सोमवार, 21 मार्च 2016

मोदी जी कितने सच्चे आंबेडकर भक्त?

मोदी जी कितने सच्चे आंबेडकर भक्त?
-एस.आर. दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट


अपने प्रसिद्ध लेख “राज्य और क्रांति” में लेनिन ने कहा है, “मार्क्स की शिक्षा के साथ आज वही हो रहा है, जो उत्पीड़ित वर्गों के मुक्ति-संघर्ष में उनके नेताओं और क्रन्तिकारी विचारकों की शिक्षाओं के साथ इतिहास में अक्सर हुआ है. उत्पीड़क वर्गों ने महान क्रांतिकारियों को उनके जीवन भर लगातार यातनाएं दीं, उनकी शिक्षा का अधिक से अधिक बर्बर द्वेष, अधिक से अधिक क्रोधोन्मत घृणा तथा झूठ बोलने और बदनाम करने के अधिक से अधिक अंधाधुंध मुहिम द्वारा स्वागत किया. लेकिन उन की मौत के बाद उनकी क्रान्तिकारी शिक्षा को सारहीन करके, उसकी क्रन्तिकारी धार को कुंद करके, उसे भ्रष्ट करके उत्पीडित वर्गों को “बहलाने”, तथा धोखा देने के लिए उन्हें अहानिकर देव-प्रतिमाओं का रूप देने, या यूँ कहें, उन्हें देवत्व प्रदान करने और उनके नामों को निश्चित गौरव प्रदान करने के प्रयत्न किये जाते हैं.” क्या आज आंबेडकर के साथ भी यही नहीं किया जा रहा है?
आज हमारे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी ने आंबेडकर राष्ट्रीय मेमोरियल के शिलान्यास के अवसर पर डॉ. आंबेडकर मेमोरियल लेक्चर दिया जिस में उन्होंने  डॉ. आंबेडकर के कृत्यों की प्रशंसा करते हुए अपने आप को आंबेडकर भक्त घोषित किया है. उनकी यह घोषणा भाजपा की हिंदुत्व की भक्ति के अनुरूप ही है क्योंकि भक्ति में आराध्य का केवल गुणगान करके काम चल जाता है और उस की शिक्षाओं पर आचरण करने की कोई ज़रुरत नहीं होती. आज मोदी जी ने भी डॉ. आंबेडकर का केवल गुणगान किया है जबकि उन की शिक्षाओं पर आचरण करने से उन्हें कोई मतलब नहीं है. यह गुणगान भी लेनिन द्वारा उपर्युक्त रणनीति के अंतर्गत किया जा रहा है. कौन नहीं जानता कि भाजपा की हिन्दुत्ववादी विचारधारा और आंबेडकर की समतावादी विचारधारा में छत्तीस का आंकड़ा है.
 आइये इस के कुछ पह्लुयों का विवेचन करें-


मोदी जी ने अपने भाषण में कहा है कि वह आंबेडकर भक्त है जब कि डॉ. आंबेडकर तो कहते थे कि उन्हें भक्त नहीं अनुयायी चाहिए. डॉ. आंबेडकर ने तो यह भी कहा था कि धर्म में भक्ति मुक्ति का साधन हो सकती है परन्तु राजनीति में भक्ति तो निश्चित तौर पर पतन का मार्ग है. परन्तु मोदी जी आप की पार्टी तो भक्तजनों की पार्टी है और आप स्वयम भक्तों के पूज्य हैं.
अपने भाषण में मोदी जी ने कहा है कि डॉ. आंबेडकर ने जाति के विरुद्ध लडाई लड़ी थी परन्तु कौन नहीं जानता कि भाजपा का जाति और वर्ण व्यवस्था के बारे में क्या नजरिया है. डॉ. आंबेडकर ने तो कहा था कि जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज की स्थापना हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य है परन्तु भाजपा और उसकी जननी आर.एस.एस. तो समरसता के नाम पर जाति और वर्ण की संरक्षक है. मोदी जी का जीभ कटने पर दांत न तोड़ने का दृष्टान्त भी इसी समरसता अर्थात यथास्थिति का ही प्रतीक है.
मोदी जी ने अपने भाषण में बाबा साहेब की मजदूर वर्ग के संरक्षण के लिए श्रम कानून बनाने के लिए प्रशंसा की है. परन्तु मोदी जी तो मेक- इन -इंडिया के नाम पर सारे श्रम कानूनों को समाप्त करने पर तुले हुए हैं. जिन जिन प्रदेशों में भाजपा की सरकारें हैं वहां वहां पर श्रम कानून समाप्त कर दिए गए हैं. पूरे देश में सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र में नियमित मजदूरों की जगह ठेकेदारी प्रथा लागू कर दी गयी है जिस से मजदूरों का भयंकर शोषण हो रहा है. बाबा साहेब तो मजदूरों की राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी के पक्षधर थे.
बाबा साहेब के बहुचर्चित “शिक्षित करो, संघर्ष करो और संगठित करो” के नारे को बिगाड़ कर “शिक्षित हो, संगठित हो और संघर्ष करो” के रूप में प्रस्तुत करते हुए मोदी जी ने कहा कि बाबा साहेब शिक्षा को बहुत महत्व देते थे और उन्होंने शिक्षित हो कर संगठित होने के लिए कहा था ताकि संघर्ष की ज़रुरत न पड़े. इस में भी मोदी जी का समरसता का फार्मूला ही दिखाई देता है जबकि बाबा साहेब ने तो शिक्षित हो कर संघर्ष के माध्यम से संगठित होने का सूत्र दिया था. बाबा साहेब तो समान, अनिवार्य और सार्वभौमिक शिक्षा के पैरोकार थे. इस के विपरीत वर्तमान सरकार शिक्षा के निजीकरण की पक्षधर है और शिक्षा के लिए बजट में निरंतर कटौती करके गुणवत्ता वाली शिक्षा को आम लोगों की पहुँच से बाहर कर रही है.
अपने भाषण में आरक्षण को खरोच भी न आने देने की बात पर मोदी जी ने बहुत बल दिया है. परन्तु वर्तमान में आरक्षण पर सब से बड़े संकट पदोन्नति में आरक्षण सम्बन्धी संविधान संशोधन का कोई उल्लेख नहीं किया. इसके साथ ही दलितों की निजी क्षेत्र और न्यायपालिका में आरक्षण की मांग को बिलकुल नज़रंदाज़ कर दिया. उन्होंने यह भी नहीं बताया कि निजीकरण के कारण आरक्षण के निरंतर घट रहे दायरे के परिपेक्ष्य में दलितों को रोज़गार कैसे मिलेगा?
मोदी जी ने इस बात को भी बहुत जोर शोर से कहा है कि डॉ आंबेडकर औद्योगीकरण के पक्षधर थे परन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि वे निजी या सरकारी किस औद्योगीकरण के पक्षधर थे. यह बात भी सही है कि भारत के औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण में  जितना योगदान डॉ. आंबेडकर का है उतना शायद ही किसी और का हो. डॉ. आंबेडकर ने ही उद्योग के लिए सस्ती बिजली, बाढ़ नियंतरण और कृषि सिचाई के लिए ओडिसा में दामोदर घाटी परियोजना बनाई थी. इस के अतिरिक्त "सेंट्रल वाटर एंड पावर कमीशन" तथा "सेंट्रल वाटरवेज़ एंड नेवीगेशन कमीशन" की स्थापना की थी. हमारा वर्तमान पावर सप्लाई सिस्टम भी उनकी ही देन है. 
 यह सर्विदित है कि बाबासाहेब राजकीय समाजवाद के प्रबल समर्थक थे जब कि मोदी जी तो निजी क्षेत्र और न्यूनतम गवर्नेंस के सब से बड़े पैरोकार हैं. बाबासाहेब तो पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद को दलितों के सब से बड़े दुश्मन मानते थे. मोदी जी का निजीकरण और भूमंडलीकरण बाबासाहेब की समाजवादी अर्थव्यवस्था की विचारधारा के बिलकुल विपरीत है.
मोदी जी ने डॉ. आंबेडकर की एक प्रख्यात अर्थशास्त्री के रूप में जो प्रशंसा की है वह तो ठीक है. परन्तु बाबासाहेब का आर्थिक चितन तो समाजवादी और कल्याणकारी अर्थव्यस्था का था जिस के लिए नोबेल पुरूस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने उन्हें अपने अर्थशास्त्र का पितामह कहा है. इसके विपरीत मोदी जी का आर्थिक चिंतन और नीतियाँ पूंजीवादी और कार्पोरेटपरस्त हैं.
अपने भाषण में मोदी जी ने कहा है कि डॉ. आंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल को लेकर महिलायों के हक़ में अपने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. यह बात तो बिलकुल सही है कि भारत के इतिहास में डॉ. आंबेडकर ही एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने दलित मुक्ति के साथ साथ हिन्दू नारी की मुक्ति को भी अपना जीवन लक्ष्य बनाया था और उन के बलिदान से भारतीय नारी को वर्तमान कानूनी अधिकार मिल सके हैं. बाबासाहेब ने तो कहा था कि मैं किसी समाज की प्रगति का आंकलन उस समाज की महिलायों की प्रगति से करता हूँ. इस के विपरीत भाजपा सरकार की मार्ग दर्शक आर.एस.एस. तो महिलायों को मनुस्मृति वाली व्यस्था में देखने की पक्षधर है.
मोदी जी ने डॉ. आंबेडकर का लन्दन वाला घर खरीदने, बम्बई में स्मारक बनाने और दिल्ली में आंबेडकर स्मारक बनाने का श्रेय भी अपनी पार्टी को दिया है. वैसे तो मायावती ने भी दलितों के लिए कुछ ठोस न करके केवल स्मारकों और प्रतीकों की राजनीति से ही काम चलाया है. भाजपा की स्मारकों की राजनीति उसी राजनीति की पूरक है. शायद मोदी जी यह जानते होंगे कि बाबा साहेब तो अपने आप को बुत- पूजक नहीं बुत-तोड़क कहते थे और वे व्यक्ति पूजा के घोर विरोधी थे. बाबा साहेब तो मूर्तियों की जगह पुस्कालयों, विद्यालयों और छात्रवासों की स्थापना के पक्षधर थे. वे राजनीति में किसी व्यक्ति की भक्ति के घोर विरोधी थे और इसे सार्वजनिक जीवन की सब से बड़ी गिरावट मानते थे. परन्तु भाजपा में तो मोदी जी को एक ईश्वरीय देन मान कर पूजा जा रहा है.
मोदी जी ने अपने भाषण में सरदार पटेल और डॉ. आंबेडकर की तुलना की है. एक की राज के केन्द्रीकरण के लिए और दूसरे की  समाज के केन्द्रीकरण के लिए. मोदी जी शायद यह नहीं जानते होंगे कि सरदार पटेल और डॉ. आंबेडकर में गंभीर मतभेद थे. सरदार पटेल ने तो डॉ. आंबेडकर के लिए कहा था कि हम ने डॉ. आंबेडकर के संविधान सभा में प्रवेश के सारे खिड़की दरवाजे बंद कर दिए हैं और उन्होंने डॉ. आंबेडकर को 1946 के चुनाव में हरवाया था. इस पर डॉ. आंबेडकर किसी तरह मुस्लिम लीग की मदद से पूर्वी बंगाल से जीत कर संविधान सभा में पहुंचे थे. इस के इलावा संविधान बनाने को लेकर भी उन में गंभीर मतभेद थे. एक बार तो डॉ. आंबेडकर ने संविधान बनाने तक से मना कर दिया था. यह भी विचारणीय है कि सरदार पटेल मुसलमानों और सिखों के साथ साथ दलितों को भी किसी प्रकार का आरक्षण देने के पक्षधर नहीं थे. दलितों को संविधान में आरक्षण तो गाँधी जी के हस्तक्षेप से मिल पाया था.
अपने भाषण में मोदी जी ने दलित उद्यमिओं को प्रोत्साहन देने का श्रेय भी लिया है जबकि यह योजना तो कांग्रेस द्वारा चालू की गयी थी.  मोदी जी जानते होंगे कि इस से कुछ दलितों के पूंजीपति या उद्योगपति बन जाने से इतनी बड़ी दलित जनसँख्या का कोई कल्याण होने वाला नहीं है. दलितों के अंदर कुछ उद्यमी तो पहले से ही हैं. दलितों का कल्याण तो तभी होगा जब सरकारी नीतियाँ जनपक्षीय होंगी न कि कार्पोरेटपरस्त. दलितों की बहुसंख्य आबादी भूमिहीन तथा रोज़गारहीन है जो उनकी सब से बड़ी कमजोरी है. अतः दलितों के सशक्तिकरण के लिए भूमि आबंटन और रोज़गार गारंटी ज़रूरी है जो कि मोदी सरकार के एजंडे में नहीं है.
उपरोक्त संक्षिप्त विवेचन से स्पष्ट है कि अपने भाषण में मोदी जी द्वारा डॉ. आंबेडकर का गुणगान केवल राजनीति के लिए उन्हें हथियाने का छलावा मात्र है. उन्हें डॉ. आंबेडकर की विचारधारा अथवा शिक्षाओं से कुछ भी लेना देना नहीं है. सच्च तो यह है कि भाजपा और उसकी मार्ग दर्शक आर.एस.एस. की नीतियाँ तथा विचारधारा डॉ. आंबेडकर की समतावादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक विचारधारा के बिलकुल विपरीत हैं. यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान में कांग्रेस पार्टी भी डॉ. आंबेडकर को हथियाने का अभियान चला रही है. मायावती तो अपने आप को डॉ. आंबेडकर की उत्तराधिकारी होने का दावा करती रही है जबकि उसका डॉ. आंबेडकर की विचारधारा से कुछ भी लेना देना नहीं है. उसकी तो सारी राजनीति आंबेडकर विचारधारा के विपरीत ही रही है. वास्तविकता यह है कि भाजपा सहित यह सभी राजनैतिक पार्टियाँ डॉ. आंबेडकर को हथिया कर दलित वोट प्राप्त करने की दौड़ में लगी हुयी हैं जब कि किसी भी पार्टी का दलित उत्थान का एजंडा नहीं है. अब यह दलितों को देखना है कि क्या वह इन पार्टियों के दलित प्रेम के झांसे में आते हैं या डॉ. आंबेडकर से प्रेरणा लेकर अपने विवेक का सही इस्तेमाल करते हैं.

रविवार, 20 मार्च 2016

भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत पर डा. अम्बेडकर /जनता, 13 अप्रैल 1931/


भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत पर डा. अम्बेडकर
/जनता, 13 अप्रैल 1931/

तीन शिकार
भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू इन तीनों को अन्ततः फांसी पर लटका दिया गया। इन तीनों पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने सान्डर्स नामक अंग्रेजी अफसर और चमनसिंह नामक सिख पुलिस अधिकारी की लाहौर में हत्या की। इसके अलावा बनारस में किसी पुलिस अधिकारी की हत्या का आरोप, असेम्ब्ली में बम फेंकने का आरोप और मौलमिया नामक गांव में एक मकान पर डकैती डाल कर वहां लूटपाट एवं मकान मालिक की हत्या करने जैसे तीन चार आरोप भी उन पर लगे। इनमें से असेम्ब्ली में बम फेंकने का आरोप भगतसिंह ने खुद कबूल किया था और इसके लिए उसे और बटुकेश्वर दत्त नामक उनके एक सहायक दोस्त को उमर कैद के तौर पर काला पानी की सज़ा सुनायी गयी। सांडर्स की हत्या भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों ने की ऐसी स्वीकारोक्ति जयगोपाल नामक भगतसिंह के दूसरे सहयोगी ने भी की थी और उसी बुनियाद पर सरकार ने भगतसिंह के खिलाफ मुकदमा कायम किया था। इस मुकदमें में तीनों ने भाग नहीं लिया था। हाईकोर्ट के तीन न्यायाधीशों के स्पेशल ट्रीब्युनल का गठन करके  उनके सामने यह मुकदमा चला और उन तीनों ने इन्हें दोषी घोषित किया और उन्हें फांसी की सज़ा सुना दी। इस सज़ा पर अमल न हो और फांसी के बजाय उन्हें अधिक से अधिक काला पानी की सज़ा सुनायी जाए ऐसी गुजारिश के साथ भगतसिंह के पिता ने राजा और वायसराय के यहां दरखास्त भी की। अनेक बड़े बड़े नेताओं ने और तमाम अन्य लोगों ने भगतसिंह को इस तरह सज़ा न दी जाए इसे लेकर सरकार से अपील भी की। गांधीजी और लॉर्ड इरविन के बीच चली आपसी चर्चाओं में भी भगतसिंह की फांसी की सज़ा का मसला अवश्य उठा होगा और लार्ड इरविन ने भले ही मैं भगतसिंह की जान बचाउंगा ऐसा ठोस वायदा गांधीजी से न किया हो, मगर लार्ड इरविन इस सन्दर्भ में पूरी कोशिश करेंगे और अपने अधिकारों के दायरे में इन तीनों की जान बचाएंगे ऐसी उम्मीद गांधीजी के भाषण से पैदा हुई थी। मगर यह सभी उम्मीदें, अनुमान और गुजारिशें गलत साबित हुई और बीते 23 मार्च को शाम 7 बजे इन तीनों को लाहौर सेन्ट्रल  जेल में फांसी दी गयी। ‘ हमारी जान बकश दें’ ऐसी दया की अपील इन तीनों में से किसी ने भी नहीं की थी; हां, फांसी की सूली पर चढ़ाने के बजाए हमें गोलियों से उड़ा दिया जाए ऐसी इच्छा भगतसिंह ने प्रगट की थी, ऐसी ख़बरें अवश्य आयी हैं। मगर उनकी इस आखरी इच्छा का भी सम्मान नहीं किया गया। न्यायाधीश के आदेश पर हुबहू अमल किया गया ! ‘अंतिम सांस तक फांसी पर लटका दें’ यही निर्णय जज ने सुनाया था। अगर गोलियों से उड़ा दिया जाता तो इस निर्णय पर शाब्दिक अमल नहीं माना जाता। न्यायदेवता के निर्णय पर बिल्कुल शाब्दिक अर्थों में हुबहू अमल किया गया और उसके कथनानुसार ही इन तीनों को शिकार बनाया गया।
यह बलिदान किसके लिए
अगर सरकार को यह उम्मीद हो कि इस घटना से ‘अंग्रेजी सरकार बिल्कुल न्यायप्रिय है - न्यायपालिका के आदेश पर हुबहू अमल करती है’ ऐसी समझदारी लोगों के बीच मजबूत होगी और सरकार की इसी ‘न्यायप्रियता’ के चलते लोग उसका समर्थन करेंगे तो यह सरकार की नादानी समझी जा सकती है। क्योंकि यह बलिदान ब्रिटिश न्यायदेवता की शोहरत को अधिक धवल और पारदर्शी बनाने के इरादे से किया गया है, इस बात पर किसी का भी यकीन नहीं है। खुद सरकार भी इसी समझदारी के आधार पर अपने आप को सन्तुष्ट नहीं कर सकती है। फिर बाकियों को भी इसी  न्यायप्रियता के आवरण में वह किस तरह सन्तुष्ट कर सकती है ? न्यायदेवता की भक्ति के तौर पर नहीं बल्कि विलायत के कान्जर्वेटिव /राजनीतिक रूढिवादी/ पार्टी और जनमत के डर से इस बलिदान को अंजाम दिया गया है, इस बात को सरकार के साथ साथ तमाम दुनिया भी जानती है। गांधी जैसे राजनीतिक बन्दियों को बिनाशर्त रिहा करने और गांधी खेमे से समझौता करने से ब्रिटिश साम्राज्य की बदनामी हुई है और जिसके लिए लेबर पार्टी की मौजूदा सरकार और उनके इशारे पर चलनेवाला वायसरॉय है, ऐसा शोरगुल विलायत के राजनीतिक रूढिवादी  पार्टी के कुछ कटटरपंथी नेताओं ने चला रखा है। और ऐसे समय में एक अंग्रेज व्यक्ति और अधिकारी की हत्या करने का आरोप जिस पर लगा हो और वह साबित भी हो चुका हो, ऐसे राजनीतिक क्रांतिकारी अपराधी को अगर इरविन ने मुआफी दी होती तो इन राजनीतिक रूढिवादियों के हाथों बना बनाया मुददा मिल जाता। पहले से ही ब्रिेटेन में लेबर पार्टी की सरकार डांवाडोल चल रही है और उसी परिस्थिति में अगर यह मसला राजनीतिक रूढिवादियों को मिलता कि वह अंग्रेज व्यक्ति और अधिकारी के हिन्दुस्तानी हत्यारे को भी माफ करती है तो यह अच्छा बहाना वहां के राजनीतिक रूढिवादियों को मिलता और इंग्लैण्ड का लोकमत लेबर पार्टी के खिलाफ बनाने में उन्हें सहूलियत प्रदान होती। इस संकट से बचने के लिए और रूढिवादियों के गुस्से की आग न भड़के इसलिए फांसी की इ सज़ा को अंजाम दिया गया है। यह कदम ब्रिटिश न्यायपालिका को खुश करने के लिए नहीं बल्कि ब्रिटिश लोकमत को खुश करने के लिए उठाया गया है। अगर निजी तौर पर यह मामला लार्ड इरविन की पसंदगी-नापसंदगी से जुड़ा होता तो उन्होंने अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके फांसी की सज़ा रदद करके उसके स्थान पर उमर कैद की सज़ा भगत सिंह आदि को सुनायी होती। विलायत की लेबर पार्टी के मंत्रिमंडल ने भी लार्ड इरविन को इसके लिए समर्थन प्रदान किया होता, गांधी इरविन करार के बहाने से इसे अंजाम देकर भारत के जनमत को राजी करना जरूरी था। जाते जाते लार्ड इरविन भी जनता का दिल जीत लेते। मगर इंग्लेण्ड की अपने रूढिवादी बिरादरों और यहां के उसी मनोवृति की नौकरशाही के गुस्से का वह शिकार होते। इसलिए जनमत की परवाह किए बगैर लार्ड इरविन की सरकार ने भगतसिंह आदि को फांसी पर चढ़ा दिया और वह भी कराची कांग्रेस के तीन चार दिन पहले। गांधी-इरविन करार को मटियामेट करने व समझौते की गांधी की कोशिशों को विफल करने के लिए भगतसिंह को फांसी और फांसी के लिए मुकरर किया समय , यह दोनों बातें काफी थी। अगर इस समझौते को समाप्त करने का ही इरादा लार्ड इरविन सरकार का था तो इस कार्रवाई के अलावा और कोई मजबूत मसला उसे ढून्ढने से भी नहीं मिलता। इस नज़रिये से भी देखें तो गांधीजी के कथनानुसार सरकार ने यह बड़ी भूल /ब्लंडर की है, यह कहना अनुचित नहीं होगा। लुब्बेलुआब यही कि जनमत की परवाह किए बगैर, गांधी-इरविन समझौते का क्या होगा इसकी चिन्ता किए बिना विलायत के रूढिवादियों के गुस्से का शिकार होने से अपने आप को बचाने के लिए, भगतसिंह आदि को बलि चढ़ाया गया यह बात अब छिप नहीं सकेगी यह बात सरकार को पक्के तौर पर मान लेनी चाहिए। ..
/प्रस्तुत अंश ‘डा बाबासाहेब अम्बेडकर, एम ए, पीएचडी, डीएससी, बार-एट-लॉ’ की अगुआई में निकलनेवाले पाक्षिक अख़बार ‘जनता’ ज्ीम च्मवचसम’ से लिया गया है। मालूम हो कि जनता पाक्षिक का पहला अंक 24 नवम्बर 1930 को प्रकाशित हुआ था। लगातार बाईस अंकों के प्रकाशन के बाद 23 वां और 24 वां अंक ‘संयुक्तांक’ के तौर पर प्रकाशित हुआ। बाद में ‘जनता’ को साप्ताहिक में रूपांतरित किया गया। ‘मूकनायक,’ ‘बहिष्क्रत भारत’, ‘समता’ ऐसी यात्रा पूरी करके अम्बेडकरी अख़बारी आन्दोलन ‘जनता’ तक पहुंची थी।/
(मराठी से हिंदी अनुवाद : सुभाष गाताडे )

शनिवार, 19 मार्च 2016

हिंदुत्व का शिकंजा और दलित-जातिवादी राजनीति

 हिंदुत्व का शिकंजा और दलित-जातिवादी राजनीति

‘यूपी में आम्बेडकर का प्रभाव रहा है, बिहार के दलित गांधी टोपी में ही फंसे रह गए’ | Tehelka Hindi

‘यूपी में आम्बेडकर का प्रभाव रहा है, बिहार के दलित गांधी टोपी में ही फंसे रह गए’ | Tehelka Hindi

हिंदुत्व राजनीति और दलित प्रश्न

हिंदुत्व राजनीति और दलित प्रश्न

गुरुवार, 17 मार्च 2016

क्या डॉ. आंबेडकर भी देशद्रोही थे?



क्या डॉ. आंबेडकर भी देशद्रोही थे?
-एस.आर.दारापुरी आइ.पी.एस(से.नि.)तथा राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

आज कल पूरे देश में देशभक्ति की सुनामी आई हुयी है. कभी वह JNU में देशद्रोहियों को बहा ले जाती है और अब वह महाराष्ट्र के असेम्बली हाल तक पहुँच गयी है जो MIM पार्टी के विधान सभा सदस्य वारिस पठान को बहा ले गयी है क्योंकि उस ने "भारत माता की जय" का नारा लगाने से मना कर दिया था. परिणामस्वरूप उसे भाजपा, कांग्रस और एनसीपी ने मिल कर निलंबित कर दिया. अब सवाल पैदा होता है कि क्या किसी सदस्य द्वारा उक्त नारा लगाना कोई संवैधानिक बाध्यता है? वर्तमान में तो ऐसी कोई भी बाध्यता नहीं है पर फिर भी उसे निलंबित कर दिया गया है. दरअसल इस के पीछे बहुसंख्यक हिन्दू वर्ग की मान्यता को दूसरों पर जबरदस्ती थोपने की कोशिश है जिस में कांग्रेस भी उतनी ही लिपित है जितनी भाजपा. दरअसल कांग्रेस शुरू से ही भाजपा को हिंदुत्व की दौड़ में पिछाड़ने में लगी रही है परन्तु वह भाजपा को अब तक पिछाड़ने में सफल नहीं हुयी है. डॉ. आंबेडकर इसे “बहुसंख्या का आतंकवाद” कहते थे और स्वतंत्र भारत में इस के अधिक उग्र हो जाने की सम्भावना के बारे में बहुत आशंकित थे जो अब सच्च होता दिखाई दे रहा है.
इस सम्बन्ध में डॉ. आंबेडकर की गाँधी जी से पहली मुलाकात के दौरान हुआ वार्तालाप बहुत समीचीन है:
जब गाँधी जी ने डॉ. आंबेडकर से यह कहा कि कांग्रेस दलितों के उत्थान में लगी है तो डॉ. आंबेडकर ने कहा कि हम इस के लिए न तो हिन्दुओं पर विश्वास करते हैं और न ही किसी महात्मा पर. हम लोग स्वयं सहायता और आत्मसम्मान में विश्वास रखते हैं. उन्होंने आगे गाँधी जी से पूछा कि कांग्रेस हमारे आन्दोलन का विरोध क्यों करती है और मुझे देशद्रोही क्यों कहती है?
इसके आगे डॉ. आंबेडकर ने बहुत गंभीर हो कर कहा, " गाँधी जी, मेरी कोई मातृभूमि नहीं है. इस पर गाँधी जी ने कहा," आप की मातृभूमि है और मेरे पास राउंड टेबल कांफ्रेंस की जो रिपोर्ट पहुंची है, आप बहुत बड़े देशभक्त है." इस पर आंबेडकर ने कहा, "आप कहते हैं कि मेरी मातृभूमि है परन्तु मैं फिर दोहराना चाहता हूँ कि मैं इस देश को अपनी मातृभूमि और इस धर्म को अपना धर्म कैसे कह सकता हूँ जिस में हमारे साथ कुत्ते बिल्लियों से भी बुरा व्यवहार किया जाता है और हम पीने के लिए पानी तक नहीं ले सकते............."
इसके अतिरिक्त एक अन्य अवसर पर डॉ. आंबेडकर ने बम्बई विधान सभा में बोलते हुए कहा था- “मुझे अक्सर गलत समझा गया है. इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि मैं अपने देश को प्यार करता हूँ. लेकिन मैं इस देश के लोगों को यह भी साफ़ साफ़ बता देना चाहता हूँ कि मेरी एक और निष्ठां भी है जिस के लिए मैं प्रतिबद्ध हूँ. यह निष्ठां है अस्पृश्य समुदाय के प्रति जिसमे मैंने जन्म लिया है. और मैं इस सदन में पुरजोर कहना चाहता हूँ कि जब कभी देश के हित और अस्पृश्यों के हित के बीच टकराव होगा तो मैं अस्पृश्यों के हित को तरजीह दूंगा. अगर कोई “आततायी बहुमत” देश के नाम पर बोलता है तो मैं उसका समर्थन नहीं करूँगा. मैं किसी पार्टी का समर्थन सिर्फ इसी लिए नहीं करूँगा कि वह पार्टी देश के नाम पर बोल रही है. जो यहाँ हों और जो यहाँ नहीं हैं, सब मेरी भूमिका को समझ लें. मेरे अपने हित और देश के हित के साथ टकराव होगा तो मैं देश के हित को तरजीह दूंगा. लेकिन अगर देश के हित और दलित वर्गों के हित के साथ टकराव होगा तो मैं दलितों के हित को तरजीह दूंगा.”
इस पर तत्कालीन प्रधान मंत्री बी.जी.खेर ने इसके उत्तर में कहा, “मैं आंबेडकर की इस बात का समर्थन करता हूँ कि उनके निजी हित और देश के हित के बीच टकराव होगा तो वे देश के हित को तरजीह देंगे और मैं इनके प्रत्येक शब्द को दुहराऊंगा. माननीय सदस्य के जीवन और कार्यों से मैं निकटतया परिचित रहा हूँ और कहूँगा कि उनकी यह बात बिलकुल सही है. उन्होंने हमेशा देश की भलाई की तुलना में अपने व्यक्तिगत उत्कर्ष को गौण माना है. वे आगे कहते हैं कि दलितों के हितों और देश के हित में टकराव होगा तो वे दलितों को प्रधानता देंगे.” इस पर आंबेडकर ने कहा, ”बिलकुल ठीक.” बी.जी. खेर ने आगे कहा,”देखिये, वे इस बात से मुकर नहीं रहे हैं. मेरा एतराज़ उनके इस वक्तव्य से है. अंश समग्र से बड़ा नहीं हो सकता. समग्र में अंश का समावेश होना चाहिए.” इस पर डॉ. आंबेडकर ने बहुत दृढ़ता से कहा,” मैं आप के समग्र का अंश नहीं हूँ. मैं एक अलग अंश हूँ.”
क्या राष्ट्रवादी भाजपा और कांग्रेस डॉ. आंबेडकर को उक्त कथन के लिए देशद्रोही कहने की हिम्मत कर सकते हैं?
भगवान दास जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर, एक परिचय एक सन्देश” में लिखा है- ”बाबा साहेब आंबेडकर स्वतंत्रता के उतने ही इच्छुक थे, जितना कोई और देशभक्त. परन्तु उन्हें शिकायत थी तो केवल इतनी थी कि वे हिन्दुओं के इतिहास तथा अछूतों के प्रति अमानवीय व्यवहार, उनके धर्म की पैदा की हुयी घृणा और असमानता को सामने रखते हुए जानना चाहते थे कि स्वतंत्र भारत में सत्ता किस वर्ग तथा किन जातियों के हाथ में होगी और अछूतों का उसमें क्या स्थान होगा? वे अछूतों को हिन्दुओं के रहम पर नहीं छोड़ना चाहते थे. वे यह भी जानना चाहते थे कि शोषित वर्ग की रक्षा तथा सुरक्षा का क्या प्रबंध या गारंटी होगी. और समय ने सिद्ध कर दिया है कि उनका ऐसा सोचना गलत नहीं था.” वर्तमान में दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों  पर निरंतर बढ़ रहे अमानवीय अत्याचारों के सम्मुख यदि इन वर्गों के मन में भी यह सवाल उठ खड़ा हो कि क्या यह देश सचमुच में उनकी मातृभूमि है तो इस में हैरान होने की कोई बात नहीं है.
उनकी यह भी स्पष्ट मान्यता थी- " भारत में वे लोग राष्ट्रवादी और देशभक्त माने जाते हैं जो अपने भाईयों के साथ अमानुषिक व्यवहार होते देखते हैं किन्तु इस पर उनकी मानवीय संवेदना आंदोलित नहीं होती। उन्हें मालूम है कि  इन निरपराध लोगों को मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया है परन्तु इस से उनके मन में कोई क्षोभ नहीं पैदा होता. वे एक वर्ग के सारे लोगों को नौकरियों से वंचित देखते हैं परन्तु इस से उनके मन में न्याय और ईमानदारी के भाव नहीं उठते. वे मनुष्य और समाज को कुप्रभावित करने वाली सैंकड़ों कुप्रथायों को देख कर भी मर्माहत नहीं होते. इन देशभक्तों का तो एक ही नारा है- उनको तथा उनके वर्ग के लिए अधिक से अधिक सत्ता. मैं प्रसन्न हूँ कि मैं इस प्रकार के देशभक्तों की श्रेणी में नहीं हूँ. मैं उस श्रेणी से सम्बन्ध रखता हूँ जो लोकतंत्र की पक्षधर है और हर प्रकार के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए संघर्षरत है.  हमारा उद्देश्य जीवन के सभी क्षेत्रों- राजनीतिक, आर्थिक एवं समाज में एक व्यक्ति, एक मूल्य के आदर्श को व्यव्हार में उतारना है. क्या हमारे तथाकथित राष्ट्रवादी इस प्रकार की नैतिकता अथवा आचरण का दावा कर सकते हैं?

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि डॉ. आंबेडकर की देशभक्ति की अवधारणा वर्तमान देशभक्तों से बिलकुल भिन्न थी. वास्तव में यह देशभक्ति नहीं बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दूसरों पर जबरदस्ती थोपने और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए बौखलाहट और छटपटाहट है. उनके इस प्रयास के रास्ते में सब से बड़ा रोड़ा हमारा संविधान और लोकतंत्र है जिसे वे नकारने का लगातार प्रयास कर रहे हैं. वे शायद भूल रहे हैं कि यह देश बहुलवादी संस्कृतियों और अस्मितायों  का संगम है. यहाँ पर अधिनायकवाद की स्थापना करना बहुत कठिन है. डॉ. आंबेडकर और अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने इसे सभी धर्मों और सम्प्रदायों के लिए आज़ाद कराया था न कि किसी एक वर्ग के लिए. इसी लिए किसी भी वर्ग को चाहे वह कितना भी बलशाली क्यों न हो किसी दूसरे वर्ग को देशद्रोही कहने का अधिकार अथवा छूट नहीं है. यहाँ के सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता, अभिव्यक्ति की स्वंतन्त्रता, अंतःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार है. जब तक देश में संविधान लागू है तथा लोकतंत्र कायम है तब तक देशप्रेम के नाम पर कोई भी वर्ग, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, किसी दूसरे वर्ग को इन अधिकारों से वंचित नहीं कर सकता.      

200 साल का विशेषाधिकार 'उच्च जातियों' की सफलता का राज है - जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -

    200 साल का विशेषाधिकार ' उच्च जातियों ' की सफलता का राज है-  जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -   कुणाल कामरा ...