रविवार, 5 फ़रवरी 2023

क्यों बख्शें तुलसी को?

 

क्यों बख्शें तुलसी को?Email

कंवल भारती February 4, 2023 



वर्ष 1992 में मैंने अपने सुलतानपुर (उत्तर प्रदेश) प्रवास में एक कविता लिखी थी, ‘तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती?’ उसे मैंने ‘नवभारत टाइम्स’ को भेजा। उन दिनों वहां विष्णु खरे संपादक थे। उन्होंने उसे ‘नवभारत टाइम्स’ के 31 मार्च, 1992 के रविवारीय अंक में प्रकाशित किया। उसे पढ़कर गिरीशचंद्र श्रीवास्तव और शिवमूर्ति जी मुझसे मिलने आए, जो उन दिनों सुलतानपुर में ही रहते थे। दलित बुद्धिजीवियों में वह कविता इतनी लोकप्रिय हुई कि उसकी सैकड़ों प्रतियां फोटोस्टेट कराकर बांटी गईं। आज के दौर में उस कविता को कोई अखबार नहीं छाप सकता। यह अनुभव मैंने इसलिए साझा किया, क्योंकि आज रामचरितमानस पर दलित बुद्धिजीवियों को कुपढ़ बताया जा रहा है। ‘नवभारत टाइम्स’ में छपी उस लंबी कविता की अंतिम पंक्तियां तुलसीदास की मानस पर हैं। ये पंक्तियां इस प्रकार हैं–

तुलसीदास मानस में लिखते
पूजिए सूद्र सील गुन हीना।
विप्र न गुन गन ग्यान प्रवीना।
तब, तुम्हारी निष्ठा क्या होती?

 

मुख्य सवाल आज इसी निष्ठा का है, जिसे तुलसी-भक्तों द्वारा नजरअंदाज किया जा रहा है। अगर ‘रामचरितमानस’ को सिर्फ एक काव्य-कृति के रूप में स्वीकार किया जाता, और ब्राह्मणों द्वारा उसे धर्म-गंथ न बनाया गया होता, तो कोई विवाद ही नहीं होता। राम का जीवन चरित्र केवल तुलसीदास ने ही तो नहीं लिखा, और भी बहुत से कवियों ने लिखा है; वाल्मीकि, भवभूति, कालिदास, रसिक गोविंद, केशव दास, मैथिलीशरण गुप्त आदि कितने ही कवियों ने राम की कथा लिखी है। उन्हें धर्म-ग्रंथ की श्रेणी में क्यों नहीं रखा गया? हिंदी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल के उद्भव तक लगभग नब्बे प्रतिशत साहित्य ब्राह्मणवाद और ब्राह्मण-महिमा से भरा हुआ है। पर रामचरितमानस के ब्राह्मणवाद पर ही आपत्तियां इसलिए की जा रही हैं, क्योंकि ब्राह्मणों ने उसे धर्म-ग्रंथ बना दिया है।

यह विडंबना ही है कि ब्राह्मणों की निष्ठा ब्राह्मणवाद में ही संतुष्ट होती हैं, लोकतांत्रिक विमर्श में नहीं। यदि तुलसीदास ने ‘जे वर्णाधम तेलि कुम्हारा, स्वपच किरात कोल कलवारा’ मेंविप्र’’ को भी शामिल कर ब्राह्मणों को भी वर्णाधम माना होता, और ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’ की जगह ‘विप्र गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ लिखकर ब्राह्मण को भी ताड़ना का अधिकारी माना होता, तथा ‘पूजिए विप्र सील गुन हीना’ की जगह ‘पूजिए शूद्र सील गुन हीना’ लिखकर शूद्र को पूजनीय माना होता, तो ब्राह्मणों की निष्ठा क्या होती? क्या वे तब भी तुलसीदास के भक्त होते? ब्राह्मण अपनी सीधी बुद्धि से इस तरह क्यों नहीं सोचते? पर वे तो उलटी बुद्धि से सोचते हैं।

इसी उलटी बुद्धि का एक लेख इसी 4 फरवरी, 2023 के ‘अमर उजाला’ में ब्राह्मण पत्रकार हेमंत शर्मा का छपा है–तुलसी को बख्शिए’। अब कोई इनसे पूछे कि तुलसी को बख्श दें, तो पकड़ें किसको? क्या हेमंत शर्मा को पकड़ें? शूद्रों को अधम बताकर अपमानित तुलसीदास ने किया है, तो तुलसी को ही तो पकड़ेंगे। क्यों बख्शें तुलसी को? क्या शूद्रों को बख्श दिया था तुलसी ने? अब चूंकि ‘अमर उजाला’ ब्राह्मणवादी अखबार है, इसलिए हेमंत शर्मा जैसे ब्राह्मण लेखक उसमें छप सकते हैं, पर तुलसी के विरोध में लिखा गया किसी दलित लेखक का लेख उसमें नहीं छपेगा। अगर हेमंत शर्मा सीधी बुद्धि के ब्राह्मण होते, तो निष्ठा पर विचार करते। निष्ठा का मतलब है, अपने को शूद्रों की जगह पर रखना और विचार करना, तब बताते कि फिर उनकी निष्ठा क्या होती?

हेमंत शर्मा का पूरा लेख मेरी नजर में ब्राह्मण-दंभ से भरा हुआ है। वह स्वयं को विद्वान और सुपढ़ मानते हुए लिखते हैं, “इस दफा तुलसी पर हमला ‘कुपढ़ो’ ने बोला है।” उन्होंने अपने ब्राह्मण होने के दंभ में तुलसी के शूद्र-विद्वेष को रेखांकित करने वाले सभी दलित बुद्धिजीवियों को ‘कुपढ़’ बता दिया। असल में कुपढ़ शूद्र का ही पर्याय है। जिस तरह तुलसी ने शूद्र को गंवार और अधम बताया है, उसी का अनुसरण करते हुए हेमंत शर्मा ने ऐसे शूद्रों को नया शब्द ‘कुपढ़’ दे दिया। और, सत्ता की धमक में इस कुपढ़ के खिलाफ कोई पुलिस थाना एफआईआर दर्ज करने का साहस नहीं करेगा, जबकि यह शूद्रों के लिए बेहद अपमानजनक और आहत करने वाला शब्द है।

हेमंत शर्मा अपने लेख में उन बातों को उठाते हैं, जिनसे कोई मतलब ही नहीं है। जैसे, तुलसी को बुरे नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उनके माता-पिता ने त्याग दिया था। तुलसी के किस दलित आलोचक ने इस पर आपत्ति की है? क्या हेमंत शर्मा बताने का कष्ट करेंगे? अब जब यह बेतुका प्रश्न हेमंत की ब्राह्मण बुद्धि ने उठा ही दिया है, तो मैं बता दूं कि तुलसी को त्यागने वाले माता-पिता भी हद दर्जे के मूर्ख, कुपढ़ और ब्राह्मणवादी थे, इसीलिए शकुन-अपशकुन में विश्वास करते थे। वे शायद ईश्वर को भी नहीं मानते होंगे, जैसे आज के ब्राह्मण नहीं मानते, उनके लिए कर्मकांड ही महत्वपूर्ण है। अगर वे ईश्वर की सत्ता को मानते होते, तो शकुन-अपशकुन में विश्वास नहीं करते, क्योंकि न जन्म नक्षत्र देखकर होता है, और न मृत्यु नक्षत्र देखकर होती है। सिर्फ कर्मकांडी कुपढ़ मूर्ख ही नक्षत्रों में विश्वास करते हैं। अब दूसरा सवाल लेते हैं, जिस बालक को माता-पिता ने त्याग दिया हो, उसका पालन-पोषण किसने किया? वह कैसे शिक्षित हो गया? कैसे कवि बन गया? जवाब एक ही है कि तुलसीदास ब्राह्मण था, और ब्राह्मण के विकास में किसी काल में कभी कोई बाधा नहीं थी। अगर तुलसी की जगह कोई दलित होता, और उसके माता-पिता उसे नहीं भी त्यागते, तब भी वह गुलामी ही करता हुआ जीता-मरता, उसे कोई द्विज न पालता, और न पढ़ाता-लिखाता।

हेमंत ने आगे लिखा है कि तुलसी ने दर-दर की ठोकरें खाईं, और हनुमान की शरण में जाकर उनके आशीर्वाद सेरामचरितमानस’ लिखना आरंभ किया। प्रथम तो तुलसी की इस उटपटांग जीवनी से हमारा कोई लेना-देना नहीं। हमारा विरोध तो केवल ‘रामचरितमानस’ में शूद्रों के अपमान से है। दूसरी बात यह कि सवाल यह नहीं है कि तुलसी ने किसकी शरण में जाकर किसके आशीर्वाद से ‘रामचरितमानस’ को लिखना आरंभ किया, बल्कि सवाल यह है कि गरीब तुलसी की पढ़ाई-लिखाई कैसे हुई? बिना शिक्षित हुए वह कुछ भी लिख कैसे सकते थे? हेमंत ने लिखा है कि तुलसी के युग में न मंडल कमीशन आया था और न सिमोन द बुआ का नारी विमर्श आया था। इसका मतलब यह हुआ कि फिर तुलसी को यह समझ कहां से आती कि शूद्रों और स्त्रियों का सम्मान किया जाए। ब्राह्मण किस तरह अपने नायकों की रक्षा करते हैं, उसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है। माना कि मंडल कमीशन और नारी विमर्श नहीं आया था, जिससे तुलसी स्त्री-शूद्र-विरोधी हो गए, पर ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च होता है, यह भाव उनमें कहां से आया

जवाब यह है कि तुलसी में यह भाव आया था मनुस्मृति से, जो उनके समय में आ गई थी। उसी मनुस्मृति से उन्होंने यह भाव लिया था कि ब्राह्मण सर्वोच्च होता है, स्त्री-शूद्र नीच होते हैं। और अगर मंडल कमीशन और सिमोन द बुआ का स्त्री-विमर्श आ भी गया होता, तब भी तुलसी स्त्री-शूद्र के समर्थक नहीं होते, क्योंकि जब मंडल कमीशन आया था, तो ब्राह्मणों ने ही, जो आज तुलसी के भक्त बने हुए हैं, मंडल का विरोध किया था, और चिल्ला-चिल्लाकर कहा था कि आत्मदाह करके मर जायेंगे, पर पिछड़ी जातियों को पढ़ने-लिखने नहीं देंगे। 

कुछ याद आया हेमंत जी! अगर आज तुलसीदास होते, तो वे उतने ही बड़े दलित-विरोधी, उतने ही बड़े मंडल-विरोधी और उतने ही बड़े मुस्लिम-विरोधी होते, जितने बड़े आज आरएसएस और भाजपा के हिंदू हैं, और शायद आप भी।

हेमंत ने डॉ. लोहिया का उदाहरण दिया है, जिन्होंने तुलसी और राम की प्रशंसा की थी। पर हेमंत को यह नहीं मालूम कि लोहिया अपने इसी हिंदू मुखौटे के कारण दलितों में अपना स्थान नहीं बना सके। इसी मुखौटे के कारण डॉ. आंबेडकर को लोहिया कभी रास नहीं आए थे, और इसी मुखौटे के कारण रामस्वरूप वर्मा ने लोहिया की पार्टी को लात मार दी थी। चाहे सोशलिस्ट लोहिया हों और चाहे कम्युनिस्ट रामविलास शर्मा, वे अपने चेहरों पर समाजवाद और कम्युनिज्म के मुखौटे लगाए हुए थे, भीतर से वे ब्राह्मणवादी ही थे। ऐसे ही तमाम ब्राह्मण आज भी समाजवाद के मुखौटे लगाए हुए हैं। पर उन सबके असली चेहरे ब्राह्मणवाद के विरोध के मुद्दे पर तुरंत उजागर हो जाते हैं। हेमंत ने लिखा है कि “तुलसी ने भी पथभ्रष्ट ब्राह्मणों की निंदा की– ‘विप्र निरच्छर लोलुप कामी, निराचार सठ बृषली स्वामी। इसके बाद भी तुलसी को कैसे ब्राह्मणवादी कह सकते हैं?’” 

हेमंत जी मनु ने भी ब्राह्मणों की निंदा की है। पर जानते हैं, कौन से ब्राह्मणों की? मनुस्मृति में उन ब्राह्मणों की निंदा की गई है, जो शूद्रों को पढ़ाते थे। तुलसी भी ऐसे ही ब्राह्मणों के निंदक थे। इसके बाद भी हम तुलसी को ब्राह्मणवादी ही मानते हैं, क्योंकि यह तुलसी ही थे, जिन्होंने मूर्ख ब्राह्मण को भी पूजने को कहा है, और जिनके राम मानव मात्र के कल्याण के लिए नहीं, बल्कि केवल ब्राह्मणों के कल्याण के लिए पैदा हुए थे।

ब्राह्मणों की यह खासियत है कि वे मुद्दे को भटकाने और दूसरी दिशा में मोड़ने में कुशल होते हैं। हेमंत शर्मा ने भी अपने लेख में मुद्दे को भटकाया ही है और तुलसी पर दलित बुद्धिजीवियों के एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया है। मामला सिर्फ ‘रामचरितमानस’ में शूद्रों के अपमान से संबंध पदों से है, जो सिर्फ तुलसी के विरोध तक सीमित है, पर ब्राह्मणों ने उसे राम के अपमान से जोड़ दिया और हिंदू भावनाओं का सवाल खड़ा करके मुद्दे को भटका दिया। जिस क्षण ये ब्राह्मण और द्विज हिंदू भावनाओं का सवाल उठाते हैं, उसी क्षण वे शूद्रों को गैर-हिंदू मान लेते हैं। अगर शूद्र हिंदू नहीं हैं, तो बाकयदा इसकी घोषणा उन्हें करनी चाहिए। और अगर शूद्र हिंदू हैं, तो हिंदू भावनाओं में उनकी भावनाएं शामिल क्यों नहीं हैं? क्या हिंदू के रूप में शूद्रों की भावनाओं का कोई मूल्य नहीं है?

 

शनिवार, 4 फ़रवरी 2023

संत रैदास जयंती पर आल इंडिया पीपुल्स फ़्रंट (आइपीएफ) के उदगार

संत रैदास जयंती पर आल इंडिया पीपुल्स फ़्रंट (आइपीएफ) के उदगार

संत रैदास वाणी
ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन कोअन्न।
छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न।।
जात-जात में जात हैं, जों केलन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जात न जात।।
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।
हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।
रैदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच।
नर कूँ नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।।
बेगमपुरा सहर को नाउ, दुखु-अंदोहु नहीं तिहि ठाउ।
ना तसवीस खिराजु न मालु, खउफुन खता न तरसु जुवालु।
अब मोहि खूब बतन गह पाई, ऊहां खैरि सदा मेरे भाई।
काइमु-दाइमु सदा पातिसाही, दोम न सोम एक सो आही।
आबादानु सदा मसहूर, ऊहाँ गनी बसहि मामूर।
तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै, महरम महल न को अटकावै।
कह ‘रविदास’ खलास चमारा, जो हम सहरी सु मीतु हमारा।
(बेगमपुरा पद के बारे में दलित लेखक कंवल भारती लिखते हैं कि ‘यह पद डेरा सच्चखंड बल्लां, जालंधर के संत सुरिंदर दास द्वारा संग्रहित ‘अमृतवाणी सतगुरु रविदास महाराज जी’ से लिया गया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि असल नाम ‘रैदास’ है, ‘रविदास’ नहीं है। यह नामान्तर गुरु ग्रन्थ साहेब में संकलन के दौरान हुआ। जिज्ञासु जी ने इस संबंध में लिखा है, अ‘ यह पता नहीं चल सका कि गुरु ग्रन्थ साहेब में संत रैदास जी के जो 40 पद मिलते हैं, वे किसके द्वारा पहुंचे और उनमें रैदास को रविदास किसने किया? यह बात विचारणीय इसलिए है, क्योंकि ‘रैदास’ का ‘रविदास’ किया जाना संत प्रवर रैदास जी का ब्राह्मणीकरण है; जो रैदास-भक्तों में सूर्याेपासना का प्रचार है। अन्य संग्रहों में रैदास साहेब का यह पद कुछ पाठान्तर के साथ मिलता है और उसमें ‘रैदास’ छाप ही मिलती है। जिज्ञासु जी के संग्रह में इस पद के आरंभ में यह पंक्ति आई है- ‘अब हम खूब वतन घर पाया, ऊँचा खैर सदा मन भाया।
इस पद में रैदास साहेब ने अपने समय की व्यवस्था से मुक्ति की तलाश करते हुए जिस दुःखविहीन समाज की कल्पना की है; उसी का नाम बेगमपुरा या बेगमपुर शहर है। रैदास साहेब इस पद के द्वारा बताना चाहते हैं कि उनका आदर्श देश बेगमपुर है, जिसमें ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और छूतछात का भेद नहीं है। जहां कोई टैक्स देना नहीं पड़ता है; जहां कोई संपत्ति का मालिक नहीं है। कोई अन्याय, कोई चिंता, कोई आतंक और कोई यातना नहीं है। रैदास साहेब अपने शिष्यों से कहते हैं- ‘ऐ मेरे भाइयो! मैंने ऐसा घर खोज लिया है यानी उस व्यवस्था को पा लिया है, जो हालांकि अभी दूर है; पर उसमें सब कुछ न्यायोचित है। उसमें कोई भी दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक नहीं है; बल्कि, सब एक समान हैं। वह देश सदा आबाद रहता है। वहां लोग अपनी इच्छा से जहां चाहें जाते हैं। जो चाहे कर्म (व्यवसाय) करते हैं। उन पर जाति, धर्म या रंग के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं है। उस देश में महल (सामंत) किसी के भी विकास में बाधा नहीं डालते हैं। रैदास चमार कहते हैं कि जो भी हमारे इस बेगमपुरा के विचार का समर्थक है, वही हमारा मित्र है।’)

-----------------------------------------------------------------------------------------------------

ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन को अन्न।
छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न।।’
रैदास जी जन साधारण के राज की बात करते हैं। एक ऐसे लोकतांत्रिक गणराज्य की जिसमें जनता की भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सभी जरूरतें पूरी हों। यह रचना लगभग छः सौ साल पहले की है। फिर भी उन्होंने किसी राजा-रानी, नवाब या बादशाह के राज की वकालत नहीं की है, यहां तक कि उन्होंने किसी राम राज्य की बात भी नहीं की है। बहुत मुश्किल से दुनिया के किसी इतिहास में संत कवियों की रचना में इस तरह के लोक कल्याणकारी राज्य के विचार मिलते हैं। यहां तक कि राजनीतिक इतिहास में भी यह दुर्लभ है।
रैदास की बेगमपुरा रचना प्लेटो, थामस मूर के विचार की तरह यूटोपियन नहीं है, यह ठोस व व्यावहारिक है तथा लोगों की आवश्यकता के अनुरूप है। यह रचना उदात्त है और छोटी होते हुए भी जनराजनीति के राज्य का आज भी एक प्रामाणिक दस्तावेज है। यह एक पुख्ता प्रमाण है कि हमारे संविधान की प्रस्तावना की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय की संकल्पना किसी पश्चिम की नकल नहीं है, यह भारतीय भूमि की ही पैदाइश है जो विभिन्न रूपों में संघर्ष की धारा के बतौर आज भी मौजूद है।
बेगमपुरा में किसी मूर्ति-मंदिर की राजनीतिक संस्कृति कहीं भी नहीं दिखती है। आजकल कुछ लोग भारतीय संस्कृति को एकांगी बनाकर दलितों, आदिवासियों और आम नागरिकों के सहज मानव प्रेम, मानव मुक्ति की भावना को नष्ट करने में लगे हुए है। यहीं नहीं हिन्दू परम्परा में भी जो ग्राहय है उसको भी वे नष्ट करने पर तुले हुए हैं। आखिर स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती जैसे बड़े संतों ने भी सदैव मूर्ति-मंदिर की राजनीतिक संस्कृति का विरोध ही किया, उनसे बड़ा वैदिक धर्म का ज्ञानी हिन्दुत्व की वकालत करने वाले लोगों में कौन है? गोलवरकर जो हिटलर को अपना आदर्श मानते थे या मोदी सरकार, जो जनता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई से खड़ी हुई जनसम्पत्ति को देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हाथ कौड़ी के मोल बेच रही है, विदेशी ताकतों की सेवा में दिन रात लगी हुई है।
बहुलता को कमजोरी और धर्म निरपेक्षता को जो लोग विदेशी मानते हैं, वे भारतीय संस्कृति को वास्तविक अर्थों में ना जानते हैं, न मानते हैं। भारत ने विश्व को बहुत कुछ दिया है, और विश्व से बहुत कुछ लिया भी है। हमने यूनान, मिस्र, अरब, चीन जैसी सभ्यताओं को दिया भी और लिया भी।
शर्म आनी चाहिये उन लोगों को, जिनके श्लाघा पुरुष हिटलर, मुसोलिनी, तोजो जैसे तानाशाह हैं। शर्म आरएसएस करे, भाजपा करे जो हमारे सांस्कृतिक जीवन में रचे - बसे बहुलता व धर्म निरपेक्षता को खारिज करने में लगे हैं। धर्मनिरपेक्षता के विचार के विदेशी होने के तर्क को यदि मान भी लें तो भी क्या ? सत्य - शिव - सुंदर तो मानव जाति की आत्मा है, अगर कहीं भी सत्य है, तो वह ग्राह्य है ।
रैदास सामाजिक सच्चाइयों से भी रूबरु हो कर ही कहते हैं
- छोट बड़ो सब सम बसे,
रैदास रहे प्रसन्न ।
समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय की भावना कितनी गहरी है उनके अंदर यह उनके इसी पद से समझ सकते हैं। वर्ण व्यवस्था और जाति के जंजाल के भार से दबी मानवता की मुक्ति की भावना, जो बाद में ज्योतिबा फुले, पेरियार और डाक्टर अंबेडकर के संघर्षों में दिखती है उसकी जमीन रैदास जी जैसे संत कवि ही बनाते हैं।
समता की यही संकल्पना, आधुनिक भारत के संविधान की संकल्पना है और न्याय की चाह है।
बेगमपुरा के रचयिता रैदास को आइपीएफ का नमन है और बेगमपुरा की भावना तथा संविधान की प्रस्तावना के संकल्प को जन-जन तक पहुंचाने के लिए आइपीएफ प्रतिबद्ध है।

 

200 साल का विशेषाधिकार 'उच्च जातियों' की सफलता का राज है - जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -

    200 साल का विशेषाधिकार ' उच्च जातियों ' की सफलता का राज है-  जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -   कुणाल कामरा ...