शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

राजद्रोह कानून और लोकतंत्र



राजद्रोह कानून और लोकतंत्र
-एस.आर.दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
इधर जेएनयू के कुछ छात्रों द्वारा देश विरोधी नारे लगाने के संदर्भ में राजद्रोह कानून पुनः चर्चा में है. इस से पहले भी बहुत सारे मामलों में इस कानून पर उँगलियाँ उठती रही हैं. द्रोह का काला कानून अंग्रेजों द्वारा भारतवासियों के स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के लिए बनाया गया था और इस्तेमाल किया गया था. उस समय बहुत सारे नेता इस कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किये गए थे और जेलों में रखे गए थे. अतः यह उम्मीद की जाती थी कि जिस कानून का इस्तेमाल इस देश के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के विरुद्ध किया गया था. स्वतंत्रता प्राप्त होने पर उसे अवश्य रद्द कर दिया जायेगा परन्तु वास्तव में ऐसा हुआ नहीं. शायद नए सत्ताधारियों की मानसिकता भी वही थी जो अंग्रेजों की थी.
वर्तमान में राजद्रोह कानून का प्रावधान भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 124 ए के रूप में निहित है. इस के अनुसार जो कोई भी बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्यरूपण द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा, या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, या अप्रीति प्रदीप्त करेगा, या प्रदीप्त करने का प्रयास करेगा, वह आजीवन कारावास से, जिसमे जुर्माना जोड़ा जा सकेगा, या तीन वर्ष तक के कारावास से जिसमे जुर्माना जोड़ा जा सकेगा, या जुर्माने से, दण्डित किया जा सकेगा.
जैसा कि सभी अवगत हैं कि कुछ दिन पहले दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय (जेएनयू) में कुछ छात्रों द्वारा एक संस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान अफज़ल गुरु तथा कश्मीर के सम्बन्ध में कुछ आपत्तिजनक नारे लगाये गए थे. इस घटना के सम्बन्ध में एक टीवी चैनल द्वारा तोड़ मरोड़ कर सीडी बना कर चलायी गयी जिस के आधार पर दिल्ली पुलिस द्वारा जेएनयू के छात्रों के विरुद्ध राजद्रोह का फर्जी मुकदमा कायम किया गया और जेएनयू छात्र यूनियन के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार किया गया. इसके बाद दो अन्य छात्र उम्र खालिद और आनिर्बान को भी गिरफ्तार किया गया है जो इस समय पुलिस की हिरासत में हैं.
अब प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या उक्त आरोपी छात्रों द्वारा वास्तव में कुछ आपत्तिजनक नारे लगा कर ऐसा अपराध किया गया है जो कि देशद्रोह की श्रेणी में आता है? इस सम्बन्ध में भारत के प्रमुख कानूनदां और पूर्व आटर्नी जनरल सोली सोराब जी ने इंडिया टुडे को साक्षात्कार देते हुए जेएनयू विवाद पर जारी हंगामे के दौरान स्पष्ट किया है कि अफज़ल गुरु की फांसी को गलत कहना या पाकिस्तान समर्थक नारे लगाना देशद्रोह के सन्दर्भ में नहीं आता, हाँ यह दुखद ज़रूर है.
उन्होंने राजद्रोह के सन्दर्भ में लगाई जाने वाली धारा का अर्थ समझाते हुआ कहा है कि सरकार से किसी बात पर विवाद या उसके विरुद्ध प्रदर्शन राजद्रोह के अंतर्गत नहीं आते हैं लेकिन इस विवाद के लिए किसी को हिंसा के लिए भड़काना राजद्रोह है और इस धारा के अंतर्गत मामला चलाया जा सकता है. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में समझाते हुए कहा है, “इसको मैं उदहारण के माध्यम से समझाता हूँ कि अगर कोई कहता है कि अफज़ल गुरु की फांसी गलत थी तो यह राजद्रोह नहीं है लेकिन अगर कोई कहे कि अफज़ल गुरु की फांसी का बदला लिया जायेगा तो यह राजद्रोह के सन्दर्भ में आएगा और ऐसे तत्वों के खिलाफ सख्त कार्रवाही होनी चाहिए.
इस विवाद में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि क्या किसी व्यक्ति को अफज़ल गुरु के मामले में फांसी दिए जाने के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर सवाल करने का अधिकार नहीं है जिस में उस ने स्वयं कहा था कि यद्यपि पार्लियामेंट पर हमले में उसकी भागीदारी का कोई सीधा सबूत नहीं है फिर भी जनभावना को संतुष्ट करने के लिए उसे फांसी दिया जाना ज़रूरी है. क्या इस स्वीकारोक्ति के परिपेक्ष्य में उस के निर्णय पर सवाल नहीं उठने चाहिए? हाँ! ज़रूर उठने चाहिए जैसा कि उस समय भी उठे थे और आज भी उठ रहे हैं. न्यायालय के निर्णय से मतभेद रखने और उसे व्यक्त करने का हरेक नागरिक का मौलिक अधिकार है. जेएनयू में भी छात्रों को अफज़ल गुरु की फांसी के मामले में अलग विचार रखने और उस पर चर्चा करने का मौलिक अधिकार है. इसी प्रकार कशमीर के लोगों की आज़ादी की मांग के बारे में किसी को भी हमदर्दी रखने अथवा ना रखने का मौलिक अधिकार है. यह अपराध तभी होगा जब उस समर्थन के अनुसरण में किसी प्रकार की तात्कालिक हिंसा अथवा उत्तेजना फैलाई जाये. परन्तु जेएनयू में ऐसा कुछ भी नहीं किया गया था. वहां पर जो नारे लगाये गए वे आपत्तिजनक तो हो सकते हैं परन्तु राजद्रोह कतई नहीं. इस मामले में अधिक से अधिक जेएनयू प्रशासन उक्त विद्यार्थियों के विरुद्ध अनुशासहीनता या उदंडता के लिए अनुशासनात्मक कार्रवाही कर सकता है जैसा कि उसने किया भी.
अब प्रशन उठता है कि जब यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि जेएनयू में छात्रों द्वारा नारे लगाने का मामला देशद्रोह की श्रेणी में आता ही नहीं है तो फिर भी इस मामले में फर्जी सीडी के आधार पर देशद्रोह का मामला क्यों दर्ज किया गया और गिरफ्तारियां की गयीं? दरअसल इस के पीछे भाजपा के दो मकसद थे. एक तो हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के मामले में वह बुरी तरह से घिर चुकी थी जो आगामी संसद स्तर में उस के लिए बहुत भारी पड़ सकता था. अतः लोगों का इस मुद्दे से ध्यान हटाना ज़रूरी था. दूसरे भाजपा सरकार सभी क्षेत्रों में बुरी तरह से विफल सिद्ध हो चुकी है जो इस संसद स्तर में उस के लिए काफी परेशानियाँ पैदा कर सकता था. अतः इस से भी लोगों का ध्यान हटाना ज़रूरी था. इस के अतिरिक्त वह जेएनयू में ऐसी कार्रवाही करके उसकी विचारधारा से असहमत विश्वविद्यालयों और शिक्षकों में भय पैदा करके अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् को स्थापित करना चाहती थी. अतः उस ने जेएनयू के मामले में उस ने कानून और पुलिस का दुरूपयोग करके देशद्रोह का झूठा मुकदमा दर्ज करा कर इस मामले को राजद्रोह बनाम देशभक्ति के मामले में बदल दिया और विपक्ष के हाथ से रोहित और अपनी असफलताओं का मुद्दा छीन लिया.
इस पूरे प्रकरण से स्पष्ट है कि जेएनयू के मामले में राजद्रोह कानून का खुल्ला दुरूपयोग किया गया है. यह स्थिति तब है जब सुप्रीम कोर्ट बार बार स्पष्ट कह चुकी है कि केवल किसी प्रकार के नारे लगाना देशद्रोह का अपराध नहीं बनता है. इस कानून का दुरूपयोग कांग्रेस सरकार के दौरान भी खूब हुआ है और असहमति को दबाया गया. हजारों दलित, मुस्लिम, आदिवासी और सरकार विरोधी इस कानून के अंतर्गत सालों साल जेलों में सड़े हैं और आज भी सड़ रहे हैं. सरकार द्वारा केवल यह कह देना कि अगर निर्दोष हैं तो अदालत से छूट जायेंगे काफी नहीं हैं. अदालत से छूटने से पहले आरोपियों को जो कुछ झेलना पड़ता है क्या सरकार उस की भरपाई कर पाएगी या करती है? यह और कुछ नहीं सिर्फ सरकार द्वारा सत्ता और कानून का खुल्ला दुरूपयोग है. आखिरकार लोकतंत्र में जनता सरकार की ज्यादतियों का कब तक शिकार होती रहेगी? जेएनयू के प्रकरण से स्पष्ट हो गया है कि सरकारी आतंकवाद अपनी सारी सीमाएं पार कर चुका है. अतः अब समय आ गया है जब सभी जनवादी, प्रगतिशील लोकतान्त्रिक ताकतों को एकजुट होकर राजद्रोह के इस काले कानून को समाप्त करने के लिए एक सशक्त आन्दोलन खड़ा करना होगा ताकि देश में फासीवाद के बढ़ते खतरे को रोका जा सके और लोकतंत्र को बचाया जा सके.

दुर्गा पूजा और महिषासुर



दुर्गा पूजा और महिषासुर
-एस.आर.दारापुरी आई.पी.एस (से.नि.)
पिछले दिनों एक बार फिर जेएनयू में दुर्गा पूजा की अनुमति दिए जाने तथा महिषासुर पूजा की अनुमति न देने तथा लोकसभा में भी महिषासुर का सन्दर्भ आने के कारण महिषासुर का मुद्दा पुनः चर्चा में आया था. हम जानते हैं कि नवरात्र के दौरान दुर्गा के नौ अवतारों की नौ दिन तक बारी बारी पूजा की जाती है. इसी अवधि में दुर्गा की सार्वजानिक स्थलों पर मूर्तियों की स्थापना की जाती है जहाँ पर रात को तरह तरह के गाने व् भजन गाये जाते हैं और माता के भक्त अपनी श्रद्धा के अनुसार पूजा करते हैं और चढ़ावा चढाते हैं. नौ दिन के बाद दुर्गा मूर्तियों का विसर्जन किया जाता है. यह देखा गया है कि पहले सार्वजानिक स्थलों पर बहुत कम मूर्तियों की स्थापना की जाती थी परन्तु इधर इन की संख्या बहुत बढ़ गयी है जो शायद हिंदुत्व के सुनियोजित कार्यक्रम का हिस्सा है.
दुर्गा की जिन मूर्तियों की स्थापना की जाती है उन में देवी द्वारा अन्य अस्त्र-शस्त्र धारण करने के इलावा महिषासुर का मर्दन (वध) भी दिखाया जाता है. महिषासुर के बारे में यह प्रचारित किया गया है कि वह बहुत बुरा असुर (दानव) था जिस का वध दुर्गा ने चामुंडा देवी के रूप में किया था. यह देखा गया है कि ब्राह्मणों ने अपने साहित्य में अपने विरोधियों का चित्रण बहुत बुरे स्वरूप में किया है. वेदों में भी आर्यों ने मूल निवासियों को असुर, दानव और दस्यु तक कहा है. दरअसल यह शासक वर्ग की अपने विरोधियों को बदनाम करने की सोची समझी रणनीति का हिस्सा होती है.
इधर महिषासुर के बारे में प्रचलित अवधारणा को दक्षिण भारत खास करके कर्नाटक के मैसूर क्षेत्र में जहाँ पर चामुंडा देवी का मंदिर है, के विद्वानों द्वारा चुनौती दी गयी है. उन्होंने अधिकारिक तौर पर कहा है कि महिषा एक बौद्ध राजा था जो बहुत न्यायकारी और जनता में बहुत प्रिय था. इस सम्बन्ध में मैसूर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के प्रोफ़ेसर महेश चन्द्र गुरु का कहना है, “वह एक बौद्ध राजा था जो कि आम लोगों के मानवाधिकारों का बहुत ख्याल रखता था परन्तु ब्राह्मण वर्ग ने उसे एक असुर के रूप में प्रचारित किया एवं दावा किया कि उसे चामुंडेशवरी (दुर्गा का अवतार) ने मारा था जो कि एक कल्पित देवी थी.उन्होंने कहा है कि चामुंडी पहाड़ी पर महिषा जयंती मनाई जाती है.
उन्होंने आगे दावा किया है कि महिषासुर मर्दनीअर्थात चामुंडा देवी द्वारा महिषा का वध करने का कोई साक्ष्य नहीं है. महिषा समानता और न्याय के प्रतीक थे और जो लोग उन्हें पसंद नहीं करते थे उन्होंने साजिश करके उन के बारे में झूठी कहानियां गढ़ कर उन्हें असुर के रूप में बदनाम किया. पाली भाषा में एक सन्दर्भ है कि वह महिषा मंडल का राजा था और इसी लिए मैसूरू शहर का नाम उसके नाम पर पड़ा.
लोक्श्रुतियों के विशेषज्ञ कालेगोड़ा नागवार का कहना है कि महिषा का मैसूर पर राज था और वह बहुत अच्छा शासक था. उन का कथन है कि तथ्यों को तोडा मरोड़ा गया है. लोगों को सच्चाई को जानना चाहिए और उसे असुर के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए.
लेखक बन्नुर राजू का कहना है कि पहले चामुंडा पहाड़ी को महाबलेश्वर मंदिर के रूप में जाना जाता था. इस पहाड़ी का नाम मैसूर के महाराजाओं के काल में चामुंडा के नाम पर रखा गया और उस के लिए चामुन्डेश्वरी द्वारा महिषासुर वध की कहानी प्रचारित की गयी. इसी प्रकार लेखक सिद्धास्वामी जिन्होंने महिषासुर मंडल” (महिषासुर राज्य) नाम से पुस्तक भी लिखी है, का दावा है कि पहाड़ी के प्रवेश पर महिषासुर की मूर्ती चिक्क्देवाराजा वाडियार के राज काल में स्थापित की गयी थी.
दलित वेलफेयर ट्रस्ट के अध्यक्ष शांतराजू का कथन है कि ट्रस्ट महिषा के बारे में साहित्य छपवाएगा और उस के अच्छे कार्यों को पर्यटकों में प्रचारित करेगा. उन्होंने सरकार से महिषा त्यौहारमनाने की मांग भी की है. ट्रस्ट के सदस्य ने कहा कि वे चामुंडा पहाड़ी पर महिषा जयंतीका आयोजन भी करते हैं  जिस में काफी संख्या में लोग भाग लेते हैं.
दरअसल ब्राह्मणों ने शूद्रों और दलितों के इतिहास को या तो छुपाया है या उसे विकृत किया है. उन्होंने इन वर्गों के इष्ट लोगों के बारे में तरह तरह की कहानियां गढ़ कर उन्हें बदनाम किया है. उदाहरण के लिए बाल्मीकि रामायण में बुद्ध की तुलना चोरसे की गयी है. इसी ग्रन्थ में आदिवासियों को मानव के स्थान पर भालू, बन्दर जैसे जानवरों के रूप में पेश किया गया है. इसी लिए अब समय आ गया है जब शूद्रों और दलितों को अपने असली इतिहास को खोजना होगा और उसे सही रूप में पेश करना और अपनाना होगा.

शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

मायावती हैदराबाद क्यों नहीं गयी?



मायावती हैदराबाद क्यों नहीं गयी?
 -एस.आर.दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट


हैदराबाद विश्वविद्यालय में पांच दलित छात्रों के अवैधानिक निलंबन एवं उत्पीड़न के कारण रोहित वेमुला को आत्महत्या करने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस घटना को लेकर लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों के बड़े नेता दलित छात्रों के साथ संवेदना व्यक्त करने के लिए गए जिस से यह मुद्दा राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उभरा परन्तु अपने आप को दलितों का मसीहा कहने वाली मायावती नहीं गयी. उसने इस मुद्दे पर केवल एक ब्यान और एक टीम भेज कर अपनी फ़र्ज़ अदायगी कर दी.  इस का मुख्य कारण  उसे दलितों की बजाये सवर्णों के वोट की अधिक चिंता है. वह दलितों को तो अपना जातिगत बंधुया मान कर चलती है जिसे बहुत से दलित अंध-भक्त बन कर स्वीकार भी कर लेते हैं.
अब यह विचारणीय बिंदु है कि क्या मायावाती समयाभाव के कारण हैदराबाद नहीं गयीं या फिर इस के पीछे कोई बड़ी राजनैतिक मजबूरी है. इस का एक मुख्य कारण मायावती का भाजपा प्रेम है. यह ज्ञातव्य है कि इस से पहले मायावती ने उत्तर प्रदेश में तीन बार भाजपा से गठजोड़ कर मुख्य मंत्री की कुर्सी हथियाई थी और आगे भी यदि ज़रुरत पड़ी तो मायावती को भाजपा से हाथ मिलाने में कोई गुरेज़ नहीं होगा. यह भी उल्लेखनीय है मायावती ने जब उत्तर प्रदेश में भाजपा से हाथ मिलाया था तो उसने भाजपा के नेताओं को राखी बाँधी थी. अटल विहारी वाजपयी ने उसे अपनी बेटी कहा था. इतना ही नहीं 2002 में मायावती ने गुजरात जा कर मोदी के पक्ष में चुनाव प्रचार भी किया था.
मायावती के दिखावटी दलित प्रेम के कुछ मुख्य उदहारण भी विचारणीय हैं. जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री थी तो उसने सवर्णों के दबाव में पेरियार मेला रद्द कर दिया था और उत्तर प्रदेश में कहीं भी पेरियार की मूर्ती नहीं लगायी. इतना ही नहीं मायावती ने उत्तर प्रदेश में पेरियार की पुस्तक "सच्ची रामायण" पर प्रतिबंध लगा दिया था. इस से आगे बढ़ कर मायावती ने कांशी राम द्वारा बामसेफ के माध्यम से बनवाई गयी "तीसरी आज़ादी" फिल्म भी प्रतिबंधित कर दी थी. मायावती के दलित प्रेम की सब से दुखद परिघटना मायावती द्वारा दलितों की रक्षा के लिए बनाये गए "अनुसूचित जाति/जन जाति अत्याचार निवारण अधिनियम" के लागू करने पर रोक लगा देनी थी जिसे बाद में उच्च न्यायालय के आदेश पर रद्द करना पड़ा.
क्या आज दलितों को मायावती सहित सभी दलित नेताओं से यह नहीं पूछना चाहिए कि जब दलित मारे जा रहे हैं या आत्म हत्याएं कर रहे हैं तो उनकी क्या भूमिका है? कया उनके लिए दलित रोहित के आत्म हत्या नोट के अनुरूप केवल "वोट बैंक" हैं या इस से कुछ और अधिक भी? दलित कब तक आंबेडकर के नाम पर इन स्वार्थी नेताओं द्वारा बेवकूफ बनते रहेंगे? ज़रा डॉ. आंबेडकर की व्यक्ति पूजा और अंध भक्ति की चेतावनी पर मनन कीजिये और सोचिये कि इन नेताओं ने दलित राजनीति और दलित आन्दोलन को किस गर्त में पहुंचा दिया है. मेरे विचार में यही रोहित की शाहदत को सच्ची श्रद्धांजली होगी.

रविवार, 11 अक्टूबर 2015

क्या आरक्षण पर पुनर्विचार अथवा उसका आधार बदलने की ज़रुरत है?



क्या आरक्षण पर पुनर्विचार अथवा उसका आधार बदलने की ज़रुरत है?
-एस.आर. दारापुरी राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट   
बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान मायावती ने एक बार फिर सवर्ण तबके के गरीब लोगों के लिए आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत की है. इस से पहले जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री थीं तो उन्होंने गरीब सवर्णों के लिए आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण देने की घोषणा की थी. यद्यपि मायावती की यह घोषणा सर्वजन के फार्मूले के अंतर्गत सवर्ण वोटों को आकर्षित करने का प्रयास है परन्तु इससे भाजपा व् अन्य आरक्षण विरोधियों की आरक्षण के आधार को जाति के स्थान पर आर्थिक किये जाने की मांग को बल मिलता है जो कि दलितों/पिछड़ों के हित के खिलाफ है.
आरक्षण के बारे में एक भ्रम यह भी फैलाया गया है कि आरक्षण की समय सीमा केवल दस वर्ष थी. यह केवल अर्ध सत्य है. संविधान में दस वर्ष की समय सीमा केवल राजनैतिक आरक्षण की है जो कि समय समय पर बढ़ाई जाती रही है. सरकारी सेवाओं तथा शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण की कोई समय सीमा नहीं है क्योंकि इन को पूरा करने में बहुत लम्बा समय लगने की सम्भावना है. शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश में आरक्षण के बारे में यह भी भ्रान्ति है कि इस में अंकों के प्रतिशत की कोई सीमा नहीं है. इस बारे में सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट निर्देश है कि आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों का अंकों का प्रतिशत सामान्य जातियों के कट आफ प्रतिशत से किसी भी तरह 10% से अधिक नहीं होगा. यहाँ यह भी स्पष्ट करना है कि आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों को केवल प्रवेश स्तर पर ही अंकों में ढील मिलती है न कि परीक्षा पास करने में.   
यह सर्वविदित है कि हमारे संविधान में आरक्षण का आधार सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ापन तथा सरकारी सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है. यह आरक्षण दलितों तथा इन क्षेत्रों में पिछड़े समूहों जिन में पिछड़ी जातियां शामिल हैं को दिया गया है. इस में कहीं भी आर्थिक आधार की बात नहीं है. इसी लिए जब जब किसी भी पार्टी की केन्द्रीय सरकार या प्रांतीय सरकार ने आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का प्रयास किया है वह सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किया जाता रहा है. हाल में राजस्थान में भाजपा की सरकार ने आर्थिक आधार पर 14% आरक्षण देने की घोषणा तो कर दी है परन्तु इसका हाई कोर्ट अथवा सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किया जाना निश्चित है.
लगभग सभी राजनैतिक पार्टियाँ समय समय पर सवर्ण गरीबों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का वादा अथवा घोषणा करके वोट लेने की कोशिश करती रही हैं जबकि वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत ऐसा करना बिलकुल संभव नहीं है. फिर भी राजनैतिक पार्टिया जान बूझ कर आम लोगों को इस प्रकार का झांसा देती रहती हैं. आरक्षण के बारे में एक बात स्पष्ट तौर पर समझ लेनी चाहिए कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन प्रोग्राम नहीं है. यह तो सदियों से हिंदुयों की सामाजिक व्यवस्था द्वारा वंचित किये गए तबकों की प्रशासनिक, शैक्षिक एवं राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी और प्रतिनिधित्व देने का प्रयास मात्र है. संविधान निर्माण के समय आरक्षण के आधार के बारे में यही राष्ट्रीय सहमती बनी थी. हाँ यह बात सही है कि सवर्ण जातियों में भी गरीब लोग हैं. परन्तु उन की गरीबी दलितों और पिछड़ों पर सदियों से थोपे गए सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ेपन के मुकाबले में बहुत तुच्छ है. क्योंकि वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत उन्हें आर्थिक आधार पर आरक्षण देना संभव नहीं है अतः उन्हें छात्रवृति तथा सस्ता क़र्ज़ आदि देकर शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने के अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिए.
आज कल घुमा फिरा कर आरक्षण पर कोई भी बहस इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता पर आ जाती है. इसी लिए सब से पहले यह देखना उचित होगा कि क्या आरक्षण का उद्देश्य पूरा हो गया है? समाज के जिन तबकों को आरक्षण दिया गया था क्या वे राष्ट्रीय स्तर पर सभी क्षेत्रों जैसे सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक में अन्य वर्गों के समतुल्य स्थान प्राप्त कर गए हैं? अभी तक का मूल्यांकन तो यह दर्शाता है कि उन की हालत में बहुत मामूली सुधार हुआ है. यदि दलितों को केन्द्रीय सरकार की सरकारी सेवाओं में 65 वर्षों में प्राप्त हुए प्रतिनिधित्व को देखा जाये तो वह प्रथम श्रेणी की सेवाओं में 22-1/2% आरक्षण के विरुद्ध मुश्किल से 15% तक पहुंचा है. इस के मुकाबले में 24 वर्षों में इस वर्ग की सेवाओं में पिछड़े वर्ग के 27% आरक्षण के विरुद्ध उनका प्रतिनिधित्व केवल 4% तक ही पहुंचा है. इसी तरह अगर शिक्षा के क्षेत्र में देखा जाये तो देश भर के विश्वविद्यालयों में दलित वर्ग के प्रोफेसरों का प्रतिनिधित्व मुश्किल से 2% भी नहीं है. यह भी देखा जाना चाहिए कि इतने वर्षों के बाद भी तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में इन का कोटा पूरा क्यों नहीं हो पाता है? अतः यदि आरक्षण पर किसी पुनर्विचार की ज़रुरत है तो वह इस की निम्न उपलब्धि के कारणों के बारे में गहन विचार करने की है न कि इसे समाप्त करने अथवा इस का आधार बदलने के बारे में. यह भी याद रहना चाहिए कि आरक्षण व्यवस्था का लक्ष्य दलितों और पिछड़े वर्गों को विशेष अवसर देकर राष्ट्र निर्माण में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना भी है.  
दरअसल वर्तमान में आरक्षण विरोध का मुख्य कारण सवर्ण तबकों में बढ़ती हुयी बेरोज़गारी है. यह सर्विदित है कि सरकारी उपक्रमों के निजीकरण के कारण सरकारी क्षेत्र में नौकरियां बराबर कम हो रही हैं और सरकार अपना खर्चा कम करने के लिए नयी नौकरियां नहीं दे रही है. केंद्र में वर्तमान भाजपा सरकार ने अपना खर्चा घटाने के इरादे से एक साल तक कोई भी भर्ती न करने की घोषणा की है. 1991 में नई आर्थिक नीति लागू करते समय निजीकरण तथा भूमंडलीकरण के माध्यम से रोज़गार के अवसरों के असीमित बढ़ने के सपने दिखाए गए थे परन्तु परिणाम बिलकुल उल्टा निकला है. रोज़गार के अवसरों में बढ़ोतरी के स्थान पर कमी हुयी है. भाजपा की वर्तमान सरकार ने भी चुनाव में हर बेरोजगार को काम देने का वादा किया था परन्तु अभी तक इस दिशा में कोई भी उपलब्धि दिखाई नहीं दी है. दूसरी तरफ निजी क्षेत्र जिसे मोदी हर तरह की सुविधा/छूट दे रहे हैं, लाभ कमा  कर मालामाल हो रहा है परन्तु सरकार उन पर रोज़गार के अवसर पैदा करने के लिए कोई भी दबाव नहीं डाल रही है.
अतः यह वांछनीय है कि सभी राजनैतिक पार्टियां बेरोजगार युवाओं को आरक्षण का झुनझुना पकड़ा कर बरगलाने की जगह वर्तमान सरकार पर रोज़गार के अवसर पैदा करने का दबाव डालें. इस का सब से कारगर उपाय तो रोज़गार को मौलिक अधिकार घोषित करने का ही है जिसके लिए व्यापक जनांदोलन की ज़रुरत है.  यदि रोज़गार मौलिक अधिकार बन जाता है तो फिर सरकार को अपनी कार्पोरेट परस्त नीतियाँ बदलनी पड़ेंगी. फिर सरकार या तो सभी बेरोजगारों को रोज़गार देगी या फिर सब को बेरोज़गारी भत्ता देगी. ऐसा हो जाने पर चाहे वह भागवत हों या मायावती , किसी को भी युवाओं को आरक्षण का झुनझुना दिखा कर बरगलाने का मौका नहीं मिलेगा और न ही आरक्षण के नाम पर बेरोज़गारी से ध्यान बटाने का. रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने की मांग को लेकर गत वर्ष आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय संयोजक, अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने जंतर मंतर पर 10 दिन का अनशन किया था. इसी मुद्दे को लेकर “उत्तर प्रदेश बचाओ अभियान” के अंतर्गत 28 अक्तूबर, 2015 को गंगा प्रसाद मेमोरियल हाल, अमीनाबाद, लखनऊ में “युवा संकल्प सभा” का आयोजन किया गया है जिस में पूरे प्रदेश से भारी संख्या में युवा भाग लेंगे.     
   

200 साल का विशेषाधिकार 'उच्च जातियों' की सफलता का राज है - जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -

    200 साल का विशेषाधिकार ' उच्च जातियों ' की सफलता का राज है-  जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने किया खुलासा -   कुणाल कामरा ...