गुरुवार, 12 अक्टूबर 2017
आखिर क्यों मार्क्सवादियों को अवश्य ही अम्बेडकर और अम्बेडकरवाद का विरोध करना चाहिए?
Worker Socialist: आखिर क्यों मार्क्सवादियों को अवश्य ही अम्बेडकर और अम्बेडकरवाद का विरोध करना चाहिए?
शुक्रवार, 8 सितंबर 2017
सभी धर्मों को सम्मान व चन्दा देता था औरंगज़ेब- प्रो. बी. एन पाण्डेय
सभी धर्मों को सम्मान व चन्दा देता था औरंगज़ेब- प्रो. बी. एन पाण्डेय
जब
मैं इलाहाबाद नगरपालिका का चेयरमैन था (1948 ई. से 1953
ई.
तक) तो मेरे सामने दाखिल-खारिज का एक मामला लाया गया। यह मामला सोमेश्वर नाथ
महादेव मन्दिर से संबंधित जायदाद के बारे में था। मन्दिर के महंत की मृत्यु के बाद
उस जायदाद के दो दावेदार खड़े हो गए थे। एक दावेदार ने कुछ दस्तावेज़ दाखिल किये
जो उसके खानदान में बहुत दिनों से चले आ रहे थे। इन दस्तावेज़ों में शहंशाह
औरंगज़ेब के फ़रमान भी थे। औरंगज़ेब ने इस मन्दिर को जागीर और नक़द अनुदान दिया
था। मैंने सोचा कि ये फ़रमान जाली होंगे। मुझे आश्चर्य हुआ कि यह कैसे हो सकता है
कि औरंगज़ेब जो मन्दिरों को तोडने के लिए प्रसिद्ध है, वह एक मन्दिर को यह कह
कर जागीर दे सकता है कि यह जागीर पूजा और भोग के लिए दी जा रही है। आखि़र औरंगज़ेब
कैसे बुतपरस्ती के साथ अपने को शरीक कर सकता था। मुझे यक़ीन था कि ये दस्तावेज़
जाली हैं, परन्तु
कोई निर्णय लेने से पहले मैंने डा. सर तेज बहादुर सप्रु से राय लेना उचित समझा। वे
अरबी और फ़ारसी के अच्छे जानकार थे। मैंने दस्तावेज़ें उनके सामने पेश करके उनकी
राय मालूम की तो उन्होंने दस्तावेज़ों का अध्ययन करने के बाद कहा कि औरंगजे़ब के
ये फ़रमान असली और वास्तविक हैं। इसके बाद उन्होंने अपने मुन्शी से बनारस के
जंगमबाडी शिव मन्दिर की फ़ाइल लाने को कहा। यह मुक़दमा इलाहाबाद हाईकोर्ट में 15 साल से विचाराधीन था।
जंगमबाड़ी मन्दिर के महंत के पास भी औरंगज़ेब के कई फ़रमान थे, जिनमें मन्दिर को जागीर
दी गई थी।
इन
दस्तावेज़ों ने औरंगज़ेब की एक नई तस्वीर मेरे सामने पेश की, उससे मैं आश्चर्य में
पड़ गया। डाक्टर सप्रू की सलाह पर मैंने भारत के पिभिन्न प्रमुख मन्दिरों के महंतो
के पास पत्र भेजकर उनसे निवेदन किया कि यदि उनके पास औरंगज़ेब के कुछ फ़रमान हों
जिनमें उन मन्दिरों को जागीरें दी गई हों तो वे कृपा करके उनकी फोटो-स्टेट कापियां
मेरे पास भेज दें। अब मेरे सामने एक और आश्चर्य की बात आई। उज्जैन के महाकालेश्वर
मन्दिर, चित्रकूट
के बालाजी मन्दिर, गौहाटी
के उमानन्द मन्दिर, शत्रुन्जाई
के जैन मन्दिर और उत्तर भारत में फैले हुए अन्य प्रमुख मन्दिरों एवं गुरूद्वारों
से सम्बन्धित जागीरों के लिए औरंगज़ेब के फरमानों की नक़लें मुझे प्राप्त हुई। यह
फ़रमान 1065 हि. से 1091 हि., अर्थात
1659 से 1685 ई. के बीच जारी किए गए थे। हालांकि हिन्दुओं और उनके मन्दिरों के
प्रति औरंगज़ेब के उदार रवैये की ये कुछ मिसालें हैं, फिर भी इनसे यह
प्रमाण्ति हो जाता है कि इतिहासकारों ने उसके सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है, वह पक्षपात पर आधारित
है और इससे उसकी तस्वीर का एक ही रूख सामने लाया गया है। भारत एक विशाल देश है, जिसमें हज़ारों मन्दिर
चारों ओर फैले हुए हैं। यदि सही ढ़ंग से खोजबीन की जाए तो मुझे विश्वास है कि और
बहुत-से ऐसे उदाहरण मिल जाऐंगे जिनसे औरंगज़ेब का गै़र-मुस्लिमों के प्रति उदार
व्यवहार का पता चलेगा। औरंगज़ेब के फरमानों की जांच-पड़ताल के सिलसिले में मेरा
सम्पर्क श्री ज्ञानचंद और पटना म्यूजियम के भूतपूर्व क्यूरेटर डा. पी एल. गुप्ता
से हुआ। ये महानुभाव भी औरंगज़ेब के विषय में ऐतिहासिक दृस्टि से अति महत्वपूर्ण
रिसर्च कर रहे थे। मुझे खुशी हुई कि कुछ अन्य अनुसन्धानकर्ता भी सच्चाई को तलाश
करने में व्यस्त हैं और काफ़ी बदनाम औरंगज़ेब की तस्वीर को साफ़ करने में अपना योगदान
दे रहे हैं। औरंगज़ेब, जिसे
पक्षपाती इतिहासकारों ने भारत में मुस्लिम हकूमत का प्रतीक मान रखा है। उसके बारें
में वे क्या विचार रखते हैं इसके विषय में यहां तक कि ‘शिबली’ जैसे इतिहास गवेषी कवि
को कहना पड़ाः
तुम्हें
ले-दे के सारी दास्तां में याद है इतना।
कि औरंगज़ेब हिन्दू-कुश था, ज़ालिम था, सितमगर था।।
कि औरंगज़ेब हिन्दू-कुश था, ज़ालिम था, सितमगर था।।
औरंगज़ेब
पर हिन्दू-दुश्मनी के आरोप के सम्बन्ध में जिस फरमान को बहुत उछाला गया है, वह ‘फ़रमाने-बनारस’ के नाम से प्रसिद्ध है।
यह फ़रमान बनारस के मुहल्ला गौरी के एक ब्राहमण परिवार से संबंधित है। 1905
ई.
में इसे गोपी उपाघ्याय के नवासे मंगल पाण्डेय ने सिटि मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश
किया था। इसे् पहली बार ‘एसियाटिक-
सोसाइटी’ बंगाल
के जर्नल (पत्रिका) ने 1911 ई. में प्रकाशित किया था। फलस्वरूप रिसर्च करनेवालों का ध्यान इधर
गया। तब से इतिहासकार प्रायः इसका हवाला देते आ रहे हैं और वे इसके आधार पर
औरंगज़ेब पर आरोप लगाते हैं कि उसने हिन्दू मन्दिरों के निर्माण पर प्रतिबंध लगा
दिया था, जबकि
इस फ़रमान का वास्तविक महत्व उनकी निगाहों से ओझल रह जाता है। यह लिखित फ़रमान
औरंगज़ेब ने 15 जुमादुल-अव्वल 1065 हि. (10 मार्च 1659
ई.)
को बनारस के स्थानिय अधिकारी के नाम भेजा था जो एक ब्राहम्ण की शिकायत के सिलसिले
में जारी किया गया था। वह ब्राहमण एक मन्दिर का महंत था और कुछ लोग उसे परेशान कर
रहे थे। फ़रमान में कहा गया हैः ‘‘अबुल हसन को हमारी शाही
उदारता का क़ायल रहते हुए यह जानना चाहिए कि हमारी स्वाभाविक दयालुता और प्राकृतिक
न्याय के अनुसार हमारा सारा अनथक संघर्ष और न्यायप्रिय इरादों का उद्देश्य
जन-कल्याण को बढ़ावा देना है और प्रत्येक उच्च एवं निम्न वर्गों के हालात को बेहतर
बनाना है। अपने पवित्र कानून के अनुसार हमने फैसला किया है कि प्राचीन मन्दिरों को
तबाह और बरबाद नहीं किया जाय, अलबत्ता नए मन्दिर ना
बनए जाएँ। हमारे इस न्याय पर आधारित काल में हमारे प्रतिष्ठित एवं पवित्र दरबार
में यह सूचना पहुंची है कि कुछ लोग बनारस शहर और उसके आस-पास के हिन्दू नागरिकों
और मन्दिरों के ब्राहम्णों-पुरोहितों को परेशान कर रहे हैं तथा उनके मामलों में
दख़ल दे रहे हैं, जबकि
ये प्राचीन मन्दिर उन्हीं की देख-रेख में हैं। इसके अतिरिक्त वे चाहते हैं कि इन
ब्राहम्णों को इनके पुराने पदों से हटा दें। यह दखलंदाज़ी इस समुदाय के लिए
परेशानी का कारण है। इसलिए यह हमारा फ़रमान है कि हमारा शाही हुक्म पहुंचते ही तुम
हिदायत जारी कर दो कि कोई भी व्यक्ति ग़ैर-कानूनी रूप से दखलंदाजी ना करे और ना उन
स्थानों के ब्राहम्णों एवं अन्य हिन्दु नागरिकों को परेशान करे। ताकि पहले की तरह
उनका क़ब्ज़ा बरक़रार रहे और पूरे मनोयोग से वे हमारी ईश-प्रदत्त सल्तनत के लिए
प्रार्थना करते रहें। इस हुक्म को तुरन्त लागू किया जाये।’’
इस
फरमान से बिल्कुल स्पष्ट हैं कि औरंगज़ेब ने नए मन्दिरों के निर्माण के विरूद्ध
कोई नया हुक्म जारी नहीं किया, बल्कि उसने केवल पहले
से चली आ रही परम्परा का हवाला दिया और उस परम्परा की पाबन्दी पर ज़ोर दिया। पहले
से मौजूद मन्दिरों को ध्वस्त करने का उसने कठोरता से विरोध किया। इस फ़रमान से यह
भी स्पष्ट हो जाता है कि वह हिन्दू प्रजा को सुख-शान्ति से जीवन व्यतीत करने का
अवसर देने का इच्छुक था।
यह अपने जैसा केवल एक ही फरमान नहीं है। बनारस में ही एक और फरमान मिलता है, जिससे स्पष्ट होता है कि औरंगज़ेब वास्तव में चाहता था कि हिन्दू सुख-शान्ति के साथ जीवन व्यतीत कर सकें।
यह अपने जैसा केवल एक ही फरमान नहीं है। बनारस में ही एक और फरमान मिलता है, जिससे स्पष्ट होता है कि औरंगज़ेब वास्तव में चाहता था कि हिन्दू सुख-शान्ति के साथ जीवन व्यतीत कर सकें।
यह
फरमान इस प्रकार हैः ‘‘रामनगर
(बनारस) के महाराजा धिराज राजा रामसिंह ने हमारे दरबार में अर्ज़ी पेश की हैं कि
उनके पिता ने गंगा नदी के किनारे अपने धार्मिक गुरू भगवत गोसाईं के निवास के लिए
एक मकान बनवाया था। अब कुछ लोग गोसाईं को परेशान कर रहे हैं। अतः यह शाही फ़रमान
जारी किया जाता है कि इस फरमान के पहुंचते ही सभी वर्तमान एवं आने वाले अधिकारी इस
बात का पूरा ध्यान रखें कि कोई भी व्यक्ति गोसाईं को परेशान एवं डरा-धमका ना सके, और ना उनके मामलें में
हस्तक्षेप करे, ताकि
वे पूरे मनोयोग के साथ हमारी ईश-प्रदत्त सल्तनत के स्थायित्व के लिए प्रार्थना
करते रहें। इस फरमान पर तुरंत अमल किया जाए।’’
(तारीख-17 रबी उस्सानी 1091
हिजरी)
जंगमबाड़ी मठ के महंत के पास मौजूद कुछ फरमानों से पता चलता है कि औरंगज़ैब कभी यह
सहन नहीं करता था कि उसकी प्रजा के अधिकार किसी प्रकार से भी छीने जाएँ, चाहे वे हिन्दू हों या
मुसलमान। वह अपराधियों के साथ सख़्ती से पेश आता था। इन फरमानों में एक जंगम लोगों
(शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) की ओर से एक मुसलमान नागरिक के दरबार में लाया
गया, जिस
पर शाही हुक्म दिया गया कि बनारस सूबा इलाहाबाद के अफ़सरों को सूचित किया जाता है
कि पुराना बनारस के नागरिकों अर्जुनमल और जंगमियों ने शिकायत की है कि बनारस के एक
नागरिक नज़ीर बेग ने क़स्बा बनारस में उनकी पांच हवेलियों पर क़ब्जा कर लिया है।
उन्हें हुक्म दिया जाता है कि यदि शिकायत सच्ची पाई जाए और जायदाद की मिल्कियत का
अधिकार प्रमानिण हो जाए तो नज़ीर बेग को उन हवेलियों में दाखि़ल ना होने दया जाए, ताकि जंगमियों को
भविष्य में अपनी शिकायत दूर करवाने के लिएए हमारे दरबार में ना आना पडे।
इस
फ़रमान पर 11 शाबान, 13 जुलूस (1672 ई.) की तारीख़ दर्ज है। इसी मठ के पास मौजूद एक-दूसरे फ़रमान में
जिस पर पहली रबीउल अव्वल 1078 हि. की तारीख दर्ज़ है, यह उल्लेख है कि ज़मीन
का क़ब्ज़ा जंगमियों को दिया गया। फ़रमान में है- ‘‘परगना हवेली बनारस के
सभी वर्तमान और भावी जागीरदारों एवं करोडियों को सूचित किया जाता है कि शहंशाह के
हुक्म से 178 बीघा ज़मीन जंगमियों (शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) को दी गई।
पुराने
अफसरों ने इसकी पुष्टि की थी और उस समय के परगना के मालिक की मुहर के साथ यह सबूत
पेश किया है कि ज़मीन पर उन्हीं का हक़ है। अतः शहंशाह की जान के सदक़े के रूप में
यह ज़मीन उन्हें दे दी गई। ख़रीफ की फसल के प्रारम्भ से ज़मीन पर उनका क़ब्ज़ा
बहाल किया जाय और फिर किसी प्रकार की दखलंदाज़ी ना होने दी जाए, ताकि जंगमी लोग (शैव
सम्प्रदाय के एक मत के लोग) उसकी आमदनी से अपनी देख-रेख कर सकें।’’
इस
फ़रमान से केवल यही पता नहीं चलता कि औरंगज़ेब स्वभाव से न्यायप्रिय था, बल्कि यह भी साफ़ नज़र
आता है कि वह इस तरह की जायदादों के बंटवारे में हिन्दू धार्मिक सेवकों के साथ कोई
भेदभाभ नहीं बरता था। जंगमियों को 178 बीघा ज़मीन संभवतः
स्वयं औरंगज़ेब ही ने प्रदान की थी, क्योंकि एक दूसरे
फ़रमान (तिथि 5 रमज़ान,
1071 हि.)
में इसका स्पष्टीकरण किया गया है कि यह ज़मीन मालगुज़ारी मुक्त है।
औरंगज़ेब
ने एक दूसरे फरमान (1098 हि.) के द्वारा एक दूसरी हिन्दू धार्मिक संस्था को भी जागीर प्रदान
की। फ़रमान में कहा गया हैः ‘‘बनारस में गंगा नदी के
किनारे बेनी माधो घाट पर दो प्लाट खाली हैं। एक मर्क़जी मस्जिद के किनारे रामजीवन
गोसाईं के घर के सामने और दूसरा उससे पहले। ये प्लाट बैतुल-माल की मिल्कियत है।
हमने यह प्लाट रामजीवन गोसाईं और उनके लड़के को ‘‘इनाम’ के रूप में प्रदान किया, ताकि उक्त प्लाटों पर
बाहम्णों एवं फ़क़ीरों के लिए रिहायशी मकान बनाने के बाद वे खुदा की इबादत और
हमारी ईश-प्रदत्त सल्तनत के स्थायित्व के लिए दूआ और प्रार्थना करने में लग जाएं।
हमारे बेटों, वज़ीरों, अमीरों, उच्च पदाधिकारियों, दरोग़ा और वर्तमान एवं
भावी कोतवालों को अनिवार्य है कि वे इस आदेश के पालन का ध्यान रखें और उक्त प्लाट, उपर्युक्त व्यक्ति और
उसके वारिसों के क़ब्ज़े ही मे रहने दें और उनसे न कोई मालगुज़ारी या टैक्स लिया
जाए और ना उनसे हर साल नई सनद मांगी जाए।’’ लगता है औरंगज़ेब को
अपनी प्रजा की धार्मिक भावनाओं के सम्मान का बहुत अधिक ध्यान रहता था।
हमारे
पास औरंगज़ेब का एक फ़रमान (2 सफ़र, 9
जुलूस)
है, जो
असम के शह गोहाटी के उमानन्द मन्दिर के पुजारी सुदामन ब्राहम्ण के नाम है। असम के
हिन्दू राजाओं की ओर से इस मन्दिर और उसके पुजारी को ज़मीन का एक टुकड़ा और कुछ
जंगलों की आमदनी जागीर के रूप में दी गई थी, ताकि भोग का खर्च पूरा
किया जा सके और पुजारी की आजीविका चल सके। जब यह प्रांत औरंगजेब के शासन-क्षेत्र
में आया, तो
उसने तुरंत ही एक फरमान के द्वारा इस जागीर को यथावत रखने का आदेश दिया।
हिन्दुओं
और उनके धर्म के साथ औरंगज़ेब की सहिष्णुता और उदारता का एक और सबूत उज्जैन के
महाकालेश्वर मन्दिर के पुजारियों से मिलता है। यह शिवजी के प्रमुख मन्दिरों में से
एक है, जहां
दिन-रात दीप प्रज्वलित रहता है। इसके लिए काफ़ी दिनों से पतिदिन चार सेर घी वहां
की सरकार की ओर से उपलब्ध कराया जाता था और पुजारी कहते हैं कि यह सिलसिला मुगल
काल में भी जारी रहा। औरंगजेब ने भी इस परम्परा का सम्मान किया। इस सिलसिले में
पुजारियों के पास दुर्भाग्य से कोई फ़रमान तो उपलब्ध नहीं है, परन्तु एक आदेश की नक़ल
ज़रूर है, जो
औरंगज़ब के काल में शहज़ादा मुराद बख़्श की तरफ से जारी किया गया था। (5 शव्वाल 1061
हि.
को यह आदेश शहंशाह की ओर से शहज़ादा ने मन्दिर के पुजारी देव नारायण के एक आवेदन
पर जारी किया था। वास्तविकता की पुष्टि के बाद इस आदेश में कहा गया है कि मन्दिर
के दीप के लिए चबूतरा कोतवाल के तहसीलदार चार सेर (अकबरी घी प्रतिदिन के हिसाब से
उपल्ब्ध कराएँ। इसकी नक़ल मूल आदेश के जारी होने के 93 साल बाद (1153
हिजरी)
में मुहम्मद सअदुल्लाह ने पुनः जारी की।
साधारण्तः
इतिहासकार इसका बहुत उल्लेख करते हैं कि अहमदाबाद में नागर सेठ के बनवाए हुए
चिन्तामणि मन्दिर को ध्वस्त किया गया, परन्तु इस वास्तविकता
पर पर्दा डाल देते हैं कि उसी औरंगज़ेब ने उसी नागर सेठ के बनवाए हुए शत्रुन्जया
और आबू मन्दिरों को काफ़ी बड़ी जागीरें प्रदान कीं।
बनारस का
विश्वनाथ मन्दिर
तोड़ने की घटना
निःसंदेह इतिहास से यह प्रमाण्ति होता हैं कि औरंगजेब ने बनारस के विश्वनाथ मन्दिर और गोलकुण्डा की जामा-मस्जिद को ढा देने का आदेश दिया था, परन्तु इसका कारण कुछ और ही था। विश्वनाथ मन्दिर के सिलसिले में घटनाक्रम यह बयान किया जाता है कि जब औरंगज़ेब बंगाल जाते हुए बनारस के पास से गुज़र रहा था, तो उसके काफिले में शामिल हिन्दू राजाओं ने बादशाह से निवेदन किया कि वहाँ क़ाफ़िला एक दिन ठहर जाए तो उनकी रानियां बनारस जा कर गंगा नदी में स्नान कर लेंगी और विश्वनाथ जी के मन्दिर में श्रद्धा सुमन भी अर्पित कर आएँगी। औरंगज़ेब ने तुरंत ही यह निवेदन स्वीकार कर लिया और क़ाफिले के पडाव से बनारस तक पांच मील के रास्ते पर फ़ौजी पहरा बैठा दिया। रानियां पालकियों में सवार होकर गईं और स्नान एवं पूजा के बाद वापस आ गईं, परन्तु एक रानी (कच्छ की महारानी) वापस नहीं आई, तो उनकी बडी तलाश हुई, लेकिन पता नहीं चल सका। जब औरंगजै़ब को मालूम हुआ तो उसे बहुत गुस्सा आया और उसने अपने फ़ौज के बड़े-बड़े अफ़सरों को तलाश के लिए भेजा। आखिर में उन अफ़सरों ने देखा कि गणेश की मूर्ति जो दीवार में जड़ी हुई है, हिलती है। उन्होंने मूर्ति हटवा कर देखा, तो तहखाने की सीढी मिली और गुमशुदा रानी उसी में पड़ी रो रही थी। उसकी इज़्ज़त भी लूटी गई थी और उसके आभूषण भी छीन लिए गए थे। यह तहखाना विश्वनाथ जी की मूर्ति के ठीक नीचे था। राजाओं ने इस हरकत पर अपनी नाराज़गी जताई और विरोघ प्रकट किया। चूंकि यह बहुत घिनौना अपराध था, इसलिए उन्होंने कड़ी से कड़ी कार्रवाई कने की मांग की। उनकी मांग पर औरंगज़ेब ने आदेश दिया कि चूंकि पवित्र-स्थल को अपवित्र किया जा चुका है। अतः विश्वनाथ जी की मूर्ति को कहीं और ले जाकर स्थापित कर दिया जाए और मन्दिर को गिरा कर ज़मीन को बराबर कर दिया जाय और महंत को गिरफतार कर लिया जाए। डाक्टर पट्ठाभि सीता रमैया ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द फ़ेदर्स एण्ड द स्टोन्स’ मे इस घटना को दस्तावेजों के आधार पर प्रमाणित किया है। पटना म्यूज़ियम के पूर्व क्यूरेटर डा. पी. एल. गुप्ता ने भी इस घटना की पुस्टि की है।
निःसंदेह इतिहास से यह प्रमाण्ति होता हैं कि औरंगजेब ने बनारस के विश्वनाथ मन्दिर और गोलकुण्डा की जामा-मस्जिद को ढा देने का आदेश दिया था, परन्तु इसका कारण कुछ और ही था। विश्वनाथ मन्दिर के सिलसिले में घटनाक्रम यह बयान किया जाता है कि जब औरंगज़ेब बंगाल जाते हुए बनारस के पास से गुज़र रहा था, तो उसके काफिले में शामिल हिन्दू राजाओं ने बादशाह से निवेदन किया कि वहाँ क़ाफ़िला एक दिन ठहर जाए तो उनकी रानियां बनारस जा कर गंगा नदी में स्नान कर लेंगी और विश्वनाथ जी के मन्दिर में श्रद्धा सुमन भी अर्पित कर आएँगी। औरंगज़ेब ने तुरंत ही यह निवेदन स्वीकार कर लिया और क़ाफिले के पडाव से बनारस तक पांच मील के रास्ते पर फ़ौजी पहरा बैठा दिया। रानियां पालकियों में सवार होकर गईं और स्नान एवं पूजा के बाद वापस आ गईं, परन्तु एक रानी (कच्छ की महारानी) वापस नहीं आई, तो उनकी बडी तलाश हुई, लेकिन पता नहीं चल सका। जब औरंगजै़ब को मालूम हुआ तो उसे बहुत गुस्सा आया और उसने अपने फ़ौज के बड़े-बड़े अफ़सरों को तलाश के लिए भेजा। आखिर में उन अफ़सरों ने देखा कि गणेश की मूर्ति जो दीवार में जड़ी हुई है, हिलती है। उन्होंने मूर्ति हटवा कर देखा, तो तहखाने की सीढी मिली और गुमशुदा रानी उसी में पड़ी रो रही थी। उसकी इज़्ज़त भी लूटी गई थी और उसके आभूषण भी छीन लिए गए थे। यह तहखाना विश्वनाथ जी की मूर्ति के ठीक नीचे था। राजाओं ने इस हरकत पर अपनी नाराज़गी जताई और विरोघ प्रकट किया। चूंकि यह बहुत घिनौना अपराध था, इसलिए उन्होंने कड़ी से कड़ी कार्रवाई कने की मांग की। उनकी मांग पर औरंगज़ेब ने आदेश दिया कि चूंकि पवित्र-स्थल को अपवित्र किया जा चुका है। अतः विश्वनाथ जी की मूर्ति को कहीं और ले जाकर स्थापित कर दिया जाए और मन्दिर को गिरा कर ज़मीन को बराबर कर दिया जाय और महंत को गिरफतार कर लिया जाए। डाक्टर पट्ठाभि सीता रमैया ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द फ़ेदर्स एण्ड द स्टोन्स’ मे इस घटना को दस्तावेजों के आधार पर प्रमाणित किया है। पटना म्यूज़ियम के पूर्व क्यूरेटर डा. पी. एल. गुप्ता ने भी इस घटना की पुस्टि की है।
गोलकुंडा की मस्ज़िद
तोड़ने की घटना
गोलकुण्डा की जामा-मस्जिद की घटना यह है कि वहां के राजा जो तानाशाह के नाम से प्रसिद्ध थे, रियासत की मालगुज़ारी वसूल करने के बाद दिल्ली के नाम से प्रसिद्ध थे, रियासत की मालुगज़ारी वसूल करने के बाद दिल्ली का हिस्सा नहीं भेजते थे। कुछ ही वर्षां में यह रक़म करोड़ों की हो गई। तानाशाह ने यह ख़ज़ाना एक जगह ज़मीन में गाड़ कर उस पर मस्जिद बनवा दी। जब औरंज़ेब को इसका पता चला तो उसने आदेश दे दिया कि यह मस्जिद गिरा दी जाए। अतः गड़ा हुआ खज़ाना निकाल कर उसे जन-कल्याण के कामों में ख़र्च किया गया।
गोलकुण्डा की जामा-मस्जिद की घटना यह है कि वहां के राजा जो तानाशाह के नाम से प्रसिद्ध थे, रियासत की मालगुज़ारी वसूल करने के बाद दिल्ली के नाम से प्रसिद्ध थे, रियासत की मालुगज़ारी वसूल करने के बाद दिल्ली का हिस्सा नहीं भेजते थे। कुछ ही वर्षां में यह रक़म करोड़ों की हो गई। तानाशाह ने यह ख़ज़ाना एक जगह ज़मीन में गाड़ कर उस पर मस्जिद बनवा दी। जब औरंज़ेब को इसका पता चला तो उसने आदेश दे दिया कि यह मस्जिद गिरा दी जाए। अतः गड़ा हुआ खज़ाना निकाल कर उसे जन-कल्याण के कामों में ख़र्च किया गया।
ये
दोनों मिसालें यह साबित करने के लिए काफ़ी हैं कि औरंगज़ेब न्याय के मामले में
मन्दिर और मस्जिद में कोई फ़र्क़ नहीं समझता था। ‘‘दर्भाग्य से मध्यकाल और
आधुनिक काल के भारतीय इतिहास की घटनाओं एवं चरित्रों को इस प्रकार तोड़-मरोड़ कर
मनगढंत अंदाज़ में पेश किया जाता रहा है कि झूठ ही ईश्वरीय आदेश की सच्चाई की तरह
स्वीकार किया जाने लगा, और
उन लोगों को दोषी ठहराया जाने लगा जो तथ्य और मनगढंत बातों में अन्तर करते हैं। आज
भी साम्प्रदायिक एवं स्वार्थी तत्व इतिहास को तोड़ने-मरोडने और उसे ग़लत रंग देने
में लगे हुए हैं।
साभार
पुस्तक : “ भारतीय संस्क्रति और
मुग़ल सम्राज्य” प्रो. बी. एन पाण्डेय, भूतपूर्व राज्यपाल
उडीसा, राज्यसभा के सदस्य, इलाहाबाद नगरपालिका के चेयरमैन एवंम इतिहासकार
प्रकाशक हिन्दी अकादमी, दिल्ली, 1993
प्रकाशक हिन्दी अकादमी, दिल्ली, 1993
शुक्रवार, 4 अगस्त 2017
मायावती की राजनीति - आनंद तेलतुंबड़े
मायावती की राजनीति
- आनंद तेलतुंबड़े
कुछ समझदार दलित बुद्धिजीवियों ने इस पर
अफसोस जाहिर किया है कि बसपा ने दलितों के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया है. लेकिन इस मामले की असल
बात यह है कि इस खेल का तर्क बसपा को ऐसा करने की इजाजत नहीं देता है. जैसे कि शासक वर्गीय दलों के लिए यह बेहद जरूरी है कि वे जनसमुदाय को पिछड़ेपन
और गरीबी में बनाए रखें, मायावती ने यही तरीका अख्तियार करते
हुए उत्तर प्रदेश में दलितों को असुरक्षित स्थिति में बनाए रखा. वे भव्य स्मारक बना सकती थीं, दलित नायकों की प्रतिमाएं
लगवा सकती थीं, चीजों के नाम उन नायकों के नाम पर रख सकती थीं
और दलितों में अपनी पहचान पर गर्व करने का जहर भर सकती थीं लेकिन वे उनकी भौतिक हालत
को बेहतर नहीं बना सकती थीं वरना ऐसे कदम से पैदा होने वाले अंतर्विरोध जाति की सोची-समझी बुनियाद को तहस नहस कर सकते थे. स्मारक वगैरह बसपा
की जीत में योगदान करते रहे औऱ इस तरह उनकी घटक जातियों तथा समुदायों द्वारा हिचक के
साथ वे कबूल कर लिए गए. लेकिन भेद पैदा करने वाला भौतिक लाभ समाज
में ऐसी न पाटी जा सकने वाली खाई पैदा करता, जिसे राजनीतिक रूप
से काबू में नहीं किया सकता. इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि
एक दलित या गरीब परस्त एजेंडा नहीं बनाया जा सकता था. राजनीतिक
सीमाओं के बावजूद वे दिखा सकती थीं कि एक ‘दलित की बेटी’
गरीब जनता के लिए क्या कर सकती है. लेकिन उन्होंने
न केवल अवसरों को गंवाया बल्कि उन्होंने लोगों के भरोसे और समर्थन का अपने फायदे के
लिए इस्तेमाल किया.
बाद में उनकी बढ़ी हुई महत्वाकांक्षाएं
उन्हें बहुजन से सर्वजन तक ले गईं, जिसमें उन्होंने अपना रुख पलटते दिया और उनमें दलितों
के लिए जो भी थोड़ा बहुत सरोकार बचा था, उसे और खत्म कर दिया.
तब अनेक विश्लेषकों ने यह अंदाजा लगाया था कि दलित मतदाता बसपा से अलग
हो जाएंगे, लेकिन दलित उन्हें हैरानी में डालते हुए मायावती के
साथ पहले के मुकाबले अधिक मजबूती से खड़े हुए और उन्हें 2007 की अभूतपूर्व सफलता दिलाई. इसने केवल दलितों की असुरक्षा
को ही उजागर किया. वे बसपा से दूर नहीं जा सकते, भले ही इसकी मुखिया चाहे जो कहें या करें, क्योंकि उन्हें
डर था कि बसपा के सुरक्षात्मक कवच के बगैर उन्हें गांवों में सपा समर्थकों के हमले
का सामना करना पड़ेगा. अगर मायावती इस पर गर्व करती हैं कि उनके
दलित मतदाता अभी भी उनके प्रति आस्थावान हैं तो इसका श्रेय मायावती को ही जाता है कि
उन्हें दलितों को इतना असुरक्षित बना दिया है कि वे इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं
अपना सकते. निश्चित रूप से इस बार भाजपा ने कुछ दलित जातियों
को लुभाया है और वे संभवत: गोंड, धानुक,
खटिक, रावत, बहेलिया,
खरवार, कोल आदि हाशिए की जातियां होंगी जो दलित
आबादी का 9.5 फीसदी हिस्सा हैं. मुसलमान
भी ऐसे ही एक और असुरक्षित समुदाय हैं जिन्हें हमेशा अपने बचाव कवच के बारे में सोचना
पड़ता है. इस बार बढ़ रही मोदी लहर और घटती हुई बसपा की संभावनाओं
को देखते हुए वे सपा के इर्द-गिर्द जमा हुए थे उन्हें भारी नुकसान
उठाना पड़ा. 2007 के चुनावों में उत्तर प्रदेश की सियासी दुनिया
में फिर से दावेदारी जताने को बेकरार ब्राह्मणों समेत ये सभी जातियां बसपा की पीठ पर
सवार हुईं और उन्होंने बसपा को एक भारी जीत दिलाई थी, लेकिन बसपा
उनकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी. तब वे उससे दूर जाने लगे
जिसका नतीजा दो बरसों के भीतर, 2009 के आम चुनावों में दिखा जब
बसपा की कुल वोटों में हिस्सेदारी 2007 के 30.46 फीसदी से गिरकर 2009 में 27.42 फीसदी रह गई. इस तरह 3.02 फीसदी
वोटों का उसे नुकसान उठाना पड़ा. तीन बरसों में यह नुकसान
1.52 फीसदी और बढ़ा और 2012 के विधानसभा चुनावों
में कुल वोटों की हिस्सेदारी गिरकर 25.90 पर आ गई. और अब 2014 में यह 19.60 फीसदी
रह गई है जो कि 6.30 फीसदी की गिरावट है. यह साफ साफ दिखाता है कि दूसरी जातियां और अल्पसंख्यक तेजी से बसपा का साथ
छोड़ रहे हैं और यह आने वाले दिनों की सूचना दे रहा है जब धीरे धीरे दलित भी उन्हीं
के नक्शेकदम पर चलेंगे. असल में मायावती की आंखें इसी बात से
खुल जानी चाहिए कि उनका राष्ट्रीय वोट प्रतिशत 2009 के
6.17 से गिर कर इस बार सिर्फ 4.1 फीसदी रह गया
है.
जबकि जाटव-चमार वोट उनके साथ बने
हुए दिख रहे हैं, तो यह सवाल पैदा होता है कि वे कब तक उनके साथ
बने रहेंगे. मायावती उनकी असुरक्षा को बेधड़क इस्तेमाल कर रही
हैं. न केवल वे बसपा के टिकट ऊंची बोली लगाने वालों को बेचती
रही हैं, बल्कि उन्होंने एक ऐसा अहंकार भी विकसित कर लिया है
कि वे दलित वोटों को किसी को भी हस्तांतरित कर सकती हैं. उन्होंने
आंबेडकरी आंदोलन की विरासत को छोड़ कर 2002 के बाद के चुनावों
में मोदी के लिए प्रचार किया जब पूरी दुनिया मुसलमानों के जनसंहार के लिए उन्हें गुनहगार
ठहरा रही थी. उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु कांशीराम के
‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’
जैसे नारों को भी छोड़ दिया और मौकापरस्त तरीके से ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ जैसे नारे चलाए. लोगों को कुछ समय के लिए पहचान का जहर
पिलाया जा सकता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे बेवकूफ हैं. लोगों को मायावती की खोखली राजनीति का अहसास होने लगा है और वे धीरे धीरे बसपा
से दूर जाने लगे हैं. उन्होंने मायावती को चार बार उत्तर प्रदेश
का मुख्यमंत्री बनाया लेकिन उन्होंने जनता को सिर्फ पिछड़ा बनाए रखने का काम किया और
अपने शासनकालों में उन्हें और असुरक्षित बना कर रख दिया. उत्तर
प्रदेश के दलित विकास के मानकों पर दूसरे राज्यों के दलितों से कहीं अधिक पिछड़े बने
हुए हैं, बस बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के दलित ही उनसे ज्यादा पिछड़े हैं. मायावती ने भ्रष्टाचार और पतनशील सामंती संस्कृति को बढ़ाना देने में नए मुकाम
हासिल किए हैं, जो कि बाबासाहेब आंबेडकर की राजनीति के उल्टा
है जिनके नाम पर उन्होंने अपना पूरा कारोबार खड़ा किया है. उत्तर
प्रदेश दलितों पर उत्पीड़न के मामले में नंबर एक राज्य बना हुआ है. यह मायावती ही थीं, जिनमें यह बेहद गैर कानूनी निर्देश
जारी करने का अविवेक था कि बिना जिलाधिकारी की इजाजत के दलितों पर उत्पीड़न का कोई
भी मामला उत्पीड़न अधिनियम के तहत दर्ज नहीं किया जाए. ऐसा करने
वाली वे पहली मुख्यमंत्री थीं.
जातीय राजनीति की कामयाबी ने बसपा को इस
कदर अंधा कर दिया था कि वह समाज में हो रहे भारी बदलावों को महसूस नहीं कर पाई. नई पीढ़ी उस संकट की आग
को महसूस कर ही है जिसे नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने उनके लिए पैदा की हैं.
देश में बिना रोजगार पैदा किए वृद्धि हो रही है, और सेवा क्षेत्र में जो भी थोड़े बहुत रोजगार पैदा हो रहा है उन्हें बहुत कम
वेतन वाले अनौपचारिक क्षेत्र में धकेल दिया जा रहा है. सार्वजनिक
और सरकारी क्षेत्रों के सिकुड़ने से आरक्षण दिनों दिन अप्रासंगिक होते जा रहे हैं.
दूसरी तरफ सूचनाओं में तेजी से हो रहे इजाफे के कारण नई पीढ़ी की उम्मीदें
बढ़ती जा रही हैं. उन्हें जातिगत भेदभाव की वैसी आग नहीं झेलनी
पड़ी है जैसी उनके मां-बाप ने झेली थी. इसलिए वे ऊंची जातियों के बारे में पेश की जाने वाली बुरी छवि को अपने अनुभवों
के साथ जोड़ पाने में नाकाम रहते हैं. उनमें से अनेक बिना दिक्कत
के ऊंची जातियों के अपने दोस्तों के साथ घुलमिल रहे हैं. हालांकि
वे अपने समाज से रिश्ता नहीं तोड़ेंगे लेकिन जब कोई विकास के बारे में बात करेगा तो
यह उन्हें अपनी तरफ खींचेगा. और यह खिंचाव पहचान संबंधी उन बातों
से कहीं ज्यादा असरदार होगा जिसे वे सुनते आए हैं. दलित नौजवान
उदारवादी संस्कृति से बचे नहीं रह सकते हैं, बल्कि उन्हें व्यक्तिवाद,
उपभोक्तावाद, उपयोगवाद वगैरह उन पर असर डाल रहे
हैं, इनकी गति हो सकता है कि धीमी हो. यहां
तक कि गांवों में भीतर ही भीतर आए बदलावों ने निर्वाचन क्षेत्रों की जटिलता को बदल
दिया है, जिसे हालिया अभियानों में भाजपा ने बड़ी महारत से इस्तेमाल
किया जबकि बसपा और सपा अपनी पुरानी शैली की जातीय और सामुदायिक लफ्फाजी में फंसे रहे.
बसपा का उत्तर प्रदेश के नौजवान दलित मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित नहीं
कर पाना साफ साफ दिखाता है कि दलित वोटों में 1.61 करोड़ के कुल
इजाफे में से केवल 9 लाख ने ही बसपा को वोट दिया.
भाजपा और आरएसएस ने मिल कर दलित और पिछड़ी
जातियों के वोटों को हथियाने की जो आक्रामक रणनीति अपनाई, उसका असर भी बसपा के प्रदर्शन
पर दिखा है. उत्तर प्रदेश में भाजपा के अभियान के संयोजक अमित
शाह ने आरएसएस के कैडरों के साथ मिल कर विभिन्न जातीय नेताओं और संघों के साथ व्यापक
बातचीत की कवायद की. शाह ने मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हमले का इस्तेमाल
पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में लुभाने के लिए किया. उसने मोदी
की जाति का इस्तेमाल ओबीसी वोटों को उत्साहित करने के लिए किया कि उनमें से ही एक इंसान
भारत का प्रधानमंत्री बनने जा रहा है. इस रणनीति ने उन इलाकों
की पिछड़ी जातियों में सपा की अपील को कमजोर किया, जो सपा का
गढ़ मानी जाती थीं. इस रणनीति का एक हिस्सा बसपा के दलित आधार
में से गैर-जाटव जातियों को अलग करना भी था. भाजपा ने जिस तरह से विकास पर जोर दिया और अपनी सुनियोजित प्रचार रणनीति के
तहत बसपा की मौकापरस्त जातीय राजनीति को उजागर किया, उसने भी
बसपा की हार में एक असरदार भूमिका अदा की. लेकिन किसी भी चीज
से ज्यादा, बसपा की अपनी कारगुजारियां ही इसकी बदतरी की जिम्मेदार
हैं. यह उम्मीद की जा सकती है कि इससे पहले कि बहुत देर हो जाए
बसपा आत्मविश्लेषण करेगी और खुद में सुधार करेगी.
बुधवार, 19 जुलाई 2017
मायावती का इस्तीफा: दलित हित में या कुछ और?
मायावती का इस्तीफा: दलित हित में या कुछ
और?
-एस.आर.दारापुरी आई.पी.एस. (से.नि.) एवं
संयोजक, जन मंच
कल मायावती ने राज्यसभा में दलित मुद्दों पर
ब्यान देने के लिए अधिक समय न दिए जाने पर सदन से इस्तीफा दे दिया है जो कि उप
राष्ट्रपति जी के विचाराधीन है. मायावती ने बाद में अपने ब्यान में कहा है कि उसे
सदन में दलित उत्पीड़न खास करके सहारनपुर दलित उत्पीड़न काण्ड पर पूरा नहीं बोलने
दिया गया जिससे दुखी होकर उसने इस्तीफा दिया है. मायावती के इस तरह नाटकीय ढंग से
इस्तीफे देने के कई निहितार्थ हैं जिन पर विस्तार से चर्चा करने तथा यह देखने की
ज़रुरत है कि मायावती ने क्या वास्तव में दलित हित में इस्तीफा दिया है या उसके
पीछे कोई दूसरे कारण हैं.
यह तथ्य उल्लेखनीय है कि मायावती की राज्य
सभा की सदस्यता 9 माह बाद वैसे ही समाप्त हो रही है और उसके दोबारा चुने जाने की
कोई सम्भावना नहीं है क्योंकि वर्तमान में उसकी पार्टी का कोई भी सदस्य लोक सभा
में नहीं है और उत्तर प्रदेश विधान सभा में उसके केवल 19 सदस्य हैं जो कि राज्य
सभा का सदस्य चुनने के लिए काफी नहीं है. इससे ऐसा प्रतीत होता है कि मायावती ने
केवल दलित वोटरों को प्रभावित करने के लिए दलित मुद्दों का बहाना बना कर इस्तीफा
दिया है. वह भली प्रकार जानती है कि दलित हितों की उपेक्षा के कारण उसका दलित वोट
बैंक बुरी तरह से खिसक चुका है जैसा कि 2012 से ले कर 2017 तक के चुनाव परिणामों
से स्पष्ट है. अतः मायावती का इस नाटकीय ढंग से इस्तीफा देना उसकी हताशा का भी
प्रतीक है.
अब सबसे पहले यह देखना ज़रूरी है कि क्या
मायावती दलित उत्पीड़न या दलित हितों के प्रति इतनी संवेदनशील रही है जैसा कि वह इस
समय दिखाने की कोशिश कर रही है. आइए सबसे पहले मायावती के मुख्य मंत्री के तौर पर
दलित उत्पीड़न के प्रति संवेदनशीलता को ही देखें. क्या यह एक चिंताजनक एतहासिक
परिघटना नहीं है मायावती ने दलित उत्पीड़न से सम्बंधित एस.सी/एस.टी एक्ट को लागू
करने पर 2001 में रोक लगा दी थी जो कि 2002 में इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा रद्द
होने पर ही रुक सकी. क्या कोई ऐसी रोक लगाने की उम्मीद किसी दलित मुख्य मंत्री से
कर सकता है? परन्तु मायावती ने ऐसा किया. इस रोक का दलितों को बहुत भारी खामियाजा
भुगतना पड़ा. इससे एक तो दलित उत्पीड़न के मामले इस एक्ट के अंतर्गत दर्ज नहीं हो
सके और दूसरे दलितों को इस एक्ट के अंतर्गत मिलने वाला मुयाव्ज़ा नहीं मिल सका. इस
प्रकार मायावती के इस कुकृत्य से दलितों को दोहरी मार का
शिकार होना पड़ा.
इसके अतिरिक्त अपने मुख्य मंत्री काल में मायावती
अपराध के आंकड़े कम रहने पर बहुत जोर देती थी और उनके बढ़ जाने पर अधिकारियों को
सस्पेंड अथवा स्थानांतरित कर देती थी. इसका खामियाजा भी दलितों को ही भुगतना पढ़ा
क्योंकि अपराध के आंकड़े कम रखने के लिए पुलिस दलितों के अपराध की प्रथम सूचना ही
दर्ज नहीं करती थी. इसके इलावा मायावती की बदनामी बचाने के लिए बसपा कार्यकर्त्ता
भी अपराध दर्ज न करने पर जोर देते थे. एक अध्ययन के अनुसार 2007 में समाचार पत्रों
से उपलब्ध सूचना के अनुसार उस वर्ष दलित उत्पीड़न के 60% अपराध दर्ज ही नहीं किये
गए थे. इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मुख्य मंत्री के तौर पर मायावती दलित
उत्पीड़न के प्रति कितनी संवेदनशील रही है.
अब अगर पिछले कुछ वर्षों में दलित उत्पीड़न के कुछ
बड़े मामलों को देखा जाये तो पाया जायेगा कि इन मामलों में मायावती की प्रतिक्रिया
बहुत मामूली सी ही रही है. हैदराबाद में रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या को लेकर
मायावती हैदराबाद नहीं गयी और उसने केवल राज्य सभा में उसके बारे में ब्यान देकर
रस्मादयगी कर दी. इसी तरह ऊना दलित उत्पीड़न के मामले में वह वहां पर गयी तो सही
परन्तु उसकी प्रतिक्रिया बहुत हलकी फुलकी रही. सहारनपुर के दलित उत्पीड़न के मामले
में वह घटना के 18 दिन बाद 23 मई को शब्बीरपुर गयी जब उसे 21 मई को जन्तर मंतर पर
भीम सेना के पक्ष में उमड़ी भीड़ से लगा कि उसका वोट बैंक और खिसक गया है. वहां पर
भी मायावती केवल समरसता बनाये रखने का उपदेश दे कर चली आई. इतना ही नहीं उसने लखनऊ
आ कर सहारनपुर के दलितों को न्याय दिलाने के लिए लड़ने वाली भीम सेना के विरोध में
ब्यान दिया और उसे भाजपा की उपज कहा. इतना ही नहीं उसने भीम आर्मी पर बसपा के नाम
पर चंदा इकठ्ठा करने का आरोप भी लगाया. इससे भी आप मायावाती के दलित प्रेम का
अंदाज़ा लगा सकते हैं.
मायावती के चार बार के मुख्य मंत्री काल के उसके
दलित प्रेम के कुछ उदहारण निचे दिए जा रहे हैं:
* मायावती भी तो आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की वकालत करती रही है जिस
से दलितों और पिछड़ों के जाति आधारित आरक्षण पर उँगलियाँ उठती रही हैं.
* मायावती भी पिछड़ी जातियों को
अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने की वकालत करती रही है. उसने भी इस
सम्बन्ध में विधान सभा से बिल पारित करा कर केंद्र सरकार को भेजा था. यह अलग बात
है कि केंद्र सरकार ने उसे रद्द कर दिया था.
*
मायावती ने पांच साल (2007-12) में मुख्य मंत्री रहते हुए अनुसूचित जातियों के पदोन्नति
में आरक्षण की बहाली हेतु इलाहबाद हाई कोर्ट में वांछित आंकड़े प्रस्तुत नहीं किये
और कोर्ट में मामले की उचित पैरवी नहीं की जिस के फलस्वरूप हजारों दलित अधिकारियों
को पदावनत होना पड़ा. इस त्रासदी के लिए मायावती पूर्णतया उत्तरदायी है.
* मायावती ने ही कांशी राम जी के प्रयासों से बनायीं गयी फिल्म
"तीसरी आज़ादी" तथा रामास्वामी नायकर द्वारा लिखी पुस्तक "सच्ची
रामायण" को प्रतिबंधित कर दिया था जो आज तक जारी है.
* मायावती ने ही स्पोर्ट्स कालेज में दलितों के आरक्षण का कुछ सवर्णों द्वारा
विरोध करने पर उसे रद्द कर दिया था.
* मायावती ने ही सरकारी
विद्यालयों में कुछ विद्यार्थियों द्वारा कुछ दलित रसोईयों द्वारा बनाये गए मध्यान्ह
भोजन का बहिष्कार करने पर दोषियों को दण्डित करने की बजाये दलित रसोईयों की
नियुक्ति सम्बन्धी आदेश को ही रद्द कर दिया था जो कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की
अवहेलना थी. इससे विद्यालयों में दलित रसोईयों की नियुक्तियां बंद हो गयीं और
सरकारी सकूलों में छुआछूत को बढ़ावा मिला.
* मायावती ने ही दलितों के आवास की भूमि को उनके पक्ष में नियमित किये
जाने के आदेश का सवर्णों द्वारा विरोध करने पर यह कह कर रद्द कर दिया था कि
सम्बंधित दलित अधिकारी ने उससे धोखे से दस्तखत करवा लिए थे।
* मायावती ने ही 2007 में उत्तर प्रदेश में
आंबेडकर महासभा को कार्यालय हेतु 1991 में आंबेडकर रोड, लखनऊ पर आवंटित सरकारी भवन का आवंटन रद्द करके उसे अपने मंत्री को
आवास हेतु आवंटित कर दिया था जिस के विरुद्ध आंबेडकर महासभा को इलाहबाद हाई कोर्ट, लखनऊ में जनहित याचिका दायर करके स्टे लेना पड़ा था. इस प्रकार उसने उत्तर
प्रदेश में दलितों की एक मात्र संस्था को ही ख़त्म करने की कोशिश की.
* मायावती ने 1995 के मुख्य मंत्री काल के छोटे समय को छोड़ कर शेष
समय में भूमिहीन दलितों को कोई भी भूमि आबंटन नहीं किया जबकि उस दौरान प्रदेश में
पर्याप्त मात्रा में आबंटन हेतु भूमि उपलब्ध थी. इसके दुष्परिणाम स्वरूप आज भी
अधिकतर दलित भूमिहीन हैं और शोषण और सामंतों के अत्याचार का शिकार हो रहे हैं.
* मायावती ने ही 2008 में लागू हुए वनाधिकार कानून के अंतर्गत वनवासियों और आदिवासियों को
भूमि का मालिकाना अधिकार देने की बजाए उनके 81% दावों को रद्द कर दिया था
जिस कारण उन्हें अपने कब्ज़े की ज़मीन का मालिकाना हक नहीं मिल सका। विवश हो कर आल
इंडिया पीपुल्स फ्रंट को इलाहाबाद हाई कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर आदेश
प्राप्त करना पड़ा था.
* मायावती ने ही उत्तर प्रदेश के 2% आदिवासियों के लिए विधान
सभा की दो सीटें आरक्षित करने संबंधी बिल का विरोध किया था जिस कारण उन्हें 2012 के विधान सभा चुनाव में कोई भी सीट नहीं मिल सकी थी. अब आल इंडिया
पीपुल्स फ्रंट की सुप्रीम कोर्ट में पैरवी के कारण इस चुनाव में उनके लिए दो
सीटें आरक्षित हो सकी हैं.
उपरोक्त दिए गए कुछ तथ्यों से स्पष्ट है कि मायवती ने अपने चार बार
के मुख्य मंत्री काल में दलित उत्पीड़न और दलित हितों की घोर उपेक्षा की जिससे कुछ
दलितों का भावनात्मक तुष्टिकरण तो हुआ परन्तु उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में
कोई सुधार नहीं हो सका. इसके विपरीत मायावती के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के कारण दलित
सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से भी केवल आंशिक तौर पर ही लाभावित हो सके. इसी
का दुष्परिणाम है कि आज उत्तर प्रदेश के दलित सरकारी आंकड़ों के अनुसार विकास के
मापदंडों पर बिहार, ओड़िसा और मध्य प्रदेश के दलितों को छोड़ कर शेष सभी राज्यों के दलितों
से पिछड़े हुए हैं.
अब नाटकीय ढंग से इस्तीफा दे कर मायावती दलित हितैषी होने का जो
स्वांग कर रही है उसे सभी दलित बहुत अच्छी तरह से समझ रहे हैं. मायावती के दलित
उपेक्षा के पूर्व आचरण को देख कर अब वे उसके झांसे में आने वाले नहीं हैं. अब दलित
जाति की राजनीति से बाहर निकल कर अपने सम्मान, भूमि, रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य और
उत्पीड़न से मुक्ति की लड़ाई सड़क पर स्वयम लड़ने के लिए आगे आ रहे हैं. इसकी शुरुआत
उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और गुजरात से हो चुकी है. उत्तर प्रदेश में भी
पूर्वांचल के दलित स्वराज अभियान के बैनर तले वनाधिकार के अंतर्गत भूमि संघर्ष के
लिए लामबंद हो चुके हैं. अब यह तय है कि दलितों के नाम पर जातिवादी, अवसरवादी,
व्यक्तिवादी, स्वार्थपरता और भ्रष्टाचार की राजनीति के दोबारा पनपने की कोई उम्मीद
नहीं है. दलित अब पूरी तरह से समझ रहे हैं कि मायावती का इस्तीफा किसी भी तरह से
दलित हित में नहीं बल्कि दलितों को पुनः अपने मायाजाल में फंसाने का प्रयास मात्र
है.
शनिवार, 15 जुलाई 2017
जोगी सरकार में दलित अधिकारों का हनन
जोगी सरकार में दलित अधिकारों का हनन
-एस.आर.दारापुरी आई.पी.एस. (से.नि.) एवं संयोजक : जन मंच
जोगी
सरकार जो कि दलित वोट पा कर उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई है इस समय दलित
अधिकारों के दमन पर तुली है. इसकी ताज़ा उदाहरण 3 जुलाई को लखनऊ में दलित उत्पीड़न
विषय पर विचार गोष्ठी के आयोजकों की गिरफ्तारी है. उस दिन उत्तर प्रदेश के दलित
संगठनों (डायनमिक एक्शन ग्रुप, बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच, यू.पी.जनमंच, तथा
पीयूसीएल) द्वारा मेरे नेतृत्व में लखनऊ प्रेस क्लब में 12 बजे से 4 बजे तक “दलित उत्पीड़न
तथा समाधान” विषय पर परिचर्चा तथा प्रेस वार्ता का आयोजन किया गया था जिसमें शामिल
होने के लिए गुजरात के 43 दलित साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन से तथा प्रदेश के कई जिलों
से कई दलित आ रहे थे. गुजरात के दलित अपने साथ 125 किलो का साबुन उत्तर प्रदेश के मुख्य
मंत्री जी को भेंट करने के लिए भी ला रहे थे. उनका कहना था कि 5 मई को जब मुख्य
मंत्री जी कुशी नगर गए थे तो वहां पर मुसहर बस्ती में दलितों को साबुन तथा शैम्पू
बांटा गया था तथा उन्हें आदेशित किया गया था कि वे इससे नहा- धोकर मुख्यमंत्री जी
के सामने आयें. गुजरात के दलितों ने इसे दलितों का अपमान माना था तथा इसके
प्रत्युत्तर में वे मुख्य मंत्री जी को लखनऊ में उक्त साबुन जिसे “तथागत साबुन” का
नाम दिया गया था, भेंट करना चाहते थे.उनकी अपेक्षा थी इसके इस्तेमाल से जोगीजी का
तन और मन साफ़ हो जायेगा और वे दलितों को एक समान मानव के रूप में देखने
लगेंगे.
2 जुलाई,
2017 को शाम को जब साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन झाँसी पहुंची तो पुलिस द्वारा गुजरात
से लखनऊ आ रहे 43 दलित जिनमें 11 महिलाएं भी थीं को जबरन ट्रेन से उतार लिया गया.
उन्हें रातभर पुलिस हिरासत में रखा तथा अगले दिन सवेरे गुजरात जाने वाली गाड़ी में
सामान्य बोगी में भर कर अहमदाबाद भेज दिया तथा उन द्वारा लाये गए साबुन को ज़ब्त कर
लिया गया. इस प्रकार पुलिस द्वारा गुजरात से आये दलितों के जीवन तथा दैहिक
स्वतंत्रता के संरक्षण के मौलिक अधिकार का हनन किया गया.
2 जुलाई,
2017 को ही उक्त कार्यक्रम में बाहर से भाग लेने के लिए 23 दलित कार्यकर्ता लखनऊ
पहुंचे थे जिन्हें नेहरु युवा केंद्र में ठहराया गया था. पुलिस ने रात में ही
उन्हें नज़रबंद कर लिया तथा उन्हें 3 जुलाई की शाम तक नज़रबंद रख कर छोड़ा. इस प्रकार
इन कार्यकर्ताओं के भी जीवन एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण के मौलिक अधिकार का
हनन किया गया.
इसी
प्रकार जब 3 जुलाई, 2017 को जब हम लोग घोषित कार्यक्रम के अनुसार 12 बजे प्रेस
क्लब लखनऊ पहुंचे तो देखा कि वहां पर भारी मात्रा में पुलिस मौजूद थी. प्रेस क्लब
के प्रबंधक श्री बी.सी. जोशी ने पूछने पर बताया कि उन्होंने प्रेस क्लब के सचिव
जोखू तिवारी के कहने पर हम लोगों का प्रेस क्लब का आबंटन रद्द कर दिया है और वहां
पर कोई भी कार्यक्रम न करने के लिए कहा. हम लोगों ने जब इसका कारण पूछा तो उसने
कोई भी कारण नहीं बताया. इस पर हम लोग वहां पर बैठ कर अपने अग्रिम कार्यक्रम के बारे
में विचार विमर्श करने लगे और तय किया कि अब हम लोग रमेश दीक्षित जी के दारुलशफा
स्थित कार्यालय में जाकर बैठेंगे और अगला कार्यक्रम तय करेंगे. इसके बाद जब हम लोग
उठ कर जाने लगे तो पुलिस ने हमें जबरदस्ती बैठा लिया और कहा कि आप लोगों को
गिरफ्तार किया जाता है. इस पर मैंने पूछा कि हम लोगों ने क्या अपराध किया है. इस पर
उन्होंने हमें बताया कि आप लोग बिना अनुमति के प्रेस क्लब में कार्यक्रम करने जा
रहे थे और आप लोगों ने धारा 44 का उलंघन करके यहाँ पर शांति भंग की है. इस पर मैंने
उन्हें बताया कि हमारी जानकारी में प्रेस क्लब में प्रेस वार्ता/गोष्ठी करने हेतु
किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं है. दूसरे धारा 144 सड़क पर लगती है न कि प्रेस क्लब
के अन्दर. इस पर उन्होंने पूछा कि अब आप लोग कहाँ जायेंगे तो मैंने उन्हें बताया
कि यहाँ पर तो आप लोगों ने दबाव डाल कर हम लोगों का कार्यक्रम रद्द करवा दिया है,
अतः अब हम लोग दारुलशफा में दीक्षित जी के कार्यालय में जाकर बैठेंगे और अगला
कार्यक्रम बनायेंगे. उस समय पुलिस क्लब में सीओ कैसर बाग़, सिटी मैजिस्ट्रेट, एसपी
सिटी, अपर जिलाधिकारी, निरीक्षक कैसबाग़ तथा अन्य कई अधिकारी मौजूद थे.
इस पर
जब हम लोग चलने लगे तो उन्होंने हमें घेर लिया और 13.30 बजे 8 लोगों (रमेश चंद
दीक्षित, राम कुमार, आशीष अवस्थी, के.के.वत्स, पी.सी.कुरील, डी.के यादव, कुलदीप
कुमार बौद्ध तथा एस.आर.दारापुरी) को गिरफ्तार करके बस में बैठा कर पुलिस लाइन ले
गये. वहां पर हम लोगों को पता चला कि पुलिस ने हम लोगों को धारा 151 दंड प्रक्रिया
संहिता में गिरफ्तार किया था और हमारे ऊपर प्रेस क्लब से निकल कर मुख्य मंत्री
आवास की ओर कूच करने की योजना बनाने का आरोप लगाया गया था जो कि एकदम असत्य एवं
निराधार है. इसके साथ ही हम लोगों को धारा 107/116 दंड प्रक्रिया संहिता के
अंतर्गत 20,000 रु० के व्यक्तिगत मुचलके पर 17.30 बजे छोड़ा गया. ऐसा प्रतीत होता है पुलिस ने हम लोगों को
गिरफ्तार करने के लिए हम लोगों पर पर झूठा एवं मनगढ़ंत आरोप लगाया है. इस प्रकार पुलिस ने हम लोगों के ऊपर फर्जी
आरोप लगा कर हमें गिरफ्तार करके हमारे जीवन तथा दैहिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार
तथा हमारे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन किया है. प्रशासन का यह
कार्य हम लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन, कानून एवं सत्ता का दुरूपयोग है. इस
गिरफ्तारी के पीछे सरकार का इरादा दलित कार्यकर्ताओं में भय पैदा करना था ताकि वे
किसी भी प्रकार का विरोध व्यक्त करने का साहस न करें.
इस घटना
से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं एक तरफ जहाँ भाजपा एक दलित को राष्ट्रपति बनाने का नाटक
कर रही है वहीँ सामाजिक कार्यकर्ताओं को दलित मुद्दों पर चर्चा करने का प्रयास
करने पर गिरफ्तार कर रही है. इससे स्पष्ट है कि भाजपा को दलितों का वोट तो चाहिए
परन्तु उसे अत्याचार और उत्पीडन के खिलाफ उनका आक्रोश बिलकुल भी सहनीय नहीं है. ऐसी
परिस्थिति में दलितों को सोचना होगा कि क्या भाजपा के साथ जा कर उनका कोई भला हो
सकता है या उन्हें डॉ. आंबेडकर द्वारा दिखाए गये संघर्ष करने के रास्ते पर चलना
होगा. इसके साथ ही उन्हें वर्तमान दलित नेताओं द्वारा अपनाई गयी अवसरवादी,
सिद्धान्तहीन एवं व्यक्तिवादी जाति की राजनीति से भी बाहर निकल कर मुद्दा आधारित
रैडिकल राजनीति को अपनाना होगा जिसके संकेत भीम आर्मी और गुजरात के आन्दोलन से मिल
रहे हैं.
शुक्रवार, 7 जुलाई 2017
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