मंगलवार, 4 जून 2019

राजनीतिक सत्ता सब समस्याओं के समाधान की चाबी है- पूर्व आईजी एसआर दारापुरी


राबर्टसगंज लोकसभा क्षेत्र से आल इणिडया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) के प्रत्याशी उ प्र पुलिस के पूर्व आर्इजी आर्इपीएस एस आर दारापुरी(सरवण राम दारापुरी) से दैनिक 'भवदीय प्रभात' के प्रबंध सम्पादक अवनिंद्र ठाकुर  की मार्च, 2014 में बातचीत।:
प्रश्न: दारापुरी जी आप आईपीएस कब बने?
उत्तर: मैं 1972 में आईपीएस बना।
प्रश्न: आप का रुझान नौकरी के दौरान भी सामाजिक बदलाव की तरफ रहा है। आप अपने जीवन के बारे में बताएं?
उत्तर: मैं एक गरीब दलित परिवार में पैदा हुआ और मैंने गाँव में छुआछूत और उत्पीड़न को देखा है। मैंने आम लोगों के प्रति पुलिस और प्रशासन का व्यवहार भी देखा। मेरे मन में पढ़ लिख कर इस व्यवस्था को बदलने की लगन थी। इसीलिए मैंने बहुत मेहनत से पढ़ार्इ की और आर्इपीएस में आया। पुलिस की नौकरी के दौरान मैं ने हरेक व्यक्ति को कानून के अंतर्गत न्याय दिलाने का प्रयास किया। अपने सरकारी काम के साथ-साथ मैं सामाजिक बदलाव कीमुहिम से भी बराबर जुड़ा रहा। 2003 में सेवानिवृत्त होने के बाद एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर मैं जनहित के मुद्दों जैसे सूचना का अधिकार, भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और मानवाधिकार आदि  पर काम करता रहा हूँ। वर्तमान में पीयूसीएल(उ.प्र.) का उपाध्यक्ष और आंबेडकर महासभा का पदाधिकारी भी हूँ।

प्रश्न: जो लोग पुलिस या नौकरशाही में रहते हैं आम तौर पर उनका रुझान कांग्रेस या भाजपा जैसी सत्ताधारी पार्टियों की तरफ दिखता है लेकिन आपने आइपीएफ के राष्ट्रीय प्रवक्ता के बतौर अपनी भूमिका क्यों चुनी?
उत्तर: मैंने किसी व्यक्तिगत लाभ के लिए राजनीति को नहीं चुना है। मैं डॉ. आंबेडकर की इस बात से प्रेरित रहा हूँ कि राजनीति सब समस्याओं के समाधान की चाबी है और राजनीतिक सत्ता का उपयोग समाज के विकास के लिए किया जाना चाहिए। मैंने आइपीएफ को ही इस दिशा में र्इमानदारी से काम करते हुआ पाया है। मैं ही नहीं इस आंदोलन को भारत सरकार के पूर्व वित्त एवं वाणिज्य सचिव व योजना आयोग के सदस्य रहे एसपी शुक्ला, भारत सरकार के पूर्व सचिव प्रो. केबी सक्सेना जैसे तमाम लोंगो का समर्थन प्राप्त है। इसकी राष्ट्रीय अध्यक्ष योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे डी आर गाडगिल की पुत्री प्रख्यात अर्थशास्त्री डॉ. सुलभा ब्रहमें और राष्ट्रीय प्रवक्ता मलेशिया की मशहूर उत्तरा विश्वविधालय में कानून के प्रोफेसर निहालुददीन अहमद है।
प्रश्न: आपने राबर्टसगंज चुनाव क्षेत्र को ही क्यों चुना। मिर्जापुर, सोनभद्र और चंदौली के पहाड़ी इलाकों के पिछड़ेपन के पीछे आप क्या कारण समझते हैं और इसे हल कैसे करेंगे?
उत्तर: मुझे नौकरी के दौरान भी विभिन्न जांचों के सम्बन्ध में इस क्षेत्र को देखने का मौका मिला था, इस लिहाज से यह मेरा जाना पहचाना क्षेत्र है। मेंने देखा है कि यह इलाका प्राकृतिक संसाधनों और कृषि के लिहाज से बेहद समृद्ध है और इसमें इतनी क्षमता है कि यह प्रदेश की बिजली की सारी जरूरतों को पूरा कर सकता है .  इसके  कृषि के विकास में यह उत्तर प्रदेश का सब से अधिक पिछड़ा इलाका बना हुआ है। वनाधिकार कानून को लागू कराने के लिए भी हमें हार्इकोर्ट से आदेश कराना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी नदियों और पहाड़ों का अवैध खनन हुआ। आप देख सकते है यहां की वायु व जल विषाक्त हो गया है।
प्रश्न: आप के चुनाव के प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
उत्तर: सोनभद्र, चंदौली और मिर्ज़ापुर के पहाड़ी क्षेत्र के विकास के लिए कें लिए सरकार से विशेष पैकेज दिलवाना, वनाधिकार कानून को सख्ती से लागू कराकर आदिवासियों और अन्य परम्परागत वनाश्रित जातियों को उनके कब्जे की जमीन का मालिकाना हक दिलाना, ठेकेदारी प्रथा में लगे मजदूरों को नियमित नौकरी और वेतनमान दिलवाना, पूरे क्षेत्र में पेयजल, बिजली, अस्पताल और शिक्षा की व्यवस्था सुनिशिचत करवाना और कृषि के विकास के लिए सिचांर्इ हेतु पानी, कृषि आधारित उधोग व कोल्ड स्टोरेज का निर्माण कराना और किसानों को उपज का उचित मूल्य दिलवाना, विस्थापितों के अधिकारों की गारंटी, पर्यावरण की सुरक्षा और मानवाधिकारों की रक्षा, सामाजिक न्याय के अधिकारों को दिलाना मेरे चुनाव के प्रमुख मुद्दे हैं। मुझे बेहद तकलीफ हुर्इ जब मैंने यहां खेतों में टमाटर को सड़ते हुए देखा।
प्रश्न: भ्रष्टाचार, महंगार्इ और रोजगार जैसे इस समय के ज्वलंत राष्ट्रीय सवालों पर आपका नजरिया क्या है?
उत्तर: यह तो हमारे आंदोलन के राष्ट्रीय मुददे है। वैसे हम आपको बताना चाहेंगे और आप जानते भी होंगे कि आइपीएफ के राष्ट्रीय संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने पूरे राजनीतिक तंत्र को भ्रष्ट कर रहे बड़े पूंजी घराने यानी कारपोरेट जगत को लोकपाल कानून के दायरे में लाने, महंगार्इ पर नियंत्रण के लिए वायदा कारोबार रोकने और रोजगार को संविधान का मूल अधिकार बनाने जैसे सवालों को लेकर संसद के अंतिम सत्र में दिल्ली में जंतर-मंतर पर दस दिवसीय उपवास किया है।
प्रश्न: लोकसभा के 543 सदस्यों में से अलग आप की क्या विशिष्ट भूमिका होगी?
उत्तर: देखिए यह विडम्बना है कि देश के ज्वलंत सवाल और जनता की जिदंगी के महत्वपूर्ण मुददे संसद में नहीं उठ पा रहे है। इसी प्रकार आप देखेंगे कि आजकल नीतियों के मामलों में भी दलों में कोर्इ खास अतंर रह नहीं गया है। ऐसी सिथति में लोगों की जिदंगी के लिए महत्वपूर्ण उन सवालों को जो मेरे चुनाव के भी मुददे है और जिन्हें आइपीएफ समेत जनांदोलनों की ताकतें और इंसाफ पसंद नागरिक उठाते रहे है उन्हें संसद में उठाने और हल कराने में मैं अपनी भूमिका देखता हूं। मैं समझता हूं कि 543 में कुछ लोग इन सवालों पर देश का ध्यान आकर्षित कराने के लिए संसद में पहुंचे।
प्रश्न: आप इस चुनाव को जनमत संग्रह के रूप में ले रहें हैं। जनता का रुझान आप को कैसा दिखता है?
उत्तर: मुझे जनता का भारी समर्थन प्राप्त हो रहा है।

प्रश्न: आमिर खान के 'सत्यमेव जयते' कार्यक्रम के 'पुलिस सुधार' एपिसोड में पुलिस अधिकारी के बतौर आप ने कहा है कि हमारे यहाँ 'डंडा तफ्तीश' होती है। इसका क्या मतलब है?
उत्तर: 'डंडा तफ्तीश'' से मेरा मतलब पुलिस द्वारा गिरफ्तार व्यक्ति के साथ गैर कानूनी ढंग से मारपीट करके जबरदस्ती अपराध कबूल करवाना है जिसके कारण कर्इ बार उनकी मौत भी हो जाती है। इस प्रकार के उत्पीड़न को रोकने के लिए टार्चर के विरुद्ध कानून बनाया जाना चाहिए और कानून के शासन को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए।
प्रस्तुति
दिनकर कपूर
संपर्कः dinkarjsm786@rediffmail.com


रविवार, 2 जून 2019

दलित राजनीति की त्रासदी


दलित राजनीति की त्रासदी  
-एस. आर. दारापुरी , राष्ट्रीय प्रवक्ता,  आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
हाल के लोकसभा चुनाव के परिणामों ने एक बार फिर दिखा दिया है कि वर्तमान दलित राजनीति विफल हो गयी है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) है जिसकी मुखिया मायावती चुनाव परिणाम आने से एक दिन पहले तक प्रधान मंत्री बनने की इच्छा ज़ाहिर कर रही थी. परिणाम आने पर बसपा केवल दस सीटें ही जीत सकी जबकि चुनाव में महागठबंधन मोदी को हराने का दावा कर रहा था. यद्यपि बसपा की दस सीटों की जीत पिछले चुनाव की अपेक्षा एक अच्छी उपलब्धि  मानी जा सकती है परन्तु महागठबंधन के चुनावी परिणामों ने इसकी विफलता भी दिखा दी है.
इस चुनाव में एक बात पुनः उभर कर आई है कि उत्तर भारत में ख़ास करके उत्तर प्रदेश में मायावती का वोट बैंक बहुत सिमट गया है. उत्तर प्रदेश में वह केवल एक ही आरक्षित सीट जीत पायी है जबकि बाकी सारी आरक्षित सीटें भाजपा को चली गयी हैं. इसका मुख्य  कारण यह है कि पूर्व में दलितों की जो उपजातियां बसपा के साथ थीं वे  पिछले कई चुनावों में बसपा को छोड़ कर भाजपा के साथ चली गयी हैं. यह इसी लिए संभव हो पाया है कि बसपा की जाति की राजनीति के माध्यम से जिस तरह वे बसपा से जुडी थीं उसी सोशल इंजीनियिरिंग का इस्तेमाल करके भाजपा ने उन को तोड़ लिया है. एक तरफ जहाँ बसपा केवल एक जाति चमार/जाटव की पार्टी के रूप में मज़बूत हुयी वहीँ दूसरी तरफ दूसरी उपजातियां पासी, बाल्मीकि, धोबी और खटीक प्रतिक्रिया में लामबंद हो कर भाजपा के साथ चली गयीं. ऐसा इसी लिए भी संभव हुआ क्योंकि मायावती ने इन उपजातियों को बसपा में उचित स्थान नहीं दिया. मायावती की अपने उतराधिकारी के एक चमार के ही होने वाली घोषणा ने भी इन जातियों को अपने अपने बारे में सोचने के लिए विवश किया. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जाति तोड़ने की व्यवस्था है जोड़ने की नहीं.
कांशी राम ने शुरू में बहुजन की जिस अवधारणा को प्रचारित किया था उसमे सभी दलित जातियों को राजनीतिक स्तर पर एक समूह बनाने की बात थी. उसमें दलित मुद्दों को राजनीतिक सत्ता के माध्यम से हल करने का नारा दिया गया था. परन्तु जैसे ही कांशी राम ने जाति की राजनीति को आगे बढाने के लिए उपजातियों को अलग अलग उभारने और इस्तेमाल करने की कोशिश की तो बहुजन का विघटन शुरू हो गया. इन उपजातियों और उनके नेताओं की महत्वाकांक्षाएं बलवती होने लगीं और वे अपनी अपनी अस्मिता का इस्तेमाल सत्ता में हिस्सेदारी के लिए करने लगे. यहीं पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने  उन्हें राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी मिलने का अवसर दे कर अपने साथ कर लिया और अब वे उससे बड़ी मजबूती के साथ जुडी हुयी हैं.  परिणाम यह हुआ है कि अब बसपा केवल चमारों/ जाटवों तक ही सीमित हो कर रह गयी है. इतना ही नहीं चमारों/जाटवों का भी एक हिस्सा हिस्सा मायावती की अवसरवादिता, भ्रष्टाचार और सिद्धान्थिनता  एवं दलित मुद्दों की घोर उपेक्षा से नाराज़ हो कर भाजपा के साथ चला गया है.
दलित राजनीति के विघटन के लिए वर्तमान राजनीतिक आरक्षण भी जिम्मेदार है. यह सर्विदित है कि आरक्षित सीट पर सभी उमीदवार आरक्षित वर्ग के ही होते हैं जिस कारण दलित वोट बंट जाता है और सवर्ण वोट निर्णायक हो जाता है. ऐसे में जिस पार्टी के पास सवर्ण वोट होता है वह उस सीट को जीत जाती है. क्योंकि वर्तमान में सवर्ण वोट भाजपा के पास है अतः वह ही आरक्षित सीटें जीत जाती है. ऐसे में भाजपा के लिए दलित उपजातियों को टिकट देकर जिताना और अपने साथ जोड़ लेना संभव हो सका है. इसी फार्मूले से भाजपा ने अति पिछड़ी जातियां जो पहले बसपा/सपा  से जुड़ी थीं भी, बसपा/सपा  से अलग हो कर भाजपा के साथ चली गयी हैं.
भाजपा के लिए दलित उपजातियों को बसपा से अलग करना इसी लिए भी संभव हो सका है क्योंकि ये जातियां अधिकतर कट्टर हिन्दू हैं और उन्हें भाजपा के बृहद हिंदुत्व से जुड़ने में कोई परेशानी नहीं है. इसी प्रकार अति पिछड़ी जातियां जो पहले से ही हिंदुत्व की झंडा बरदार रही हैं,  को भी बसपा/सपा से अलग हो कर भाजपा के साथ जाने में कोई कठिनाई नहीं हुयी है. इसी कारन भाजपा ने दलितों की छोटी उपजातियों और अति पिछड़ी जातियों को बृहद हिंदुत्व के छाते तले लामबंद करके अपने को बहुत मज़बूत कर लिया है. परिणाम स्वरूप बसपा जो कि उत्तर भारत में दलितों की एक सशक्त राजनीतिक पार्टी के रूप में उभरी थी अब केवल चमारों/जाटवों की पार्टी बन कर रह गयी है और अपने पतन की ओर अग्रसर है. इसी प्रकार सामाजिक न्याय के नाम पर उभरी मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी भी केवल कुछ यादवों की पार्टी बन कर सिमट गयी है.

बुधवार, 8 मई 2019

क्या सोनभद्र के दलित-आदिवासी सपा-बसपा और भाजपा को वोट देंगे?


क्या सोनभद्र के दलित-आदिवासी सपा-बसपा और भाजपा को वोट देंगे? 
एस आर दारापुरी, आईपीएस(से. नि.)
 
सोनभद्र उत्तर प्रदेश का क्षेत्रफल में सबसे बड़ा जिला है. यह एक आदिवासी-दलित बाहुल्य जिला है. इस जिले की कुल आबादी 18.62 लाख है जिस में से 4.21 लाख दलित और 3.85 लाख आदिवासी हैं जोकि कुल आबादी का लगभग 44% है. यह जिला कैमूर की पहाड़ियों में बसा है. इसका 3.26 हेक्टेयर भाग जंगल और पहाड़ से आच्छादित है. इसकी सीमा बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश से लगती है.
यद्यपि सोनभद्र वन उपज और खनिज संपदा से भरपूर है और यह जिला उत्तर प्रदेश को सब से अधिक राजस्व देता है परन्तु विकास की दृष्टि से यह जिला नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश के 15 अति पिछड़े तथा उत्तर प्रदेश के 4 अति पिछड़े जिलों में शामिल है. यहाँ पर अधितर दलित आदिवासी भूमिहीन हैं और उनके जीवन का स्तर बहुत निम्न  है. अधिकतर महिलाएं और बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. लोगों के लिए पीने का सुरक्षित उपलब्ध नहीं है और गर्मियों में पानी की अति कमी हो जाती है. विद्यालयों की कमी के कारण सामान्य जातियों, दलितों और आदिवासियों का शिक्षा दर उत्तर प्रदेश की दर से काफी कम है. जिले में स्वास्थ्य सुविधायों की बहुत कमी एवं खस्ता हालत है. सिचाई के साधनों की अत्यंत कमी के कारण कृषि अति पिछड़ी है. स्थानीय मार्किट उपलब्ध न होने के कारण किसानों को अरहर, चना तथा टमाटर आदि को अति कम दर पर बेचना पड़ता है. इन कारणों से सामान्य जातियों के साथ साथ दलित एवं आदिवासी जातियां सामाजिक तथा आर्थिक तौर पर बहुत पिछड़ी हुयी हैं.   
जैसाकि सर्वविदित है कि ग्रामीण परिवेश में भूमि का बहुत महत्त्व होता है. सोनभद्र जिले की कुल आबादी (18.62 लाख) का तीन चौथाई भाग (15.48 लाख) ग्रामीण क्षेत्र में रहता है. अतःइन सबके लिए भूमि का स्वामित्व अति महत्वपूर्ण है. ग्रामीण लोगों में बहुत कम परिवारों के पास पुश्तैनी ज़मीन है. अधिकतर लोग जंगल की ज़मीन पर बसे हैं परन्तु उस पर उनका मालिकाना हक़ नहीं है.  इसी लिए जंगल की ज़मीन पर बसे लोगों को स्थायित्व प्रदान करने के उद्देश से 2006 में वनाधिकार अधिनयम बनाया गया था जिसके अनुसार जंगल में रहने वाले आदिवासियों एवं वनवासियों को उनके कब्ज़े वाली ज़मीन का मालिकाना हक़ अधिकार के रूप में दिया जाना था. इस हेतु निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार प्रत्येक परिवार का ज़मीन का दावा तैयार करके ग्राम वनाधिकार समिति की जाँच एवं संस्तुति के बाद राजस्व विभाग को भेजा जाना था जहाँ  उसका सत्यापन कर दावे को स्वीकृत किया जाना था जिससे उन्हें उक्त भूमि पर मालिकाना हक़ प्राप्त हो जाना था.
वनाधिकार अधिनयम 2008 में लागू हुआ, उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती की बहुत मज़बूत सरकार थी. उसी वर्ष इस कानून के अंतर्गत  सोनभद्र जिले में वनाधिकार के 65,000 दावे तैयार हुए परन्तु 2009 में इनमे से 53,000 अर्थात 81% दावे ख़ारिज कर दिए गये. मायावती सरकार की इस कारवाही के खिलाफ आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने अपने संगठन आदिवासी-वनवासी महासभा के माध्यम से आवाज़ उठाई परन्तु मायावती सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. अंतत मजबूर हो कर हमे इलाहाबाद हाई कोर्ट की शरण में जाना पड़ा. हाई कोर्ट ने हमारे अनुरोध को स्वीकार करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को सभी दावों की पुनः सुनवाई करने का आदेश अगस्त  2013 को दिया परन्तु तब तक मायवती की सरकार जा चुकी थी और उस का स्थान अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार ने ले लिया था. हम लोगों ने 5 साल तक अखिलेश सरकार से इलाहबाद हाई कोर्ट के आदेश के अनुसार कार्रवाही करने का अनुरोध किया परन्तु उन्होंने हमारी एक भी नहीं सुनी और एक भी दावेका निस्तारण नहीं किया. इससे स्पष्ट है कि किस प्रकार मायावती और अखिलेश की सरकार ने सोनभद्र के दलितों और आदिवासियों को बेरहमी से भूमि के अधिकार से वंचित रखा.
आइये वनाधिकार कानून को लागू करने के बारे में अब ज़रा भाजपा की योगी सरकार की भूमिका को भी देख लिया जाए. यह सर्विदित है कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश के 2017 विधान सभा चुनाव में अपने संकल्प पत्र में लिखा था कि यदि उसकी सरकार बनेगी तो ज़मीन के सभी अवैध कब्जे (ग्राम सभा तथा वनभूमि ) खाली कराए जायेंगे. मार्च 2017 में सरकार बनने पर जोगी ने इस पर तुरंत कार्रवाही शुरू कर दी और इसके अनुपालन में ग्राम समाज की भूमि तथा जंगल की ज़मीन से उन लोगों को बेदखल किया जाने लगा जिन का ज़मीन पर कब्ज़ा तो था परन्तु उनका पट्टा उनके नाम नहीं था. इस आदेश के अनुसार वनाधिकार के ख़ारिज हुए 53,000 दावेदारों को भी बेदखल किया जाना था. जोगी सरकार की बेदखली की इस कार्रवाही के खिलाफ हम लोगों को फिर इलाहाबाद हाई कोर्ट की शरण में जाना पड़ा. हम लोगों ने बेदखली की कार्रवाही को रोकने तथा सभी दावों के पुनर परीक्षण का अनुरोध किया.  इलाहबाद हाई कोर्ट ने हमारे अनुरोध पर बेदखली की कार्रवाही पर रोक लगाने, सभी दावेदारों को छुटा हुआ दावा दाखिल करने तथा पुराने दावों पर अपील करने के लिए एक महीने का समय दिया तथा सरकार को तीन महीने में सभी दावों पुनः सुनवाई करके निस्तारण करने का आदेश दिया.  अब उक्त अवधि पूर्ण हो चुकी है परन्तु सरकार द्वारा इस संबंध में कोई भी कार्रवाही नहीं की गयी है.
इसी बीच माह फरवरी में आरएसएस की एक संस्था वाईल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया द्वारा सुप्रीम कोर्ट में वनाधिकार कानून की वैधता को चुनौती दी गयी तथा वनाधिकार के अंतर्गत निरस्त किये गये दावों से जुडी ज़मीन को खाली करवाने हेतु सभी राज्य सरकारों को आदेशित करने का अनुरोध किया गया. मोदी सरकार ने इसमें आदिवासियों/वनवासियों का पक्ष नहीं रखा. परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट ने 24 जुलाई तक ख़ारिज  हुए सभी दावों की ज़मीन खाली कराने का आदेश पारित कर दिया. इससे प्रभावित होने वाले परिवारों की संख्या 20 लाख है जिसमे सोनभद्र जिले के 65,000 परिवार हैं. इस आदेश के विरुद्ध हम लोगों ने आदिवासी वनवासी महासभा के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट फिर गुहार लगाई जिसमें हम लोगों ने बेदखली पर अपने आदेश पर रोक तथा सभी राज्यों को सभी दावों का पुनर्परीक्षण करने का अनुरोध किया.  इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हमारे अनुरोध को स्वीकार करते हुए 10 जुलाई तक बेदखली पर रोक तथा सभी राज्यों को सभी दावों की पुन: सुनवाई का आदेश दिया है जिस पर चुनाव उपरान्त कारवाही की जानी है.
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि किस तह पहले मायावती और फिर अखिलेश यादव की सरकार ने दलितों, आदिवासियों और वनवासियों को वनाधिकार कानून के अंतर्गत भूमि के अधिकार से वन्चित किया है और भाजपा सरकार में उन पर बेदखली की तलवार लटकी हुयी है. यह विचारणीय है कि यदि मायावती और अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल में इन लोगों के दावों का विचरण कर उन्हें भूमि का अधिकार दे दिया होता तो आज उनकी स्थिति इतनी दयनीय नहीं होती. इसी प्रकार यदि मायावती ने अपने शासन काल में भूमिहीनों को ग्रामसभा की ज़मीन जो आज भी दबंगों के कब्जे में है, के पट्टे कर दिए होते तो उनकी आर्थिक हालत कितनी बदल चुकी होती. अतः यह विचारणीय है कि क्या मायावती, अखिलेश और भाजपा सरकार द्वारा दलितों,आदिवासियों और वनवासियों को भूमि के अधिकार से वंचित करने की इस कार्रवाही के सम्मुख वे लोग इस चुनाव में उन्हें वोट  देंगे?

रविवार, 17 फ़रवरी 2019

मोदी सरकार की कोई भी दुस्साहसिक कार्यवाही अलगाववादियों को मदद करेगी-अखिलेन्द्र

मोदी सरकार की कोई भी दुस्साहसिक कार्यवाही अलगाववादियों को मदद करेगी-अखिलेन्द्र
 सुरक्षा चूक और राजनैतिक असफलता की जिम्मेदारी ले मोदी सरकार
 कश्मीर समस्या का राजनैतिक-कूटनीतिक हल करें सरकार
पुलवामा में मारे गये सीआरपीएफ के शहीदों के परिवारों के दुःख के साथ हम पूरी तौर पर शरीक हैं और अपनी एकजुटता सेना और सुरक्षा बलों के साथ व्यक्त करते हैं। पुलवामा की घटना भारी सुरक्षा चूक और मुख्य तौर पर मोदी सरकार की लगभग पिछले 5 वर्षों से चल रही कश्मीर नीति व पाकिस्तान नीति की असफलता का परिणाम है और मोदी सरकार को इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। यह बातें आज ओबरा कार्यालय में सोनभद्र, मिर्जापुर व चंदौली के अगुवा साथियो के साथ बातचीत करते हुए स्वराज अभियान के राष्ट्रीय कार्यसमिति सदस्य अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने कहीं।
उन्होंने कहा कि भाजपा कश्मीर समस्या को हल करने में कम और कश्मीर घाटी में अपना जनाधार बढ़ाने में ज्यादा दिलचस्पी ले रही थी। इसी के तहत जिस पीडीपी के बारे में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा आतंकियों के सहयोगी दल होने की बात करते थे उसके साथ उन्होंने मिलकर जम्मू कश्मीर में सरकार बनाई और पार्टी स्वार्थ में ही सरकार को गिरा भी दिया। घाटी में शांति बहाली और लोगों के अलगाव को दूर करने की कोई राजनीतिक समझ मोदी सरकार में नहीं दिखी। उनके कार्यकाल में केंद्र सरकार व राज्य सरकार से कश्मीरी अवाम का अलगाव बढ़ता गया और आज हालत यह हो गई कि कश्मीरी नौजवान आत्मघाती दस्ते में तब्दील होते जा रहे हैं। पूरे देश को अपने रंग में रंगने की आरएसएस की जो आत्मघाती व वैचारिक कट्टरपन की नीति है, उसी का परिणाम है कि उत्तर पूर्व में भी अलगाव बढ़ रहा है और नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में उत्तर पूर्व भारत में ‘हैलो चाईना बाॅय बाॅय इंडिया‘ के नारे लग रहे हैं ।
कश्मीर की समस्या इजराइल के विरूद्ध फिलीस्तीन के पैटर्न पर बढ़ती जा रही है जो पूरी तौर पर चिंताजनक है। पाकिस्तान के बारे में भी कोई ठोस नीति मोदी सरकार की नहीं दिखती है। कभी दोस्ती कभी युद्ध का माहौल बनाया जाता है। दरअसल पूरी विदेश नीति ही दिशाहीन हो गई है और सभी पड़ोसी मुल्कों के साथ सम्बंध खराब होते गए हैं यहां तक कि भूटान से भी पहले वाले सहज सम्बंध नहीं रह गया है। इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तान के विरूद्ध लिया गया कोई भी दुस्साहिक कदम अलगाववादियों का मनोबल बढायेगा, कश्मीर की समस्या को और जटिल करेगा और विदेशी ताकतों को भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप का मौका देगा। इराक और अफगानिस्तान में अमरीकी दमन के बावजूद आतंकी घटनाएं खत्म नहीं हुई हैं।
भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके संगठनों द्वारा पैदा किया जा रहा युद्धोन्माद व सांप्रदायिकता चिंताजनक है, इससे देश को बचने की जरूरत है। जो लोग ‘खून का बदला खून‘, ‘युद्ध करो-युद्ध करो‘ का नारा लगा रहे हैं वह लोग बेरोजगारी, दरिद्रता व भयावह गरीबी में फंसे आम जनजीवन की जिंदगी को तबाही की तरफ ले जाना चाहते हैं और युद्ध से मालामाल होने वाले हथियार के सौदागरों को मदद पहुंचा रहे हैं। 1971 में पाकिस्तान के विरूद्ध इन्दिरा की जीत की नसीहत का आज कोई मायने मतलब नहीं है, क्योंकि उस समय उनकी जीत के पीछे अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के संतुलन के साथ-साथ बंगलादेश की मुक्ति का राष्ट्रीय आंदोलन भी था। इसलिए ऐसे नाजुक वक्त में देश को नफरत व उन्माद में ढकेलने की जगह ठण्डे दिमाग से प्रभावशाली राजनैतिक-कूटनीतिक पहल लेने की जरूरत है जिससे पाकिस्तान पर दबाब बनाया जा सके और कश्मीर की आवाम का विश्वास भी जीता जा सके। हमें यह याद रखना होगा कि राजनीतिक खालीपन में ही अलगाव और आतंकी घटनाएं बढ़ती हैं । इसलिए हिंसा और युद्धोन्माद नहीं कश्मीर के सभी हिस्सेदारों (स्टेक होल्डरों) से वार्ता की जरूरत अब भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी चार साल पहले थी। इस तरह की कार्यवाही यदि चार साल पहले हुई होती तो सम्भवतः उरी, पठानकोट और अब पुलवामा जैसी आतंकी घटनाओं से देश बच गया होता और किसानों, मजदूरों और गरीबों के सैनिक बेटों की जिदंगी बच गयी होती।
दिनकर कपूर
राज्य कार्यसमिति सदस्य
स्वराज अभियान, उo प्रo द्वारा जारी।

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019

आर्थिक आधार पर आरक्षण : आशंकाएं एवं नयी संभावनाएं - एस.आर.दारापुरी


आर्थिक आधार पर आरक्षण : आशंकाएं एवं नयी संभावनाएं
-एस.आर.दारापुरी पूर्व आई.जी. एवं संयोजक जन मंच  
हाल में भाजपा सरकार द्वारा आर्थिक तौर पर वंचित लोगों को सरकारी नौकरियों में 10% आरक्षण देने सम्बन्धी बिल पास कराया गया है और संविधान संशोधन किया है जिसे राष्ट्रपति की स्वीकृति भी मिल गयी है. यह भी उल्लेखनीय है कि इसे लगभग सभी राजनीतिक दलों का समर्थन मिला है.  यद्यपि  केन्द्रीय सरकार द्वारा इस सम्बन्ध में अभी तक कोई शासनादेश जारी नहीं किया गया है परन्तु गुजरात सरकार ने इसे तुरंत लागू करने का फैसला किया है. यह भी उल्लेखनीय है कि इसे सवर्णों के ही एक संगठन द्वारा सुप्रीम कोर्ट चुनौती भी दे दी गयी है.
इस व्यवस्था के अंतर्गत समाज के आर्थिक तौर पर पिछड़े तबके के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं (सरकारी एवं गैर सरकारी) में 10% आरक्षण देने का प्रावधान किया गया है. इस श्रेणी के लोगों को चिन्हित करने के लिए 8 लाख से कम वार्षिक आय, 5 एकड़ से कम ज़मीन, शहरी क्षेत्र में 1000 वर्ग फुट, छोटे नगरों में 100 वर्ग गज तथा ग्रामीण क्षेत्र में 200 वर्ग गज से कम पलाट होने की शर्त रखी गयी है. यह भी उल्लेखनीय है इस माप दंड के अंतर्गत समाज का 90% हिस्सा आ जाता है.
अब देखने की बात यह है कि क्या यह भाजपा सरकार की गरीबों को वास्तविक लाभ पहुँचाने की भावना से प्रेरित है या केवल आसन्न चुनाव में राजनीतिक लाभ के लिए गरीब लोगों को प्रभावित करने का प्रयास है. यह बात भी सही है कि अब तक भाजपा तमाम वायदों और सबका साथ,  सब का विकास जैसे नारों के बावजूद समाज के कमज़ोर तबकों, किसानों और मजदूरों  की समस्यायों को हल करने में नाकामयाब रही है. सरकार प्रति वर्ष 2 करोड़ रोज़गार पैदा करने के वायदे के विपरीत कुछ लाख ही रोज़गार पैदा कर सकी है. सरकारी क्षेत्र में रोज़गार के अवसर लगातार कम हो रहे हैं और बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ रही है. ऐसी स्थिति में ऐसा नहीं लगता कि प्रस्तावित आरक्षण व्यवस्था समाज के आर्थिक तौर पर गरीब लोगों को कोई वास्तविक  लाभ पहुंचा पायेगा. अतः बेरोगजारी समस्या का हल तो अधिक रोज़गार सृजन ही है न कि आरक्षण.इसके साथ ही रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने तथा निजी क्षेत्र में भी आरक्षण को लागू करने की ज़रुरत है. 
अब अगर आरक्षण के प्रस्तावित मापदंडों को देखा जाये तो यह बहुत ही अन्यायकारी और अव्यवहारिक हैं क्योंकि 8 लाख की आय सीमा के अंतर्गत गैर अनुसूचित और अनुसूचित जातियों का 90% तबका आ जाता है जिसके लिए 10% आरक्षण प्रस्तावित किया गया है. इसी प्रकार 5 एकड़ कृषि भूमि की सीमा भी बहुत ऊँची है जबकि लघु एवं सीमांत कृषकों की संख्या बहुत अधिक है.  इसी प्रकार मकान के पलाट के साईज वाला माप दंड भी बहुत अव्यवहारिक है. अब सरकार अगर वास्तव में समाज के गरीब तबकों को कोई लाभ पहुंचना चाहती है तो 8 लाख की आय की सीमा को घटा कर आय कर से मुक्त व्यक्तियों और 5 एकड़ की सीमा को कम कर के  लघु एवं सीमांत कृषक और प्लाट का साईज़ निर्बल वर्ग आवास तक ही सीमित किया जाना चाहिए.
यदि  प्रस्तावित आरक्षण के संवैधानिक पहलू को देखा जाए तो वर्तमान में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का कोई भी प्रावधान नहीं है. इससे पहले भी जब जब आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया गया है तो इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर दिया जाता रहा है. आरक्षण का वर्तमान आधार सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ापन सामूहिक और जातिगत है जबकि गरीबी व्यक्तिगत स्थिति है. सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ापन ऐतहासिक परिस्थियों की देन है जबकि आर्थिक पिछड़ापन सरकार की आर्थिक नीतियों का परिणाम है और परिवर्तनीय है. अतः प्रस्तावित आरक्षण के सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किये जाने की भी प्रबल सम्भावना है क्योंकि यह संविधान की मूल भावना के विपरीत है. यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% है जबकि प्रस्तावित आरक्षण इसे 60% तक ले जाता है. इस आधार पर भी इसके सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किये जाने की सम्भावना है.
यह भी विचारणीय है कि आरक्षण का मूल प्रयोजन सदियों से व्यवस्था से बाहर रखे गये अनुसूचित जाति/ जनजाति तथा पिछड़े वर्ग  के लोगों को प्रशासन, राजनीति और शिक्षा के क्षेत्र में विशेष अवसर दे कर प्रतिनिधित्व द्वारा शेष वर्गों के समकक्ष समानता स्थापित करने का है. यह कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है. उच्च वर्गों की गरीबी दूर करने के लिए गरीबी उन्मूलन एवं कल्याणकारी कार्यक्रमों को मजबूती से लागू करने की है जबकि सरकार इन कार्यक्रमों का बजट लगातार घटा रही है. अतः राज्य के कल्याणकरी कार्यक्रमों हेतु अधिक बजट दिए जाने की ज़रुरत है.
सामाजिक न्याय के नाम पर  दलित बहुजन दृष्टि वाले कुछ नेता यह मांग उठाते हैं कि आरक्षण को सभी जातियों में उनकी आबादी के अनुपात में बाँट देना चाहिए. यह तर्क एक दम बेतुका है क्योंकि आरक्षण कोई खैरात नहीं है जिसे सबको बाँट देना चाहिए. यह एतहासिक तौर पर शोषण और भेदभाव का शिकार हुए तबकों को विशेष अवसर देकर मुख्य धारा मे प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था है न कि कोई आर्थिक लाभ पहुँचाने की.  इसके अतिरिक्त जब वर्तमान व्यवस्था में आरक्षण  की अधिकतम सीमा 50% है  तो फिर इसे 100% कैसे किया जा सकता है. इस सम्बन्ध में दलित वर्ग के अन्दर भी एक भय पैदा हो गया है कि यदि आज सवर्णों के लिए आरक्षण का आर्थिक आधार हो जाने से कल को दलितों के आरक्षण के जातीय आधार को अर्थिक आधार में बदलने की मांग जोर पकड़ सकती है.
मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित आरक्षण का एक सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि इससे सवर्णों द्वारा आरक्षण के विरोध का आधार समाप्त हो गया है क्योंकि इसे समाज के सभी वर्गों ने स्वीकार कर लिया है. इससे अब तक दिए गये आरक्षण का औचित्य और आवश्यकता भी सिद्ध हो गयी है. इसके अतिरिक्त इसने सवर्णों के अभिजात्य वर्ग द्वारा इसका विरोध करने के कारण सवर्णों की जातीय एकजुटता को भी कमज़ोर किया है जोकि लोकतंत्र के हित में है और स्वागतयोग्य है.
जिस जल्दबाजी और समय के बिंदु पर मोदी सरकार ने आर्थिक आधार पर आरक्षण की घोषणा की है वह एक राजनीतिक चालबाजी का प्रतीक है. इसके माध्यम से भाजपा एक तो सवर्णों के गरीब तबके जो कि उससे तेजी से हट रहा था को आरक्षण दे कर जोड़े रखने का प्रयास कर रही है वहीं वह इसका विरोध करने वाली पार्टियों को भी गरीब विरोधी घोषित करके लाभ लेने के प्रयास में थी परन्तु उसे इसमें आंशिक सफलता ही मिली है. इसके विपरीत सवर्णों का अभिजात्य वर्ग उससे नाराज़ हो गया है क्योंकि इसमें उसे अपने लिए  खतरा दिखायी दे रहा है. उसे लगता है कि आगे चल कर आरक्षण की सीमा और भी बढ़ाई जा सकती है. इसी लिए किसी और ने नहीं बल्कि “यूथ फार इक्वालिटी”’ जो हमेशा से जातिगत आरक्षण का विरोध करती रही है ने इसका विरोध करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में रिट दाखिल कर दी है. इसके इलावा अगर सुप्रीम कोर्ट इस आरक्षण को रद्द नहीं करती तो यह पिछड़े वर्गों द्वारा भी अपने आरक्षण की सीमा बढ़ाये जाने की मांग को उठाने के लिए प्रेरित कर सकता है.
यह भी सर्वविदित है कि आरक्षण उत्पीडित वर्गों में शासक वर्ग को अपना विस्तार करने और एक नये अभिजात्य वर्ग को जन्म देने का अवसर देता  है जिसका स्वार्थ उसे शासक वर्ग में आत्मसात होने के लिए प्रेरित करता है. यह देखा गया है कि दलित और पिछड़े वर्गों में जो अभिजात्य वर्ग (क्रीमी लेयर) पैदा हुआ है जिसका स्वार्थ आरक्षण के लाभ को अधिक से अधिक अपने लिए हथियाने का होता है. यह भी एक आम चर्चा है अब तक आरक्षण का लाभ केवल कुछ संपन्न परिवारों तक ही सीमित हो कर रह गया है. यह भी आरोप लगाया जाता है कि इन वर्गों का अभिजात्य हिस्सा आरक्षण के माप दंडों शिथिल करने का विरोध करता है,  जैसे क्रीमी लेयर के लिए आय सीमा को कम किया जाना. सवर्ण तबका प्राय यह मांग करता रहा है कि इन वर्गों के संपन्न परिवारों तथा एक बार आरक्षण से लाभान्वित हो चुके परिवारों  को आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाना चाहिए. नई आरक्षण व्यवस्था इस बहस को और भी गति देगी.   
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मोदी सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर लाया गया आरक्षण यद्यपि सवर्णों के गरीब तबकों को वास्तविक  लाभ पहुँचाने की बजाये राजनीति से अधिक प्रेरित है परन्तु फिर भी इसके बहुत सारे निहितार्थ हैं. यदि इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द नहीं किया जाता तो यह समाज के अन्दर नये समीकरणों को जन्म दे सकता है और सवर्ण जातीय एकजुटता को कमज़ोर कर सकता है. दलित, ओबीसी तथा सवर्णों के अभिजात्य वर्ग की शेष तबकों के विरुद्ध निहितस्वार्थ के लिए एकजुटता को भी जन्म दे सकता है. जहाँ तक भाजपा के लिए इससे राजनीतिक लाभ की बात है वह बहुत सीमित ही होगा क्योंकि जहाँ एक तरफ गरीब सवर्ण खुश हो सकता है तो वहीं उच्च सवर्ण नाराज़ भी हो सकता है. वैसे कुल मिला कर आर्थिक आधार पर आरक्षण पूरे सामाजिक के लिए एक दिलचस्प परिघटना है जिसके दूरगामी सामाजिक एवं राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं.


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