थी और उसी बुनियाद पर सरकार ने भगत सिंह के खिलाफ मुकदमा कायम किया था। इस मुकदमें में तीनों ने भाग नहीं लिया था। हाईकोर्ट के तीन न्यायाधीशों के स्पेशल ट्रीब्युनल का गठन करके  उनके सामने यह मुकदमा चला और उन तीनों ने इन्हें दोषी घोषित किया और उन्हें फांसी की सज़ा सुना दी। इस सज़ा पर अमल न हो और फांसी के बजाय उन्हें अधिक से अधिक काला पानी की सज़ा सुनायी जाए ऐसी गुजारिश के साथ भगत सिंह के पिता ने राजा और वायसराय के यहां दरखास्त भी की। अनेक बड़े बड़े नेताओं ने और तमाम अन्य लोगों ने भगत सिंह को इस तरह सज़ा न दी जाए इसे लेकर सरकार से अपील भी की। गांधीजी और लॉर्ड इरविन के बीच चली आपसी चर्चाओं में भी भगत सिंह की फांसी की सज़ा का मसला अवश्य उठा होगा और लार्ड इरविन ने भले ही मैं भगत सिंह की जान बचाउंगा ऐसा ठोस वायदा गांधीजी से न किया हो, मगर लार्ड इरविन इस सन्दर्भ में पूरी कोशिश करेंगे और अपने अधिकारों के दायरे में इन तीनों की जान बचाएंगे ऐसी उम्मीद गांधीजी के भाषण से पैदा हुई थी। मगर यह सभी उम्मीदें, अनुमान और गुजारिशें गलत साबित हुई और बीते 23 मार्च को शाम 7 बजे इन तीनों को लाहौर सेन्ट्रल  जेल में फांसी दी गयी। ‘ हमारी जान बखश दें’ ऐसी दया की अपील इन तीनों में से किसी ने भी नहीं की थी; हां, फांसी की सूली पर चढ़ाने के बजाए हमें गोलियों से उड़ा दिया जाए ऐसी इच्छा भगत सिंह ने प्रगट की थी, ऐसी ख़बरें अवश्य आयी हैं। मगर उनकी इस आखिरी इच्छा का भी सम्मान नहीं किया गया। न्यायाधीश के आदेश पर हुबहू अमल किया गया ! ‘अंतिम सांस तक फांसी पर लटका दें’ यही निर्णय जज ने सुनाया था। अगर गोलियों से उड़ा दिया जाता तो इस निर्णय पर शाब्दिक अमल नहीं माना जाता। न्यायदेवता के निर्णय पर बिल्कुल शाब्दिक अर्थों में हुबहू अमल किया गया और उसके कथनानुसार ही इन तीनों को शिकार बनाया गया।

यह बलिदान किसके लिए

अगर सरकार को यह उम्मीद हो कि इस घटना से ‘अंग्रेजी सरकार बिल्कुल न्यायप्रिय है – न्यायपालिका के आदेश पर हुबहू अमल करती है’ ऐसी समझदारी लोगों के बीच मजबूत होगी और सरकार की इसी ‘न्यायप्रियता’ के चलते लोग उसका समर्थन करेंगे तो यह सरकार की नादानी समझी जा सकती है। क्योंकि यह बलिदान ब्रिटिश न्यायदेवता की शोहरत को अधिक धवल और पारदर्शी बनाने के इरादे से किया गया है, इस बात पर किसी का भी यकीन नहीं है। खुद सरकार भी इसी समझदारी के आधार पर अपने आप को सन्तुष्ट नहीं कर सकती है। फिर बाकीयों को भी इसी  न्यायप्रियता के आवरण में वह किस तरह सन्तुष्ट कर सकती है ? न्यायदेवता की भक्ति के तौर पर नहीं बल्कि विलायत के कान्जर्वेटिव /राजनीतिक रूढिवादी/ पार्टी और जनमत के डर से इस बलिदान को अंजाम दिया गया है, इस बात को सरकार के साथ साथ तमाम दुनिया भी जानती है। गांधी जैसे राजनीतिक बन्दियों को बिनाशर्त रिहा करने और गांधी खेमे से समझौता करने से ब्रिटिश साम्राज्य की बदनामी हुई है और जिसके लिए लेबर पार्टी की मौजूदा सरकार और उनके इशारे पर चलनेवाला वायसरॉय है, ऐसा शोरगुल विलायत के राजनीतिक रूढिवादी  पार्टी के कुछ कटटरपंथी नेताओं ने चला रखा है। और ऐसे समय में एक अंग्रेज व्यक्ति और अधिकारी की हत्या करने का आरोप जिस पर लगा हो और वह साबित भी हो चुका हो, ऐसे राजनीतिक क्रांतिकारी अपराधी को अगर इरविन ने मुआफी दी होती तो इन राजनीतिक रूढिवादियों के हाथों बना बनाया मुददा मिल जाता। पहले से ही ब्रिेटेन में लेबर पार्टी की सरकार डांवाडोल चल रही है और उसी परिस्थिति में अगर यह मसला राजनीतिक रूढिवादियों को मिलता कि वह अंग्रेज व्यक्ति और अधिकारी के हिन्दुस्थानी हत्यारे को भी माफ करती है तो यह अच्छा बहाना वहां के राजनीतिक रूढिवादियों को मिलता और इंग्लैण्ड का लोकमत लेबर पार्टी के खिलाफ बनाने में उन्हें सहूलियत प्रदान होती। इस संकट से बचने के लिए और रूढिवादियों के गुस्से की आग न भड़के इसलिए फांसी की इन सज़ा को अंजाम दिया गया है। यह कदम ब्रिटिश न्यायपालिका को खुश करने के लिए नहीं बल्कि ब्रिटिश लोकमत को खुश करने के लिए उठाया गया है। अगर निजी तौर पर यह मामला लार्ड इरविन की पसंदगी -नापसंदगी से जुड़ा होता तो उन्होंने अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके फांसी की सज़ा रदद करके उसके स्थान पर उमर कैद की सज़ा भगत सिंह आदि को सुनायी होती। विलायत की लेबर पार्टी के मंत्रिमंडल ने भी लार्ड इरविन को इसके लिए समर्थन प्रदान किया होता, गांधी इरविन करार के बहाने से इसे अंजाम देकर भारत के जनमत को राजी करना जरूरी था। जाते जाते लार्ड इरविन भी जनता का दिल जीत लेते। मगर इंग्लेण्ड की अपने रूढिवादी बिरादरों और यहां के उसी मनोव्रत्ती की नौकरशाही के गुस्से का वह शिकार होते। इसलिए जनमत की पर्वा किए बगैर लार्ड इरविन की सरकार ने भगत सिंह आदि को फांसी पर चढ़ा दिया और वह भी कराची कांग्रेस के तीन चार दिन पहले। गांधी-इरविन करार को मटियामेट करने व समझौते की गांधी की कोशिशों को विफल करने के लिए भगत सिंह को फांसी और फांसी के लिए मुकरर किया समय , यह दोनों बातें काफी थी। अगर इस समझौते को समाप्त करने का ही इरादा लार्ड इरविन सरकार का था तो इस कार्रवाई के अलावा और कोई मजबूत मसला उसे ढूंढने से भी नहीं मिलता। इस नज़रिये से भी देखें तो गांधीजी के कथनानुसार सरकार ने यह बड़ी भूल /ब्लंडर/ की है, यह कहना अनुचित नहीं होगा। लुब्बेलुआब यही कि जनमत की परवाह किए बगैर, गांधी-इरविन समझौते का क्या होगा इसकी चिन्ता किए बिना विलायत के रूढिवादियों के गुस्से का शिकार होने से अपने आप को बचाने के लिए, भगत सिंह आदि को बली चढ़ाया गया यह बात अब छिप नहीं सकेगी यह बात सरकार को पक्के तौर पर मान लेनी चाहिए। ..

/प्रस्तुत अंश ‘डा बाबासाहेब अम्बेडकर, एम ए, पीएचडी, डीएससी, बार-एट-लॉ’ की अगुआई में निकलने वाले पाक्षिक अख़बार ‘जनता’ ज्ीम च्मवचसम’ से लिया गया है। मालूम हो कि जनता पाक्षिक का पहला अंक 24 नवम्बर 1930 को प्रकाशित हुआ था। लगातार बाईस अंकों के प्रकाशन के बाद 23 वां और 24 वां अंक ‘संयुक्तांक’ के तौर पर प्रकाशित हुआ। बाद में ‘जनता’ को साप्ताहिक में रूपांतरित किया गया। ‘मूकनायक,’ ‘बहिष्क्रत भारत’, ‘समता’ ऐसी यात्रा पूरी करके अम्बेडकरी अख़बारी आन्दोलन ‘जनता’ तक पहुंची थी।/

(मराठी से हिंदी अनुवाद: सुभाष गाताडे)

 

तीन कुर्बानियाँ

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू इन तीनों को अन्ततः फांसी पर लटका दिया गया। इन तीनों पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने सान्डर्स नामक अंग्रेजी अफसर और चमन सिंह नामक सिख पुलिस अधिकारी की लाहौर में हत्या की। इसके अलावा बनारस में किसी पुलिस अधिकारी की हत्या का आरोप, असेम्ब्ली में बम फेंकने का आरोप और मौलमिया नामक गांव में एक मकान पर डकैती डाल कर वहां लूटपाट एवं मकान मालिक की हत्या करने जैसे तीन चार आरोप भी उन पर लगे। इनमें से असेम्ब्ली में बम फेंकने का आरोप भगत सिंह ने खुद कबूल किया था और इसके लिए उसे और बटुकेश्वर दत्त नामक उनके एक सहायक दोस्त को उमर कैद के तौर पर काला पानी की सज़ा सुनायी गयी। सांडर्स की हत्या भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने की ऐसी स्वीकारोक्ति जय गोपाल नामक भगतसिंह के दूसरे सहयोगी ने भी की थी और उसी बुनियाद पर सरकार ने भगत सिंह के खिलाफ मुकदमा कायम किया था। इस मुकदमें में तीनों ने भाग नहीं लिया था। हाईकोर्ट के तीन न्यायाधीशों के स्पेशल ट्रीब्युनल का गठन करके  उनके सामने यह मुकदमा चला और उन तीनों ने इन्हें दोषी घोषित किया और उन्हें फांसी की सज़ा सुना दी। इस सज़ा पर अमल न हो और फांसी के बजाय उन्हें अधिक से अधिक काला पानी की सज़ा सुनायी जाए ऐसी गुजारिश के साथ भगत सिंह के पिता ने राजा और वायसराय के यहां दरखास्त भी की। अनेक बड़े बड़े नेताओं ने और तमाम अन्य लोगों ने भगत सिंह को इस तरह सज़ा न दी जाए इसे लेकर सरकार से अपील भी की। गांधीजी और लॉर्ड इरविन के बीच चली आपसी चर्चाओं में भी भगत सिंह की फांसी की सज़ा का मसला अवश्य उठा होगा और लार्ड इरविन ने भले ही मैं भगत सिंह की जान बचाउंगा ऐसा ठोस वायदा गांधीजी से न किया हो, मगर लार्ड इरविन इस सन्दर्भ में पूरी कोशिश करेंगे और अपने अधिकारों के दायरे में इन तीनों की जान बचाएंगे ऐसी उम्मीद गांधीजी के भाषण से पैदा हुई थी। मगर यह सभी उम्मीदें, अनुमान और गुजारिशें गलत साबित हुई और बीते 23 मार्च को शाम 7 बजे इन तीनों को लाहौर सेन्ट्रल  जेल में फांसी दी गयी। ‘ हमारी जान बखश दें’ ऐसी दया की अपील इन तीनों में से किसी ने भी नहीं की थी; हां, फांसी की सूली पर चढ़ाने के बजाए हमें गोलियों से उड़ा दिया जाए ऐसी इच्छा भगत सिंह ने प्रगट की थी, ऐसी ख़बरें अवश्य आयी हैं। मगर उनकी इस आखिरी इच्छा का भी सम्मान नहीं किया गया। न्यायाधीश के आदेश पर हुबहू अमल किया गया ! ‘अंतिम सांस तक फांसी पर लटका दें’ यही निर्णय जज ने सुनाया था। अगर गोलियों से उड़ा दिया जाता तो इस निर्णय पर शाब्दिक अमल नहीं माना जाता। न्यायदेवता के निर्णय पर बिल्कुल शाब्दिक अर्थों में हुबहू अमल किया गया और उसके कथनानुसार ही इन तीनों को शिकार बनाया गया।

यह बलिदान किसके लिए

अगर सरकार को यह उम्मीद हो कि इस घटना से ‘अंग्रेजी सरकार बिल्कुल न्यायप्रिय है – न्यायपालिका के आदेश पर हुबहू अमल करती है’ ऐसी समझदारी लोगों के बीच मजबूत होगी और सरकार की इसी ‘न्यायप्रियता’ के चलते लोग उसका समर्थन करेंगे तो यह सरकार की नादानी समझी जा सकती है। क्योंकि यह बलिदान ब्रिटिश न्यायदेवता की शोहरत को अधिक धवल और पारदर्शी बनाने के इरादे से किया गया है, इस बात पर किसी का भी यकीन नहीं है। खुद सरकार भी इसी समझदारी के आधार पर अपने आप को सन्तुष्ट नहीं कर सकती है। फिर बाकीयों को भी इसी  न्यायप्रियता के आवरण में वह किस तरह सन्तुष्ट कर सकती है ? न्यायदेवता की भक्ति के तौर पर नहीं बल्कि विलायत के कान्जर्वेटिव /राजनीतिक रूढिवादी/ पार्टी और जनमत के डर से इस बलिदान को अंजाम दिया गया है, इस बात को सरकार के साथ साथ तमाम दुनिया भी जानती है। गांधी जैसे राजनीतिक बन्दियों को बिनाशर्त रिहा करने और गांधी खेमे से समझौता करने से ब्रिटिश साम्राज्य की बदनामी हुई है और जिसके लिए लेबर पार्टी की मौजूदा सरकार और उनके इशारे पर चलनेवाला वायसरॉय है, ऐसा शोरगुल विलायत के राजनीतिक रूढिवादी  पार्टी के कुछ कटटरपंथी नेताओं ने चला रखा है। और ऐसे समय में एक अंग्रेज व्यक्ति और अधिकारी की हत्या करने का आरोप जिस पर लगा हो और वह साबित भी हो चुका हो, ऐसे राजनीतिक क्रांतिकारी अपराधी को अगर इरविन ने मुआफी दी होती तो इन राजनीतिक रूढिवादियों के हाथों बना बनाया मुददा मिल जाता। पहले से ही ब्रिेटेन में लेबर पार्टी की सरकार डांवाडोल चल रही है और उसी परिस्थिति में अगर यह मसला राजनीतिक रूढिवादियों को मिलता कि वह अंग्रेज व्यक्ति और अधिकारी के हिन्दुस्थानी हत्यारे को भी माफ करती है तो यह अच्छा बहाना वहां के राजनीतिक रूढिवादियों को मिलता और इंग्लैण्ड का लोकमत लेबर पार्टी के खिलाफ बनाने में उन्हें सहूलियत प्रदान होती। इस संकट से बचने के लिए और रूढिवादियों के गुस्से की आग न भड़के इसलिए फांसी की इन सज़ा को अंजाम दिया गया है। यह कदम ब्रिटिश न्यायपालिका को खुश करने के लिए नहीं बल्कि ब्रिटिश लोकमत को खुश करने के लिए उठाया गया है। अगर निजी तौर पर यह मामला लार्ड इरविन की पसंदगी -नापसंदगी से जुड़ा होता तो उन्होंने अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके फांसी की सज़ा रदद करके उसके स्थान पर उमर कैद की सज़ा भगत सिंह आदि को सुनायी होती। विलायत की लेबर पार्टी के मंत्रिमंडल ने भी लार्ड इरविन को इसके लिए समर्थन प्रदान किया होता, गांधी इरविन करार के बहाने से इसे अंजाम देकर भारत के जनमत को राजी करना जरूरी था। जाते जाते लार्ड इरविन भी जनता का दिल जीत लेते। मगर इंग्लेण्ड की अपने रूढिवादी बिरादरों और यहां के उसी मनोव्रत्ती की नौकरशाही के गुस्से का वह शिकार होते। इसलिए जनमत की पर्वा किए बगैर लार्ड इरविन की सरकार ने भगत सिंह आदि को फांसी पर चढ़ा दिया और वह भी कराची कांग्रेस के तीन चार दिन पहले। गांधी-इरविन करार को मटियामेट करने व समझौते की गांधी की कोशिशों को विफल करने के लिए भगत सिंह को फांसी और फांसी के लिए मुकरर किया समय , यह दोनों बातें काफी थी। अगर इस समझौते को समाप्त करने का ही इरादा लार्ड इरविन सरकार का था तो इस कार्रवाई के अलावा और कोई मजबूत मसला उसे ढूंढने से भी नहीं मिलता। इस नज़रिये से भी देखें तो गांधीजी के कथनानुसार सरकार ने यह बड़ी भूल /ब्लंडर/ की है, यह कहना अनुचित नहीं होगा। लुब्बेलुआब यही कि जनमत की परवाह किए बगैर, गांधी-इरविन समझौते का क्या होगा इसकी चिन्ता किए बिना विलायत के रूढिवादियों के गुस्से का शिकार होने से अपने आप को बचाने के लिए, भगत सिंह आदि को बली चढ़ाया गया यह बात अब छिप नहीं सकेगी यह बात सरकार को पक्के तौर पर मान लेनी चाहिए। ..

/प्रस्तुत अंश ‘डा बाबासाहेब अम्बेडकर, एम ए, पीएचडी, डीएससी, बार-एट-लॉ’ की अगुआई में निकलने वाले पाक्षिक अख़बार ‘जनता’ ज्ीम च्मवचसम’ से लिया गया है। मालूम हो कि जनता पाक्षिक का पहला अंक 24 नवम्बर 1930 को प्रकाशित हुआ था। लगातार बाईस अंकों के प्रकाशन के बाद 23 वां और 24 वां अंक ‘संयुक्तांक’ के तौर पर प्रकाशित हुआ। बाद में ‘जनता’ को साप्ताहिक में रूपांतरित किया गया। ‘मूकनायक,’ ‘बहिष्क्रत भारत’, ‘समता’ ऐसी यात्रा पूरी करके अम्बेडकरी अख़बारी आन्दोलन ‘जनता’ तक पहुंची थी।/

(मराठी से हिंदी अनुवाद: सुभाष गाताडे)

 

मंगलवार, 14 मार्च 2023

 डॉ. आम्बेडकर की कम्युनिस्ट घोषणा पत्र के बारे में  राय

”दुनिया के मेहनतकश वर्ग के हर व्यक्ति को मार्क्स का कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र जरूर पढ़ना चाहिए-डॉ. आंबेडकर 

श्रमिक वर्ग के प्रत्येक सदस्य को रूसो के “सोशल कॉन्ट्रैक्ट”, मार्क्स के “कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो”, पोप लियो तेरहवें के “एनसाईक्लीकल ऑन द कंडीशनस ऑफ़ लेबर” और जॉन स्टुअर्ट मिल के “लिबर्टी” से परिचित होना चाहिए। ये उन ग्रंथों में से चार हैं, जो आधुनिक दुनिया के समाज और शासन व्यवस्था के  संगठन के मूल कार्यक्रम से सम्बंधित हैं-डॉ. आंबेडकर ( स्रोत-  बाबासाहेब आम्बेडकर रायटिंग एंड स्पीचेज वाल्यूम 10, पृष्ठ 110)...”

200 साल का विशेषाधिकार 'उच्च जातियों' की सफलता का राज है - जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -

    200 साल का विशेषाधिकार ' उच्च जातियों ' की सफलता का राज है-  जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -   कुणाल कामरा ...